? अमृत माँ जिनवाणी से - ५६ ?
"दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार"
एक दिन शान्तिसागरजी महाराज से ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नही पलता था।
प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेटकर जाते थे और आहार के समय दिगम्बर होते थे।
आहार के लिए पहले से ही उपाध्याय ( जैन पुजारी ) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे।
ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों
? अमृत माँ जिनवाणी से -१० ?
"वैभवशाली दया पात्र हैं"
दीन और दुखी जीवो पर तो सबको दया आती है । सुखी प्राणी को देखकर किसके अंतःकरण में करुणा का भाव जागेगा ?
आचार्य शान्तिसागर महाराज की दिव्य दृष्टि में धनी और वैभव वाले भी उसी प्रकार करुणा व् दया के पात्र हैं, जिस प्रकार दीन, दुखी तथा विपत्तिग्रस्त दया के पात्र हैं। एक दिन महाराज कहने लगे, "हमको संपन्न और सुखी लोगों को देखकर बड़ी दया आती है।"
मैंने पुछा, "महाराज ! सुखी जीवो पर दया भाव का
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३६ ?
*उपवास तथा महराज के विचार*
सन १९५८ के व्रतों में १०८ नेमिसागर महराज के लगभग दस हजार उपवास पूर्ण हुए थे और चौदह सौ बावन गणधर संबंधी उपवास करने की प्रतिज्ञा उन्होंने ली।
महराज ! लगभग दस हजार उपवास करने रूप अनुपम तपः साधना करने से आपके विशुद्ध ह्रदय में भारत देश का भविष्य कैसा नजर आता है?
देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल, अंनाभाव आदि के कष्टों का अनुभव कर रहा है।
महराज नेमिसागर जी ने कहा- "जब भारत
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागर जी महराज का श्रमण संस्कृति में इतना उपकार है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। उनके उपकार का निर्ग्रन्थ ही कुछ अंशों में वर्णन कर सकते हैं।
पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने श्रमण संस्कृति का मूल स्वरूप मुनि परम्परा को देशकाल में हुए उपसर्गों के उपरांत पुनः जीवंत किया था। यह बात लंबे समय से उनके जीवन चरित्र को पढ़कर हम जान रहे हैं। आज का भी प्रसंग उसी बात की पुष्टि करता है।
*? अमृत माँ जिनवाणी से- ३३५ ?*
? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३४* ?
*"घुटनों के बल पर आसान"*
नेमीसागर महराज घुटनों के बल पर खड़े होकर आसान लगाने में प्रसिद्ध रहे हैं। मैंने पूंछा- "इससे क्या लाभ होता है?" उन्होंने बताया - "इस आसान के लिए विशेष एकाग्रता लगती है। इससे मन का निरोध होता है। बिना एकाग्रता के यह आसन नहीं बनता है। इसे "गोड़ासन" कहते हैं।
इससे मन इधर उधर नहीं जाता है और कायक्लेश तप भी पलता है। दस बारह वर्ष पर्यन्त मैं वह आसन सदा करता था, अब वृद्ध शरीर हो जाने से उसे करने में कठिनता का अनु
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३३ ?
*"सर्वप्रथम ऐलक शिष्य"*
पूज्य शान्तिसागर जी महराज के सुशिष्य नेमीसागर जी महराज ने बताया कि- "आचार्य महराज जब गोकाक पहुँचे तब वहाँ मैंने और पायसागर ने एक साथ ऐलक दीक्षा महराज से ली। उस समय आचार्य महराज ने मेरे मस्तक पर पहले बीजाक्षर लिखे थे। मेरे पश्चात पायसागर के दीक्षा के संस्कार हुए थे।
*"समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा*"
"दीक्षा के दस माह बाद मैंने समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी। वहाँ आचार्य महराज ने पहले वीरसाग
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३२ ?
*पिताजी से चर्चा*
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज द्वारा उनके मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति का वृतांत ज्ञात हुआ। गृहस्थ जीवन के बारे में उन्होंने बताया कि-
"एक दिन मैंने अपने पिताजी से कुड़ची में कहा- "मैं चातुर्मास में महराज के पास जाना चाहता हूँ।"
वे बोले -"तू चातुर्मास में उनके समीप जाता है, अब क्या वापिस आएगा? "पिताजी मेरे जीवन को देख चुके थे, इससे उनका चित्त कहता था कि
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३१ ?
*परिचय*
पंडित श्री दिवाकर जी ने लिखा कि पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री १०८ नेमीसागर जी महराज महान तपस्वी हैं।
नेमीसागर जी महराज ने बताया कि "हमारा और आचार्य महराज का ५० वर्ष पर्यन्त साथ रहा। चालीस वर्ष के मुनिजीवन के पूर्व मैंने गृहस्थ अवस्था में भी उनके सत्संग का लाभ लिया था।
आचार्य महराज कोन्नूर में विराजमान थे। वे मुझसे कहते थे- "तुम शास्त्र पढ़ा करो। मैं उनका भाव लोगों को
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
कल से हमने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य महान तपस्वी नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र को जानना प्रारम्भ किया था।
आज के प्रसंग को जानकर हम सभी को ज्ञात होगा कि जीव कैसे-कैसे वातावरण से निकल कर मोक्ष मार्ग में लग सकता है।
? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३०* ?
