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३२. वीरवती की कथा


संसार के बन्धु, पवित्रता की मूर्ति और मुक्ति का स्वतंत्रता का सुख देने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर वीरवती का उपाख्यान लिखा जाता है, जो सत्पुरुषों के लिए वैराग्य को बढ़ाने वाला है॥१॥

राजगृह नगर में धनमित्र नामक सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी और पुत्र का दत्त था। भूमिगृह नामक एक और सुन्दर नगर था । उसमें आनन्द नाम का एक साधारण गृहस्थ रहता था। इसकी स्त्री मित्रवती थी । उसके एक वीरवती नाम की कन्या हुई। वीरवती का व्याह दत्त के साथ हुआ। सो ठीक ही है, जो सम्बन्ध दैव को मंजूर होता है उसे कौन रोक सकता है ॥२-४॥

यहीं एक चोर रहता था। इसका नाम था गारक। किसी समय वीरवती ने इसे देखा। वह इसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गई। एक बार दत्त रत्नद्वीप से धन कमाकर घर की ओर रवाना हुआ। रास्ते में इसकी ससुराल पड़ी। इसे अपने प्रियतमा से मिले बहुत दिन हो गए थे और यह उससे बहुत प्रेम भी करता था, इसलिए इसने ससुराल होकर घर जाना उचित समझा। यह रास्ते में एक जंगल में ठहरा। यहीं एक सहस्रभट नाम के चोर ने इसे देखा । यहाँ से चलते समय दत्त के पीछे यह चोर भी विनोद से हो लिया और साथ-साथ भूमिगृह में आ पहुँचा ॥५-८ ॥

ससुराल में दत्त का बहुत कुछ आदर-सत्कार हुआ। वीरवती भी बड़े प्रेम के साथ इससे मिली। पर उसका चित्त स्वभाव-प्रसन्न न होकर कुछ बनावट को लिए था। उसका मन किसी गहरी चोट से जर्जरित है, इस बात को चतुर पुरुष उसके चेहरे के रंग-ढंग से बहुत जल्दी ताड़ सकता था। पर सरल-स्वभावी दत्त इसका रत्तीभर भी पता नहीं पा सका । कारण, अपनी स्त्री के सम्बन्ध में उसे स्वप्न में भी किसी तरह का सन्देह न था। बात यह थी कि जिस चोर से वीरवती की आशनाई थी, वह आज किसी बड़े भारी अपराध के कारण सूली पर चढ़ाया जाने वाला था। वीरवती को उसी का बड़ा रंज था और इसी से उसका चित्त चल-विचल हो रहा था। रात के समय जब सब घर के लोग सो गए तब वीरवती अकेली उठी और हाथ में एक तलवार लिए वहीं पहुँची जहाँ अपराधी सूली पर चढ़ाये जाते थे। इसे घर से निकलते समय सहस्रभट चोर ने देख लिया । वह यह देखने के लिए कि इतनी रात में यह अकेली कहाँ जाती है, उसके पीछे-पीछे हो गया। वीरवती को उसके पाँवों की आवाज से जान पड़ा कि उसके पीछे-पीछे कोई आ रहा है, पर रात अन्धेरी होने से वह उसे देख नसकी। तब उस दुष्टा ने अपनी हाथ की तलवार का एक वार पीछे की ओर किया । उससे बेचारे सहस्रभट की अँगुलियाँ कट गई। तलवार को झटका लगने से उसे और दृढ़ विश्वास हो गया कि कोई पीछे अवश्य आ रहा है। वह देखने के लिए खड़ी हो गई, पर उसे कुछ सफलता प्राप्त न हुई। सहस्रभट कुछ और पीछे हट गया। वह फिर आगे बढ़ी। पास ही सूली का स्थान उसे दिख पड़ा। वह पीछे आने वाले की बात भूलकर दौड़ी हुई अपने यार के पास पहुँची। उसे सूली पर चढ़ाये बहुत समय नहीं हुआ था, इसलिए उसकी अभी कुछ साँसें बाकी थी। वीरवती को देखते ही उसने कहा- प्रिये, यही मेरी और तुम्हारी अन्तिम भेंट है । मैं तुम्हारी ही आशा लगाये अब तक जी रहा हूँ, नहीं तो कभी का मरमिटा होता । अब देर न कर मुझ दुःखी को अन्तिम प्रेमालिंगन दे, सुखी करो और आओ, अपने मुख का पान मेरे मुख में देओ; जिससे मेरा जीवन जिसके लिए अब तक टिका है उस तुमसी सुन्दरी का आलिंगन कर शान्ति से परमधाम सिधारे । हाय ! इस काम को धिक्कार है, जो मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ भी इसे चाहता है ॥९-१५॥

