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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१४   ?

           "वैयावृत्त धर्म और आचार्यश्री"

            किन्ही मुनिराज के अस्वस्थ होने पर वैयावृत्त की बात तो सबको महत्व की दिखेगी, किन्तु श्रावक की प्रकृति भी बिगड़ने पर पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ध्यान प्रवचन-वत्सलता के कारण विशेष रूप से जाता था। आचार्यश्री श्रेष्ट पुरुष होते हुए भी अपने को साधुओं में सबसे छोटा मानते थे।
           एक बार १९४६ में  कवलाना में ब्रम्हचारी फतेचंदजी परवार भूषण नागपुर वाले बहुत बीमार हो गए थे। उस समय आचार्य महराज उनके पास आकर बोले, "ब्रम्हचारी ! घबराना मत, अगर यहाँ श्रावक लोग तुम्हारी वैयावृत्त में प्रमाद करेंगे, तो हम तुम्हारी सम्हाल करेंगे।"
                  जब लेखक की ब्रम्हचारीजी से कवलाना में भेट हुई, तब उन्होंने आचार्यश्री की सांत्वना और वात्सल्य की बात कही थी। उससे ज्ञात हुआ कि महराज वात्सल्य गुण के भी भंडार थे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण १०?
  2. Abhishek Jain
    ?दीक्षा दिवस ?
    दिनांक ०६ मई १६
    दिन शुक्रवार
    आज से ३६ वर्ष पूर्व 
    वैशाख कृष्ण अमावस्या दि. १५ एप्रिल १९८० को "आज के ही दिन"
    परम पूज्य आचार्य गुरूवर श्री विद्यासागर जी महाराज के कर कमलों से आज के ही दिन म.प्र. प्रान्त के बुन्देलखंड की धरा- सागर नगर में मुनिश्री नियमसागरजी महाराज जी एवं मुनिश्री योगसागर जी महाराज जी की मुनि दीक्षा संपन्न हुयी थी।            
    मुनि द्वय के३६ वे दीक्षा दिवस पर हम सभी मुनि द्वय के चरणों में बारंबार नमोस्तु करते हैं??????।
    नोट- मुनिश्री नियम सागर जी महाराज पुणे नगर (चिंचवड) में विराजमान हैं ।
    मुनि श्री योग सागर जी महाराज कुंडलपुर में विराजमान हैं ।
     




     
  3. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          
            पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागर जी महराज का श्रमण संस्कृति में इतना उपकार है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। उनके उपकार का निर्ग्रन्थ ही कुछ अंशों में वर्णन कर सकते हैं।
          पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने श्रमण संस्कृति का मूल स्वरूप मुनि परम्परा को देशकाल में हुए उपसर्गों के उपरांत पुनः जीवंत किया था। यह बात लंबे समय से उनके जीवन चरित्र को पढ़कर हम जान रहे हैं। आज का भी प्रसंग उसी बात की पुष्टि करता है।
    *? अमृत माँ जिनवाणी से- ३३५  ?*

             *"देहली चातुर्मास की घटना*"

            पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज ने देहली चातुर्मास की एक बात पर इस प्रकार प्रकाश डाला था-
         "देहली में संघ का चातुर्मास हो रहा था। उस समय नगर के प्रमुख जैन वकील ने संघ के नगर में घूमने की सरकारी आज्ञा प्राप्त की थी। उसमें नई दिल्ली, लालकिला, जामा मस्जिद, वायसराय भवन आदि कुछ स्थानों पर जाने की रोक थी। 
           जब आचार्य महराज को यह हाल विदित हुआ, तब उनकी आज्ञानुसार मैं, चंद्रसागर, वीरसागर उन स्थानों पर गए थे, जहाँ गमन के लिए रोक लगा दी गई थी। 
           आचार्य महराज ने कह दिया था कि जहाँ भी विहार में रोक आवे, तुम वहीं बैठ जाना।
           हम सर्व स्थानों पर गए। कोई रोक-टोक नहीं हुई। उन स्थानों पर पहुँचने के उपरांत फोटो उतारी गई थी, जिससे यह प्रमाणित होता था कि उन स्थानों पर दिगम्बर मुनि का विहार हो चुका हैं।"
           नेमीसागर महराज ने बम्बई में उन स्थानों पर भी विहार किया है, जहाँ मुनियों के विहार को लोग असंभव मानते थे। हाईकोर्ट, समुद्र के किनारे जहाँ जहाजों से माल आता जाता है। ऐसे प्रमुख केन्दों पर भी नेमीसागर महराज गए, इसके चित्र भी खिचें हैं।
            इनके द्वारा दिगम्बर जैन मुनिराज के सर्वत्र विहार का अधिकार स्पष्ट सूचित होता है। साधुओं की निर्भीकता पर भी प्रकाश पड़ता है।
    ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का*?
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल पूर्णिमा?
  4. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१६   ?

