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निर्वाण भक्ति


admin

(ज्ञानोदय छन्द)

अतुल रहा है अचल रहा है विपुल रहा है विमल रहा।

निरा निरामय निरुपम शिवसुख मिला वीर को सबल रहा।

नर - नागेन्द्रों खगपतियों से अमरेन्द्रों से वन्दित हैं।

भूतेन्द्रों से यक्षेन्द्रों से, कुबेर से अभिनन्दित हैं॥ १॥

 

औरों का वह भाग्य कहाँ है पाँच-पाँच कल्याण गहे।

भविक जनों को तुष्टि दिलाते वर्धमान वरदान रहे।

तीन लोक के आप परम गुरु पाप मात्र से दूर रहे।

स्तवन करूँ तव भाव-भक्ति से पुण्य भाव का पूर रहे॥ २॥

 

दीर्घ दिव्य सुख-भोग भोगते पुष्पोत्तर के स्वामी हो।

आयु पूर्णकर अच्युत से च्युत हो शिवसुख परिणामी हो।

आषाढ़ी के शुक्लपक्ष की छटी छठी तिथि में उतरे।

हस्तोत्तर के मध्य शशी है नभ में तारकगण बिखरे॥ ३॥

 

विदेहनामा कुण्डपुरी है प्रतिभा - रत इस भारत में।

प्रियंकारिणी देवी त्रिशला सेवारत सिद्धारथ में।

शुभफल देने वाले सोलह स्वप्नों को तो दिया दिखा।

वैभवशाली यहाँ गर्भ में बालक आया दिया दिखा॥ ४॥

 

चैत्र मास है शुक्लपक्ष है तेरस का शुभ दिवस रहा

महावीर का धीर वीर का जनम हुआ यश बरस रहा।

तभी उत्तरा फाल्गुनि पर था शशाक का भी संग रहा।

शेष सौम्य ग्रह निज उत्तम पद गहे लग्न भी चंग रहा॥ ५॥

 

अगला दिन वह चतुर्दशी का हस्ताश्रित है सोम रहा।

उषाकाल से प्रथम याम में शान्त-शान्त भू-व्योम रहा।

पाण्डुक की शुचि मणी शिला पर बिठा वीर को इन्द्रों ने।

न्हवन कराया रत्नघटों से देखा उस को देवों ने॥ ६॥

 

तीन दशक तक कुमार रहकर अनन्त गुण से खिले हुये।

भोगों उपभोगों को भोगा देवों से जो मिले हुये।

तभी यकायक उदासीन से अनासक्त हो विषयों से।

और वीर ये सम्बोधित हो ब्रह्मलोक के ऋषियों से॥ ७॥

 

झालर झूमर मणियां लटकी झरझुर-झरझुर रूपवती।

चन्द्रप्रभा यह दिव्य पालिका रची हुई बहुकूटवती।

वीर हुये आरुढ़ इसी पर कुण्डपुरी से निकल गये।

वीतराग को राग देखता जन-जन परिजन विकल हुये॥ ८॥

 

मगशिर का यह मास रहा है और कृष्ण का पक्ष रहा।

यथा जन्म में हस्तोत्तर के मध्य शशी अध्यक्ष रहा।

दशमी का मध्याह्न काल है बेले का संकल्प किया।

वीर आप जिन बने दिगम्बर मन को चिर अविकल्प किया॥

 

ग्राम नगर में प्रतिपट्टण में पुर - गोपुर में गोकुल में।

अनियत विहार करते प्रतिदिन निर्जन जन-जन संकुल में।

द्वादश वर्षों द्वादश विध तप उग्र-उग्रतर तपते हैं।

अमर समर सब जिन्हें पूजते कष्टों में ना कँपते हैं॥ १०॥

 

ऋजुकूला सरिता के तट पर बसा जृंभिका गाँव रहा।

शिला बिछी है सहज सदी से शाल वृक्ष की छाँव जहाँ।

खड़े हुये मध्याह्न काल में दो दिन के उपवास लिए।

आत्मध्यान में लीन हुये हैं तन का ना अहसास किये॥ ११॥

 

तिथि दशमी वैशाख मास है शुक्लपक्ष का स्वागत है।

हस्तोत्तर के मध्य शशी है शान्त कान्ति से भास्वत है।

क्षपक श्रेणी पर वीर चढ़ गये निर्भय हो भव-भीत हुये।

घाति-घात कर दिव्य बोध को पाये, मृदु नवनीत हुये॥ १२॥

 

नयन मनोहर हर दिल हरते हर्षित हो प्रति अंग यहाँ।

महावीर वैभारगिरि पर लाये चउविध संघ महा।

श्रमण-श्रमणियाँ तथा श्राविका-श्रावकगण सागारों में।

गौतम गणधर प्रमुख रहे हैं ऋषि यति मुनि अनगारों में॥ १३॥

 