*"पूर्व जीवन में मुस्लिम प्रभाव"*
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज का पूर्व जीवन सचमुच में आश्चर्यप्रद था।
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के जीवन चरित्र की प्रस्तुती की इस श्रृंखला में प्रस्तुत किए शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागर जी महराज के जीवन चरित्र को सभी ने बहुत ही पसंद किया तथा सभी के जीवन को प्रेरणादायी जाना।
आज से पूज्य पायसागर जी महराज की भांति आश्चर्य जनक जीवन चरित्र के धारक पूज्य नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र की कुछ प्रसंगों में प्रस्तुती की जायेगी।
*? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२९ ?*
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२८ ?
*"नवधा भक्ति का कारण"*
आचार शास्त्र पर पूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी महराज का असाधारण अधिकार था, यही कारण है कि सभी उच्च श्रेणी के विद्वान आचार शास्त्र की शंकाओं का समाधान आचार्य महराज से प्राप्त करते थे। आचार्यश्री की सेवा में रहने से अनेक महत्व की बातें ज्ञात हुआ करती थी।
शास्त्र में कथित नवधा-भक्ति के संबंध में आचार्यश्री ने कहा था-
"नवधा भक्ति अभिमान-पोषण के हेतु नहीं है। वह धर्म रक्षण के लिए है। उससे जैनी की प
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२७ ?
*शरीरविस्मृति*
सन् १९५२ के आरम्भ में पूज्य आचार्य महराज शान्तिसागर जी महराज दहीगाँव नाम के तीर्थक्षेत्र में विराजमान थे। एक दिन वहाँ के मंदिर से दूसरी जगह जाते हुए उनका पैर ठीक सीढ़ी पर न पड़ा, इसलिए वे जमीन पर गिर पड़े।
यह तो बड़े पुण्य की बात थी कि वह प्राण लेने वाली दुर्घटना एक पैर में गहरा घाव ही दे पाई। महराज के पैर में डेढ़ इंच गहरा घाव हो गया, जिसमें एक बादाम सहज ही समा सकती थी। उस स्थिति में महराज ने पैर में क
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६५ ?
*"जाप का काल"*
एक दिन मैंने (७ सितम्बर सन् १९५१ के) सुप्रभात के समय आचार्य महराज से पूंछा था- "महराज आजकल आप कितने घंटे जाप किया करते है?"
महराज ने कहा - रात को एक बजे से सात बजे तक, मध्यान्ह में तीन घंटे तथा सायंकाल में तीन घंटे जाप करते हैं।" इससे सुहृदय सुधी सोच सकता है कि इन पुण्य श्लोक महापुरुष का कार्यक्रम कितना व्यस्त रहता है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६४ ?
"आलंद में प्रभावना"
आलंद की जैन समाज ने उत्साह पूर्वक संघ का स्वागत किया। वहाँ संघ सेठ नानचंद सूरचंद के उद्यान में ठहरा था।
पहले ऐंसी कल्पना होती थी, कि कहीं संकीर्ण चित्तवाले अन्य सम्प्रदाय के लोग विघ्न उपस्थित करें, किन्तु महराज शान्तिसागर जी के तपोबल से ऐंसा अद्भुत परिणमन हुआ कि ब्राम्हण, मुसलमान, लिंगायत, हिंदु आदि सभी धर्म वाले भक्तिपूर्वक दर्शनार्थ आए और प्रसाद के रूप में पवित्र धर्मोपदेश तथा कल्या
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२३ ?
"विवेकशून्य भक्ति"
बारामती में एक धुरंधर शास्त्री आए। उन्होंने महराज के चरणों में पुष्प रख दिया। महराज ने पूंछा, "यह क्या किया?"
वे बोले- "महराज देव, गुरु, शास्त्र समान रूप से पूज्यनीय हैं। देव की पुष्प से पूजा के समान आपकी चरणपूजा की है।
महराज ने कहा ऐसा करोगे तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा, भगवान के अभिषेक के समान शास्त्र का अभिषेक नहीं किया जाता है। हर एक बात की मर्यादा होती है।"
अपने वचन के पो
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२६ ?
"पथ प्रदर्शक"
कल के प्रसंग के माध्यम से हमने जाना कि पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी महराज के प्रारंभिक जीवन में किन ग्रंथो का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा था।
दिवाकर जी जिज्ञासा पर पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने कहा, "शास्त्रों में स्वयं कल्याण नहीं है। वे तो कल्याण के पथ प्रदर्शक हैं। देखो ! सड़क पर कहीं खम्भा गड़ा रहता है, वह मार्गदर्शन कराता है। इष्ट स्थान पर जाने को तुम्हें पैर बढ़ाना होगा। वासनाओं की दासता का त
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२५ ?
"किन ग्रंथों का प्रभाव पढ़ा"
एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा, "महराज ! प्रारम्भ में कौन से शास्त्र आपको विशेष प्रिय लगते थे और किन ग्रंथो ने आपके जीवन को विशेष प्रभावित किया?