    "सरसेठ हुकुमचंद और उनका ब्रम्हचर्य प्रेम"

                लेखक दिवाकरजी ने लिखा है कि सर सेठ हुकुमचंद जी के विषय में बताया कि आचार्य महराज ने उनके बारे ये शब्द कहे थे, "हमारी अस्सी वर्ष की उम्र हो गई, हिन्दुस्तान के जैन समाज में हुकुमचंद सरीखा वजनदार आदमी देखने में नहीं आया। 
            राज रजवाड़ों में हुकुमचंद सेठ के वचनों की मान्यता रही है। उनके निमित्त से जैनों का संकट बहुत बार टला है। उनको हमारा आशीर्वाद है, वैसे तो जिन भगवान की आज्ञा से चलने वाले सभी जीवों को हमारा आशीर्वाद है।'
                 हुकुमचंद के विषय में एक समय आचार्य महराज ने कहा था, "एक बार संघपति गेंदनमल और दाडिमचंद ने हमारे पास से जीवन भर के लिए ब्रम्हचर्य व्रत लिया, तब हुकुमचंद सेठ ने इसकी बहुत प्रसंशा की। उस समय आचार्यश्री ने हुकुमचंद सेठ से कहा 'तुमको भी ब्रम्हचर्य व्रत लेना चाहिए।'
             हुकुमचंद ने तुरंत ब्रम्हचर्य व्रत लिया और कहा था, 'महराज ! आगामी भव में भी ब्रम्हचर्य का पालन करूँ।' हुकुमचंद का ब्रम्हचर्य व्रत पर इतना प्रेम है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण १२?
  5. Abhishek Jain
    ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३६  ?

           *उपवास तथा महराज के विचार*

              सन १९५८ के व्रतों में १०८ नेमिसागर महराज के लगभग दस हजार उपवास पूर्ण हुए थे और चौदह सौ बावन गणधर संबंधी उपवास करने की प्रतिज्ञा उन्होंने ली।
           महराज ! लगभग दस हजार उपवास करने रूप अनुपम तपः साधना करने से आपके विशुद्ध ह्रदय में भारत देश का भविष्य कैसा नजर आता है?
           देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल, अंनाभाव आदि के कष्टों का अनुभव कर रहा है।
             महराज नेमिसागर जी ने कहा- "जब भारत पराधीन था, उस समय की अपेक्षा स्वतंत्र भारत में जीववध, मांसाहार आदि तामसिक कार्य बड़े वेग से बढ़ रहे हैं। इनका ही दुष्परिणाम अनेक कष्टों का आविर्भाव तथा उनकी वृद्धि है।"

    ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का*?
        ?आजकी तिथी - वैशाख कृष्ण १?
  6. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             
             पूज्य वर्णीजी की प्रारम्भ से ही ज्ञानार्जन की प्रबल भावना थी तभी तो वह अभावजन्य विषय परिस्थियों में भी आगे आकर ज्ञानार्जन हेतु संलग्न हो पाये। भरी गर्मी में दोपहर में एक मील ज्ञानार्जन हेतु पैदल जाना भी उनकी ज्ञानपिपासा का ही परिचय है।
          बहुत ही सरल ह्रदय थे गणेशप्रसाद। उनके जीवन का सम्पूर्ण वर्णन बहुत ही ह्रदयस्पर्शी हैं।
    ? संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

