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२९. कडारपिंग की कथा


अर्हन्त, जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर, कडारपिंग की, जो कि स्वदारसन्तोषव्रत- ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हुआ है, कथा लिखी जाती है। कांपिल्य नाम का एक प्रसिद्ध शहर था । उसके राजा का नाम नरसिंह था। नरसिंह बुद्धिमान् और धर्मात्मा थे। अपने राज्य का पालन वे नीति के साथ करते थे। इसलिए प्रजा उन्हें बहुत चाहती थी ॥१-२॥

राजमंत्री का नाम सुमति था । इनके धनश्री स्त्री और कडारपिंग नामक एक पुत्र था। कडारपिंग का चाल-चलन अच्छा नहीं था । वह बड़ा कामी था । इसी नगर में एक कुबेरदत्त सेठ रहता था । यह बड़ा धर्मात्मा और पूजा, प्रभावना करने वाला था । इसकी स्त्री प्रियंगुसुन्दरी सरल स्वभाव की, पुण्यवती और बहुत सुन्दर थी ॥३-५॥

एक दिन कडारपिंग ने प्रियंगसुन्दरी को कहीं जाते देख लिया। उसकी रूप-मुधरिमा को देखकर इसका मन बेचैन हो उठा। यह जिधर देखता उधर ही इसे प्रियंगुसुन्दरी दिखने लगी। प्रियंगुसुन्दरी के सिवा इसे और कोई वस्तु अच्छी न लगने लगी । काम ने इसे आपे से भुला दिया। बड़ी कठिनता से उस दिन वह घर पर पहुँच पाया। उसे इस तरह बेचैन और भ्रम बुद्धि देखकर इसकी माँ को बड़ी चिन्ता हुई उसने इससे पूछा-कडार, क्यों आज एकाएक तेरी यह दशा हो गई? अभी तो तू घर से अच्छी तरह गया था और थोड़ी ही देर में तेरी यह हालत कैसे हुई? बतला तो, हुआ क्या? क्यों तेरा मन आज इतना खेदित हो रहा है? कडारपिंग ने कुछ न सोचा अथवा यों कह लीजिए कि सोच विचार करने की बुद्धि ही उसमें न थी। यही कारण था कि उसने, कौन पूछने वाली है, इसका भी कुछ ख्याल न कर कह दिया कि कुबेरदत्त सेठ की स्त्री को मैं यदि किसी तरह प्राप्त कर सकूँ, तो मेरा जीना हो सकता है। सिवा इसके मेरी मृत्यु अवश्यंभावी हैं । नीतिकार कहते हैं कि काम से अन्धे हुए लोगों को धिक्कार है जो लज्जा और भय रहित होकर फिर अच्छे और बुरे कार्य को भी नहीं सोचते । बेचारी धनश्री पुत्र की यह निर्लज्जता देखकर दंग रह गई वह इसका कुछ उत्तर न देकर सीधी अपने स्वामी के पास गई और पुत्र की सब हालत उसने उनसे कह सुनाई । सुमति एक राजमंत्री था और बुद्धिमान् था। उसे उचित था कि वह अपने पुत्र को पाप की ओर से हटाने का यत्न करता, पर उसने इस डर से, कि कहीं पुत्र मर न जाए, उल्टा पापकार्य का सहायक बनने में अपना हाथ बँटाया । सच है, विनाशकाल जब आता है तब बुद्धि भी विपरीत हो जाया करती है । ठीक यही हाल सुमति का हुआ। वह पुत्र की आशा पूरी करने के लिए एक कपट - जाल रचकर राजा के पास गया और बोला-महाराज, रत्नद्वीप में एक किंजल्क जाति के पक्षी होते हैं, वे जिस शहर में रहते हैं वहाँ महामारी, दुर्भिक्ष रोग, अपमृत्यु आदि नहीं होते तथा उस शहर पर शत्रुओं का चक्र नहीं चल पाता और न चोर वगैरह उसे किसी प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं और महाराज, उनकी प्राप्ति का भी उपाय सहज है। अपने शहर में जो कुबेरदत्त सेठ हैं; उनका जाना आना प्राय: वहाँ हुआ करता है और वे हैं भी कार्यचतुर इसलिए उन पक्षियों के लाने को आप उन्हें आज्ञा कीजिए। अपने राजमंत्री की एक अभूतपूर्व बात सुनकर राजा तो पक्षियों को मँगाने को अकुला उठे। भला, ऐसी आश्चर्य उपजाने वाली बात सुनकर किसे ऐसी अपूर्व वस्तु की चाह न होगी? और इसीलिए महाराज ने मंत्री की बातों पर कुछ विचार न किया । उन्होंने उसी समय कुबेरदत्त को बुलवाया और सब बात समझाकर उसे रत्नद्वीप जाने को कहा । बेचारा कुबेरदत्त इस कपट - जाल को कुछ न समझ सका । वह राजाज्ञा पाकर घर पर आया और रत्नद्वीप जाने का हाल उसने अपनी विदुषी प्रिया से कहा। सुनते ही प्रियंगुसुन्दरी के मन में कुछ खटका पैदा हुआ। उसने कहा- नाथ, जरूर कुछ दाल में काला है। आप ठगे गए हो। किंजल्क पक्षी की बात बिल्कुल असंभव है। भला, कहीं पक्षियों का भी ऐसा प्रभाव हुआ है? तब क्या रत्नद्वीप में कोई मरता ही न होगा? बिल्कुल झूठ ! अपने राजा सरल स्वभाव के हैं सो जान पड़ता है वे भी किसी के चक्र में आ गए है। मुझे जान पड़ता है, यह कारस्तानी राजमंत्री की हुई है ॥६-१७॥