महराज ने कहा, "जब हम पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब हिन्दी में समयसार तथा आत्मानुशासन बांचा करते थे। हिन्दी रत्नकरंडश्रावकाचार की टीका भी पढ़ते थे। इससे मन को बड़ी शांत
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२४ ?
"बालकों पर प्रेम"
वीतराग की सजीव मूर्ति होते हुए आचार्यश्री में अपार वात्सल्य पाया जाता था। लगभग १९३८ के भाद्रपद की बात है। उस समय महराज ने बारामती में सेठ रामचंद्र के उद्यान में चातुर्मास किया था।
एक दिन अपरान्ह में महराज का केशलोंच हो रहा था। उनके समीप एक छोटा तीन वर्ष की अवस्था वाला स्वस्थ सुरूप तथा नग्न मुद्रा वाला बालक महराज को केशलोंच करते देखकर नकल करने वाले बंदर के समान अपने बालों को पकड़कर धीरे-२ खीचत
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५८ ?
"राजधर्म पर प्रकाश - १"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपने सम्बोधन में कहा - "राजनीति तो यह है कि राज्य भी करे तथा पुण्य भी कमावे। पूर्व में तप करने वाला राजा बनता था। दान देने वाला धनी बनता है। राज्य पर कोई आक्रमण करे तो उसको हटाने के लिए प्रति आक्रमण करना विरोधी हिंसा है, उसका त्याग गृहस्थी में नहीं बनता है, उसे अपना घर सम्हालना है और चोर से भी रक्षा करना है।
सज्जन राजा गरीबों के उद्धार का उपाय करता है। गरीब
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग से आपको ज्ञात होगा कि परम पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की चर्या के माध्यम से धीरे-२ पुनः सर्वत्र मुनिसंघ का विचरण प्रारम्भ हुआ।
वर्तमान में मुनिराजों द्वारा पू. शान्तिसागरजी महराज के निजाम राज्य प्रवेश संबंध में ज्ञात होता है कि उस समय दिगम्बरों के राज्य में विचरण में प्रतिबंघ था लेकिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रभाव से मुनिसंघ का विहार अप्रतिबंधित हुआ ही साथ ही राज्य प्रवेश में उनकी आगमानी स्वयं वहाँ के शासक ने अप
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग में केशलोंच के संबंध में पूज्यश्री द्वारा की गई विवेचना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
सामान्यतः हम लोगों को मुनिराज के केशलोंच की क्रिया देखकर ही कष्ट होने लगता है और जिज्ञासा होती है कि मुनिराज इन कष्टकारक क्रियाओं को प्रसन्नता के साथ कैसे संपादित कर लेते हैं? इस प्रसंग को जैनों को जानना ही चाहिए जैनेतर जनों तक भी यह बातें पहुँचाना चाहिए।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६२ ?
"केशलोंच पर अनुभव पूर्ण प्रकाश"
? अमृत माँ जिनवाणी से - २९३ ?
"गुरुदेव का व्यक्तित्व"
दिवाकर जी लिखते हैं कि पूज्य आचार्यश्री महराज को देखकर आँखे नहीं थकती थी। उनके दो बोल आँखों में अमृत घोल घोल देते थे। उनकी तात्विक-चर्चा अनुभूतिपूर्ण चर्चा अनुभवपूर्ण एवं मार्मिक होती थी।
वहाँ से काशी आने की इच्छा नहीं होती थी। ह्रदय में यही बात आती थी कि जब सच्चे गुरु यहाँ विराजमान हैं, तो इनके अनुभव से सच्चे तत्वों को समझ जाए। यही तो सच्चे शास्त्रों का अध्ययन है।
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज इस श्रृंखला के ३०० प्रसंग पूर्ण हुए। ग्रंथ के यशस्वी लेखक स्वर्गीय पंडित श्री सुमरेचंदजी दिवाकर का हम सभी पर महान उपकार रहा जो उनकी द्वारा लिखित ग्रंथ "चारित्र चक्रवर्ती" के माध्यम से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दिव्य जीवन को अनुभव कर पा रहे हैं।
अभी तक आचार्यश्री के अनेक जीवन प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया, लेकिन ग्रंथ के आधार पर अभी भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के अनेकों प्रसंग प्रस्तुत करना शेष है। प्रस्तुती का यह क्रम चलता रह
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२२ ?
"निवासकाल"
नीरा में जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद कापड़िया ने "दिगम्बर जैन" का 'त्याग' विशेषांक पूज्यश्री को समर्पित किया। उस समय आचार्य महराज पूना के समीपस्थ नीरा स्टेशन के पास दूर एक कुटी में विराजमान थे।
कुछ समय के बाद पूज्यश्री का आहार हुआ। पश्चात आचार्य महराज सामायिक को जा रहे थे। संपादकजी तथा संवाददाता महाशय महराज की सेवा में आये। कापढ़िया ने पूंछा- "महराज आप अभी यहाँ कब तक हैं?"
म
? अमृत माँ जिनवाणी से - २२८ ?
"अनुकम्पा"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।
जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।
बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में