          *"पं. गोपालदास वरैया के संपर्क में"*
                         *क्रमांक -६३*

                 पं. बलदेवदासजी महराज को मध्यन्होंपरांत ही अध्ययन कराने का अवसर मिलता था। गर्मी के दिन थे पण्डितजी के घर जाने में प्रायः पत्थरों से पटी हुई सड़क मिलती थी।
           मोतीकटरा से पंडितजी का मकान एक मील अधिक दूर था, अतः मैं जूता पहने ही हस्तलिखित पुस्तक लेकर पण्डितजी के घर पर जाता था।
           यद्यपि इसमें अविनय थी और ह्रदय से ऐसा करना नहीं चाहता था, परंतु निरुपाय था। दुपहरी में यदि पत्थरों पर चलूँ तो पैरों को कष्ट हो, न जाऊँ तो अध्ययन से वंछित रहूँ-मैं दुविधा में पड़ गया।
           लाचार अंतरात्मा ने यही उत्तर दिया कि अभी तुम्हारी छात्रावस्था है, अध्ययन की मुख्यता रक्खो। अध्ययन के बाद कदापि ऐसी अविनय नहीं करना......इत्यादि तर्क-वितर्क के बाद मैं पढ़ने के लिए चला जाता था।
          यहाँ पर श्रीमान पंडित नंदराम जी रहते थे जो कि अद्वितीय हकीम थे। हकीमजी जैनधर्म के विद्वान ही न थे, सदाचारी भी थे। भोजनादि की भी उनके घर में पूर्ण शुद्धता थी। आप इतने दयालु थे कि आगरे में रहकर भी नाली आदि में मूत्र क्षेपण नहीं करते थे।
          एक दिन पंडितजी के पास पढ़ने जा रहा था, देवयोग से आप मिल गये। कहने लगे- कहाँ जाते हो? मैंने कहा- 'महराज ! पंडितजी के पास पढ़ने जा रहा हूँ।' 'बगल में क्या है!' मैंने कहा- पाठ्य पुस्तक सर्वार्थसिद्धि है।' आपने मेरा वाक्य श्रवण कर कहा - 'पंचम काल है ऐसा ही होगा, तुमसे धर्मोंनति की क्या आशा हो सकती है और पण्डितजी से क्या कहें? '
          मैंने कहा- 'महराज निरुपाय हूँ।' उन्होंने कहा- 'इससे तो निरुक्षर रहना अच्छा।' मैंने कहा- महराज ! अभी गर्मी का प्रकोप है पश्चात यह अविनय न होगी।'
           उन्होंने एक न सुनी और कहा- 'अज्ञानी को उपदेश देने से क्या लाभ?' मैंने कहा- महराज ! जबकि भगवान पतितपावन हैं और आप उनके सिद्धांतों के अनुगामी हैं तब मुझ जैसे अज्ञानियों का उद्धार कीजिए। हम आपके बालक हैं, अतः आप ही बतलाइये कि ऐसी परिस्थिति में मैं क्या करूँ?'
          उन्होंने कहा- 'बातों के बनाने में तो अज्ञानी नहीं, पर आचार के पालने में अज्ञान बनते हो!'
           ऐसी ही एक गलती और भी हो गई। वह यह कि मथुरा विद्यालय में पढ़ाने के लिए श्रीमान पंडित ठाकुर प्रसाद जी शर्मा उन्हीं दिनों यहाँ पर आये थे, और मोतीकटरा की धर्मशाला में ठहरे थे। आप व्याकरण और वेदांत के आचार्य थे, साथ ही साहित्य और न्याय के प्रखर विद्वान थे। आपके पांडित्य के समक्ष अच्छे-अच्छे विद्वान नतमस्तक हो जाते थे। हमारे श्रीमान स्वर्गीय पंडित बलदेवदास जी ने भी आपसे भाष्यान्त व्याकरण का अभ्यास किया था।
    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथि- श्रावण कृष्ण ४?
  7. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १     ?

