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२१. पंच नमस्कार मंत्र - माहात्म्य कथा


admin

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मोक्षसुख प्रदान करने वाले श्री अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार कर पंच नमस्कार मंत्र की आराधना द्वारा फल प्राप्त करने वाले सुदर्शन की कथा लिखी जाती है ॥१॥

अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी में गजवाहन नाम के एक राजा हो चुके हैं। वे बहुत खूबसूरत और साथ ही बड़े भारी शूरवीर थे । अपने तेज से शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सारे राज्य को उन्होंने निष्कण्टक बना लिया था। वहीं वृषभदत्त नाम के एक सेठ रहा करते थे । उनकी गृहिणी का नाम था अर्हड्वासी। अपनी प्रिया पर सेठ का बहुत प्रेम था । वह भी सच्ची पतिभक्ति परायणा थी, सुशीला थी, सती थी, वह सदा जिनभक्ति में तत्पर रहा करती थी ॥ २-३॥

वृषभदत्त के यहाँ एक ग्वाल नौकर था । एक दिन वह वन से अपने घर पर आ रहा था। समय शीतकाल का था। जाड़ा खूब पड़ रहा था । उस समय रास्ते उसे एक ऋद्धिधारी मुनिराज के दर्शन हुए, जो कि एक शिला पर ध्यान लगाये बैठे हुए थे । उन्हें देखकर ग्वाले को बड़ी दया आयी। वह यह विचार कर, कि अहा ! इनके पास कुछ वस्त्र नहीं है और जाड़ा इतने जोर का पड़ रहा है, तब भी ये इसी शिला पर बैठे हुए ही रात बिता डालेंगे, अपने घर गया और आधी रात के समय अपनी स्त्री को साथ लिए मुनिराज के पास आया। मुनिराज को जिस अवस्था में बैठे हुए वह देख गया था, वे अब भी उसी तरह ध्यानस्थ बैठे हुए थे । उनका सारा शरीर ओस से भीग रहा था। उनकी यह हालत देखकर दयाबुद्धि से उसने मुनिराज के शरीर पर से ओस को साफ किया और सारी रात वह उनके पाँव दाबता रहा, सब तरह उनकी वैयावृत्य करता रहा। सबेरा होते ही मुनिराज का ध्यान पूरा हुआ। उन्होंने आँख उठाकर देखा तो ग्वाले को पास ही बैठा पाया । मुनिराज ने ग्वाले को निकट भव्य समझकर पंच नमस्कार मंत्र का उपदेश दिया, जो कि स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति का कारण है। इसके बाद मुनिराज भी पंचनमस्कार मंत्र का उच्चारण कर आकाश में विहार कर गए ॥४-११॥

ग्वाले की धीरे-धीरे मंत्र पर बहुत श्रद्धा हो गई । वह किसी भी काम को जब करने लगता तो पहले ही नमस्कार मंत्र का स्मरण कर लिया करता था । एक दिन जब ग्वाला मंत्र पढ़ रहा था, तब उसे उसके सेठ ने सुन लिया। वे मुस्कराकर बोले- क्यों रे, तूने यह मंत्र कहाँ से उड़ाया? ग्वाले ने सब बात अपने स्वामी से कह दी। सेठ ने प्रसन्न होकर ग्वाले से कहा- भाई, क्या हुआ यदि तू छोटे भी कुल में उत्पन्न हुआ? पर आज तू कृतार्थ हुआ, जो तुझे त्रिलोकपूज्य मुनिराज के दर्शन हुए। सच बात है सत्पुरुष धर्म के बड़े प्रेमी हुआ करते हैं ॥१२- १६॥

