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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५६    ?

        "दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार"

                एक दिन शान्तिसागरजी महाराज से ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नही पलता था।
              प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेटकर जाते थे और आहार के समय दिगम्बर होते थे।
               आहार के लिए पहले से ही उपाध्याय ( जैन पुजारी ) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे।
            ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों की थी, तब क्षुल्लको की कथा निराली है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  2. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से -१०     ?

              "वैभवशाली दया पात्र हैं"

         दीन और दुखी जीवो पर तो सबको दया आती है । सुखी प्राणी को देखकर किसके अंतःकरण में करुणा का भाव जागेगा ?
           आचार्य शान्तिसागर महाराज की दिव्य दृष्टि में धनी और वैभव वाले भी उसी प्रकार करुणा व् दया के पात्र हैं, जिस प्रकार दीन, दुखी तथा विपत्तिग्रस्त दया के पात्र हैं। एक दिन महाराज कहने लगे, "हमको संपन्न और सुखी लोगों को देखकर बड़ी दया आती है।"
          मैंने पुछा, "महाराज ! सुखी जीवो पर दया भाव का क्या कारण है?" महाराज ने कहा था- "ये लोग पुण्योदय से आज सुखी हैं, आज संपन्न हैं किन्तु विषयभोग में उन्मत्त बनकर आगामी कल्याण की बात जरा भी नहीं सोचते, जिससे आगामी जीवन भी सुखी हो।" 
           जब तक जीव संयम और त्याग की शरण नहीं लेगा, तब तक उसका भविष्य आनंदमय नहीं हो सकता । इसीलिए हम भक्तो को आग्रह पूर्वक असंयम की ज्वाला से निकालकर संयम के मार्ग पर लगाते हैं।
        शान्तिसागर महाराज ने यह महत्त्व की बात कही थी, "हमने अपने बड़े भाई देवगोंडा को कुटुम्ब के जाल से निकालकर दिगम्बर मुनि बनाया। उसे वर्धमानसागर कहते हैं। छोटे भाई कमगौड़ा को ब्रम्हचर्य प्रतिमा दी उसे मुनि दीक्षा देते, किन्तु शीघ्र उसका मरण हो गया।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  3. Abhishek Jain
    ☀  *कल जन्म कल्याणक पर्व है*  ☀
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

         कल २३ नवंबर, दिन शुक्रवार, कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा शुभ तिथि को तृतीय  *तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ संभवनाथ भगवान* का *जन्म कल्याणक* पर्व है तथा *श्री अष्टान्हिका पर्व का अंतिम दिन* है-
    🙏🏻
    कल अत्यंत भक्तिभाव से *देवादिदेव श्री १००८ संभवनाथ भगवान* की पूजन कर जन्म कल्याणक पर्व मनाएँ।

        🙏🏻 *संभवनाथ भगवान की जय*🙏🏻
    🙏🏻 *जन्म  कल्याणक पर्व की जय*🙏🏻

    👏🏻   *श्रमण संस्कृति सेवासंघ, मुम्बई*  👏🏻
  4. Abhishek Jain
    ?          *कल चतुर्दशी पर्व है*         ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            कल  २३ अक्टूबर, दिन मंगलवार को अश्विन शुक्ल चतुर्दशी तिथि अर्थात *चतुर्दशी पर्व* है।
    ??
    प्रतिदिन जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन करना अपना मनुष्य जीवन मिलना सार्थक करना है अतः प्रतिदिन देवदर्शन करना चाहिए। जो लोग प्रतिदिन देवदर्शन नहीं कर पाते उनको कम से कम अष्टमी/चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में देवदर्शन अवश्य करना चाहिए।
    ??
    जो लोग प्रतिदिन देवदर्शन करते हैं उनको अष्टमी/चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में श्रीजी के अभिषेक व् पूजन आदि के माध्यम से अपने जीवन को धन्य करना चाहिए।
    ??
    जमीकंद का उपयोग घोर हिंसा का कारण है अतः इनका सेवन नहीं करना चाहिए। जो लोग इनका उपयोग करते हैं उनको पर्व के इन दोनों में इनका त्याग करके सुख की ओर आगे बढ़ना चाहिए।
    ??
    इस दिन रागादि भावों को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए।

    बच्चों को धर्म के संस्कार देना माता-पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है और बच्चों पर माता-पिता का सबसे बड़ा उपकार है। धर्म के संस्कार संतान को वर्तमान में तो विपत्तियों से रक्षा करते ही हैं साथ ही पर भव में भी नरक तिर्यंच गति आदि के दुखों से बचाते हैं। *बच्चों को पाठशाला अवश्य भेजें।*

    ?? *श्रमण संस्कृति सेवासंघ, मुम्बई*??
      *"मातृभाषा अपनाएँ, संस्कृति बचाएँ"*
  5. Abhishek Jain
    ? *कल अष्टमी व् मोक्षकल्याणक पर्व*?

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            कल १७ अक्टूबर, दिन बुधवार, अश्विन शुक्ल अष्टमी की शुभ तिथि को *१० वें तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ शीतलनाथ भगवान* का *मोक्ष कल्याणक पर्व* तथा *अष्टमी पर्व* है।

    ??
    कल अत्यंत भक्ति-भाव से देवादिदेव श्री १००८ शीतलनाथ भगवान की पूजन करें तथा अपने भी कल्याण की भावना से भगवान के श्री चरणों में निर्वाण लाडू समर्पित करें।
    ??
    प्रतिदिन जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन करना अपना मनुष्य जीवन मिलना सार्थक करना है अतः प्रतिदिन देवदर्शन करना चाहिए। जो लोग प्रतिदिन देवदर्शन नहीं कर पाते उनको कम से कम अष्टमी/चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में देवदर्शन अवश्य करना चाहिए।
    ??
    जो लोग प्रतिदिन देवदर्शन करते हैं उनको अष्टमी/चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में श्रीजी के अभिषेक व् पूजन आदि के माध्यम से अपने जीवन को धन्य करना चाहिए।
    ??
    जमीकंद का उपयोग घोर हिंसा का कारण है अतः इनका सेवन नहीं करना चाहिए। जो लोग इनका उपयोग करते हैं उनको पर्व के इन दोनों में इनका त्याग करके सुख की ओर आगे बढ़ना चाहिए।
    ??
    इस दिन रागादि भावों को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए।

    बच्चों को धर्म के संस्कार देना माता-पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है और बच्चों पर माता-पिता का सबसे बड़ा उपकार है। धर्म के संस्कार संतान को वर्तमान में तो विपत्तियों से रक्षा करते ही हैं साथ ही पर भव में भी नरक तिर्यंच गति आदि के दुखों से बचाते हैं। *बच्चों को पाठशाला अवश्य भेजें।*

    ?? *श्रमण संस्कृति सेवासंघ, मुम्बई*??
      *"मातृभाषा अपनाएँ, संस्कृति बचाएँ"*
  6. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             
             आप जान रहे हैं एक ऐसे महापुरुष की आत्मकथा जिनका जन्म तो अजैन कुल में हुआ था लेकिन जो आत्मकल्याण हेतु संयम मार्ग पर चले तथा वर्तमान में सुलभ दिख रही जैन संस्कृति के सम्बर्धन का श्रेय उन्ही को जाता है।
        प्रस्तुत अंशो से हम लोग देख रहे हैं पूज्य वर्णी ने कितनी सहजता से अपनी ज्ञान प्राप्ति की यात्रा में आई सभी बातों को प्रस्तुत किया है।
    ? संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

