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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, पूज्य वर्णीजी की श्री कुण्डलपुरजी की वंदना के समय वीर प्रभु के सम्मुख प्रार्थना के उल्लेख की प्रस्तुती चल रहीं है। आप देखेंगे कि वर्णीजी की प्रस्तुत प्रार्थना में कितने सरल तरीके से जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन का विज्ञान प्रस्तुत हो रहा है। वर्णीजी के भावों व तत्व चिंतन को पढ़कर आपको लगेगा जैसे आपके अतःकरण की बहुत सारी जटिलताएँ समाप्त होती जा रही हैं। ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी? *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"* *क्रमांक - ३७* श्री भगवान उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग द्वेष नहीं है। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग द्वेष नहीं उनकी अपने भक्त की भलाई करने की बुद्धि नहीं हो सकती। वह देवेन्द्र ही क्या? फिर प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करने से क्या लाभ ? उनका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्ष के नीचे गया, उसको इस की आवश्यकता नहीं कि वृक्ष से याचना करे-हमें छाया दीजिए। वह तो स्वयं ही वृक्ष के नीचे बैठने से छाया का लाभ ले रहा है। एवं जो रुचि पूर्वक भी अरिहंत देव के गुणों का स्मरण करता है उसके मंद कषाय होने से स्वयं शुभोपयोग होता है और उसके प्रभाव से स्वयं शांति का लाभ होने लगता है। ऐसा निमित्त नैमत्तिक संबंध बन रहा है। परंतु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्ष की छाया। वास्तव में छाया तो वृक्ष की नहीं, सूर्य की किरणों का वृक्ष के द्वारा रोध होने से वृक्ष तल में स्वयमेव छाया हो जाती है। एवं श्री भगवान के गुणों का रुचि पूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवों के शुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है, फिर भी व्यवहार में ऐसा कथन होता है कि भगवान ने शुभ परिणाम कर दिए। भगवान को पतित पावन कहते हैं अर्थात जो पापियों का उद्धार करे वह पतित पावन है। यह कथन भी निमित्त कारण की अपेक्षा है। निमित्तकारणों में भी उदासीन निमित्त हैं प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण होता है। एवं जो जीव पतित है वह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान निमित्त हैं। यदि वह शुभ परिणाम न करे तो वह निमित्त नहीं। वस्तु की मार्यादा यही है परंतु से कथन शैली नाना प्रकार की है। 'यथा कुल दीपकोयं बालकः, 'माणवकः सिंहः'। विशेष कहाँ तक लिखें? आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। वह मोहकर्म के निमित्त से विकास को प्राप्त नहीं होती। मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनाएँ वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत है परंतु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं। ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*? ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल१२
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३६ ? *उपवास तथा महराज के विचार* सन १९५८ के व्रतों में १०८ नेमिसागर महराज के लगभग दस हजार उपवास पूर्ण हुए थे और चौदह सौ बावन गणधर संबंधी उपवास करने की प्रतिज्ञा उन्होंने ली। महराज ! लगभग दस हजार उपवास करने रूप अनुपम तपः साधना करने से आपके विशुद्ध ह्रदय में भारत देश का भविष्य कैसा नजर आता है? देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल, अंनाभाव आदि के कष्टों का अनुभव कर रहा है। महराज नेमिसागर जी ने कहा- "जब भारत पराधीन था, उस समय की अपेक्षा स्वतंत्र भारत में जीववध, मांसाहार आदि तामसिक कार्य बड़े वेग से बढ़ रहे हैं। इनका ही दुष्परिणाम अनेक कष्टों का आविर्भाव तथा उनकी वृद्धि है।" ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का*? ?आजकी तिथी - वैशाख कृष्ण १?
