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Sneh Jain

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  1. Sneh Jain
    शुभ प्रभात🙏🙏आज का सुविचार-
    आत्म चेतना ही व्यक्ति की सबसे बडी शक्ति है।
    जब हवा काम नहीं करती तब दवा काम करती है और जब दवा काम नहीं करती  तब दुआ काम करती है परन्तु जब दुआ भी काम नहीं करती तब यह जो स्वयंभुवा चेतना है काम करती है। मात्र आत्म चेतना जागृत होने पर हवा, दुआ और दवा अपने आस पास स्वयं चक्कर काटती रहती है। आत्म जागरण के अभाव में व्यक्ति इन तीनो के पीछे चक्कर काटता रहता है।
    🙏🙏मूकमाटी पृष्ठ सं 240
  2. Sneh Jain
    1. गुणवाचक विशेषण -
    जो शब्द किसी संज्ञा या सर्वनाम के गुण, दोष, दशा, रंग, आकार, स्थिति आदि का बोध कराते हैं, वे गुणवाचक विशेषण होते हैं। पुल्लिंग गुणवाचक विशेषण में 'आ' और 'ई' प्रत्यय जोडकर स्त्रीलिंग गुणवाचक विशेषण बना लिए जाते हैं। पुल्लिंग गुणवाचक विशेषण और नपुंसकलिंग गुणवाचक विशेषण समान होते हैं। जैसे -
    विशेषण शब्द
    पुल्लिंग स्त्रीलिंग सुन्दर
    सुन्दर सुन्दरा, सुन्दरी थिर
    थिरा विशाल विशाल
    विसाल विसाला विस्तारवाला
    वित्थिण्ण वित्थिण्णी अकेला
    एकल्ल एकल्ला प्यार
    पिआर पिआरी अपूर्व
    अउव्व अउव्वा चंचल
    चल चला भयंकर
    भीषण भीषणा, भीषणी पवित्र
    पवित्त पवित्ता गम्भीर
    गम्भीर गम्भीरी श्रेष्ठ
    सार, पवर सारी, पवरा धारण करनेवाला
    धार धारी आज्ञाकार
    पेसणगाार पेसणगारी, पेसणयारी धैर्यवान
    धीर धीरी दुर्लभ
    दुल्लह दुल्लहा शीतल
    सीयल सीयला गर्म
    उण्ह उण्हा उत्तम
    उत्तिम, उत्तम उत्तिमा, उत्तमा सुन्दर
    मणोहर मणोहरा, मणोहरी जन्मान्ध
    जच्चन्ध जच्चन्धा मधुर
    महुर महुरा उज्जवल
    उज्जल उज्जला तीखा
    तिक्ख तिक्खा प्रिय
    वल्लह वल्लहा सफेद
    पण्डुर पण्डुरा शून्य
    सुण्ण सुण्णा कंजूस 
    किविण किविणा, किविणी निर्मल
    णिम्मल णिम्मला विमल
    विमल विमला दुर्बल
    किस किसा मूर्ख
    मुक्ख मुक्खा काला
    कसिण कसिणा मोटा
    थूल्ल थूल्ला पूर्वी
    पुव्व पुव्वा पश्चिमी
    पच्छिम पच्छिमा उत्तरी
    उत्तर, उत्तरीय उत्तरा, उत्तरीया दक्षिणी दाहिण, दक्खिण दाहिणी, दक्खिणी, दाहिणा, दक्खिणा
     
  3. Sneh Jain
    प्रथमा विभक्ति : कर्ता कारक
    कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। कर्मवाच्य के कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।  
    द्वितीया विभक्ति : कर्म कारक
    कर्तृवाच्य के कर्म में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।   द्विकर्मक क्रियाओं के योग में मुख्य कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है तथा गौण कर्म में अपादान, अधिकरण, सम्प्रदान, सम्बन्ध आदि विभक्तियों के होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है। सभी गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है। वस क्रिया के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग हो तो क्रिया के आधार में द्वितीया विभक्ति होती है; अन्यथा कारक के अनुरूप विभक्ति का प्रयोग होता है। उभओ (दोनों ओर), सव्वओ (सब ओर), धि ( धिक्कार), समया (समीप) के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। अन्तरेण (बिना) और अन्तरा (बीच में, मध्य में) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। पडि (की ओर, की तरफ) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।  
    तृतीया विभक्ति : करण कारक 
    कर्ता के लिए अपने कार्य की सिद्धि में जो अत्यन्त सहायक होता है, वह करण कारक कहा जाता है। करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।
    भाववाच्य व कर्मवाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। कारण व्यक्त करने वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। फल प्राप्त या कार्य सिद्ध होने पर कालवाचक ओर मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। सह, सद्धिं, समं (साथ) अर्थवाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। विणा शब्द के साथ तृतीया विभक्ति होती है। तुल्य ( समान, बराबर ) का अर्थ बताने वाले शब्दों के साथ तृतीया विभक्ति होती है। (षष्ठी विभक्ति भी होती है) शरीर के विकृत अंग को बताने के लिए तृतीया विभक्ति होती है। क्रिया विशेषण शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।  
    चतुर्थी विभक्ति : सम्प्रदान कारक
    दान आदि कार्य या कोई क्रिया जिसके लिए की जाती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं। सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है।
    किसी प्रयोजन के लिए जो वस्तु या क्रिया होती है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। रुच (अच्छा लगना) अर्थ की धातुओं के साथ चतुर्थी विभक्ति होती है। कुज्झ (क्रोध करना), दोह (द्रोह करना), ईस (ईष्या करना), असूय (घृणा करना) क्रिया के योग में तथा इसके समानार्थक क्रिया के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। णमो (नमस्कार) क्रिया के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। कह (कहना) अर्थ की क्रियाओं के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।  
    पंचमी विभक्ति : अपादान कारक
    जिससे कोई वस्तु आदि अलग हो, उसे अपादान कहते हैं। अपादान में पंचमी विभक्ति होती है।
    भय अर्थवाली धातुओं के साथ अथवा भय के कारण में पंचमी विभक्ति होती है। जिससे छिपना चाहता है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जिस वस्तु से किसी को हटाया जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जिससे विद्या पढ़ी जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। दुगुच्छ (घृणा), विरम ( हटना), पमाय (भूल, असावधानी) तथा इनके समानार्थक शब्दों व धातुओं के साथ पंचमी विभक्ति होती है। उपज्ज, पभव (उत्पन्न होना) क्रिया के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जिससे किसी वस्तु की तुलना की जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। विणा के योग में पंचमी विभक्ति होती है।  
    षष्ठी विभक्ति : सम्बन्ध कारक
    एक समुदाय में से जब एक वस्तु विशिष्टता के आधार से छाँटी जाती है, तब जिसमें से छाँटी जाती है, उसमें षष्ठी व सप्तमी विभक्ति होती है।
    सम्बन्ध का बोध कराने के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है। स्मरण करना, दया करना अर्थवाली क्रिया के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।  
    सप्तमी विभक्ति : अधिकरण कारक
    किसी क्रिया के आधार को अधिकरण कहते हैं। जहाँ पर या जिसमें कोई कार्य किया जाता है, उस आधार या अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है।
    जब एक कार्य के हो जाने पर दूसरा कार्य होता है, तब हो चुके कार्य में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान में सप्तमी विभक्ति का भी प्रयोग हो जाता है। फेंकने के अर्थ की क्रियाओं के साथ सप्तमी विभक्ति होती है।  
    वाक्य रचना -
    बालओ (१/१) हसइ 
    बालक हँसता है। पुत्ती (१/१) कुल्लइ
    पुत्री कूदती है। तुम्हे (१/२) जग्गह
    तुम सब जागो। सो (१/१) हसउ
    वह हँसे महिलाहिं गीआइं (१/२) गाइज्जहिं
    महिलाओं द्वारा गीत गाए जाते हैं। बालएण गंथो (१/१) पढिज्जउ
    बालक के द्वारा ग्रंथ पढा जावे। तेण खीरु (१/१) पीबेसइ
    उसके द्वारा दूध पीया जाएगा। हउं गंथु (२/१) पढउं
    मैं पुस्तक पढता हूँ। तुहुं माया (२/१) पणमि
    तुम माता को प्रणाम करो। मायाउ पुत्तिउ (२/२) पालन्तु
    माताएँ पुत्रियों को पालें। सो गावि (२/१) दुद्ध (२/१) दुहइ
    वह गाय से (अपादान) दूध दुहता है। सो नरिंदु (२/१) धणु (२/१) मग्गइ
    वह राजा से (अपादान) धन मांगता है। सो रुक्खु (२/१) फलाइं (२/२) चुणइ
    वह वृक्ष के (सम्बन्ध) फलों को इकट्ठा करता है। सो पुत्तु (२/१) गामु (२/१) णेइ
    वह पुत्र को गाँव में (अधिकरण) ले जाता है। सो घरु (२/१) गच्छइ (गत्यार्थक)
    वह धर जाता है। सूर पयासो दिणु (२/१) पसरइ
    सूर्य का प्रकाश दिन में (सप्तमी अर्थ) फैलता है। हरि सग्गु (२/१) उववसइ, अनुवसइ, अहिवसइ
    हरि स्वर्ग में रहता है। णयरजणा णरिंदु (२/१) उभओ, सव्वओ चिट्ठहिं ।
    नागरिक राजा के दोनों ओर, सब ओर बैठते हैं। माया (२/१) विणा सिक्खा ण हवइ
    माता के बिना शिक्षा नहीं होती। जलु (२/१) विणा णरु ण जीवइ
    जल के बिना मनुष्य नहीं जीता। णाणु (२/१) अन्तरेण ण सुहु
    ज्ञान के बिना सुख नहीं है। गंगा (२/१) जउणा (२/१) य अन्तरा पयागु अत्थि
    गंगा और यमुना के बीच में प्रयाग है। माया ( २/१) पडि तुहं सणेह करहि
    माता के प्रति तुम स्नेह करो। महिला सलिलेण (३/१) वत्थाइं धोवइ
    महिला पानी से वस्त्र धोती है। माउलें (३/१) हसिज्जइ
    मामा के द्वारा हँसा जाता है। माउसीए (३/१) कहा सुणिज्जइ
    माउसी के द्वारा कथा सुनी जाती है। सो भयें (३/१) लुक्कइ
    वह डर के कारण छिपता है। तेण दसहिं ( ३/२) दिणेहिं (३/२) गंथो पढिओ 
    उसके द्वारा दस दिनों में ग्रंथ पढ़ा गया। सो मित्तेण (३/१) सह, समं गच्छइ
    वह मित्र के साथ जाता है। जलें (३/१) विणा णरु ण जीवइ
    जल के बिना मनुष्य नहीं जीता है। सो देवें (३/१) तुल्लो अत्थि
    वह देव के बराबर है। सो कण्णेणं (३/१) बहिरु अत्थि
    वह कान से बहरा है। नरिंदु सुहेण (३/१) जीवइ
    राजा सुख पूर्वक जीता है। तेणं (३/१) कालेणं (३/१) पइं काइं किउ
    उस समय में (सप्तमी) तुम्हारे द्वारा क्या किया गया? मूढे (३/१) मित्तें (३/१) किं
    मूर्ख मित्र से क्या लाभ है? को अत्थो तेण (३/१) पुत्तेण (३/१) जो ण विउसो ण धम्मिओ
    उस पुत्र से क्या प्रयोजन जो न विद्वान है, न धार्मिक। राओ णिद्धणहो (४/१) धण देइ
    राजा निर्धन के लिए धन देता है। सो धणस्सु ( ४/१) चेट्ठ इ
    वह धन के लिए प्रयत्न करता है। बालहो (४/१) खीरु आवडइ
    बालक को दूध अच्छा लगता है। लक्खणु रावणहो (४/१) कुज्झइ
    लक्ष्मण रावण पर क्रोध करता है। महिला हिंसाहे (४/१) असूसइ
    महिला हिंसा से घृणा करती है। दुज्जणु सज्जणहो (४/१) दोहइ
    दुर्जन सज्जन से द्रोह करता है। अरिहंताहं (४/२) णमो
    अरिहंतों को नमस्कार। हउं तुज्झ (४/१) कहा कउं
    मैं तुम्हारे लिए कथा कहता हूँ। तरुहे (५/१) फल पडइ
    वृक्ष से फल गिरता है। बालओ सप्पहे (५/१) डरइ
    बालक सर्प से डरता है। बालओ गुरुहे (५/१) लुक्कइ
    बालक गुरु से छिपता है। गुरु सिस्सु पावहे (५/१) रोक्कइ
    गुरु शिष्य को पाप से रोकता है। सो गुरुहे (५/१) गंथु पढइ
    वह गुरु से ग्रंथ पढता हैं। सज्जन पावहे (५/१) दुगुच्छइ
    सज्जन पाप से घृणा करता है। मुक्खु अज्झयणहे (५/१) विरमइ
    मूर्ख अध्ययन से हटता है। तुहुं भत्तिहे (५/१) मं पमायहि
    तुम भक्ति में असावधानी मत करो। खेत्तहु (५/१) धन्नु उपज्जइ
    खेत से धान उत्पन्न होता है। लोभहे (५/१) कुज्झु पभवइ
    लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है। धणहे (५/१) णाणु गुरुतर अत्थि
    धन से ज्ञान बड़ा है। रहुणन्दणहे ( ५/१) विणा सीया ण सोहइ।
    राम के बिना सीता सुशोभित नहीं होती। पुप्फहं (६/२) कमलु अईव सोहइ
    फूलों में कमलका फूल अत्यन्त शोभता है। मायाहे (६/१) पुत्तो
    माता का पुत्र। सो मायाहे (६/१) सुमरइ
    वह माता का स्मरण करता है। सो बालअहो (६/१) दयइ
    वह बालक पर दया करता है। सो तरुहि (७/१) चिट्ठइ
    वह पेड पर बैठता है। बालओ सायरे (७/१) कुल्लिओ
    बालक समुद्र में कूदा। पइं भोयणे (७/१) खाए (७/१) सो हरिसइ
    तुम्हारे द्वारा भोजन खा लेने पर वह प्रसन्न होता है। तेण गंथे (७/१) पढिए (७/१) तुहुं गाअहि
    उसके ग्रंथ पढ लेने पर तुम गाते हो। सूरे (७/१) उग्गिए (७/१) कमलु विअसइ
    सूर्य के उगने पर कमल खिलता है। हउं णयरे ( ७/१) द्वितीया के अर्थ में जाउं
    मैं नगर जाता हूँ। तहिं तीसु (७/२) (तृतीया के अर्थ में) पुहइ अंलकिया
    वहाँ उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई। सो फरसु सायरि (७/१) खिवइ
    वह फरसा समुद्र में फैकता है।  
  4. Sneh Jain
    क्रिया के अन्त में प्रत्यय लगने पर जो शब्द बनता है, वह कृदन्त कहलाता है। अपभ्रंश भाषा में प्रयुक्त होनेवाले आवश्यक कृदन्त निम्न हैं।
    1. अनियमित भूतकालिक कृदन्त
    ‘अ' या 'य' प्रत्यय के संयोग से बने भूतकालिक कृदन्तों के नियमित रूपों के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य में कुछ बने बनाये तैयार रूप में भूतकाल वाचक अनियमित भूतकालिक कृदन्त भी मिलते हैं। इनमें भूतकालिक कृदन्त का ‘अ’ या ‘य' प्रत्यय नहीं होता और न ही इसमें मूल क्रिया को प्रत्यय से अलग किया जा सकता है। नियमित भूतकालिक कृदन्त के समान इनके रूप भी पुल्लिंग में 'देव' नपुंसक लिंग में 'कमल' तथा स्त्रीलिंग में ‘कहा' के अनुरूप चलते हैं।
    अकर्मक क्रिया से बने भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य व भाववाच्य के अन्तर्गत होता है तथा सकर्मक क्रिया से बने भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्मवाच्य के अन्तर्गत होता है। गत्यार्थक अनियमित भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य व कर्मवाच्य दोनों में किया जाता है।
     
    अपभ्रंश साहित्य से प्राप्त अनियमित भूतकालिक कृदन्त
    (क) अकर्मक क्रिया से बने अनियमित भूतकालिक कृदन्त -
    मुअ
    मरा थिअ ठहरा संतुट्ठ 
    प्रसन्न हुआ नट्ठ नष्ट हुआ संपत्त
    प्राप्त हुआ रुण्ण रोया सुत्त
    सोया बद्ध बंधा भीय
    डरा विउद्ध जागा   
    (ख) गत्यार्थक क्रिया से बने अनियमित भूतकालिक कृदन्त -
    गअ/गय
    गया पत्त पहुँचा  
    (ग) सकर्मक क्रिया से बने अनियमित भूतकालिक कृदन्त -
    दिट्ट देखा गया
    खद्ध खा लिया गया णिहिय रक्खा गया
    छुद्ध डाल दिया गया वुत्त कहा गया
    किय किया गया हय मारा गया
    उक्खित्तु क्षेपण किया गया संपुण्ण पूर्ण कर दिया गया
    दिण्ण दिया गया पवन्न प्राप्त किया गया
    दड्ढ जलाया गया दुम्मिय कष्ट पहुँचाया गया
    लुअ काट दिया गया णीय ले जाया गया
    विण्णत्तु निवेदन किया गया सित्तु सींचा गया
         
    1. वाक्य रचना : कर्तृवाच्य -
    पुत्र प्रसन्न हुआ
    पुत्तो संतुट्ठो पुत्र प्रसन्न हुए
    पुत्ता संतुट्ठा नागरिक प्रसन्न हुआ
    णयरजणु संतुट्ठु  नागरिक प्रसन्न हुए
    णयरजणाइं संतुट्ठाइं माता प्रसन्न हुई
    माया संतुट्ठा माताएँ प्रसन्न हुईं
    मायाओ संतुट्ठाओ पुत्र घर गया
    पुत्तो घरु गओ पोते घर गये
    पोत्ता घर गआ माता खेत पहुँची
    माया खेत्तु पत्ता माताएँ खेत पहुँचीं
    मायाओ खेत्तु पत्ताओ इसी प्रकार अन्य भूतकालिक कृदन्त के साथ कर्तृवाच्य में प्रयोग किया जाता है।
     
    2. वाक्य रचना : भाववाच्य
    पुत्र के द्वारा प्रसन्न हुआ गया
    पुत्तेण संतुट्ठु। पुत्रों के द्वारा प्रसन्न हुआ गया
    पुत्तेहिं संतुट्ठु। नागरिक के द्वारा प्रसन्न हुआ गया
    णयरजणें संतुट्ठु। नागरिकों के द्वारा प्रसन्न हुआ गया
    णयरजणाहिं संतुट्ठु। माता के द्वारा प्रसन्न हुआ गया
    मायाए संतुट्ठु। माताओं के द्वारा प्रसन्न हुआ गया
    मायाहिं संतुट्ठु। इसी प्रकार अन्य भूतकालिक कृदन्त के साथ भाववाच्य में प्रयोग किया जाता है।
     
    3. वाक्य रचना : कर्मवाच्य
    राजा द्वारा सेनापति के लिए हाथी दिया गया।
    नरिंदेण सेणावइ हत्थि दिण्णो। मुनि द्वारा पिता के लिए आगम दिये गए।
    मुणिएं जणेरहो आगम दिण्णा। माता द्वारा पुत्री के लिए धन दिया गया।
    मायाए पुत्तीहे धणु दिण्णु। माता द्वारा पुत्री के लिए वस्त्र दिये गए।
    मायाए पुत्तीहे वत्थाइं दिण्णाइं। राजा द्वारा सेनापति के लिए मणि दी गई।
    नरिंदेण सेणावइ मणि दिण्णा। मालिक द्वारा भाई के लिए गायें दी गई।
    सामिएं भाइ धेणुओ दिण्णाओ। इसी प्रकार अन्य भूतकालिक कृदन्त के साथ कर्म वाच्य में प्रयोग किया जाता है।
     
