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३९. परिग्रह से डरे हुए दो भाइयों की कथा


धन, धान्य, दास, दासी, सोना, चाँदी आदि जो संसार के जीवों को तृष्णा के जाल में फँसाकर कष्ट पर कष्ट देने वाले हैं ऐसे परिग्रह से माया, ममता छोड़ने वाले जो साधु-सन्त हैं, उनसे भी जो ऊँचा हैं, जिनके त्याग से आगे त्याग की कोई सीमा नहीं, ऐसे सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर परिग्रह से डरे हुए दो भाइयों की कथा लिखी जाती है ॥१॥

दशार्ण देश में बहुत सुन्दर एकरथ नाम का एक शहर था । उसमें धनदत्त नाम का सेठ रहता था। इसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था । इसके धनदेव और धनमित्र ऐसे दो पुत्र और धनमित्रा नाम की सुन्दर लड़की थी ॥२-३॥

धनदत्त की मृत्यु के बाद इन दोनों भाइयों के कोई ऐसा पापकर्म का उदय आया,जिससे इनका सब धन नष्ट हो गया, ये महा दरिद्र बन गए। कुछ सहायता मिलेगी इस आशा से ये दोनों भाई अपने मामा के यहाँ कौशाम्बी गए और इन्होंने बड़े दुःख के साथ पिता की मृत्यु का हाल मामा को सुनाया। मामा भी इनकी हालत देखकर बड़ा दुःखी हुआ । उसने अनेक प्रकार समझा-बुझाकर इन्हें धीरज दिया और साथ ही आठ कीमती रत्न दिये, जिससे कि ये अपना संसार चला सकें । सच है, यही बन्धुपना है, यही दयालुपना है और यही गम्भीरता है जो अपने धन द्वारा याचकों की आशा पूरी की जाए ॥४-७॥

दोनों भाई रत्नों को लेकर अपने घर की ओर रवाना हुए। रास्ते में आते-आते इन दोनों की नियत उन रत्नों के लोभ से बिगड़ी। दोनों ही के मन में परस्पर के मार डालने की इच्छा हुई इतने में गाँव पास आ जाने से इन्हें सुबुद्धि सूझ गई। दोनों ने अपने-अपने नीच विचारों पर बड़ा ही पश्चाताप किया और परस्पर में अपना विचार प्रकट कर मन का मैल निकाल डाला। ऐसे पाप विचारों के मूल कारण इन्हें वे रत्न ही जान पड़े। इसलिए उन रत्नों को वेत्रवती नदी में फेंककर ये अपने घर पर चले आए। उन रत्नों को मांस समझकर एक मछली निगल गई यही मछली एक धीवर के जाल में आ फँसी । धीवर ने मछली को मारा। उसमें से वे रत्न निकले। धीवर ने उन्हें बाजार में बेच दिया। धीरे-धीरे कर्मयोग से वही रत्न इन दोनों भाईयों की माँ के हाथ पड़े। माता ने उनके लोभ से अपने लड़के-लड़की को ही मार डालना चाहा परन्तु तत्काल सुबुद्धि उपज जाने से उसने बहुत पश्चाताप किया और रत्नों को अपनी लड़की को दे दिये । धनमित्रा की भी यही दशा हुई उसकी भी लोभ के मारे नियत बिगड़ गई उसने माता, भाई आदि की जान लेनी चाही । सच है - संसार में सबसे बड़ा भारी पाप का मूल लोभ है। अन्त में धनमित्रा को भी अपने विचार पर बड़ी घृणा हुई और उसने फिर उन रत्नों को अपने भाइयों के हाथ दे दिया। वे उन्हें पहचान गए। उन्हें रत्नों के प्राप्त होने का हाल जानकर बड़ा ही वैराग्य हुआ। उसी समय वे संसार की सब माया-ममता छोड़कर, जो कि ॥ महा दुःख का कारण है, दमधर मुनि के पास दीक्षा के लिए गए। इन्हें साधु हुए देखकर इनकी माता और बहिन भी आर्यिका हो गई आगे चलकर ये दोनों भाई बड़े तपस्वी महात्मा हुए। अपना और दूसरों का संसार के दुःखों से उद्धार करना ही एक मात्र इनका कर्तव्य हो गया। स्वर्ग के देवता और प्रायः सब ही बड़े-बड़े राजा-महाराजा इनकी सेवा-पूजा करने को आने लगे ॥८-१८॥

यह लोभ संसार के दुःखों का मूल कारण और अनेक कष्टों का देने वाला है, जो माता, पिता, भाई, बहिन, बन्धु, बान्धव आदि के परस्पर में ठगने और बुरे विचारों के उत्पन्न करने की इच्छा करते हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस पाप के बाप लोभ को मनसा, वाचा, कर्मणा छोड़कर संसार का हित करने वाले और स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए परम पवित्र धर्म में अपने मन को दृढ़ करने का यत्न करें ॥१९॥

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