                         "स्थिर मन"
        
                 एक बार लेखक ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूछा, महाराज आप निरंतर स्वाध्याय आदि कार्य करते रहते है क्या इसका लक्ष्य मन रूपी बन्दर को बाँधकर रखना है जिससे वह चंचलता ना दिखाये।महाराज बोले, "हमारा बन्दर चंचल नहीं है"|
               लेखक ने कहा,  "महाराज मन की स्थिरता कैसे हो सकती है,वह तो चंचलता उत्पन्न करता ही है"
             महाराज ने कहा, "हमारे पास चंचलता के कारण नहीं रहे है|जिसके पास परिग्रह की उपाधि रहती है उसको चिंता होती है,उसके मन में चंचलता होती है,हमारे मन में चंचलता नहीं है।हमारा मन चंचल होकर कहाँ जाएगा,इस बात के स्पष्टीकरण के हेतु आचार्य महाराज ने उदाहरण दिया -
                "एक पोपट तोता जहाज के ध्वज के भाले पर बैठ गया,जहाज मध्य समुद्र में चला गया।उस समय वह पोपट उठकर बाहर जाना चाहे तो कहाँ जाएगा?
      
                   उसके ठहरने का स्थल भी तो होना चाहिए।इसीलिए वह एक ही जगह पर बैठा रहता है।
                    इस प्रकार घर परिवार आदि का त्याग करने के कारण हमारा मन चंचल होकर जाएगा कहाँ,यह बताओ?"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  8. Abhishek Jain
    ? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३४* ?
         *"घुटनों के बल पर आसान"*
             नेमीसागर महराज घुटनों के बल पर खड़े होकर आसान लगाने में प्रसिद्ध रहे हैं। मैंने पूंछा- "इससे क्या लाभ होता है?" उन्होंने बताया - "इस आसान के लिए विशेष एकाग्रता लगती है। इससे मन का निरोध होता है। बिना एकाग्रता के यह आसन नहीं बनता है। इसे "गोड़ासन" कहते हैं।
           इससे मन इधर उधर नहीं जाता है और कायक्लेश तप भी पलता है। दस बारह वर्ष पर्यन्त मैं वह आसन सदा करता था, अब वृद्ध शरीर हो जाने से उसे करने में कठिनता का अनुभव होता है।"
           मैंने पूंछा- "महराज ! गोड़ासन करते समय घुटने के नीचे कोई कोमल चीज आवश्यक है या नहीं?"
           वे बोले- "मैं कठोर चट्टान पर भी आसन लगाकर जाप करता था। भयंकर से भयंकर गर्मी में भी गोड़ासन पाषाण पर लगाकर सामयिक करता था। मेरे साथी अनेक लोगों ने इस आसन का उद्योग किया, किन्तु वे सफल नहीं हुए।"
             ध्यान के लिए सामान्यतः पद्मासन, पल्यंकासन और कायोत्सर्ग आसन योग्य हैं। अन्य प्रकार का आसन कायक्लेश रूप है। गोड़ासन करने की प्रारम्भ की अवस्था में घटनों में फफोले उठ आए थे। मैं उनको दबाकर बराबर अपना आसन का कार्य जारी रखता था।"
    ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का* ?
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल त्रयोदशी?
  9. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - ३३३  ?
           *"सर्वप्रथम ऐलक शिष्य"*
            पूज्य शान्तिसागर जी महराज के सुशिष्य नेमीसागर जी महराज ने बताया कि- "आचार्य महराज जब गोकाक पहुँचे तब वहाँ मैंने और पायसागर ने एक साथ ऐलक दीक्षा महराज से ली। उस समय आचार्य महराज ने मेरे मस्तक पर पहले बीजाक्षर लिखे थे। मेरे पश्चात पायसागर के दीक्षा के संस्कार हुए थे।
        *"समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा*"
              "दीक्षा के दस माह बाद मैंने समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी। वहाँ आचार्य महराज ने पहले वीरसागर के मस्तक पर बीजाक्षर लिखे थे, पश्चात मेरे मस्तक पर लिखे थे। इस प्रकार मेरी और वीरसागर की समडोली में एक साथ मुनि दीक्षा हुई थी। वहाँ चंद्रसागर ऐलक बने थे।"
    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल द्वादशी?
  10. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८९     ?