वीरवती ने अपने यार को सूली पर से उतारने का कोई उपाय तत्काल न देखकर पास में पड़े हुए कुछ मुर्दों को इकट्ठा किया और उन्हें ऊपर तले रखकर वह उन पर चढ़ी और अपना मुँह उसके मुँह के पास ले जाकर बोली- प्रियतम, लो अपनी इच्छा पूरी करो । गारक ने वीरवती के मुँह का पान लेने के लिए उसके ओठों को अपने मुँह में लिया था कि कोई ऐसा धक्का लगा जिससे वीरवती के पाँव के नीचे का मुर्दों का ढेर खिसक जाने से वीरवती नीचे आ गिरी और उसका ओठ कट गया अपना ओठ देख कर घबरा गई और उस दुष्टा ने चालाकी से घर आकर शोर मचाने लगी कि दत्त ने मेरा ओठ काट लिया और साथ ही बड़े जोर से वह रोने लगी। उसी समय अड़ोस-पड़ोस और घर के लोगों ने आकर दत्त को बाँध लिया। सच है, पापिनी, कुलटा और अपने वंश का नाश करने वाली स्त्रियाँ क्या नीच कर्म नहीं कर सकतीं? ॥१६-२०॥

सबेरा हुआ। दत्त राजा के सामने उपस्थित किया गया। उसका क्या अपराध है और वह सच है या झूठ, इसकी कुछ विशेष तलाश न की जाकर एकदम उसके मारने का हुक्म दिया गया । पर यह सबको ध्यान में रखना चाहिए कि जब पुण्य का उदय होता है तब मृत्यु के समय भी रक्षा हो जाती है। पाठकों विनोदी सहस्रभट की याद होगी । यह वीरवती के अन्तिम कुकर्म तक उसके आगे पीछे उपस्थित रहा है। उसने सच्ची घटना अपनी आँखों से देखी है । वह इस समय यहीं उपस्थित था। राजा का दत्त के लिए मारने का हुक्म सुनकर उससे न रहा गया। उसने अपनी कुछ परवाह न कर सब सच्ची घटना राजा से कह सुनाई । राजा सुनकर दंग रह गया। उसने उसी समय अपने पहले हुक्म को रवकर निरपराध दत्त को रिहाई दी और वीरवती को उसके अपराध की उपयुक्त सजा दी। सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं। दुष्ट स्त्रियों का ऐसा घृणित और कलंकित चरित देखकर सबको उचित है कि वे दुःख देने वाले विषयों से अपनी सदा रक्षा करें ॥२१-२३॥

वे महात्मा धन्य है जो भगवान् के उपदेश किए हुए पवित्र शीलव्रत से विभूषित है, कामरूपी क्रूर हाथी को मारने के लिए सिंह है, विषयों को जिन्होंने जीत लिया है, ज्ञान, ध्यान, आत्मानुभव में जो सदा मग्न हैं, विषयभोगों से निरन्तर उदास हैं, भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने में जो सूर्य हैं और संसार समुद्र से पार करने में जो बड़े कर्मवीर खेवटिया हैं वे सबका कल्याण करें ॥२४॥

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