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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ☀ बंधुओं, आपके मन में विचार आ सकता है कि हम पूज्य शान्तिसागरजी महराज के पवित्र जीवन चारित्र को जान रहे हैं तो इसके बीच भिन्न-२ ऐतिहासिक धर्म-स्थलों अथवा तीर्थों अथवा व्यक्तियों का उल्लेख क्यों? इसके लिए मेरा उत्तर सिर्फ यही है कि यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्यश्री के जीवन चरित्र के साथ हम सभी को उस सब बातों की भी जानकारी मिल रही है जिसकी जानकारी हर एक जैन श्रावक को विरासत और धरोहर के रूप में अवश्य ही होनी चाहिए। आज के प्रसंग से तो कई गौरवशाली बातें ज्ञात होंगी। मुरैना पहले जैन धर्म के ज्ञान के लिए केम्ब्रिज जैसा, अन्य धर्मावलंबी विद्वानों के बीच जगह-२ जैन धर्म का पताका फहराने वाले विद्वान आदरणीय गोपालदासजी का व्यक्तित्व आदि। ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०८ ? "मुरैना" ग्वालियर में खूब धर्म प्रभावना के उपरांत संघ माध वदी दूज को प्रसिद्ध विद्वान तथा जैन धर्म के प्रभावक पं. गोपालदास जी बरैया की निवास भूमि पहुँचा, जहाँ उनके द्वारा स्थापित जैन सिद्धांत विद्यालय विद्यमान है। पहले इस विद्यालय की जैन समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। यह जैन समाज के धर्म विद्या के शिक्षण के लिए आक्सफोर्ड अथवा केम्ब्रिज के विद्या मंदिर के सदृश माना जाता था। स्व. बरैयाजी प्रतिभाशाली विद्वान थे। उनके प्रबल तर्क के समक्ष प्रमुख आर्यसमाजी विद्वान दर्शनानंद को शास्त्रार्थ में पराजित होना पड़ा था। कलकत्ता के प्रकांड वैदिक विद्वानों ने उनके तर्कपूर्ण भाषण की बहुत प्रशंसा की थी, त्याय वाचस्पति पदवी दी थी। पं. बरैया त्यागी तथा निष्पृह आदर्श चरित्र विद्वान थे। वे बिना पारिश्रमिक लिए धर्म के ममत्ववश शिक्षा देते थे। वे धन तथा धनिकों के दास नहीं थे। उनका जीवन बड़ा प्रमाणिक था। समाज के श्रेष्ठ विद्वानों में उनकी गणना होती थी। कल प्रसंग में मुरैना में, श्रावको के विवेक के अभाव मे किसी मुनि महराज पर आए प्राणघातक उपसर्ग का इस भावना से उल्लेख किया जायेगा ताकि श्रावक अपने जीवन में इस तरह की त्रुटि कभी भी न होने दें। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०७ ? "ग्वालियर" पूज्य शान्तिसागरजी महराज का संघ सोनागिरि में धर्मामृत की वर्षा करता हुआ संघ ग्वालियर पहुँचा। ग्वालियर प्राचीन काल से जैन संस्कृति का महान केंद्र रहा है। ग्वालियर के किले में चालीस, पचास-पचास फीट ऊँची खडगासन दस-पंद्रह मनोज्ञ दिगम्बर प्रतिमाओं का पाया जाना तथा और भी जैन वैभव की सामग्री का समुपलब्ध होना इस बात का प्रमाण है कि पहले ग्वालियर का राजवंश जैन संस्कृति का परम भक्त तथा महान आराधक रहा है। एक किले की दीवालों में बहुत सी मूर्तियों का पाया जाना इस कल्पना को पुष्ट करता है, यह स्थल संभवतः तीर्थ स्वरूप रहा हो। ग्वालियर में जो स्थान, तानसेन नामक प्रसिद्ध गायक से संबंधित बताया जाता है, वह पहले जैन मंदिर रहा है। ग्वालियर रियासत तो जैन मूर्तियों तथा जैन कला पूर्ण सामग्री का अद्भुत भंडार प्रतीत होता है। ग्वालियर के जिनालय भी सुंदर हैं। नगर में एक शांतिनाथ भगवान की मूर्ति बड़ी मनोज्ञ, अति उन्नत खड्गासन है। जैनियों में प्राचीन नाम ग्वालियर का गोपाचल प्रचार में रहा है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आजकी तिथी - चैत्र शु. प्रतिपदा?
  3. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०६ ? "चार व्रतियों की निर्वाण दीक्षा" चारित्र चक्रवर्ती परम पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के १९२९ के उत्तरभारत की भूमि पर द्वितीय चातुर्मास के उपरांत उनका विहार बूंदेलखंड के भव्य तीर्थस्थलों की वंदना करते हुए निर्वाण स्थल सोनागिरि को हुआ। सोनागिरि में एक नया इतिहास लिखा गया, पूज्य शान्तिसागरजी महराज की भांति, कर्मनिर्जरा के निमित्त घोर तपश्चरण करने वाले चार शिष्यों को निर्ग्रन्थ दीक्षा का सौभाग्य भी सोनागिरि की भूमि को ही प्राप्त