धन, धान्य, दास, दासी, सोना, चाँदी आदि जो संसार के जीवों को तृष्णा के जाल में फँसाकर कष्ट पर कष्ट देने वाले हैं ऐसे परिग्रह से माया, ममता छोड़ने वाले जो साधु-सन्त हैं, उनसे भी जो ऊँचा हैं, जिनके त्याग से आगे त्याग की कोई सीमा नहीं, ऐसे सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर परिग्रह से डरे हुए दो भाइयों की कथा लिखी जाती है ॥१॥
दशार्ण देश में बहुत सुन्दर एकरथ नाम का एक शहर था । उसमें धनदत्त नाम का सेठ रहता था। इसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था । इसके धनदेव और धनमित्र ऐसे दो पुत्र और धनमित्रा न
संसार के द्वारा पूजे गए भगवान् आदि ब्रह्मा (आदिनाथ स्वामी) को नमस्कार कर, देवपुत्र ब्रह्मा की कथा लिखी जाती है ॥ १ ॥
कुछ असमझ लोग ऐसा कहते हैं कि एक दिन ब्रह्माजी के मन में आया कि मैं इन्द्रादिक का पद छीनकर सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ और इसके लिए उन्होंने एक भयंकर वन में हाथ ऊँचा किए बड़ी घोर तपस्या की। वे कोई साढ़े चार हजार वर्ष पर्यन्त (यह वर्ष संख्या देवों के वर्ष के हिसाब से हैं, जो कि मनुष्यों के वर्षों से कई गुणी होती है।) एक ही पाँव से खड़े होकर तप करते रहे और केवल वायु का आहार करते रहे । ब्
केवलज्ञान ही जिनका नेत्र है, ऐसे जिनभगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार सात्यकि और रुद्र की कथा लिखी जाती है ॥१॥
गन्धार देश में महेश्वरपुर एक सुन्दर शहर था । उसके राजा सत्यन्धर थे। सत्यन्धर की प्रिया का नाम सत्यवती था। इनके एक पुत्र हुआ उसका नाम सात्यकि था । सात्यकि ने राजविद्या में अच्छी कुशलता प्राप्त की थी और ठीक भी है, राजा बिना राजविद्या के शोभा भी नहीं पाता ॥२-३॥
इस समय सिन्धुदेश की विशाला नगरी का राजा चेटक था। चेटक जैनधर्म का पालक और जिनेन्द्र भगवान् का सच्चा भक्त था, इसकी
जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर अन्यमतों की असत्य कल्पनाओं का सत्पुरुषों को ज्ञान हो, इसलिए उन्हीं के शास्त्रों में लिखी हुई पाराशर नामक एक तपस्वी की कथा यहाँ लिखी जाती है ॥१॥
हस्तिनापुर में गंगभट नाम का एक धीवर रहा करता था । एक दिन वह पाप-बुद्धि एक बड़ी भारी मछली को नदी से पकड़कर लाया। घर लाकर उस मछली को जब उसने चीरा तो उसमें से एक सुन्दर कन्या निकली। उसके शरीर से बड़ी दुर्गन्ध निकल रही थी। उस धीवर ने उसका नाम सत्यवती रखा। वही उसका पालन-पोषण भी करने लगा। पर सच पूछो तो यह बात सर्वथा-असंभव है
देवों द्वारा पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर चारुदत्त सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥
जिस समय की यह कथा है, तब चम्पापुरी का राजा शूरसेन था । राजा बड़ा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। उसके नीतिमय शासन की सारी प्रजा एक स्वर से प्रशंसा करती थी। यही एक इज्जतदार भानुदत्त सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के कोई सन्तान नहीं हुई, इसलिए वह सन्तान प्राप्ति की इच्छा से नाना प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा किया करती थी, अनेक प्रकार की मान्यताएँ लिया करती थी परन्तु त
