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२७. श्रीभूति - पुरोहित की कथा


जिन्हें स्वर्ग के देवता बड़ी भक्ति के साथ पूजते हैं, उन सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं श्रीभूत-पुरोहित का उपाख्यान कहता हूँ, जो चोरी करके दुर्गति में गया है। सिंहपुर नाम का सुन्दर नगर था। उसका राजा सिंहसेन था । सिंहसेन की रानी का नाम रामदत्ता था। राजा बुद्धिमान् और धर्मपरायण था । रानी भी बड़ी चतुर थी । सब कामों को वह उत्तमता के साथ करती थी। राजपुरोहित श्रीभूति था । उसने मायाचारी से अपने सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध कर रक्खी थी कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ । बेचारे भोले लोग उस कपटी के विश्वास में आकर अनेक बार ठगे जाते थे। पर उसके कपट का पता किसी को नहीं पड़ पाता था। ऐसे ही एक दिन एक विदेशी उसके चंगुल में फँसा। इसका नाम समुद्रदत्त था। यह पद्मखण्डपुर का रहने वाला था। इसके पिता सुमित्र और माता सुमित्रा थी । समुद्रदत्त की इच्छा एक दिन व्यापारार्थ विदेश जाने की हुई । इसके पास पाँच बहुत कीमती रत्न थे। पद्मखण्डपुर में कोई ऐसा विश्वस्त पुरुष इसके ध्यान में नहीं आया, जिसके पास यह अपने रत्नों को रखकर निश्चित हो सकता था । इसने श्रीभूति की प्रसिद्धि सुन रखी थी। इसलिए उसके पास रत्न रखने का विचार कर यह सिंहपुर आया । यहाँ श्रीभूति से मिलकर इसने अपना विचार उसे कह सुनाया । श्रीभूति ने इसके रत्नों का रखना स्वीकार कर लिया। समुद्रदत्त को इससे बड़ी खुशी हुई और साथ ही वह उन रत्नों को श्रीभूति को सौंपकर आप रत्नद्वीप के लिए रवाना हो गया। वहाँ कई दिनों तक ठहरकर इसने बहुत घन कमाया। जब वह वापस लौटकर जहाज द्वारा अपने देश की ओर आ रहा था तब पापकर्म के उदय से इसका जहाज टकराकर फट गया। बहुत से आदमी डूब मरे । बहुत ठीक लिखा है कि बिना पुण्य के कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। समुद्रदत्त इस समय भाग्य से मरते-मरते बच गया। इसके हाथ जहाज का एक छोटा- सा टुकड़ा लग गया। यह उस पर बैठकर बड़ी कठिनता के साथ किसी तरह किनारे आ गया । यहाँ से यह सीधा श्रीभूति पुरोहित के पास पहुँचा । श्रीभूति इसे दूर से देखकर ही पहचान गया। वह धूर्त तो था ही, सो उसने अपने आसपास बैठे हुए लोगों से कहा- देखिये, वह कोई दरिद्र भिखमंगा आ रहा है अब यहाँ आकर व्यर्थ सिर खाने लगेगा। जिसके पास थोड़ा बहुत पैसा होता है या जिनकी मान मर्यादा लोगों में अधिक होती है तो उन्हें इन भिखारियों के मारे चैन नहीं। एक न एक हर समय सिर पर खड़ा ही रहता है। हम लोगों ने जो सुना था कि कल एक जहाज फटकर डूब गया है, मालूम होता है। यह उसी पर का कोई यात्री है और इसका सब धन नष्ट हो जाने से यह पागल हो गया जान पड़ता है। इसकी दुर्दशा से ज्ञान होता है कि यह इस समय बड़ा दुःखी है और इसी से संभव है कि यह मुझसे कोई बड़ी भारी याचना करे । श्रीभूति तो इस तरह लोगों को कह ही रहा था कि समुद्रदत्त उसके सामने जा खड़ा हुआ । श्रीभूति को नमस्कार कर अपनी हालत सुनाना आरम्भ करता है कि इतने में श्रीभूति बोल उठा कि मुझे इतना समय नहीं कि मैं तुम्हारी सारी दुःख कथा सुनूँ। हाँ तुम्हारी इस हालत से जान पड़ता है कि तुम पर कोई बड़ी भारी आफत आई है । अस्तु, मुझे तुम्हारे दुःख में संवेदना है। अच्छा जाइए, मैं नौकरों से कहे देता हूँ कि वे तुम्हें कुछ दिनों के लिए खाने का सामान दिलवा दें। यह कहकर ही उसने नौकरों की ओर मुँह फेरा और आठ दिन तक का खाने का सामान समुद्रदत्त को दिलवा देने के लिए उनसे कह दिया। बेचारा समुद्रदत्त तो श्रीभूति की बातें सुनकर हत - बुद्धि हो गया । उसे काटो तो खून नहीं। उसने घबराते-घबराते कहा- महाराज, आप यह क्या करते है? मेरे जो आपके पास पाँच रत्न रक्खे हैं, मुझे तो वे ही दीजिए। मैं आपका समान -वामान नहीं लेता ॥१-१२॥