  3. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागर जी महराज का श्रमण संस्कृति में इतना उपकार है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। उनके उपकार का निर्ग्रन्थ ही कुछ अंशों में वर्णन कर सकते हैं। पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने श्रमण संस्कृति का मूल स्वरूप मुनि परम्परा को देशकाल में हुए उपसर्गों के उपरांत पुनः जीवंत किया था। यह बात लंबे समय से उनके जीवन चरित्र को पढ़कर हम जान रहे हैं। आज का भी प्रसंग उसी बात की पुष्टि करता है। *? अमृत माँ जिनवाणी से- ३३५ ?* *"देहली चातुर्मास की घटना*" पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज ने देहली चातुर्मास की एक बात पर इस प्रकार प्रकाश डाला था- "देहली में संघ का चातुर्मास हो रहा था। उस समय नगर के प्रमुख जैन वकील ने संघ के नगर में घूमने की सरकारी आज्ञा प्राप्त की थी। उसमें नई दिल्ली, लालकिला, जामा मस्जिद, वायसराय भवन आदि कुछ स्थानों पर जाने की रोक थी। जब आचार्य महराज को यह हाल विदित हुआ, तब उनकी आज्ञानुसार मैं, चंद्रसागर, वीरसागर उन स्थानों पर गए थे, जहाँ गमन के लिए रोक लगा दी गई थी। आचार्य महराज ने कह दिया था कि जहाँ भी विहार में रोक आवे, तुम वहीं बैठ जाना। हम सर्व स्थानों पर गए। कोई रोक-टोक नहीं हुई। उन स्थानों पर पहुँचने के उपरांत फोटो उतारी गई थी, जिससे यह प्रमाणित होता था कि उन स्थानों पर दिगम्बर मुनि का विहार हो चुका हैं।" नेमीसागर महराज ने बम्बई में उन स्थानों पर भी विहार किया है, जहाँ मुनियों के विहार को लोग असंभव मानते थे। हाईकोर्ट, समुद्र के किनारे जहाँ जहाजों से माल आता जाता है। ऐसे प्रमुख केन्दों पर भी नेमीसागर महराज गए, इसके चित्र भी खिचें हैं। इनके द्वारा दिगम्बर जैन मुनिराज के सर्वत्र विहार का अधिकार स्पष्ट सूचित होता है। साधुओं की निर्भीकता पर भी प्रकाश पड़ता है। ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का*? ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल पूर्णिमा?
  4. ? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३४* ? *"घुटनों के बल पर आसान"* नेमीसागर महराज घुटनों के बल पर खड़े होकर आसान लगाने में प्रसिद्ध रहे हैं। मैंने पूंछा- "इससे क्या लाभ होता है?" उन्होंने बताया - "इस आसान के लिए विशेष एकाग्रता लगती है। इससे मन का निरोध होता है। बिना एकाग्रता के यह आसन नहीं बनता है। इसे "गोड़ासन" कहते हैं। इससे मन इधर उधर नहीं जाता है और कायक्लेश तप भी पलता है। दस बारह वर्ष पर्यन्त मैं वह आसन सदा करता था, अब वृद्ध शरीर हो जाने से उसे करने में कठिनता का अनुभव होता है।" मैंने पूंछा- "महराज ! गोड़ासन करते समय घुटने के नीचे कोई कोमल चीज आवश्यक है या नहीं?" वे बोले- "मैं कठोर चट्टान पर भी आसन लगाकर जाप करता था। भयंकर से भयंकर गर्मी में भी गोड़ासन पाषाण पर लगाकर सामयिक करता था। मेरे साथी अनेक लोगों ने इस आसन का उद्योग किया, किन्तु वे सफल नहीं हुए।" ध्यान के लिए सामान्यतः पद्मासन, पल्यंकासन और कायोत्सर्ग आसन योग्य हैं। अन्य प्रकार का आसन कायक्लेश रूप है। गोड़ासन करने की प्रारम्भ की अवस्था में घटनों में फफोले उठ आए थे। मैं उनको दबाकर बराबर अपना आसन का कार्य जारी रखता था।" ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का* ? ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल त्रयोदशी?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३३ ? *"सर्वप्रथम ऐलक शिष्य"* पूज्य शान्तिसागर जी महराज के सुशिष्य नेमीसागर जी महराज ने बताया कि- "आचार्य महराज जब गोकाक पहुँचे तब वहाँ मैंने और पायसागर ने एक साथ ऐलक दीक्षा महराज से ली। उस समय आचार्य महराज ने मेरे मस्तक पर पहले बीजाक्षर लिखे थे। मेरे पश्चात पायसागर के दीक्षा के संस्कार हुए थे। *"समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा*" "दीक्षा के दस माह बाद मैंने समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी। वहाँ आचार्य महराज ने पहले वीरसागर के मस्तक पर बीजाक्षर लिखे थे, पश्चात मेरे मस्तक पर लिखे थे। इस प्रकार मेरी और वीरसागर की समडोली में एक साथ मुनि दीक्षा हुई थी। वहाँ चंद्रसागर ऐलक बने थे।" *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?* ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल द्वादशी?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३२ ? *पिताजी से चर्चा* पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज द्वारा उनके मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति का वृतांत ज्ञात हुआ। गृहस्थ जीवन के बारे में उन्होंने बताया कि- "एक दिन मैंने अपने पिताजी से कुड़ची में कहा- "मैं चातुर्मास में महराज के पास जाना चाहता हूँ।" वे बोले -"तू चातुर्मास में उनके समीप जाता है, अब क्या वापिस आएगा? "पिताजी मेरे जीवन को देख चुके थे, इससे उनका चित्त कहता था कि आचार्य महराज का महान व्यक्तित्व मुझे सन्यासी बनाए बिना नहीं रहेगा। यथार्थ में हुआ भी ऐसा।" *जीवनधारा में परिवर्तन* "चार माह के सत्संग ने मेरी जीवन धारा बदल दी। मैंने महराज से कहा- "महराज ! मेरे दीक्षा लेने के भाव हैं। अपने कुटुम्ब से परवानगी लेने का विचार नहीं है। घर वाले कैसे मंजूरी देंगे? मुफ्त में नौकर मिलता है, जो कुटुम्ब की सेवा करता रहता है, तब फिर परवानगी कौन देगा?" महराज ने कहा- "ऐसा शास्त्र में कहा है कि आत्मकल्याण के हेतु आज्ञा प्राप्त करना परम आवश्यक नहीं है।" "नेमीसागर जी ने बताया कि मेरे दीक्षा लेने के भाव अठारह वर्ष की अवस्था में ही उत्पन्न हो चुके थे। उसके पूर्व की मेरी कथा विचित्र थी।" यह कथा प्रसंग क्रमांक ३३० में भेजी गई थी। पुनः प्रेषित करता हूँ?? *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?* ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल ११?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३१ ? *परिचय* पंडित श्री दिवाकर जी ने लिखा कि पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री १०८ नेमीसागर जी महराज महान तपस्वी हैं। नेमीसागर जी महराज ने बताया कि "हमारा और आचार्य महराज का ५० वर्ष पर्यन्त साथ रहा। चालीस वर्ष के मुनिजीवन के पूर्व मैंने गृहस्थ अवस्था में भी उनके सत्संग का लाभ लिया था। आचार्य महराज कोन्नूर में विराजमान थे। वे मुझसे कहते थे- "तुम शास्त्र पढ़ा करो। मैं उनका भाव लोगों को समझाऊँगा।" वे मुझे और बंडू को शास्त्र पढ़ने को कहते थे। मैं पाँच कक्षा तक पढ़ा था। मुझे भाषण देना नहीं आता था। शास्त्र बराबर पढ़ लेता था, इससे महराज मुझे शास्त्र बाचने को कहते थे। मेरे तथा बंडू के शास्त्र बाँचने पर जो महराज का उपदेश होता था, उससे मन को बहुत शांति मिलती थी। अज्ञान भाव दूर होता था। ह्रदय के कपाट खुल जाते थे। उनका सत्संग मेरे मन में मुनि बनने का उत्साह प्रदान करता था। मेरा पूरा झुकाव गृह त्यागकर साधु बनने का हो गया था।" *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?* ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल दशमी?
  8. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, कल से हमने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य महान तपस्वी नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र को जानना प्रारम्भ किया था। आज के प्रसंग को जानकर हम सभी को ज्ञात होगा कि जीव कैसे-कैसे वातावरण से निकल कर मोक्ष मार्ग में लग सकता है। ? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३०* ? *"पूर्व जीवन में मुस्लिम प्रभाव"* पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज का पूर्व जीवन सचमुच में आश्चर्यप्रद था। उन्होंने यह बात बताई थी - "मैं अपने निवास स्थान कुड़ची ग्राम में मुसलमानों का स्नेह पात्र था। मैं मुस्लिम दरगाह में जाकर पैर पड़ा करता था। सोलह वर्ष की अवस्था तक मैं वहाँ जाकर उदबत्ती जलाता था। शक्कर चढ़ाता था।" "जब मुझे अपने धर्म की महिमा का ज्ञान हुआ, तब मैंने दरगाह आदि की तरफ जाना बंद कर दिया। मेरा परिवर्तन मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। वे लोग मेरे विरुद्ध हो गए और मुझे मारने का विचार करने लगे।" *"ऐनापुर में स्थान परिवर्तन*" "ऐसी स्थिति में अपनी धर्म-भावना के रक्षण के निमित्त मैं कुचडी से चार मील की दूरी पर स्थित ऐनापुर ग्राम में चला गया। वहाँ के पाटील की धर्म में रुचि थी। वह हम पर बहुत प्यार करता था। इससे मैंने ऐनापुर में ही रहना ठीक समझा।" *? स्वाध्याय चा.चक्रवर्ती ग्रंथ का ?* ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल नवमी?
