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३५. चारुदत्त सेठ की कथा


देवों द्वारा पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर चारुदत्त सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥

जिस समय की यह कथा है, तब चम्पापुरी का राजा शूरसेन था । राजा बड़ा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। उसके नीतिमय शासन की सारी प्रजा एक स्वर से प्रशंसा करती थी। यही एक इज्जतदार भानुदत्त सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के कोई सन्तान नहीं हुई, इसलिए वह सन्तान प्राप्ति की इच्छा से नाना प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा किया करती थी, अनेक प्रकार की मान्यताएँ लिया करती थी परन्तु तब भी उसका मनोरथ नहीं फला। सच तो है, कहीं कुदेवों की पूजा-स्तुति से कभी कार्य सिद्ध हुआ है क्या ? एक दिन जब वह भगवान् के दर्शन करने को मन्दिर गई तब वहाँ उसने एक चारण मुनि देखे। उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा- प्रभो, क्या मेरा मनोरथ भी कभी पूर्ण होगा? मुनिराज उसके हृदय के भावों को जानकर बोले- पुत्री, इस समय तू जिस इच्छा से दिन- -रात कुदेवों की पूजा-मानता किया करती है, वह ठीक नहीं है। उससे लाभ की जगह उल्टी हानि हो रही है। तू इस प्रकार की पूजा मानता द्वारा अपने सम्यक्त्व को नष्ट मत कर। तू विश्वास कर कि संसार में अपने पुण्य-पाप के सिवा और कोई देवी-देवता किसी को कुछ देने-लेने में समर्थ नहीं। अब तक तेरे पाप का उदय था, इसलिए तेरी इच्छा पूरी न हो सकी। पर अब तेरे महान् पुण्यकर्म का उदय आयेगा, जिससे तुझे एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । तू इसके लिए पुण्य के कारण पवित्र धर्म पर विश्वास कर ॥२-७॥

मुनिराज द्वारा अपना भविष्य सुनकर सुभद्रा को बहुत खुशी हुई वह उन्हें नमस्कार कर घर चली गई। अब से उसने सब कुदेवों की पूजा - मानता करना छोड़ दिया । वह अब जिन भगवान् के पवित्र धर्म पर विश्वास कर दान, पूजा, व्रत वगैरह करने लगी। इस दशा में दिन बड़े सुख के साथ कटने लगे। इसी तरह कुछ दिन बीतने पर मुनिराज के कहे अनुसार उसके पुत्र हुआ । उसका नाम चारुदत्त रखा गया। वह जैसा-जैसा बड़ा होता गया, साथ में उत्तम - उत्तम गुण भी उसमें अपना स्थान बनाते गए। सच है, पुण्यवानों को अच्छी-अच्छी सब बातें अपने आप प्राप्त होती चली आती हैं ॥८-९ ॥

चारुदत्त बचपन ही से पढ़ने-लिखने में अधिक योग्य दिखा करता था । यही कारण था कि उसे चौबीस-पच्चीस वर्ष का होने पर भी किसी प्रकार की विषय-वासना छू तक न गई थी। उसे तो दिन- -रात अपनी पुस्तकों से प्रेम था। उन्हीं के अभ्यास, विचार, मनन, चिन्तन में वह सदा मग्न रहा करता था और इसी से बालपन से ही वह बहुधा करके विरक्त रहता था। उसकी इच्छा नहीं थी। कि वह ब्याह कर संसार के माया - जाल में अपने को फँसावे, पर उसके माता-पिता ने उससे ब्याह करने का बहुत आग्रह किया । उनकी आज्ञा के अनुरोध से उसे अपने मामा की गुणवती पुत्री मित्रवती के साथ ब्याह करना पड़ा ॥१०॥

