सुरपति शिर पर किरीट धारा, जिसमें मणियाँ कई हजारा।
मणि की द्युति-जल से धुलते हैं, प्रभु पद नमता सुख फलते हैं१
सम्यक्त्वादिक वसु-गुण धारे,वसु-विध विधि रिपुनाशन हारे
अनेक-सिद्धों को नमता हूँ, इष्ट-सिद्धि पाता समता हूँ॥ २॥
श्रुतसागर को पार किया है, शुचि संयम का सार लिया है।
सूरीश्वर के पद-कमलों को, शिर पर रख लूं दुख-दलनों को॥ ३
उन्मार्गी के मद-तम हरते, जिनके मुख से प्रवचन झरते।
उपाध्याय ये सुमरण करलूँ, पाप नष्ट हो सु-मरण करलूँ॥ ४॥
समदर्शन के दीपक द्वारा, सदा प्रकाशित बोध सुधारा।
साधु चरित के ध्वजा कहाते,दे-दे मुझको छाया तातैं॥ ५॥
विमल गुणालय-सिद्ध जिनों को,उपदेशक मुनि-गणी गणों को।
नमस्कार पद पंच इन्हीं से, त्रिधा नमूँ शिव मिले इसी से॥ ६॥
नमस्कार वर मन्त्र यही है, पाप नसाता देर नहीं है।
मंगल-मंगल बात सुनी है,आदिम मंगल-मात्र यही है॥ ७॥
सिद्ध शुद्ध हैं जय अरहन्ता, गणी पाठका जय ऋषि संता।
करें धरा पर मंगल साता, हमें बना दें शिव सुख धाता॥ ८॥
सिद्धों को जिनवर चन्द्रों को, गण नायक पाठक वृन्दों को।
रत्नत्रय को साधु जनों को, वन्दूं पाने उन्हीं गुणों को॥ ९॥
सुरपति चूड़ामणि-किरणों से, लालित सेवित शतों दलों से।
पाँचों परमेष्ठी के प्यारे, पादपद्म ये हमें सहारे॥१०॥
महाप्रातिहार्यों से जिनकी, शुद्ध गुणों से सुसिद्ध गण की।
अष्टमातृकाओं से गणि की, शिष्यों से उपदेशक गण की।
वसु विध योगांगों से मुनि की, करूँसदा थुति शुचि से मन की
दोहा
पंचमहागुरु भक्ति का करके कायोत्सर्ग।
आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु तव संसर्ग॥ १२॥
(ज्ञानोदय छन्द)
लोक शिखर पर सिद्ध विराजे अगणित गुणगण मण्डित हैं।
प्रातिहार्य आठों से मण्डित जिनवर पण्डित-पण्डित हैं।
पंचाचारों रत्नत्रय से शोभित हो आचार्य महा।
शिव पथ चलते और चलाते औरों को भी आर्य यहाँ॥१३॥
उपाध्याय उपदेश सदा दे चरित बोध का शिव पथ का
रत्नत्रय पालन में रत हो साधु सहारा जिनमत का।
भाव भक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को
वंदूं पूजूं अर्चन कर लूँ नमन करूँ मैं गुरुगण को॥१४॥
कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो।
वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ !॥१५॥