  9. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के जीवन चरित्र की प्रस्तुती की इस श्रृंखला में प्रस्तुत किए शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागर जी महराज के जीवन चरित्र को सभी ने बहुत ही पसंद किया तथा सभी के जीवन को प्रेरणादायी जाना। आज से पूज्य पायसागर जी महराज की भांति आश्चर्य जनक जीवन चरित्र के धारक पूज्य नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र की कुछ प्रसंगों में प्रस्तुती की जायेगी। *? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२९ ?* *"जीवन में उपवास साधना"* पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य पूज्य नेमीसागर जी महराज के दीक्षा के ४४ वर्ष ही हो गए एक उपवास, एक आहार का क्रम प्रारम्भ से चलता आ रहा है। इस प्रकार उनका नर जन्म का समय उपवासों में व्यतीत हुआ। उन्होंने तीस चौबीसी व्रत के ७२० उपवास किए। कर्मदहन के १५६ तथा चारित्रशुद्धि व्रत के १२३४ उपवास किए। दशलक्षण के ५ बार १०-१० उपवास किये। अष्टान्हिका में तीन बार ८-८ उपवास किए। लोणंद में महराज नेमीसागर ने सोलहकारण के १६ उपवास किए थे। इस प्रकार उनकी तपस्या अद्भुत रही है। २, ३, ४ उपवास तो वह जब चाहे तब करते थे। *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?* ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल अष्टमी?
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२८ ? *"नवधा भक्ति का कारण"* आचार शास्त्र पर पूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी महराज का असाधारण अधिकार था, यही कारण है कि सभी उच्च श्रेणी के विद्वान आचार शास्त्र की शंकाओं का समाधान आचार्य महराज से प्राप्त करते थे। आचार्यश्री की सेवा में रहने से अनेक महत्व की बातें ज्ञात हुआ करती थी। शास्त्र में कथित नवधा-भक्ति के संबंध में आचार्यश्री ने कहा था- "नवधा भक्ति अभिमान-पोषण के हेतु नहीं है। वह धर्म रक्षण के लिए है। उससे जैनी की परीक्षा होती है। अन्य लोग धोखा नहीं दे सकते हैं।" *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?* ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल ७?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२७ ? *शरीरविस्मृति* सन् १९५२ के आरम्भ में पूज्य आचार्य महराज शान्तिसागर जी महराज दहीगाँव नाम के तीर्थक्षेत्र में विराजमान थे। एक दिन वहाँ के मंदिर से दूसरी जगह जाते हुए उनका पैर ठीक सीढ़ी पर न पड़ा, इसलिए वे जमीन पर गिर पड़े। यह तो बड़े पुण्य की बात थी कि वह प्राण लेने वाली दुर्घटना एक पैर में गहरा घाव ही दे पाई। महराज के पैर में डेढ़ इंच गहरा घाव हो गया, जिसमें एक बादाम सहज ही समा सकती थी। उस स्थिति में महराज ने पैर में किसी प्रकार की पट्टी वगैरह नहीं बंधवाई, एक साधारण सी निर्दोष औषधि पैर में लगती थी। उनके पास सिवनी से दो व्यक्ति दर्शनार्थ पहुँचे थे। उन्होंने आकर हमें सुनाया कि महराज के पास हमें तीन चार घंटे रहने का सौभाग्य मिला था। उस समय हम लोगों ने यह विलक्षण बात देखी कि पैर में भयंकर चोट होते हुए भी उन्होंने हमारे सामने एक बार भी अपने पैर के घाव की ओर दृष्टि नहीं दी। उनकी शरीर के प्रति कितनी निर्ममता थी इसका ज्ञान उनके पैर के घाव के प्रति उपेक्षा भाव से स्पष्ट होता था। *?स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
  12. *? आज ज्ञान कल्याणक पर्व है ?* जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज ११ नवंबर दिन शुक्रवार, कार्तिक शुक्ल ग्यारस की शुभ तिथी को १८ वें तीर्थंकर *देवादिदेव श्री १००८ अरहनाथ भगवान* का *ज्ञान कल्याणक* पर्व है। ?? आज अत्यंत भक्तिभाव से अरहनाथ भगवान की पूजन कर भगवान का गर्भ कल्याणक पर्व मनाएँ। ?? जो श्रावक पंचकल्याणक के व्रत करते हैं कल उनके व्रत का दिन है। *?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??*