ब्याह हो गया सही, पर तब भी चारुदत्त उसका रहस्य नहीं समझ पाया और इसीलिए उसने कभी अपनी प्रिया का मुँह तक नहीं देखा । पुत्र की युवावस्था में यह दशा देखकर उसकी माँ को बड़ी चिन्ता हुई चारुदत्त की विषयों की ओर प्रवृत्ति हो, इसके लिए उसने चारुदत्त को ऐसे लोगों की संगति में डाल दिया, जो व्यभिचारी थे । इससे उसकी माँ का अभिप्राय सफल अवश्य हुआ । चारुदत्त विषयों में फँस गया और खूब फँस गया । पर अब वह वेश्या का ही प्रेमी बन गया। उसने तब से घर का मुँह तक नहीं देखा। उसे कोई लगभग बारह वर्ष वेश्या के यहाँ रहते हुए बीत गए। इस अरसे में उसने अपने घर का सब धन भी गवा दिया । चम्पा में चारुदत्त का घर अच्छे धनिकों की गिनती में था, पर अब वह एक साधारण स्थिति का आदमी रह गया। अभी तक चारुदत्त के खर्च के लिए उसके घर से नगद रुपया आया करता था। पर अब रुपया लुट जाने से उसकी स्त्री का गहना आने लगा। जिस वेश्या के साथ चारुदत्त का प्रेम था उसकी कुट्टनी माँ ने चारुदत्त को अब दरिद्र हुआ समझकर एक दिन अपनी लड़की से कहा- बेटी, अब इसके पास धन नहीं रहा, यह भिखारी हो चुका, इसलिए अब तुझे इसका साथ जल्दी छोड़ देना चाहिए। अपने लिए दरिद्र मनुष्य किस काम का। वही हुआ भी । वसन्त सेना ने उसे अपने घर से निकाल बाहर किया । सच है, वेश्याओं की प्रीति धन के साथ ही रहती है। जिसके पास जब तक पैसा रहता है उससे तभी तक प्रेम करती है। जहाँ धन नहीं वहाँ वेश्या का प्रेम भी नहीं । यह देख चारुदत्त को बहुत दुःख हुआ । अब उसे जान पड़ा कि विषय-भोगों में अत्यन्त आसक्ति का कैसा भयंकर परिणाम होता है। वह अब एक पलभर के लिए भी वहाँ पर नहीं ठहरा और अपनी प्रिया के भूषण ले-लिवाकर विदेश चलता बना। उसे इस हालत में माता को अपना कलंकित मुँह दिखलाना उचित नहीं जान पड़ा ॥११-१८॥

यहाँ से चलकर चारुदत्त धीरे-धीरे उलूख देश के उशिरावर्त नाम के शहर में पहुँचा। चम्पा से जब वह रवाना हुआ तब साथ में इसका मामा भी हो गया था । उशिरावर्त में इन्होंने कपास की खरीद की। यहाँ से कपास लेकर ये दोनों ताम्रलिप्ता नामक पुरी की ओर रवाना हुए। रास्ते में ये एक भयंकर वनों में जा पहुँचे। कुछ विश्राम के लिए इन्होंने यहीं डेरा डाल दिया। इतने में एक महा आँधी आई उससे परस्पर की रगड़ से बाँसों में आग लग उठी। हवा चल ही रही थी, सो आग की चिनगारियाँ उड़कर इनके कपास पर जा पड़ीं। देखते-देखते वह सब कपास भस्मीभूत हो गया। सच है, बिना पुण्य के कोई काम सिद्ध नहीं हो पाता है। इसलिए पुण्य कमाने के लिए भगवान् के उपदेश किए मार्ग पर चलना सबका कर्तव्य है । इस हानि से चारुदत्त बहुत ही दुःखी हो गया। वह यहाँ से किसी दूसरे देश की ओर जाने के लिए अपने मामा से सलाहकर समुद्रदत्त सेठ के जहाज द्वारा पवनद्वीप में पहुँचा। यहाँ इसके भाग्य का सितारा चमका। कुछ वर्ष यहाँ रहकर इसने बहुत धन कमाया। इसकी इच्छा अब देश लौट आने की हुई । अपनी माता के दर्शनों के लिए इसका मन बड़ा अधीर हो उठा। इसने चलने की तैयारी कर जहाज में अपना जब धन - असबाब लाद दिया ॥१९-२३॥