          *"पं. गोपालदास वरैया के संपर्क में"*
                        *क्रमांक -६४*

     
           ऐसी ही एक गलती और भी हो गई। वह यह कि मथुरा विद्यालय में पढ़ाने के लिए श्रीमान पंडित ठाकुर प्रसाद जी शर्मा उन्हीं दिनों यहाँ पर आये थे, और मोतीकटरा की धर्मशाला में ठहरे थे। आप व्याकरण और वेदांत के आचार्य थे, साथ ही साहित्य और न्याय के प्रखर विद्वान थे। आपके पांडित्य के समक्ष अच्छे-अच्छे विद्वान नतमस्तक हो जाते थे। हमारे श्रीमान स्वर्गीय पंडित बलदेवदास जी ने भी आपसे भाष्यान्त व्याकरण का अभ्यास किया था।
            आपके भोजन की व्यवस्था श्रीमान बरैयाजी ने मेरे जिम्मे कर दी। चतुर्दशी का दिन था। पंडितजी ने कहा बाजार से पूड़ी तथा शाक ले आओ।' मैं बाजार गया और हलवाई के यहाँ से पूडी तथा शाक ले आ रहा था कि मार्ग में देवयोग से श्रीमान पं. नंदराम जी साहब पुनः मिल गये। मैंने प्रणाम किया। 
          पंडितजी ने देखते ही पूछा- 'कहाँ गये थे? मैंने कहा- पंडितजी के लिए बाजार से पूडी शाक लेने गया था।' उन्होंने कहा- 'किस पंडितजी के लिए?' मैंने उत्तर दिया- 'हरिपुर जिला इलाहाबाद के पंडित श्री ठाकुरप्रसाद जी के लिए, जोकि दिगम्बर जैन महाविद्यालय मथुरा में पढ़ाने के लिए नियुक्त हुए हैं।'
          अच्छा, बताओ शाक क्या है? मैंने कहा - 'आलू और बैगन का।' सुनते ही पंडितजी साहब अत्यन्त कुपित हुए। क्रोध से झल्लाते हुए बोले- 'अरे मूर्ख नादान ! आज चतुर्दशी के दिन यह क्या अनर्थ किया?'
           मैंने धीमे स्वर में कहा- 'महाराज ! मैं तो छात्र हूँ? मैं अपने खाने को तो नहीं लाया, कौन सा अनर्थ इसमें हो गया? मैं तो आपकी दया का पात्र हूँ।'

    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथि- वैशाख कृष्ण ७?
  7. Abhishek Jain
    ? *१५ जनवरी को प्रथम तीर्थंकर मोक्षकल्याणक पर्व*?
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
        
           १५ जनवरी, दिन सोमवार, माघ कृष्ण चतुर्दशी की शुभ तिथि को इस अवसर्पणी काल के *प्रथम तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ ऋषभनाथ भगवान* का मोक्ष कल्याणक पर्व आ रहा है-

    ??
    १५ जनवरी को सभी अपने-२ नजदीकी जिनालयों में सामूहिक निर्वाण लाडू चढ़ाकर मोक्षकल्याणक पर्व मनाएँ।
    ??
    इस पुनीत अवसर धर्म प्रभावना के अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए।
    ??
    इस पुनीत अवसर मानव सेवा के कार्यक्रमों का भी आयोजन करना चाहिए।

       ?? *ऋषभनाथ भगवान की जय*??

    ?? *श्रमण संस्कृति सेवासंघ, मुम्बई*??
        *"मातृभाषा अपनाएँ,संस्कृति बचाएँ"*
  8. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
                 कल के उल्लेख में हमने देखा की गणेशप्रसाद जी ने जिनधर्म के अनुसार आचरण की इच्छा के कारण अपनी माँ तथा पत्नी का परित्याग करने के लिए तत्पर थे।
           कड़ोरेलाल जी भाईजी ने उनको इस अविवेकपूर्ण कार्य पर समझाया। इसी कथन का उल्लेख है।
          भायजी की आज्ञा के अनुसार उन्होंने अपनी माँ तथा पत्नी को पत्र लिखा उसका वर्णन कल प्रस्तुत किया जायेगा।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

        *"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
                           क्रमांक - १३
                 यह बात जब भायजी ने सुनी तब उन्होंने बड़ा डाँटा और कहा- 'तुम बड़ी गलती पर हो। तुम्हे अपनी माँ और स्त्री का सहवास नहीं छोड़ना चाहिए।'
              तुम्हारी उम्र ही कितनी है, अभी तुम संयम के पात्र भी नहीं हो, एक पत्र डालकर दोनों को बुला लो। यहाँ आने से उनकी प्रवृत्ति जैनधर्म में हो जाएगी। धर्म क्या है? यह तुम भी नहीं जानते।
            धर्म आत्मा की वह परिणति है जिसमें मोह राग-द्वेष का अभाव हो। अभी तुम पानी छानकर पीना, रात्रि को भोजन नहीं करना, मंदिर में जाकर भगवान का दर्शन कर लेना, दुखित-बुभुक्षित-तृषित प्राणि वर्ग के ऊपर दया करना, स्त्री से प्रेम नहीं करना, जैनियों के सहवास में रहना और दूसरों के सहवास का त्याग करना आदि को ही धर्म समझ बैठे हो।'
            मैंने कहा- भायजी साहब ! मेरी तो यही श्रद्धा है जो आप कह रहे हैं। जो मनुष्य या स्त्री जैनधर्म को नहीं मानते उनका सहवास करने को मेरा चित्त नहीं चाहता। जिनदेव के सिवा अन्य में मेरी जरा भी अभिरुचि नहीं।
           उन्होंने कहा- 'धर्म का स्वरूप जानने के लिए काल चाहिए, आगमाभ्यास की महती आवश्यकता है। इसके बिना तत्वों का निर्णय होना असम्भव है। तत्व निर्णय आगमज्ञ पंडितों के सहवास से होगा, अतः तुम्हे उचित है कि शास्त्रों का अभ्यास करो।'
             मैंने कहा महराज तत्व जानने वाले महात्मा लोगों का निवास स्थान कहाँ पर है?
            उन्होंने कहा - 'जयपुर में अच्छे-अच्छे विद्धवान हैं। वहाँ जाने से तुमको लाभ हो सकेगा।'
           मैं रह गया, कैसे जयपुर जाया जाय?
          उनका आदेश था कि 'पहले अपनी धर्मपत्नी और पूज्य माता को बोलाओ फिर सानंद धर्मध्यान करो।' मैंने उसे शिरोधार्य किया और एक पत्र उसी दिन अपनी माँ को डाल दिया। पत्र में लिखा था-
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
    ? आजकी तिथी-कार्तिक कृष्ण ५?
  9. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             
             पूज्य वर्णीजी की प्रारम्भ से ही ज्ञानार्जन की प्रबल भावना थी तभी तो वह अभावजन्य विषय परिस्थियों में भी आगे आकर ज्ञानार्जन हेतु संलग्न हो पाये। भरी गर्मी में दोपहर में एक मील ज्ञानार्जन हेतु पैदल जाना भी उनकी ज्ञानपिपासा का ही परिचय है।
          बहुत ही सरल ह्रदय थे गणेशप्रसाद। उनके जीवन का सम्पूर्ण वर्णन बहुत ही ह्रदयस्पर्शी हैं।
    ? संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