हुआ। आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की सोनागिरि यात्रा धार्मिक इतिहास को चिरस्मरणीय वस्तु बन गई, कारण अगहन सुदी पूर्णिमा को नौ बजे सवेरे ऐलक चतुष्टय श्री चंद्रसागरजी, श्री पायसागरजी, श्री पार्श्वकीर्तिजी, श्री नमिसागरजी को आचार्य महराज ने निर्वाण दीक्षा निर्ग्रन्थ पद प्रदान किया। पार्श्वकीर्तिजी का मुनिराज कुन्थुसागर रखा गया था। उस समय चार महाभाग्यों का एक साथ दिगम्बर दीक्षा घारण इस पंचमकाल की वर्तमान स्थिति में चौथे काल का दृश्य उपस्थित कर रहा था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण द्वादशी?
  4. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०५ ? "टीकमगढ़ नरेश पर प्रभाव" पपौराजी जाते हुए महराज टीकमगढ़ में ठहरे थे। टीकमगढ़ स्टेट में जैनधर्म और जैनगुरु का बड़ा प्रभाव प्रभाव पढ़ा। टीकमगढ़ नरेश आचार्यश्री का वार्तालाप हुआ था। उससे टीकमगढ़ नरेश बहुत प्रभावित हुए थे। आचार्य महराज में बड़ी समय सूचकता रही है। किस अवसर पर, किस व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार उचित और धर्मानुकूल होगा, इस विषय में महराज सिद्ध-हस्त रहे हैं। बुंदेलखंड अपने गजरथों के लिए प्रसिद्ध रहा आया है। वहाँ पंचकल्याणक महोत्सवों से अजैन लोग बहुत प्रभावित हैं। उस भूमि में आचार्य महराज जैसे आध्यात्मिक तेजस्वी मूर्ति का विहार करना बड़ा प्रभाववर्धक हो गया। लोग तो यही कहते सुने गए कि जीवन में ऐसा आनंद फिर कभी नहीं आएगा और न कभी ऐसे सच्चे परमहंस दिगम्बर मुनिराज के इस कलिकाल में फिर से दर्शन भी होंगे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण सप्तमी?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से -- ३०४ ? "प्रस्थान" मगसिर वदी पंचमी को पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने ललितपुर से बिहार किया। जब पूज्यश्री ने ललितपुर छोड़ा, तब लगभग चार-पाँच हजार जनता ने दो-तीन मील तक महराज के चरणों को न छोड़ा। अंत मे सबने गुरुचरणों को प्रणाम किया, और अपने ह्रदय में सदा के लिए उनकी पवित्र मूर्ति अंकित कर वे वापिस आ गए। लगभग पाँच सौ व्यक्ति सिरगन ग्राम पर्यन्त गुरुदेव के पीछे-पीछे गए। पूज्यश्री के ललितपुर से प्रस्थान करने के समय का दृश्य चिरस्मरणीय था। विश्व हितंकर संतो के चिरवियोग की कल्पना से हजारों नेत्रों से आँसू बह रहे थे। चार माह का समय जो आचार्य महराज के चरणों से अवर्णनीय शान्ति से बीता था, अब वह जनता को पुनः दुर्लभ है। ?बुंदेलखंड की वंदना? इसके अनंतर आचार्यश्री ने बुंदेलखंड के अनेक तीर्थों के दर्शन किए। पपौरा, थूबोन, देवगढ़ आदि अनेक महत्वपूर्ण तथा कलामय तीर्थ बुंदेलखंड के अतीत वैभव, धर्म प्रेम, सुरुचि संस्कृत आध्यात्मिकता पर प्रकाश डालते हैं। सभी पुण्य स्थलों की वंदना द्वारा संघ ने अवर्णनीय आनंद प्राप्त किया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण षष्ठी ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०३ ? "भयंकर उपवासों के बीच अद्भुत स्थिरता" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के लंबे उपवासों के बीच में ही प्रायः ललितपुर का चातुर्मास पूर्ण हो गया। बहुत कम लोग उनको आहार देने का सौभाग्य लाभ कर सके। जैनों के सिवाय जैनेत्तरों में जैन मुनिराज की तपश्चर्या की बड़ी प्रसिद्धि हो रही थी। आचार्य महराज की अपने व्रतों में तत्परता देखकर कोई नहीं सोच सकता, कि इन योगिराज ने इतना भयंकर तप किया है। दूर-दूर के लोंगो ने आकर घोर तपस्वी मुनिराज का दर्शन किया। धीरे-धीरे वे तपःपुनीत पुण्य दिवस पूर्ण हो गए। अब चातुर्मास समाप्त होने को है। ललितपुर की धार्मिक समाज ने कार्तिक सुदी नवमी से पूर्णिमा पर्यन्त रथोत्सव कराया। हजारों की संख्या में लोग आए। पूर्णिमा को रथ क्षेत्रपाल से बस्ती की ओर निकाला गया। उस समय आचार्यश्री का शरीर बहुत कमजोर था, किन्तु आत्मा के बल से वे भी जुलूस में सम्मलित हो गए और उन्होंने शहर के मंदिरों की वंदना की, पश्चात क्षेत्रपाल आए। यथार्थ में महराज में असाधारण शक्ति थी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण पंचमी?