संसार-समुद्र से पार करने वाले सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर संक्षेप से संसारी जीव की दशा दिखलाई जाती है, जो बहुत ही भयावनी है ॥१॥
कभी कोई मनुष्य एक भयंकर वन में जा पहुँचा । वहाँ वह एक विकराल सिंह को देखकर डर के मारे भागा। भागते-भागते अचानक वह एक गहरे कुँए में गिरा । गिरते हुए उसके हाथों में एक वृक्ष की जड़ें पड़ गई उन्हें पकड़ कर वह लटक गया । वृक्ष पर शहद का एक छत्ता जमा था । सो इस मनुष्य के पीछे भागे आते हुए सिंह के धक्के से वृक्ष हिल गया । वृक्ष के हिल जाने से मधुमक्खियाँ उड़ गई और छत्ते स
देवों द्वारा पूजा किए गए जिनभगवान् के चरणों को भक्ति सहित नमस्कार कर सुरत नाम के राजा का हाल लिखा जाता है ॥१॥
सुरत अयोध्या के राजा थे। इनके पाँच सौ स्त्रियाँ थीं। उनमें पट्टरानी का पद महादेवी सती को प्राप्त था। राजा का सती पर बहुत प्रेम था। वे रात दिन भोगों में ही आसक्त रहा करते थे, उन्हें राज- काज की कुछ चिन्ता न थी । अन्तःपुर के पहरे पर रहने वाले सिपाही से उन्होंने कह रखा था कि जब कोई खास मेरा कार्य हो या कभी कोई साधु-महात्मा यहाँ आवें तो मुझे उनकी सूचना देना। वैसे कभी कुछ कहने को न आना ॥
संसार के बन्धु, पवित्रता की मूर्ति और मुक्ति का स्वतंत्रता का सुख देने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर वीरवती का उपाख्यान लिखा जाता है, जो सत्पुरुषों के लिए वैराग्य को बढ़ाने वाला है॥१॥
राजगृह नगर में धनमित्र नामक सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी और पुत्र का दत्त था। भूमिगृह नामक एक और सुन्दर नगर था । उसमें आनन्द नाम का एक साधारण गृहस्थ रहता था। इसकी स्त्री मित्रवती थी । उसके एक वीरवती नाम की कन्या हुई। वीरवती का व्याह दत्त के साथ हुआ। सो ठीक ही है, जो सम्बन्ध दैव को मंजूर होता है
संसार द्वारा वन्दना-स्तुति किए गए और सब सुखों को देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर गोपवती की कथा लिखी जाती है, जिसे सुनकर हृदय में वैराग्य भावना जगती है ॥१॥
पलासगाँव में सिंहबल नाम का एक साधारण गृहस्थ रहता था । उसकी स्त्री का नाम गोपवती था। गोपवती बड़े दुष्ट स्वभाव की स्त्री थी । उसकी दिन-रात की खटपट से बेचारा सिंहबल तबाह हो गया। उसे पलभर के लिए भी गोपवती के द्वारा कभी सुख नहीं मिला ॥२॥
गोपवती से तंग आकर एक दिन सिंहबल पास ही के एक पद्मिनीखेट नाम के गाँव में गया। वहाँ उसने अपनी पहली स्त
केवलज्ञान जिनका नेत्र है, उन जग पवित्र जिनभगवान् को नमस्कार कर देवरति नामक राजा का उपाख्यान लिखा जाता है, जो अयोध्या के स्वामी थे ॥१॥
अयोध्या नगरी के राजा देवरति थे । उनकी रानी का नाम रक्ता था । वह बहुत सुन्दरी थी राजा सदा उसी के नाद में लगे रहते थे। वे बड़े विषयी थे। शत्रु बाहर से आकर राज्य पर आक्रमण करते, उसकी भी उन्हें कुछ परवाह नहीं थी । राज्य की क्या दशा है, इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की । जो धर्म और अर्थ पुरुषार्थ को छोड़कर अनीति से केवल काम का सेवन करते हैं, सदा विषयवासना के ही दा