          *"पं. गोपालदास वरैया के संपर्क में"*
                         *क्रमांक -६३*

                 पं. बलदेवदासजी महराज को मध्यन्होंपरांत ही अध्ययन कराने का अवसर मिलता था। गर्मी के दिन थे पण्डितजी के घर जाने में प्रायः पत्थरों से पटी हुई सड़क मिलती थी।
           मोतीकटरा से पंडितजी का मकान एक मील अधिक दूर था, अतः मैं जूता पहने ही हस्तलिखित पुस्तक लेकर पण्डितजी के घर पर जाता था।
           यद्यपि इसमें अविनय थी और ह्रदय से ऐसा करना नहीं चाहता था, परंतु निरुपाय था। दुपहरी में यदि पत्थरों पर चलूँ तो पैरों को कष्ट हो, न जाऊँ तो अध्ययन से वंछित रहूँ-मैं दुविधा में पड़ गया।
           लाचार अंतरात्मा ने यही उत्तर दिया कि अभी तुम्हारी छात्रावस्था है, अध्ययन की मुख्यता रक्खो। अध्ययन के बाद कदापि ऐसी अविनय नहीं करना......इत्यादि तर्क-वितर्क के बाद मैं पढ़ने के लिए चला जाता था।
          यहाँ पर श्रीमान पंडित नंदराम जी रहते थे जो कि अद्वितीय हकीम थे। हकीमजी जैनधर्म के विद्वान ही न थे, सदाचारी भी थे। भोजनादि की भी उनके घर में पूर्ण शुद्धता थी। आप इतने दयालु थे कि आगरे में रहकर भी नाली आदि में मूत्र क्षेपण नहीं करते थे।
          एक दिन पंडितजी के पास पढ़ने जा रहा था, देवयोग से आप मिल गये। कहने लगे- कहाँ जाते हो? मैंने कहा- 'महराज ! पंडितजी के पास पढ़ने जा रहा हूँ।' 'बगल में क्या है!' मैंने कहा- पाठ्य पुस्तक सर्वार्थसिद्धि है।' आपने मेरा वाक्य श्रवण कर कहा - 'पंचम काल है ऐसा ही होगा, तुमसे धर्मोंनति की क्या आशा हो सकती है और पण्डितजी से क्या कहें? '
          मैंने कहा- 'महराज निरुपाय हूँ।' उन्होंने कहा- 'इससे तो निरुक्षर रहना अच्छा।' मैंने कहा- महराज ! अभी गर्मी का प्रकोप है पश्चात यह अविनय न होगी।'
           उन्होंने एक न सुनी और कहा- 'अज्ञानी को उपदेश देने से क्या लाभ?' मैंने कहा- महराज ! जबकि भगवान पतितपावन हैं और आप उनके सिद्धांतों के अनुगामी हैं तब मुझ जैसे अज्ञानियों का उद्धार कीजिए। हम आपके बालक हैं, अतः आप ही बतलाइये कि ऐसी परिस्थिति में मैं क्या करूँ?'
          उन्होंने कहा- 'बातों के बनाने में तो अज्ञानी नहीं, पर आचार के पालने में अज्ञान बनते हो!'
           ऐसी ही एक गलती और भी हो गई। वह यह कि मथुरा विद्यालय में पढ़ाने के लिए श्रीमान पंडित ठाकुर प्रसाद जी शर्मा उन्हीं दिनों यहाँ पर आये थे, और मोतीकटरा की धर्मशाला में ठहरे थे। आप व्याकरण और वेदांत के आचार्य थे, साथ ही साहित्य और न्याय के प्रखर विद्वान थे। आपके पांडित्य के समक्ष अच्छे-अच्छे विद्वान नतमस्तक हो जाते थे। हमारे श्रीमान स्वर्गीय पंडित बलदेवदास जी ने भी आपसे भाष्यान्त व्याकरण का अभ्यास किया था।
    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथि- श्रावण कृष्ण ४?
  10. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           यहाँ से गणेशप्रसाद का जैनधर्म के बड़े विद्वान पं. गोपालदासजी वरैयाजी से संपर्क का वर्णन प्रारम्भ हुआ। वर्णीजी ने यहाँ उस समय उनके गुरु पं. पन्नालालजी बाकलीवाल का भी उनके जीवन में बहुत महत्व बताया है।
            वर्णीजी के अध्यन के समय तक सिर्फ हस्तलिखित ग्रंथ ही प्रचलन में थे। यह महत्वपूर्ण बात यहाँ से ज्ञात होती है। जिनवाणी की कितनी विनय थी उस समय के श्रावकों में कि ग्रंथों का मुद्रण भी योग्य नहीं समझते थे।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

    *पं.गोपालदास वरैया के संपर्क में*
       
                        *क्रमांक - ६२*

                    बम्बई परीक्षा फल निकला। श्रीजी के चरणों के प्रसाद से मैं परीक्षा उत्तीर्ण हो गया। महती प्रसन्नता हुई। 
            श्रीमान स्वर्गीय पंडित गोपालदासजी का पत्र आया कि मथुरा में दिगम्बर जैन विद्यालय खुलने वाला है, यदि तुम्हे आना हो तो आ सकते हो। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।
            मैं श्री पंडितजी की आज्ञा पाते ही आगरा चला गया और मोतीकटरा की धर्मशाला में ठहर गया। वहीं श्री गुरु पन्नालाल जी बाकलीवाल भी आ गये। आप बहुत ही उत्तम लेखक तथा संस्कृत के ज्ञाता थे। 
             आपकी प्रकृति अत्यंत सरल और परोपकाररत थी। मेरे तो प्राण ही थे-इनके द्वारा मेरा जो उपकार हुआ उसे इस जन्म में नहीं भूल सकता। आप श्रीमान स्वर्गीय पं. बलदेवदास जी से सर्वार्थसिद्धि का अभ्यास करने लगे। मैं आपके साथ जाने लगा।
          उन दिनों छापे का प्रचार जैनियों में न था। मुद्रित पुस्तक का लेना महान अनर्थ का कारण माना जाता था, अतः हाथ से लिखे हुए ग्रंथों का पठन पाठन होता था। हम भी हाथ की लिखी सर्वार्थसिद्धि पर अभ्यास करते थे।
    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथि - श्रावण कृष्ण ३?
  11. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           यहाँ वर्णीजी द्वारा जयपुर मेले का वर्णन चल रहा है। इस मेले में जैनधर्म की बहुत ही प्रभावना हुई।
          जयपुर नरेश द्वारा व्यक्त की जिनबिम्ब की महिमा बहुत सुंदर वर्णन है।
         श्रीमान स्वर्गीय सेठ मूलचंदजी सोनी द्वारा मेले के आयोजन के कारण ही धर्म की अधिक प्रभावना हुई। यहाँ वर्णीजी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही- द्रव्य का होना पूर्वोपार्जित पुण्योदय है लेकिन उसका सदुपयोग बहुत ही कम पुण्यात्मा कर पाते हैं।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                      *"महान मेला"*
                         *क्रमांक-६२*

                मेला में श्री महाराजाधिराज जयपुर नरेश भी पधारे थे। आपने मेले की सुंदरता देख बहुत ही प्रसन्नता व्यक्त की थी। तथा जिनबिम्बों को देखकर स्पष्ट शब्दों में कहा था कि - 'शुभ ध्यान की मुद्रा तो इससे उत्तम संसार में नहीं हो सकती।
             जिसे आत्मकल्याण करना हो वह इस प्रकार की मुद्रा बनाने का प्रयत्न करे। इस मुद्रा में बाह्यडम्बर छू भी नहीं गया है। साथ ही इनकी सौम्यता भी इतनी अधिक है कि इसे देखकर निश्चय हो जाता है कि जिनकी यह मुद्रा है उनके अंतरंग में कोई कलुषता नहीं थी।
            मैं यही भावना भाता हूँ कि मैं भी इसी पद को प्राप्त होऊँ। इस मुद्रा के देखने से जब इतनी शांति होती है तब जिनके ह्रदय में कलुषता नहीं उनकी शांति का अनुमान होना ही दुर्लभ है।'
           इस प्रकार मेला में जो जैनधर्म की अपूर्व प्रभावना हुई उसका श्रेय श्रीमान स्वर्गीय सेठ मूलचंद जी सोनी अजमेर वालों के भाग्य में था। द्रव्य का होना पूर्वोपार्जित पुण्योदय से होता है परंतु उसका सदुपयोग विरले ही पुण्यात्माओं के भाग्य में होता है।
          जो वर्तमान में पुण्यात्मा हैं वही मोक्षमार्ग के अधिकारी हैं। संपत्ति पाकर मोक्षमार्ग का लाभ जिसने लिया उसी रत्न ने मनुष्य जन्म का लाभ लिया। अस्तु, यह मेला का वर्णन हुआ।
    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
     ?आजकि तिथि- श्रावण कृष्ण २?
  12. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           यहाँ वर्णीजी ने जयपुर के मेले का उल्लेख किया है। मेले से तात्पर्य धार्मिक आयोजन से रहता है।
           यहाँ पर वर्णी जी ने स्व. श्री मूलचंद जी सोनी अजमेर वालों का विशेष उल्लेख किया। उनकी विद्वानों के प्रति आदर की प्रवृत्ति से अपष्ट होता है कि जो जितना गुणवान होता है वह उतना विनम्र होता है। ऐसे गुणी लोगों के संस्मरण हम श्रावकों को भी दिशादर्शन करते हैं।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेश प्रसाद वर्णी?

