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२२. यम मुनि की कथा


admin

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मैं देव, गुरु और जिनवाणी को नमस्कार कर यम मुनि की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने बहुत ही थोड़ा ज्ञान होने पर भी अपने को मुक्ति का पात्र बना लिया और अन्त में वे मोक्ष गए। यह कथा सब सुख की देने वाली है ॥१॥

उड्रदेश के अन्तर्गत धर्म नाम का प्रसिद्ध और सुन्दर शहर है। उसके राजा थे यम। वे बुद्धिमान् और शास्त्रज्ञ थे। उनकी रानी का नाम धनवती था । धनवती के एक पुत्र और एक पुत्री थी । उनके नाम थे गर्दभ और कोणिका । कोणिका बहुत सुन्दरी थी । धनवती के अतिरिक्त राजा की और भी कई रानियाँ थीं। उनके पुत्रों की संख्या पाँच सौ थी । ये पाँच सौ ही भाई धर्मात्मा थे और संसार से उदासीन रहा करते थे। राजमंत्री का नाम दीर्घ था वह बहुत बुद्धिमान् और राजनीति का अच्छा जानकार था। राजा इन सब साधनों से बहुत सुखी थे और राज्य भी बड़ी शान्ति से करते थे ॥२-५॥

एक दिन एक राज ज्योतिषी ने कोणिका के लक्षण वगैरह देखकर राजा से कहा- महाराज, राजकुमारी बड़ी भाग्यवती है। जो इसका पति होगा वह सारी पृथ्वी का स्वामी होगा । यह सुनकर राजा बहुत खुश हुए और उस दिन से वे उसकी बड़ी सावधानी से रक्षा करने लगे, उन्होंने उसके लिए एक बहुत सुन्दर और भव्य तलग्रह बनवा दिया। वह इसलिए कि उसे और छोटा-मोटा बलवान् राजा न देख पाए ॥६-७॥

एक दिन उसकी राजधानी में पाँच सौ मुनियों का संघ आया। संघ के आचार्य थे महामुनि सुधर्माचार्य। संसार का हित करना उनका एक मात्र व्रत था। बड़े आनन्द उत्साह के साथ शहर के सब लोग अनेक प्रकार के पूजन द्रव्य हाथों में लिए हुए आचार्य की पूजा के लिए गए। उन्हें जाते हुए देख राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में आकर मुनियों की निन्दा करते हुए उनके पास गए। मुनि निन्दा और ज्ञान का अभिमान करने से उसी समय उसके कोई ऐसा कर्म का तीव्र उदय आया कि उसकी सब बुद्धि नष्ट हो गई वे महामूर्ख बन गए। इसलिए जो उत्तम पुरुष हैं और ज्ञानी बनना चाहते हैं, उन्हें उचित है कि वे कभी ज्ञान का गर्व न करें और ज्ञानहीन का क्यों ? किन्तु कुल, जाति, बल, ऋद्धि, ऐश्वर्य, शरीर, तप, पूजा, प्रतिष्ठा आदि किसी का भी गर्व - अभिमान न करें। इनका अभिमान करना बड़ा ही दुःखदायी है ॥८-१२॥

अपनी यह हालत देखकर राजा का होश ठिकाने आया। वे एक साथ ही दाँत रहित हाथी की तरह गर्व रहित हो गए। उन्होंने अपने कृत कर्मों का बहुत पश्चाताप किया और मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, जो कि जीव मात्र को सुख का देने वाला है। धर्मोपदेश से उन्हें बहुत शान्ति मिली । उसका असर भी उन पर बहुत पड़ा । वे संसार से विरक्त हो गए। वे उसी समय अपने गर्दभ नाम के पुत्र को राज्य सौंपकर अपने अन्य पाँच सौ पुत्रों के साथ, जो कि बालपन ही से वैरागी रहा करते थे, मुनि हो गए। मुनि होने के बाद उन सबने खूब शास्त्रों का अभ्यास किया। आश्चर्य है कि वे पाँच सौ ही भाई खूब विद्वान् हो गए, पर राजा को (यम मुनि को) पंचनमस्कार मंत्र का उच्चारण करना तब भी नहीं आया। अपनी यह दशा देखकर यम मुनि बड़े शर्मिन्दा और दुःखी हुए उन्होंने वहाँ रहना उचित न समझ अपने गुरु से तीर्थयात्रा करने की आज्ञा ली और अकेले ही वहाँ से निकल पड़े। यम मुनि अकेले ही यात्रा करते हुए एक दिन स्वच्छन्द होकर रास्ते में जा रहे थे। जाते हुए उन्होंने एक रथ देखा। रथ में गधे जुते हुए थे और उस पर आदमी बैठा हुआ था। गधे उसे एक हरे धान के खेत की ओर लिए जा रहे थे। रास्ते में मुनि को जाते हुए देखकर रथ पर बैठे हुए मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया और लगा वह उन्हें कष्ट पहुँचाने। मुनि ने कुछ ज्ञान का क्षयोपशम हो जाने से एक खण्ड गाथा बनाकर पढ़ी | वह गाथा यह थी - ॥१३-२०॥