    2. सम्बन्धक भूत कृदन्त ( पूर्वकालिक क्रिया )
    कर्त्ता जब एक क्रिया समाप्त करके दूसरी क्रिया करता है, तब पहले की गई क्रिया को प्रकट करने हेतु सम्बन्धक भूत कृदन्त का प्रयोग किया जाता है। इसमें पहले की गई एवं बाद में की गई दोनों क्रियाओं का सम्बन्ध कर्त्ता से होता है। सम्बन्धक भूत कृदन्त को अव्यय भी कहा जा सकता है। अव्यय के समान इनका भी लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार रूप परिवर्तन नहीं होता। 
    सम्बन्धक भूत कृदन्त के प्रत्यय
    उदाहरण इ
    हसि इउ
    हसिउ इवि
    हसिवि अवि
    हसवि एवि
    हसेवि एविणु
    हसेविणु एप्पि
    हसेप्पि एप्पिणु
    हसेप्पिणु  
    वाक्य रचना -
    कर्तृवाच्य, भाववाच्य, कर्मवाच्य के साथ विभिन्न कालों में
    मैं हँसकर जीता हूँ।
    हउं हसि जीवउं वह हँसकर पानी पीता है।
    सो हसिउ सलिलु पिबइ। वे परमेश्वर की पूजा कर प्रसन्न होंगे।
    ते परमेसरु अच्चिवि उल्लसेसहिं। राजा शत्रु को मारकर प्रसन्न होता है।
    णरिंदो सत्तु हणेप्पि हरिसइ। सेनापति राजा की रक्षा कर प्रसन्न होवे।
    सेणावइ गरिंदु रक्खेविणु उल्लसउ। पुत्रियाँ डरकर भागी।
    पुत्तीउ डरेविणु पलाआउ। माता पुत्र को सुलाकर सोती है।
    माया पुत्तु सयावेवि सयइ। पुत्र माँ की सेवा कर प्रसन्न होता है।
    पुत्तो माया सेवेविणु हरिसइ। साँप बालक को डसकर मारता है।
    सप्पो बालउ डंकिवि मारइ। विमान ठहरकर उडेगा।
    विमाणु ठाइउ उड्डेसइ। बालक गिरकर मुर्छित हुआ।
    बालओ पडेवि मुच्छिओ। मेरे द्वारा हँसकर जीया जाता है।
    मइं हसवि जीविज्जइ। उसके द्वारा थककर सोया जाएगा।
    तेणं थक्किवि सयिज्जइ। तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होकर नाचा जाए।
    पइं उल्लसिवि णच्चिज्जउ। बालकों द्वारा डरकर रोया गया।
    बालएहिं डरिउ रुविउ। ससुर के द्वारा थककर बैठा गया।
    ससुरें थक्किवि अच्छिउ। मामा के द्वारा झगडकर अफसोस किया जाता है।
    माउलें जगडेप्पि खिज्जिज्जइ। बालक के द्वारा गिरकर रोया जाता है।
    बालएण पडेवि रुविज्जइ। बालक के द्वारा छटपटाकर मूर्छित हुआ गया।
    बालएणं तडफडिउ मुच्छिउ। पुत्रियों द्वारा डरकर भागा गया।
    पुत्तिहिं डरिउ पलाआ। माता द्वारा पुत्र को सुलाकर सोया जाता है।
    मायाए पुत्तु सयाविवि सयिज्जइ। पुत्र द्वारा माँ की सेवा कर प्रसन्न हुआ जाता है।
    पुत्तेण माया सेवेप्पिणु हरिसियइ। पुत्र द्वारा प्रसन्न होकर माँ की सेवा की जाती है।
    पुत्तेण उल्लसिवि माया सेविज्जइ। साँप के द्वारा बालक को डसकर मारा जाता है।
    सप्पें बालउ डंकिउ हणिज्जइ। मौसी बालक को बहिन से दूध पिलवाकर सुलवाती है।
    माउसी बालउ ससाए खीरु पिबावेप्पिणु सायइ।
    3. हेत्वर्थक कृदन्त
    प्रथम क्रिया के प्रयोजनार्थ जब दूसरी क्रिया की जाती है, तब उस प्रथम क्रिया में हेत्वर्थक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है। सम्बन्धक कृदन्त के समान इन दोनों क्रियाओं का सम्बन्ध कर्त्ता से होता है। इन्हें अव्यय भी कहा जा सकता है। अव्यय के समान इनका भी लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार रूप परिवर्तन नहीं होता। हेत्वर्थक कृदन्त के चार प्रत्यय एवि, एविणु, एप्पि, एप्पिणु सम्बन्धक कृदन्त के समान हेत्वर्थक कृदन्त के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। अतः यहाँ प्रसंगानुसार अर्थ ग्रहण करना चाहिए। ।
    हेत्वर्थक कृदन्त के प्रत्यय
    उदाहरण एवं
    हसेवं अण
    हसण अणहं
    हसणहं अणहिं
    हसणहिं एवि
    हसेवि एविणु
    हसेविणु एप्पि
    हसेप्पि एप्पिणु
    हसेप्पिणु  
    वाक्य रचना -
    मैं हँसने के लिए जीता हूँ।
    हउं हसेवं जीवउं। तुम पानी पीने के लिए घर जावो।
    तुहुं सलिलु पिबण घरु गच्छि। वह प्रसन्न होने के लिए परमेश्वर की पूजा करेगा।
    सो उल्लसणहं परमेसरु अच्चेसइ। राजा शत्रु को मारने के लिए लडेगा।
    नरिंदो सत्तु हणेवं जुज्झेसइ। सेनापति राजा की रक्षा करवाने के लिए प्रयास करेगा।
    सेणावइ णरिंदु रक्खावणहं उज्जमेसइ। तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होने के लिए नाचा जाए।
    पइं हरिसणहिं णच्चिज्जउ। दादा के द्वारा सोने के लिए प्रयास किया गया।
    पिआमहेण सयेप्पि उज्जमिउ। पुत्रियाँ खेलने के लिए खुश होवेंगी।
    सुयाउ खेलेवं उल्लसेसहिं। माता द्वारा सोने के लिए पुत्र को सुलाया जाता है।
    मायाए सयेवं पुत्तो सयाविज्जइ। पुत्र द्वारा प्रसन्न होने के लिए माँ की सेवा की गई।
    पुत्तेण उल्लसेवं माया सेविआ। तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होने के लिए जीया जाना चाहिए।
    पइं हरिसेवं जीविअव्वु। मौसी द्वारा बालक को सुलवाने के लिए बहिन से दूध पिलवाया जाता है।
    माउसीए बालउ सयावणहिं ससाए खीरु पिबाविज्जइ।  
    4. वर्तमान कृदन्त
    कर्त्ता एक क्रिया को करता हुआ जब दूसरी क्रिया करता है, तब प्रथम क्रिया में (जो करते हुए अर्थ से युक्त है) वर्तमान कृदन्त का प्रयोग होता है। क्रिया में न्त और माण प्रत्यय लगाकर वर्तमान कृदन्त बनाये जाते हैं। ये वर्तमान कृदन्त विशेषण होते हैं। अतः इनके रूप भी
    कर्त्ता (विशेष्य) के अनुसार चलते हैं। कर्त्ता पुल्लिंग, नपुंसक लिंग अथवा स्त्रीलिंग में से जो भी होगा उसी के अनुरूप वर्तमान कृदन्त के रूप चलेंगे। इन कृदन्तों के रूप पुल्लिंग में देव के समान, नपुंसक लिंग में कमल के समान तथा स्त्रीलिंग में कहा के अनुरूप चलेंगे। कृदन्त में ‘आ' प्रत्यय जोडकर आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द भी बनाया जाता है।
    वर्तमान कृदन्त के प्रत्यय
    उदाहरण न्त / माण
    हसन्त/हसमाण  
    जग्गन्त/जग्गमाण  
    सयन्त/सयमाण  
    लुक्कन्त/लुक्कमाण  
    जीवन्त/जीवमाण  
    णच्चन्त/ णच्चमाण  
    वाक्य रचना -
    मैं हँसता हुआ जीता हूँ।
    हउं हसन्तो जीवउं। हम सब हँसते हुए जीते हैं।
    अम्हे हसमाणा जीवहुं। माता सोते हुए पुत्र को जगाती है।
    माया सयन्तु पुत्तु जग्गावइ । क्रीड़ा करते हुए बालक के द्वारा वस्तुएँ नष्ट की गईं।
    कीलन्तेण बालएण वत्थूइं नस्सिआइं। प्रवेश करते हुए बालक के लिए गीत गाया जाता है।
    पइसन्तहो बालहो गाणु गाइज्जइ। आते हुए मुझसे तुमको नहीं डरना चाहिए।
    आगच्छन्तहो मज्झु पइं ण डरिअव्व। क्या मैं जलती हुई आग में प्रवेश करूँ।
    किं हउं वलन्ते हुआसणे पइसरमु । पृथ्वी का पालन करते हुए सगर के साठ हजार पुत्र हुए।
    पिहिमिहे पालन्तहो सायरहो सट्ठिसहास पुत्ता हुआ।  
  5. Sneh Jain
    अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में '0' और 'आवि' प्रत्यय लगाकर प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के पश्चात् इन प्रेरणार्थक क्रियाओं का कर्मवाच्य में प्रयोग किया जाता है। '0' प्रत्यय लगाने पर क्रिया के उपान्त्य 'अ' का आ हो जाता है। जैसे -
    0
    हस - 0 = हास
    हँसाना कर - 0 = कार
    कराना पढ - 0 = पाढ
    पढाना भिड - 0 = भिड
    भिडाना रूस - 0 = रूस
    रुसाना लुक्क -0 = लुक्क
    छिपाना ठा - 0 = ठा
    ठहराना आवि
    हस - आवि = हसावि
    हँसाना कर - आवि = करावि
    कराना पढ -- आवि = पढावि
    पढाना भिड -- आवि - भिडावि
    भिडाना रूस – आवि = रूसावि
    रुसाना लुक्क - आवि = लुक्कावि
    छिपाना ठा - आवि = ठाआवि
    ठहराना  
    प्रेरणार्थक क्रिया से कर्मवाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है तथा कर्म जो द्वितीया में रहता है, वह प्रथमा में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् प्रेरणार्थक क्रिया में कर्मवाच्य के इज्ज और इय प्रत्यय लगाकर प्रथमा में परिवर्तित कर्म के पुरुष व वचन के अनुसार सम्बन्धित काल के प्रत्यय और जोड दिए जाते हैं। प्रेरणार्थक क्रिया से कर्मवाच्य वर्तमानकाल, विधि एवं आज्ञा तथा भविष्यत्काल में बनाया जाता है। भविष्यकाल में क्रिया का भविष्यत्काल कर्तृवाच्य का रूप ही रहता है।
    प्रेरणार्थक क्रिया से बने भूतकालिक कृदन्त से कर्मवाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति रहती है तथा कर्म जो द्वितीया विभक्ति में रहता है, वह प्रथमा में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् भूतकालिक कृदन्त के रूप प्रथमा में परिवर्तित कर्म के लिंग व वचन के अनुसार चलते हैं। इन कृदन्तों के रूप पुल्लिंग में 'देव' के समान, नपुंसक लिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में ‘कहा' के अनुसार चलते हैं। कृदन्त में 'आ' प्रत्यय जोडकर आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द भी बनाया जा सकता है।
    पढाया जाना चाहिए, रक्षा करवाई जानी चाहिए आदि प्रेरणार्थक भावों को व्यक्त करने के लिए विधिकृदन्त का प्रयोग भी कर्मवाच्य में किया जाता है। विधिकृदन्त बनाने के लिए क्रिया में दो प्रकार के प्रत्यय लगाए जाते हैं - १ अव्व (परिवर्तनीय रूप) २. इएव्वउं, एव्वउं, एवा (अपरिवर्तनीय रूप)।
    ‘अव्व' विधिकृदन्त का कर्मवाच्य में प्रयोग करने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति रहती है तथा कर्म जो द्वितीया विभक्ति में रहता है, वह प्रथमा में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् ‘अव्व' विधिकृदन्त के रूप प्रथमा में परिवर्तित कर्म के लिंग व वचन के अनुसार चलते हैं। ये रूप पुल्लिंग में 'देव' के समान, नपुंसक लिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में ‘कहा' के अनुसार चलेंगे। इएव्वउं, एव्वउं, एवा विधिकृदन्त का कर्मवाच्य में प्रयोग करने के लिए कर्त्ता में तृतीया तथा कर्म में प्रथमा विभक्ति होगी; किन्तु कृदन्त में कोई रूप परिवर्तन नहीं होगा, वह यथावत रहेगा।
     
    1. वाक्य रचना : विभिन्न कालों में
    मेरे द्वारा तुम हँसाये जाते हो।
    मइं तुहुं हसाविज्जहि। तुम्हारे द्वारा मैं हँसाया जाता हूँ।
    पइं हउं हासिज्जउं। हम सबके द्वारा वह हँसाया जाता है।
    अम्हेहिं सो हसावियइ। उसके द्वारा अपयश फैलाया जाता है।
    तेण दुज्जसो पसराविज्जइ। तुम सबके द्वारा वे सब छिपाये जावें।
    तुम्हेहिं ते लुक्किज्जन्तु। तुम्हारे द्वारा वह हँसाया जावे।
    पइं सो हासिज्जउ। उसके द्वारा अपयश न फैलाया जावे।
    तेण दुज्जसो न पसराविज्जउ। मेरे द्वारा तुम हँसाये जाओगे।
    मइं तुहुं हसावेसहि। उसके द्वारा अपयश फैलाया जावेगा।
    तेण दुज्जसो पसरावेसइ। मेरे द्वारा वह छिपाया जावेगा।
    मइं सो लुक्कावेसइ। मेरे द्वारा तुमको पुस्तक पढाई जाती है।
    मइं पइं गंथो पढाविज्जइ। तुम्हारे द्वारा मुझको पुस्तक पढाई जावे।
    पइं मइं गंथो पाढिज्जउ। मेरे द्वारा उसको पुस्तक पढाई जाएगी।
    मइं तं गंथो पढावेसइ। दादी के द्वारा पोते को गीत सुनाया जाता है।
    पिआमहीए पोत्तु गाणु सुणाविज्जइ। दादी के द्वारा पोते को गीत सुनाया जावे।
    पिआमहीए पोत्तु गीउ सुणाविज्जउ। दादी के द्वारा पोते को गीत सुनाया जाएगा।
    पिआमहीए पोत्तु गीउ सुणावेसइ। मेरे द्वारा तुम हँसाये गए।
    मइं तुहुं हसाविओ। तुम्हारे द्वारा मैं हँसाया गया।
    पइं हउं हासिओ। हम सबके द्वारा वह हँसाया गया।
    अम्हेहिं सो हसाविओ। उसके द्वारा अपयश फैलाया गया।
    तेण दुज्जसो पसराविओ। तुम सबके द्वारा वे सब छिपाये गये।
    तुम्हेहिं ते लुक्काविआ। माता के द्वारा पुत्री जगाई गई।
    मायाए सुया जग्गाविआ। माता के द्वारा पुत्रियाँ जगाई गईं।
    मायाए सुयाओ जग्गाविआओ। राजा के द्वारा नागरिक डराया गया।
    नरिंदेण णयरजणु डराविउ। राजा के द्वारा नागरिक डराये गये।
    नरिंदेण णयरजणाइं डराविआइं। मेरे द्वारा तुमको पुस्तक पढाई गई।
    मइं पइं गंथो पढाविओ। तुम्हारे द्वारा मुझको पुस्तकें पढाई गईं।
    पइं मइं गंथा पढाविआ। मेरे द्वारा उसको भोजन कराया गया।
    मइं तं भोयणु कराविउ। दादी के द्वारा पोते को गीत सुनाए गए।
    पिआमहीए पोत्तु गाणाइं सुणाविआइं। दादी के द्वारा पोते को कथा सुनाई गई।
    पिआमहीए पोत्तु कहा सुणाविआ। दादी के द्वारा पोते को कथाएँ सुनाई गईं।
    पिआमहिए पोतु कहाउ सुणाविआउ।  
    2. वाक्य रचना : विधिकृदन्त में
    मेरे द्वारा तुमको हँसाया जाना चाहिए।
    मइं तुहुं हसाविअव्वो। तुम्हारे द्वारा मुझको हँसाया जाना चाहिए।
    पइं हउं हासिअव्वो। हम सबके द्वारा वह हँसाया जाना चाहिए।
    अम्हेहिं सो हसाविएव्वउं। उसके द्वारा अपयश फैलाया जाना चाहिए।
    तेण दुज्जसो पसराविअव्वो। तुम सबके द्वारा वे सब छिपाये जाने चाहिए।
    तुम्हेहिं ते लुक्काविअव्वा। माता के द्वारा पुत्री जगाई जानी चाहिए।
    मायाए सुया जग्गाविअव्वा। माता के द्वारा पुत्रियाँ जगाई जानी चाहिए।
    मायाए सुयाओ जग्गाविअव्वाओ। राजा के द्वारा नागरिक डराया जाना चाहिए।
    नरिंदेण णयरजणु डराविअव्वु। राजा के द्वारा नागरिक डराये जाने चाहिए।
    नरिंदेण णयरजणाइं डराविअव्वाइं। मेरे द्वारा तुमको पुस्तक पढाई जानी चाहिए।
    मइं पइं गंथो पढाविअव्वो। तुम्हारे द्वारा मुझको पुस्तकें पढाई जानी चाहिए।
    पइं मइं गंथा पढाविअव्वा। मेरे द्वारा उसको भोजन कराया जाना चाहिए।
    मइं तं भोयणु कराविअव्वु। दादी के द्वारा पोते को गीत सुनाए जाने चाहिए।
    पिआमहीए पोतु गाणाइं सुणाविअव्वाइं। दादी के द्वारा पोते को कथा सुनाई जानी चाहिए।
    पिआमहीए पोत्तु कहा सुणाविअव्वा। दादी के द्वारा पोते को कथाएँ सुनाई जानी चाहिए।
    पिआमहिए पोत्तु कहाउ सुणाविअव्वाउ।  
  6. Sneh Jain
    कर्मवाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है तथा जो कर्म द्वितीया में रहता है, वह प्रथमा में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् सकर्मक क्रिया में कर्मवाच्य के इज्ज और इय प्रत्यय लगाकर प्रथमा में परिवर्तित कर्म के पुरुष व वचन के अनुसार ही सम्बन्धित काल के प्रत्यय और जोड दिए जाते हैं। क्रिया से कर्मवाच्य वर्तमानकाल, विधि एवं आज्ञा तथा भविष्यत्काल में बनाया जाता है। भविष्यकाल में क्रिया का रूप भविष्यत्काल कर्तृवाच्य जैसा ही रहता है।
    भूतकाल मे भूतकालिक कृदन्त से कर्मवाच्य बनाने पर कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति रहती हैं तथा कर्म जो द्वितीया विभक्ति में रहता है, वह प्रथमा में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् भूतकालिक कृदन्त के रूप प्रथमा में परिवर्तित कर्म के लिंग व वचन के अनुसार चलते हैं। इन कृदन्तों के रूप पुल्लिंग में 'देव' के समान, नपु. लिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में ‘कहा' के अनुसार चलते हैं। कृदन्त में 'आ' प्रत्यय जोडकर आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द भी बनाया जा सकता है।
    पढा जाना चाहिए, रक्षा की जानी चाहिए आदि भावों को व्यक्त करने के लिए विधिकृदन्त का प्रयोग भी कर्मवाच्य में किया जाता है। विधिकृदन्त बनाने के लिए क्रिया में दो प्रकार के प्रत्यय लगाए जाते हैं - १ अव्व (परिवर्तनीय रूप) २. इएव्वउं, एव्वउं, एवा (अपरिवर्तनीय रूप)। ‘अव्व' विधिकृदन्त का कर्मवाच्य में प्रयोग करने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति रहती है तथा कर्म जो द्वितीया विभक्ति में रहता है, वह प्रथमा में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् अव्व विधिकृदन्त के रूप प्रथमा में परिवर्तित कर्म के लिंग व वचन के अनुसार चलते हैं। ये रूप पुल्लिंग में 'देव' के समान, नपु. लिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में ‘कहा' के अनुसार चलेंगे। विधिकृदन्त के इएव्वउं, एव्वउं, एवा प्रत्ययों का कर्मवाच्य में प्रयोग करने पर कर्त्ता में तृतीया तथा कर्म में प्रथमा विभक्ति होगी; किन्तु कृदन्त में कोई रूप परिवर्तन नहीं होगा। ये यथावत रहेंगे।
     