                       *"महान मेला"*
                
                         *क्रमांक - ६०*

                  उन दिनों जयपुर में एक महान मेला हुआ था, जिसमें भारत वर्ष के सभी विद्वान और धनिक वर्ग तथा सामान्य जनता का बृहत्समारोह हुआ। गायक भी अच्छे आये थे।
          मेला को भराने वाले श्री स्वर्गीय मूलचंद जी सोनी अजमेर वाले थे। यह बहुत ही धनाढ्य और सद्गृहस्थ थे। आपके द्वारा ही तेरापंथ का विशेष उत्थान हुआ- शिखरजी में तेरहपंथी कोठी का विशेष उत्थान आपके ही सत्प्रयत्न से हुआ। अजमेर में आपके मंदिर और नसियाँजी देखकर आपके वैभव का अनुमान होता है।
                 आप केवल मंदिरों के ही उपासक ही न थे, पंडितों के भी बड़े प्रेमी थे। श्रीमान स्वर्गीय बलदेवदासजी आपही के मुख्य पंडित थे। जब पंडित जी अजमेर जाते और आपकी दुकान पर पहुँचते तब आप आदर पूर्वक उन्हें आपने स्थान पर बैठाते थे। पंडितजी महराज जब यह कहते कि आप हमारे मालिक हैं अतः दुकान पर यह व्यवहार योग्य नहीं, तब सेठजी साहब उत्तर देते कि महराज ! यह तो पुण्योदय की देन है  परंतु आपके द्वारा वह लक्ष्मी मिल सकती है जिसका कभी नाश नहीं।
          आपकी सौम्य मुद्रा और सदाचार को देखकर बिना ही उपदेश के जीवों का कल्याण हो जाता है। हम तो आपके द्वारा उस मार्ग पर हैं जो आज तक नहीं पाया।'
          इस प्रकार सेठजी और पंडितजी का परस्पर सद्व्यवहार था। कहाँ तक उनका शिष्टाचार लिखा जावे? पंडितजी की सम्मति के बिना कोई भी धार्मिक कार्य सेठजी नहीं करते थे। जो जयपुर में मेला था वह पंडितजी की सम्मति से ही हुआ था।

    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
    ?आजकी तिथि - आषाढ़ शु. पूर्णिमा?
  13. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            यहाँ पूज्यवर्णी जी ने जयपुर में उस समय श्रावकों की धर्म परायणता को व्यक्त किया है। साथ ही वहाँ से पाठशालाओं आदि से निकले विद्वानों का भी उल्लेख किया है।
           आप सोच सकते हैं कि इन सभी विद्वानों का तो मैंने नाम भी नहीं सुना, अतः उनसे मुझे क्या प्रयोजन। 
            मेरा मानना है कि पूज्य वर्णी जी द्वारा उल्लखित विद्वानों का वर्णन आज हम लोगों के लिए इतिहास की भाँति ही है। यह एक सौभाग्य ही है जो हमको गुणीजनों तथा उनके गुणों को जानने का अवसर मिल रहा है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                   *"यह है जयपुर"*
                
                      *क्रमांक - ५९*

              जयपुर में इन दिनों विद्वानों का ही समागम न था, किन्तु बड़े-बड़े गृहस्थों का भी समागम था, जो अष्टमी चतुर्दशी को व्यापार छोड़कर मंदिर में धर्मध्यान द्वारा समय का सदुपयोग करते हैं।
            पठन-पाठन का जितना सुअवसर यहाँ था उतना अन्यत्र न था। एक जैन पाठशाला मनिहारों के रास्ते में थी। श्रीमान पं. नाथूलाल जी शास्त्री, श्रीमान पं. कस्तूरचंद जी शास्त्री, श्रीमान पं. जवाहरलाल जी शास्त्री तथा श्रीमान पं. इंद्रलालजी शास्त्री आदि इसी पाठशाला द्वारा गणनीय विद्वानों में हुए। कहाँ तक लिखूँ? बहुत से छात्र अभ्यास कर यहाँ से पंडित बन प्रखर विद्वान हो जैनधर्म का उपकार कर रहे हैं।
          यहाँ पर उन दिनों जब कि मैं पढ़ता था, श्रीमान स्वर्गीय अर्जुनदासजी भी एंट्रेंस में पढ़ते थे। आपकी अत्यंत प्रखर बुद्धि थी। साथ ही आपको जाति के उत्थान की भी प्रबल भावना थी।
         आपका व्याख्यान इतना प्रबल होता था कि जनता तत्काल ही आपने अनुकूल हो जाती थी। आपके द्वारा पाठशाला भी स्थापित हुई थी। उसमें पठन-पाठन बहुत सुचारू रूप से होता था। उसकी आगे चलकर अच्छी ख्याति हुई। कुछ दिनों बाद उसको राज्य से भी सहायता मिलने लगी। अच्छे-अच्छे छात्र उसमें आने लगे।
          आपका ध्येय देशोद्वार का विशेष था, अतः आपका कांग्रेस संस्था से अधिक प्रेम हो गया। आपका सिद्धांत जैनधर्म के अनुकूल ही राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने का था। आप अहिंसा का यथार्थ स्वरूप समझते थे। बहुधा बहुत से पुरुष दया को हो अहिंसा मान बैठते हैं, पर आपको अहिंसा और दया के मार्मिक भेद का अनुगम था।
    ? *मेरी जीवनगाथा - आत्मकथा*?
    ?आजकी तिथि- आषाढ़ शु.पूर्णिमा?
  14. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          आजकी प्रस्तुती में गणेश प्रसाद के जयपुर में अध्ययन का उल्लेख तथा उनकी पत्नी की मृत्यु के समाचार मिलने आदि का उल्लेख है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                 *"चिरकांक्षित जयपुर"*
                        *"क्रमांक - ५८"*

              यहाँ जयपुर में मैंने १२ मास रहकर श्री वीरेश्वरजी शास्त्री से कातन्त्र व्याकरण का अभ्यास किया और श्री चन्द्रप्रभचरित्र भी पाँच सर्ग पढ़ा। 
          श्री तत्वार्थसूत्रजी का अभ्यास किया और एक अध्याय श्री सर्वार्थसिद्धि का भी अध्ययन किया। इतना पढ़ बम्बई की परीक्षा में बैठ गया। 
           जब कातन्त्र व्याकरण प्रश्नपत्र लिख रहा था, तब एक पत्र मेरे पास ग्राम से आया। उसमें लिखा था कि तुम्हारी स्त्री का देहावसान हो गया। मैंने मन ही मन कहा- 'हे प्रभो ! आज मैं बंधन से मुक्त हुआ।' यद्यपि अनेकों बंधनों का पात्र था, वह बंधन ऐसा था, जिससे मनुष्य की सर्व सुध-बुध भूल जाती है।'
           पत्र को पढ़ते देखकर श्री जमुनालालजी मंत्री ने कहा- 'प्रश्नपत्र छोड़कर पत्र क्यों पढ़ने लगे?'
         मैंने उत्तर दिया कि 'पत्र पर लिखा था कि जरूरी पत्र है।' उन्होंने पत्र को मांगा। मैंने दे दिया।
          पढ़कर उन्होंने समवेदना प्रगट की और कहा कि- 'चिंता मत करना, प्रश्नपत्र सावधानी से लिखना, हम तुम्हारी फिर से शादी करा देवेंगे।'
           मैंने कहा- 'अभी तो प्रश्नपत्र लिख रहा हूँ, बाद में सर्व व्यवस्था आपको श्रवण कराऊँगा।'
          अंत में सब व्यवस्था उन्हें सुना दी और उसी दिन बाईजी को पत्र सिमरा दिया एवं सब व्यवस्था लिख दी। यह भी लिख दिया कि 'अब मैं निशल्य होकर अध्ययन करूँगा।' इतने दिन से पत्र नहीं दिया सो क्षमा करना।'
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
    ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल १३?
  15. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            गणेश प्रसाद के अंदर लंबे समय से जयपुर जाकर अध्ययन करने की भावना चल रही थी। विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए वह जयपुर पहुँचे।
           वर्णीजी बहुत ही सरल प्रवृत्ति के थे। आर्जव गुण अर्थात मन, वचन व काय की एकरूपता उनके जीवन से सीखी जा सकती है।
            आज की प्रस्तुती में कलाकंद का प्रसंग आया, आत्मकथा में उनके द्वारा इसका वर्णन उनके ह्रदय की स्वच्छता का परिचय देता है। उस समय वह एक विद्यार्थी से व्रती नहीं थे।
          अगली प्रस्तुती में उनके अध्ययन के विषय तथा पत्नी की मृत्यु आदि बातों को जानेंगे।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                *"चिरकांक्षित जयपुर"*
                         *क्रमांक - ५८*