एक दिन ग्वाला भैंसें चराने के लिए जंगल में गया। समय वर्षा का था। नदी नाले सब पूर थे। उसकी भैंसे चरने के लिए नदी पार जाने लगी । सो इन्हें लौटा लाने की इच्छा से ग्वाला भी उनके पीछे ही नदी में कूद पड़ा। जहाँ वह कूदा वहीं एक नुकीला लकड़ा गड़ा हुआ था। सो उसके कूदते ही लकड़े की नोंक उसके पेट में जा घुसी। उससे उसका पेट फट गया। वह उसी समय मर गया। वह जिस समय नदी में कूदा था, उस समय सदा के नियमानुसार पंचनमस्कार मंत्र का उच्चारण कर कूदा था । वह मरकर मंत्र के प्रभाव से वृषभदत्त के यहाँ पुत्र हुआ। वह जाता तो कहीं स्वर्ग में पर, उसने वृषभदत्त के यही उत्पन्न होने का निदान कर लिया था, इसलिए निदान उसकी ऊँची गति का बाधक बन गया । उसका नाम रखा गया सुदर्शन। सुदर्शन बड़ा सुन्दर था। उसका जन्म माता-पिता के लिए खूब उत्कर्ष का कारण हुआ। पहले से कई गुणी सम्पत्ति उनके पास बढ़ गई। सच है - पुण्यवानों के लिए कहीं भी कुछ कमी नहीं रहती ॥१७-२१॥

वहीं एक सागरदत्त सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम था सागरसेना । उसके एक पुत्री थी। उसका नाम मनोरमा था। वह बहुत सुन्दरी थी । देवकन्यायें भी उसकी रूपमाधुरी को देखकर शर्मा जाती थी। उसका ब्याह सुदर्शन के साथ हुआ। दोनों दम्पत्ति सुख से रहने लगे॥२२॥

एक दिन वृषभदत्त समाधिगुप्त मुनिराज के दर्शन करने के लिए गए। वहाँ उन्होंने मुनिराज द्वारा धर्मोपदेश सुना। उपदेश उन्हें बहुत रुचा और उसका प्रभाव भी उन पर खूब पड़ा। संसार की दशा देखकर उन्हें बहुत वैराग्य हुआ। वे घर का कारोबार सुदर्शन के सुपुर्द कर समाधिगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा लेकर तपस्वी बन गए ॥२३-२४॥

पिता के प्रव्रजित हो जाने पर सुदर्शन ने भी खूब प्रतिष्ठा सम्पादन की । राजदरबार में भी उसकी पिता के जैसी ही पूछताछ होने लगी। वह सर्वसाधारण में खूब प्रसिद्ध हो गया। सुदर्शन न केवल लौकिक कामों में ही प्रेम करता था किन्तु वह उस समय एक बहुत धार्मिक पुरुषों में गिना जाता था। वह सदा जिनभगवान् की भक्ति में तत्पर रहता, श्रावक के व्रतों का श्रद्धा के साथ पालन ,दान देता, पूजन स्वाध्यान करता । यह सब होने पर भी ब्रह्मचर्य में बहुत दृढ़ था ॥२५-२६॥

एक दिन मगधाधीश्वर गजवाहन के साथ सुदर्शन वनविहार के लिए गया। राजा के साथ राजमहिषी भी थी। सुदर्शन सुन्दर तो था ही, सो उसे देखकर राजरानी काम के पाश में बुरी तरह फँसी। उसने अपनी एक परिचारिका को बुलाकर पूछा- क्यों तू जानती है कि महाराज के साथ आगन्तुक कौन है? और ये कहाँ रहते हैं ? ॥२७-२८॥

परिचारिका ने कहा-देवी, आप नहीं जानती, ये तो अपने प्रसिद्ध राजश्रेष्ठी सुदर्शन हैं ॥२९॥

राजमहिषी ने कहा-हाँ ! तब तो ये अपनी राजधानी के भूषण हैं । अरी, देख तो इनका रूप कितना सुन्दर, कितना मन को अपनी ओर खींचने वाला है? मैंने तो आज तक ऐसा सुन्दर नररत्न नहीं देखा। मैं तो कहती हूँ, इनका रूप स्वर्ग के देवों से भी कही बढ़कर है। तूने भी कभी ऐसा सुन्दर पुरुष देखा है ॥३०॥

वह बोली- महारानी जी, इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनके समान सुन्दर पुरुष रत्न तीन लोक में भी नहीं मिलेगा।

राजमहिषी ने उसे अपने अनुकूल देखकर कहा- हाँ तो तुझसे मुझे एक बात कहनी है। वह बोली- वह क्या, महारानी जी ?

