Jump to content
JainSamaj.World
  • entries
    284
  • comments
    3
  • views
    14,283

राग ही दुःख का कारण है


Sneh Jain

474 views

आचार्य योगीन्दु की यह गाथा सार्वकालिक सार्वभौमिक है। हम सभी गृहस्थ जीव आज पुत्र, पुत्री, पत्नी, पति के मोह में पड़कर उनके सुख के लिए कितने ही लोगों को दुःखी कर पाप अर्जित करते हैं। हम बच्चों को रागवश उनकी सभी उचित अनुचित अभिलाषा पूर्ण कर उनको प्रमादी पराधीन बना देते हैं। इसका परिणाम हम जब भुगतते हैं जब वे हमारे रागवश बिगड़ जाते हैं और हमारी वृद्धावस्था में हमारे दुःख का कारण बनते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोग भी हमसे दूर हो जाते हैं जिनकोे हमने अपने बच्व्चो के कारण दुःख दिया। इस प्रकार पुत्र स्त्री से अति राग अन्त में मानव को एकाकी, दयनीय दुःखी बना देता है। इसीलिए आचार्य ने हम सभी जीवों के लिए अपने नजदीकी सम्बन्धों से भी राग करने को हेय बताया है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

125.    मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि।

        पुत्त-कलत्तहँ कारणइँ तं तुहुँ एक्कु सहीसि।।

 अर्थ - हे जीव! तू पुत्र और स्त्री के निमित्त से लाखों जीवों को मारकर जो पाप करता है, उस (पाप के फल) को तू अकेला सहन करेगा।

शब्दार्थ -मारिवि-मारकर,  जीवहँ -जीवों को, लक्खडा -लाखों, जं-जो, जिय-हे जीव! पाउ -पाप, करीसि-करता है, पुत्त-कलत्तहँ-पुत्र और स्त्री के, कारणइँ -निमित्त से, तं -उसको, तुहुँ -तू, एक्कु -अकेला, सहीसि-सहन करेगा।

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Guest
Add a comment...

×   Pasted as rich text.   Paste as plain text instead

  Only 75 emoji are allowed.

×   Your link has been automatically embedded.   Display as a link instead

×   Your previous content has been restored.   Clear editor

×   You cannot paste images directly. Upload or insert images from URL.

  • अपना अकाउंट बनाएं : लॉग इन करें

    • कमेंट करने के लिए लोग इन करें 
    • विद्यासागर.गुरु  वेबसाइट पर अकाउंट हैं तो लॉग इन विथ विद्यासागर.गुरु भी कर सकते हैं 
    • फेसबुक से भी लॉग इन किया जा सकता हैं 

     

×
×
  • Create New...