                    जयपुर की ठोलिया की धर्मशाला में ठहर गया। यहाँ जमनाप्रसादजी काला से मेरी मैत्री हो गई। उन्होंने श्रीवीरेश्वर शास्त्री के पास, जोकि राज्य के मुख्य विद्वान थे, मेरा पढ़ने का प्रबंध कर दिया। मैं आनंद से जयपुर में रहने लगा। यहाँ पर सब प्रकार की आपत्तियों से मुक्त हो गया।
            एक दिन श्री जैनमंदिर के दर्शन करने के लिए गया। मंदिर के पास श्री नेकरजी की दुकान थी।  उनका कलाकंद भारत में प्रसिद्ध था। मैंने एक पाव कलाकंद लेकर खाया। अत्यंत स्वाद आया। फिर दूसरे दिन भी एक पाव खाया। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं बारह मास जयपुर में रहा, परंतु एक दिन भी उसका त्याग न कर सका। अतः मनुष्यों को उचित है कि ऐसी प्रकृति न बनावें जो कष्ट उठाने पर उसे त्याग न सके। जयपुर छोड़ने के बाद ही वह आदत छूट सकी।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल १२?

    पूज्य वर्णीजी के जीवन चरित्र को जानने के लिए अनेकों लोगों की जिज्ञासा देखने मिल रही है। मेरा प्रयास है कि मैं पूरी आत्मकथा को नियमित रूप से आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत करता रहूँ, लेकिन कभी-२ संभव नहीं हो पाता। 
         वर्णीजी की आत्मकथा के प्रति आप लोगों की जिज्ञासा को जानकर मुझे प्रस्तुती के लिए उत्साह वर्धन होता रहता है।
  16. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            बम्बई में गणेश प्रसाद का अध्ययन प्रारम्भ हो गया लेकिन जलवायु उनके स्वास्थ्य के अनुकूल न थी अस्वस्थ्य हो गये। यहाँ से पूना गए।
             स्वास्थ्य ठीक होने पर बम्बई आए, वहाँ कुछ दिन बार पुनः ज्वर आने लगा। वहाँ से अजमेर का पास केकड़ी गया। कुछ दिन ठहरा वहाँ से गणेशप्रसाद चिरकाल से प्रतीक्षित स्थान जयपुर गए। कल से उसका वर्णन रहेगा।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                *"विद्याध्ययन का सुयोग"*
                         *क्रमांक - ५६*

        मेरा परीक्षाफल देखकर देहली के एक जवेरी लक्ष्मीचंद्रजी ने कहा कि 'दस रुपया मासिक हम बराबर देंगे, तुम सानंद अध्ययन करो।' 
           मैं अध्ययन करने लगा किन्तु दुर्भाग्य का उदय इतना प्रबल था कि बम्बई का पानी मुझे अनुकूल न पड़ा। शरीर रोगी हो गया। गुरुजी और स्वर्गीय पं. गोपालदासजी ने बहुत ही समवेदना प्रगट की। तथा यह आदेश दिया कि तुम पूना जाओ, तुम्हारा सब प्रबंध हो जायेगा। एक पत्र भी लिख दिया।
           मैं उनका पत्र लेकर  पूना चला गया। धर्मशाला में ठहरा। एक जैनी के यहाँ भोजन करने लगा। वहाँ की जलवायु सेवन करने से मुझे आराम हो गया। पश्चात एक मास बाद मैं बम्बई आ गया। वहाँ कुछ दिन ठहरा फिर ज्वर आने लगा।
         श्री गुरुजी ने मुझे अजमेर के पास केकड़ी है, वहाँ भेज दिया। केकड़ी में पं. धन्नालालजी, साहब रहते थे। योग्य पुरुष थे। आप बहुत ही दयालु और सदाचारी थे। आपके सहवास से मुझे बहुत लाभ हुआ। आपका कहना था कि 'जिसे आत्म-कल्याण करना हो वह जगत के प्रपंचों से दूर रहे।' आपके द्वारा यहाँ एक पाठशाला चलती थी।
          मैं श्रीमान रानीवालों की दुकान पर ठहर गया। उनके मुनीम बहुत योग्य थे। उन्होंने मेरा सब प्रबंध कर दिया। यहाँ औषधालय में जो वैद्यराज दौलतराम जी थे, वह बहुत ही सुयोग्य थे। मैंने कहा- महराज मैं तिजारी से बहुत दुखी हूँ। कोई ऐसी औषधि दीजिए जिससे मेरी बीमारी चली जावे। 
          वैद्यराज ने मूँग के बराबर गोली दी और कहा- 'आज इसे खा लो तथा S४ दूध की S चावल डालकर खीर बनाओ तथा जितनी खाई जाए उतनी खाओ। कोई विकल्प न करना।'
           मैंने दिनभर खीर खाई। पेट खूब भर गया। पन्द्रह दिन केकड़ी में रहकर जयपुर चला गया।

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल १०?
  17. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

             ज्ञानप्राप्ति की प्रबल भावना रखने वाले गणेश प्रसाद का बम्बई से अध्ययन प्रारम्भ हो पाया। यही पर उनका परिचय जैनधर्म के मूर्धन्य विद्वान पंडित गोपालदासजी वरैया । जैन सिद्धांत प्रवेशिका इन्ही के द्वारा लिखी गई है।
             बम्बई से अध्ययन प्रारम्भ होने तथा अवरोध प्रस्तुत होने का उल्लेख प्रस्तुत प्रसंग में है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                *"विद्याध्ययन का सुयोग"*
                         *क्रमांक - ५५*

          मैं आनंद से अध्ययन करने लगा और भाद्रमास में रत्नकरण्डश्रावकाचार तथा कातन्त्र व्याकरण की पञ्चसंधि में परीक्षा दी। उसी समय बम्बई परीक्षालय खुला था। रिजल्ट निकला। मैं दोनों विषय में उत्तीर्ण हुआ। साथ में पच्चीस रुपये इनाम भी मिला। समाज प्रसन्न हुई।
         श्रीमान पंडित गोपालदास वरैया उस समय वहीं पर रहते थे। आप बहुत ही सरल तथा जैनधर्म के मार्मिक पंडित थे, साथ में अत्यंत दयालु भी थे। 
          वह मुझसे बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि- 'तुम आनंद से विद्याध्ययन करो, कोई चिंता मत करो।' वह एक साहब के यहाँ काम करते थे। साहब इनसे  अत्यंत प्रसन्न था।
           पंडितजी ने मुझसे कहा- 'तुम शाम को मुझे विद्यालय आफिस से ले आया करो, तुम्हारा जो मासिक खर्च होगा, मैं दूँगा। यह न समझना कि मैं तुम्हे नौकर समझूँगा। मैं उनके समक्ष कुछ नहीं कह सका।'
        मेरा परीक्षाफल देखकर देहली के एक जवेरी लक्ष्मीचंद्रजी ने कहा कि 'दस रुपया मासिक हम बराबर देंगे, तुम सानंद अध्ययन करो।' 
           मैं अध्ययन करने लगा किन्तु दुर्भाग्य का उदय इतना प्रबल था कि बम्बई का पानी मुझे अनुकूल न पड़ा। शरीर रोगी हो गया। गुरुजी और स्वर्गीय पं. गोपालदासजी ने बहुत ही समवेदना प्रगट की। तथा यह आदेश दिया कि तुम पूना जाओ, तुम्हारा सब प्रबंध हो जायेगा। एक पत्र भी लिख दिया।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल ७?
  18. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