श्रीभूति ने रत्न का नाम सुनते ही अपने चेहरे पर का भाव बदला और त्यौरी चढ़ाकर जोर के साथ कहा-रत्न! अरे दरिद्र ! तेरे रत्न और मेरे पास ? यह तू क्या बक रहा है? कह तो सही वास्तव में तेरी मंशा क्या है? क्या मुझे तू बदनाम करना चाहता है ? तू कौन, और कहाँ का रहने वाला है? मैं तुझे जानता तक नहीं, फिर तेरे रत्न मेरे पास आए कहाँ से ? जा - जा, पागल तो नहीं हो गया है? ठीक ध्यान से विचार कर । किसी और के यहाँ रखकर उसके भ्रम से मेरे पास आ गया जान पड़ता है। इसके बाद ही उसने लोगों की ओर नजर फेरकर कहा- देखिये साहब, मैंने कहा था न? कि यह मेरे से कोई बड़ी भारी याचना करेगा। ठीक वही हुआ । बतलाइए, इस दरिद्र के पास रत्न कहाँ से आ सकते हैं? धन नष्ट हो जाने से जान पड़ता है यह बहक गया है। यह कहकर श्रीभूति ने नौकरों द्वारा समुद्रदत्त को घर से बाहर निकलवा दिया। नीतिकार ने ठीक लिखा है- जो लोग पापी होते है और जिन्हें दूसरों के धन की चाह होती है, वे दुष्ट पुरुष ऐसा कौन बुरा काम है जिसे लोभ के वश हो न करते हों? श्रीभूति ऐसे ही पापियों में से एक था, तब वह कैसे ऐसे निंद्य कर्म से बचा रह सकता था? पापी श्रीभूति से ठगा जाकर बेचारा समुद्रदत्त सचमुच पागल हो गया? वह श्रीभूति के मकान से निकलते ही यह चिल्लाता हुआ कि पापी श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता है, सारे शहर में घूमने लगा। पर उसे एक भिखारी के वेश में देखकर किसी ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया । उल्टा उसे ही सब पागल बताने लगे। समुद्रदत्त दिन भर तो इस तरह चिल्लाता हुआ सारे शहर में घूमता-फिरता और जब रात होती तब राजमहल के पीछे एक वृक्ष पर चढ़ जाता और सारी रात उसी तरह चिल्लाया करता । ऐसा करते-करते उसे ठीक छह महीना बीत गये । समुद्रदत्त का इस तरह रोज-रोज चिल्लाना सुनकर एक दिन महारानी रामदत्ता ने सोचा कि बात वास्तव में क्या है, इसका जरूर पता लगाना चाहिए। तब एक दिन उसने अपने स्वामी से कहा- प्राणनाथ, मैं रोज एक गरीब की पुकार सुनती हूँ। मैं तो यह समझती रही कि वह पागल हो गया है और इसी से दिन-रात चिल्लाया करता है, कि श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता । पर प्रतिदिन उसके मुँह से एक ही वाक्य सुनकर मेरे मन में कुछ खटका पैदा होता है। इसलिए आप उसे बुलाकर पूछिये तो कि वास्तव में रहस्य क्या है? रानी के कहे अनुसार राजा ने समुद्रदत्त को बुलाकर सब बातें पूछी। समुद्रदत्त ने जो यथार्थ घटना थी, वह राजा से कह सुनाई सुनकर राजा ने रानी से कहा कि इसके चेहरे पर से तो इसकी बात ठीक जँचती है। पर इसका भेद खुलने के लिए क्या उपाय है? रानी ने थोड़ी देर तक विचार कर कहा- हाँ, इसकी आप चिन्ता न करें। मैं सब बातें जान लूँगी ॥१३-१८॥