अर्हन्त, जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर, कडारपिंग की, जो कि स्वदारसन्तोषव्रत- ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हुआ है, कथा लिखी जाती है। कांपिल्य नाम का एक प्रसिद्ध शहर था । उसके राजा का नाम नरसिंह था। नरसिंह बुद्धिमान् और धर्मात्मा थे। अपने राज्य का पालन वे नीति के साथ करते थे। इसलिए प्रजा उन्हें बहुत चाहती थी ॥१-२॥
राजमंत्री का नाम सुमति था । इनके धनश्री स्त्री और कडारपिंग नामक एक पुत्र था। कडारपिंग का चाल-चलन अच्छा नहीं था । वह बड़ा कामी था । इसी नगर में एक कुबेरदत्त सेठ रहता था । यह बड़ा धर्मात्मा
जिनभगवान् के चरणों को, जो कि कल्याण के करने वाले हैं, नमस्कार कर श्रीमती नीली सुन्दरी की मैं कथा कहता हूँ। नीली ने चौथे अणुव्रत ब्रह्मचर्य की रक्षा कर प्रसिद्धि प्राप्त की है ॥१॥
पवित्र भारतवर्ष में लाटदेश एक सुन्दर और प्रसिद्ध देश था । जिनधर्म का वहाँ खूब प्रचार था । वहाँ की प्रजा अपने धर्म कर्म पर बड़ी दृढ़ थी। इससे इस देश की शोभा को उस समय कोई देश नहीं पा सकता था। जिस समय की यह कथा है, तब उसकी प्रधान राजधानी भृगुकच्छ नगर था। वह नगर बहुत सुन्दर और सब प्रकार की योग्य और कीमती वस्तुओं से पू
जिन्हें स्वर्ग के देवता बड़ी भक्ति के साथ पूजते हैं, उन सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं श्रीभूत-पुरोहित का उपाख्यान कहता हूँ, जो चोरी करके दुर्गति में गया है। सिंहपुर नाम का सुन्दर नगर था। उसका राजा सिंहसेन था । सिंहसेन की रानी का नाम रामदत्ता था। राजा बुद्धिमान् और धर्मपरायण था । रानी भी बड़ी चतुर थी । सब कामों को वह उत्तमता के साथ करती थी। राजपुरोहित श्रीभूति था । उसने मायाचारी से अपने सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध कर रक्खी थी कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ । बेचारे भोले लोग उस कपट
संसार के बन्धु और देवों द्वारा पूज्य श्रीजिनेन्द्रदेव को नमस्कार कर झूठ बोलने से नष्ट होने वाले वसुराजा का चरित्र मैं लिखता हूँ ॥१॥
स्वस्तिकावती नाम की एक सुन्दर नगरी थी । उसके राजा का नाम विश्वावसु था । विश्वावसु की रानी श्रीमती थी । उसके एक वसु नाम का पुत्र था ॥२॥
वहीं एक क्षीरकदम्ब नामक उपाध्याय रहता था । वह बड़ा सुचरित्र और सरल स्वभावी था। जिनभगवान् का वह भक्त था और होम, शान्तिविधान आदि जैन क्रियाओं द्वारा गृहस्थों के लिए शान्ति-सुखार्थ अनुष्ठान करना उसका काम था । उसकी स्त्री का ना
केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक श्री जिनेन्द्र भगवान् को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर मैं अहिंसाव्रत का फल पाने वाले एक धीवर की कथा लिखता हूँ ॥१॥
सब सन्देहों को मिटाने वाली, प्रीतिपूर्वक आराधना करने वाले प्राणियों के लिए सब प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाली, जिनेन्द्र भगवान् की वाणी संसार में सदैव बनी रहे ॥२॥
संसाररूपी अथाह समुद्र से भव्य पुरुषों को पार कराने के लिए पुल के समान ज्ञान के सिन्धु मुनिराज निरन्तर मेरे हृदय में विराजमान रहें ॥३॥
इस प्रकार पंचपरमेष्ठी का स्मरण और मंगल करके कर्मर