          गणेशप्रसाद के अंदर ज्ञानार्जन के प्रति तीव्र लालसा का पता इसी बात से लगता है कि वह अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी अपने अध्ययन के लिए प्रयासरत थे। कुछ राशी जमा कर अध्ययन का ही प्रयास किया।
        संस्कृत अध्ययन में परीक्षा उत्तीर्ण करने के कारण उन्हें पच्चीस रुपये का पुरुस्कार मिला। समाज के लोगों को प्रसन्नता हुई।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                *"विद्याध्ययन का सुयोग"*
                         *क्रमांक - ५४"*

          यहाँ पर मंदिर में एक जैन पाठशाला थी। जिसमें श्री जीवाराम शास्त्री गुजराती अध्यापक थे (वे संस्कृत के प्रौढ़ विद्वान थे)। ३०) मासिक पर दो घंटा पढ़ाने आते थे। साथ में श्री गुरुजी पन्नालालजी बकलीवाल सुजानगढ़ वाले ऑनरेरी धर्मशिक्षा देते थे।
           मैंने उनसे कहा- 'गुरुजी ! मुझे भी ज्ञानदान दीजिए।' गुरुजी ने मेरा परिचय पूंछा, मैंने आनुपूर्वी अपना परिचय उनको सुना दिया। वह बहुत प्रसन्न हुए और बोले तुम संस्कृत पढ़ो।
        उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर कातन्त्र व्याकरण श्रीयुत शास्त्री जीवारामजी से पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। और रत्नकरण्ड श्रावकाचार जी पंडित पन्नालालजी से पढ़ने लगा। मैं पण्डितजी को गुरुजी कहता था। 
          
           बाबा गुरुदयालजी से मैंने कहा- 'बाबाजी ! मेरे पास ३१।=) कापियों के आ गए। १०) आप दे गए थे। अब मैं भाद्र तक के लिए निश्चिंत हो गया। आपकी आज्ञा हो तो संस्कृत अध्यनन करने लगूँ।'
           उन्होंने हर्षपूर्वक कहा- 'बहुत अच्छा विचार है, कोई चिंता मत करो, सब प्रबंध कर दूँगा, जिस किसी पुस्तक की आवश्यकता हो, हमसे कहना।'
          मैं आनंद से अध्ययन करने लगा और भाद्रमास में रत्नकरण्डश्रावकाचार तथा कातन्त्र व्याकरण की पञ्चसंधि में परीक्षा दी। उसी समय बम्बई परीक्षालय खुला था। रिजल्ट निकला। मैं दोनों विषय में उत्तीर्ण हुआ। साथ में पच्चीस रुपये इनाम भी मिला। समाज प्रसन्न हुई।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल ४?
  19. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

           आज की प्रस्तुती से हम जानेंगे कि गणेशप्रसाद ने बम्बई में ज्ञानार्जन हेतु कापियों को बेचकर धनार्जन किया।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                *"विद्याध्ययन का सुयोग"*
                         *क्रमांक - ५३"*

            बाबा गुरुदयालसिंह ने कहा आप न तो हमारे संबंधी हैं। और न हम तुमको जानते ही हैं तुम्हारे आचारादि से अभिज्ञ नहीं हैं फिर भी हमारे परिणामों में तुम्हारे रक्षा के भाव हो गए।
            इससे अब तुम्हे सब प्रकार की चिंता छोड़ देना चाहिए तथा ऊपर भी जिनेन्द्रदेव के प्रतिदिन दर्शननादि कर स्वाध्याय में उपयोग लगाना चाहिए। तुम्हारी जो आवश्यकता होगी हम उसकी पूर्ति करेंगे।' इत्यादि वाक्यों द्वारा मुझे संतोष कराके चले गए।
           मैंने आनंद से भोजन किया। कई दिन से चिंता के कारण निंद्रा नहीं आई थी, अतः भोजन करने के अनंतर सो गया। तीन घंटे बाद निंद्रा भंग हुई, मुख मार्जन कर बैठा ही था कि इतने में बाबा गुरुदयालजी आ गए और १०० कापियाँ देकर यह कहने लगे कि इन्हें बाजार में जाकर फेरी में बेज आना।
          छह आने से कम में न देना। यह पूर्ण हो जाने पर मैं और ला दूँगा। उन कापियों में रेशम आदि कपड़ो के नमूने विलायत से आते हैं।
          मैं शाम को बाजार में गया और एक ही दिन में बीस कापी बेच आया। कहने का तात्पर्य यह है कि  छह दिन में वे सब कापियाँ बिक गई और उनकी बिक्री के मेरे पास ३१।=) हो गए। अब मैं एकदम निश्चिंत हो गया।
          यहाँ पर मंदिर में एक जैन पाठशाला थी। जिसमें श्री जीवाराम शास्त्री गुजराती अध्यापक थे (वे संस्कृत के प्रौढ़ विद्वान थे)। ३०) मासिक पर दो घंटा पढ़ाने आते थे। साथ में श्री गुरुजी पन्नालालजी बकलीवाल सुजानगढ़ वाले ऑनरेरी धर्मशिक्षा देते थे।
           मैंने उनसे कहा- 'गुरुजी ! मुझे भी ज्ञानदान दीजिए।' गुरुजी ने मेरा परिचय पूंछा, मैंने आनुपूर्वी अपना परिचय उनको सुना दिया। वह बहुत प्रसन्न हुए और बोले तुम संस्कृत पढ़ो।
          
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल २?
  20. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

           हम देख रहे हैं, जिनधर्म के मर्म को जानने की प्यास लिए गणेश प्रसाद कैसे अपने लक्ष्य प्राप्ति की और आगे बड़ रहे हैं। उनके पास तात्कालिक साधनों का तो अभाव था लेकिन धर्म के प्रति नैसर्गिक श्रद्धान व पुण्य का उदय जो अभावपूर्ण स्थिति में भी उनकी व्यवस्था बनती जा रही थी।
          अगली प्रस्तुती में आप देखेंगे कि धर्म की इतनी प्रभावना करने वाले महापुरुष पूज्य वर्णीजी ने कभी बम्बई में कापियाँ बेचकर अपने आगे के अध्यन हेतु धनार्जन किया था।
          बहुत ही रोचक है वर्णीजी का जीवन चरित्र। आप अवश्य ही पढ़ें पूज्य वर्णीजी की आत्मकथा "मेरी जीवन गाथा।"
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                    *"गजपंथा से बम्बई"*
                         *क्रमांक - ५३*

           समान लेकर मंदिर गया, नीचे धर्मशाला में समान रखकर ऊपर दर्शन करने गया। लज्जा के साथ दर्शन किये, क्योंकि शरीर क्षीण था। वस्त्र मलिन थे। चेहरा बीमारी के कारण विकृत था। शीघ्र दर्शनकर एक पुस्तक उठा ली और धर्मशाला में स्वाध्याय करने लगा। सेठजी आठ आने देकर चले गए।
             मैं किंकर्तव्यविमूढ़की तरह स्वाध्याय करने लगा। इतने में ही एक बाबा गुरुदयालसिंह, जो खुरजा के रहने वाले थे, मेरे पास आये और पूछने लगे- 'कहाँ से आये हो और बम्बई आकर क्या करोगे?' मुझसे कुछ नहीं कहा गया, प्रत्युत गदगद हो गया।
           