दूसरे दिन रानी ने पुरोहित जी को अपने अन्तःपुर में बुलाया। आदर-सत्कार होने के बाद रानी ने उनसे कहा-मेरी इच्छा बहुत दिनों से आपसे मिलने की थी, पर कोई ठीक समय ही नहीं मिल पाता था। आज बड़ी खुशी हुई कि आपने यहाँ आने की कृपा की। इसके बाद रानी ने पुरोहित से कुछ इधर- उधर की बातें करके उनसे भोजन का हाल पूछा। उनके भोजन का सब हाल जानकर उसने अपनी एक विश्वस्त दासी को बुलाया और उसे कुछ बातें समझा-बुझाकर जाने को कह दिया । दासी के जाने के बाद रानी ने पुरोहित जी से एक नई ही बात का जिकर उठाया। वह बोली- पुरोहित जी, सुनती हूँ कि आप पासे खेलने में बड़े चतुर और बुद्धिमान् है । मेरी बहुत दिनों से इच्छा होती थी कि आपके साथ खेलकर मैं भी एक बार देखूँ कि आप किस चतुराई से खेलते हैं । यह कहकर रानी ने एक दासी को बुलाकर चौपड़ ले आने की आज्ञा की ॥१९॥

पुरोहितजी रानी की बात सुनकर दंग रह गए। वे घबराकर बोले- हैं ! हैं ! महारानीजी, यह आप क्या करती हैं? मैं एक भिक्षुक ब्राह्मण और आपके साथ मेरी यह धृष्टता । यदि महाराज सुन पावें तो वे मेरी क्या गति बनायेंगे?

रानी ने कहा-पुरोहित जी, आप इतने घबराइए मत। मेरे साथ खेलने में आपको किसी प्रकार के गहरे विचार में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं । महाराज इस विषय में आपसे कुछ नहीं कहेंगे। आप डरिए मत।

बेचारे पुरोहितजी बड़े पशोपेश में पड़े। रानी की आज्ञा भी वे नहीं टाल सकते और इधर महाराज का उन्हें भय। वे तो इस उधेड़-बुन में लगे हुए थे कि दासी ने चौपड़ लाकर रानी के सामने रख दी। आखिर उन्हें खेलना ही पड़ा। रानी ने पहली ही बाजी में पुरोहित जी की अँगूठी, जिस पर कि उसका नाम खुदा हुआ था, जीत ली। दोनों फिर खेलने लगे। इतने में पहली दासी ने आकर रानी से कुछ कहा । रानी ने अब की बार पुरोहित जी से जीती हुई अँगूठी चुपके से उसे देकर चले जाने को कह दिया। दासी घण्टे भर बाद फिर आई उसे कुछ निराश सी देखकर रानी ने इशारे से अपने कमरे के बाहर ही रहने को कह दिया और आप अपने खेल में लग गई। अब की बार उसने पुरोहित जी का जनेऊ जीत लिया और किसी बहाने से उस दासी को बुलाकर चुपके से जनेऊ देकर भेज दिया। दासी के वापस आने तक रानी और पुरोहित जी को खेल में लगाये रही। इतने में दासी भी आ गई उसे प्रसन्न देखकर, रानी ने अपना मनोरथ पूर्ण हुआ समझा। उसने उसी समय खेल बन्द किया और पुरोहित जी की अँगूठी और जनेऊ उन्हें वापस देकर वह बोली- आप सचमुच खेलने में बड़े चतुर हैं। आपकी चतुरता देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई आज मैंने सिर्फ इस चतुरता को देखने के लिए ही आपको यह कष्ट दिया था। आप इसके लिए मुझे क्षमा करें। अब आप खुशी के साथ जा सकते है।