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०२ ? "पारणा का दिन" पारणा का प्रभात आया। आचार्यश्री ने भक्ति पाठ वंदना आदि मुनि जीवन के आवश्यक कार्यों को बराबर कर लिया। अब चर्या को रवाना होना है। सब लोग अत्यंत चिंता समाकुल हैं। प्रत्येक नर-नारी प्रभु से यही प्रार्थना कर रहे हैं कि आज आहार निर्विघ्न हो जाए। क्षीण शरीर में खड़े होने की भी शक्ति नहीं दिखता, चलने की बात दूसरी है, और फिर खड़े होकर आहार का हो जाना और भी कठिन दिखता था। ऐसे विशिष्ट क्षणों में घोर तपस्वी महराज उठे। आत्मा के बल ने शरीर को सामर्थ्य प्रदान किया, ऐसा प्रतीत होता था। अब शान्तिसागरजी महराज आहार चर्या को निकले। एक गृहस्थ ने पडगाहा। विधि मिलने से महराज वहाँ ही खड़े हो गए। उस समय उस गृहस्थ के पाँव डर से काँपने लगे कि कहीं अंतराय हो गया तो क्या स्थिति होगी? उस समय एक-एक क्षण बड़ा महत्वपूर्ण था। ऐसे अवसर पर चंद्रसागर महराज की विचारकता ने बड़ा कार्य किया। उन्होंने तत्काल ही अपने परिचित दक्षिण के कुशल गृहस्थ से कहा- "क्या देखते हो, तुरंत सम्हाल कर आहारदान की विधि सम्पन्न करो।" तदनुसार आहार दिया गया। थोड़ी सी गठी-आँवले की कढ़ी तथा अल्प प्रमाण में धान्य व थोड़ा सा उष्ण जल ही उन्होंने लिया और तत्काल बैठ गए। बस, अब आहारपूर्ण हो गया। अब इस अल्प आहार के बाद आगे लगभग एक पक्ष के बाद ये उग्र तपस्वी मुनिराज आहार लेंगे। इस आहार के निर्विध्न हो जाने से लोंगों को अपार हर्ष हुआ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल ४?
  8. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०१ ? "सिंहनिःक्रिडित तप" पूज्य शान्तिसागर महराज के उत्तर भारत में कटनी में प्रथम चातुर्मास के उपरांत उनके द्वितीय चातुर्मास का परम सौभाग्य ललितपुर को प्राप्त हुआ। ललितपुर आने पर आचार्य महराज ने सिंहनिः क्रिडित तप किया था। यह बड़ा कठिन व्रत होता है। इस उग्र तप से आचार्य महराज का शरीर अत्यंत क्षीण हो गया था। लोगों की आत्मा उनको देख चिंतित हो जाती थी कि किस प्रकार आचार्य देव की तपश्या पूर्ण होती है। सब लोग भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि हमारे धर्म के पवित्र स्तम्भ आचार्यश्री की तपः साधना निर्विघ्न पूरी हो। आचार्य महराज के न जाने कब बंधे कर्मों का उदय आ गया उस तपश्चर्या की स्थिति में १०४, १०५ डिग्री प्रमाण ज्वर आने लगा। भीषण ज्वर चढ़ा था, फिर भी महराज के मुख मंडल पर अद्भुत आत्मतेज था। अग्नि दाह से जिस प्रकार स्वर्ण की विशिष्ट दीप्ति दृष्टिगोचर होती है, वैसे ही तपोग्नि में तपाया गया उनका शरीर तेजपूर्ण दिखता था। उस समय वे आत्मचिंतन में मग्न रहते थे। आहार दान देने से मन विषयों की ओर नहीं जाता था। मन तो उनके आधीन पहले से ही था। अब वह अत्यंत एकाग्र हो आत्मा का अनवरत चिंतन करता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण ३?
  9. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज इस श्रृंखला के ३०० प्रसंग पूर्ण हुए। ग्रंथ के यशस्वी लेखक स्वर्गीय पंडित श्री सुमरेचंदजी दिवाकर का हम सभी पर महान उपकार रहा जो उनकी द्वारा लिखित ग्रंथ "चारित्र चक्रवर्ती" के माध्यम से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दिव्य जीवन को अनुभव कर पा रहे हैं। अभी तक आचार्यश्री के अनेक जीवन प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया, लेकिन ग्रंथ के आधार पर अभी भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के अनेकों प्रसंग प्रस्तुत करना शेष है। प्रस्तुती का यह क्रम चलता रहेगा। प्रस्तुती का उद्देश्य, लोगों तक पूज्य शान्तिसागरजी महराज का जीवन चरित्र प्रस्तुत करना है, मैं अपना कर्म कर रहा हूँ, अब पाठक जितना लाभ लें? ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३०० ? "देव-द्रव्य" एक दिन मैंने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा था- "महराज ! अब देव-द्रव्य पर सरकार की शनि दृष्टि पड़ी है, ऐसी स्थिति में उसका क्या उपयोग हो सकता है?" महराज ने कहा था- "अपने ही मंदिर में उसका उपभोग करने का मोह छोड़कर अन्य स्थानों के भी जिन मंदिरों को यदि आत्मीय भाव से देखकर उनके रक्षण, व्यवस्था, जीर्णोद्धार आदि में रकम का उपयोग करोगे, तो विपत्ति नहीं आएगी।" धर्मादा की रकम का ठीक-ठीक उपभोग करने से मनुष्य समृद्ध होता है, वैभव सम्पन्न बनता है। उसी द्रव्य को स्वयं हजम करने लगे, तो संपत्ति को क्षय रोग लगता जाता है। आदमी पनपने नहीं पाता है। जिन प्रांतों में मंदिर की द्रव्य जैन भाई खाते हैं, वहाँ उनकी स्थिति देखकर दया आती है। अतः इस विषय में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति रखना श्रेयस्कर है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९९ ? "सिवनी के जिनालय की चर्चा" एक दिन मैंने आचार्य महराज को सिवनी के विशाल जैनमंदिरों का चित्र दिखाया। उस समय आचार्यश्री ने कहा, "जबलपुर से वह कितनी दूर है?" मैंने कहा, "महराज, ९५ मील पर है।" महराज बोले, "हम जब जबलपुर आये थे, तब तुमसे परिचय नहीं था, नहीं तो सिवनी अवश्य जाते।" मैंने कहा, "महराज ! उस समय तो मैं काशी में विद्याभ्यास करता था, इसी से आपसे वहाँ पधारने की प्रार्थना करने का सौभाग्य नहीं मिला।" मैंने मंदिर के चित्र को जब बताया था, तब अधिक प्रकाश न था, इस कारण एक व्यक्ति ने मुझे कहा, आप महराज को दुबारा अच्छे उजेले में यह सुंदर फोटो दिखा देना।" मैंने ऐसा ही किया, तब महराज बोले, "बार-बार क्या बताते हो। हम जिस चीज को एक बार देख लेते हैं, उसे कभी नहीं भूलते हैं।" तब स्मरण आया कि इसी कारण महराज को अनेक शास्त्रो की असाधारण धारणा हो गई है। महराज एक बार बताते थे 'हम रात्रि को तत्वों के बारे में खूब विचार करते रहते हैं।' उसी तत्वचिंतन के पश्चात जो अनुभवपूर्ण वाणी महराज की निकलती है, वह बड़े-२ विद्वानो को मुग्ध कर देती है। एक बार महराज जबलपुर के विशाल हनुमानताल के बारे मे कहते थे, "वह मंदिर किले के सदृश है।" मढ़ियाजी का प्रशांत वातावरण भी उनको अनुकूल लगता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से- २९८ ? जबलपुर में भव्य आगवानी" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज कटनी चातुर्मास के उपरांत जबलपुर की ओर विहार हुआ। आचार्यश्री के सानिध्य में पनागर में हुए समारम्भ में जबलपुर की बहुत सी समाज भी आ गयी थी। इससे वहाँ की शोभा और बढ़ गई थी। संघ का पनागर आना ही जबलपुर के भाग्य उदित होने के उषा काल सदृश था। धार्मिक लोग सोच रहे थे, यहाँ कब संघ आता है? शनिवार के प्रभात में संघ जबलपुर की ओर रवाना हुआ। जबलपुर के अधारताल के पास लोगों ने योगिराज की भव्य आगवानी की। संघ ने आकर मिलोनीगंज के मंदिर की वंदना की। पश्चात संघ गोलबाजार की तरफ रवाना हुआ। हजारों नर-नारियों का समुदाय इन संतराज के स्वागतार्थ इकठ्ठा हुआ था। कटनी के बाद आचार्य महराज एक दिन के अंतराल से आहार लिया करते थे। कटनी में तो उनका त्याग कठिन रूप में था। पाँच-पाँच, छह-छह, उपवास करना साधारण सी बात थी। यह होते हुए भी धार्मिक कार्यों में प्रमाद का लेश नहीं था। महराज का संघ जैन बोर्डिंग, गोलबाजार में विराजमान था। मुनियों के आहार के बाद जैन व्यापारी अपनी-अपनी दुकानें खोलते थे। जब धर्म पुरुषार्थ का लाभ हो रहा था, तब चतुर समाज ने सही सोचा कि अमूल्य समय पर उस धर्म निधि का संचय करना ठीक होगा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९७ ? "भविष्य की बातों का पूर्वदर्शन" सन १९४७ में पूज्य शान्तिसागर महराज ने वर्षायोग सोलापुर में व्यतीत किया था। मैं भी गुरुदेव की सेवा में व्रतों में पहुंचा था। एक दिन व्रतों के समय पूज्यश्री के मुख से निकला "ये रजाकार लोग हैदराबाद रियासत में बड़ा पाप व अनर्थ कर रहे हैं। इनका अत्याचार सीमा को लांघ रहा है। इनको अब खत्म होने में तीन दिन से अधिक समय नहीं लगेगा।" महराज के मुख से ये शब्द सुने थे। उसके दो चार रोज बाद ही सरदार बल्लभभाई पटेल के पथ-प्रदर्शन के अनुसार हैदराबाद पर भारत सरकार ने पुलिस कार्यवाही रूप आक्रमण कर दिया और तीन दिन के भीतर ही हैदराबाद ने भारत सरकार के समक्ष घुटने टेक दिए। इसके अनंतर मैंने आचार्य महराज से कहा, "महराज ! उस दिन आपके मुख से हैदराबाद का जो भविष्य निकला था, यह पूर्णतः ठीक निकला। यह बताइये, इसका कैसे पता चल गया, आप तो राजनीति आदि की खबरों से दूर रहते हैं।" महराज ने कहा, "हमारा जैसा ह्रदय बोला, वैसा हमने कहा रहा।