             श्रीयुत बाबा गुरुदयालसिंहजी ने कहा- 'हम आध घंटा बाद आवेंगे तुम यहीं मिलना।' मैं शांतिपूर्वक स्वाध्याय करने लगा।
           उनकी अमृतमयी वाणी से इतनी तृप्ति हुई कि सब दुख भूल गया। आध घंटे के बाद बाबाजी आ गए और दो धोती, दो जोड़े दुपट्टे, रसोई के सब बर्तन, आठ दिन का भोजन का सामान, सिगड़ी, कोयला तथा दस रुपया नगद देकर बोले- 'आनंद से भोजन बनाओ, कोई चिंता न करना, हम तुम्हारी सब तरह रक्षा करेंगे।'
           अशुभकर्मं के विपाक में मनुष्यों को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ता है और जब शुभ कर्म का विपाक आता है तब अनायास जीवों को सुख सामग्री का लाभ हो जाता है। कोई न कर्ता है हर्ता है, देखो, हम खुरजा के निवासी हैं। आजीविका के निमित्त बम्बई में रहते हैं। दलाली करते हैं, तम्हे मंदिर में देख स्वयमेव हमारे परिणाम हो गए कि इस जीवकी रक्षा करनी चाहिए।
          आप न तो हमारे संबंधी हैं। और न हम तुमको जानते ही हैं तुम्हारे आचारादि से अभिज्ञ नहीं हैं फिर भी हमारे परिणामों में तुम्हारे रक्षा के भाव हो गए।
            इससे अब तुम्हे सब प्रकार की चिंता छोड़ देना चाहिए तथा ऊपर भी जिनेन्द्रदेव के प्रतिदिन दर्शननादि कर स्वाध्याय में उपयोग लगाना चाहिए। तुम्हारी जो आवश्यकता होगी हम उसकी पूर्ति करेंगे।' इत्यादि वाक्यों द्वारा मुझे संतोष कराके चले गए।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
       ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल १?
  21. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

              शायद आपने सोचा भी नहीं होगा कि जैनधर्म इतना बड़ा मर्मज्ञ इतनी विषम परिस्थितियों से गुजरा होगा। बड़ा ही रोचक है पूर्ण वर्णीजी का जीवन।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                    *"गजपंथा से बम्बई"*
                         *क्रमांक - ५१*

           मैंने वह एक आना मुनीम को दे दिया। मुनीम ने लेने में संकोच किया। सेठजी भी हँस पड़े और मैं भी संकोचवश लज्जित हो गया, परंतु मैंने अंतरंग से दिया था, अतः उस एक आना के दान ने मेरा जीवन पलट दिया।
           सेठजी कपढ़ा खरीदने बम्बई जा रहे थे। आरवी में उनकी दुकान थी। उन्होंने मुझसे कहा- 'बम्बई चलो, वहाँ से गिरिनारजी चले जाना।' मैंने कहा- 'मैं पैदल यात्रा करूँगा।'
           यद्यपि साधन कुछ भी न था- साधन के नाम पर एक पैसा साथ न था, फिर भी अपनी दरिद्र अवस्था वचनों द्वारा सेठ के सामने व्यक्त न होने दी- मन में याचना का भाव नहीं आया।
          सेठजी को मेरे ऊपर अन्तरंग से प्रेम हो गया। प्रेम के साथ मेरे प्रति दया की भावना भी हो गई। बोले 'तुम आग्रह मत करो, हमारे साथ बम्बई चलो, हम तुम्हारे हितैषी हैं।'
          उनके आग्रह करने पर मैंने भी उन्हीं के साथ बम्बई प्रस्थान कर दिया। नाशिक होता हुआ रात्रि के नौ बजे बम्बई के स्टेशन पर पहुँचा। रौशनी आदि की प्रचुरता देखकर आश्चर्य में पड़ गया।
            यह चिंता हुई कि पास में तो पैसा नहीं, क्या करूँगा? नाना विकल्पों के जाल में पड़ गया, कुछ भी निश्चित न कर सका। सेठजी के साथ घोड़ा-गाड़ी  में बैठकर जहाँ सेठ साहब ठहरे उसी मकान में ठहर गया।
          मकान क्या था स्वर्ग का एक खंड था। देखकर आनंद के बदले खेद-सागर में डूब गया। क्या करूँ? कुछ भी निश्चित न कर सका। रात्रि भर नींद नहीं आई। प्रातः शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर बैठा था कि सेठजी ने कहा- 'चलो मंदिर चलें और आपका जो भी समान हो वह भी लेते चलें। वहीं मंदिर के नीचे धर्मशाला में ठहर जाना।' मैंने कहा- 'अच्छा।'
           समान लेकर मंदिर गया, नीचे धर्मशाला में समान रखकर ऊपर दर्शन करने गया। लज्जा के साथ दर्शन किये, क्योंकि शरीर क्षीण था। वस्त्र मलिन थे। चेहरा बीमारी के कारण विकृत था। शीघ्र दर्शनकर एक पुस्तक उठा ली और धर्मशाला में स्वाध्याय करने लगा। सेठजी आठ आने देकर चले गए।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
       ?आजकी तिथी- आषाढ़ कृ. अमा.?
  22. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

              पूज्य वर्णीजी का जीवन पलट देने वाली बात क्या थी? आज की प्रस्तुती में यह है। अवश्य पढ़े यह अंश।
         एक आना बचा था वर्णीजी के पास भोजन के लिए, यदि सेठजी के यहाँ भोजन न किया होता तो वह भी खत्म हो जाता। इसलिए पवित्र मना वर्णीजी ने वह भाव सहित दान दे दिया। वर्णीजी ने स्वयं लिखा है कि भाव सहित मेरे द्वारा बचे एक आना के दान ने मेरा जीवन बदल दिया।
          
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                    *"गजपंथा से बम्बई"*
                         *क्रमांक - ५०*

           तीन मास से मार्ग के खेद से खिन्न था तथा जबसे माँ और स्त्री को छोड़ा, मड़ावरा से लेकर मार्ग में आज वैसा भोजन किया। दरिद्र को निधि मिलने में जितना हर्ष होता है उससे भी अधिक मुझे भोजन करने में हुआ।
           भोजन के अनंतर वह सेठ मंदिर के भण्डार में द्रव्य देने के लिए गए। पाँच रुपये मुनीम को देकर उन्होंने जब रसीद ली तब मैं भी वहीं बैठा था।
           मेरे पास केवल एक आना था और वह इसलिए बच गया था कि आज के दिन आरवी के सेठ के यहाँ भोजन किया था।
           मैंने विचार किया था कि यदि आज अपना निजका भोजन करता तो वह एक आना खर्च हो जाता और ऐसा मधुर भोजन भी नहीं मिलता, अतः इसे भाण्डार में दे देना अच्छा है।
           निदान, मैंने वह एक आना मुनीम को दे दिया। मुनीम ने लेने में संकोच किया। सेठजी भी हँस पड़े और मैं भी संकोचवश लज्जित हो गया, परंतु मैंने अंतरंग से दिया था, अतः उस एक आना के दान ने मेरा जीवन पलट दिया।

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
       ?आजकी तिथी- आषाढ़ कृष्ण १४?
  23. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

