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३३. सुरत राजा की कथा


देवों द्वारा पूजा किए गए जिनभगवान् के चरणों को भक्ति सहित नमस्कार कर सुरत नाम के राजा का हाल लिखा जाता है ॥१॥

सुरत अयोध्या के राजा थे। इनके पाँच सौ स्त्रियाँ थीं। उनमें पट्टरानी का पद महादेवी सती को प्राप्त था। राजा का सती पर बहुत प्रेम था। वे रात दिन भोगों में ही आसक्त रहा करते थे, उन्हें राज- काज की कुछ चिन्ता न थी । अन्तःपुर के पहरे पर रहने वाले सिपाही से उन्होंने कह रखा था कि जब कोई खास मेरा कार्य हो या कभी कोई साधु-महात्मा यहाँ आवें तो मुझे उनकी सूचना देना। वैसे कभी कुछ कहने को न आना ॥२॥

एक दिन पुण्योदय से एक महीने के उपवासे दमदत्त और धर्मरुचि मुनि आहार के लिए राजमहल में आए। उन्हें देखकर द्वारपाल राजा के पास गया और नमस्कार कर उसने मुनियों के आने का हाल उनसे कहा। राजा इस समय अपनी प्राणप्रिया सती के मुख-कमल पर तिलक रचना कर रहे थे। वे सती से बोले - प्रिये, जब तक कि तुम्हारा तिलक न सूखे, मैं अभी मुनिराजों को आहार देकर बहुत जल्दी आया जाता हूँ। यह कहकर राजा चले आए। उन्होंने मुनिराजों को भक्तिपूर्वक ऊँचे आसन पर बैठाकर नवधा भक्ति - सहित पवित्र आहार कराया, जो कि उत्तम सुखों का देने वाला है। सच है, दान, पूजा, व्रत, उपवासादि से ही श्रावकों की शोभा है और जो इनसे रहित हैं वे फलरहित वृक्ष की तरह निरर्थक समझे जाते हैं । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे पात्रदान, जिनपूजा, व्रत, उपवासादिक सदा अपनी शक्ति के अनुसार करते रहें ॥३-१३॥

इधर तो राजा ने मुनियों को दान देकर पुण्य उत्पन्न किया और उधर उनकी प्राणप्रिया अपने विषय सुख के अन्तराय करने वाले मुनियों का आना सुनकर बड़ी दुःखी हुई उसने अपना भला-बुरा कुछ न सोचकर मुनियों की निन्दा करना शुरू किया और खूब ही मनमानी उन्हें गालियाँ दी। सन्तों का यह कहना व्यर्थ नहीं है कि - " इस हाथ दे, उस हाथ ले" । सती के लिए यह नीति चरितार्थ हुई अपने बाँधे तीव्र पापकर्मों का फल उसे उसी समय मिल गया। रानी के कोढ़ निकल आया। सारा शरीर काला पड़ गया। उससे दुर्गन्ध निकलने लगी । आचार्य कहते हैं- हलाहल विष खा लेना अच्छा है, जो एक ही जन्म में कष्ट देता है, पर जन्म-जन्म में दुःख देने वाली मुनि-निन्दा करना कभी अच्छा नहीं क्योंकि सन्त-महात्मा तो व्रत, उपवास, शील आदि से भूषित होते हैं और सच्चे आत्महित का मार्ग बताने वाले हैं, वे निन्दा करने योग्य कैसे हों ? और ये ही गुरु अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं इसलिए दीपक हैं, सबका हित करते हैं इसलिए बन्धु हैं और संसाररूपी समुद्र से पार कराते हैं इसलिए कर्मशील खेवटिया हैं। अतः हर प्रयत्न द्वारा इनकी आराधना, सेवा-सुश्रुषा करते रहना चाहिए ॥१४-१७॥

जब राजा मुनिराजों को आहार देकर निवृत्त हुए तब अपनी प्रिया के पास आ गए। आते ही जैसे उन्होंने रानी का काला और दुर्गन्धमय शरीर देखा वे बड़े अचंभे में पड़ गए। पूछने पर उन्हें उसका कारण मालूम हुआ। सुनकर वे बहुत खिन्न हुए । संसार, शरीर, भोग उन्हें अब अप्रिय जान पड़ने लगे। उन्हें अपनी रानी का मुनि-निन्दारूप घृणित कर्म देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय सब राज-पाट छोड़कर योगी बन गए और अपना तथा संसार का हित करने में उद्यमी बने ॥१८-१९॥

समय पाकर सती की मृत्यु हुई। अपने पाप के फल से वह संसाररूपी वन में घूमने लगी। सो ठीक ही है, अपने किए पुण्य या पाप का फल जीवों को भोगना ही पड़ता है । इस प्रकार संसार की विचित्र स्थिति जानकर आत्महित के चाहने वाले सत्पुरुषों को भगवान् के उपदेश किए पवित्र धर्म पर सदा विश्वास रखना चाहिए, जो कि स्वर्ग और मोक्ष के सुख का प्रधान कारण है ॥२०-२१॥

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