    (क) वाक्य रचना : वर्तमानकाल
    मेरे द्वारा पुस्तक पढी जाती है।
    मइं गंथु पढिज्जइ। हम सबके द्वारा पुस्तकें पढी जाती हैं।
    अम्हेहिं गंथा पढिज्जहिं। तुम्हारे द्वारा मैं देखा जाता हूँ।
    पइं हउं पेच्छिज्जउं। तुम सबके द्वारा हम सब देखे जाते हैं।
    तुम्हेहिं अम्हइं पेच्छिज्जहुं। उसके द्वारा वह देखा जाता है।
    तेण सो देखिज्जइ। उन सबके द्वारा वे सब देखे जाते हैं।
    तहिं ते देखिज्जन्ति। माता के द्वारा कथा कही जाती है।
    मायाए कहा कहिज्जइ। माताओं के द्वारा कथाएँ कही जाती हैं।
    मायाहिं कहाओ कहिज्जन्ति। पिता के द्वारा बालक को बुलाया जाता है।
    जणेरें बालओ कोकिज्जइ। पिता के द्वारा बालकों को बुलाया जाता है।
    जणेरें बालआ कोकिज्जन्ति।  
    (ख) वाक्य रचना : विधि एवं आज्ञा
    मेरे द्वारा पुस्तक पढी जाए।
    मइं गंथु पढिज्जउ। हम सबके द्वारा पुस्तकें पढी जाएँ।
    अम्हेहिं गंथा पढिज्जन्तु। तुम्हारे द्वारा मैं देखा जाउँ।
    पइं हउं पेच्छिज्जमु । तुम सबके द्वारा हम सब देखे जाएँ।
    तुम्हेहिं अम्हइं पेच्छिज्जमो। उसके द्वारा वह देखा जाए।
    तेण सो देखिज्जउ। उन सबके द्वारा वे सब देखे जाएँ।
    तहिं ते देखिज्जन्तु। माता के द्वारा कथा कही जाए।
    मायाए कहा कहिज्जउ। माताओं के द्वारा कथाएँ कही जाएँ।
    मायाहिं कहाओ कहिज्जन्तु। पिता के द्वारा बालक बुलाया जाए।
    जणेरें बालओ कोकिज्जउ। पिता के द्वारा बालक बुलाए जावें।
    जणेरें बालआ कोकिज्जन्तु।  
    (ग) वाक्य रचना : भविष्यत्काल
    मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ी जाएगी।
    मइं गंथु पढेसइ। हम सबके द्वारा पुस्तकें पढी जाएँगी।
    अम्हेहिं गंथा पढेसन्ति। तुम्हारे द्वारा मैं देखा जाउँगा।
    पइं हउं पेच्छेसउं। तुम सबके द्वारा हम सब देखे जाएँगे।
    तुम्हेहिं अम्हइं पेच्छिहिंहुं। उसके द्वारा वह देखा जाएगा।
    तेण सो देखिहिइ। उन सबके द्वारा वे सब देखे जाएँगे।
    तहिं ते देखिहिन्ति। माता के द्वारा कथा कही जाएगी।
    मायाए कहा कहेसइ। माताओं के द्वारा कथाएँ कही जाएँगी।
    मायाहिं कहाओ कहेसन्ति। पिता के द्वारा बालक बुलाया जाएगा।
    जणेरें बालओ कोकेसइ। पिता के द्वारा बालक बुलाए जावेंगे।
    जणेरें बालआ कोकेसहिं।  
    (घ) वाक्य रचना : भूतकाल
    मेरे द्वारा पुस्तक पढी गई।
    मइं गंथु पढिओ। हम सबके द्वारा पुस्तकें पढी गईं।
    अम्हेहिं गंथा पढिआ। तुम्हारे द्वारा मैं देखा गया।
    पइं हउं पेच्छिओ। तुम सबके द्वारा हम सब देखे गएँ।
    तुम्हेहिं अम्हइं पेच्छिआ। उसके द्वारा वह देखा गया।
    तेण सो देखिओ। उन सबके द्वारा वे सब देखे गएँ।
    तहिं ते देखिआ। माता के द्वारा कथा कही गई।
    मायाए कहा कहिआ। माताओं के द्वारा कथाएँ कही गईं।
    मायाहिं कहाओ कहिआओ। पिता के द्वारा बालक बुलाया गया।
    जणेरें बालओ कोकिओ। पिता के द्वारा बालक बुलाए गऐ।
    जणेरें बालआ कोकिआ।  
    (ङ) वाक्य रचना : विधिकृदन्त
    मेरे द्वारा पुस्तक पढी जानी चाहिए।
    मइं गंथु पढिअव्वो। हम सबके द्वारा पुस्तकें पढी जानी चाहिएँ।
    अम्हेहिं गंथा पढिअव्वा। तुम्हारे द्वारा मुझको देखा जाना चाहिए।
    पइं हउं पेच्छिअव्वो। तुम सबके द्वारा हम सब देखे जाने चाहिएँ।
    तुम्हेहिं अम्हइं पेच्छिअव्वा। उसके द्वारा वह देखा जाना चाहिए।
    तेण सो देखिएव्वउं। उन सबके द्वारा वे सब देखे जाने चाहिएँ।
    तहिं ते देखेव्वउं। माता के द्वारा कथा कही जानी चाहिए।
    मायाए कहा कहिअव्वा। माताओं द्वारा कथाएँ कही जानी चाहिएँ।
    मायाहिं कहाओ कहिअव्वाओ। पिता के द्वारा बालक बुलाया जाना चाहिए।
    जणेरें बालओ कोकिअव्वो। पिता के द्वारा बालक बुलाए जाने चाहिएँ।
    जणेरें बालआ कोकेवा।  
    (च) अनियमित कर्मवाच्य
    क्रिया में ‘इज्ज’ और ‘इय' प्रत्यय के संयोग से बने कर्मवाच्य के नियमित क्रिया रूपों के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य में कुछ बने बनाये कर्मवाच्य के अनियमित क्रिया रूप भी मिलते हैं। इनमें कर्मवाच्य के ‘इज्ज’ और ‘इय’ प्रत्यय लगे हुए नहीं होते और न ही इसमें मूल क्रिया को प्रत्यय से अलग करके देखा जा सकता है। मात्र इनमें काल, पुरुष और वचन के प्रत्यय लगे होते हैं।
    अपभ्रंश साहित्य से प्राप्त अनियमित कर्मवाच्य के क्रिया रूप
    वर्तमानकाल अन्यपुरुष एकवचन
    आढप्पइ
    आरम्भ किया जाता है। घेप्पइ
    ग्रहण किया जाता है। गम्मइ
    जाया जाता है। चिव्वइ
    इकट्ठा किया जाता है। जिव्वइ
    जीता जाता है। णज्जइ
    जाना जाता है। थुव्वइ
    स्तुति की जाती है। बज्झइ
    बांधा जाता है। पुव्वइ
    पवित्र किया जाता है। भुज्जइ
    भोगा जाता है। रुव्वइ
    रोया जाता है। लुच्चइ
    काटा जाता है। लिब्भइ
    चाटा जाता है। विलिप्पइ
    लीपा जाता है। सीसइ
    कहा जाता है। सुव्वइ
    सुना जाता है। हम्मइ
    मारा जाता है। खम्मइ
    खोदा जाता है। कीरइ
    किया जाता है। चिम्मइ
    इकट्ठा किया जाता है। छिप्पइ
    छुआ जाता है। डज्झइ
    जलाया जाता है। णव्वइ
    जाना जाता है। दीसइ
    देखा जाता है। दुब्भइ
    दूहा जाता है। भण्णइ
    कहा जाता है।  रुब्भइ
    रोका जाता है। लब्भइ
    प्राप्त किया जाता है। लुव्वइ
    काटा जाता है। वुच्चइ
    कहा जाता है। विढप्पइ
    अर्जित किया जाता है। संप्पज्जइ
    प्राप्त किया जाता है। सिप्पइ
    सींचा जाता है। हीरइ
    हरण किया जाता है।  
    वर्तमानकाल मध्यमपुरुष एकवचन
    थुव्वहि
    स्तुति किए जाते हो धुव्वहि
    पंखा किए जाते हो सुव्वहि
    सुने जाते हो। दीसहि
    दिखाई देते हो।  
    वाक्य रचना -
    मेरे द्वारा स्तुति प्रारम्भ की जाती है।
    मइं थुइ आढप्पइ। सेनापति के द्वारा शत्रु मारा जाता है।
    सेणावइएं सत्तु हम्मइ। महिला के द्वारा व्रत किया जाता है।
    महिलाए वयो कीरइ। साधु द्वारा कथा कही जाती है।
    साहुएं कहा सीसइ। पुत्री के द्वारा वृक्ष सींचा जाता है।
    पुत्तीए तरु सिप्पइ। माता के द्वारा घर पवित्र किया जाता है।
    मायाए घरु पुव्वइ। राजा के द्वारा तुम सुने जाते हो।
    नरिंदेण तुहं सुव्वहि। बालक के द्वारा मधु चाटा जाता है।
    बालएण महु लिब्भइ। उसके द्वारा गाय बांधी जाती है।
    तेण धेणु बज्झइ। बालक द्वारा शिक्षा ग्रहण की जाती है।
    बालएणं सिक्खा घेप्पइ। इसी प्रकार सकर्मक क्रियाओं से बने अन्य अनियमित कर्मवाच्य के क्रिया रूपों का प्रयोग किया जाता है।
  7. Sneh Jain
    भाववाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है तथा अकर्मक क्रिया में 'इज्ज' ‘इय' प्रत्यय जोड़े जाते हैं। इसके पश्चात् सम्बन्धित काल के ‘अन्यपुरुष एकवचन' के प्रत्यय भी लगा दिये जाते हैं। क्रिया से भाववाच्य वर्तमानकाल, विधि एवं आज्ञा तथा भविष्यकाल में बनाया जाता है। भविष्यकाल में क्रिया का भविष्यत्काल कर्तृवाच्य का रूप ही रहता है।
    भूतकाल में भूतकालिक कृदन्त से भाववाच्य बनाने पर कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है; किन्तु कृदन्त सदैव नपुंसकलिंग प्रथमा एकवचन में ही रहता है।
    हँसा जाना चाहिए, सोया जाना चाहिए आदि भावों को व्यक्त करने के लिए विधिकृदन्त का प्रयोग भी भाववाच्य में किया जाता है। विधिकृदन्त बनाने के लिए क्रिया में दो प्रकार के प्रत्यय लगाए जाते हैं। १. अव्व (परिवर्तनीय रूप) २. इएव्वउं, एव्वउं, एवा (अपरिवर्तनीय रूप)। ‘अव्व' विधिकृदन्त का भाववाच्य में प्रयोग करने पर कर्त्ता में तृतीया विभक्ति होती है तथा कृदन्त के रूप सदैव नपुंसक लिंग एक वचन (कमल के समान) चलेंगे। इएव्वउं, एव्वउं, एवा विधिकृदन्त का भाववाच्य में प्रयोग करने के लिए कर्त्ता में तृतीया विभक्ति होगी; किन्तु कृदन्त में कोई परिवर्तन नहीं होगा। ये यथावत रहेंगे।
     
    क. वाक्य रचना : वर्तमानकाल
    मेरे द्वारा हँसा जाता है।
    मइं हसिज्जइ/हसियइ/हसिज्जए/ हसियए। हम सबके द्वारा हँसा जाता है।
    अम्हेहिं हसिज्जइ/हसियइ। तुम्हारे द्वारा हँसा जाता है।
    पइं, तइं हसिज्जइ/हसियइ। तुम सबके द्वारा हँसा जाता है।
    तुम्हेहिं हसिज्जइ/हसियइ। उसके द्वारा हँसा जाता है।
    तें, तेण, तेणं हसिज्जइ/हसियइं। उन सबके द्वारा हँसा जाता है।
    तहिं, ताहिं, तेहिं हसिज्जइ/हसियइ। पुत्र के द्वारा हँसा जाता है।
    पुत्तें, पुत्तेण, पुत्तेणं हसिज्जइ/हसियइ। माता के द्वारा हँसा जाता है।
    मायाए हसिज्जइ, हसिज्जए।  
    ख. वाक्य रचना : विधि एवं आज्ञा
    मेरे द्वारा हँसा जाए।
    मइं हसिज्जउ/हसियउ। हम सबके द्वारा हँसा जाए।
    अम्हेहिं हसिज्जउ/ हसियउ। तुम्हारे द्वारा हँसा जाए।
    पइं, तइं हसिज्जउ/हसियउ। तुम सबके द्वारा हँसा जाए।
    तुम्हेहिं हसिज्जउ/ हसियउ। उसके द्वारा हँसा जाए।
    तें, तेण, तेणं हसिज्जउ/ हसियउ। उन सबके द्वारा हँसा जाए।
    तहिं, ताहिं, तेहिं हसिज्जड/हसियउ। पुत्र के द्वारा हँसा जाए।
    पुत्तें, पुत्तेण, पुत्तेणं हसिज्जउ/हसियउ। माता के द्वारा हँसा जाए।
    मायाए हसिज्जउ/हसियउ। पुत्रों के द्वारा हँसा जाए।
    पुत्तेहिं हसिज्जउ/ हसियउ।  
    ग. वाक्य रचना : भविष्यत्काल
    मेरे द्वारा हँसा जाएगा।
    मइं हसेसइ/हसेसए/हसिहिइ/हसिहिए। हम सबके द्वारा हँसा जाएगा।
    अम्हेहिं हसेसइ/हसेसए/ हसिहिइ/हसिहिए। तुम्हारे द्वारा हँसा जाएगा।
    पइं, तइं हसेसइ/हसेसए/हसिहिइ/हसिहिए। तुम सबके द्वारा हँसा जाएगा।
    तुम्हेहिं हसेसइ/हसेसए/हसिहिइ/हसिहिए। उसके द्वारा हँसा जाएगा।
    तेण हसेसइ/हसेसए/हसिहिइ/हसिहिए। उन सबके द्वारा हँसा जाएगा।
    तहिं, ताहिं, तेहिं हसेसइ/हसेसए। पुत्र के द्वारा हँसा जाएगा।
    पुत्तें, पुत्तेण, पुत्तेणं हसेसइ/हसेसए। माता के द्वारा हँसा जाएगा।
    मायाए हसेसइ/हसेसए/ हसिहिइ/हसिहिए। पुत्रों के द्वारा हँसा जाएगा।
    पुत्तेहिं हसेसइ/हसेसए/ हसिहिइ/हसिहिए। माताओं के द्वारा हँसा जाएगा।
    मायाहिं हसेसइ/हसेसए / हसिहिइ/हसिहिए।  
    घ. वाक्य रचना : भूतकाल
    मेरे द्वारा हँसा गया।
    मइं हसिअ/ हसिआ/हसिउ। हम सबके द्वारा हँसा गया।
    अम्हेहिं हसिअ/ हसिआ/ हसिउ। तुम्हारे द्वारा हँसा गया।
    पइं, तइं हसिअ/हसिआ/ हसिउ। तुम सबके द्वारा हँसा गया।
    तुम्हेहिं हसिअ/हसिआ/ हसिउ। उसके द्वारा हँसा गया।
    तेणं हसिअ/हसिआ/ हसिउ। उन सब के द्वारा हँसा गया।
    तहिं, ताहिं, तेहिं हसिअ/ हसिआ/हसिउ। पुत्र के द्वारा हँसा गया।
    पुत्तें, पुत्तेण, पुत्तेणं हसिअ/हसिआ/ हसिउ। माता के द्वारा हँसा गया।
    मायाए हसिअ/ हसिआ/ हसिउ। पुत्रों के द्वारा हँसा गया।
    पुत्तेहिं हसिअ/ हसिआ/ हसिउ। माताओं के द्वारा हँसा गया।
    मायाहिं हसिअ/हसिआ/ हसिउ।  
    ङ वाक्य रचना : विधिकृदन्त
    मेरे द्वारा हँसा जाना चाहिए। मइं हसिअव्व/हसिअव्वा/हसिअव्वु/हसेअव्व/हसेअव्वा/ हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/हसेवा।
    हमारे द्वारा हँसा जाना चाहिए। अम्हेहिं हसिअव्व/हसिअव्वा/हसिअव्वु/हुसेअव्व/हसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/हुसेवा।
    तुम्हारे द्वारा हँसा जाना चाहिए। पइं हसिअव्व/हसिअव्वा/ हसिअव्वु /हुसेअव्व/हसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/सेवा।
    तुम सबके द्वारा हँसा जाना चाहिए। तुम्हेहिं हसिअव्व/हसिअव्वा/ हसिअव्वु/हसेअव्व/हसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/ हसेवा।
    उसके द्वारा हँसा जाना चाहिए। तेणं हसिअव्व/हसिअव्वा/हसिअव्वु/हसेअव्व/हसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/हसेवा।
    उन सबके द्वारा हँसा जाना चाहिए। तेहिं हसिअव्व/हसिअव्वा/ हसिअव्वु/हसेअव्व/हुसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/ हसेवा।
    पुत्र के द्वारा हँसा जाना चाहिए। पुत्तेणं हसिअव्व/हसिअव्वा/ हसिअव्वु/हसेअव्व/हसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/ हसेवा।
    पुत्रों के द्वारा हँसा जाना चाहिए। पुत्तेहिं हसिअव्व/हसिअव्वा/हसिअव्वु/हसेअव्व/हसेअव्वा/ हसेअव्वु/हसिएव्वउँ,हसेव्वउं/हसेवा।
    माता के द्वारा हँसा जाना चाहिए। मायाए हसिअव्व/हसिअव्वा/ हसिअव्वु/हसेअव्व/हसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/हसेवा।
    माताओं के द्वारा हँसा जाना चाहिए। मायाहिं हसिअव्व/हसिअव्वा/ हसिअव्वु/हसेअव्व/हसेअव्वा/हसेअव्वु/हसिएव्वउं/हसेव्वउं/हसेवा।
    इसी प्रकार पाठ-2 में दिये गये सभी संज्ञा शब्द व अकर्मक क्रियाओं व कृदन्तों के साथ विभिन्न कालों में भाववाच्य में रचना की जाती है।
  8. Sneh Jain
    अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में ‘अ’ और ‘आव' प्रत्यय लगाकर प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के पश्चात् इन प्रेरणार्थक क्रियाओं का कर्तृवाच्य में प्रयोग किया जाता है। 'अ' प्रत्यय लगाने पर क्रिया के उपान्त्य ‘अ’ का आ, उपान्त्य 'इ' का ए तथा उपान्त्य 'उ' का ओ हो जाता है। उपान्त्य दीर्घ 'ई' तथा दीर्घ 'ऊ' होने पर कोई परिवर्तन नहीं होता। संयुक्ताक्षर आगे रहने पर उपान्त्य 'अ' का आ होने पर भी ‘अ’ ही रहता है। जैसे -

    हस - अ = हास 
    हँसाना सय - अ = साय 
    सुलाना पढ - अ = पाढ 
    पढाना भिड - अ = भेड 
    भिडाना कीण - अ = कीण 
    खरीदवाना लुक्क - अ = लोक्क 
    छिपाना णच्च - अ = णच्च 
    नचाना आव
    हस - आव = हसाव 
    हँसाना सय - आव = सयाव 
    सुलाना पढ - आव = पढाव
    पढाना भिड - आव = भिडाव
    भिडाना कीण - आव = कीणाव
    खरीदवाना लुक्क - आव = लुक्काव 
    छिपाना णच्च - आव = णच्चाव 
    नचाना  
    इस प्रकार अन्य सामान्य क्रियाओं में भी अ तथा आव प्रत्यय लगाकर प्रेरणार्थक क्रिया बना ली जाती है। इन प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ भी सकर्मक क्रियाओं के समान ही सभी कालों, कृदन्तों व कर्तृवाच्य तथा कर्मवाच्य में वाक्य रचना की जाती है। प्रेरणार्थक क्रिया के सन्दर्भ में निम्न बातें जानना आवश्यक है -
    कर्त्ता जब स्वयं किसी को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, तब प्रेरणा रूप कर्त्ता एक होता है। कर्त्ता जब अन्य से किसी को क्रिया करवाने हेतु प्रेरित करवाता है, तब प्रेरणा रूप कर्त्ता दो होते हैं। अकर्मक क्रिया से प्रेरणार्थक क्रिया बनाकर उनका प्रयोग कर्तृवाच्य या कर्मवाच्य में किया जाता है, तब उसमें कर्म एक होता है। सकर्मक क्रिया से प्रेरणार्थक क्रिया बनाकर उनका प्रयोग कर्तृवाच्य या कर्मवाच्य में किया जाता है, तब उसमें कर्म दो होते हैं। उपरोक्त प्रेरणा व कर्म के आधार से प्रेरणार्थक क्रियाओं से वाक्य रचना विभिन्न कालों में निम्न आधारों से की जाती है -
    एक प्रेरणा व एक कर्म युक्त प्रेरणार्थक क्रियाएँ एक प्रेरणा व दो कर्म युक्त प्रेरणार्थक क्रियाएँ दो प्रेरणा व एक कर्म युक्त प्रेरणार्थक क्रियाएँ दो प्रेरणा व दो कर्म युक्त प्रेरणार्थक क्रियाएँ वाक्य रचना : विभिन्न कालों में
    1. एक प्रेरणा एवं एक कर्म -
    इसमें क्रिया करानेवाला प्रेरणा रूप कर्त्ता एक ही व्यक्ति होता है तथा जिस पर क्रिया का प्रभाव पड़ता है, वह कर्म भी एक ही वस्तु या व्यक्ति होता है। यहाँ प्रेरणा रूप कर्त्ता में प्रथमा तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है तथा प्रेरणार्थक क्रिया में कर्त्ता के पुरुष व वचनानुसार कालवाची प्रत्यय जोड़ दिए। जाते हैं।
    मैं तुमको हँसाता हूँ
    हउं पइं हासउं। (वर्तमानकाल) तुम मुझको हँसावो
    तुहं मइं हसावहि। (विधि एवं आज्ञा) मैं उसको हँसाऊँगी
    हउं तं हसावेसउं। (भविष्यत्काल) वे सब उसको हँसाते हैं।
    ते तं हासन्ति। (वर्तमानकाल) तुम सब उन सबको हँसाते हो
    तुम्हे ता हासहु। (वर्तमानकाल) वे सब उसको हँसावे ।
    ते तं हासन्तु। (विधि एवं आज्ञा) मामा पुत्र को छिपाता है।
    माउलो पुत्तु लुक्कावइ। (वर्तमानकाल) तुम उन सबको हँसाओ
    तुहुं ता हासि। (विधि एवं आज्ञा) तुम सब मुझको हँसाओ
    तुम्हइं मइं हासह। (विधि एवं आज्ञा) पुत्री माँ को हँसावेगी
    सुया जणेरी हसावेसइ। (भविष्यत्काल)  
    2. एक प्रेरणा एवं दो कर्म -
    इसमें क्रिया करानेवाला प्रेरणा रूप कर्त्ता एक ही व्यक्ति होता है; किन्तु जिस पर क्रिया का प्रभाव पड़ता है, वे कर्म व्यक्ति व वस्तु के रूप में दो होते हैं। यहाँ कर्त्ता में प्रथमा तथा दोनों कर्मों में द्वितीया विभक्ति होती है। तथा प्रेरणार्थक क्रिया में कर्त्ता के पुरुष व वचनानुसार कालवाची प्रत्यय जोड़ दिये जाते हैं।
    मैं तुमको पुस्तक पढाता हूँ
    हउं पइं गंथु पाढउं। (वर्तमानकाल) तुम मुझको पुस्तक पढावो
    तुहूं मइं गंथु पाढहि। (विधि एवं आज्ञा) मैं उसको पुस्तक पढाऊँगी
    हठं तं गंथु पाढेसउं। (भविष्यत्काल) दादी पोते को गीत सुनाती है
    पिआमही पोत्तु गीउ सुणावइ। (वर्तमान) दादी पोते को गीत सुनावे
    पिआमही पोत्तु गीउ सुणावउ। (विधि व आज्ञा) दादी पोते को गीत सुनावेगी
    पिआमही पोत्तु गीउ सुणावेसइ। (भविष्यत्काल)  
    3. दो प्रेरणा एवं एक कर्म - 
    इसमें क्रिया करानेवाले प्रेरणा रूप कर्त्ता दो व्यक्ति होते हैं; किन्तु कर्म एक ही होता है। यहाँ प्रथम प्रेरणा में प्रथमा विभक्ति, द्वितीय प्रेरणा में तृतीया विभक्ति तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। उसके बाद प्रेरणार्थक क्रिया में प्रथम कर्त्ता के पुरुष व वचनानुसार कालवाची प्रत्यय जोड़ दिये जाते हैं।
    माताएँ बालकों से परमेश्वर की पूजा करवाती है।
    मायाओ बालएहिं परमेसरु अच्चावन्ति। (वर्तमानकाल) माता बालक से परमेश्वर की पूजा करवाती है।
    माया बालएण परमेसरु अच्चावइ। (वर्तमानकाल) तुम बालक से परमेश्वर की पूजा करवाओ।
    तुहं बालएणं परमेसरु अच्चावि। (विधि एवं आज्ञा) तुम सब बालकों से परमेश्वर की पूजा करवाओ।
    तुम्हे बालएहिं परमेसरु अच्चावह। (विधि एवं आज्ञा) वह बालक से परमेश्वर की पूजा करवाएगी।
    सा बालएण परमेसरु अच्चावेसइ। (भविष्यत्काल) वे सब बालकों से परमेश्वर की पूजा करवाएंगे।
    ते बालएहिं परमेसरु अच्चावेसन्ति। (भविष्यत्काल)  
    4. दो प्रेरणा एवं दो कर्म -
    इसमें क्रिया करानेवाले प्रेरणारूप कर्त्ता दो व्यक्ति होते हैं तथा कर्म भी दो होते हैं। यहाँ प्रथम प्रेरणा में प्रथमा विभक्ति तथा द्वितीय प्रेरणा में तृतीया विभक्ति एवं प्रथम व द्वितीय दोनों कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। उसके बाद प्रेरणार्थक क्रिया में प्रथम कर्त्ता के पुरुष व वचनानुसार कालवाची प्रत्यय जोड़ दिए जाते हैं।
    माँ बहिन से पुत्री को पुस्तक पढवाती है।
    माया ससाए सुया गंथु पाढइ। राजा नागरिकों से साँप को दूध पिलवाता है।
    नरिंदो णयरजणाहिं सप्पु खीरु पिबावइ। तुम मुझसे उसको भोजन खिलवाते हो।
    तुहुं मइं तं भोयणु खादावहि। माँ बहिन से पुत्री को पुस्तक पढवावे।
    माया ससाए सुया गंथु पढावउ। राजा नागरिकों से साँप को दूध पिलवावे।
    नरिंदो णयरजणाहिं सप्पु खीरु पिबावउ। तुम मुझसे उसको भोजन खिलवावो।
    तुहुं मइं तं भोयणु खादावि। माँ बहिन से पुत्री को पुस्तक पढवावेगी।
    माया ससाए सुया गंथु पढावेसइ। राजा नागरिकों से साँप को दूध पिलवावेगा।
    नरिंदो गयरजणहिं सप्पु खीरु पिबावेसइ। तुम मुझसे उसको भोजन खिलवाओगे।
    तुहुं मइं तं भोयणु खादावेसहि। यहाँ हम देखते हैं कि एक प्रेरणा के अन्तर्गत क्रिया में सुलाने व खिलाने के अर्थ की अभिव्यक्ति होती है तथा दो प्रेरणा में क्रिया में सुलवाने व खिलवाने का अर्थ अभिव्यक्त होता है।
    इसी प्रकार पाठ-2 में दिये गये सभी संज्ञा शब्द व अकर्मक तथा सकर्मक क्रियाओं से प्रेरणार्थक क्रिया बनाकर विभिन्न कालों में कर्तृवाच्य में रचना की जाती है।
  9. Sneh Jain
    जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्त्ता' हो वहाँ कर्तृवाच्य होता है। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में प्रथमा तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और क्रिया के पुरुष और वचन कर्त्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होते हैं। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग प्रायः भूतकाल में नहीं होता, बाकी तीनों कालों में होता है।
     