                      "यम सल्लेखना"
             
                आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरणों के समीप रहने से मन में ऐसा विश्वास जम गया था, कि आचार्य महाराज जब भी सल्लेखना स्वीकार करेंगे तब नियम सल्लेखना लेंगे, यम सल्लेखना नहीं लेंगे। 
                 ऐसे ही उनका मनोगत अनेक बार ज्ञात हुआ था। मुझे यह विश्वास था कि, उनकी सल्लेखना नियम सल्लेखना के रूप में प्रारम्भ होगी किन्तु भविष्य का रूप किसे विदित था ? 
                     जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न थी, वह साक्षात् हो गया। श्रवणराज आचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने यम सल्लेखना ले ली। उसे लिए चार दिन हो गए। कुंथलगिरि से भी मुझे समाचार नहीं मिला।
              २२ अगस्त १९५५ को १ बजे मध्यान्ह में फलटण से इंद्रराज गांधी का तार मिला : 
    -Acharya maharaj started Yama sallekhana from four days, starte first train kunthalgiri-
    ('आचार्य महाराज ने चार दिन हुए यम सल्लेखना ले ली है। शीघ्र ट्रेन से कुंथलगिरि पहुंचिए।')
                    मै अवाक हो गया। चित्त घबरा गया। अकल्पित बात हो गई। तत्काल ही मैंने गुरुदेव के दर्शनार्थ प्रस्थान किया।
                      मैं २२ अगस्त को १२ बजे दिन की मोटर से नागपुर ७.३० बजे रात को पहुँचा वहाँ रेल से शेगाँव गया। पश्चात् मोटर से देवलगाँव, बागरुल, जालना होते हुए तारीख २३ की रात को १० बजे कुंथलगिरि पहुँचा। 
               उस समय मूसलाधार वर्षा हो रही थी। एक घंटा स्थान पाने की परेशानी के उपरांत मुझ अकेले को स्थान मिल पाया।
    ?    प्रथम दिन- १४ अगस्त १९५५    ?
                   आचार्यश्री ने प्रातः नौ बजे आहार में बादाम का पानी ग्रहण किया और तदनंतर उपस्थित जनता के सम्मुख एक सप्ताह की नियम सल्लेखना धारण करने की घोषणा की। महाराज को अंतिम आहार देने का श्रेय बारामती के गुरु-भक्त सेठ चंदूलाल सराफ को प्राप्त हुआ।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  11. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            आज चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन पर्यन्त के एक महत्वपूर्ण विवरण को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पोस्ट आप संरक्षित रखकर बहुत सारे रोचक प्रसंगों के वास्तविक समय का अनुमान लगा पाएँगे तथा उनके तपश्चरण की भूमि का समय के सापेक्ष में भी अवलोकन कर पाएँगे। विवरण ग्रंथ में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही है।

    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१५   ?
                  "चातुर्मास सूची"
    पूज्य शान्तिसागर जी महराज की दीक्षा संबंधी जानकारी का विवरण निम्न है-

    क्षुल्लक दीक्षा         -  १९१५
    ऐलक    दीक्षा        -  १९१९
    मुनि      दीक्षा        -   १९२०
    आचार्य    पद        -   १९२४
    चारित्र चक्रवर्ती पद -   १९३७
    आचार्य पद त्याग   -   १९५५
    समाधि                -   १९५५ 

                   ?चातुर्मास विवरण?