जहाज अनुकूल समय देख रवाना हुआ। जैसे-जैसे वह अपनी " स्वर्गादपि गरीयसी" जन्मभूमि की ओर शीघ्र गति से बढ़ा हुआ जा रहा था, चारुदत्त को उतनी ही अधिक प्रसन्नता होती जाती थी। पर यह कोई नहीं जानता कि मनुष्य का चाहा कुछ नहीं होता । होता वही है जो दैव को मंजूर होता है। यही कारण हुआ कि चारुदत्त की इच्छा पूरी न हो पाई और अचानक जहाज किसी से टकराकर फट पड़ा। चारुदत्त का सब माल - असबाब समुद्र के विशाल उदर की भेंट चढ़ा। वह पहले सा ही दरिद्र हो गया । पर चारुदत्त को दुःख उठाते - उठाते बड़ी सहन-शक्ति प्राप्त हो गई थी। एक पर एक आने वाले दुःखों ने उसे निराशा के गहरे गढ़े से निकाल कर पूर्ण आशावादी और कर्तव्यशील बना दिया था । इसलिए अब की बार उसे अपनी हानि का कुछ विशेष दुःख नहीं हुआ। वह फिर कमाने के लिए विदेश चल पड़ा। उसने अब की बार भी बहुत धन कमाया। घर लाते समय फिर भी उसकी पहले सी दशा हुई। इतने में ही उसके बुरे कर्मों का अन्त न हो गया किन्तु ऐसी-ऐसी भयंकर घटनाओं का कोई सात बार उसे सामना करना पड़ा। इसने कष्ट पर कष्ट सहा, पर अपने कर्तव्य से यह कभी विमुख नहीं हुआ। अब की बार जहाज के फट जाने से यह समुद्र में गिर पड़ा। इसे अपने जीवन का भी सन्देह हो गया था । इतने में भाग्य से बहकर आता हुआ एक लकड़े का तख्ता इसके हाथ पड़ गया। उसे पाकर इसके जी में जी आया । किसी तरह यह उसकी सहायता से समुद्र किनारे आ लगा। यहाँ से चलकर यह राजगृह में पहुँचा। यहाँ इसे एक विष्णुमित्र नाम का संन्यासी मिला । संन्यासी ने इसके द्वारा कोई अपना काम निकलता देखकर पहले बड़ी सज्जनता का इसके साथ बरताव किया । चारुदत्त ने यह समझकर कि यह कोई भला आदमी है, अपनी सब हालत उससे कह दी । चारुदत्त को धनार्थी समझकर विष्णुमित्र उससे बोला- मैं समझा, तुम धन कमाने को घर बाहर हुए हो। अच्छा हुआ तुमने अपना हाल सुना दिया। पर सिर्फ धन के लिए अब तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। आओ, मेरे साथ आओ, यहाँ से कुछ दूर पर जंगल में एक पर्वत है। उसकी तलहटी में एक कुँआ है। वह रसायन से भरा हुआ है। उससे सोना बनाया जाता है। सो तुम उसमें से कुछ थोड़ा सा रस ले आओ। उससे तुम्हारी सब दरिद्रता नष्ट हो जायेंगी । चारुदत्त संन्यासी के पीछे-पीछे हो लिया। सच है, दुर्जनों द्वारा धन के लोभी कौन-कौन नहीं ठगे गए ॥२४-२९॥