              बड़ा ही मार्मिक वृत्तांत है पूज्य वर्णीजी के जीवन का। ह्रदय को छू जाने वाला है।
          अद्भुत तीर्थवंदना की भावना उस पावन आत्मा के अंदर। शरीर कृश होने के बाद भी पैदल गजपंथाजी से श्री गिरिनारजी जाने की भावना रख रहे हैं। जिनेन्द्र भक्ति हेतु आत्मबल के आगे जर्जर शरीर का कोई ख्याल ही नहीं था। तीन माह से अच्छी तरह भोजन नहीं हुआ था। 
         हम सभी पाठकों की पूज्य वर्णीजी का जीवन वृत्तांत पढ़कर आँखे भर आना एक सहज सी बात है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                    *"गजपंथा से बम्बई"*
                         *क्रमांक - ४९*
           पाप के उदय की पराकाष्ठा का उदय यदि देखा तो मैंने देखा। एक दिन की बात है- सधन जंगल में, जहाँ पर मनुष्यों का संचार न था, एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया। वहीं बाजरे के चूनकी लिट्टी लगाई, खाकर सो गया। निद्रा भंग हुई, चलने को उद्यमी हुआ, इतने मे भयंकर ज्वर आ गया। 
             बेहोश पड़ गया। रात्रि के नौ बजे होश आया। भयानक वन में था। सुध-बुध भूल गया। रात्रि भर भयभीत अवस्था में रहा। किसी तरह प्रातःकाल हुआ। श्री भगवान का स्मरण कर मार्ग में अनेक कष्टों की अनुभूति करता हुआ, श्री गजपंथाजी में पहुँच गया और आनंद से धर्मशाला में ठहरा।
           वहीं पर एक आरवी के सेठ ठहरे थे। प्रातःकाल उनके साथ पर्वत की वंदना को चला। आनंद से यात्रा समाप्त हुई। धर्म की चर्चा भी अच्छी तरह हुई।
             आपने कहा- 'कहाँ जाओगे?' मैंने कहा- 'श्री गिरिनारजी की यात्रा को जाऊँगा।' 
    कैसे जाओगे?' पैदल जाऊँगा।'
         उन्होंने मेरे शरीर की अवस्था देखकर बहुत ही दयाभाव से कहा- 'तुम्हारा शरीर इस योग्य नहीं'
         मैंने कहा- 'शरीर तो नश्वर है एक दिन जावेगा ही कुछ धर्म का कार्य इससे लिया जावे।'
          वह हँस पड़े और बोले- 'अभी बालक हो, 'शरीर माध्यम खलु धर्मसाधनम्' शरीर धर्म साधन का आद्य कारण है, अतः इसको धर्मसाधन के लिए सुरक्षित रखना चाहिए।'
          मैंने कहा- 'रखने से क्या होता है? भावना हो तब तो यह बाह्य कारण हो सकता है। इसके बिना यह किस काम का?'
          परंतु वह तो अनुभवी थे, हँस गये, बोले- 'अच्छा इस विषय में फिर बातचीत होगी, अब तो चलें, भोजन करें, आज आपको मेरे ही डेरे में भोजन करना होगा।'
            मैंने बाह्य से तो जैसे लोगों का व्यवहार होता है वैसा ही उनके साथ किया, पर अंतरंग से भोजन करना इष्ट था। स्थान पर आकर उनके यहाँ आनंद से भोजन किया। 
           तीन मास से मार्ग के खेद से खिन्न था तथा जबसे माँ और स्त्री को छोड़ा, मड़ावरा से लेकर मार्ग में आज वैसा भोजन किया। दरिद्र को निधि मिलने में जितना हर्ष होता है उससे भी अधिक मुझे भोजन करने में हुआ।

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
       ?आजकी तिथी- आषाढ़ कृष्ण १३?
  24. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

              पूज्य वर्णीजी के जीवन में कितनी विषय परिस्थियाँ थी यह आज की प्रस्तुती ज्ञात होगा।
           ज्वर जो एक दिन छोड़कर आता था वह दो दिन छोड़कर आने लगा। चार कम्बल ओढ़ने से भी ज्वर में ठंड शांत न होती जबकि एक कम्बल भी नहीं। शरीर में पकनू खाज हो गई। प्रतिदिन २० मील चलते थे और भोजन था ज्वार के आटे की रोटी नमक के साथ।
        मार्ग में घोर जंगल में भोजन को रुके, बुखार आने से बेहोश हो गए। ऐसी-२ कठिन परिस्थितियों में भी पूज्य वर्णीजी वंदना के मार्ग में आगे बढ़ते रहे।
          
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                          *"कर्मचक्र"*
                         *क्रमांक - ४८*
                      उस समय अपने भाग्य का गुणगान करते हुआ आगे बढ़ा। कुछ दिन बाद ऐसे स्थान पर पहुँचा, जहाँ पर जिनालय था। जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव के दर्शन किये। तत्पश्चात यहाँ से गजपन्था के लिए प्रस्थान कर दिया और गजपंथा पहुँच भी गया।
            मार्ग में कैसे कैसे कष्ट उठाये उनका इसी से अनुमान कर लो कि जो ज्वर एक दिन बाद आता था वह अब दो दिन बाद आने लगा। इसको हमारे देश में तिजारी कहते हैं। इसमें इतनी ठंड लगती है कि चार सोड़रों से भी नहीं जाती। पर पास में एक भी नहीं थी।
           साथ में पकनूँ खाज हो गई, शरीर कृश हो गया। इतना होने पर भी प्रतिदिन २० मील चलना और खाने को दो पैसे का आटा। वह भी जवारी का और कभी बाजरे का और वह भी बिना दाल शाक का। केवल नमक की कंकरी शाक थी।
           घी क्या कहलाता है? कौन जाने, उसके दो मास से दर्शन भी न हुए थे। दो मास से दाल का भी दर्शन न हुआ था। किसी दिन रूखी रोटी बनाकर रक्खी और खाने की चेष्टा की कि तिजारी महरानी ने दर्शन देकर कहा- 'सो जाओ, अनधिकार चेष्टा न करो, अभी तुम्हारे पाप कर्म का उदय है, समता से सहन करो।'
           पाप के उदय की पराकाष्ठा का उदय यदि देखा तो मैंने देखा। एक दिन की बात है- सधन जंगल में, जहाँ पर मनुष्यों का संचार न था, एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया। वहीं बाजरे के चूनकी लिट्टी लगाई, खाकर सो गया। निद्रा भंग हुई, चलने को उद्यमी हुआ, इतने मे भयंकर ज्वर आ गया। 
             बेहोश पड़ गया। रात्रि के नौ बजे होश आया। भयानक वन में था। सुध-बुध भूल गया। रात्रि भर भयभीत अवस्था में रहा। किसी तरह प्रातःकाल हुआ। श्री भगवान का स्मरण कर मार्ग में अनेक कष्टों की अनुभूति करता हुआ, श्री गजपंथाजी में पहुँच गया और आनंद से धर्मशाला में ठहरा।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
       ?आजकी तिथी- आषाढ़ कृष्ण १२?
  25. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

              अजैन कुल से आकर जैनधर्म के सिद्धांतों का प्रचारित करने का श्रेय रखने वाले पूज्य वर्णीजी के प्रारंभिक जीवन में बहुत ही विषम परिस्थितियाँ थी।
           आजकी प्रस्तुती को पढ़कर, पूज्य वर्णीजी के प्रति श्रद्धा रखने वाले हर एक पाठक की आँख भीगे बिना नहीं रहेगी।
            कितनी दयनीय स्थिति थी उस समय उनकी, पैसे के लिए मजदूरी करने का प्रयास किया, अशक्य होने से अपनी परिस्थिति में रोते रहे।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                          *"कर्मचक्र"*
                         *क्रमांक - ४७*
          अब बचे दो रुपया सो विचार किया कि अब गलती न करो, अन्यथा आपत्ति में फस जाओगे। मन संतोष कर वहाँ से चल दिए। किसी तरह कष्टों को सहते हुए बैतूल पहुँचे।
           उन दिनों अन्न सस्ता था। दो पैसे में S।। जवारी का आटा मिल जाता था। उसकी रोटी खाते हुए मार्ग तय करते थे। जब बैतूल पहुँचे, तब ग्राम के बाहर सड़क पर कुली लोग काम कर रहे थे।
           हमने विचार किया कि यदि हम भी इस तरह काम करें तो हमें भी कुछ मिल जाया करेगा। मेट से कहा- 'भाई ! हमको भी लगा लो।' दयालु था, उसने हमको एक गैती दे दी और कहा कि 'मिट्टी खोदकर इन औरतों की टोकनी में भरते जाओ। तीन आने शाम को मिल जावेंगे।'
           मैंने मिट्टी खोदना आरम्भ किया और एक टोकनी किसी तरह से भर कर उठा दी, दूसरी टोकनी नहीं भर सका। अंत में गेंती को वही पटक कर रोता हुआ आगे चल दिया।
             मेंट ने दया कर बुलाया- 'रोते क्यों हो? मिट्टी को ढोओ, दो आना मिल जावेंगे।' गरज वह भी न बन पड़ा, तब मेट ने कहा- 'आपकी इच्छा सो करो।'
            मैंने कहा- 'जनाब, बन्दगी, जाता हूँ।' उसने कहा- 'जाइये, यहाँ तो हट्टे-कट्टे पुरुषों का काम है।'

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
       ?आजकी तिथी- आषाढ़ कृष्ण १०?
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