    क्र.       सन          स्थान
    १.       १९१५       कोगनोली
    २.       १९१६       कुम्भोज
    ३.       १९१७       कोगनोली
    ४.       १९१८       जैनवाड़ी
    ५.       १९१९       नसलापुर
    ६.       १९२०       ऐनापुर
    ७.       १९२१    नसलापुर
    ८.       १९२२       ऐनापुर
    ९.       १९२३       कोंनुर
    १०.    १९२४       समडोली
    ११.    १९२५       कुम्भोज
    १२.    १९२६       नांदनी
    १३.    १९२७       बाहुबली
    १४.    १९२८       कटनी
    १५.   १९२९       ललितपुर
    १६.   १९३०       मथुरा
    १७.   १९३१       दिल्ली
    १८.   १९३२       जयपुर
    १९.   १९३३       ब्यावर
    २०.   १९३४       उदयपुर
    २१.   १९३५       गोरल
    २२.   १९३६       प्रतापगढ़
    २३.   १९३७       गजपंथा
    २४.   १९३८       बारामती
    २५.   १९३९       पावागढ़
    २६.   १९४०       गोरल
    २७.   १९४१       अकलुज
    २८.   १९४२       कोरोची
    २९.   १९४३       डिगरज
    ३०.   १९४४       कुंथलगिरी
    ३१.   १९४५       फलटन
    ३२.   १९४६       कवलाना
    ३३.   १९४७       सोलापुर
    ३४.   १९४८       फलटण
    ३५.   १९४९       कवलाना
    ३६.   १९५०       गजपंथा
    ३७.   १९५१       बारामती
    ३८.   १९५२       लोनंद
    ३९.   १९५३       कुंथलगिरी
    ४०.   १९५४       फलटन
    ४१.   १९५५       कुंथलगिरी

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण ११?
  12. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६३     ?

              "मुनि मार्ग के सच्चे सुधारक"

                    आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के संबंध में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज कहने लगे- "आचार्य महाराज ने हम सब का अनंत उपकार किया है। उन्होंने इस युग में मुनिधर्म का सच्चा स्वरूप आचरण करके बताया था।
                        उनके पूर्व उत्तर में तो मुनियों का दर्शन नहीं था और दक्षिण में जहाँ कहीं मुनि थे, उनकी चर्या विचित्र प्रकार की थी। वे दिगम्बर मुनि कहलाते भर थे, किन्तु ऊपर से एक वस्त्र ओढ़े रहते थे।
                      वे मुनि उस जगह जाते थे, जहाँ उपाध्याय पहले से जाकर पक्की व्यवस्था कर लेता था। लोगों को पदगाहने की विधी मालूम नहीं थी। उपाध्याय उस समय मुनि को आहार कराता था और स्वयं भी माल उड़ाता था।
                     उस वातावरण को देख शान्तिसागर महाराज के मन ने यह अनुभव किया कि यह तो निर्ग्रन्थ मुनि की चर्या नहीं हो सकती। उन्होंने उपाध्याय द्वारा पूर्व निर्णीत घर में जाना एकदम छोड़ दिया। दिगम्बर मुद्रा धारण कर उन्होंने आहार के लिए बिहार करना प्रारम्भ दिया।
                   लोगो को विधि मालूम ना होने से वे उनको यथाशास्त्र नहीं पडगाहते थे। इससे महाराज लौट करके चुपचाप आ जाते। शांत भाव से वह दिन उपवास पूर्वक व्यतीत करते थे। 
                     दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। धर्मात्मा गृहस्थो में चिंता उत्पन्न हो गई। फिर भी वे नहीं जानते थे कि इनके उपवास का क्या कारण है? क्योंकि वे गुरुदेव शांत थे और किसी से अपनी बात नहीं कहते थे।
                    उनकी चर्या देखकर कोई भी आदिप्रभु के युग को स्मरण करेगा। ऐसी परिस्थिति के मध्य जब चार दिन बीत गए, तब ग्राम के प्रमुख पाटील ने उपाध्याय को बुलाकर कड़े शब्दों में कहा- "साधुला मरतोस काय ? विधि का सांगत नाहीं ? साधु को मरेगा क्या ? विधि क्यों नहीं बताता ?" तब उपाध्याय ने ठीक-ठीक विधि बताई, तब पडगाहना शुरू हुआ।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  13. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
         आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१   ?