    वाक्य रचना : वर्तमानकाल
    मैं पुस्तक पढता हूँ
    हउं गंथु पढउं। हम पुस्तकें पढ़ते हैं
    अम्हे गंथा पढहुं। तुम मुझको देखते हो
    तुहुं मइं पेच्छहि। तुम सब हम सबको देखते हो
    तुम्हइं अम्हइं पेच्छहु। वह उसको देखता है
    सो तं पेच्छइ। वे सब उन सबको देखते हैं
    ते ता पेच्छन्ति। माता कथा कहती है
    माया कहा कहइ। माताएँ कथाएँ कहती हैं
    मायाउ कहाउ कहन्ति। पिता बालक को बुलाता है
    जणेरो बालउ कोकइ। पिता बालकों को बुलाते हैं
    जणेरा बालआ कोकहिं।  
    वाक्य रचना : विधि एवं आज्ञा
    मैं पुस्तक पढूँ
    हउं गंथु पढमु । हम पुस्तकें पढ़ें
    अम्हे गंथा पढमो। तुम मुझको देखो
    तुहुं मइं पेच्छि । तुम सब हम सबको देखो
    तुम्हइं अम्हइं पेच्छह। वह उसको देखे
    सो तं पेच्छउ। वे सब उन सबको देखें
    ते ता पेच्छन्तु। माता कथा कहे
    माया कहा कहउ। माताएँ कथाएँ कहें
    मायाउ कहाउ कहन्तु। पिता बालक को बुलावे
    जणेरो बालउ कोकउ। पिता बालकों को बुलावे
    जणेरा बालआ कोकउ।  
    वाक्य रचना : भविष्यतकाल
    मैं पुस्तक पढूँगा
    हउं गंथु पढेसउं। हम पुस्तकें पढ़ेंगे
    अम्हे गंथा पढेसमो। तुम मुझको देखोगे
    तुहुं मइं पेच्छेससि। तुम सब हम सबको देखोगे
    तुम्हइं अम्हइं पेच्छेसइत्था। वह उसको देखेगा
    सो तं पेच्छिहिइ। वे सब उन सबको देखेंगे
    ते ता पेच्छिहिन्ति। माता कथा कहेगी
    माया कहा कहेसइ। माताएँ कथाएँ कहेंगी 
    मायाउ कहाउ कहिहिन्ति। पिता बालक को बुलावेगा
    जणेरो बालउ कोकेसइ। पिता बालकों को बुलावेंगे
    जणेरा बालआ कोकेसन्ति। इसी प्रकार पाठ-2 में दिये गये सभी संज्ञा शब्द व सकर्मक क्रियाओं का प्रयोग कर विभिन्न कालों में कर्तृवाच्य में वाक्य रचना की जाती है।
  10. Sneh Jain
    1. कर्तृवाच्य -
    जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्ता' हो, वहाँ कर्तृवाच्य होता है। कर्तृवाच्य का प्रयोग अकर्मक व सकर्मक दोनों क्रियाओं के साथ होता है। अकर्मक क्रिया से कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता सदैव प्रथमा विभक्ति में होता है तथा कर्ता के वचन व पुरुष के अनुसार क्रियाओं के वचन व पुरुष होते हैं। अकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग चारों काल - वर्तमानकाल, विधि एवं आज्ञा, भविष्यत्काल तथा भूतकाल में होता है।
    वर्तमानकाल
    (क) उत्तमपुरुष एक वचन में 'उं' और ‘मि' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं। ‘मि' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'आ' और 'ए' भी हो जाते हैं।
    (ख) वर्तमानकाल के उत्तमपुरुष बहुवचन में ‘हुं’, ‘मो’, ‘मु’ और ‘म’ प्रत्यय क्रिया में लगते हैं। ‘मो', 'मु’ और ‘म’ लगने पर अकारान्त क्रिया के अन्त्य ‘अ’ का आ, इ और ए भी हो जाता है।
    (ग) वर्तमानकाल के मध्यमपुरुष एकवचन में 'हि' ‘सि’ और ‘से' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं। 'सि' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'ए' भी हो जाता है। ‘से' प्रत्यय मात्र अकारान्त क्रिया में ही लगता है। आकारान्त ओकारान्त आदि क्रियाओं में 'से' प्रत्यय नहीं लगता।
    (घ) वर्तमानकाल के मध्यमपुरुष बहुवचन में ‘हु' 'ह' और 'इत्था प्रत्यय क्रिया में लगते हैं।
    (ङ) वर्तमानकाल के अन्यपुरुष एकवचन में 'इ' और 'ए' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं। 'इ' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य ‘अ’ का ‘ए’ भी हो जाता है। ‘ए’ प्रत्यय अकारान्त क्रियाओं में ही लगता है।
    (च) वर्तमानकाल के अन्यपुरुष बहुवचन में ‘हिं’ ‘न्ति’ ‘न्ते' और 'इरे' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं।
    नोट - संयुक्ताक्षर के पहिले यदि दीर्घ स्वर हो तो वह ह्रस्व हो जाता है। जैसे - ठान्ति–ठन्ति, ण्हान्ति–ण्हन्ति आदि।
     
    पुरुषवाचक सर्वनाम रूप
    ( प्रथमा विभक्ति, तीनों पुरुषों व दोनों वचनों में )
      एकवचन बहुवचन उत्तमपुरुष
    हउं (मैं) अम्हे, अम्हइं (हम सब) मध्यम पुरुष
    तुहुं (तुम) तुम्हे, तुम्हइं (तुम सब) अन्य पुरुष सो (वह–पु.)
    सा (वह–स्त्री)
    ते, ता (वे सब–पु.)
    ता, त, ताउ, तउ, ताओ, तओ
    (वे सब-स्त्री)
     
    तीनों पुरुषों एवं दोनों वचनों में वर्तमानकालिक क्रिया के प्रत्यय -
      एकवचन बहुवचन उत्तम पुरुष
    उं, मि हुं, मो, मु, म मध्यम पुरुष
    हि, सि, से हु, ह, इत्था अन्य पुरुष
    इ, ए हिं, न्ति, न्ते, इरे  
    वाक्य रचना -
    मैं हँसता हूँ/ हँसती हूँ।
    हउं हसउं, हसमि, हसामि, हसेमि। (अकारान्त क्रिया) मैं ठहरता हूँ/ठहरती हूँ।
    हउं ठाउं, ठामि। (आकारान्त क्रिया) हम सब हँसते हैं/ हँसती हैं।
    अम्हे, अम्हइं - हसहुं, हसमो, हसमु, हसम। 
    (हसामो, हसामु, हसाम,/ हसिमो, हसिमु, हसिम/हसेमो, हसेमु, हसेम) रूप भी बनेंगे।
    हम सब ठहरते हैं।
    अम्हे/अग्हई ठाहुं, ठामो, ठामु, ठाम। तुम हँसते हो।
    तुहुं हसहि, हससि, हससे, हसेसि। तुम ठहरते हो।
    तुहं ठाहि, ठासि। तुम सब हँसते हो।
    तुम्हे/तुम्हइं हसहु, हसह, हसित्था। तुम सब ठहरते हो।
    तुम्हे/तुम्हई ठाहु, ठाह, ठाइत्था। वह हँसता है/ हँसती है।
    सो/सा हसइ, हसेइ, हसए। वह ठहरता है/ ठहरती है।
    सो/सा ठाइ। वे सब हँसते हैं।
    ते/ता हसहिं, हसन्ति, हसन्ते, हसिरे। वे सब ठहरते हैं।
    ते/ता ठाहिं, ठान्ति–ठन्ति, ठान्ते–ठन्ते, ठाइरे। राजा हँसता है।
    नरिंद/नरिंदा/नरिंदु/नरिंदो हसइ, हसेइ, हसए। राजा हँसते हैं।
    नरिंद/नरिंदा हसहिं, हसन्ति, हसन्ते, हसिरे। माता हँसती है।
    माया/माय हसइ, हसेइ, हसए। माताएँ हँसती हैं। माया/माय/मायाउ/मायउ, मायाओ/मायओ हसहिं हसन्ति, हसन्ते, हसिरे।
    कमल खिलता है। कमल/कमला/कमलु विअसइ, विअसेइ, विअसए।
    कमल खिलते हैं। कमल/कमला/कमलइं/कमलाइं विअसहिं, विअसन्ति, विअसन्ते, विअसिरे
     
    विधि एवं आज्ञा
    जब किसी कार्य के लिए प्रार्थना की जाती है तथा आज्ञा एवं उपदेश दिया जाता है तो इन भावों को प्रकट करने के लिए विधि एवं आज्ञा के प्रत्यय क्रिया में लगा दिए जाते हैं।
    (क) विधि एवं आज्ञा के उत्तमपुरुष एकवचन में ‘मु' प्रत्यय क्रिया में लगता है। इसके लगने पर क्रिया के अन्त्य ‘अ’ का ‘ए’ भी हो जाता है।
    (ख) विधि एवं आज्ञा के उत्तमपुरुष बहुवचन में 'मो' प्रत्यय क्रिया में लगता है। इसके लगने पर क्रिया के अन्त्य ‘अ’ का ‘आ’ और ‘ए’ भी हो जाता है।
    (ग) विधि एवं आज्ञा के मध्यमपुरुष एकवचन में 'इ' ‘ए’ ‘उ' '०' ‘हि और 'सु' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं। ‘हि' और 'सु' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य ‘अ’ का 'ए' भी हो जाता है। '०' प्रत्यय अकारान्त क्रियाओं में ही लगता है। आकारान्त, ओकारान्त, इकारान्त आदि क्रियाओं में '०' प्रत्यय नहीं लगता।
    (घ) विधि एवं आज्ञा के मध्यमपुरुष बहुवचन में ‘ह' प्रत्यय क्रिया में लगता है। ‘ह' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'ए' भी हो जाता है।
    (ङ) विधि एवं आज्ञा के अन्यपुरुष एकवचन में 'उ' प्रत्यय क्रिया में लगता है। 'उ' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य ‘अ’ का ‘ए’ भी हो जाता है।
    (च) विधि एवं आज्ञा के अन्यपुरुष बहुवचन में 'न्तु' प्रत्यय क्रिया में लगता है। न्तु प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य ‘अ’ का ‘ए’ भी हो जाता है।
     
    तीनों पुरुषों एवं दोनों वचनों में विधि एवं आज्ञा के प्रत्यय -
      एकवचन बहुवचन  उत्तमपुरुष 
    मु मो मध्यमपुरुष
    इ, ए, उ, ०, हि, सु  ह अन्यपुरुष
    उ न्तु वाक्य रचना -
    मैं हँसूँ
    हउं हसमु, हसेमु। मैं ठहरूँ
    हउं ठामु। हम सब हँसें 
    अम्हे/अम्हइं हसमो, हसामो, हसेमो। हम सब ठहरे 
    अम्हे / अम्हइं ठामो। तुम हँसो
    तुहुं हसि, हसे, हसु, हस, हसहि, हसेहि, हससु, हसेसु। तुम ठहरो
    तुहूं ठाइ, ठाए, ठाउ, ठाहि, ठासु। तुम सब हँसो
    तुम्हे/तुम्हइं हसह, हसेह। तुम सब ठहरो
    तुम्हे/तुम्हइं ठाह। वह हँसे
    सो/सा हसउ, हसेउ। वह ठहरे
    सो/सा ठाउ। वे सब हँसें
    ते/ता हसन्तु, हसेन्तु। वे सब ठहरें
    ते/ता ठान्तु–ठन्तु। राजा हँसे
    नरिंद/नरिंदा/नरिंदु / नरिंदो हसउ, हसेउ। राजा हँसें
    नरिंद/नरिंदा हसन्तु, हसेन्तु। माता हँसे
    माया/माय हसउ, हसेउ। माताएँ हँसें माया/माय/मायाउ/मायउ/मायाओ/मायओ हसन्तु, हसेन्तु।
    कमल खिले
    कमल/कमला/कमलु विअसउ, विअसेउ। कमल खिलें
    कमल/कमला/कमलइं/कमलाइं विअसन्तु, विअसेन्तु।
    भविष्यत्काल
    भविष्यत्काल के लिए मुख्य प्रत्यय ‘स' और 'हि' हैं। ‘स' और 'हि' प्रत्यय क्रिया में जोड़ने के पश्चात् वर्तमान काल के प्रत्यय भी उसमे जोड़ दिये जाते हैं। ‘स' प्रत्यय लगाने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'ए' तथा 'हि' प्रत्यय लगाने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'इ' हो जाता है।
    तीनों पुरुषों एवं दोनों वचनों में भविष्यत्काल के प्रत्यय -
       एकवचन बहुवचन उत्तमपुरुष
    सउं, हिउं, समि, हिमि सहुं, हिहुं, समो, हिमो समु, हिमु, सम, हिम
    मध्यमपुरुष
    सहि, हिहि, ससि, हिसि, ससे, हिसे सहु, हिहु, सह, हिह सइत्था, हित्था (हि+इत्था)
    अन्यपुरुष
    सइ, हिइ, सए, हिए सहिं, हिहिं, सन्ति, हिन्ति, सन्ते, हिन्ते, सइरे, हिइरे
     
    वाक्य रचना -
    मैं हँसूँगा हउं हसेसउं, हसेसमि, हसिहिउं, हसिहिमि।
    मैं ठहरूँगा
    हउं ठासउं, ठासमि, ठाहिउं, ठाहिमि। हम सब हँसेंगे
    अम्हे/अम्हइं हसेसहुं, हसेसमो, हसेसमु, हसेसम, हसिहिहुं, हसिहिमो, हसिहिमु, हसिहिम।
    हम सब ठहरेंगे
    अम्हे/अम्हइं ठासहुं, ठासमो, ठासमु, ठासम, ठाहिहुं, ठाहिमो, ठाहिमु, ठाहिम।
    तुम हँसोगे
    तुहुं हसेसहि, हसेससि, हसेससे, हसिहिहि, हसिहिसि, हसिहिसे।
    तुम ठहरोगे
    तुहं ठासहि, ठाससि, ठाहिहि, ठाहिसि। तुम सब हँसोगे
    तुम्हे/तुम्हई हसेसहु, हसेसह, हसेसइत्था, हसिहिहु, हसिहिह, हसिहित्था।
    तुम सब ठहरोगे
    तुम्हे/तुम्हइं ठासहूं, ठासह, ठासइत्था, ठाहिहु, ठाहिह, ठाहित्था।
    वह हँसेगा
    सो हसेसइ, हसेसए, हसिहिइ, हसिहिए। वह ठहरेगा
    सो ठासइ, ठाहिइ। वे सब हँसेंगे
    ते/ता हसेसहिं, हसेसन्ति, हसेसन्ते, हसेसइरे, हसिहिहिं,
    हसिहिन्ति, हसिहिन्ते, हसिहिइरे।
    वे सब ठहरेंगे
    ते/ता ठासहिं, ठासन्ते, ठासन्ते, ठासइरे, ठाहिहिं, ठाहिन्ति, ठाहिन्ते, ठाहिइरे।
    राजा हँसेगा
    नरिंद/नरिंदा/नरिंदु/नरिंदो हसेसइ, हसेसए, हसिहिइ, हसिहिए।
    राजा हँसेंगे
    नरिंद/नरिंदा हसेसहिं, हसेसन्ति, हसेसन्ते, हसेसइरे, हसिहिहिं, हसिहिन्ति, हसिहिन्ते, हसिहिइरे।
    माता हँसेगी
    माया/माय हसेसइ, हसेसए, हसिहिइ, हसिहिए। माताएँ हँसेंगी
    माया/माय/मायाउ/मायउ/मायाओ/मायओ हसेसहिं, हसेसन्ति, हसेसन्ते, हसेसइरे, हसिहिहिं, हसिहिन्ति, हसिहिन्ते, हसिहिइरे।
    कमल खिलेगा
    कमल/कमला/कमलु विअसइ, विअसेइ, विअसए कमल खिलेंगे
    कमल/कमला/कमलइं/कमलाई विअसेसहिं, विअसेसन्ति, विअसेसन्ते, विअसेसइरे, विअसिहिहिं, विअसिहिन्ति, विअसिहिन्ते, विअसिहिरे।
     
