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30.देवरतिराजा की कथा


केवलज्ञान जिनका नेत्र है, उन जग पवित्र जिनभगवान् को नमस्कार कर देवरति नामक राजा का उपाख्यान लिखा जाता है, जो अयोध्या के स्वामी थे ॥१॥

अयोध्या नगरी के राजा देवरति थे । उनकी रानी का नाम रक्ता था । वह बहुत सुन्दरी थी राजा सदा उसी के नाद में लगे रहते थे। वे बड़े विषयी थे। शत्रु बाहर से आकर राज्य पर आक्रमण करते, उसकी भी उन्हें कुछ परवाह नहीं थी । राज्य की क्या दशा है, इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की । जो धर्म और अर्थ पुरुषार्थ को छोड़कर अनीति से केवल काम का सेवन करते हैं, सदा विषयवासना के ही दास बने रहते हैं, वे नियम में कष्टों को उठाते हैं । देवरति की भी यही दशा हुई। राज्य की ओर से उनकी यह उदासीनता मंत्रियों को बहुत बुरी लगी। उन्होंने राजकाम के सम्हालने की राजा से प्रार्थना की, पर उसका फल कुछ नहीं हुआ । यह देख मंत्रियों ने विचार कर देवरति के पुत्र जयसेन को तो अपना राजा नियुक्त किया और देवरति को उनकी रानी के साथ देश बाहर कर दिया। ऐसे काम को धिक्कार है, जिससे मान-मर्यादा धूल में मिल जाए और अपने को कष्ट सहना पड़े ॥२-५॥

देवरति अयोध्या से निकल कर एक भयानक वन में आए। रानी को भूख ने सताया, पास खाने को एक अन्न का कण तक नहीं । अब वे क्या करें? इधर जैसे-जैसे समय बीतने लगा, रानी भूख से बेचैन होने लगी। रानी की दशा देवरति से नहीं देखी गई और देख भी वे कैसे सकते थे। उसी के लिए तो अपना राजपाट तक उन्होंने छोड़ दिया था । आखिर उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने उसी समय अपनी जाँघ काटकर उसका मांस पकाया और रानी को खिलाकर उसकी भूख शान्त की और प्यास मिटाने के लिए उन्होंने अपनी भुजाओं का खून निकाला और उसे एक औषधि बता कर पिलाया। इसके बाद वे धीरे-धीरे यमुना के किनारे पर आ पहुँचे । देवरति ने रानी को तो एक झाड़ के नीचे बैठाया और आप भोजन सामग्री लेने को पास के एक गाँव में गए ॥६-९॥