  13. *? आज गर्भ कल्याणक पर्व है ?* जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज ६ नवंबर दिन रविवार, कार्तिक शुक्ल छठवी की शुभ तिथी को २२ वें तीर्थंकर *देवादिदेव श्री १००८ नेमिनाथ भगवान* का *गर्भ कल्याणक* पर्व है। ?? आज अत्यंत भक्तिभाव से नेमिनाथ भगवान की पूजन कर भगवान का गर्भ कल्याणक पर्व मनाएँ। ?? जो श्रावक पंचकल्याणक के व्रत करते हैं कल उनके व्रत का दिन है। *?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??*
  14. *? आज मोक्षसप्तमी पर्व है। ?* जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज ९ अगस्त, दिन मंगलवार, श्रावण शुक्ल सप्तमी की शुभ तिथी को २३ वे तीर्थंकर *देवादिदेव श्री १००८ पार्श्वनाथ भगवान* का *मोक्ष कल्याणक* पर्व है ?? इस अवसर पर हम सभी को अपने भी निर्वाण की भावना के साथ भगवान पार्श्वनाथ की पूजन अत्यंत भक्ति भाव से *निर्वाण लाडू* चढ़ाकर करना चाहिए। ? इस अवसर पर हम सभी को पार्श्वनाथ भगवान के श्री चरणों में यही भावना करना चाहिए कि हे भगवन जिस तरह आपके जीव ने अहिंसा व्रतों को धारण कर विशेष पुरुषार्थ द्वारा वीतराग अवस्था को प्राप्त किया एवं तदनंतर उत्कृष्ट सुख को प्राप्त किया उसी तरह हम भी अहिंसा व्रतों को धारण कर शीघ्र ही अपना कल्याण करें। ?? भगवान के निर्वाण कल्याणक आदि विशेष पर्वों को सभी जगह की जैन समाज को अपने-२ शहर में सामूहिक रूप से विशेष प्रभावना के साथ मनाना चाहिए। ?????????? हम पार्श्व के हैं भक्त निशदिन, पार्श्व को ही पूजते। आप बिन हे नाथ हमरे, पाप् कैसे धूजते।। यह सत्य है कि दस भवों तक, आप समता धारते। सर्व विधि को नाथ करके, मोक्ष पहुँचे पार है।। ?????????? ??पार्श्वनाथ भगवान की जय?? ??निर्वाणस्थल सुवर्णभद्रकूट की जय?? ??निर्वाण भूमि शिखरजी की जय?? ☀ पार्श्वनाथ भगवान के मोक्ष कल्याणक के इस विशेष अवसर पर अनेकों श्रावक उपवास रखते हैं। उपवास रखने वाले सभी श्रावक के धर्म-ध्यान के इस पुरुषार्थ की ह्रदय से अनुमोदना। *??आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ??*
  15. *? कल अष्टमी पर्व है ?* जय जिनेन्द्र बंधुओ, कल २७ जुलाई, दिन बुधवार को अष्टमी पर्व है। ?? कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें। ?? जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए। ?? इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए। ?? जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है। ?? इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए। ☀ इस दिन धर्म करने से विशेषरूप से अशुभ कर्मो का नाश होता है। ☀ अपकी संतान को लौकिक शिक्षा के समान ही धर्म की शिक्षा जरुरी है।अपने बच्चों को पाठशाला भेजें।क्योकि धार्मिक शिक्षा वर्तमान में उनको तनाव मुक्त जीवन व् शांति प्रदान करेगी ही साथ ही भविष्य में नरक,तिर्यन्च आदि अधोगतियों से बचायगी। ? *तिथी* - श्रावक कृष्ण अष्टमी। *?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??* *"मातृ भाषा अपनाएँ, संस्कृती बचाएँ"* ☀ इस तरह की सूचनाओं को आप भी अन्य श्रावकों को प्रेषित कर पुण्य के भागीदारी बन सकते हैं।
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२६ ? "पथ प्रदर्शक" कल के प्रसंग के माध्यम से हमने जाना कि पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी महराज के प्रारंभिक जीवन में किन ग्रंथो का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा था। दिवाकर जी जिज्ञासा पर पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने कहा, "शास्त्रों में स्वयं कल्याण नहीं है। वे तो कल्याण के पथ प्रदर्शक हैं। देखो ! सड़क पर कहीं खम्भा गड़ा रहता है, वह मार्गदर्शन कराता है। इष्ट स्थान पर जाने को तुम्हें पैर बढ़ाना होगा। वासनाओं की दासता का त्याग ही कल्याणजनक है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - आषाढ़ शुक्ल ५?