Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

१५. शिवभूति पुरोहित की कथा  (कुसंगति के फल की कथा)


admin

91 views

मैं संसार के हित करने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर दुर्जनों की संगति से जो दोष उत्पन्न होते हैं, उससे सम्बन्ध रखने वाली एक कथा लिखता हूँ, जिससे कि लोग दुर्जनों की संगति छोड़ने का यत्न करें ॥१॥

यह कथा उस समय की है, जब कि कौशाम्बी का राजा धनपाल था। धनपाल अच्छा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। शत्रु तो उसका नाम सुनकर काँपते थे । राजा के यहाँ एक पुरोहित था। उसका नाम था शिवभूति। वह पौराणिक अच्छा था ॥२-३॥

वहीं दो शूद्र रहते थे। उनके नाम कल्पपाल और पूर्णचन्द्र थे। उनके पास कुछ धन भी था। उनमें पूर्णचन्द्र की स्त्री का नाम था मणिप्रभा । उसके एक सुमित्रा नाम की लड़की थी । पूर्णचन्द्र ने उसके विवाह में अपने जातीय भाइयों को जिमाया और उसका राज पुरोहित से कुछ परिचय होने से उसने उसे भी निमंत्रित किया। पर पुरोहित महाराज ने उसमें यह बाधा दी कि भाई, तुम्हारा भोजन तो मैं नहीं कर सकता। तब कल्पपाल ने बीच में ही कहा-अस्तु । आप हमारे यहाँ का भोजन न करें। हम ब्राह्मणों के द्वारा आपके लिए भोजन तैयार करवा देंगे तब तो आपको कुछ उजर न होगा । पुरोहितजी आखिर थे तो ब्राह्मण ही न? जिनके विषय में यह नीति प्रसिद्ध है कि “असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः” अर्थात् लोभ में फँसकर ब्राह्मण नष्ट हुए । सो वे एक बार के भोजन का लोभ नहीं रोक सके। उन्होंने यह विचार कर, कि जब ब्राह्मण भोजन बनाने वाले हैं, तब तो कुछ नुकसान नहीं, उसका भोजन करना स्वीकार कर लिया। पर इस बात पर उन्होंने तनिक भी विचार नहीं किया कि ब्राह्मणों ने भोजन बना दिया तो हुआ क्या? आखिर पैसा तो उसका है और न जाने उसने कैसे-कैसे पापों द्वारा उसे कमाया है।

जो हो, नियमित समय पर भोजन तैयार हुआ । एक ओर पुरोहित देवता भोजन के लिए बैठे और दूसरी और पूर्णचन्द्र का परिवार वर्ग । इस जगह इतना और ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों का चौका अलग-अलग था। भोजन होने लगा। पुरोहित जी ने मन भर माल उड़ाया। मानों उन्हें कभी ऐसे भोजन का मौका ही नसीब नहीं हुआ था । पुरोहित जी को वहाँ भोजन करते हुए कुछ लोगों ने देख लिया। उन्होंने पुरोहित की शिकायत महाराज से कर दी । महाराज ने उसकी परीक्षा करने हेतु उसे वमन करवाया तब उसके अतिदुर्गंधित वमन से राजा कुपित हुआ । महाराज ने एक शूद्र के साथ भोजन करने वाले, वर्ण व्यवस्था को धूल में मिलाने वाले ब्राह्मण को अपने राज्य में रखना उचित न समझ देश से निकलवा दिया। सच है - " कुसंगो कष्टदो ध्रुवम् ” अर्थात् बुरी संगति दुःख देने वाली ही होती है। इसलिए अच्छे पुरुषों को उचित है कि वे बुरों की संगति न कर सज्जनों की संगति करें, जिससे वे अपने धर्म, कुल, मान-मर्यादा की रक्षा कर सकें ॥४-१७॥

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Guest
Add a comment...

×   Pasted as rich text.   Paste as plain text instead

  Only 75 emoji are allowed.

×   Your link has been automatically embedded.   Display as a link instead

×   Your previous content has been restored.   Clear editor

×   You cannot paste images directly. Upload or insert images from URL.

  • अपना अकाउंट बनाएं : लॉग इन करें

    • कमेंट करने के लिए लोग इन करें 
    • विद्यासागर.गुरु  वेबसाइट पर अकाउंट हैं तो लॉग इन विथ विद्यासागर.गुरु भी कर सकते हैं 
    • फेसबुक से भी लॉग इन किया जा सकता हैं 

     

×
×
  • Create New...