मोक्ष सुख के देने वाले श्री जिनभगवान् धर्म प्राप्ति के लिए नमस्कार कर मैं एक ऐसे चाण्डाल की कथा लिखता हूँ, जिसकी कि देवों तक ने पूजा की है ॥१॥
काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “ नन्दीश्वरपर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदंड का भागी होगा ।" वही एक सेठ पुत्र रहता था । उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। वह सात व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे मांस खाने की बुरी आदत पड़ी हु
लोकालोक के प्रकाश करने वाले, केवलज्ञान द्वारा संसार के सब पदार्थों को जानकर उनका स्वरूप कहने वाले और देवेन्द्रादि द्वारा पूज्य श्री जिन भगवान् को नमस्कार कर मैं दृढ़सूर्य की कथा लिखता हूँ, जो कि जीवों को विश्वास दिलाने वाली है ॥१॥
उज्जयिनी के राजा जिस समय धनपाल थे, उस समय की यह कथा है। धनपाल उस समय के राजाओं में एक प्रसिद्ध राजा थे। उनकी महारानी का नाम धनवती था । एक दिन धनवती अपनी सखियों के साथ वसन्त श्री देखने को उपवन में गई । उसके गले में एक बहुत कीमती रत्नों का हार पड़ा हुआ था। उसे वहीं
मैं देव, गुरु और जिनवाणी को नमस्कार कर यम मुनि की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने बहुत ही थोड़ा ज्ञान होने पर भी अपने को मुक्ति का पात्र बना लिया और अन्त में वे मोक्ष गए। यह कथा सब सुख की देने वाली है ॥१॥
उड्रदेश के अन्तर्गत धर्म नाम का प्रसिद्ध और सुन्दर शहर है। उसके राजा थे यम। वे बुद्धिमान् और शास्त्रज्ञ थे। उनकी रानी का नाम धनवती था । धनवती के एक पुत्र और एक पुत्री थी । उनके नाम थे गर्दभ और कोणिका । कोणिका बहुत सुन्दरी थी । धनवती के अतिरिक्त राजा की और भी कई रानियाँ थीं। उनके पुत्रों की संख्या
मोक्षसुख प्रदान करने वाले श्री अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार कर पंच नमस्कार मंत्र की आराधना द्वारा फल प्राप्त करने वाले सुदर्शन की कथा लिखी जाती है ॥१॥
अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी में गजवाहन नाम के एक राजा हो चुके हैं। वे बहुत खूबसूरत और साथ ही बड़े भारी शूरवीर थे । अपने तेज से शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सारे राज्य को उन्होंने निष्कण्टक बना लिया था। वहीं वृषभदत्त नाम के एक सेठ रहा करते थे । उनकी गृहिणी का नाम था अर्हड्वासी। अपनी प्रिया पर सेठ का बहुत प्रेम था । वह भी
इन्द्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, राजा, महाराजाओं द्वारा पूज्य जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर मैं पद्मरथ राजा की कथा लिखता हूँ, जो प्रसिद्ध जिनभक्त हुआ है ॥१॥
मगध देश के अन्तर्गत एक मिथिला नाम की सुन्दरी नगरी थी । उसके राजा थे पद्मरथ। वे बड़े बुद्धिमान् और राजनीति के अच्छे जानने वाले थे, उदार और परोपकारी थे । सुतरा वे खूब प्रसिद्ध थे ॥२॥
एक दिन पद्मरथ शिकार के लिए वन में गए हुए थे। उन्हें एक खरगोश दीख पड़ा। उन्होंने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया । खरगोश उनकी नजर से ओझल होकर न जाने कहाँ अदृ