महारानी बोली-पर तू उसे पूरा कर दे तो मैं कहूँ, वह बोली- देवी, भला, मैं तो आपकी दासी हूँ फिर मुझे आपकी आज्ञा पालन करने में क्यों इनकार होगा। आप निःसंकोच होकर कहिए।

जहाँ तक मेरा बस चलेगा, मैं उसे पूरा करूँगी। महारानी ने कहा- देख, मुझे तेरे पर पूर्ण विश्वास है, इसलिए मैं अपने मन की बात तुझे कहती हूँ | देखना कहीं मुझे धोखा न देना? तो सुन, मैं जिस सुदर्शन की बात तुझसे कह आई हूँ, वह मेरे हृदय में स्थान पा गया है। उसके बिना तुझे संसार निःसार और सूना जान पड़ता है। तू यदि किसी प्रयत्न से मुझे उससे मिला दे तब ही मेरा जीवन बच सकता है। अन्यथा समझ संसार में मेरा जीवन कुछ ही दिनों के लिए हैं।

वह महारानी की बात सुनकर पहले तो कुछ विस्मित सी हुई, पर थी तो आखिर पैसे की गुलाम न? उसने महारानी की आशा पूरी कर देने के बदले में अपने को आशातीत धन की प्राप्ति होगी, इस विचार से कहा-महारानी जी, बस यही बात है? इसी के लिए आप इतनी निराश हुई जाती है? जब तक मेरे शरीर में दम है तब तक आपको निराश होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता । मैं आपकी आशा अवश्य पूरी करूंगी। आप घबराये नहीं । बहुत ठीक लिखा है-

असभ्य और दुष्ट स्त्रियाँ कौन- -सा बुरा काम नहीं करती? अभया की धाय भी ऐसी ही स्त्रियों में थी। फिर वह क्यों इस काम में अपना हाथ न डालती ? वह अब सुदर्शन को राजमहल में ले आने के प्रयत्न में लग गई ॥३१॥

सुदर्शन एक धर्मात्मा श्रावक था । वह वैरागी था । संसार में रहता तब भी सदा उससे छुटकारा पाने के उपाय में लगा रहता था । इसलिए वह ध्यान का भी अभ्यास किया करता था । अष्टमी और चतुर्दशी को रात्रि में वह भयंकर श्मशान में जाकर ध्यान करता । धाय को सुदर्शन के ध्यान की बात मालूम थी। उसने सुदर्शन को राजमहल में लिवा ले जाने को एक षड्यंत्र रचा। एक दिन वह एक कुम्हार के पास गई और उससे मनुष्य के आकार का एक मिट्ठी का पुतला बनवाया और उसे वस्त्र पहनाकर वह राजमहल लिवा ले चली । महल में प्रवेश करते समय पहरेदारों ने उसे रोका और पूछा कि यह क्या है? वह उसका कुछ उत्तर न देकर आगे बढ़ी। पहरेदारों ने उसे नहीं जाने दिया । उसने गुस्से का ढोंग बनाकर पुतले को जमीन पर दे मारा। वह चूर-चूर हो गया। इसके साथ ही उसने अकड़कर कहा-पापियों, दुष्टों, तुमने आज बड़ा अनर्थ किया है। तुम नहीं जानते कि महारानी के नरव्रत था, सो वे इस पुतले की पूजा करके भोजन करती । सो तुमने इसे फोड़ डाला है । अब वे कभी भोजन नहीं करेंगी। देखो, मैं अब महारानी से जाकर तुम्हारी दुष्टता का हाल कहती हूँ । फिर वे सबेरे ही तुम्हारी क्या गति करती हैं? तुम्हारी दुष्टता सुनकर ही वे तुम्हें जान से मरवा डालेंगी। धाय की धूर्यता से बेचारे पहरेदारों के प्राण सूख गए । उन्हें काटो तो खून नहीं । मारे डर के वे थर-थर काँपने लगे। वे उसके पाँवों में पड़कर अपने प्राण बचाने की उससे भीख माँगने लगे। बड़ी आरजू मिन्नत करने पर उसने उनसे कहा- तुम्हारी यह दशा देखकर मुझे दया आती है। खैर, मैं तुम्हारे बचाने का उपाय करूँगी। पर याद रखना अब तुम मुझे कोई काम करते समय मत छेड़ना। तुमने इस पुतले को तो फोड़ डाला, बतलाओ अब महारानी आज अपना व्रत कैसे पूरा करेंगी? और न इसी समय और दूसरा पुतला ही बन सकता है। अस्तु। फिर भी मैं कुछ उपाय करती हूँ। जहाँ तक बन पड़ा वहाँ तक तो दूसरा पुतला ही बनवाकर लाती हूँ और यदि नहीं बन सका तो किसी जिन्दा ही पुरुष को मुझे थोड़ी देर के लिए लाना पड़ेगा। तुम्हें सचेत करती हूँ कि उस समय मैं किसी नहीं बोलूँगी, इसलिए तुम मुझसे कुछ कहना सुनना नहीं । बेचारे पहरेदारों को तो अपनी जान की पड़ी हुई थी, इसलिए उन्होंने हाथ जोड़कर कह दिया कि - अच्छा, हम लोग आप से अब कुछ नहीं कहेंगे । आप अपना काम निडर हो कर कीजिए। इस प्रकार वह धूर्त्ता सब पहरेदारों को अपने वश कर उसी समय श्मशान में पहुँची ॥३२-४०॥