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२५ ? "किन ग्रंथों का प्रभाव पढ़ा" एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा, "महराज ! प्रारम्भ में कौन से शास्त्र आपको विशेष प्रिय लगते थे और किन ग्रंथो ने आपके जीवन को विशेष प्रभावित किया? महराज ने कहा, "जब हम पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब हिन्दी में समयसार तथा आत्मानुशासन बांचा करते थे। हिन्दी रत्नकरंडश्रावकाचार की टीका भी पढ़ते थे। इससे मन को बड़ी शांति मिलती थी। आत्मानुशासन पढ़ने से मन में वैराग्य भाव बढ़ता था। इसमें वैराग्य तथा स्त्रीसुख से विरक्ति का अच्छा वर्णन है। इससे हमारा मन त्याग की ओर बढ़ता था। इरादा १७-१८ वर्ष की अवस्था से ही मुनि बनने का था।" महराज ने यह भी बताया कि आत्मानुशासन की चर्चा अपने श्रेष्ट सत्यव्रती मित्र रुद्रप्पा नामक लिंगायत बंधु से किया करते थे। इन दोनो महापुरुषों का परस्पर में तत्व विचार चला करता था। महराज ने कहा था कि "आत्मानुशासन की कथा रुद्रप्पा को बड़ी प्रिय लगती थी।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आजकी तिथी - आषाढ़ शुक्ल ४?
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२४ ? "बालकों पर प्रेम" वीतराग की सजीव मूर्ति होते हुए आचार्यश्री में अपार वात्सल्य पाया जाता था। लगभग १९३८ के भाद्रपद की बात है। उस समय महराज ने बारामती में सेठ रामचंद्र के उद्यान में चातुर्मास किया था। एक दिन अपरान्ह में महराज का केशलोंच हो रहा था। उनके समीप एक छोटा तीन वर्ष की अवस्था वाला स्वस्थ सुरूप तथा नग्न मुद्रा वाला बालक महराज को केशलोंच करते देखकर नकल करने वाले बंदर के समान अपने बालों को पकड़कर धीरे-२ खीचता था। उस बालक को देखकर महराज का मुख सस्मित हो गया और उन्होंने सहज आशीर्वाद दे उसके सिर पर अपनी पिच्छी से स्पर्श कर दिया। लौंच के उपरांत जब महराज का मौन खुला, तब मैंने महराज से पूंछा- "महराज इस बालक के मस्तक पर आपने पिच्छी का स्पर्श क्यों करा दिया?" जब वे कुछ न बोले, तब मैंने कहा - "महराज ! मुनिपद को बालकवत निर्विकार कहा गया है। अपने पक्षवालों को देखकर किसे प्रेम उत्पन्न नहीं होता है। प्रतीत होता है, इसी कारण उस बालक पर आपका वात्सल्य जागृत हो गया?" महराज के सस्मित मुख से प्रतीत होता है कि मौन द्वारा मेरा समर्थन किया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी- आषाढ़ शुक्ल ३?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२३ ? "विवेकशून्य भक्ति" बारामती में एक धुरंधर शास्त्री आए। उन्होंने महराज के चरणों में पुष्प रख दिया। महराज ने पूंछा, "यह क्या किया?" वे बोले- "महराज देव, गुरु, शास्त्र समान रूप से पूज्यनीय हैं। देव की पुष्प से पूजा के समान आपकी चरणपूजा की है। महराज ने कहा ऐसा करोगे तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा, भगवान के अभिषेक के समान शास्त्र का अभिषेक नहीं किया जाता है। हर एक बात की मर्यादा होती है।" अपने वचन के पोषनार्थ में पुनः शास्त्री जी ने पूंछा, "महराज चरणों में पुष्प रखने से क्या बाधा हो गई?" महराज ने कहा -"शरीर की उष्णता से जीवों का प्राणघात हो जायेगा, अतः ऐंसा नहीं करना चाहिए।