बेचारे पुरोहित जी रानी के महल से बिदा हुए। उन्हें इसका कुछ भी पता नहीं पड़ा कि रानी मेरी आँखों में दिन दहाड़े धूल झोंककर मुझे कैसा उल्लू बनाया है।

बात असल में यह थी कि रानी ने पहले पुरोहित जी की जीती हुई अँगूठी देकर दासी को उनकी स्त्री के पास समुद्रदत्त के रत्न लेने को भेजा, पर जब पुरोहित जी की स्त्री ने अँगूठी देखकर भी उसे रत्न नहीं दिये तब यज्ञोपवीत जीता और उसे दासी के हाथ देकर फिर भेजा । अब की बार रानी का मनोरथ सिद्ध हुआ। पुरोहित की स्त्री ने दासी की बातों से डरकर झटपट रत्नों को निकाल दासी के हवाले कर दिया। दासी ने रत्न लाकर रानी को दे दिये । रानी प्रसन्न हुई । पुरोहित जी तो खेलते रहे और उधर उनका भाग्य फट गया, इसकी उन्हें रत्तीभर भी खबर नहीं पड़ी।

रानी ने रत्नों को ले जाकर महाराज के सामने रख दिया और साथ ही पुरोहित जी के महल से रवाना होने की खबर दी । महाराज ने उसी समय उनके गिरफ्तार करने की सिपाहियों को आज्ञा दी। बेचारे पुरोहित जी अभी महल के बाहर भी नहीं हुए थे कि सिपाहियों ने जाकर उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी और उन्हें दरबार में लाकर उपस्थित कर दिया।

पुरोहित जी देखकर भौचक से रह गए। उनकी समझ में नहीं आया कि यह एकाएक क्या हो गया और कौन सा मैंने ऐसा भारी अपराध किया जिससे मुझे एक शब्द तक न बोलने देकर मेरी यह दशा की गई वे हतबुद्धि हो गए। उन्हें इस बात का और अधिक दुःख हुआ कि मैं एक राजपुरोहित, ऐसा वैसा गैर आदमी नहीं और मेरी यह दशा ? और वह बिना किसी अपराध के ? क्रोध, लज्जा और आत्मग्लानि से उनकी एक विलक्षण ही दशा हो गई ॥२०-२४॥

'रानी ने जैसे ही रत्नों को महाराज के सामने रखा, महाराज ने उसी समय उन्हें अपने और बहुत से रत्नों में मिलाकर समुद्रदत्त को बुलाया और उससे कहा-अच्छा, देखो तो इन रत्नों में तुम्हारे रत्न है क्या? और हो तो उन्हें निकाल लो। महाराज की आज्ञा पाकर समुद्रदत्त ने उन सब रत्नों में से अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिया। सच है, सज्जन पुरुष अपनी ही वस्तु को लेते हैं। दूसरों की वस्तु उन्हें विष समान जान पड़ती हैं। समुद्रदत्त ने अपने रत्न पहचान लिए, यह देख महाराज उस पर इतने प्रसन्न हुए कि उसे उन्होंने अपने राज सेठ बना लिया ॥२५-२७॥

महाराज तुरन्त ही दरबार में आए। जैसे ही उनकी दृष्टि पुरोहित जी पर पड़ी, उन्होंने बड़ी ग्लानि की दृष्टि से उनकी ओर देखकर गुस्से के साथ कहा- पापी, ठग! ॥२८॥