    भूतकाल ( भूतकालिक कृदन्त )
    अपभ्रंश में भूतकाल का भाव प्रकट करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है। क्रिया में अ/य प्रत्यय लगाकर भूतकालिक कृदन्त बनाये जाते हैं। क्रिया में अ/य प्रत्यय लगाने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'इ' हो जाता है। जैसे -
    हस + अ/य
    हसिअ/हसिय जग्ग + अ/य
    जग्गिअ/जग्गिय सय + अ/य
    सयिअ/सयिय ये भूतकालिक कृदन्त विशेषण होते हैं; अतः इनके रूप भी कर्ता (विशेष्य) के अनुसार चलते हैं। कर्ता पुल्लिंग, नपुंसकलिंग, स्त्रीलिंग में से जो भी होगा, इन्हीं के अनुसार भूतकालिक कृदन्त के रूप बनेंगे। इन कृदन्तों के रूप पुल्लिंग में 'देव' के समान, नपुसंकलिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में 'कहा' के अनुसार चलेंगे।
    कृदन्त में 'आ' प्रत्यय जोड़कर आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द भी बनाया जा सकता है। (सकर्मक क्रिया से भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग प्रायः कर्मवाच्य में ही होता है; कर्तृवाच्य में नहीं होता।)
    वाक्य रचना -
    मैं (पु.ए.व.) हँसा
    हउं हसिअ, हसिआ, हसिउ, हसिओ (पु.ए.व) मैं (स्त्री. ए.व.) हँसी
    हउं - हसिआ, हसिअ (स्त्री.ए.व.) हम सब (पु.ब.व.) हँसे
    अम्हे/अम्हइं हसिअ, हसिआ (पु.ब.व.) हम सब (स्त्री.ब.व.) हँसीं
    अम्हे/अम्हइं हसिआ, हसिअ हसिआउ, हसिअउ, हसिआओ, हसिअओ (स्त्री. ब.व.)
    तुम (पु.ए.व.) हँसे
    तुहुं हसिअ, हसिआ, हसिउ, हसिओ (पु.ए.व) तुम (स्त्री ए.व.) हँसी
    तुहुं हसिआ, हसिअ (स्त्री.ए.व.) तुम सब (पु.ब.व.) हँसे
    तुम्हे/तुम्हइं हसिअ, हसिआ (पु.ब.व.) तुम सब (स्त्री.ब.व.) हँसीं
    तुम्हे/तुम्हइं हसिआ, हसिअ, हसिआउ, हसिअउ, हसिआओ, हसिअओ (स्त्री.ब.व.)
    वह (पु.ए.व.) हँसा
    सो हसिअ, हसिआ, हसिउ, हसिओ (पु.ए.व) वह (स्त्री.ए.व.) हँसी
    सा हसिआ, हसिअ (स्त्री.ए.व.) वे सब (पु.ब.व.) हँसे
    ते हसिअ, हसिआ (पु.ब.व.) वे सब (स्त्री.ब.व.) हँसीं
    ता/त/ताउ/तउ/ताओ/तओ हसिआ, हसिअ हसिआउ, हसिअउ, हसिआओ, हसिअओ (स्त्री.ब.व.)
    राजा हँसा
    नरिंद/नरिंदा/नरिंदु/नरिंदो (पु.ए.व.) हसिअ, हसिआ, हसिउ, हसिओ (पु.ए.व.)।
    राजा हँसे
    नरिंद/नरिंदा हसिअ, हसिआ (पु.ब.व.) कमल खिला
    कमल/कमला/कमलु (नपु.ए.व.) विअसिअ, विअसिआ, विअसिउ (नपु.ए.व.) कमल खिले कमल/कमला/कमलइं/कमलाइं (नपु.ब.व.) विअसिअ, विअसिआ, विअसिअइं, विअसिआइं (नपु.ब.व.)
    बहिन हँसी
    ससा/सस (स्त्री.ए.व.) हसिआ, हसिअ (स्त्री.ए.व.) बहिनें हँसीं ससा/सस/ससाउ/ससउ/ससाओ/ससओ हसिआ, हसिअ, हसिआउ, हसिअउ, हसिआओ, हसिअओ (स्त्री.ब.व) इसी प्रकार पाठ में दिये गये सभी संज्ञा शब्द व अकर्मक क्रियाओं का प्रयोग कर विभिन्न कालों में कर्तृवाच्य में रचना की जाती है।
  11. Sneh Jain
    (क) स्थानवाची अव्यय
    वहाँ, उस तरफ
    तेत्यु, तहिं, तेत्तहे, तउ, तेत्तहि जहाँ, जिस तरफ
    जेत्थु, जहिं, जेत्तहे, जउ यहाँ, इस तरफ
    एत्यु, एत्थ, एत्तहे कहाँ
    केत्थु, केत्तहे, कहिं सब स्थानों पर
    सव्वेत्तहे दूसरे स्थान पर
    अण्णेत्तहे कहाँ से
    कहन्तिउ, कउ, केत्यु, कहिं वहाँ से
    तहिंतिउ, तत्थहो एक ओर/दूसरी ओर
    एत्तहे कहीं पर (किसी जगह)
    कहिं चि, कहिं जि, कहिं वि, कत्थई, कत्थवि, कहिमि पास (समीप)
    पासु, पासे पास से, समीप से
    पासहो पास में
    पासेहिं दूर से, दूरवर्ती स्थान पर
    दूरहो, दूरें पीछे
    पच्छए, पच्छले, अणुपच्छए आगे
    पुरे, अग्गले, अग्गए ऊपर
    उप्परि नीचे
    हेट्टि चारों ओर, चारों ओर से
    चउपासे, चउपासेहिं, चउपासिउ  
    (ख) कालवाची अव्यय
    तब
    तइयहुं, तं, ताम, तामहिं, तावेहिं, तो जब
    जइयहुं, जं, जाम, जामहिं, जावेहिं कब
    कइयतुं अब, अभी, इस समय
    एवहिं इसी बीच
    एत्थन्तरि उस समय
    तावेहिं जिस समय
    जावेहिं जब तक
    जाम, जाउँ, जाम्व, जाव, जावन्न तब तक
    ताम, ताउं, ताव आज
    अज्ज, अज्जु कल
    कल्ले, कल्लए, परए आज तक
    अज्ज वि आज कल में
    अज्जु कल्ले प्रतिदिन
    अणुदिणु, दिवे-दिवे रात-दिन
    रतिन्दिउ, रत्तिदिणु किसी दिन
    के दिवसु, कन्दिवसु आज से
    अज्जहो शीघ्र
    झत्ति, छुडु, अइरेण, लहु, सज्ज तुरन्त
    तुरन्तउ, तुरन्त, अवारें जल्दी से
    तुरन्तएण, तुरन्त पलभर में
    णिविसेण, णिविसें तत्काल
    तक्खणेण, तक्खणे हर क्षण
    खणे खणे क्षण क्षण में
    खणं खणं कुछ देर के बाद ही
    खणन्तरेण कभी नहीं
    ण कयाइ दीर्घकाल तक
    चिरु बाद में
    पच्छए, पच्छइ, पच्छा फिर, वापस
    पडीवउ, पडीवा जेम
    परम्परानुसार  
    (ग) प्रकारवाची अव्यय
    इस प्रकार
    एम, एम्व, इय किस प्रकार, क्यों
    केम, केवं, किह, काई जिस प्रकार, जैसे
    जेम, जिम, जिह, जह, जहा उसी प्रकार, वैसे
    तेम, तिम, ण, तह, तहा जितना अधिक....उतना ही
    जिह जिह .....तिह तिह जैसे जैसे .... वैसे वैसे
    जिह जिह .....तिह तिह की भाँति, जैसे
    जिह किसी प्रकार
    कह वि  
    (घ) विविध अव्यय
    नहीं
    णाहिं, णहि, णउ, ण, णवि, मं, णत्थि मत
    मं क्यों नहीं किण्ण साथ
    सहुं, समउ, समाणु बिना
    विणु, विणा वि 
    भी  नामक, नामधारी, नाम से
    णाम, णामु, णामें, णामेण मानो
    णं, णावई, णाई जउ
    जो की तरह, की भाँति
    णाई, इव, जिह, जेम, ब्व, व सदृश
    सन्निह परन्तु
    णवर केवल
    णवरि, णवर किन्तु
    पर आपस में, एक दूसरे के विरुद्ध
    परोप्परु क्या
    किं क्यों
    काई इसलिए
    तेण, तम्हा चूंकि
    जम्हा कब
    कइयहूं यदि......तो
    जइ.....तो बल्कि
    पच्चेल्लिउ स्वयं
    सई एकाएक, शीघ्र
    अथक्कए अथवा
    अहवा या...या
    जिम..जिम हे
    भो, हा, अहो अरे
    भो, अरे लो
    लई बार-बार
    पुणु-पुणु, मुहु–मुहु, वार–वार एक बार फिर
    एक्कसि, एक्कवार सौ बार
    सयवारउ तीन बार
    तिवार, तिवारउ बहुत बार
    बहुवारउ इसके पश्चात्, इसी बीच, इसी समय
    एत्थन्तरे उसके बाद
    ताणन्तरे थोड़ी देर बाद
    थोवन्तरे अत्यन्त
    सुट्ठ, अइ अत्याधिक
    अहिय अवश्य ही
    अवसें अच्छा
    वरि अधिक अच्छा
    वरु सद्भाव पूर्वक
    सब्भावें अविकार भाव से
    अवियारें स्नेह पूर्वक
    सणेहें लीला पूर्वक
    लीलए पूर्ण आदर पूर्वक
    सव्वायरेण पूर्ण रूप से
    णिरारिउ बड़ी कठिनाई पूर्वक
    दुक्खु दुक्खु एकदम, सहसा
    सहसत्ति दक्षिण की ओर
    दाहिजेण उत्तर की ओर
    उत्तरेण  
    (क) वाक्य रचना - स्थानवाची अव्यय
    तुम वहाँ जाकर बैठो
    तुहं तेत्थु गच्छि अच्छहि मैं वहाँ सोता हूँ
    हउं तेत्थु सयउं मैं जहाँ रहता हूँ, वहीं वह रहता है
    हउँ जेत्थु वसउँ तहिं सो वसइ वह यहाँ आने के लिए कहता है
    सो एत्थु आगच्छेवं भणइ वह यहाँ सोया
    सो एत्थु सयिओ हम सब कहाँ खेलें?
    अम्हे केत्यु खेलमो? तुम कहाँ रहते हो?
    तुहं केत्यु वसहि? हम सब स्थानों पर जाते हैं
    अम्हे सव्वेत्तहे गच्छहूं सब स्थानों पर बादल गरजते हैं
    सव्वेत्तहे मेहा गज्जन्ति तुम दूसरे स्थान पर छिपो
    तुहूं अण्णेत्तहे लुक्कि तुम रत्न कहाँ से प्राप्त करोगे
    तुहं रयणु कहन्तिउ लभेसहि? विमान कहाँ से उडा?
    विमान केत्थु उड्डिउ? तुम फल वहाँ से प्राप्त करो
    तुहुं फलाई तत्थहो लभहि तुम पुस्तकें वहाँ से खरीदो
    तुहुँ गन्था तेत्थहो कीणि बालक ने कहीं पर विमान देखा
    बालएण कत्थइ विमाणु देखिउ तुम उसके पास जावो
    तुहूं तहो पासु गच्छि वह मेरे पास में आता है।
    सो महु पासे आवइ बालक पिता के पीछे भागता है
    बालओ जणेर अणुपच्छए पलाइ मैं आगे जाकर सोऊँगी
    हउँ पुरे गच्छवि सयेसउं बच्चे ऊपर जाकर कूदें
    बालआ उप्परि गच्छेवि कुल्लन्तु हम सबके द्वारा नीचे देखा जाना चाहिए
    अम्हेहिं हेट्टि देखिअव्वु तुम नीचे जावो
    तुहुं हेट्टि गच्छि हम सब समुद्र को दूर से देखें
    अम्हई सायरु दूरहो देखमो चारों ओर बादल गरजते हैं
    चउपासे मेहा गज्जन्ति  
    (ख) वाक्य रचना - कालवाची अव्यय
    जब मैं सोता हूँ, तब तुम जागते हो
    जाम हउँ सयउं ताम तुहूं जग्गहि जिस समय तुम खेलते हो, उस समय मैं भोजन जीमता हूँ
    जावेहिं तुहं खेलहि तावेहिं हउँ भोयणु जेममि इस समय तुम ठहरो
    एवहिं तुहं ठासु तुम कब सोवोगे
    तुहं कइयतुं सयेसहि जब तक मैं सोता हूँ, तब तक तुम खेलो
    जाव हउँ सयउं ताव तुहूं खेलि जब तक तुम कलह करोगे, तब तब मैं भोजन नहीं जीमूंगा
    जाम तुहं कलहेसहि ताम हउँ भोयणु ण जीमेसमि जिस समय उसने कथा कही, उस समय तुम कहाँ थे
    जावेहिं तेण कहा कहिआ तइयतुं तुहु केत्थु आसि आज तुम प्रयास करो, कल मैं प्रयास करेंगी
    अज्ज तुहूं उज्जमहि कल्लए हउँ उज्जमेसमि मैं आज आत्मलाभ प्राप्त करूंगा
    हडं अज्जु अप्पलद्धि लहेसउँ आज तक तुम भागी नहीं
    अज्जवि तुहं णउ पलाआ वे आज कल में रत्न खरीदेंगे
    ते अज्जु कल्ले मणि कीर्णसहिं तुम्हारे द्वारा प्रतिदिन फल खाये जाने चाहिए
    पई अणुदिणु फलाई खाइअव्वाईं तुम प्रतिदिन परमेश्वर की पूजा करो
    तुहुं अणुदिणु परमेसरु अच्चि वह रात दिन कलह करता है
    सो रत्तिदिणु कलहइ किसी दिन मैं विमान उडाऊँगा
    क दिवसु हउँ विमाणु उड्डावेसउँ किसी दिन मैं उनका उपकार करने के लिए जाऊँगी
    क दिवस हवं तं उपकरेवं गच्छेसउँ आज से तुम व्रत पालोगे
    अज्जहो तुहुं वयु पालेसहि उसके द्वारा शीघ्र छिपा गया
    तेण लहु लुक्किउ तुम वहाँ शीघ्र जावो
    तुहु तेत्यु अइरेण गच्छि बालक पलभर में कूद गया
    बालओ णिविसेण कुदिओ वह तत्काल वहाँ आया
    सो तक्खणे तेत्थु आगच्छिओ तुम हर क्षण प्रसन्न रहो
    तुहं खणे खणे हरिसहि राजा के द्वारा कुछ देर बाद ही सेनापति बुलाया गया
    नरिंदेण खणन्तरेण सेणावइ कोकिओ मुनि हिंसा कभी नहीं करते
    मुणि हिंसा ण कयाइ करहिं तुम दीर्घकाल प्रशंसा प्राप्त करो
    तुहं चिरु पसंसा लहहि तुम्हारे द्वारा वहाँ बाद में जाया जाना चाहिए
    पई तेत्थु पच्छए गच्छिएव्वउं तुम वापस गाँव जावो
    तुहं पडीवउ गामु गच्छि  
    (ग) वाक्य रचना - प्रकारवाची अव्यय
    तुम इस प्रकार बोलो, जिससे माँ प्रसन्न होवे
    तुहूं एम चवि जेण माया हरिसउ वह किस प्रकार ध्यान करता है
    सो केवं झायइ तुम उसी प्रकार ध्यान करो, जिस प्रकार मुनि ध्यान करते हैं
    तुहूं तेम झायहि जेम मुणि झायहिं जिस प्रकार तुम गाते हो उसी प्रकार नाचो भी
    जेम तुहुँ गाअहि तेम गच्च वि जैसे-जैसे मैं आगम पढती हूँ, वैसे-वैसे ज्ञान प्राप्त करती हूँ
    जिह–जिह हउँ आगमु पढउँ तिह–तिह णाणु लहउं तुम्हारे द्वारा बालक की तरह नहीं लड़ा जाना चाहिए।
    पईं बालआ जिह ण जुज्झिअव्वा तुम धन प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार प्रयत्न करो
    तुहं धणु लभेवं कहवि उज्जमि  
    (घ) वाक्य रचना - विविध अव्यय
    तुम्हारे द्वारा उसकी निंदा नहीं की जानी चाहिए 
    पई सो णाहिं गरहिअव्वो तुम पानी मत फैंको
    तुहं सलिलु मं खिवसु तुम भोजन क्यों नहीं करते हो?
    तुहं भोयणु किण्ण करहि? राम राक्षसों के साथ युद्ध करते हैं
    रहुणन्दण रक्खसेहिं सहूं जुज्झइ तुम्हारे बिना वस्त्रों को कौन धोएगा?
    पई विणु को वत्थाई धोएसइ? सीता नाम की उसकी कन्या है
    सीया णामु तहो कन्ना अत्थि उसके वचन सुनकर पिता क्रुद्ध हुए मानो राहु चन्द्रमा से क्रुद्ध हुआ हो
    तहो वयण सुणेवि जणेरो कुविओ णं राहु ससिहे कुविओ तुम्हारे द्वारा कुत्ते की तरह नहीं लड़ा जाना चाहिए
    पई कुक्करो इव ण जुज्झिअव्वा। आज तुम यहाँ ठहरोगे; परन्तु वह नहीं ठहरेगा
    अज्जु तुहूं एत्थु ठासहि पर सो णउ ठासइ केवल तुम्हारे द्वारा गाय की खोज की जानी चाहिए
    गवरि पई धेणू गवेसिअव्वा वह रुके, किन्तु तुम जाओ
    सो थंभउ पर तुहुँ गच्छि तुम सब आपस में मत भिडो
    तुम्हई परोप्परु में भिडह क्या बालक सो गया?
    किं बालओ सयिओ तुम वहाँ जाने के लिए क्यों डरते हो
    तुहं तेत्थु गच्छेवं काई डरहि मैं इसलिए गीत गाता हूँ, जिससे तुम प्रसन्न होवो
    हउँ तेण गीउ गाअउं जेण तुहं हरिससु  तुम हाथी कब खरीदोगे ?
    तुहं हत्थि कइयहूं कीणेसहि यदि तुम खेलोगे तो तुमको देखकर पुत्र प्रसन्न होगा
    जइ तुहं खेलेसहि तो पइं देखेवि पुत्तो उल्लसेसइ सिंह को देखकर वह नहीं डरा; बल्कि मैं डरकर भागा
    सीहु पेच्छवि सो ण डरिओ पच्चेल्लिउ हउँ डरिउ पलाओ तुम स्वयं गठरी उठाओ
    तुहं सई पोट्टलु उट्ठावहि एकाएक तुम वहाँ मत जावो
    अत्थक्कए तुहं तेत्थु मं गच्छि तुम राज्य भोगो अथवा वैराग्य धारण करो
    तुहं रज्जु भुजि अहवा वेरग्गु धारि या भिडो या शान्त होवो
    जिम भिडु जिम उवसमहि हे पुत्र ! तुम दूध मत फैलावो
    भो पुत्तो तुहं खीरु मं पासरहि बार बार तुम वस्त्र क्यो धोते हो?
    पुणु पुणु तुहुं वत्थाई केम धोवहि? तुम्हारे द्वारा एक बार फिर विमान उडाया जाना चाहिए।
    पई पुणुवि विमाणु उड्डावेव्वउँ बच्चे खेलने के लिए बार-बार कूदते हैं
    बालआ खेलेवं पुणु पुणु कुल्ब्लहिं शत्रु को जीतने के लिए तुम एक बार फिर प्रयास करो
    रिउ जिणेवं तुहं पुणु वि उज्जमि तुम्हारे द्वारा उसको एकबार अवश्य ही देखा जाना चाहिए
    पई सो एक्कसि अवसे देखिअव्वो तुम मामा को बार बार क्यों याद करते हो?
    तुहं माउलु मुहु मुह केम सुमरसि? मेरे द्वारा उसको सौ बार समझाया गया; किन्तु वह नहीं समझेगा
    ई सो सयवारउ बुज्झाविओ पर सो णउ बुज्झेसइ मौसी प्रतिदिन तीन बार परमेश्वर की स्तुति करती है
    माउसी दिवे-दिवे तिवार परमेसरु थुणइ तुम रात में बहुत बार क्यों जागते हो?
    तुहं रत्तिहिं वहुवारउ काई जग्गसि? इसी बीच मुनिवर के द्वारा कथा कही गई
    एत्थन्तरे मुणिवरें कहा कहिआ। उसके बाद तुम प्रतिदिन क्या करते हो?
    ताणन्तरे तुहं अणुदिणु किं करसि? वह तुम्हारी वाणी थोडी देर बाद सुनेगा
    सो तुज्झ वाया थोवन्तरे सुणेसइ। तुम्हारे द्वारा अत्यन्त वस्त्र कभी नहीं रखे जाने चाहिए
    पई सुठु वत्थाई ण कयाइ रक्खेअव्वाईं तुम मन लगाकर अधिक अच्छा पढो
    तुहूं मणु लग्गाविउ वरु पढसु अच्छा, मैं इसी समय वहाँ जाता हूँ
    वरि, हउँ एवहिं तहिं गच्छउं हमको सद्भाव पूर्वक भोजन जीमना चाहिए
    अम्हेहिं सब्भावें भोयण जेमेव्वउं शत्रु को जीतने के लिए तुम एक बार फिर प्रयास करो
    रिउ जिणेवं तुहं पुणु वि उज्जमि तुम्हारे द्वारा उसको एकबार अवश्य ही देखा जाना चाहिए
    पई सो एक्कसि अवसे देखिअव्वो तुम मामा को बार बार क्यों याद करते हो?
    तुहं माउलु मुहु मुह केम सुमरसि? मेरे द्वारा उसको सौ बार समझाया गया; किन्तु वह नहीं समझेगा
    मई सो सयवारउ बुज्झाविओ पर सो णउ बुज्झेसइ मौसी प्रतिदिन तीन बार परमेश्वर की स्तुति करती है
    माउसी दिवे-दिवे तिवार परमेसरु थुणइ तुम रात में बहुत बार क्यों जागते हो?
    तुहं रत्तिहिं वहुवारउ काई जग्गसि? इसी बीच मुनिवर के द्वारा कथा कही गई
    एत्थन्तरे मुणिवरें कहा कहिआ उसके बाद तुम प्रतिदिन क्या करते हो?
    ताणन्तरे तुहं अणुदिणु किं करसि? वह तुम्हारी वाणी थोडी देर बाद सुनेगा
    सो तुज्झ वाया थोवन्तरे सुणेसइ तुम्हारे द्वारा अत्यन्त वस्त्र कभी नहीं रखे जाने चाहिए
    पई सुठु वत्थाई ण कयाइ रक्खेअव्वाईं तुम मन लगाकर अधिक अच्छा पढो
    तुहूं मणु लग्गाविउ वरु पढसु अच्छा, मैं इसी समय वहाँ जाता हूँ
    वरि, हउँ एवहिं तहिं गच्छउं हमको सद्भाव पूर्वक भोजन जीमना चाहिए
    अम्हेहिं सब्भावें भोयण जेमेव्वउं तुम पुत्र को स्नेह पूर्वक स्पर्श करो
    तुहूं पुत्तु सणेहें छु मुनि अविकार भाव से प्रभु का ध्यान करते हैं
    मुणि अवियारें पहु झायहिं बालक लीलापूर्वक क्रीड़ा करता है
    बालओ लीलाए कीलइ तुम सबके द्वारा मुनि पूर्ण आदरपूर्वक प्रणाम किए जावे
    तुम्हेहिं मुणि सव्वायरेण पणमिअव्वा तुम सब पूर्ण रूप से प्रसन्न होवो
    तुम्हई णिरारिउ हरिसह उसने पिता को मारा था इसलिए वह भी बड़ी कठिनाई पूर्वक मरा
    तेणं जणेरो हणिओ तेण सो वि दुक्ख दुक्खु मुओ सहसा किसके द्वारा ये लकडिया जलाई गई
    सहसत्ति केण एई लक्कुडाई दहिआईं सेनापति ससैन्य उत्तर की ओर गया
    सेणावइ स चमुए उत्तरेण गउ कवि दक्षिण की ओर जाकर ग्रंथ लिखते हैं
    कइ दाहिणेण गच्छि गंथा लिहन्ति  
  12. Sneh Jain
    1. शब्द 
    पुल्लिंग संज्ञा शब्द
    (क) अकारान्त -
    अक्ख प्राण
    अक्खय अखंड अक्षत अग्घ अर्घ
    अणंग कामदेव अणुबन्ध सम्बन्ध
    अपय मुक्त आत्मा अमर देव
    अमरिस क्रोध अवमाण अपमान
    अवराह अपराध अहिसेअ अभिषेक
    आएस आदेश आयार आचार
    आयास तकलीफ आलाव संभाषण
    आवण दुकान उद्देस उपदेश
    कंत पति कंचण स्वर्ण 
    कडप्प समूह कण्ण कान
    कणय बाण कफाड गुफा
    कर सूंड कर हाथ
    मेट्ठ महावत वज्ज हीरा
    विसाअ शोक सवण कान
    सुहि मित्र सेहर फूलों का गजरा
    काम सुन्दर कुंत भाला
    खंध कंधा जलण आग
    जस कीर्ति जोह सुभट
    णाअ नीति णिलअ आवास
    णेह प्रेम तास भय
    तुरंग घोडा दल टुकड़ा
    दाण दान पंथ रास्ता
    पंचेस काम पओग आचार-विचार
    पडह ढोल पणय प्रेम
    परिहव पराभव पसर प्रभात
    फेण झाग बुहयण विद्वान
    मऊह शिखा करह ऊँट
    कुक्कुर कुत्ता गंथ  पुस्तक
    जणेर बाप पुत्त पुत्र
    पोत्त पोता घर मकान
    माउल मामा पिआमह दादा
    ससुर ससुर दिअर देवर
    णर मनुष्य परमेसर परमेश्वर
    रहुणन्दन राम वय व्रत
    आगम शास्त्र सप्प साँप
    भव संसार कूव कुआ
    मेह मेघ रयण रत्न
    सायर समुद्र राय नरेश
    नरिंद राजा बालअ बालक
    दुज्जस अपयश हणुवन्त हनुमान
    गव्व गर्व हुअवह अग्नि
    मारूअ पवन पड वस्त्र
    कयंत मृत्यु दिवायर सूर्य
    रक्खस राक्षस सीह सिंह
    दुक्ख दुःख बप्प पिता
    गाम गाँव सलिल पानी
    मग्ग मार्ग कुंभ कलश
         