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९६ ? "देवज्ञ का कथन" एक बार एक उच्चकोटि के ज्योतिषशास्त्र के विद्वान को आचार्य महराज की जन्मकुंडली दिखाई थी। उसे देखकर उन्होंने कहा था, जिस व्यक्ति की यह कुंडली है, उनके पास तिलतुष मात्र भी संपत्ति नहीं होना चाहिए, किन्तु उनकी सेवा करने वाले लखपति, करोड़पति होने चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि इनकी शारीरिक शक्ति गजब की होनी चाहिए। बुद्धि बहुत तीव्र बताई थी और उन्हें महान तत्वज्ञानी भी बताया था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  14. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९५ ? "विहार" अगहन कृष्णा एकम् का दिन आया। आहार के उपरांत महराज ने सामयिक की और जबलपुर की ओर विहार किया। उस समय आचार्य महराज में कटनी के प्रति रंचमात्र भी मोह का दर्शन नहीं होता था। उनकी मुद्रा पर वैराग्य का ही तेज अंकित था। हजारों व्यक्ति, जिनमें बहुसंख्यक अजैन भी थे, बहुत दूर तक महराज को पहुंचाने गए। महराज अब पुनः कटनी लौटने वाले तो थे नहीं, क्या ऐसा सौभाग्य पुनः मिल सकता है? कटनी की समाज के ह्रदय पर महराज का आज भी शासन विद्यमान है। जब कभी वहाँ के श्रावको से समक्ष चर्चा आ जाती है, तो वे आनंद मग्न होकर उन पुण्य दिवसों का स्मरण कर लेते हैं। विशुद्ध जीवन के बिना ऐसा स्थायी पवित्र प्रभाव कैसे हो सकता है? महराज को आहारदान का सौभाग्य मिल जाए, इससे कटनी से श्रावकों की मंडली संघ के साथ रवाना हो गई। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९४ ? "पश्चाताप" लेखक दिवाकरजी पूर्व समय में उनके द्वारा गलत संगति में पूज्य शान्तिसागरजी महराज की चर्या की परीक्षा का जो भाव था उसके संबंध में लिखते हैं कि ह्रदय में यह भाव बराबर उठते थे कि मैंने कुसंगतिवश क्यों ऐसे उत्कृष्ट साधु के प्रति अपने ह्रदय में अश्रद्धा के भावों को रखने का महान पातक किया? संघ में अन्य सभी साधुओं का भी जीवन देखा, तो वे भी परम पवित्र प्रतीत हुए। मेरा सौभाग्य रहा जो मैं आचार्यश्री के चरणों में आया और मेरा दुर्भाव तत्काल दूर हो गया। मेरे कुछ साथी तो आज भी सच्चे गुरुओं के प्रति मलिन दृष्टि धारण किए हुए हैं: 'बुद्धिः कर्मानुसारीणी' खराब होनहार होने पर दृष्टि बुद्धि होती हैं। उस समय कटनी में महराज की तपश्चर्या बड़ी प्रभावप्रद थी। संघ के सभी साधु ज्ञान और वैराग्य की मूर्ति थे। धार्मिकों के लिए तो वे अतुल्य लगते थे। आचार्यश्री कम बोलते थे, किन्तु जो बोलते थे, वह अधिक गंभीर तथा भावपूर्ण रहता था। पूजन, भजन, तत्वचर्चा, धर्मोपदेश में दिन जाते पता नहीं चला। वर्षायोग समाप्ति का दिन आ गया। अब कल संघ का कटनी से विहार होगा, इस विचार से लोगों के ह्रदय पर वज्राघात-सा होता था। कितनी शांति, सुख, संतोषपूर्वक समय व्यतीत हुआ, इनकी घर-घर में चर्चा होती थी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९३ ? "गुरुदेव का व्यक्तित्व" दिवाकर जी लिखते हैं कि पूज्य आचार्यश्री महराज को देखकर आँखे नहीं थकती थी। उनके दो बोल आँखों में अमृत घोल घोल देते थे। उनकी तात्विक-चर्चा अनुभूतिपूर्ण चर्चा अनुभवपूर्ण एवं मार्मिक होती थी। वहाँ से काशी आने की इच्छा नहीं होती थी। ह्रदय में यही बात आती थी कि जब सच्चे गुरु यहाँ विराजमान हैं, तो इनके अनुभव से सच्चे तत्वों को समझ जाए। यही तो सच्चे शास्त्रों का अध्ययन है। हमारा पूरा अष्टान्हिका पर्व वहाँ ही व्यतीत हो गया। महराज का जीवन तो हीरे के समान ही दीप्तिमान था। उस समय उनके दर्शन से ऐसा ही आनंद आता था, मानों अन्धे को आँख मिल गई हों, दरिद्र को निधि प्राप्त हो गई हो। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९२ ? "आचार्य चरणों का प्रथम परिचय" इस चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के यशस्वी लेखक दिवाकरजी कटनी के चातुर्मास के समय का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि मैंने भी पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन का निकट निरीक्षण नहीं किया था। अतः साधु विरोधी कुछ साथियों के प्रभाववश मैं पूर्णतः श्रद्धा शून्य था। कार्तिक की अष्टान्हिका के समय काशी अध्यन निमित्त जाते हुए एक दिन के लिए यह सोचकर कटनी ठहरा कि देखें इन साधुओं का अंतरंग जीवन कैसा है? लेकिन उनके पास पहुँचकर देखा, तो मन को ऐसा लगा कि कोई बलशाली चुम्बक चित्त को खेंच रहा है। मैंने दोष को देखने की दुष्ट बुद्धि से ही प्रेरित हो संघ को देखने का प्रयत्न किया था, किन्तु रंचमात्र भी सफलता नहीं मिली। संघ गुणों का रत्नाकर लगा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९१ ? "श्रावकों की भक्ति" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के कटनी चातुर्मास निश्चित होने के बाद श्रावकों को अपने भाग्य पर आश्चर्य हो रहा था कि किस प्रकार अद्भुत पुण्योदय से पूज्यश्री ससंघ का चातुर्मास अनायास ही नहीं, अनिच्छापूर्वक, ऐसी अपूर्व निधि प्राप्त हो गई। बस अब उनकी भक्ति का प्रवाह बड़ चला। जो जितने प्रबल विरोधी होता है, वह दृष्टि बदलने से उतना ही अधिक अनुकूल भी बन जाता है। इंद्रभूति ब्राह्मण महावीर भगवान के शासन का तीव्र विरोधी था, किन्तु उसने प्रभु के जीवन का सौंदर्य देखा और उसमें अपूर्व सौरभ और प्रकाश पाया। अतः इतना प्रबल भक्त बन गया कि प्रभु के उपदेशानुसार निर्ग्रन्थ मुनि बन कर भगवान के भक्त शिष्यों का शिरोमणि बनकर गौतम गणधर के नाम से विख्यात हो गया। भावों की अद्भुत गति है। अब तो कटनी की समाज में आंतरिक भक्ति का स्त्रोत उमड़ पड़ा, इससे आनंद की अविच्छिन्न धारा भी बह चली। बड़े सुख, शांति, आनंद और धर्मप्रभावना के साथ वहाँ का समय व्यतीत होता जा रहा था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९० ? "आगम भक्त" कुछ शास्त्रज्ञों ने सूक्ष्मता से आचार्यश्री के जीवन को आगम की कसौटी पर कसते हुए समझने का प्रयत्न किया। उन्हें विश्वास था कि इस कलीकाल के प्रसाद से महराज का आचरण भी अवश्य प्रभावित होगा, किन्तु अंत में उनको ज्ञात हुआ कि आचार्य महराज में सबसे बड़ी बात यही कही जा सकती है कि वे आगम के बंधन में बद्ध प्रवृत्ति करते हैं और अपने मन के अनुसार स्वछन्द प्रवृत्ति नहीं करते हैं। स्थानीय कुछ लोगों की प्रारम्भ में कुछ ऐसी इच्छा थी कि चातुर्मास का महान भार कटनी वालों पर न पड़े, किन्तु चातुर्मास समीप आ जाने से दूसरा योग्य स्थान पास में न होने से कटनी को ही चातुर्मास के योग्य स्थान चुनने को बाध्य होना पड़ा। संघपति ने ऐसे लोगों को कह दिया था- "आप लोग चिंता न करें, यदि आपकी इच्छा न हो, तो आप लोग सहयोग न देना, सर्व प्रबंध हम करेंगे, अब चातुर्मास तो कटनी में ही होगा।" इस निश्चय के ज्ञात होने पर सहज सौजन्यवश प्रारम्भ में उन शंकाशील भाइयों ने महराज के पास जाना प्रारम्भ किया। उन्हें ऐसा लगने लगा, जैसे हम काँच सरीखा सोचते थे, वह स्फटिक नहीं, वह तो असली हीरा है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २८९ ? "कटनी चातुर्मास" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने कुम्भोज बाहुबली तीर्थ से तीर्थराज शिखरजी वंदना हेतु सन १९२७ में प्रस्थान किया। तीर्थराज की वंदना के उपरांत उन्होंने उत्तर भारत के श्रावकों को अपने प्रवास से धन्य किया। चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उत्तर भारत में प्रथम चातुर्मास का सौभाग्य मिला कटनी (म.