यहाँ एक छोटा-सा पर बहुत ही सुन्दर बगीचा था। उसमें एक कोई अपंग मनुष्य चड़स खींचता हुआ और गा रहा था । उसकी आवाज बड़ी मधुर थीं । इसलिए उसका गाना बहुत मनोहारी और सुनने वालों को प्रिय लगता था । उसके गाने की मधुर आवाज रक्ता रानी के भी कानों से टकराई न जाने उसमें ऐसी कौन-सी मोहक - शक्ति थी, जो रानी को उसने उसी समय मोह लिया और ऐसा मोहा कि उसे अपने निजत्व से भी भुला दिया । रानी सब लाज शरम छोड़कर उस अपंग के पास गई और उससे अपनी पाप - वासना उसने प्रकट की। वह अपंग कोई ऐसा सुन्दर न था, पर रानी तो उस पर जी जान से न्यौछावर हो गई। सच है - “ काम ने देखे जात कुजात ।” राजरानी की पाप- वासना सुनकर वह घबराकर रानी से बोला- मैं एक भिखारी और आप राजरानी तब मेरी आपकी जोड़ी कहाँ? और मुझे आपके साथ देखकर क्या राजा साहब जीता छोड़ देंगे? मुझे आपके शूरवीर और तेजस्वी प्रियतम की सूरत देखकर कँपी छूटती है। आप मुझे क्षमा कीजिए। उत्तर में रानी महाशया ने कहा-इसकी तुम चिन्ता न करो। मैं उन्हें तो अभी ही परलोक पहुँचाये देती हूँ। सच है, दुराचारिणी स्त्रियाँ क्या-क्या अनर्थ नहीं कर डालती । ये तो इधर बातें कर रहे थे कि राजा भी इतने में भोजन लेकर आ गए। उन्हें दूर से देखते ही कुलटा रानी ने मायाचारी से रोना आरम्भ किया। राजा उसकी यह दशा देखकर आश्चर्य में आ गए। हाथ के भोजन को एक ओर पटककर वे रानी के पास दौड़े आकर बोले-प्रिये, प्रिये, कहो ! जल्दी कहो !! क्या हुआ ? क्या किसी ने तुम्हें कुछ कष्ट पहुँचाया? तुम क्यों रो रही हो? तुम्हारा आज अकस्मात् रोना देखकर मेरा सब धैर्य छूटा जाता है। बतलाओ, अपने रोने का कारण, जल्दी बतलाओ ? रानी एक लम्बी आह भरकर बोली- प्राणनाथ, आपके रहते मुझे कौन कष्ट पहुँचा सकता है? परन्तु मुझे किसी के कष्ट पहुँचाने से भी जितना दुःख नहीं होता उससे कहीं बढ़कर आज अपनी इस दशा का दुःख है। नाथ, आप जानते हैं आज आपकी जन्मगाँठ का दिन है। पर अत्यन्त दुःख है कि पापी दैव ने आज मुझे इस भिखारिणी की दशा में पहुँचा दिया। मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं । बतलाइए, मैं आज ऐसे उत्सव के दिन आपकी जन्मगाँठ का क्या उत्सव मनाऊँ? सच है नाथ, बिना पुण्य के जीवों को अथाह शोक - सागर में डूब जाना पड़ता है। रानी की प्रेम-भरी बातें सुनकर राजा का गला भर आया, आँखों से आँसू टपक पड़े। उन्होंने बड़े प्रेम से रानी के मुँह को चूमकर कहा-प्रिये, इसके लिए कोई चिन्ता की बात नहीं। कभी वह दिन भी आयेगा जिस दिन तुम अपनी कामनाओं को पूरी कर सकोगी और न भी आए तो क्या? जबकि तुम जैसी भाग्यशालिनी जिसकी प्रिया है उसे इस बात की कुछ परवाह भी नहीं है। जिसने अपनी प्रिया की सेवा के लिए अपना राजपाट तक तुच्छ समझा उसे ऐसी छोटी बातों का दुःख नहीं होता। उसे यदि दुःख होता है तो अपनी प्यारी को दुःखी देखकर प्रिये, इस शोक को छोड़ो । मेरे लिए तो तुम ही सब कुछ हो । हाय ! ऐसे निष्कपट प्रेम का बदला जान लेकर दिया जायेगा, इस बात की खबर या सम्भावना बेचारे रतिदेव को स्वप्न में भी नहीं थी । देव की विचित्र गति है ॥१०-१७॥

राजा के इस हार्दिक और सच्चे प्रेम का पापिनी रानी के पत्थर के हृदय पर जरा भी असर न हुआ। वह ऊपर से प्रेम बताकर बोली- अस्तु, नाथ! बात जो भी हो उसके लिए पछताना तो व्यर्थ ही है। पर तब भी मैं अपने चित्त को सन्तोषित करने को इस पवित्र फूल की माला द्वारा नाम मात्र के लिए कुछ करती हूँ। यह कहकर रानी ने अपने हाथ में जो फूल गूंथने की रस्सी थी, उससे राजा को बाँध दिया। बेचारा वह तब भी यही समझा कि रानी कोई जन्मगाँठ की विधि करती होगी और यही समझ उसने खूब मजबूत बाँधे जाने पर भी चूँ तक नहीं किया। जब राजा बाँध दिया गया और उसके प्राण निकलने का कोई भय नहीं रहा तब रानी ने इशारे से उस अपंग को बुलाया और उसकी सहायता से पास ही बहने वाली यमुना नदी के किनारे पर ले जाकर बड़े ऊँचे से राजा को नदी में ढकेल दिया और आप अब अपने दूसरे प्रियतम के पास रहकर अपनी नीच मनोवृत्तियों को सन्तुष्ट करने लगी। नीचता और कुलटापन की हद हो गई ॥ १८-१९॥