संन्यासी और उसके पीछे-पीछे चारुदत्त ये दोनों एक पर्वत के पास पहुँचे। संन्यासी ने रस लाने की सब बातें समझाकर चारुदत्त के हाथ में एक तूंबी दी और एक सीके पर उसे बैठाकर कुँए में उतार दिया। चारुदत्त तूंबी में रस भरने लगा । इतने में वहाँ बैठे हुए एक मनुष्य ने उसे रस भरने से रोका। चारुदत्त पहले तो डरा, पर जब उस मनुष्य ने कहा तुम डरो मत, तब कुछ सम्हल कर वह बोला-तुम कौन हो और इस कुँए में कैसे आये? कुँए में बैठा हुआ मनुष्य बोला, सुनिए, मैं उज्जयिनी में रहता हूँ। मेरा नाम धनदत्त है। मैं किसी कारण से सिंहलद्वीप गया था । वहाँ से लौटते समय तूफान पड़कर मेरा जहाज फट गया । धन-जन की बहुत हानि हुई मेरे हाथ एक लक्कड़ का पटिया लग जाने से अथवा यों कहिए कि दैव की दया से मैं बच गया। समुद्र से निकलकर मैं अपने शहर की ओर जा रहा था कि रास्ते में मुझे यही संन्यासी मिला। यह दुष्ट मुझे धोखा देकर यहाँ लाया। मैंने कुँए में से इसे रस भरकर ला दिया। इस पापी ने पहले तूंबी मेरे हाथ से ली और फिर आप रस्सी काटकर भाग गया। मैं आकर कुँए में गिरा। भाग्य से चोट तो अधिक न आई, पर दो- तीन दिन इसमें पड़े रहने से मेरी तबियत बहुत बिगड़ गई और अब मेरे प्राण घुट रहे हैं। उसकी हालत सुनकर चारुदत्त को बड़ी दया आई पर वह ऐसी जगह में फँस चुका था, जिससे उसके जिलाने का कुछ यत्न नहीं कर सकता था । चारुदत्त ने उससे पूछा- तो मैं इस संन्यासी को रस भरकर न दूँ? धनदत्त ने कहा- नहीं, ऐसा मत करो; रस तो भरकर दे ही दो, अन्यथा यह ऊपर से पत्थर वगैरह मारकर बड़ा कष्ट पहुँचायेगा । तब चारुदत्त ने एक बार तो तूंबी को रस से भरकर सीके में रख दिया। संन्यासी ने उसे निकाल लिया। जब चारुदत्त को निकालने के लिए उसने फिर सीका कुँए में डाला। अब की बार चारुदत्त ने स्वयं सीके पर न बैठकर बड़े-बड़े वजनदार पत्थरों को उसमें रख दिया। संन्यासी उस पत्थर भरे सीके पर चारुदत्त को बैठा समझकर, जब सीका आधी दूर आया तब उसे काटकर आप चलता बना। चारुदत्त की जान बच गई। उसने धनदत्त से कहा तुमने मुझे जीवनदान दिया और इसके लिए मैं तुम्हारा जन्म-जन्म में ऋणी रहूँगा । हाँ और यह तो कहिए कि इससे निकलने का भी कोई उपाय हैं क्या? धनदत्त बोला- यहाँ रस पीने को प्रतिदिन एक गो आया करती है। तब आज तो वह चली गई कल सबेरे वह फिर आवेगी तुम उसकी पूँछ पकड़कर निकल जाना। इतना कहकर वह बोला- अब मुझसे बोला नहीं जाता। मेरे प्राण बड़े संकट में हैं । चारुदत्त को यह देख बड़ा दुःख हुआ कि वह अपने उपकारी की कुछ सेवा नहीं कर पाया। उससे और तो कुछ नहीं बना, पर इतना तो उसने तब भी किया कि धनदत्त को पवित्र जिनधर्म का उपदेश देकर, जो कि उत्तम गति का साधन है, पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास भी लिवा दिया ॥३०-४२॥

सबेरा हुआ। सदा की भाँति आज भी गो रस पीने के लिए आई रस पीकर जैसे ही वह जाने लगी, चारुदत्त ने उसकी पूँछ पकड़ ली। उसके सहारे वह बाहर निकल आया । यहाँ से इस जंगल को लांघकर यह एक ओर जाने लगा। रास्ते में इसकी अपने मामा रुद्रदत्त से भेंट हो गई। रुद्रदत्त ने चारुदत्त का सब हाल जानकर कहा- तो चलिए अब हम रत्नद्वीप में चलें । वहाँ अपना मनोरथ अवश्य पूरा होगा। धन की आशा से ये दोनों अब रत्नद्वीप जाने को तैयार हुए। रत्नद्वीप जाने के लिए पहले एक पर्वत पर जाना पड़ता था और पर्वत पर जाने का जो रास्ता था, वह बहुत सँकरा था । इसलिए पर्वत पर जाने के लिए इन्होंने दो बकरे खरीद लिए और उन पर सवार होकर ये रवाना हो गए। जब ये पर्वत पर कुशलपूर्वक पहुँच गये तब पापी रुद्रदत्त ने चारुदत्त से कहा- देखो, अब अपने को यहाँ पर इन दोनों बकरों को मारकर दो चमड़े की थैलियाँ बनानी चाहिए और उन्हें उलटकर उनके भीतर घुस दोनों का मुँह सी लेना चाहिए। मांस के लोभ से यहाँ सदा ही भेरुण्ड - पक्षी आया करते हैं । सो वे अपने को उठा ले जाकर उस पार रत्नद्वीप ले जाएँगे। वहाँ जब वे हमें खाने लगें तब इन थैलियों को चीरकर हम बाहर हो जायेंगे। मनुष्य को देखकर पक्षी उड़ जाएँगे और ऐसा करने से बहुत सीधी तरह अपना काम बन जायेगा ॥४३-५१॥

