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JainSamaj.World
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कर्मचक्र - ४७


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,


          अजैन कुल से आकर जैनधर्म के सिद्धांतों का प्रचारित करने का श्रेय रखने वाले पूज्य वर्णीजी के प्रारंभिक जीवन में बहुत ही विषम परिस्थितियाँ थी।

       आजकी प्रस्तुती को पढ़कर, पूज्य वर्णीजी के प्रति श्रद्धा रखने वाले हर एक पाठक की आँख भीगे बिना नहीं रहेगी।

        कितनी दयनीय स्थिति थी उस समय उनकी, पैसे के लिए मजदूरी करने का प्रयास किया, अशक्य होने से अपनी परिस्थिति में रोते रहे।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


                      *"कर्मचक्र"*

                     *क्रमांक - ४७*

      अब बचे दो रुपया सो विचार किया कि अब गलती न करो, अन्यथा आपत्ति में फस जाओगे। मन संतोष कर वहाँ से चल दिए। किसी तरह कष्टों को सहते हुए बैतूल पहुँचे।

       उन दिनों अन्न सस्ता था। दो पैसे में S।। जवारी का आटा मिल जाता था। उसकी रोटी खाते हुए मार्ग तय करते थे। जब बैतूल पहुँचे, तब ग्राम के बाहर सड़क पर कुली लोग काम कर रहे थे।

       हमने विचार किया कि यदि हम भी इस तरह काम करें तो हमें भी कुछ मिल जाया करेगा। मेट से कहा- 'भाई ! हमको भी लगा लो।' दयालु था, उसने हमको एक गैती दे दी और कहा कि 'मिट्टी खोदकर इन औरतों की टोकनी में भरते जाओ। तीन आने शाम को मिल जावेंगे।'

       मैंने मिट्टी खोदना आरम्भ किया और एक टोकनी किसी तरह से भर कर उठा दी, दूसरी टोकनी नहीं भर सका। अंत में गेंती को वही पटक कर रोता हुआ आगे चल दिया।

         मेंट ने दया कर बुलाया- 'रोते क्यों हो? मिट्टी को ढोओ, दो आना मिल जावेंगे।' गरज वह भी न बन पड़ा, तब मेट ने कहा- 'आपकी इच्छा सो करो।'

        मैंने कहा- 'जनाब, बन्दगी, जाता हूँ।' उसने कहा- 'जाइये, यहाँ तो हट्टे-कट्टे पुरुषों का काम है।'


? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
   ?आजकी तिथी- आषाढ़ कृष्ण १०?

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