पुण्य का जब उदय होता है तब कोई कितना ही कष्ट क्यों न या कैसी ही भयंकर आपत्ति का क्यों न सामना करना पड़े। पर तब भी वह रक्षा पा जाता है। देवरति के भी कोई ऐसा पुण्ययोग था, जिससे रानी के नदी में डाल देने पर भी वह बच गया। कोई गहरी चोट उसके नहीं आई वह नदी से निकलकर आगे बढ़ा। धीरे-धीरे वह मंगलपुर नामक शहर के निकट आ पहुँचा। देवरति कई दिनों तक बराबर चलते रहने से बहुत थक गया था, उसे बीच में कोई अच्छी जगह विश्राम करने को नहीं मिली थी, इसलिए अपनी थकावट मिटाने के लिए वह एक छायादार वृक्ष के नीचे सो गया। मानों जैसे वह सुख देने वाले जैनधर्म की छत्रछाया में ही सोया हो ॥२०-२१॥

मंगलपुर का राजा श्रीवर्धन था उसके कोई सन्तान न थी । इसी समय उसकी मृत्यु हो गई। मंत्रियों ने यह विचार कर, कि पट्टहाथी को एक जलभरा घड़ा दिया जाकर वह छोड़ा गया और वह जिसका अभिषेक करे वही अपना राजा होगा, एक हाथी को छोड़ा । दैव की विचित्र लीला है, जो राजा है, उसे वह रंक बना देता है और जो रंक है, उसे संसार का चक्रवर्ती सम्राट् बना देता है। देवरति का दैव जब उसके विपरीत हुआ तब तो उसे उसने पथ-पथ का भिखारी बनाया और अनुकूल होने पर सब राज-योग मिला दिया। देवरति भर नींद में वृक्ष के नीचे सो रहा था। हाथी उधर ही पहुँचा और देवरति का उसने अभिषेक कर दिया । देवरति बड़े आनन्द-उत्साह के साथ शहर में लाया जाकर राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। सच है, पुण्य जब पल्ले में होता है तब आपत्तियाँ भी सुख के रूप में परिणत हो जाती हैं। इसलिए सुख की चाह करने वालों को भगवान् के उपदेश किए हुए मार्ग द्वारा पुण्य-कर्म करना चाहिए। भगवान् की पूजा, पात्रों को दान, व्रत, उपवास ये सब पुण्य-कर्म हैं। इन्हें सदा करते रहना चाहिए ॥२२-२४॥

देवरति फिर राजा हो गए। पर पहले और अब के राजापन में बहुत फर्क है। अब वे स्वयं सब राज-काज देखा करते हैं। पहले से अब उनकी परिणति में भी बहुत भेद पड़ गया हैं। जो बातें पहले उन्हें बहुत प्यारी थी और जिनके लिए उन्होंने राज्य-भ्रष्ट होना तक स्वीकार कर लिया था, अब वे बातें उन्हें अत्यन्त अप्रिय हो उठीं । अब वे स्त्री नाम से घृणा करते हैं । वे एक कुल कलंकिनी का बदला सारे संसार की स्त्रियों को कुल कलंकिनी कहकर लेते हैं । वे अब गुणवती स्त्रियों का भी मुँह देखना पसन्द नहीं करते । सच है, जो एक बार दुर्जनों द्वारा ठगा जाता है वह फिर अच्छे पुरुषों के साथ भी कैसा ही व्यवहार करने लगता है। गरम दूध का जला हुआ छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीता है। देवरति की भी अब विपरीत गति है । अब वे स्त्रियों को नहीं चाहते। वे सबको दान करते हैं, पर जो अपंग, लूला, लँगड़ा होता है उसे वे एक अन्न का कण तक देना पाप समझते हैं॥२५-२८॥