    (ख) इकारांत / ईकारान्त
    सामि
    मालिक
    रहुवइ
    रघुपति
    कइ कवि करि
    हाथी
    मुणि
    मुनि
    जोगि योगी पइ
    पति ससि चन्द्रमा हत्थि हाथी
    पाणि प्राणी भाइ भाई
    केसरि सिंह गिरि पर्वत
    रिसि मुनि जइ यति
    तपस्सि तपस्वी नरवइ राजा
    सेणावइ सेनापति अरि शत्रु
    मंति मंत्री विहि विधि
    अहिवइ अधिपति सुहि मित्र
    अलि भ्रमर असि खड्ग
    कइ वानर गामणी गाँव का मुखिया
         
    (ग) उकारान्त / ऊकारान्त
    जंतु
    प्राणी 
    बिन्दु
    बिन्दू
    मच्चु
    मृत्यु सत्तु शत्रु रिउ दुश्मन
    सूणु पुत्र गुरु गुरु
    धणु धनु तरु पेड़
    करेणु हाथी तेउ तेज
    पहु प्रभु पिउ पिता
    फरसु कुल्हाड़ा रहु रघु
    विज्जु बिजली साहु साधु
    वाउ वायु जामाउ दामाद
    जंबु जामुन मेरु पर्वत विशेष
    सयंभू स्वयंभू खलपू खलियान को साफ करने वाला
    इंदु चंद्रमा
     
    उपरोक्त संज्ञा शब्दों में अकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप 'देव', इकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप ‘हरि', ईकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप ‘गामणी' उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप ‘साहु' तथा ऊकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप ‘सयंभू' के समान चलेंगे।
     
    नपुंसकलिंग संज्ञा शब्द
    (क) अकारान्त
    अंतेउर
    रनिवास अत्थाण सभाभवन अमिय
    अमृत अरविंद कमल अलिअ
    झूठ असुह अशुभ आरोय
    निरोगता उज्जाण उद्यान उप्पल
    कमल कंचण स्वर्ण कज्ज
    प्रयोजन कज्जल काजल घुषिण
    चंदन चच्चर चौराहा चलण
    प्रथा चिंध ध्वजा दल
    पत्ता दाण दान दुरिय
    पाप धम्म धर्म पजक्ख
    प्रत्यक्ष पहरण अस्त्र पाव
    पाप पुण्ण पुण्य पुलिन
    किनारा मउड मुकुट लंघण
    अतिक्रमण विमाण विमान सासण
    शासन पत्त कागज सोक्ख
    सुख रज्ज राज्य पोट्टल
    गठरी णह आकाश सील
    सदाचार णयरजण नागरिक खीर
    दूध छिक्क छींक लक्कुड
    लकड़ी उदग जल गाण
    गीत भय भय वेरग्ग
    वैराग्य सच्च सत्य रत्त
    रक्त मरण मरण खेत्त
    खेत धन्न  धान धण
    धन मज्ज मद्य वसण
    व्यसन जुअ जुआ असण
    भोजन तिण घास वण
    जंगल वत्थ वस्त्र कट्ठ
    काठ भोयण भोजन घय
    घी सिर मस्तक सुत्त
    धागा सुह सुख रिण
    कर्ज बीअ बीज जीवण
    जीवन रूव रूप कम्म
    कर्म जोव्वण यौवन णाण
    ज्ञान मण मन लक्खण
    वस्तु स्वरूप लग्गण आधार  
    (ख) इकारान्त -
    दहि
    दही अच्छि आँख रवि
    सूर्य अट्ठि हड्डी वारि
    जल      
    (ग) उकारान्त -
    महु
    मधु अंसु आँसू वत्थु
    पदार्थ आउ आयु जाणु
    घुटना      
    उपरोक्त संज्ञा शब्दों में अकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों के रूप 'कमल', इकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों के रूप ‘वारि' तथा उकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों के रूप ‘महु के अनुसार चलेंगे।
     
    स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द
    (क) आकारान्त -
    अंबा
    माँ अट्ठाहिया अष्टान्हिका परिक्खा
    परीक्षा सीया सीता सुया
    पुत्री माला समूह ससा
    बहिन माया माता वाया
    वाणी आणा आज्ञा कमला
    लक्ष्मी करुणा दया गंगा
    गंगा जरा बुढ़ापा तणया
    पुत्री णम्मया नर्मदा कहा
    कथा जउणा यमुना जाआ
    पत्नी सद्धा श्रद्धा मेहा
    बुद्धि संझा सायंकाल भुक्खा
    भूख कन्ना कन्या गुह
    गुफा झुंपड़ा झोंपड़ी कलसिया
    छोटा घड़ा णिद्दा नींद पइट्ठा
    प्रतिष्ठा पसंसा प्रशंसा सिक्खा
    शिक्षा सोहा शोभा मइरा
    मदिरा सरिआ सरिता अहिलासा
    अभिलाषा गड्डा खड्डा धूआ
    बेटी नणन्दा नणद महिला
    स्त्री पण्णा प्रज्ञा तिसा
    प्यास तण्हा तृष्णा निसा
    रात्रि वत्ता बात जीहा
    जीभ पइज्जा संकल्प पडाया
    ध्वजा      
    (ख) इकारान्त / ईकारान्त -
    भत्ति
    भक्ति मणि रत्न तत्ति
    तृप्ति रत्ति रात धिइ
    धैर्य थुइ स्तुति अवहि
    समय-सीमा आँखि आँख उत्पत्ति
    जन्म पिहिमि धरती रिद्धि
    वैभव जुवइ युवती सत्ति
    बल अप्पलद्धि आत्मलाभ आगि
    आग मइ मति सामिणि
    स्वामिनी जणेरी माता डाइणी 
    चुडैल बहिणी बहिन पुत्ती
    पुत्री माउसी मौसी णारी
    नारी इत्थी स्त्री लच्छी
    लक्ष्मी महेली महिला समणी
    श्रमणी पिआमही दादी परमेसरी
    ऐश्वर्य, सम्पन्न स्त्री णागरी नगर में रहनेवाली स्त्री साडी
    साड़ी संति शान्ति अरइ
    पीड़ा कित्ति कीर्ति णिव्वुइ
    शान्ति मित्ति परिमाण णलिणि
    कमलिनी रइ प्रीति  
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
    (ग) उकारान्त / ऊकारान्त -
    धेणु
    गाय चंचु चोंच सस्सु
    सासू हणु ठोढ़ी तणु
    शरीर रज्जु रस्सी कण्डू
    खाज खज्जु खुजली सासू
    सासू बहु बहू चमू
    सैन्य कडच्छी कर्छी चमची जंबू
    जामुन का पेड़      
    उपरोक्त संज्ञा शब्दों में आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप ‘कहा', इकारान्त स्त्रीलिंग के रूप मइ', 'ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप के रूप ‘लच्छी’, उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप ‘धेणु' तथा ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप 'बहू' के समान चलेंगे।
     
    सर्वनाम शब्द -
    अम्ह (पु., नपु., स्त्री) = मैं
    तुम्ह (पु., नपु. स्त्री) = तुम
    त (पु.) = वह  
    त (नपु.) = वह
    ता (स्त्री.) = वह
    ज (पु, नपु.) = जो 
    एत (पु. नपु.) = यह
    जा (स्त्री) = जो
    एता (स्त्री) = यह
    क (पु. नपु.) = कौन
    इम (पु. नपु.) = यह
    का (स्त्री) = कौन
    इमा (स्त्री) = यह
    आय ( पु. नपु.) = यह
    कवण (पु. नपु.) = कौन, क्या, कौनसा
    आया (स्त्री) = यह
    कवणा ( स्त्री) = कौन, क्या, कौनसा
    काइं ( पु., नपु., स्त्री) = कौन, क्या, कौनसा  
    ( उपरोक्त संज्ञा व सर्वनाम शब्दों की रूपावली आगे दी जा रही है। )
     
    क्रियाएँ
    अकर्मक क्रियाएँ -
    हस
    हँसना सय सोना णच्च
    नाचना रूस रूसना लुक्क
    छिपना जग्ग जागना जीव
    जीना लज्ज शरमाना थंभ
    रुकना रुव रोना भिड
    भिड़ना डर डरना उच्छल
    उछलना थक्क थकना कंप
    काँपना अच्छ बैठना उज्जम
    प्रयास करना उल्लस खुश होना मर
    मरना पड गिरना उट्ठ
    उठना तडफड छटपटाना घुम
    घूमना खेल खेलना कुल्ल
    कूदना जुज्झ लड़ना मुच्छ
    मूर्छित होना गल गलना कलह
    कलह करना खय नष्ट होना जल
    जलना लुढ लुढकना हो
    होना हु होना उपज्ज
    उत्पन्न होना वल मुडना जर
    बूढ़ा होना गज्ज गर्जना उग
    उगना उड्ड उडना नस्स
    नष्ट होना णिज्झर झरना सोह
    शोभना सुक्क सूखना पसर
    फैलना डुल डुलना दुक्ख
    दुखना पला भागना बइस
    बैठना बुक्क भौंकना तुट्ट
    टूटना कंद रोना हरिस
    प्रसन्न होना वड्ढ बढ़ना विअस
    खिलना लोट्ट सोना, लोटना चुअ
    टपकना कुद्द कूदना जम्म
    जन्म लेना जगड झगड़ना जागर
    जागना विज्ज उपस्थित होना खिज्ज
    अफसोस करना चिट्ठ ठहरना, बैठना छुट्ट
    छूटना हव होना रम
    रमना चेट्ठ प्रयत्न करना गुंज
    गूंजना सिज्झ सिद्ध होना जल
    जलना उच्छह उत्साहित होना चुक्क
    भूल करना लोभ लालच करना कील
    क्रीड़ा करना कील कीलना(मंत्रादि से) घट
    कम होना, घटना चिराव देर करना तव
    तपना वस बसना फुर
    प्रकट होना छिज्ज छीजना खुम्भ
    भूख लगना खास खाँसना गडयड
    गिड़गिड़ाना बिह डरना उवसम
    शान्त होना ल्हस प्रकट होना लुंच
    बाल उखाड़ना वम वमन करना उस्सस
    साँस लेना लग्ग लगना उवविस
    बैठना ऊतर उतरना ठा
    ठहरना णहा नहाना अब्भिट्ट
    भिड़ना उत्तस भयभीत होना कव
    आवाज करना णिअत्त रुकना णिमिस
    पलक झपकना णिवड नीचे गिरना  
    सकर्मक क्रियाएँ -
    रक्ख
    रक्षा करना पाल पालना सुण
    सुनना चर चरना पणम
    प्रणाम करना जाण जानना खा
    खाना अच्च पूजा करना रोक्क
    रोकना उग्घाड खोलना उपकर
    उपकार करना उप्पाड उपाड़ना कट्ट
    काटना कलंक कलंकित करना कुट्ट
    कूटना कोक बुलाना खण
    खोदना छोड छोड़ना छोल्ल
    छीलना जिम जीमना ढक्क
    ढकना तोड तोड़ना गरह
    निन्दा करना गवेस खोज करना घाल
    डालना चक्ख चखना चप्प
    चबाना चिण चुनना चोप्पड
    स्निग्ध करना छंड छोड़ना छल
    ठगना छुअ स्पर्श करना देख
    देखना धो धोना पीस
    पीसना पुक्कर पुकारना तोड
    तोड़ना फाड फाडना कीण
    खरीदना लभ प्राप्त करना झाअ
    ध्यान करना खम क्षमा करना पिब
    पीना गण गिनना पेच्छ
    देखना धार धारण करना पेस
    भेजना बंध बांधना इच्छ
    चाहना  गच्छ जाना पढ
    पढ़ना भण कहना मुण
    जानना नम नमस्कार करना जेम
    जीमना खाद खाना लिह
    लिखना हण मारना पीड
    पीड़ा देना कर करना चव
    बोलना निसुण सुनना चुअ
    त्याग करना लड्ड लाड करना वण्ण
    वर्णन करना सेव सेवा करना डंक
    डसना बखाण व्याख्यान करना भुल
    भूलना सुमर स्मरण करना रंग
    रंगना ठेल्ल ठेलना ढोय
    ढोना चोर चुराना ओढ
    ओढ़ना ले लेना वह
    धारण करना विण्णव कहना मइल
    मैला करना दा देना सिंच
    सींचना थुण स्तुति करना चिंत
    चिंता करना मग्ग मांगना जण
    उत्पन्न करना हिंस हिंसा करना अस
    खाना मार मारना गा
    गाना वद्धाव बधाई देना अच्च
    पूजा करना वज्ज जाना या
    जाना आगच्छ आना धाव
    दौड़ना चुस्स चूसना लिह
    चाटना गाअ गाना खम
    क्षमा करना खिव फैकना रच
    बनाना खंड टुकड़ा करना गुंथ
    गूंथना आवड अच्छा लगना दह
    जलाना सीख सीखना वंद
    प्रणाम करना वंछ चाहना बुज्झ
    समझना खिंस निन्दा करना जिंघ
    सूँघना जिण जीतना जोअ
    प्रकाशित करना माण सम्मान करना पाव
    पाना रक्ख रखना णिरक्ख
    देखना भुंज खाना कीण
    खरीदना अक्ख कहना अवलोय
    देखना अवहर अपहरण करना कह
    कहना असहास संभाषण करना उच्छोल
    उन्मूलन करना उज्जोय प्रकाशित करना उद्धर
    ऊपर उठाना उवहस हँसी करना कयत्थ 
    पीडित करना णिब्भच्छ अपमान करना णिवेस
    स्थापना करना णिहाल देखना तड
    फैलाना थव स्थापित करना दल
    टुकड़े-टुकडे करना धाड बाहर निकालना भज्ज
    भागना मंड सजाना मंत
    परामर्श करना विहड खण्डित करना साह
    सिद्ध करना बोल्ल बोलना  

     




















































     
  13. Sneh Jain
    भाषा जीवन की व्याख्या है और जीवन का निर्माण समाज से होता है। वैयक्तिक व्यवहार को अभिव्यक्ति देने के साथ-साथ भाषा का प्रयोग सामाजिक सहयोग के लिए होता है। जिस तरह भाषा का उद्भव समाज से माना गया है, उसी प्रकार भाषा के विकास में ही मानव समाज का विकास देखा गया है। जिस देश की भाषा जितनी विकसित होगी, वह देश और उसका समाज भी उतना ही विकसित होगा; अत: यह कहा जा सकता है कि भाषा व्यक्ति, समाज व देश से पूर्ण रूप से जुड़ी हुई है। भारतदेश की भाषा के विकास को भी तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।
    प्रथम स्तर (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक)
    प्रत्येक देश के प्रत्येक युग में साहित्य रूढ़ भाषा के समानान्तर कोई न कोई देशी या लोक भाषा अवश्य रही है। यह लोक भाषा ही उस साहित्यिक भाषा को नया जीवन प्रदान कर सदैव विकसित होती रही है। भारतदेश में वैदिक साहित्य से पूर्व जन साधारण में प्राकृत अपने अनेक प्रादेशिक भाषाओं के रूप में कथ्य रूप से प्रचलित थी। यह लोक भाषा के रूप में भारत देश की आद्य भाषा थी। प्राकृत के प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई। वैदिक साहित्य की भाषा को ही छान्दस कहा गया। इस तरह कथ्य प्राकृत से उद्भूत यह छान्दस ही उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई।
    पाणिनी ने अपने समय तक चली आई छान्दस की परम्परा को व्याकरण द्वारा नियन्त्रित एवं स्थिरता प्रदान कर लौकिक संस्कृत नाम दिया। इस तरह वैदिक भाषा (छान्स) और लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव वैदिक काल की प्राकृत से ही हुआ। यही भाषा का प्रथम स्तर है।
     