दुम-दुम-दुम-दुम दुंदुभि बजना दिव्यध्वनी का वह खिरना।

सुरभित सुमनावलि का गिरना चउसठ चामर का ढुरना।

तीन छत्र का सिर पर फिरना औ भामण्डल का घिरना।

स्फटिक मणी का सिंहासन सो अशोक तरु का भी तनना।

समवसरण में प्रातिहार्य का हुआ वीर को यूँ मिलना॥ १४॥

 

सागारों को ग्यारह प्रतिमाओं का है उपदेश दिया।

अनगारों को क्षमादि दशविध धर्मों का निर्देश दिया।

इस विध धर्मामृत की वर्षा करते विहार करते हैं।

तीस वर्ष तक वीर निरन्तर जग का सुधार करते हैं॥ १५॥

 

कई सरोवर परिसर जिनमें भांति-भांति के कमल खिले।

तरह-तरह के लघु गुरु तरुवर फूले महके सफल फले।

अमर रमे रमणीय मनोरम पावानगरी उपवन में।

बाह्य खड़े जिन तनूत्सर्ग में भीतर में तो चेतन में॥ १६॥

 

कार्तिक का यह मास रहा है तथा कृष्ण का पक्ष रहा।

कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि है स्वाती का तो ऋक्ष रहा।

शेष रहे थे चउकर्मों को वद्र्धमान ने नष्ट किया।

अजर अमर बन अक्षयसुख से आतम को परिपुष्ट किया॥ १७॥

 

प्राप्त किया निर्वाण दशा को वीर चले शिव-धाम गये।

ज्ञात किया बस इन्द्र उतरते धरती पर जिन नाम लिये।

धरती दुर्लभ देवदारु है स्वर्ग सुलभ लहु-चन्दन है।

कालागुरु गोशीर्ष साथ है लाये सुरभित नन्दन है॥ १८॥

 

धूप फलों से जिनवर तन का गणधर का अर्चन करके।

अनलेन्द्रों के मुकुट अनल से जला वीर तन पल भर में।

वैमानिक सुर तो स्वर्गों में ज्योतिष नभ में यानों में।

व्यंतर बिखरे निज निज वन में शेष गये बस भवनों में॥ १९॥

 

इस विध दोनों संध्याओं में तन से मन से भाषा से।

वद्र्धमान का स्तोत्र पाठ जो करते हैं बिन आशा से।

देव लोक में मनुज लोक में अनन्य दुर्लभ सुख पाते।

और अन्त में शिवपद पाते किन्तु लौटकर ना आते॥ २०॥

 

गणधर देवों श्रुतपारों के तीर्थकरों के अन्त जहाँ।

वहीं बनी निर्वाणभूमियाँ भारत सो यशवन्त रहा।

शुद्ध वचन से मन से तन से नमन उन्हें शत बार करूँ।

स्तवन उन्हीं का करुँ आज मैं बार-बार जयकार करूँ ॥ २१॥

 

प्रथम तीर्थकर महामना वे पूर्ण-शील से युक्त हुये।

शैल-शिखर कैलाश जहाँ पर कर्म-काय से मुक्त हुये।

चम्पापुर में वासुपूज्य ये परम पूज्य पद पाये हैं।

राग-रहित हो बन्ध-रहित हो अपनी धी में आये हैं ॥ २२॥

 

जिसको पाने स्वर्गों में भी देवलोक भी तरस रहे।

साधु गवेषक बने उसी के इसीलिए कट दिवस रहे।

ऊर्जयन्त गिरनारगिरि पर निज में निज को साध लिया।

अरिष्ट नेमी कर्म नष्टकर सिद्धि सुधा का स्वाद लिया॥ २३॥

 

पावापुर के बाहर आते विशाल उन्नत थान रहा।

जिसको घेरे कमल-सरोवर नन्दन-सा छविमान रहा।

यहीं पाप धो धवलिम होकर वर्धमान निर्वाण गहे।

पूजूँ वन्दूँ अर्चन करलूँ ज्ञानोदय गुणखान रहे॥ २४॥

 

मोह मल्ल को जीत लिया जो बीस तीर्थकर शेष रहे।

ज्ञान-भानु से किया प्रकाशित त्रिभुवन को अनिमेष रहे।

तीर्थराज सम्मेदाचल पर योगों का प्रतिकार किया।

असीम सुख में डूब गये फिर भवसागर का पार लिया॥ २५॥

 