चारुदत्त ने रुद्रदत्त की पापमयी बात सुनकर उसे बहुत फटकारा और वह साफ इनकार कर गया कि मुझे ऐसे पाप द्वारा प्राप्त किए धन की जरूरत नहीं। सच है-दयावान् कभी ऐसा अनर्थ नहीं करते। रात को ये दोनों सो गए । चारुदत्त को स्वप्न में भी ख्याल न था कि रुद्रदत्त सचमुच इतना नीच होगा और इसीलिए वह निःशंक होकर सो गया था। जब चारुदत्त को खूब गाढ़ी नींद आ गई तब पापी रुद्रदत्त चुपके से उठा और जहाँ बकरें बँधे थे वहाँ गया। उसने पहले अपने बकरे को मार डाला और चारुदत्त के बकरे का भी उसने आधा गला काट दिया होगा कि अचानक चारुदत्त की नींद खुल गई। रुद्रदत्त को अपने पास सोया न पाकर उसका सिर ठनका। वह उठकर दौड़ा और बकरों के पास पहुँचा। जाकर देखता है तो पापी रुद्रदत्त बकरे का गला काट रहा है। चारुदत्त को काटो तो खून नहीं। वह क्रोध के मारे भर्रा गया। उसने रुद्रदत्त के हाथ से छुरी तो छुड़ाकर फेंकी और उसे खूब ही सुनाई सच है, कौन ऐसा पाप है, जिसे निर्दयी पुरुष नहीं करते?

उस अधमरे बकरे को टगर-टगर करते देखकर दया से चारुदत्त का हृदय भर आया। उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं। पर वह उसके बचाने का प्रयत्न करने के लिए लाचार था। इसलिए कि वह प्रायः काटा जा चुका था । उसकी शांति के साथ मृत्यु होकर वह सुगति लाभ करे, इसके लिए चारुदत्त ने इतना अवश्य किया कि उसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाकर संन्यास दे दिया। जो धर्मात्मा जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश का रहस्य समझने वाले हैं, उनका जीवन सच पूछो तो केवल परोपकार के लिए ही होता है ॥५२-५५॥