केवलज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा समस्त संसार के पदार्थों के देखने, जानने वाले और जगत्पूज्य श्री जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं राजा श्रेणिक की कथा लिखता हूँ, जिसके पढ़ने से सर्वसाधारण का हित हो। श्रेणिक मगध देश के अधीश्वर थे। मगध की प्रधान राजधानी राजगृह थी । श्रेणिक कई विषयों के सिवा राजनीति के बहुत अच्छे विद्वान् थे । उनकी महारानी चेलना बड़ी धर्मात्मा, जिनभगवान् की भक्त और सम्यग्दर्शन से विभूषित थी । एक दिन श्रेणिक ने उससे कहा- देखो, संसार में वैष्णव धर्म की बहुत प्रतिष्ठा है और वह जैसा सुख देने वाल
परम भक्ति से संसार पूज्य जिन भगवान् को नमस्कार कर मैं ब्रह्मदत्त की कथा लिखता हूँ। वह इसलिए कि सत्पुरुषों को इसके द्वारा कुछ शिक्षा मिले ॥१॥
कांपिल्य नामक नगर में एक ब्रह्मरथ नाम का राजा रहता था । उसकी रानी का नाम था रामिली । वह सुन्दरी थी, विदुषी थी और राजा को प्राणों से भी कहीं प्यारी थी। बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त इसी के पुत्र थे। वे छह खण्ड पृथ्वी को अपने वश करके सुखपूर्वक अपना राज्य शासन का काम करते थे ॥२-३॥
एक दिन राजा भोजन करने को बैठे उस समय उनके विजयसेन नाम के रसोइये ने उन्ह
देवादि के द्वारा पूज्य और अनन्तज्ञान, दर्शनादि आत्मीय श्री से विभूषित जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं धनदत्त राजा की पवित्र कथा लिखता हूँ ॥१॥
अन्धदेशान्तर्गत कनकपुर नामक एक प्रसिद्ध और मनोहर शहर था। उसके राजा थे धनदत्त। वे सम्यग्दृष्टि थे, गुणवान् थे और धर्मप्रेमी थे। राजमंत्री का नाम श्रीवन्दक था । वह बौद्ध धर्मानुयायी था परन्तु तब भी राजा अपने मंत्री की सहायता से राजकार्य अच्छा चलाते थे। उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती थी ॥२-३॥
एक दिन राजा और मंत्री राजमहल के ऊपर बैठे हुए कुछ राज
बालक जैसा देखता है, वैसा ही कह भी देता है क्योंकि उसका हृदय पवित्र रहता है । यहाँ मैं जिनभगवान् को नमस्कार कर एक ऐसी ही कथा लिखता हूँ, जिसे पढ़कर सर्व साधारण का ध्यान पापकर्मों के छोड़ने की ओर जाये॥१॥
कौशाम्बी में जयपाल नाम के राजा हो गए हैं। उनके समय में वहीं एक सेठ हुआ है। उसका नाम समुद्रदत्त था और उसकी स्त्री का नाम समुद्रदत्ता । उसके एक पुत्र हुआ। उसका नाम सागरदत्त था। वह बहुत ही सुन्दर था । उसे देखकर सबका चित्त उसे खिलाने के लिए व्यग्र हो उठता था। समुद्रदत्त का एक गोपायन नाम का पड़ोसी
मैं संसार के हित करने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर दुर्जनों की संगति से जो दोष उत्पन्न होते हैं, उससे सम्बन्ध रखने वाली एक कथा लिखता हूँ, जिससे कि लोग दुर्जनों की संगति छोड़ने का यत्न करें ॥१॥
यह कथा उस समय की है, जब कि कौशाम्बी का राजा धनपाल था। धनपाल अच्छा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। शत्रु तो उसका नाम सुनकर काँपते थे । राजा के यहाँ एक पुरोहित था। उसका नाम था शिवभूति। वह पौराणिक अच्छा था ॥२-३॥
वहीं दो शूद्र रहते थे। उनके नाम कल्पपाल और पूर्णचन्द्र थे। उनके पास कुछ धन भी था। उनमें पू