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सम्पादकीय


Sneh Jain

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किसी भी कृति को उसकी मूल भाषा में पढ़ने का एक अलग ही मजा होता है। जो भाव का हृदयंगम मूल भाषा से पढ़ने में होता है, वह उसका अनुवाद, टीका या व्याख्या पढने में नहीं हो सकता। यह तो सर्व विदित ही है कि जैन आगम ग्रन्थों की मूल भाषा प्राकृत रही है। प्राकृत का साहित्यिक रूप लेने पर प्रादेशिक भाषारूप बोलियाँ ही अपभ्रंश के रूप में विकसित हुई। प्राचीन काल में अपभ्रंश भाषा में भी विपुल जैन साहित्य का सृजन हुआ है।

यद्यपि उनमें से बहुत से ग्रन्थों का अनुवाद भी हुआ है, किन्तु फिर भी हजारों ग्रन्थ आज भी पाण्डुलिपियों के रूप में उसी मूल भाषा में रखे हुये, ग्रंथागारों/पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं, जिन्हें पढने/समझने की रुचि होने पर भी भाषा की अनभिज्ञता के कारण अनेकों लोग उन आचार्यों, विद्वानों की बात को गहराई से समझने में असमर्थ रहते हैं। उन सभी जिज्ञासु/रुचिवंत पाठकों को लक्ष में रखकर श्रीमती स्नेहलताजी जैन द्वारा इस पुस्तक का सुन्दर लेखन एवं संकलन करने का स्तुत्य कार्य किया है। आप अनेकों वर्षों से अपभ्रंश भाषा का अध्यापन कराने में संलग्न हैं। जिस पद्धति से आप विद्यार्थियों को अपभ्रंश भाषा का अध्ययन कराती है, उसी को आपने पुस्तकाकार रूप में लिपिबद्ध किया है।

प्रस्तुत पुस्तक में अपभ्रंश व्याकरण की मूलभूत इकाईयों के साथ-साथ अपभ्रंश भाषा में प्रयोग किये जाने वाले महत्वपूर्ण शब्दों क्रियाओं एवं शब्द रूपावली का भी समावेश किया है। साथ ही लेखिका ने छोटे-छोटे से वाक्यों की रचना करके, उनका अनुवाद करके पाठक को सरलता से अपभ्रंश भाषा सिखाने का प्रयास किया है। प्रत्येक पाठ के अन्त में अभ्यास हेतु प्रश्न दिये गये हैं। अन्तिम अध्याय में अपभ्रंश भाषा में रचित प्राचीन काव्यों से संग्रहीत छोटे-छोटे से सुन्दर, हृदयग्राही एवं शिक्षाप्रद वाक्यों को व्याकरणिक परिचय सहित प्रस्तुत किया है।

यद्यपि यह पुस्तक डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी द्वारा लिखित 'अपभ्रंश रचना सौरभ' एवं 'अपभ्रंश प्रौढ रचना सौरभ' को आधार बनाकर लिखी गई है। फिर भी इसमें अपभ्रंश को सिखाने की लेखिका की अपनी स्वतंत्र मौलिक कला है, जिसका लाभ सीखने की रुचि रखनेवालों को अवश्य ही मिलेगा।

निश्चित ही यह पुस्तक अपभ्रंश भाषा को सीखने की रुचि रखने वालों के लिये बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। इस पुस्तक के माध्यम से अधिक से अधिक लोग अनुवाद कला को सीखकर मूल ग्रन्थकारों द्वारा रचित ज्ञान-वैराग्य प्रेरक साहित्य का भाव समझकर आत्म कल्याण की ओर अग्रसर हों - इसी पवित्र भावना के साथ...

- संजीवकुमार गोधा

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