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२२ ? "निवासकाल" नीरा में जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद कापड़िया ने "दिगम्बर जैन" का 'त्याग' विशेषांक पूज्यश्री को समर्पित किया। उस समय आचार्य महराज पूना के समीपस्थ नीरा स्टेशन के पास दूर एक कुटी में विराजमान थे। कुछ समय के बाद पूज्यश्री का आहार हुआ। पश्चात आचार्य महराज सामायिक को जा रहे थे। संपादकजी तथा संवाददाता महाशय महराज की सेवा में आये। कापढ़िया ने पूंछा- "महराज आप अभी यहाँ कब तक हैं?" महराज ने कहा- "हमें नहीं मालूम। सामायिक तक तो यहाँ ही हैं। आगे का क्या निश्चित ?" जैनमित्र संपादक ने कहा- "महराज ! हमे अभी रेल से जाना है।" महराज ने कहा- "तुमको इतनी जल्दी क्या है?" उन्होंने कहा- "महराज अभी फुरसत नहीं है।" महराज ने पूंछा- "फुरसत कब मिलेगी कापडिया ! तुम इतने वृध्द हो गए। अब कब फुरसत मिलेगी? इस प्रश्न का उत्तर वे या हम सभी क्या देंगे? परिग्रह की आराधना में निमग्न सारे संसार के समक्ष आचार्य देव का यह महान प्रश्न है- "अब कब फुरसत मिलेगी?" महराज ने बताया था- "एक व्यक्ति ने हमें आहार दिया। हम सामायिक को बैठ गए। सामायिक पूर्ण होने पर हमें यह खबर दी गई कि आपको आहार देने वाले उन व्यक्ति का प्राणांत हो गया।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - वैशाख शुक्ल ११?
  21. आज १६ मई, दिन सोमवार, वैशाख शुक्ल दशमी की शुभ तिथी की शुभ तिथी को २४ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ महावीर भगवान का ज्ञानकल्याणक पर्व है।
  22. ? कल अष्टमी पर्व ? जय जिनेन्द्र बंधुओ, कल १४ मई, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है। ?? कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें। ?? जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए। ?? इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए। ?? जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है। ?? इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए। ☀ इस दिन धर्म करने से विशेषरूप से अशुभ कर्मो का नाश होता है। ☀ अपकी संतान को लौकिक शिक्षा के समान ही धर्म की शिक्षा जरुरी है।अपने बच्चों को पाठशाला भेजें।क्योकि धार्मिक शिक्षा वर्तमान में उनको तनाव मुक्त जीवन व् शांति प्रदान करेगी ही साथ ही भविष्य में नरक,तिर्यन्च आदि अधोगतियों से बचायगी। ?तिथी - वैशाख शुक्ल अष्टमी। ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ?? ☀ इस तरह की सूचनाओं को आप भी अन्य श्रावकों को प्रेषित कर पुण्य के भागीदारी बन सकते हैं।
  23. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें। ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१ ? "महत्वपूर्ण शंका समाधान" अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?" महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह सात धातु-उपधातु रूप बनता है। पेट में दूध का कोठा तथा मल-मूत्र का कोठा जुदा-२ है। दूध में रक्त, मांस का भी संबंध नहीं है। इससे दुग्धपान करने में मल मूत्र का संबंध नहीं है।" इसके पश्चात महराज ने पूंछा,"यह बताओ की तालाब, नदी आदि में मगर, मछली आदि जलचर जीव रहते हैं या नहीं?" प्रोफेसर,"हाँ ! महराज वे रहते हैं, वह तो उनका घर ही है।" महराज, "अब विचारो जिस जल में मछली आदि, आदि मल मूत्र मिश्रित रहता है, उसे आप पवित्र मानते हुए पीते हो, और जिसका कोठा अलग रहता है, उस दूध को अपवित्र कहते हो, यह न्यायोचित बात नहीं है। इसके पश्चात महराज ने कहा, "हम लोग तो पानी छानते हैं, किन्तु जो बिना छना पानी पीते हैं, उनके पीने में मलादि का उपयोग हो जाता है।" यह सुनते ही वे विद्वान चुप हो गए। संदेह का शल्य निकल जाने से मन को बड़ा संतोष होता है। पुनः महराज ने यह भी कहा, "जो यह सोचते हैं कि गाय का दूध उसके बछड़े के लिए ही होता है, वह भी दोषपूर्ण कथन है। गाय के अंदर बच्चे की आवश्यकता से अधिक दूध होता है।" आचार्यश्री की इस अनुभव उक्ति से उन पठित पुरुषों की भ्रांति दूर हो जाती है, जिन्होंने दूध ग्रहण को सर्वथा क्रूरता पूर्ण समझ रखा है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - वैशाख शुक्ल ३?
