२०. पद्मरथ राजा की कथा
इन्द्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, राजा, महाराजाओं द्वारा पूज्य जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर मैं पद्मरथ राजा की कथा लिखता हूँ, जो प्रसिद्ध जिनभक्त हुआ है ॥१॥
मगध देश के अन्तर्गत एक मिथिला नाम की सुन्दरी नगरी थी । उसके राजा थे पद्मरथ। वे बड़े बुद्धिमान् और राजनीति के अच्छे जानने वाले थे, उदार और परोपकारी थे । सुतरा वे खूब प्रसिद्ध थे ॥२॥
एक दिन पद्मरथ शिकार के लिए वन में गए हुए थे। उन्हें एक खरगोश दीख पड़ा। उन्होंने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया । खरगोश उनकी नजर से ओझल होकर न जाने कहाँ अदृश्य हो गया। पद्मरथ भाग्य से कालगुफा नाम की एक गुहा में जा पहुँचे। वहाँ एक मुनिराज रहते थे। वे बड़े तपस्वी थे। उनका दिव्य देह तप के प्रभाव से अपूर्व तेज धारण कर रहा था । उनका नाम था सुधर्म। पद्मरथ रत्नत्रय विभूषित और परम शान्त मुनिराज के पवित्र दर्शन से बहुत शान्त हुए। जैसे तपा हुआ लौहपिंड जल से शान्त हो जाता है। वे उसी समय घोड़े पर से उतर पड़े और मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर उनके द्वारा धर्म का पवित्र उपदेश सुना । उपदेश उन्हें बहुत रुचा। उन्होंने सम्यक्त्व पूर्वक अणुव्रत ग्रहण किए। इसके बाद उन्होंने मुनिराज से पूछा- हे प्रभो ! हे संसार के आधार ! इस समय जिनधर्मरूप समुद्र को बढ़ाने वाले आप सरीखे गुणज्ञ चन्द्रमा और भी कोई है या नहीं ? और है तो कहाँ हैं? हे करुणासागर! मेरे इस सन्देह को मिटाइए ॥३-९॥
उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन् ! चम्पानगरी में इस समय बारहवें तीर्थंकर भगवान् वासुपूज्य विराजमान हैं। उनके भौतिक शरीर के तेज की समानता तो अनेक सूर्य मिलाकर भी नहीं कर सकते और उनके अनन्त ज्ञानादि गुणों के देखते हुए मुझमें और उनमें राई और सुमेरु का अन्तर है। भगवान् वासुपूज्य का समाचार सुनकर पद्मरथ को उनके दर्शनों की अत्यन्त उत्कण्ठा हुई वे उसी समय फिर वहाँ से बड़े वैभव के साथ भगवान् के दर्शनों के लिए चले। यह हाल धन्वन्तरी और विश्वानुलोम नाम के दो देवों को जान पड़ा। सो वे पद्मरथ की परीक्षा के लिए मध्यलोक में आए। उन्होंने पद्मरथ की भक्ति की दृढ़ता देखने के लिए रास्ते में उन पर उपद्रव करना शुरू किया। पहले उन्होंने उन्हें एक भयंकर कालसर्प दिखलाया, इसके बाद राज्यछत्र का भंग, अग्नि का लगना, प्रचण्ड वायु द्वारा पर्वत और पत्थरों का गिरना, असमय में भयंकर जलवर्षा और खूब कीचड़मय मार्ग और उसमें फँसा हाथी आदि दिखलाया । यह उपद्रव देखकर साथ के सब लोग भय के मारे अधमरे हो गए । मंत्रियों ने यात्रा अमंगलमय बतलाकर पद्मरथ से पीछे लौट चलने के लिए आग्रह किया परन्तु पद्मरथ ने किसी की बात नहीं सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ “नमः श्रीवासुपूज्याय” कहकर अपना हाथी आगे बढ़ाया। पद्मरथ की इस प्रकार अचल भक्ति देखकर दोनों देवों ने उनकी बहुत-बहुत प्रशंसा की। इसके बाद वे पद्मरथ को सब रोगों को नष्ट करने वाला एक दिव्य हार और एक बहुत सुन्दर वीणा, जिसकी आवाज एक योजन पर्यन्त सुनाई पड़ती है, देकर अपने स्थान चले गए । ठीक कहा है-जिनके हृदय में जिनभगवान् की भक्ति सदा विद्यमान रहती है, उनके सब काम सिद्ध हों, इसमें कोई सन्देह नहीं ॥१०-२२॥
पद्मरथ ने चम्पानगरी में पहुँच कर समवसरण में विराजे हुए, आठ प्रातिहार्यों से विभूषित, देव, विद्याधर, राजा, महाराजाओं द्वारा पूज्य, केवलज्ञान द्वारा संसार के सब पदार्थों को जानकर धर्म का उपदेश करते हुए और अनन्त जन्मों में बाँधे हुए मिथ्यात्व को नष्ट करने वाले भगवान् वासुपूज्य के पवित्र दर्शन किए, उनकी पूजा की, स्तुति की और उपदेश सुना । भगवान् के उपदेश का उनके हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे उसी समय जिनदीक्षा लेकर तपस्वी हो गए । प्रव्रजित होते ही उनके परिणाम इतने विशुद्ध हुए कि उन्हें अवधि और मन:पर्ययज्ञान हो गया । भगवान् वासुपूज्य के वे गणधर हुए। इसलिए भव्य पुरुषों को उचित है कि वे मिथ्यात्व छोड़कर स्वर्ग-मोक्ष को देने वाली जिनभगवान् की भक्ति निरन्तर पवित्र भावों के साथ करें और जिस प्रकार पद्मरथ सच्चा जिनभक्त हुआ, उसी प्रकार वे भी हों ॥२३-२९॥
जिनभक्ति सब प्रकार का सांसारिक सुख देती है और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति का कारण है, जो केवलज्ञान द्वारा संसार के प्रकाशक हैं और सत्पुरुषों द्वारा पूज्य हैं, वे भगवान् वासुपूज्य सारे संसार को मोक्ष सुख प्रदान करें, कर्मों के उदय से घोर दुःख सहते हुए जीवों का उद्धार करें ॥३०॥
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