१८. ब्रह्मदत्त की कथा
परम भक्ति से संसार पूज्य जिन भगवान् को नमस्कार कर मैं ब्रह्मदत्त की कथा लिखता हूँ। वह इसलिए कि सत्पुरुषों को इसके द्वारा कुछ शिक्षा मिले ॥१॥
कांपिल्य नामक नगर में एक ब्रह्मरथ नाम का राजा रहता था । उसकी रानी का नाम था रामिली । वह सुन्दरी थी, विदुषी थी और राजा को प्राणों से भी कहीं प्यारी थी। बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त इसी के पुत्र थे। वे छह खण्ड पृथ्वी को अपने वश करके सुखपूर्वक अपना राज्य शासन का काम करते थे ॥२-३॥
एक दिन राजा भोजन करने को बैठे उस समय उनके विजयसेन नाम के रसोइये ने उन्हें खीर परोसी। पर वह बहुत गरम थी, इसलिए राजा उसे खा न सके। उसे इतनी गरम देखकर राजा रसोइये पर बहुत गुस्सा हुए। गुस्से में आकर उन्होंने खीर के उसी बर्तन को रसोइये के सिर पर दे मारा। उसका सिर सब जल गया। साथ ही वह मर गया। हाय ! ऐसे क्रोध को धिक्कार है, जिससे मनुष्य अपना हिताहित न देखकर बड़े-बड़े अनर्थ कर बैठता है और फिर अनन्त काल तक कुगतियों में दुःख भोगता रहता है ॥४-६॥
रसोइया बड़े दुःख से मरा सही, पर उसके परिणाम उस समय भी शान्त रहे । वह मरकर लवण समुद्रान्तर्गत विशालरत्न नामक द्वीप में व्यन्तर देव हुआ । विभंगावधिज्ञान से वह अपने पूर्वभव की कष्ट कथा जानकर क्रोध के मारे काँपने लगा । वह एक संन्यासी के वेष में राजा के पास आया और राजा को उसने केला, आम, सेव, सन्तरा आदि बहुत से फल भेंट किए। राजा जीभ की लोलुपता से उन्हें खाकर संन्यासी से बोला- साधुजी, कहिए आप ये फल कहाँ से लाये ? और कहाँ मिलेंगे? ये तो बड़े ही मीठे हैं। मैंने तो आज तक ऐसे फल कभी नहीं खाये। मैं आपकी इस भेंट से बहुत खुश हुआ ॥७-११॥
संन्यासी ने कहा, महाराज, मेरा घर एक टापू में है। वहीं एक बहुत सुन्दर बगीचा है। उसी के फल हैं और अनन्त फल उसमें लगे हुए हैं। संन्यासी की रसभरी बात सुनकर राजा के मुँह में पानी भर आया। उसने संन्यासी के साथ जाने की तैयार की। सच है - ॥१२- १३॥
जिह्वा लोलुपी पुरुष भला-बुरा नहीं जान पाते, यह बड़े दुःख की बात है । यही हाल राजा का हुआ। जब वह लोलुपता के वश हो उस संन्यासी के साथ समुद्र के बीच में पहुँचा, तब उसने राजा को मारने के लिए बड़ा कष्ट देना शुरू किया । चक्रवर्ती अपने को कष्टों से घिरा देखकर पंचनमस्कार मंत्र की आराधना करने लगा। उसके प्रभाव से कपटी संन्यासी की सब शक्ति रुद्ध हो गई । वह राजा को कुछ कष्ट न दे सका। आखिर प्रकट होकर उसने राजा से कहा- दुष्ट, याद है? मैं जब तेरा रसोइया था, तब तूने मुझे जान से मार डाला था? वहीं आग आज मेरे हृदय को जला रही है और उसी को बुझाने के लिए, अपने पूर्व भव का बैर निकालने के लिए मैं तुझे यहाँ छलकर लाया हूँ और बहुत कष्ट के साथ तुझे जान से मारूँगा, जिससे फिर कभी तू ऐसा अनर्थ न करे। पर यदि तू एक काम करे तो बच भी सकता हैं। वह यह कि तू अपने मुँह से पहले तो यह कह दे कि संसार में जिनधर्म ही नहीं है और जो कुछ है वह अन्य धर्म है। इसके सिवा पंचनमस्कार मंत्र को जल में लिखकर उसे अपने पाँवों से मिटा दे, तब मैं तुझे छोड़ सकता हूँ । मिथ्यादृष्टि ब्रह्मदत्त ने उसके बहकाने में आकर वही किया जैसा उसे देव ने कहा था । उसका व्यन्तर के कहे नुसार करना था कि उसने चक्रवर्ती को उसी समय मारकर समुद्र में फेंक दिया। अपना वैर उसने निकाल लिया । चक्रवर्ती मरकर मिथ्यात्व के उदय से सातवें नरक गया । सच है मिथ्यात्व अनन्त दुःखों का देने वाला है। जिसका जिनधर्म पर विश्वास नहीं क्या उसे इस अनन्त दुःखमय संसार में कभी सुख हुआ है? नहीं। मिथ्यात्व के समान संसार में और कोई इतना निन्द्य नहीं है । उसी से तो चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त सातवें नरक गया। इसलिए आत्महित के चाहने वाले पुरुषों को दूर से मिथ्यात्व छोड़कर स्वर्ग - मोक्ष की प्राप्ति का कारण सम्यक्त्व ग्रहण करना उचित है ॥१४- २३॥
संसार में सच्चे देव अरहन्त भगवान् हैं, जो क्षुधा, तृषा, जन्म, मरण, रोग, शोक, चिन्ता, भय आदि दोषों से और धन-धान्य, दासी - दास, सोना-चाँदी आदि दस प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, जो इन्द्र, चक्रवर्ती, देव, विद्याधरों द्वारा वंद्य हैं, जिनके वचन जीव मात्र को सुख देने वाले और भव समुद्र से तिरने के लिए जहाज समान हैं, उन अर्हन्त भगवान् का आप पवित्र भावों से सदा ध्यान किया कीजिए कि जिससे वे आपके लिए कल्याण पथ के प्रदर्शक हो ॥ २४॥
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