“रे गधों, कष्ट उठाओगे, तो तुम जब भी खा सकोगे।”

इसी तरह एक दिन कुछ बालक खेल रहे थे। वहीं कोणिका भी न जाने किसी तरह पहुँच गई उसे देखकर सब बालक डरे । उस समय कोणिका को देखकर यम मुनि ने एक और खण्ड गाथा बनाकर आत्मा के प्रति कहा। वह गाथा यह थी - ॥२१-२२॥

"दूसरी ओर क्या देखते हो? तुम्हारी पत्थर सरीखी कठोर बुद्धि को छेदने वाली कोणिका तो है।' एक दिन यम मुनि ने एक मेंढक को एक कमल पत्र की आड़ में छुपे हुए सर्प की ओर आते हुए देखा। देखकर वे मेंढक से बोले - ॥२३॥

"मुझे - मेरे आत्मा को तो किसी से भय नहीं है । भय है तो तुम्हें । "

बस,यम मुनि ने जो ज्ञान सम्पादन कर पाया, वह इतना था । वे इन्हीं तीन खण्ड गाथाओं का स्वाध्याय करते, पाठ करते और कुछ उन्हें आता नहीं था । इसी तरह पवित्रात्मा और धर्मानुयायी यम मुनि ने अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए धर्मपुर की ओर आ निकले। वे शहर के बाहर एक बगीचे में कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे । उनके पीछे लौट आने का हाल उनके पुत्र गर्दभ और राजमंत्री दीर्घ को ज्ञात हुआ। उन्होंने समझा कि ये हमसे राज्य लेने को आए हैं। सो वे दोनों मुनि के मारने का विचार कर आधी रात के समय वन में गए और तलवार खींचकर उनके पीछे खड़े हो गए। आचार्य कहते हैं कि - ॥२४-२७॥

ऐसे राज्य को, ऐसी मूर्खता और ऐसे डरपोकपने को धिक्कार है, जिससे एक निस्पृह और संसार त्यागी मुनि के द्वारा राज्य के छिन जाने का उन्हें भय हुआ । गर्दभ और दीर्घ, मुनि की हत्या करने को तो आए पर उनकी हिम्मत उन्हें मारने की नहीं पड़ी । वे बार-बार अपनी तलवारों को म्यान में रखने लगे और बाहर निकालने लगे। उसी समय यम मुनि ने अपनी स्वाध्याय की पहली गाथा पड़ी, जो कि ऊपर लिखी जा चुकी है। उसे सुनकर गर्दभ ने अपने मंत्री से कहा-जान पड़ता है मुनि ने हम दोनों को देख लिया । पर साथ ही जब मुनि ने दूसरी गाथा पड़ी तब उसने कहा-नहीं जी, मुनिराज राज्य लेने को नहीं आए हैं। मैंने जो वैसा समझा वह मेरा भ्रम था । मेरी बहिन कोणिका को प्रेम के वश कुछ कहने को ये आए हुए जान पड़ते हैं। इसके बाद जब मुनिराज ने तीसरी आधी गाथा भी पढ़ी तब उसे सुनकर गर्दभ ने अपने मन में उसका यह अर्थ समझा कि “ मंत्री दीर्घ बड़ा कूट है और मुझे मारना चाहता है” यही बात पिताजी, प्रेम के वश हो तुझे कहकर सावधान करने को आए हैं परन्तु थोड़ी देर बाद ही उसका यह सन्देह भी दूर हो गया। उन्होंने अपने हृदय की सब दुष्टता छोड़कर बड़ी भक्ति के साथ पवित्र चारित्र के धारक मुनिराज को प्रणाम किया और उनसे धर्म का उपदेश सुना, जो कि स्वर्ग-मोक्ष का देने वाला है । उपदेश सुनकर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद वे श्रावकधर्म ग्रहण कर अपने स्थान लौट गए ॥२८-३७॥

इधर यमधर मुनि भी अपने चारित्र को दिन दूना निर्मल करने लगे, परिणामों को वैराग्य की ओर खूब लगाने लगे। उसके प्रभाव से थोड़े ही दिनों में उन्हें सातों ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई ॥३८॥

अहा! नाममात्र ज्ञान द्वारा भी यम मुनिराज बड़े ज्ञानी हुए, उन्होंने अपनी उन्नति को अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचा दिया। इसलिए भव्य पुरुषों को संसार का हित करने वाले जिन भगवान् के द्वारा उपदिष्ट सम्यग्ज्ञान की सदा आराधना करना चाहिए। देखो, यम मुनिराज को बहुत थोड़ा ज्ञान था, पर उसकी उन्होंने बड़ी भक्ति और श्रद्धा के साथ आराधना की । उसके प्रभाव से वे संसार में प्रसिद्ध हुए मुनियों में प्रधान और मान्य हुए और सातों ऋद्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई इसलिए सज्जन धर्मात्मा पुरुषों को उचित है कि वे त्रिलोकपूज्य जिनभगवान् द्वारा उपदिष्ट, सब सुखों का देने वाला और मोक्ष- प्राप्ति का कारण अत्यन्त पवित्र सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का यत्न करें ॥३९-४०॥

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