चारुदत्त ने बहुतेरा चाहा कि मैं पीछे लौट जाऊँ, पर वापस लौटने का उसके पास कोई उपाय न था। इसलिए अत्यन्त लाचारी की दशा में उसे भी रुद्रदत्त की तरह उस थैली की शरण लेनी पड़ी। उड़ते हुए भेरुण्ड पक्षी पर्वत पर दो मांस- पिण्ड पड़े देखकर आए और उन दोनों को चोंचों से उठा चलते बने। रास्ते में उनमें परस्पर लड़ाई होने लगी। परिणाम यह निकला कि जिस थैली में रुद्रदत्त था, वह पक्षी की चोंच से छूट पड़ी । रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया । मरकर वह पाप के फल से कुगति में गया । ठीक भी है, पापियों की कभी अच्छी गति नहीं होती । चारुदत्त की थैली को जो पक्षी लिए था, उसने उसे रत्नद्वीप के एक सुन्दर पर्वत पर ले जाकर रख दिया। इसके बाद पक्षी ने उसे चोंच से चीरना शुरू किया। उसका कुछ भाग चीरते ही उसे चारुदत्त देख पड़ा। पक्षी उसी समय डरकर उड़ भागा। सच है, पुण्यवानों का कभी-कभी तो दुष्ट भी हित करने वाले हो जाते हैं। जैसे ही चारुदत्त थैली के बाहर निकला कि धूप में मेरु की तरह निश्चल खड़े मुनिराज को देखकर चारुदत्त की उन पर बहुत श्रद्धा हो गई । चारुदत्त उनके पास गया और बड़ी भक्ति से उसने उनके चरणों में अपना सिर नवाया । मुनिराज का ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारुदत्त से कहा-चारुदत्त, क्यों तुम अच्छी तरह तो हो । न? मुनि द्वारा अपना नाम सुनकर चारुदत्त को कुछ सन्तोष तो इसलिए अवश्य हुआ कि एक अत्यन्त अपरिचित देश में उसे कोई पहचानता भी है, पर इसके साथ ही उसके आश्चर्य का भी कुछ ठिकाना न रहा । वह बड़े विचार में पड़ गया कि मैंने तो कभी इन्हें कहीं देखा नहीं, फिर इन्होंने ही मुझे कहाँ देखा था ! अस्तु, जो हो, इन्हीं से पूछता हूँ कि ये मुझे कहाँ से जानते हैं। वह मुनिराज से बोला- प्रभो, मालूम होता है आपने मुझे कहीं देखा है, बतलाइए तो आपको मैं कहाँ मिला था? मुनि बोले- सुनो, मैं एक विद्याधर हूँ ! मेरा नाम अमितगति है । एक दिन मैं चम्पापुरी के बगीचे से अपनी प्रिया के साथ सैर करने को गया हुआ था । उसी समय एक धूमसिंह नाम का विद्याधर वहाँ आ गया । मेरी सुन्दरी स्त्री को देखकर उस पापी की नियत डगमगी। काम से अन्धे हुए उस पापी ने अपनी विद्या के बल से मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी प्यारी को विमान में बैठाकर मेरे देखते-देखते आकाश मार्ग से चल दिया। उस समय मेरे कोई ऐसा पुण्यकर्म का उदय आया तो तुम उधर आ निकले। तुम्हें दयावान् समझकर मैंने तुमसे इशारा करके कहा-वे औषधियाँ रखी हैं, उन्हें पीसकर मेरे शरीर पर लेप दीजिए। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर वैसा ही किया। उससे दुष्ट विद्याओं का प्रभाव नष्ट हुआ और मैं उन विद्याओं के पंजे से छूट गया। जैसे गुरु के उपदेश से जीव, माया, मिथ्या की कील से छूट जाता है। मैं उसी समय दौड़ा हुआ कैलाश पर्वत पर पहुँचा और धूमसिंह को उसके कर्म का उचित प्रायश्चित्त देकर उससे अपनी प्रिया को छुड़ा लाया। फिर मैंने आप से कुछ प्रार्थना की कि आप जो इच्छा हो वह मुझसे माँगे, पर आप मुझ से कुछ भी लेने के लिए तैयार नहीं हुए । सच तो यह है कि महात्मा लोग दूसरों का भला किसी प्रकार की आशा से करते ही नहीं इसके बाद मैं आपसे विदा होकर अपने नगर में आ गया। मैंने इसके पश्चात् कुछ वर्षों तक और राज्य किया, राज्य श्री का खूब आनन्द लूटा। बाद आत्मकल्याण की इच्छा से पुत्रों को राज्य सौंपकर स्वयं दीक्षा ले गया, जो कि संसार का भ्रमण मिटाने वाली है। चारणऋद्धि के प्रभाव से मैं यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूँ । मेरा तुम्हारे साथ पुराना परिचय है, इसलिए मैं तुम्हें पहचानता हूँ । सुनकर चारुदत्त बहुत खुश हुआ। वह जब तक वहाँ बैठा रहा, इसी बीच में इन मुनिराज के दो पुत्र इनकी पूजा करने को वहाँ आए । मुनिराज ने चारुदत्त का कुछ हाल उन्हें सुनाकर उसका उनसे परिचय कराया। परस्पर में मिलकर इन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े ही समय के परिचय से इनमें अत्यन्त प्रेम बढ़ गया ॥५६-७९॥

इसी समय एक बहुत खूबसूरत युवा यहाँ आया। सबकी दृष्टि उसके दिव्य तेज की ओर जा लगी। उस युवा ने सबसे पहले चारुदत्त को प्रणाम किया । यह देख चारुदत्त ने उसे ऐसा करने से रोककर कहा-तुम्हें पहले गुरु महाराज को नमस्कार करना उचित है । आगत युवा ने अपना परिचय देते हुए कहा-मैं बकरा था । पापी रुद्रदत्त जब मेरा आधा गला काट चुका होगा कि उसी समय मेरे भाग्य से आपकी नींद खुल गई आपने आकर मुझे नमस्कार मंत्र सुनाया और साथ ही संन्यास दे दिया। मैं शान्त भावों से मरकर मंत्र के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । इसलिए मेरे गुरु तो आप ही हैं - आप ही ने मुझे सन्मार्ग बतलाया है। इसके बाद सौधर्म - देव धर्म - प्रेम से बहुत सुन्दर-सुन्दर और मूल्यवान् दिव्य वस्त्राभरण चारुदत्त को भेंटकर और उसे नमस्कार कर स्वर्ग चला गया। सच है, जो परोपकारी हैं उनका सब ही बड़ी भक्ति के साथ आदर सत्कार करते हैं ॥८०-८६॥