प्र) को। आषाढ़ सुदी तीज को संघ कटनी से चार मील दूरी पर स्थित चाका ग्राम पहुंच गया। वहाँ स्कूल में संघ ठहर गया। महराज के उपदेश से प्रभावित हो मुसलमान हेडमास्टर ने मांसाहार का त्याग कर दिया और भी बहुतों ने मांसाहार का त्याग किया था। मध्यान्ह की सामायिक के उपरांत कटनी के जैन समाज का एक जुलूस, जिसमें हिन्दू तथा मुसलमान भी शामिल थे, आचार्य संघ के स्वागतार्थ आया। बड़े हर्ष के साथ जुलूस ने नगर में प्रवेश किया। जिनमंदिरों की उन्होंने वंदना की। पश्चात नवीन छात्रावास को आचार्यश्री ने अपने चरणों से पवित्र किया। इसी कारण उसे शांति-निकेतन यह अंवर्थ नाम प्राप्त हुआ। २२ जून, सन १९२८ को आचार्य महराज तथा नेमिसागरजी महराज का केशलोंच हुआ, आचार्य महराज का त्याग धर्म पर मार्मिक उपदेश हुआ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २८८ ? "छने जल के विषय में " कल हम देख रहे थे कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने पलासवाढ़ा में अजैन गृहस्थ को भी अनछने जल त्याग का मार्गदर्शन दिया। मनुस्मृति जो हिन्दू समाज का मान्य ग्रंथ है लिखा है- "दृष्टि पूतं न्यसेतपादम, वस्त्रपूतं पिबेज्जलम" अर्थात देखकर पाव रखे और छानकर पानी पिए)। सन १९५० में हम राणा प्रताप के तेजस्वी जीवन से संबंधित चितौड़गढ़ के मुख्य द्वार पर पहुँचे तो वहाँ एक घट की वस्त्र सहित देख मन में शंका हुई कि यहाँ घट पट का सम्बन्ध कैसे आ गया? तब हमें बताया गया कि यहाँ लोग प्रायः पानी छानकर पीते हैं। जैन संस्कृति की करुणा मूलक प्रवृत्ति का यहाँ विशिष्ट सूचक भी है, किन्तु इस संबंध में बड़े-२ विद्धान तक शिथिलता दिखाते हैं। पानी छानने के महत्व को ध्यान में रखकर ही आचार्य महराज ने उस भद्र महिला को छानकर पीने को कहा था। आचार्य महराज जैसी महनीय आत्मा छने जल को महत्व देते थे, इससे इस नियम का महत्व स्पष्ट हो जाता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २८७ ? "गांजा पीने की प्रार्थना" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने चैत्र वदी एकम् को ससंघ शिखरजी से प्रस्थान किया। वहाँ से उन्होंने चम्पापुरी, पावापुरी, बनारस, इलाहाबाद आदि स्थानों को होते हुए १९ जून १९२८ को मैहर राज्य में प्रवेश किया। पलासवाड़ा ग्राम के समीप एक गृहस्थ महराज के समीप आया। उसने भक्तिपूर्वक इन्हें प्रणाम किया। वह समझता था, ये साधु महराज हमारे धर्म के नागा बाबा सदृश होंगे, जो गाँजा, चिल्लम, तम्बाकू पीते हैं। इस कलिकाल में सत्य का सूर्य मोह और मिथ्यात्व के मेघों से आच्छन्न हैं, अतः विषयवासनाओं की पुष्टि करने वाले जीव के हित प्रदर्शक तथा परम आराध्य माने जाते हैं। उसी धारणा वश भक्त महराज से बोला, "स्वामीजी ! एक प्रार्थना है, अरज करूँ?" महराज ने कहा, "क्या कहना है, कहो?" वह बोला, "भगवन ! थोड़ा सा गाँजा मंगवा देता हूँ, उसको पीने से आपका मन चंगा हो जायेगा।" महराज ने कहा, "हमारा मन सदा चंगा रहता है। हम लोग गाँजा नहीं पीते हैं।" वह सुनते ही चकित हुआ। उसने कहा, "महराज ! सब साधु पीते हैं, आप क्यों नहीं पीते हैं? महराज ने उस भोले प्राणी को समझाया, "ये मादक पदार्थ है, इसके सेवन से जीव के भावों में मलिनता उत्पन्न होती है, इससे बड़ा पाप होता है, सच्चे साधु की बात ही दूसरी है, किसी भी मनुष्य को गाँजा आदि मादक वस्तुओं को नहीं लेना चाहिए।" गाँजा, भांग, चरष, मदिरा सब मादक द्रव्य की अपेक्षा भाई बंधु ही हैं। यह बात उस गृहस्थ के ध्यान में आ गई फिर भी गुरुदेव की भक्ति करनी थी, अतः प्रेमवश बोला- "महराज ! थोड़ी मिठाई ला देता हूँ। उसे ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिए।" महराज ने कहा, "साधु के भोजन का नियम कठिन होता है, वह जैसा तैसा भोजन नहीं करता है।" उसके प्रेम को देखकर महराज ने सोचा यह भद्र जीव प्रतीत होता है, अतः उसे उपदेश दिया। उसकी स्त्री ने जीवन भर के लिए अनछने जल का त्याग कर दिया और पुरुष ने परस्त्री त्याग का व्रत लिया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  23. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २८६ ? "महान जैन महोत्सव" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ससंघ की शिखरजी वंदना के संघपति जबेरी बंधुओं द्वारा निश्चित शिखर में जिनेन्द्र पंचकल्याणक महोत्सव बड़े वैभव के साथ जिनेन्द्र भगवान की पूज्य तथा अत्यंत प्रभवना के साथ सम्पन्न हुआ। