१७. धनदत्त राजा की कथा
देवादि के द्वारा पूज्य और अनन्तज्ञान, दर्शनादि आत्मीय श्री से विभूषित जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं धनदत्त राजा की पवित्र कथा लिखता हूँ ॥१॥
अन्धदेशान्तर्गत कनकपुर नामक एक प्रसिद्ध और मनोहर शहर था। उसके राजा थे धनदत्त। वे सम्यग्दृष्टि थे, गुणवान् थे और धर्मप्रेमी थे। राजमंत्री का नाम श्रीवन्दक था । वह बौद्ध धर्मानुयायी था परन्तु तब भी राजा अपने मंत्री की सहायता से राजकार्य अच्छा चलाते थे। उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती थी ॥२-३॥
एक दिन राजा और मंत्री राजमहल के ऊपर बैठे हुए कुछ राज्य सम्बन्धी विचार कर रहे थे कि राजा को आकाशमार्ग से जाते हुए दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों के दर्शन हुए। राजा ने हर्ष के साथ उठकर मुनिराज को बड़े विनय से नमस्कार किया और अपने महल में उनका आह्वान किया। ठीक भी है "साधुसंगः सतां प्रियः’' अर्थात् - साधुओं की संगति सज्जनों को बहुत प्रीतिकर जान पड़ती है ॥४-६॥
इसके बाद राजा के प्रार्थना करने पर मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश दिया और चलते समय वे श्रीवन्दक मंत्री को अपने साथ लिवा ले गए। ले जाकर उन्होंने उसे समझाया और आत्महित की इच्छा से उसके प्रार्थना करने पर उसे श्रावक के व्रत दे दिये। श्रीवन्दक अपने स्थान लौट आया। इसके पहले श्रीवन्दक अपने बौद्धगुरु की वन्दनाभक्ति करने को प्रतिदिन उनके पास जाया करता था। सो जब उसने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिए तब से उसने जाना छोड़ दिया। यह देख बौद्धगुरु ने उसे बुलाया, पर जब श्रीवन्दक ने आकर भी उसे नमस्कार नहीं किया? त तब संघश्री ने उससे पूछा- क्यों आज तुमने मुझे नमस्कार नहीं किया। उत्तर में मंत्री ने मुनि के आने, उपदेश करने और अपने व्रत ग्रहण करने का सब हाल संघश्री से कह सुनाया । सुनकर संघ श्री बड़े दुःख के साथ बोला- हाय ! तू ठगा गया, पापियों ने तुझे बड़ा धोखा दिया। क्या कभी यह संभव है कि निराश्रय आकाश में भी कोई चल सकता है? जान पड़ता है तुम्हारा राजा बड़ा कपटी और ऐन्द्रजालिक है। इसलिए उसने तुम्हें ऐसा आश्चर्य दिखला कर अपने धर्म में शामिल कर लिया । तुम तो भगवान् बुद्ध के इतने विश्वासी थे, फिर भी तुम उस पापी राजा की बहकावे में आ गए? इस तरह उसे बहुत कुछ ऊँचा नीचा समझाकर संघश्री ने कहा अब तुम कभी राजसभा में नहीं जाना और जाना भी पड़े तो यह आज का हाल राजा से नहीं कहना । कारण वह जैनी है। सो बुद्धधर्म पर स्वभाव ही से उसे प्रेम नहीं होगा। इसलिए क्या मालूम कब वह बुद्धधर्म का अनिष्ट करने को तैयार हो जाये? बेचारा श्रीवन्दक फिर संघ श्री की चिकनी चुपड़ी बातों में आ गया। उसने श्रावक-धर्म को भी उसी समय जलांजलि दे दी । बहुत ठीक कहा गया है- ॥७-१६॥
जो स्वयं पापी होते हैं वे औरों को भी पापी बना डालते हैं । यह उनका स्वभाव ही होता है । जैसे अग्नि स्वयं भी गरम होती है और दूसरों को भी जला देती है ॥१७॥
दूसरे दिन धनदत्त ने राजसभा में बड़े आनन्द और धर्मप्रेम के साथ चारणमुनि का हाल सुनाया। उनमें प्रायः लोगों को, जो कि जैन नहीं थे, बहुत आश्चर्य हुआ । उनका विश्वास राजा के कथन पर नहीं जमा। सब आश्चर्य भरी दृष्टि से राजा के मुँह की ओर देखने लगे । राजा को जान पड़ा कि मेरे कहने पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ । तब उन्होंने अपनी गंभीरता को हँसी के रूप में परिवर्तित कर झट से कहा, हाँ मैं यह कहना तो भूल ही गया कि उस समय हमारे मंत्री महाशय भी मेरे पास ही थे। यह कहकर उन्होंने मंत्री पर नजर दौड़ाई पर वे उन्हें नहीं दीख पड़े। तब राजा ने उसी समय नौकरों को भेजकर श्रीवन्दक को बुलवाया। उसके आते ही राजा ने अपने कथन की सत्यता प्रमाणित करने के लिए उससे कहा- मंत्री जी, कल दोपहर का हाल तो इन सबको सुनाएँ कि वे चारणमुनि कैसे थे? तब बौद्धगुरु का बहकाया हुआ पापी श्रीवन्दक बोल उठा कि महाराज, मैंने तो उन्हें नहीं देखा और न यह संभव ही है कि आकाश में कोई चल सके? पापी श्रीवन्दक के मुँह से उक्त वाक्यों का निकलना था कि उसी समय उसकी दोनों आँखें मुनिनिन्दा के तीव्र पाप के उदय से फूट गईं ॥१८-२२॥
जैसे संसार में फैले हुए सूर्य के प्रभाव को उल्लू नहीं रोक सकता, ठीक उसी तरह पापी लोग पवित्र जिनधर्म के प्रभाव को कभी नहीं रोक सकते । उक्त घटना को देखकर राजा वगैरह ने जिनधर्म की खूब प्रशंसा की और श्रावक धर्म स्वीकार कर वे उपासक बन गए ॥२३-२४॥
इस प्रकार निर्मल और देवादि के द्वारा पूज्य जिनशासन का प्रभाव देखकर भव्य पुरुषों को उचित है कि वे निर्भ्रान्त होकर सुख के खजाने और स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले पवित्र जिनधर्म की ओर अपनी निर्मल और मनोवांछित की देने वाली बुद्धि को लगावें ॥२५॥
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