इधर रक्ता रानी ने बहुत दिनों तक तो वहीं रहकर मजामौज मारी और बाद में वह उस अपंग को एक टोकरे में रखकर देश-विदेश घूमने लगी। उस टोकरे को सिर पर रखे हुए वह जहाँ पहुँचती अपने को महासती जाहिर करती और कहती कि माता - पिता ने जिसके हाथ मुझे सौंपा वही मेरा प्राणनाथ है, देवता है। उसकी इस ठगाई से बेचारे लोग ठगे जाकर उसे खूब रुपया पैसा देते। इसी तरह भिक्षा-वृत्ति करती- करती रक्ता रानी मंगलपुर में आ निकली । वहाँ भी लोगों को उसके सतीत्व पर बड़ी श्रद्धा हो गई । हाँ सच है, जिन स्त्रियों ने ब्रह्मा, विष्णु, महादेव सरीखे देवताओं को भी ठग लिया, तब साधारण लोग उनके जाल में फँस जायें इसका आश्चर्य क्या? ॥२९-३२॥

एक दिन ये दोनों गाते राजमहल के सामने आए। इनके सुन्दर गाने को सुनकर ड्यौढ़ीवान् ने राजा से प्रार्थना की-महाराज, सिंहद्वार पर एक सती अपने अपंग पति को टोकरे में रखकर और उसे सिर पर उठाये खड़ी है। वे दोनों बड़ा ही सुन्दर गाना जानते हैं। महाराज का वे दर्शन करना चाहते हैं । आज्ञा हो तो मैं उन्हें भीतर आने दूँ। इसके साथ ही सभा में बैठे हुए और प्रतिष्ठित कर्मचारियों ने भी उनके देखने की इच्छा जाहिर की। राजा ने एक परदा डलवा कर उन्हें बुलवाने की आज्ञा की ॥३३-३५॥

सती सिर पर टोकरा लिए भीतर आई, उसने कुछ गाया । उसके गानों को सुनकर सब मुग्ध हो गए और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे । राजा ने उसकी आवाज सुनकर उसे पहचान लिया। उसने परदा हटवाकर कहा-अहा, सचमुच में यह महासती है। इसका सतीत्व मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ । इसके बाद ही उन्होंने अपनी सारी कथा सभा में प्रकट कर दी। लोग सुनकर दाँतों तले अँगुली दबा गए। उसी समय महासती रक्ता को शहर बाहर करने का हुक्म हुआ । देवरति को स्त्रियों का चरित देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने अपने पहले पुत्र जयसेन को अयोध्या से बुलवाया और उसे इस राज्य का भी मालिक बनाकर आप श्रीयमधराचार्य के पास जिनदीक्षा के लिए गए, जो कि अनेक सुखों की देने वाली हैं। साधु होकर देवरति ने खूब तपश्चर्या की, बहुतों को कल्याण का मार्ग बतलाया और अन्त में समाधि से शरीर त्याग कर वे स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों के धारक देव हुए ॥३६-४०॥

रक्तारानी सरीखी कुलटा स्त्रियों का घृणित चरित देखकर और संसार, शरीर, भोगादिकों को इन्द्र-धनुष की तरह क्षणिक समझकर जिन देवरति राजा ने जिनदीक्षा ग्रहण कर मुनिपद स्वीकार किया, वे गुणों के खजाने मुनिराज मुझे मोक्ष लक्ष्मी का स्वामी बनावें ॥४१॥

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