इधर ये विद्याधर सिंहयश और वारहग्रीव मुनिराज को नमस्कार कर चारुदत्त से बोले चलिए हम आपको आपकी जन्मभूमि चम्पापुरी में पहुँचा आवें। इससे चारुदत्त को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह जाने को सहमत हो गया । चारुदत्त ने इसके लिए उनसे बड़ी कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने चारुदत्त को उसके सब माल-असबाब सहित बहुत जल्दी विमान द्वारा चम्पापुरी में ला रखा। इसके बाद वे उसे नमस्कार कर और आज्ञा लेकर अपने स्थान लौट गए। सच हैं, पुण्य से संसार में क्या नहीं होता! और पुण्य प्राप्ति के लिए जिनभगवान् के द्वारा उपदेश किए दान, पूजा, व्रत शीलरूप चार प्रकार पवित्र धर्म का सदा पालन करते रहना चाहिए ॥८७-९०॥

अचानक अपने प्रिय पुत्र के आ जाने से चारुदत्त के माता-पिता को बड़ी खुशी हुई उन्होंने बारबार उसे छाती से लगाकर वर्षो से वियोगाग्नि से जलते हुए अपने हृदय को ठंडा किया। चारुदत्त की प्रिया मित्रवती के नेत्रों से दिन-रात बहती हुई वियोग-दुःखाश्रुओं की धारा और आज प्रिय को देखकर बहने वाली आनन्दाश्रुओं की धारा अपूर्व समागम हुआ। उसे जो सुख आज मिला, उसकी समानता में स्वर्ग का दिव्य सुख तुच्छ है । बात ही बात में चारुदत्त के आने के समाचार सारी पुरी में पहुँच गया और उससे सभी को आनन्द हुआ ॥९१॥

चारुदत्त एक समय बड़ा धनी था । अपने कुकर्मों से वह पथ-पथ का भिखारी बना। पर जब से उसे अपनी दशा का ज्ञान हुआ तब से उसने केवल कर्तव्य को ही अपना लक्ष्य बनाया और फिर कर्मशील बनकर उसने कठिन से कठिन काम किया। उसमें कई बार उसे असफलता भी प्राप्त हुई,पर वह निराश नहीं हुआ और काम करता ही चला गया। अपने उद्योग से उसके भाग्य का सितारा फिर चमक उठा और वह आज पूर्ण तेज प्रकाश कर रहा है। इसके बाद चारुदत्त ने बहुत वर्षों तक खूब सुख भोगा और जिनधर्म की भी भक्ति के साथ उपासना की । अन्त में उदासीन होकर वह अपनी जगह पर अपने सुन्दर नाम के पुत्र को नियुक्त कर आप दीक्षा ले ली। मुनि होकर उसने खूब तप किया और आयु के अन्त में संन्यास सहित मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग लाभ किया। स्वर्ग में वह सुख के साथ रहता है, अनेक प्रकार के उत्तम से उत्तम भोगों को भोगता है, सुमेरु और कैलाश पर्वत आदि स्थानों के जिनमन्दिरों की यात्रा करता है, विदेहक्षेत्र में जाकर साक्षात् तीर्थंकर केवली भगवान् की स्तुति-पूजा करता है और उनका सुख देने वाला पवित्र धर्मोपदेश सुनता है। मतलब यह कि उसका प्रायः समय धर्म साधन में बीतता है और इसी जिनभगवान् के उपदेश किए निर्मल धर्म की इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी सदा भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं, यही धर्म स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला है। इसलिए यदि तुम्हें श्रेष्ठ सुख की चाह है तो तुम भी इसी धर्म का आश्रय लो॥९२-९८॥

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