    द्वितीय स्तर (ईसापूर्व 600 से 1200 ईसवी तक)
    पाणिनी द्वारा छान्स (वैदिक) भाषा के आधार से जिस लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव हुआ, उसमें पाणिनी के बाद कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत वैदिक युग में जो प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ कथ्य रूप से प्रचलित थी, उनमें परवर्ती काल में अनेक परिवर्तन हुए। इनमें ऋ, ऋ आदि स्वरों का, शब्दों के अन्तिम व्यंजनों का, संयुक्त व्यंजनों का तथा विभक्ति और वचन समूह का लोप या रूपान्तर मुख्य है। भारतीय भाषा के इस द्वितीय स्तर को तीन युगों में विभक्त किया गया है - ।
    प्रथमयुग (ईसापूर्व ६०० से ईसवी २०० तक) - शिलालेखी प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत, आर्ष–पालि, प्राचीन जैनसूत्रों की प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, बौद्धजातकों की प्राकृत।
    ईसापूर्व छठी शताब्दी में भगवान महावीर और बुद्ध ने जनभाषा प्राकृत में दार्शनिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को प्रसारित कर सामान्य एवं विशिष्ट जनों के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जैनों के आगम एवं उनके व्याख्या साहित्य तथा बौद्धों के त्रिपिटक साहित्य से देश की संस्कृति ही नहीं; वरन विश्व की संस्कृति भी गौरवान्वित हुई है।
    इस युग में देश में प्राकृत भाषा के व्यापक उपयोग के कारण ही सम्राट अशोक ने (ईसापूर्व तीसरी शती) में प्राकृत भाषा में शिलालेखों को देश के विभिन्न भागों में उत्कीर्ण करवाया। ये प्राकृत के सबसे प्राचीन शिलालेख हैं। इन शिलालेखों के माध्यम से विभिन्न जीवन मूल्यों का अहिंसा के सन्दर्भ में प्रचार-प्रसार किया गया है। | सम्राट खारवेल का हाथी गुफा शिलालेख (ईसवी–१००) उड़ीसा के भुवनेश्वर तीर्थ के पास उदयगिरि पर्वत की एक गुफा में खुदा मिला है। इसमें प्रतापी राजा खारवेल के जीवन वृत्तान्तों एवं उसके द्वारा जैन सम्मेलन बुलाने आदि का वर्णन मिलता है। इस शिलालेख में देश का नाम 'भारतवर्ष' लिखा है।
    मध्ययुग (२०० ईसवी से ६०० ईसवी तक) - भाषा और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्य और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैनकाव्यसाहित्य की प्राकृत, प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृत व्याकरण ग्रंथ।
    इस काल में प्राकृत में विभिन्न विधाओं में साहित्य रचा गया। महाकाव्य, खण्डकाव्य, चरितकाव्य, चम्पूकाव्य, मुक्तककाव्य, सट्टक आदि सभी विधाओं के रूप में प्राकृत साहित्य उपलब्ध है। इनके अतिरिक्त प्राकृत में ज्योतिष, राजनीति, आयुर्वेद, रत्नपरीक्षा, वास्तुसार आदि विभिन्न विषयों का साहित्य भी पाया गया है। प्राकृत व्याकरण, छन्दकोश तथा अलंकार ग्रंथ - प्राकृत साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
    तृतीययुगीन (६०० ईसवी से १२०० ईसवी तक) - जब साहित्यिक विधाओं के लिए प्राकृत का उपयोग प्रारम्भ हुआ तो वैयाकरणों ने प्राकृत प्रयोग के नियम निश्चित कर दिये और इसके अनुरूप साहित्य रचा जाने लगा। तब प्राकृत तो साहित्यिक भाषा बन गई और प्रादेशिक भाषारूप बोलियाँ अपभ्रंश के रूप में विकसित हुई। परिवर्तन के साथ इस नई जनभाषा अपभ्रंश के उद्भव होने के विषय में हिन्दी भाषा एवं साहित्य के जानेमाने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक हिन्दीकाव्यधारा में लिखते हैं - ‘और अपभ्रंश? यहाँ आकर भाषा में असाधारण परिवर्तन हो गया। उसका ढाँचा ही बिल्कुल बदल गया। उसने नये सुबन्तों, तिङन्तों की सृष्टि की और ऐसी सृष्टि की, जिससे वह हिन्दी से अभिन्न हो गई और प्राकृत से अत्यन्त भिन्न।  
    वैसे देखा जाए तो भाषा परिवर्तन के बीज उसके उत्पादन प्रक्रिया में ही रहते हैं। इसीलिए भाष्यकार पतंजलि ने कहा था ‘एकैकस्य शब्दस्य बहवो अपभ्रंशा' अर्थात एक-एक शब्द के बहुत से अपभ्रंश होते हैं। पतंजलि के समय का भाषात्मक परिवर्तन एक शब्द को अनेक शब्दों में ढाल रहा था। परिवर्तन की यह प्रक्रिया अपभ्रंश युग में कुछ अधिक सक्रिय हो उठी। भाषा सम्बन्धी परिवर्तन की इस प्रक्रिया के नमूने इस अपभ्रंश भाषा में सुरक्षित हैं और जिन्होंने इसे सुरक्षित रखा, उनमें अधिकांश जैन कवि हैं। इन्होंने संस्कृत के साथ प्राकृत, अपभ्रंश और परवर्ती प्रान्तीय भाषाओं के सृजन को न केवल प्रेरणा देकर महत्व प्रदान किया; प्रत्युत: उसे सुरक्षित भी रखा।
    तृतीय स्तर (1200 ईसवी से वर्तमान तक)
    इस अपभ्रंश साहित्य भाषा के जन साधारण में अप्रचलित होने से भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में कथ्यभाषाओं के रूप में प्रचलित जिस-जिस अपभ्रंश भाषा से भिन्न-भिन्न प्रदेश की जो–जो आधुनिक आर्य कथ्य भाषाएँ उत्पन्न हुई, वे इस प्रकार हैं -
    मराठी अपभ्रंश से - मराठी और कोंकणी भाषा।
    मागधी अपभ्रंश की पूर्व शाखा से - बंगला, उडिया और आसामी भाषा।
    मागधी अपभ्रंश की बिहारी शाखा से - मैथिली, मगही और भोजपुरिया।
    अर्धमागधी अपभ्रंश से - पूर्वी हिन्दी भाषाएँ। (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी)।
    शौरसेनी अपभ्रंश से - बुन्देली, कन्नौजी, ब्रज, बाँगरू, हिन्दी।
    नागर अपभ्रंश से - राजस्थानी, मालवा, मेवाड़ी, जयपुरी, मारवाड़ी, गुजराती।
    पाली से - सिंहली और मालदीवन।
    टाक्की अथवा ढाक्की से - लहन्दी या पश्चिमी पंजाबी।
    ब्राचड अपभ्रंश से - सिन्धी।
    पैशाची अपभ्रंश से - काश्मीरी भाषा ।
    अत: यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि अपभ्रंश की कोख से ही उपरोक्त आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। वृहत्तर भारतीय संस्कृति और उसके गतिशील मूल्यों को समग्रतर रूप में समझने हेतु उपरोक्त भाषाओं के साहित्य का अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक है।
    उपरोक्त भाषाओं के सदृश अपभ्रंश साहित्य का भी विपुल भंडार है। अपभ्रंश साहित्य में अधिकांश जैनों की तथा बौद्ध सिद्धों, शैवों व मुसलिमों की कुछ रचनाएँ मिलती हैं। ईसा की छठी शती से लेकर सोलहवीं शती तक जैन संतों और कवियों ने मुक्तककाव्य तथा प्रबन्धकाव्य रूप रचनाओं से अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध किया है। मुक्तक काव्य के अन्तर्गत रहस्य, भक्ति, नीति एवं उपदेशात्मक मुक्तक तथा प्रबन्धकाव्य के अन्तर्गत महाकाव्य, चरिउकाव्य एवं कथाकाव्य के रूप में अपभ्रंश साहित्य का समृद्ध भंडार है।  
    मुक्तक रचनाओं में आचार्य जोइन्दु कृत परमात्मप्रकाश व योगसार, मुनिरामसिंह कृत पाहुड़दोहा, सुप्रभाचार्य कृत वैराग्यसार, आचार्य देवसेन कृत सावयधम्म दोहा तथा हेम व्याकरण में संकलित अपभ्रंश के दोहे व अन्य मुक्तक रचनाएँ जीवन के आन्तरिक, आत्मिक व आध्यात्मिक पक्ष को सबल रूप से उजागर कर अपभ्रंश साहित्य की मुक्तक विधा का गौरव बढ़ाते हैं।
    प्रबन्धकाव्य के अन्तर्गत कवि स्वयंभू कृत पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, कवि पुष्पदन्त कृत महापुराण, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, कवि वीर कृत जंबूसामिचरिउ, मुनि नयनन्दि कृत सुदंसणचरिउ, मुनि कनकामर कृत करकंडचरिउ, कवि हरिदेव कृत मयणपराजयचरिउ, कवि जीव कृत हरिसेणचरिउ, कवि धाहिल कृत पउमसिरिचरिउ, पद्मकीर्ति कृत पासणाहचरिउ, कवि सिंह कृत पजुण्णचरिउ, नरसेन कृत सिरिपालचरिउ, जयमिहल कृत वड्डमाणचरिउ, माणिक्यराज कृत अमरसेणचरिउ, कवि रइधू कृत बलहद्दचरिउ, मेहेसरचरिउ, पासणाहचरिउ, सम्मइजिणचरिउ, सांतिणाहचरिउ आदि कुल २८ कृतियाँ तथा और भी अन्य अपभ्रंश काव्य - अपभ्रंश प्रबन्धकाव्य धारा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
    बौद्ध सिद्धों में सरहपा व कण्हपा मुख्य हैं। इनके द्वारा रचित दोहाकोश तथा गीत अपभ्रंशसाहित्य की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। शैवों की रचनाओं के अन्तर्गत अभिनवगुप्त के तन्त्रसार (१०१४) में प्राकृत अपभ्रंश के पद्य मिलते हैं। शितिकण्ठाचार्य की कृति 'महानयप्रकाश' (१५वीं शती) में अपभ्रंश के ९४ पद्य हैं। मुसलिम लेखक अब्दुलरहमान द्वारा रचित ‘संदेशरासक' एक महत्वपूर्ण प्रबन्धात्मक कृति है। इस संदेशरासक काव्य का प्रथम सम्पादन मुनि जिनविजय जी ने किया है। पुनः इस ग्रंथ का नये सिरे से सम्पादन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी व उनके शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया। अतः अपभ्रंश साहित्य काव्य रूपों की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न है। इन सभी काव्य रूपों का विकास हिन्दी में भी दिखाई पड़ता है।
    आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी इस अपभ्रंश भाषा को पढ़ने की प्रेरणा मुझे अपभ्रंश साहित्य अकादमी के संयोजक डॉ. कमलचन्द जी सोगाणी साहब से मिली। सन् १९९३ में मेरी अपभ्रंश साहित्य अकादमी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी में पत्राचार के माध्यम से अपभ्रंश सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम के अध्यापन हेतु नियुक्ति हुई। तब से १४ वर्ष तक अध्यापन करने के पश्चात् अपभ्रंश व्याकरण को जिस तरह से मैंने समझा, उसे पुस्तक रूप देने की चाहत पैदा हुई। तदुपरान्त मात्र ३ माह की अल्पावधि में मैंने इस कार्य को अपभ्रंश अनुवाद कला' पुस्तक के रूप में पूर्ण कर लिया।
    आभार -
    मात्र अपभ्रंश काव्यों को पढने व समझने की रुचि ने मुझे हेमचन्द्र व्याकरण पढने की ओर आकर्षित किया। तदर्थ मैंने डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी, संयोजक अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अपभ्रशं रचना सौरभ एवं अपभ्रंश प्रौढ रचना सौरभ पुस्तक का सहारा लिया। मैंने जिस तरह इन पुस्तकों के आधार पर अपभ्रंश भाषा को सीखा उसी को मैंने अपनी इस पुस्तक अपभ्रंश अनुवाद कला में अभिव्यक्त किया है। मुझे आशा है कि अपभ्रंश भाषा को सीखनेवालों के लिये यह पुस्तक अवश्य मार्गदर्शन का काम करेगी।
    इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा मुझे मेरे स्वयं के अन्तर्मन से मिली। मुझे लगा कि अपभ्रंश भाषा के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिये अपभ्रंश भाषा, अपभ्रंश भाषा की किसी भी अप्रकाशित रचना अथवा किसी भी प्रकाशित रचना पर जितना और जैसा भी संभव हो लेखन कार्य करना चाहिये। तदर्थ सर्वप्रथम मैंने जीव कवि कृत ‘हरिसेणचरिउ' का अनुवाद व समीक्षात्मक अध्ययन किया और वह कृति श्री महावीरजी से पुरस्कृत हुई। उसके बाद यह अपभ्रंश अनुवाद कला' पुस्तक को आपके हाथों में सौंपकर हर्ष का अनुभव कर रही हूँ। आपको यह जानकर पुनः हर्ष होगा कि अपने अगले कार्य हेतु मैंने स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (रामकथा) को लिया है। पउमचरिउ पर काम करने पर जिस आनन्दानुभूति का मैं अनुभव कर रही हूँ, निश्चय ही इस कृति के पूर्ण होने पर पाठकों को भी इसका अपार लाभ मिल सकेगा।
    मैं भाई संजीवजी गोधा, प्रबन्ध सम्पादक वीतराग-विज्ञान (मासिक) एवं जैनपथ प्रदर्शक (पाक्षिक) के प्रति अपनी पूर्ण कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। ‘धर्म क्यों करें कैसे जानें ?' नामक पुस्तक में इनका पता देखकर इनसे पहली बार मैं अपने पति महोदय के साथ इनके घर पर ही मिली और इस पुस्तक के सम्पादन व प्रकाशन का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा। मुझे यह कहते हुये अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि भाई संजीवजी ने हमारे स्वागत सत्कार व अपने मधुर व्यवहार के साथ पहली बार में ही पुस्तक के प्रकाशन करने की स्वीकृति प्रदान की। उन्होंने जिस प्रसन्नता व आवश्यक सुझावों के साथ इस कृति के सम्पादन व प्रकाशन करने का कार्य पूरा किया, तदर्थ मैं पुन: उनका आभार व्यक्त करती हूँ।
    अब मैं अपने परिवार के सभी सदस्यों डॉ. मणिकान्त ठोलिया, पुत्र-पुत्र वधू सचिन-प्रियंका, अनुज पुत्र सौरभ एवं पुत्री-दामाद अनिता–शिखरजी पांड्या को धन्यवाद देती हैं, जिन्होंने इस कार्य की अवधि में महत्वपूर्ण कार्यों में सहयोग प्रदान कर इस पुस्तक को शीघ्र पूर्ण करने में अपना योगदान दिया।  
    यह इस पुस्तक 'अपभ्रंश अनुवाद कला' का पहला संस्करण है। इसमें रही त्रुटियों को सूचित करने वाले विद्वानों के प्रति मैं बहुत आभारी रहूंगी।
    स्नेहलता जैन
  14. Sneh Jain
    किसी भी भाषा को सीखने व समझने के लिए उस भाषा के मूल तथ्यों की जानकारी होना आवश्यक है। अपभ्रंश भाषा को सीखने व समझने के लिए भी इस भाषा के मूल तथ्यों को समझना होगा जो निम्न रूप में हैं -
     
    1. ध्वनि - फेफड़ों से श्वासनली में होकर मुख तथा नासिका के मार्ग से बाहर निकलने वाली प्रश्वास वायु ही ध्वनियों को उत्पन्न करती है। प्रत्येक ध्वनि के लिए एक भिन्न वर्ण का प्रयोग होता है। प्रश्वास को मुख में जीभ द्वारा नहीं रोकने तथा रोकने के आधार पर ध्वनियाँ दो प्रकार की मानी गई हैं - (1) स्वर ध्वनि और (2) व्यंजन ध्वनि
    (1) स्वर ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में जीभ प्रश्वास को मुख में किसी भी तरह नहीं रोकती तथा प्रश्वास बिना किसी रुकावट के बाहर निकलता है, वे स्वर ध्वनियाँ कहलाती हैं। इनका उच्चारण बिना किसी वर्ण की सहायता के स्वतन्त्र रूप में किया जाता है। अपभ्रंश में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ स्वर होते हैं। हिन्दी के ऋ, ऐ, औ स्वर यहाँ नहीं होते।
    (2) व्यंजन ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में प्रश्वास मुख में जीभ द्वारा रोका जाता है और यह इधर उधर रगड़ खाता हुआ बाहर निकलता है, वे व्यंजन ध्वनियाँ कहलाती हैं -
    क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण....
    अपभ्रंश में असंयुक्त अवस्था में ङ और अ का प्रयोग नहीं पाया जाता है। ङ और अ के स्थान पर संयुक्त अवस्था में अनुस्वार का प्रयोग बहुलता से मिलता है।
     
    2. चिन्ह - अपभ्रंश में निम्न चिन्हों का प्रयोग होता है -
    (१) अनुस्वार - स्वर के ऊपर जो बिन्दी लगाई जाती है, उसे अनुस्वार कहते हैं। अनुस्वार का स्वरों के बिना प्रयोग नहीं होता अर्थात् स्वरों की सहायता से ही इनका उच्चारण हो सकता है। जैसे -
    क ख ग घ ह से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘’ङ" की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंक - पक, अंग - अङ्ग आदि ।
    च छ ज झ य से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ञ् ' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंच - पञ्च , संयम - सञ्यम आदि।
    ट ठ ड ढ से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ‘ण’ की तरह होता है। उदाहरणार्थ - टंटा–टण्टा, अंडा–अण्डा आदि।
    त थ द ध न र से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘न्' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - अंत-अन्त।
    प फ ब भ म व से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘म्' के समान होता है। उदाहरणार्थ - संमाण–सम्मान् आदि।
    (२) अनुनासिक - अनुस्वार का कोमल रूप अनुनासिक कहलाता है | उदाहरणार्थ - आँखें, अँगूठी, हँसना आदि।
    (३) अर्धचन्द्र - हिन्दी व अंग्रेजी की तरह अपभ्रंश में भी कुछ स्वरों पर ऐसा चिन्ह स्वरों को ह्रस्व दिखाने हेतु लगाया जाता है - रणे, ताणन्तरे, खग्गएँ, पअहिराएँ आदि।
     
    3. वचन - संज्ञा सर्वनाम तथा विशेषण के जिस रूप से यह पता चले कि वह एक को बता रहा है या अनेक को, उसे वचन कहते हैं। अपभ्रंश में दो ही वचन होते हैं - एकवचन और बहुवचन।
    (१) एकवचन - संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक का बोध हो, उसे एकवचन कहते हैं। जैसे - देवो, माउलो, णरो आदि।
    (२) बहुवचन - संज्ञा सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक से अधिक का बोध हो, उसे बहुवचन कहते हैं। जैसे - देवा, माउला, णरा आदि। कई बार सम्मानार्थ व अभिमानार्थ भी एक के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है।
     
    4. शब्द - प्रयोग की दृष्टि से शब्द पाँच प्रकार के हैं -
    (क) संज्ञा (ख) सर्वनाम (ग) विशेषण (घ) क्रिया (ङ) अव्यय
    (क) संज्ञा - किसी व्यक्ति, जाति, स्थान, वस्तु, विचार भाव आदि के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे - रहुणन्दण, कमल, सीया, धेणु, वारि आदि।
    संज्ञा शब्द लिंगभेद के आधार पर तीन प्रकार के तथा शब्द संरचना के आधार पर चार प्रकार के होते हैं।
    लिंग भेद - (1) पुल्लिंग (2) स्त्रीलिंग (3) नपुंसकलिंग
    शब्द संरचना - (1) अकारान्त (2) आकारान्त (3) इकारान्त/ ईकारान्त (4) उकारान्त/ ऊकारान्त।।
    सामान्यत: अकारान्त शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग होते हैं तथा आकारान्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। इकारान्त, उकारान्त शब्द पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग होते हैं; किन्तु अपभ्रंश में कई स्थानों पर एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त अलग–अलग शब्द अलग–अलग लिंग से युक्त भी देखे जाते हैं।
    जैसे - स्त्री शब्द हेतु अपभ्रंश में दार, भज्जा और कलत्त शब्द हैं। इनमें दार पुल्लिंग, भज्जा स्त्रीलिंग और कलत्त नपुंसकलिंग हैं। शरीर के लिए तणु स्त्रीलिंग, देह पुल्लिंग और सरीर नपुंसक लिंग अर्थ में प्रयुक्त होता है। जल के लिए प्रयुक्त सलिल शब्द पुल्लिंग तथा उदग शब्द नपुंसकलिंग है। इसीप्रकार अनेक अकारान्त संज्ञा शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग दोनों ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। अत: अपभ्रंश में लिंग का ज्ञान कोश के आधार से ही किया जाना चाहिए।
    ( ख ) सर्वनाम - संज्ञा की पुनरुक्ति के निवारण के लिए जिन शब्दों का प्रयोग होता है, वे सर्वनाम शब्द कहलाते हैं।
    सर्वनाम छ: प्रकार के हैं -
    1. पुरुषवाचक सर्वनाम - बोलनेवाले, सुननेवाले तथा अन्यपुरुष की संज्ञा के स्थान पर जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है, वे पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन भेद हैं -
    (1) उत्तमपुरुष - बोलनेवाला या लिखने वाला जिन सर्वनामों का अपने लिए प्रयोग करता है, वे उत्तमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - हउं-मैं, अम्हे/अम्हइं–हम सब
    (2) मध्यमपुरुष - बोलनेवाला या लिखनेवाला जिस व्यक्ति को बोलता है या लिखता है, वे मध्यमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - तुहुं—तुम/तुम्हे, तुम्हइं–तुम सब
    (3) अन्यपुरुष - बोलनेवाला तथा सुननेवाला जिस अन्य व्यक्ति के विषय में कुछ कहता है, वे सब अन्यपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - सो—वह (पुल्लिंग), ते–वे सब (पुल्लिंग), सा-वह (स्त्रीलिंग), ता–वे सब (स्त्रीलिंग)।
    नोट - सभी संज्ञा शब्द भी अन्यपुरुष के अन्तर्गत ही आते हैं।
    2. निश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए निश्चित संकेत करे, वह निश्चयवाचक सर्वनाम है। जैसे - यह, ये, वह, वे आदि।
    3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी निश्चित वस्तु या व्यक्ति के लिए संकेत न करे, वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं। जैसे - कोई, कुछ आदि।
    4. सम्बन्धवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम अन्य उपवाक्य में प्रयुक्त होकर संज्ञा या सर्वनाम का सम्बन्ध प्रकट करे, वह सम्बन्धवाचक सर्वनाम है। जैसे - जो करेगा सो भरेगा, जिसे देखो वही खुश है। यह सम्बन्धवाचक सर्वनाम उसी संज्ञा की ओर संकेत करता है, जो उसके पहले आ चुकी है।
    5. प्रश्नवाचक सर्वनाम - किसी व्यक्ति या वस्तु के विषय में कुछ प्रश्न पूछने के लिए जिस सर्वनाम का प्रयोग होता है, वह प्रश्नवाचक सर्वनाम है। जैसे - कौन, क्या आदि।।
    6. निजवाचक सर्वनाम - जो उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष तथा अन्यपुरुष का अपने आप बोध करावे, वह निजवाचक सर्वनाम है। जैसे - आप स्वयं करके देखें। तुम स्वयं अपना काम सुधारो।
    (ग) विशेषण - जो शब्द संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता को प्रकट करते हैं, वे विशेषण कहलाते हैं। इनके विभक्ति, लिंग और वचन विशेष्य के अनुसार ही होते हैं।
    विशेषण के तीन भेद है -
    1. सार्वनामिक विशेषण 2. गुणवाचक विशेषण 3. संख्यावाचक विशेषण
    (घ) क्रिया - जिन शब्दों से किसी काम का होना या करना प्रकट हो, उसे क्रिया कहते है। जैसे जाता है, गया, जायेगा, पढाता है आदि।
    क्रिया दो प्रकार की होती है - अकर्मक, सकर्मक ।
    (1) अकर्मक क्रिया - अकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कोई कर्म नहीं होता और जिसका प्रभाव कर्ता पर ही पड़ता है। । (२) सकर्मक क्रिया - सकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कर्म होता है तथा जिसमें कर्ता की क्रिया का प्रभाव भी कर्म पर ही पड़ता है।
    क्रियाओं का प्रेरणार्थक रूप - कर्ता स्वयं जब किसी भी क्रिया (अकर्मक, सकर्मक) को करने हेतु किसी को प्रेरित करता है या अन्य किसी को क्रिया करने हेतु प्रेरित करवाता है, तब वहाँ प्रेरित करने तथा प्रेरित करवाने के अर्थ में प्रेरणार्थक क्रिया होती है। अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में ही प्रेरणार्थक प्रत्यय लगाकर उनको प्रेरणार्थ क्रिया बनाया जाता है। अकर्मक क्रिया जैसे ही प्रेरणार्थक क्रिया बनती है. उसमें कर्म का समावेश हो जाता है और वही सकर्मक क्रिया का रूप लेकर प्रेरणार्थक क्रिया बन जाती है।
    (ङ) अव्यय - ऐसे शब्द जिनके रूप में कोई विकार/परिवर्तन उत्पन्न न हो और जो सदा सभी विभक्ति, सभी वचन और सभी लिंगों में एक समान रहे तथा लिंग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में घटती-बढ़ती न हो, वे अव्यय शब्द कहलाते हैं। इनको अविकारी शब्द भी कहा जाता है। अपभ्रंश में सम्बन्धक भूत कृदन्त (पूर्वकालिक क्रिया) तथा हेत्वर्थक कृदन्त भी अव्यय का ही काम करते हैं।
    5. लिंग -  जिस चिन्ह से यह पता चले कि संज्ञा पुरुष जाति की है या स्त्री जाती की, उसे लिंग कहते हैं।
    अपभ्रंश भाषा में ३ लिंग होते हैं -
    1.पुल्लिंग 2. स्त्रीलिंग 3. नपुंसकलिंग
     
    6. काल - क्रिया के जिस रूप से क्रिया के होने के समय का पता चलता है, उसे काल कहते हैं।
    अपभ्रंश भाषा में ४ प्रकार के काल होते हैं -
    1.वर्तमानकाल 2.विधि एवं आज्ञा 3.भविष्यत्काल 4.भूतकाल - अपभ्रंश भाषा में भूतकाल को व्यक्त करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है।
     
    7. कारक - संज्ञा व सर्वनाम के जिस रूप से उसका क्रिया अथवा दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है, उसे कारक कहते हैं। संज्ञा व सर्वनाम के रूप रचना विधान से ही इनका क्रिया व दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है।
    अपभ्रंश भाषा में कारक ८ होते हैं -
    1.कर्ता 2.कर्म 3.करण 4.सम्प्रदान 5.अपादान 6.सम्बन्ध 7.अधिकरण ८.सम्बोधन
    रूप रचना विधान (संज्ञा)
    कारक
    एकवचन बहुवचन कर्ता
    राजा, राजा ने राजा, राजाओं ने कर्म
    राजा को राजाओं को करण
    राजा से, द्वारा राजाओं से सम्प्रदान
    राजा के लिए, को राजाओं के लिए, को अपादान
    राजा से राजाओं से सम्बन्ध
    राजा का, के, की राजाओं का, के, की अधिकरण
    राजा में/पर राजाओं में, पर सम्बोधन
    हे राजा ! हे राजाओं !  
    रूप रचना विधान (सर्वनाम)
    उत्तम पुरुष 'मैं' के सब कारकों में रूप
     कारक
    एकवचन बहुवचन कर्ता
    मैं, मैंने हम, हमने कर्म
    मुझको, मुझे हमको, हमें करण
    मुझसे, मेरे द्वारा हमसे, हमारे द्वारा सम्प्रदान
    मुझको, मुझे, मेरे लिए हमको, हमें, हमारे लिए अपादान
    मुझसे हमसे सम्बन्ध
    मेरा, मेरे, मेरी हमारा, हमारे, हमारी अधिकरण
    मुझमें, पर हममें, पर शब्द रूपावली से स्पष्ट है कि अपभ्रंश में चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति के लिए एक समान ही प्रत्यय हैं। सर्वनाम में सम्बोधन नहीं होता।
     