मैं नहीं जानता था कि तू हृदय का इतना काला हो गया और ऊपर से ऐसा ढोंगी का वेष लेकर मेरी गरीब और भोली प्रजा को इस तरह धोखे में फँसायेगा ? न मालूम तेरी इस कपटवृत्ति ने मेरे कितने बन्धुओं को घर-घर का भिखारी बनाया होगा? ऐ पाप के पुतले, लोभ के जहरीले सर्प, तुझे देखकर हृदय चाहता तो यह है कि तुझे इसकी कोई ऐसी भयंकर सजा दी जाए, जिससे तुझे भी इसका ठीक प्रायश्चित मिल जाए और सर्व साधारण को दुराचारियों के साथ मेरे कठिन शासन का ज्ञान हो जाए; उससे फिर कोई ऐसा अपराध करने का साहस न करे। परन्तु तू ब्राह्मण है, इसलिए तेरे कुल के लिहाज से तेरी सजा के विचार का भार मैं अपने मंत्री - मण्डल पर छोड़ता हूँ । यह कहकर ही राजा ने अपने धर्माधिकारियों की ओर देखकर कहा - " इस पापी ने एक विदेशी यात्री के, जिसका कि नाम समुद्रदत्त है और वह यहीं बैठा हुआ भी है, कीमती पाँच रत्नों को हड़प कर लिया है, जिनको कि यात्री ने समुद्र यात्रा करने के पहले श्रीभूति को एक विश्वस्त और राजप्रतिष्ठित समझकर धरोहर के रूप में रक्खे । दैव की विचित्र गति से यात्रा से लौटते समय यात्री का जहाज एकाएक फट गया और साथ ही उसका सब माल असबाब भी डूब गया । यात्री किसी तरह बच गया। उसने जाकर पुरोहित श्रीभूति से अपनी धरोहर वापस लौटा देने के लिए प्रार्थना की।

पुरोहित के मन में पाप का भूत सवार हुआ । बेचारे गरीब यात्री को उसने धक्के देकर घर से बाहर निकलवा दिया। यात्री अपनी इस हालत से पागल सा होकर सारे शहर में यह पुकार मचाता हुआ महिनों फिरा कि श्रीभूति ने मेरे रत्न चुरा लिए, पर उस पर किसी का ध्यान न जाकर उल्टा सबने उसे ही पागल कह दिया । उसकी यह दशा देखकर महारानी को बड़ी दया आई। यात्री को बुलाया कर उससे सब बातें दर्याफ्त की गई बाद में महारानी ने उपाय द्वारा वे रत्न अपने हस्तगत कर लिए। वे रत्न समुद्रदत्त के हैं या नहीं इसकी परीक्षा करने के आशय से उन पाँचों रत्नों को मैंने बहुत से और रत्नों में मिला दिया। पर आश्चर्य है कि यात्री ने अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिए। श्रीभूि के जिस्में धरोहर हड़पकर जाने को गुरुत्तर अपराध है। इसके सिवा धोखेबाजी, ठगाई आदि और भी बहुत से अपराध हैं। इसकी इसे क्या सजा दी जाए, इसका आप विचार करें।

धर्माधिकारियों ने आपस में सलाहकर कहा - महाराज, श्रीभूति पुरोहित का अपराध बड़ा भारी है। इसके लिए हम तीन प्रकार की सजायें नियत करते हैं। उनमें से फिर जिसे यह पसन्द करे, स्वीकार करे । या तो इसका सर्वस्व हरण कर लिया जाए और इसे देश बाहर कर दिया जाए, या पहलवानों की बत्तीस मुक्कियाँ इस पर पड़े या तीन थाली में भरे हुए गोबर को यह खा जाए। श्री भूति से सजा पसन्द करने को कहा गया। पहले उसने गोबर खाना चाहा, पर खाया नहीं गया, तब मुक्कियाँ खाने को कहा। मुक्कियाँ पड़ना शुरू हुई कोई दस पन्द्रह मुक्कियाँ पड़ी होंगी कि पुरोहित जी अकल ठिकाने आ गई आप एकदम चक्कर खाकर जमीन पर ऐसे गिरे कि उठे ही नहीं । महा आर्त्तध्यान से उनकी मृत्यु हुई वे दुर्गति में गए। धन में अत्यन्त लम्पटता का उन्हें उपयुक्त प्रायश्चित्त मिला। इसलिए जो भव्य पुरुष हैं, उसे उचित है कि वे चोरी को अत्यन्त दुःख का कारण समझकर उसका परित्याग करें और अपनी बुद्धि को पवित्र जैनधर्म की ओर लगावें, जो ऐसे महापापों से बचाने वाला है ॥२९-३२॥

वे जिनभगवान्, जो सब सन्देहों के नाश करने वाले और स्वर्ग के देवों और विद्याधरों द्वारा पूज्य हैं, वह जिनवाणी जो सब सुखों की खान है और मेरे गुरु श्रीप्रभाचन्द्र ये सब मुझे मंगल प्रदान करें, मुझे कल्याण का मार्ग बतलावें ॥३३॥

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