कर्मचक्र - ४८
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य वर्णीजी के जीवन में कितनी विषय परिस्थियाँ थी यह आज की प्रस्तुती ज्ञात होगा।
ज्वर जो एक दिन छोड़कर आता था वह दो दिन छोड़कर आने लगा। चार कम्बल ओढ़ने से भी ज्वर में ठंड शांत न होती जबकि एक कम्बल भी नहीं। शरीर में पकनू खाज हो गई। प्रतिदिन २० मील चलते थे और भोजन था ज्वार के आटे की रोटी नमक के साथ।
मार्ग में घोर जंगल में भोजन को रुके, बुखार आने से बेहोश हो गए। ऐसी-२ कठिन परिस्थितियों में भी पूज्य वर्णीजी वंदना के मार्ग में आगे बढ़ते रहे।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"कर्मचक्र"*
*क्रमांक - ४८*
उस समय अपने भाग्य का गुणगान करते हुआ आगे बढ़ा। कुछ दिन बाद ऐसे स्थान पर पहुँचा, जहाँ पर जिनालय था। जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव के दर्शन किये। तत्पश्चात यहाँ से गजपन्था के लिए प्रस्थान कर दिया और गजपंथा पहुँच भी गया।
मार्ग में कैसे कैसे कष्ट उठाये उनका इसी से अनुमान कर लो कि जो ज्वर एक दिन बाद आता था वह अब दो दिन बाद आने लगा। इसको हमारे देश में तिजारी कहते हैं। इसमें इतनी ठंड लगती है कि चार सोड़रों से भी नहीं जाती। पर पास में एक भी नहीं थी।
साथ में पकनूँ खाज हो गई, शरीर कृश हो गया। इतना होने पर भी प्रतिदिन २० मील चलना और खाने को दो पैसे का आटा। वह भी जवारी का और कभी बाजरे का और वह भी बिना दाल शाक का। केवल नमक की कंकरी शाक थी।
घी क्या कहलाता है? कौन जाने, उसके दो मास से दर्शन भी न हुए थे। दो मास से दाल का भी दर्शन न हुआ था। किसी दिन रूखी रोटी बनाकर रक्खी और खाने की चेष्टा की कि तिजारी महरानी ने दर्शन देकर कहा- 'सो जाओ, अनधिकार चेष्टा न करो, अभी तुम्हारे पाप कर्म का उदय है, समता से सहन करो।'
पाप के उदय की पराकाष्ठा का उदय यदि देखा तो मैंने देखा। एक दिन की बात है- सधन जंगल में, जहाँ पर मनुष्यों का संचार न था, एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया। वहीं बाजरे के चूनकी लिट्टी लगाई, खाकर सो गया। निद्रा भंग हुई, चलने को उद्यमी हुआ, इतने मे भयंकर ज्वर आ गया।
बेहोश पड़ गया। रात्रि के नौ बजे होश आया। भयानक वन में था। सुध-बुध भूल गया। रात्रि भर भयभीत अवस्था में रहा। किसी तरह प्रातःकाल हुआ। श्री भगवान का स्मरण कर मार्ग में अनेक कष्टों की अनुभूति करता हुआ, श्री गजपंथाजी में पहुँच गया और आनंद से धर्मशाला में ठहरा।
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
?आजकी तिथी- आषाढ़ कृष्ण १२?
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