श्मशान जलती चिताओं से बड़ा भयंकर बन रहा था उसी भयंकर श्मशान में सुदर्शन कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था । महारानी अभया की परिचारिका ने उसे उठा लाकर महारानी के सुपुर्द कर दिया। अभया अपनी परिचारिका पर बहुत प्रसन्न हुई सुदर्शन को प्राप्त कर उसके आनन्द का कुछ ठिकाना न रहा, मानो उसे अपनी मनमानी निधि मिल गई । वह काम से तो अत्यन्त पीड़ित थी ही, उसने सुदर्शन से बहुत अनुनय विनय किया, इसलिए कि वह उसकी इच्छा पूरी करके उसे सुखी करे, कामाग्नि से जलते हुए शरीर को आलिंगन सुधा प्रदान कर शीतल करें। पर सुदर्शन ने उसकी एक भी बात का उत्तर नहीं दिया। यह देख रानी ने उसके साथ अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ करनी आरंभ की, जिससे वह विचलित हो जाये । पर तब भी रानी की इच्छा पूरी नहीं हुई। सुदर्शन मेरु सा निश्चल और समुद्र सा गंभीर बना रहकर जिनभगवान् के चरणों का ध्यान करने लगा । उसने प्रतिज्ञा की कि यदि मैं इस उपसर्ग से बच गया तो अब संसार में रहकर साधु हो जाऊँगा। प्रतिज्ञा कर वह काष्ठ की तरह निश्चल होकर ध्यान करने लगा। बहुत ठीक लिखा है-

सत्पुरुष सैकड़ों कष्ट सह लेते हैं, पर अपने व्रत से कभी नहीं चलते। अनेक तरह का यत्न, अनेक कुचेष्टाएँ करने पर भी जब रानी सुदर्शन को शील शैल से न गिरा सकी,उसे तिल भर भी विचलित नहीं कर सकी, तब शर्मिन्दा होकर उसने सुदर्शन को कष्ट देने के लिए एक नया ही ढोंग रचा। उसने अपने शरीर को नखों से खूब खुजा डाला, अपने कपड़े फाड़ डाले, भूषण तोड़-फोड़ डाले और यह कहती हुई वह जोर-जोर से हिचकियाँ ले लेकर रोने लगी कि हाय ! इस पापी दुराचारी ने मेरी यह हालत कर दी। मैंने तो इसे भाई समझकर अपने महल बुलाया था। मुझे क्या मालूम था कि यह इतना दुष्ट होगा? हाय ! दौड़ो !! मुझे बचाओ ! मेरी रक्षा करो ! यह पापी मेरा सर्वनाश करना चाहता है। रानी के चिल्लाते ही बहुत से नौकर-चाकर दौड़े आए और सुदर्शन को बाँधकर वे महाराज के पास लिवा ले गए।