उसका पुत्र कडारपिंग महा व्यभिचारी है। उसने मुझे एक दिन मन्दिर जाते समय देख लिया था। मैं उसकी पापभरी दृष्टि को उसी समय पहचान गई थी। मैं जितना ध्यान से इस बात पर विचार करती हूँ तो अधिक-अधिक विश्वास होता जाता है कि इस षड्यंत्र के रचने से मंत्री महाशय की मंशा बहुत बुरी है। उन्होंने अपने पुत्र की आशा पूरी करने का और कोई उपाय न पाकर आपको विदेश भेजना चाहा है । इसलिए अब आप यह करें कि यहाँ से तो आप रवाना हो जायें, जिससे कि किसी को सन्देह न हो और रात होते ही जहाज को आगे जाने देकर आप वापस लौट आइये । फिर देखिये कि क्या गुल खिलता है। यदि मेरा अनुमान ठीक निकले तब तो फिर आपके जाने की कोई आवश्यकता नहीं और नहीं तो दस-पन्द्रह दिन बाद चले जाइयेगा ॥१७- १८॥

प्रियंगुसुन्दरी की बुद्धिमानी देखकर कुबेरदत्त बहुत खुश हुआ । उसने उसके कहे अनुसार ही किया। जहाज रवाना हो गया । जब रात हुई तब कुबेरदत्त चुपचाप घर आकर छुपा रहा। सच है, कभी- कभी दुर्जनों की संगति से सत्पुरुषों को भी वैसा ही हो जाना पड़ता है ॥ १९-२०॥