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी का उत्सव इंदौर के धन कुवेर सर राव राजा दानवीर सेठ हुकुमचंद की अध्यक्षता में बड़े उत्साह और उल्लासपूर्वक पूर्ण हुआ था। उस समय भीड़ अपार थी। लाउडस्पीकर का सन १९२८ तक अपने देश में आगमन न हुआ था, अतयव महोत्सव में लोगों का हल्ला ही हल्ला सुनाई पड़ता था। दिगम्बर जैन महासभा का नैमित्तिक अधिवेशन ब्यावर के धार्मिक सेठ तथा आचार्यश्री के परम भक्त मोतीलाल जी रानीवालों के नेतृत्व में हुआ था। उस समय समाज के बंधन शिथिल करने वाले विधवा विवाह आदि आंदोलनों के निराकरण रूप धर्म तथा समाज उन्नति के प्रस्ताव पास हुए थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २८५ ? "सूक्ष्मचर्चा" एक दिन महराज ने कहा, "कोई कोई मुनिराज कमण्डलु की टोटी को सामने मुँह करके गमन करते हैं, यह अयोग्य है।।" मैंने पूंछा, "महराज ! इसका क्या कारण है, टोंटी आगे हो या पीछे हो। इसका क्या रहस्य है?" महराज ने कहा, "जब संघ में कोई साधु का मरण हो जाता है, तब मुनि टोंटी आगे करके चलते हैं, उससे संघ के साधु के मरण का बोध हो जाएगा। वह अनिष्ट घटना का संकेत है।" मैंने पूंछा महराज, "यदि सामने करके चला जाए, तो और भी कोई दोष नहीं आता है? महराज ने कहा, "टोंटी सामने करके चलने से छोटे कीड़े टोंटी के छिद्र द्वारा भीतर घुस जावेंगे और भीतर के पानी में उनका मरण हो जायेगा। टोंटी पीछे करके चलने में यह बात नहीं है।" इस उत्तर को सुनकर, आचार्य महराज की सूक्ष्म विचार पध्दति और तार्किक दृष्टि का पता चला कि वे कितनी बारीकी से वस्तु के स्वरूप के बारे में विचार करते हैं। उनका ऐसा समाधान होता था कि उससे अंतःकरण को पूर्ण संतोष प्राप्त होता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  25. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागर महराज का जीवन चरित्र देखते है तो निश्चित ही हम आत्म कल्याण के मार्ग पर उनकी उत्कृष्ट साधना का अवलोकन करते हैं, एक बात और यहाँ देखी जा सकती है कि हम जैसे सामान्य, सातगौड़ा के जीव ने उत्कृष्ट पुरुषार्थ द्वारा उत्कृष्ट साधना की स्थिति को प्राप्त किया और शान्तिसागर बन गए, सातगौड़ा की भांति हम भी सही दिशा में पुरुषार्थ कर कल्याण का रास्ता पकड़ सकते हैं। यहाँ मैं आप सभी का ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहता हूँ कि यदि आप पूज्यश्री के जीवन चरित्र में उनके गृहस्थ जीवन के संस्मरण देखेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि गृहस्थ जीवन में तीर्थराज की वंदना के समय उन्होंने कितना महान त्याग किया है, उनके उस त्याग जैसे विशेष पुरुषार्थ का ही प्रतिफल था कि वह चारित्र के चक्रवर्ती थे तथा विपरीत देशकाल में भी हम सभी के लिए मुनिपरम्परा पुनः जीवंत कर पाए। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २८४ ? "ध्यान" पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने देवादिदेव श्री १००८ पार्श्वनाथ भगवान की निर्वाण भूमि स्वर्णभद्रकूट की वंदना के उपरांत पर्वतराज की तलहटी की ओर प्रस्थान किया। अब प्रभात का सूर्य आकाश के मध्य में पहुँच गया, इससे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज एक योग्य स्थल पर आत्मध्यान हेतु विराजमान हो गए। आज की सामायिक की निर्मलता व आनंद का कौन वर्णन कर सकता है, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती? आज बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि की वंदना करके निर्वाण मुद्राधारी मुनिराज आत्मा और परमात्मा के स्वरूप के चिंतन में निमग्न हो गए हैं। आज की निर्मलता असाधारण है। समता अमृत से आत्मा को परितृप्त करने के पश्चात उन मुनिनाथ ने पुनः मधुवन की ओर प्रस्थान किया। उस समय उनकी पीठ पर्वत की ओर थी लेकिन अंतःकरण के समक्ष तीर्थंकरों के पावन चरण अवश्य आते थे। महराज की स्मरण शक्ति भी तो सामान्य नहीं रही है। उनकी स्मृति वंदना के संस्मरण सुस्पष्ट जागृति कर लेती रही है, तब उस समय की सुस्पष्टता का क्या कहना है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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