सच है-पापिनी और दुष्ट स्त्रियाँ संसार में कौन-सा बुरा काम नहीं करती? अभया भी ऐसे ही स्त्रियों में एक थी। इसलिए उसने अपना चरित कर बतलाया। महाराज को जब यह हाल मालूम हुआ, तो उन्होंने क्रोध में आकर सुदर्शन को मार डालने का हुकुम दे दिया । महाराज की आज्ञा होते ही जल्लाद लोग उसे श्मशान में लिवा ले गए। उनमें से एक ने अपनी तेज तलवार सुदर्शन के गले पर दे मारी। पर यह हुआ क्या? जो सुदर्शन को उससे कुछ कष्ट नहीं पहुँचा और उलटा उसे वह तलवार का मारना ऐसा जान पड़ा, मानो किसी ने उस पर फूल की माला फेंकी हो । जान पड़ा यह सब उसके अखण्ड शीलव्रत का प्रभाव था । ऐसे कष्ट के समय देवों ने आकर उसकी रक्षा की और स्तुति की कि सुदर्शन, तुम धन्य हो, तुम सच्चे जिनभक्त हो, सच्चे श्रावक हो, तुम्हारा ब्रह्मचर्य अखण्ड है, तुम्हारा हृदय सुमेरु से भी कहीं अधिक निश्चल है। इस प्रकार प्रशंसा कर देवों ने उस पर सुगन्धित फूलों की वर्षा की और धर्मप्रेम के वश होकर उसकी पूजा की। सच है - पुण्यवानों के लिए दुःख भी सुख के रूप में परिणत हो जाता है । इसलिए भव्य पुरुषों को जिनभगवान् के कहे मार्ग से पुण्यकर्म करना चाहिए। भक्तिपूर्वक जिनभगवान् की पूजा करना, पात्रों को दान देना, ब्रह्मचर्य का पालना, अणुव्रतों का पालन करना, अनाथ, अपाहिज दुखियों को सहायता देना, विद्यालय, पाठशाला खुलवाना, उनमें सहायता देना, विद्यार्थियों को छात्र - वृत्तियाँ देना आदि पुण्यकर्म है। सुदर्शन के व्रतमाहात्म्य का हाल महाराज को मालूम हुआ । वे उसी समय सुदर्शन के पास आए और उन्होंने उससे अपने अविचार के लिए क्षमा माँगी ॥ ४१-५५॥

सुदर्शन को संसार की इस लीला से बड़ा वैराग्य हुआ। वह अपना कारोबार सब सुकान्त पुत्र को सौंपकर वन में गया और त्रिलोकपूज्य विमलवाहन मुनिराज को नमस्कार कर उनके पास प्रव्रजित हो गया। मुनि होकर सुदर्शन ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चर्या द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अनेक भव्य पुरुषों को कल्याण का मार्ग दिखलाकर तथा देवादि द्वारा पूज्य होकर अन्त में वह निराबाध, अनन्त सुखमय मोक्षधाम में पहुँच गया ॥५६-५९॥

इस प्रकार नमस्कार मंत्र का माहात्म्य जानकर भव्यों को उचित है कि वे प्रसन्नता के साथ उस पर विश्वास करें और प्रतिदिन उसकी आराधना करें ॥६०॥

धर्मात्माओं के नेत्ररूपी कुमुद-पुष्पों के प्रफुल्लित करने वाले, आनन्द देने वाले और श्रुतज्ञान के समुद्र तथा मुनि, देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि द्वारा पूज्य, केवलज्ञानरूपी कान्ति से शोभायमान भगवान् जिनचन्द्र संसार में सदा काल रहें ॥६१॥

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