    8. वाच्य - वाक्य रचना का मुख्य आधार वाच्य होता है। क्रिया के जिस रूप से पता चले कि उसके वर्णन का मुख्य विषय कर्ता है, कर्म है या धातु का भाव है, उसे वाच्य कहते हैं। वाच्य तीन प्रकार के होते हैं -
    (1) कर्तृवाच्य (2) भाववाच्य (3) कर्मवाच्य 
    (1) कर्तृवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्ता' हो, वहाँ कर्तृवाच्य होता है। कर्तृवाच्य का प्रयोग अकर्मक व सकर्मक दोनों क्रियाओं के साथ होता है। अकर्मक क्रिया से कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता सदैव प्रथमा विभक्ति में होता है तथा कर्ता के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार क्रियाओं के लिंग, वचन व पुरुष होते हैं। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता में प्रथमा तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और क्रिया के पुरुष और वचन कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होते हैं। अकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग चारों कालों - वर्तमान, विधि-आज्ञा, भविष्यत्काल तथा भूतकाल में होता है; जबकि सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग प्रायः भूतकाल में नहीं होता, बाकी तीनों कालों में होता है।
    (2) भाववाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय न कर्ता हो और न कर्म; बल्कि क्रिया का अर्थ (भाव) ही विधान का विषय बने, वहाँ भाववाच्य होता है। इसमें क्रिया के लिंग, वचन, पुरुष न तो कर्ता के अनुसार होते हैं, और न कर्म के अनुसार होते हैं। इसमें क्रिया सदैव अन्य पुरुष एकवचन में तथा कृदन्त सदैव नपुंसक लिंग प्रथमा एकवचन में रहते हैं। भाववाच्य में सदैव अकर्मक क्रियाएँ ही प्रयुक्त होती हैं।
    (3) कर्मवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय ‘कर्म' हो, वहाँ कर्मवाच्य होता है। कर्मवाच्य में सकर्मक क्रियाएँ व प्रेरणार्थक क्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं। इसमें क्रिया के लिंग, वचन व पुरुष - कर्म के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार होते हैं। कर्मवाच्य क्रिया व कृदन्त दोनों से बनाये जाते हैं।
  15. Sneh Jain
    किसी भी कृति को उसकी मूल भाषा में पढ़ने का एक अलग ही मजा होता है। जो भाव का हृदयंगम मूल भाषा से पढ़ने में होता है, वह उसका अनुवाद, टीका या व्याख्या पढने में नहीं हो सकता। यह तो सर्व विदित ही है कि जैन आगम ग्रन्थों की मूल भाषा प्राकृत रही है। प्राकृत का साहित्यिक रूप लेने पर प्रादेशिक भाषारूप बोलियाँ ही अपभ्रंश के रूप में विकसित हुई। प्राचीन काल में अपभ्रंश भाषा में भी विपुल जैन साहित्य का सृजन हुआ है।
    यद्यपि उनमें से बहुत से ग्रन्थों का अनुवाद भी हुआ है, किन्तु फिर भी हजारों ग्रन्थ आज भी पाण्डुलिपियों के रूप में उसी मूल भाषा में रखे हुये, ग्रंथागारों/पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं, जिन्हें पढने/समझने की रुचि होने पर भी भाषा की अनभिज्ञता के कारण अनेकों लोग उन आचार्यों, विद्वानों की बात को गहराई से समझने में असमर्थ रहते हैं। उन सभी जिज्ञासु/रुचिवंत पाठकों को लक्ष में रखकर श्रीमती स्नेहलताजी जैन द्वारा इस पुस्तक का सुन्दर लेखन एवं संकलन करने का स्तुत्य कार्य किया है। आप अनेकों वर्षों से अपभ्रंश भाषा का अध्यापन कराने में संलग्न हैं। जिस पद्धति से आप विद्यार्थियों को अपभ्रंश भाषा का अध्ययन कराती है, उसी को आपने पुस्तकाकार रूप में लिपिबद्ध किया है।
    प्रस्तुत पुस्तक में अपभ्रंश व्याकरण की मूलभूत इकाईयों के साथ-साथ अपभ्रंश भाषा में प्रयोग किये जाने वाले महत्वपूर्ण शब्दों क्रियाओं एवं शब्द रूपावली का भी समावेश किया है। साथ ही लेखिका ने छोटे-छोटे से वाक्यों की रचना करके, उनका अनुवाद करके पाठक को सरलता से अपभ्रंश भाषा सिखाने का प्रयास किया है। प्रत्येक पाठ के अन्त में अभ्यास हेतु प्रश्न दिये गये हैं। अन्तिम अध्याय में अपभ्रंश भाषा में रचित प्राचीन काव्यों से संग्रहीत छोटे-छोटे से सुन्दर, हृदयग्राही एवं शिक्षाप्रद वाक्यों को व्याकरणिक परिचय सहित प्रस्तुत किया है।
    यद्यपि यह पुस्तक डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी द्वारा लिखित 'अपभ्रंश रचना सौरभ' एवं 'अपभ्रंश प्रौढ रचना सौरभ' को आधार बनाकर लिखी गई है। फिर भी इसमें अपभ्रंश को सिखाने की लेखिका की अपनी स्वतंत्र मौलिक कला है, जिसका लाभ सीखने की रुचि रखनेवालों को अवश्य ही मिलेगा।
    निश्चित ही यह पुस्तक अपभ्रंश भाषा को सीखने की रुचि रखने वालों के लिये बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। इस पुस्तक के माध्यम से अधिक से अधिक लोग अनुवाद कला को सीखकर मूल ग्रन्थकारों द्वारा रचित ज्ञान-वैराग्य प्रेरक साहित्य का भाव समझकर आत्म कल्याण की ओर अग्रसर हों - इसी पवित्र भावना के साथ...
    - संजीवकुमार गोधा
  16. Sneh Jain
    पुनः आचार्य योगीन्दु दृढ़तापूर्वक मोक्षमार्ग में प्रीति करने के लिए समझाते हैं कि यहाँ संसार में कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है, प्रत्येक वस्तु नश्वर है, फिर उनसे प्रीति किस लिए ? क्योंकि प्रिय वस्तु का वियोग दुःखदायी है और वियोग अवश्यंभावी है। जाते हुए जीव के साथ जब शरीर ही नहीं जाता तो फिर संसार की कौन सी वस्तु उसके साथ जायेगी। अतःः सांसारिक वस्तुओं से प्रीति के स्थान पर मोक्ष में प्रीति ही हितकारी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा
    129.   जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ।
           जीविं जंतिं कुडि ण गय इहु पडिछन्दा जोइ।।
    अर्थ -हे योगी! यहाँ प्रत्येक (वस्तु) कृत्रिम (नाशवान) है, कोई भी (वस्तु) अकृत्रिम (अविनाशी) नहीं है। जाते हुए जीव के साथ शरीर (कभी भी) नहीं गया, इस समानता (उदाहरण) को तू समझ।
    शब्दार्थ - जोइय- हे योगी, सयलु-प्रत्येक, वि-ही, कारिमउ-कृत्रिम, णिक्कारिमउ-अकृत्रिम, ण -नहीं, कोइ-कोई भी, जीविं-जीव के साथ, जंतिं -जाते हुए, कुडि-शरीर, ण-नहीं, गय-गया, इहु- इस, पडिछन्दा-समानता को, जोइ-समझ।

     

     
  17. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सभी प्रकार के जीवों में मनुष्य ही श्रेष्ठ जीव है। जीवन में सुख-शान्ति का मतलब जितना वह समझ सकता है उतना कोई तिर्यंच आदि जीव नहीं। किन्तु देखने को यह मिलता है कि मनुष्य ही सबसे अशान्त जीव है। आचार्य ऐसे अशान्त जीव को शान्ति का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि तू सांसारिक सुखों में उलझकर मोक्ष मार्ग को मत छोड़। मोक्ष का तात्पर्य शब्द कोश में शान्ति, दुःखों से निवृत्ति ही मिलता है। आचार्य के अनुसार जब हमारे जीवन का ध्येय शान्ति की प्राप्ति होगा तो हम सांसारिक सुखों को सही रूप में भोगते हुए भी उनमें भटकेंगे नहीं। जब हमारा ध्येय शान्ति की प्राप्ति होगा तब तदानुरूप ही हमारी क्रिया होगी। अतः शुद्ध मोक्षमार्ग में प्रीति आवश्यक है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    128.  मूढा सयलु वि कारिमउ भुल्लउ मं तुस कंडि।
          सिव-पहि णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छंडि।।
    अर्थ - हे मूर्ख! यह समस्त जगत ही कृत्रिम है,(सांसारिक सुखों में) भटका हुआ तू भूसी को कूटकर भूसी अलग मत कर। (समय व्यर्थ बरबाद मत कर) । घर, (और) परिवार को छोड़कर शुद्ध मोक्ष मार्ग में प्रीति कर।
    शब्दार्थ -मूढा - हे मूर्ख, सयलु-समस्त, वि-ही, कारिमउ-कृत्रिम, भुल्लउ-भटका हुआ, मं-मत, तुस-भूसी को, कंडि-कूटकर भूसी अलग कर, सिव-पहि-मोक्ष मार्ग में, णिम्मलि-शुद्ध, करहि -कर, रइ -प्रीति, घरु -घर, परियणु-परिवार, लहु-शीघ्र, छंडि-छोड़कर।

     

     
  18. Sneh Jain
    इस दोहे में आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप में घोषणा करते हैं कि हे प्राणी! यदि तू बेहोशी में जीकर इतना नहीं सोचेगा कि मेरे क्रियाओं से किसी को कोई पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है तो तू निश्चितरूप से नरक के समान दुःख भोगेगा। इसके विपरीत यदि तेरी प्रत्येक क्रिया इतनी जागरूकता के साथ है कि तेरी क्रिया से किसी भी प्राणी को तकलीफ नहीं पहुँचती तो तू निश्चितरूप से स्वर्ग के समान सुख प्राप्त करेगा। यह कहकर आचार्य योगीन्दु बडे़ प्रेम से कहते हैं कि देख भाई मैंने तूझे सुख व दुःख के दो मार्गों को अच्छी तरह से समझा दिया है, अब तुझे जो सही लगे वही कर। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    127.   जीव वहंतहँ णरय-गइ अभय-पदाणे ँ सग्ग।
           बे पह जवला दरिसिया जहि ँ रुच्चइ तहि ँ लग्गु।।
    अर्थ -  जीवों का वध करते हुओं को नरकगति (मिलती है), (तथा) अभय दान से स्वर्ग (मिलता है)।
       (ये) दो मार्ग समुचित रूप से (तुझकोे) बताये गये हैं, जिसमें तुझे अच्छा लगता है उसमें दृढ़ हो।
    शब्दार्थ - जीव-जीवों का, वहंतहँ-वध करते हुओं को,  णरय-गइ-नरक गति, अभय-पदाणे ँ -अभय दान से स्वर्ग, सग्ग-स्वर्ग, बे -दो, पह -मार्ग, जवला-समुचित, दरिसिया-बताये गये हैं, जहि ँ-जिसमें,  रुच्चइ -अच्छा लगता है, तहि ँ-उसमें, लग्गु-दृढ़ हो।

     
  19. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हे प्राणी! तू किसी भी क्रिया को करने से पहले उसके विषय में अच्छी तरह से विचार कर। अन्यथा भोगों के वशीभूत होकर अज्ञानपूर्वक की गयी तेरी क्रिया से जीवों को जो दुःख हुआ है उसका अनन्त गुणा दुःख तुझे प्राप्त होगा। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 
    126.    मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु करीसि ।
            तं तह पासि अणंत-गुण अवसइँ जीव लहीसि।।
    अर्थ - हे जीव!  तू जीवों को मारकर, कुचलकर (उनके लिए) जो दुःख उत्पन्न करता है, उस (दुःख के फल) को तू उस (दुःख) की श्रृंखला में अनन्त गुणा अवश्य ही प्राप्त करेगा।
    शब्दार्थ - मारिवि -मारकर, चूरिवि -कुचलकर, जीवडा -जीवों को, जं -जो, तुहुँ -तू, दुक्खु -दुख,करीसि-उत्पन्न करता है, तं - उसको, तह-उसकी, पासि-श्रृंखला में, अणंत-गुण -अनन्त गुणा, अवसइँ - अवश्य ही,जीव-हे जीव!  लहीसि-प्राप्त करेगा।
  20. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हे प्राणी! तू किसी भी क्रिया को करने से पहले उसके विषय में अच्छी तरह से विचार कर। अन्यथा भोगों के वशीभूत होकर अज्ञानपूर्वक की गयी तेरी क्रिया से जीवों को जो दुःख हुआ है उसका अनन्त गुणा दुःख तुझे प्राप्त होगा। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 
    126.    मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु करीसि ।
            तं तह पासि अणंत-गुण अवसइँ जीव लहीसि।।
    अर्थ - हे जीव!  तू जीवों को मारकर, कुचलकर (उनके लिए) जो दुःख उत्पन्न करता है, उस (दुःख के फल) को तू उस (दुःख) की श्रृंखला में अनन्त गुणा अवश्य ही प्राप्त करेगा।
    शब्दार्थ - मारिवि -मारकर, चूरिवि -कुचलकर, जीवडा -जीवों को, जं -जो, तुहुँ -तू, दुक्खु -दुख,करीसि-उत्पन्न करता है, तं - उसको, तह-उसकी, पासि-श्रृंखला में, अणंत-गुण -अनन्त गुणा, अवसइँ - अवश्य ही,जीव-हे जीव!  लहीसि-प्राप्त करेगा।
  21. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु की यह गाथा सार्वकालिक व सार्वभौमिक है। हम सभी गृहस्थ जीव आज पुत्र, पुत्री, पत्नी, पति के मोह में पड़कर उनके सुख के लिए कितने ही लोगों को दुःखी कर पाप अर्जित करते हैं। हम बच्चों को रागवश उनकी सभी उचित अनुचित अभिलाषा पूर्ण कर उनको प्रमादी व पराधीन बना देते हैं। इसका परिणाम हम जब भुगतते हैं जब वे हमारे रागवश बिगड़ जाते हैं और हमारी वृद्धावस्था में हमारे दुःख का कारण बनते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोग भी हमसे दूर हो जाते हैं जिनकोे हमने अपने बच्व्चो के कारण दुःख दिया। इस प्रकार पुत्र व स्त्री से अति राग अन्त में मानव को एकाकी, दयनीय व दुःखी बना देता है। इसीलिए आचार्य ने हम सभी जीवों के लिए अपने नजदीकी सम्बन्धों से भी राग करने को हेय बताया है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    125.    मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि।
            पुत्त-कलत्तहँ कारणइँ तं तुहुँ एक्कु सहीसि।।
     अर्थ - हे जीव! तू पुत्र और स्त्री के निमित्त से लाखों जीवों को मारकर जो पाप करता है, उस (पाप के फल) को तू अकेला सहन करेगा।
    शब्दार्थ -मारिवि-मारकर,  जीवहँ -जीवों को, लक्खडा -लाखों, जं-जो, जिय-हे जीव! पाउ -पाप, करीसि-करता है, पुत्त-कलत्तहँ-पुत्र और स्त्री के, कारणइँ -निमित्त से, तं -उसको, तुहुँ -तू, एक्कु -अकेला, सहीसि-सहन करेगा।
  22. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु की यह गाथा सार्वकालिक व सार्वभौमिक है। हम सभी गृहस्थ जीव आज पुत्र, पुत्री, पत्नी, पति के मोह में पड़कर उनके सुख के लिए कितने ही लोगों को दुःखी कर पाप अर्जित करते हैं। हम बच्चों को रागवश उनकी सभी उचित अनुचित अभिलाषा पूर्ण कर उनको प्रमादी व पराधीन बना देते हैं। इसका परिणाम हम जब भुगतते हैं जब वे हमारे रागवश बिगड़ जाते हैं और हमारी वृद्धावस्था में हमारे दुःख का कारण बनते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोग भी हमसे दूर हो जाते हैं जिनकोे हमने अपने बच्व्चो के कारण दुःख दिया। इस प्रकार पुत्र व स्त्री से अति राग अन्त में मानव को एकाकी, दयनीय व दुःखी बना देता है। इसीलिए आचार्य ने हम सभी जीवों के लिए अपने नजदीकी सम्बन्धों से भी राग करने को हेय बताया है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    125.    मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि।
            पुत्त-कलत्तहँ कारणइँ तं तुहुँ एक्कु सहीसि।।
     अर्थ - हे जीव! तू पुत्र और स्त्री के निमित्त से लाखों जीवों को मारकर जो पाप करता है, उस (पाप के फल) को तू अकेला सहन करेगा।
    शब्दार्थ -मारिवि-मारकर,  जीवहँ -जीवों को, लक्खडा -लाखों, जं-जो, जिय-हे जीव! पाउ -पाप, करीसि-करता है, पुत्त-कलत्तहँ-पुत्र और स्त्री के, कारणइँ -निमित्त से, तं -उसको, तुहुँ -तू, एक्कु -अकेला, सहीसि-सहन करेगा।
  23. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ने अपनी अथक साधना से जीवन की शान्ति के मार्ग का अनुसंधान किया है। उस ही अनुसंधान के आधार पर वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि जीवन में शान्ति का मार्ग मात्र आत्म चिंतन ही है। आत्मा का ध्यान करने वाले को सभी की आत्मा समान जान पडती है जिससे उसके द्वारा की गया प्रत्येक क्रिया स्व और पर के लिए हितकारी होती है। इसी से उसका जीवन शान्तिमय होता है। अतः घर-परिवार की चिन्ता करने से शान्ति नहीं अपितु आत्मा का चिंतन करने से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है।देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    124.    मुक्खु ण पावहि जीव तुहुँ घरु परियणु चिंतंतु।
            तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्ख महंतु।।
    अर्थ -  हे जीव! तू घर और परिवार की चिंता करता हुआ शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए अच्छा है कि तू उस ही उस आत्मा का चिंतन कर, (जिससे) श्रेष्ठ शान्ति को प्राप्त कर सके।
    शब्दार्थ - मुक्खु-शान्ति, ण-नहीं, पावहि-प्राप्त कर सकता है, जीव-हे जीव!, तुहुँ- तू, घरु -घर,परियणु - परिवार की, चिंतंतु-चिन्ता करता हुआ, तो-इसीलिए, वरि-अच्छा है, चिंतहि-चिन्तन कर, तउ-उस, जि-ही, तउ -उसका, पावहि-प्राप्ति कर सके, मोक्ख-शान्ति, महंतु-श्रेष्ठ।
  24. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि  हे जीव! तू मात्र अपनी आत्मा को ही अपनी मान। उसके अतिरिक्त घर, परिवार, शरीर और अपने प्रियजन पर हैं। योगियों के द्वारा आगम में इन सबको कर्मों के वशीभूत और कृत्रिम माना गया है। आत्मा पर श्रृद्वान होने से ही व्यक्ति स्व का कल्याण कर पर कल्याण के योग्य बनता है। जब वह अपनी आत्मा पर श्रृद्वान करता है तो उसे पर की आत्मा भी स्वयं के समान प्रतीत होती है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु ने आत्मा पर श्रृ़द्वान करने के लिए कहा है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    123.    जीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्ठु।
            कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहि ँँ दिट्ठु।।
    अर्थ - हे जीव! तू घर, परिवार, शरीर (और) प्रिय (लगनेवाले) को अपना मत जान। योगियों के द्वारा आगम में (इनमें से प्रत्येक ) कर्मों के वशीभूत और कृत्रिम माना गया है।
    शब्दार्थ - जीव - हे जीव! म -मत, जाणहि -जान, अप्पणउँ-अपना, घरु -घर, परियणु-परिवार, तणु -शरीर, इट्ठु-प्रिय, कम्मायत्तउ-कर्मों के वशीभूत, कारिमउ-कृत्रिम, आगमि-आगम में, जोइहि ँँ-योगियों के द्वारा, दिट्ठुःमाना गया है।
    (ठोलिया साहब के अस्वस्थ होने के कारण लम्बा व्यवधान रहा। आगे उसी क्रम में आगे चलते हैं)
  25. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि चाहे यह लोक हो या परलोक, दुःख का कारण मात्र अपना अज्ञान ही है जिसके कारण हम पति, सन्तान व स्त्रियों से मोह कर दुःख उठाते है। यदि हम अपने ज्ञान से अपना मोह समाप्त कर लेंगे तो हमारा वर्तमान जीवन तो शान्त होगा ही और यही हमारी शान्त दशा हमें परलोक में ले जायेगी। मोक्ष का अर्थ भी शान्ति ही तो है। अतः शान्ति के इच्छुक भव्य जनों को अपने ज्ञान से मोह को नष्ट करना चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    122.    जोणिहि लक्खहि परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु।
            पुत्त-कलत्तहिँ मोहियउ जाव ण णाणु महंतु।।
    अर्थ -जब तक उत्तम ज्ञान नहीं है, पुत्र और स्त्रियों के द्वारा मोहित किया हुआ जीव, दुःख सहन करता हुआ लाखों योनियों में परिभ्रमण करता है।
    शब्दार्थ - जोणिहि-योनियों में, लक्खहि-लाखों, परिभमइ-परिभ्रमण करता है, अप्पा-आत्मा, दुक्खु-दुःख सहंतु-सहन करता हुआ, पुत्त-कलत्तहिँ -पुत्र और स्त्रियों के द्वारा,मोहियउ-मोहित किया हुआ, जाव-जब तक, ण-नहीं, णाणु-ज्ञान, महंतु-उत्तम।
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