विहार रोके चउदह दिन तक वृषभदेव फिर मुक्त हुये।

वर्धमान को लगे दिवस दो अयोग बनकर गुप्त हुये।

शेष तीर्थकर तनूत्सर्ग में एक मास तक शान्त रहे।

सयोगपन तज अयोगगुण पा लोकशिखर का प्रान्त गहे॥ २६॥

 

वचनमयी थुदि कुसुमों से जो मालाओं का बना-बना।

मानस-कर से दिशा दिशा में बिखरायें हम सुहावना।

इन तीर्थों की परिक्रमा भी सादर सविनय सदा करें।

यही प्रार्थना किन्तु करें हम सिद्धि मिले आपदा टरे॥ २७॥

 

पक्षपात तज कर्मपक्ष पर पाण्डव तीनों टूट पड़े।

शत्रुंजयगिरि पर शत्रुंजय बने बन्ध से छूट पड़े।

तुंगीगिरि पर अंग-रहित हो राम सदा अभिराम बने।

नदी तीर पर स्वर्णभद्र मुनि बने सिद्ध विधिकाम हने॥ २८॥

 

सिद्धकूट वैभार तुंग पर श्रमणाचल विपुलाचल में।

पावन कुण्डलगिरि पर मुक्तागिरि पर श्री विंध्याचल में।

तप के साधन द्रोणागिरि पर पौदनपुर के अंचल में।

सिंह दहाड़े सह्याचल में दुर्गम बलाहकाचल में॥ २९॥

 

गजदल टहले गजपंथा में हिम गिरता हिमगिरिवर में।

दंडात्मक पृथुसार यष्टि में पूज्य प्रतिष्ठक भूधर में।

साधु-साधना करते बनते निर्मल पंचमगति पाते।

स्थान हुये ये प्रसिद्ध-जग में करलूँ इनकी थुदि तातैं॥ ३०॥

 

पुण्य पुरुष ये जहाँ विचरते पुजती धरती माटी है।

आटे में गुड़ मिलता जैसे और मधुरता आती है॥ ३१॥

 

गणधर देवों अरहन्तों की मौनमना मुनिराजों की।

कहीं गईं निर्वाणभूमियाँ मुझसे कुछ गिरिराजों की।

विजितमना जिन शान्तमना मुनि जो हैं भय से दूर सदा।

यही प्रार्थना मेरी उनसे सद्गति दें सुख पूर सुधा॥ ३२॥

 

वृषभ वृषभ का चिन्ह अजित का गज संभव का घोट रहा।

अभिनन्दन का वानर माना और सुमति का कोक रहा।

छटे सातवें अष्टम जिन का सरोज स्वस्तिक चन्दा है।

नवम दशम ग्यारहवें जिन का मकर कल्पतरु गेंडा है॥ ३३॥

 

वासुपूज्य का भैंसा सूकर विमलनाथ का औ सेही।

अनन्त का है वज्र धर्म का शान्तिनाथ का मृगदेही।

कुन्थु अरह का अज मीना है कलश मल्लि का कूर्म रहा।

मुनिसुव्रत का नमी नेमि का नील कमल है शंख रहा।

पाश्र्वनाथ का नाग रहा है वर्धमान का सिंह रहा॥ ३४॥

 

उग्रवंश के पाश्र्वनाथ हैं नाथवंश के वीर रहे।

मुनिसुव्रत और नेमिनाथ हैं यदुवंशी हैं धीर रहे।

कुरुवंशी हैं शान्तिनाथ हैं कुन्थुनाथ अरनाथ रहे।

रहे शेष इक्ष्वाकुवंश के इन पद में मम माथ रहे॥ ३५॥

 

(दोहा)

निर्वाणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग।

आलोचन उसका करूँ ! ले प्रभु ! तव संसर्ग॥ ३६॥

 

काल बीतता चतुर्थ में जब पक्ष नवासी शेष रहे।

कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के सौ सौ श्वाँसें शेष रहे॥

भोर स्वाति की पावा में है वर्धमान शिव-धाम गये

देव चतुर्विध साथ स्वजन ले लो आते जिन नाम लिये॥ ३७॥

 

दिव्यगन्ध ले, दिव्य दीप ले, दिव्य-दिव्य ले सुमनलता।

दिव्य चूर्ण ले, दिव्य न्हवन ले, दिव्य-दिव्य ले वसन तथा।

अर्चन, पूजन, वन्दन करते, करते नियमित नमन सभी।

निर्वाणक कल्याण मनाकर करते निज घर गमन तभी॥ ३८॥

 

सिद्धभूमियों को नित मैं भी यही भाव निर्मल करके

अर्चन पूजन वन्दन करता प्रणाम करता झुक करके।

कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो।

वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥३९॥



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