  24. ? कल अक्षय तृतीया पर्व है ? जय जिनेन्द्र बंधुओ, कल ९ मई, वैशाख शुक्ल तृतीया को "दान तीर्थ प्रवर्तन" पर्व अक्षय तृतीया है। आज की तिथी को राजा श्रेयांस ने प्रथम तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ ऋषभनाथ भगवान को मुनि अवस्था में आहार दान देकर, हम सभी श्रावकों के अतिशय पुण्योपार्जन का कारण आहार दान की विधी का सभी को ज्ञान कराया था। हम श्रावक मुनिराज को आहार दान देकर गृहस्थ कार्यों में लगे दोषों की निर्वृत्ति करते हैं। इस विशेष अवसर पर मुनि महराज को आहार दान देना चाहिए तथा उनकी वैयावृत्ति करना चाहिए।
  25. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, पूज्य शान्तिसागरजी महराज का सर्वत्र विहार आप सभी सामान्य दृष्टि से देख रहे होंगे। उस समय पूज्यश्री का विहार एक सामान्य बात नहीं थी क्योंकि उस समय भी देश परतंत्र ही था, ऐसी स्थिति में भी सन १९३१ में देश की राजधानी दिल्ली में चातुर्मास एक विशेष ही बात थी। उस समय परतंत्रता के समय में देश के केंद्र राजधानी दिल्ली में चातुर्मास पूज्य आचार्यश्री के दिगम्बरत्व को पुनः सर्वत्र प्रचारित होने की भावना का परिचायक है। और देश में सर्वत्र उनका अत्यंत प्रभावना के साथ निर्विध्न विहार उनके संयम और तपश्चरण का ही प्रभाव था। ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१९ ? "दिल्ली चातुर्मास" दिल्ली आगमन के उपरांत पूज्य शान्तिसागरजी महराज का हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान हुआ। वहाँ अनेक स्थानों के भव्य जीवों का कल्याण करते हुए दिल्ली समाज के सौभाग्य से पुनः संघ का वहाँ आगमन हुआ। पूज्यश्री ने ससंघ राजधानी में ही चातुर्मास करने का निश्चय किया। संघ का निवास दरियागंज में हुआ था। पहले गुरुदेव के वियोग से जिन लोगों को संताप पहुँचा था, उनके आनंद का पारावार न रहा जब उनको ज्ञात हुआ कि अब दिल्ली का भाग्य पुनः जग गया, जहाँ ऐसे मुनिराज का चार माह तक धर्मोपदेश होगा। लोगों के मन में आशंका होती थी कि अंग्रेजों का राज्य है, कही राजधानी में मुनि विहार पर प्रतिबंध न आ जावे, किन्तु आचार्यश्री के सामने भय का नाम नहीं था। वे तो पूर्णतः निर्भय हैं। जो मृत्यु से भी सदा झूजने को तैयार रहते रहे हैं। उनको किस बात का डर होगा। ?समस्त देहली में दिगम्बर मुनियों का स्वतंत्र विहार? मुनि संघ दरियागंज में स्थित था, किन्तु संघ के साधु आहार के लिए दिल्ली शहर के मुख्य-मुख्य राजपत्रों से आया जाया करते थे। कहीं कोई भी रोक टोक नहीं हुई। यह उनके तप का महान तेज था, जो उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ निर्विघ्न रीति से भारत की राजधानी में भ्रमण करता रहा। बड़े-बड़े राज्याधिकारी, न्यायाधीश आदि महराज के दर्शन करके अपने को धन्य मानते थे। दिगम्बर मुनियों का विहार न होने से कई लोगों को दिगम्बरत्व यथार्थ में 'अंधे की टेढ़ी खीर' जैसी समस्या बन जाया करता है, किन्तु किन्तु प्रत्यक्ष परिचय में आने वाले लोगों को वे परमाराध्य, सर्वदा, वंदनीय और मुक्ति का अनन्य उपाय प्रतीत होते हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आजकी तिथी - वैशाख शुक्ल २? ☀ कल दान तीर्थ प्रवर्तन पर्व "अक्षय तृतीया पर्व" है। अक्षय तृतीया ही वह विशेष तिथी थी जिसमें हम सभी श्रावकों को मुनियों को आहार दान द्वारा अतिशय पुण्योपर्जन की विधी का ज्ञान हुआ था। इस विशेष पर्व को मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान तथा वैयावृत्ति करके मनाना चाहिए।
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