जब यह खबर कडारपिंग के कानों में पहुँची कि कुबेरदत्त रत्नद्वीप के लिए रवाना हो गया तो उसकी प्रसन्नता का कुछ ठिकाना न रहा। वह जिस दिन के लिए तरस रहा था, बेचैन हो रहा था वही दिन उसके लिए अब उपस्थित हो गया तब वह क्यों न प्रसन्न होगा? प्रियंगुसुन्दरी के रूप का भूखा और काम से उन्मत्त वह पापी कडारपिंग बड़ी आशा और उत्सुकता से कुबेरदत्त के घर पर आया। प्रियंगुसुन्दरी ने इसके पहले ही उसके स्वागत की तैयारी के लिए पाखाना जाने के कमरे को साफ- सुथरा करवाकर और उसमें बिना निवार का पलंग बिछवाकर उस पर एक चादर डलवा दी थी। जैसे ही मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए कुँवर कडारपिंग आए, उन्हें प्रियंगुसुन्दरी उस कमरे में लिवा ले गई और पलंग पर बैठने का उसने इशारा किया। कडारपिंग प्रियंगुसुन्दरी को अपना इस प्रकार स्वागत करते देखकर, जिसका कि उसे स्वप्न में भी ख्याल नहीं था, फूलकर कुप्पा हो गया । वह समझने लगा, स्वर्ग अब थोड़ा ही ऊँचा रह गया है। पर उसे यह विचार भी न हुआ कि पाप का फल बहुत बुरा होता है। खुशी में आकर प्रियंगुसुन्दरी के इशारे के साथ ही जैसे ही पलंग पर बैठा कि धड़ाम से नीचे आ गिरा। जब वहाँ की भीषण दुर्गन्ध ने उसकी नाक में प्रवेश किया तब उसे भान हुआ कि मैं कैसे अच्छे स्थान पर आया हूँ। वह अपनी करनी पर बहुत पछताया, उसने बहुत आरजू-मिन्नत अपने छुटकारा पाने के लिए की, पर उसकी इस अर्जी पर ध्यान देना प्रियंगुसुन्दरी को नहीं भाया। उसने पापकर्म का उपयुक्त प्रायश्चित दिये बिना छोड़ना उचित नहीं समझा। नारकी जैसे नरकों में पड़कर दुःख उठाते हैं, ठीक वैसे ही एक राजमंत्री का पुत्र अपनी सब मान-मर्यादा पर पानी फेरकर अपने किए कर्मों का फल आज पाखाने में पड़ा - पड़ा भोग रहा है। इस तरह कष्ट उठाते-उठाते पूरे छह महीने बीत गए । इतने में कुबेरदत्त का जहाज भी रत्नद्वीप से लौट आया। जहाज का आना सुनकर सारे शहर में इस बात का शोर मच गया कि सेठ कुबेरदत्त किंजल्क पक्षी ले आए ॥२१ - २४॥

इधर कुबेरदत्त ने कडारपिंग को बाहर निकालकर उसे अनेक प्रकार के पक्षियों के पंखों से खूब सजाया और काला मुँह करके उसे एक विचित्र ही जीव बना दिया। इसके बाद उसने कडारपिंग के हाथ-पाँव बाँध कर और उसे एक लोहे के पिंजरे में बन्द कर राजा के सामने ला उपस्थित किया। पश्चात् कुबेरदत्त ने मुस्कुराते हुए यह कहकर, कि देव, यह आपका मँगाया किंजल्क पक्षी उपस्थित है, यथार्थ हाल राजा से कह दिया । सच्चा हाल जानकर राजा को मंत्री पुत्र पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने उसी समय उसे गधे पर बैठाकर और सारे शहर में घुमा-फिराकर उसके मार डालने की आज्ञा दे दी । वही किया भी गया । कडारपिंग को अपनी करनी का फल मिल गया। वह बड़े खोटे परिणामों से मर कर नरक गया । सच है, परस्त्री आसक्त पुरुष की नियम से दुर्गति होती है। इसके विपरीत जो भव्य - पुरुष जिनभगवान् के उपदेश किए और सुखों के देने वाले शीलव्रत के पालने का सदा यत्न करते हैं, वे पद-पद आदर-सत्कार के पात्र होते हैं। इसलिए उत्तम पुरुषों को सदा परस्त्री - त्यागव्रत ग्रहण किए रहना चाहिए ॥२५-३०॥

भगवान् के उपदेश किए हुए, देवों द्वारा प्रशंसित और स्वर्ग - मोक्ष का सुख देने वाले पवित्र शीलव्रत का जो मन, वचन, काय की पवित्रता के साथ पालन करते हैं, वे स्वर्गों का सुख भोगकर अन्त में मोक्ष के अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं ॥३१-३२॥

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