              "महत्वपूर्ण शंका समाधान"

            अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?"
            महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह सात धातु-उपधातु रूप बनता है। पेट में दूध का कोठा तथा मल-मूत्र का कोठा जुदा-२ है। दूध में रक्त, मांस का भी संबंध नहीं है। इससे दुग्धपान करने में मल मूत्र का संबंध नहीं है।"
             इसके पश्चात महराज ने पूंछा,"यह बताओ की तालाब, नदी आदि में मगर, मछली आदि जलचर जीव रहते हैं या नहीं?"
           प्रोफेसर,"हाँ ! महराज वे रहते हैं, वह तो उनका घर ही है।"
         महराज, "अब विचारो जिस जल में मछली आदि, आदि मल मूत्र मिश्रित रहता है, उसे आप पवित्र मानते हुए पीते हो, और जिसका कोठा अलग रहता है, उस दूध को अपवित्र कहते हो, यह न्यायोचित बात नहीं है।
           इसके पश्चात महराज ने कहा, "हम लोग तो पानी छानते हैं, किन्तु जो बिना छना पानी पीते हैं, उनके पीने में मलादि का उपयोग हो जाता है।"
            यह सुनते ही वे विद्वान चुप हो गए। संदेह का शल्य निकल जाने से मन को बड़ा संतोष होता है। 
            पुनः महराज ने यह भी कहा, "जो यह सोचते हैं कि गाय का दूध उसके बछड़े के लिए ही होता है, वह भी दोषपूर्ण कथन है। गाय के अंदर बच्चे की आवश्यकता से अधिक दूध होता है।" आचार्यश्री की इस अनुभव उक्ति से उन पठित पुरुषों की भ्रांति दूर हो जाती है, जिन्होंने दूध ग्रहण को सर्वथा क्रूरता पूर्ण समझ रखा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख शुक्ल ३?
  14. Abhishek Jain
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
     
             पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन के इस प्रसंग को जानकर आपको बहुत सारी बातें देखने को मिलेगीं। साम्य मूर्ति पूज्य शान्तिसागरजी महराज के सम्मुख बड़ी बड़ी विपत्तियाँ यूँ ही टल जाती थीं, यह उनकी महान आत्मसाधना का ही प्रतिफल था। वर्तमान में पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महराज तथा अन्य और भी मुनिराजों के जीवन का अवलोकन करने से अनायास ही ज्ञात हो जायेगा।
                   दिगम्बर मुनिराज की अद्भुत क्षमा का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि नंगी तलवारों से उन पर प्रहार करने आए गुंडों के समूह के लोगों को भी उनके अपराध के फलस्वरूप कैद से छुड़वाने के लिए वह यह कहकर आहार को न निकले कि "मेरे कारण यह जेल में दुख भोग रहा है तो ऐसे मैं कैसे आहार को निकल सकता हूँ। ऐसे प्रसंगों को हमको स्वयं जानना चाहिए और अन्य सभी लोगों को भी दिगम्बर मुनिराजों की अनंत क्षमा से परिचित कराना चाहिए।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१२   ?

                         "धर्म संकट"

                   अब पाँचवा दिन आया, किसे कल्पना थी कि आज कल्पनातीत उपद्रव होगा, किन्तु सुयोग की बात कि उस दिन आचार्य महराज चर्या के हेतु कुछ पूर्व निकल गए थे। आहार की विधि भी शीघ्र सम्पन्न हो गई।
                 सब त्यागी लोग चबूतरे पर सामायिक करने का विचार कर रहे थे, आचार्यश्री ने आकाश पर दृष्टि डाली और उन्हें कुछ मेघ दिखाई दिए। यथार्थ में वे जल के मेघ नहीं, विपत्ति की घटा के सूचक बादल थे। उनको देखकर आचार्यश्री ने कहा कि 'आज सामायिक भीतर बैठकर करो'।
                  गुरुदेव के आदेश का सबने पालन किया। सब मुनिराज आत्मा के ध्यान में मग्न हो गए। सर्व जीवों के प्रति हमारे मन में समता का भाव है, यह उन्होंने अपने मन में पूर्णतः चिंतवन किया और तत्व चिंतन भी प्रारम्भ किया। अन्य श्रावक लोग अतिथि संविभाग कार्य के पश्चात अपने-२ भोजन में लगे।
                  इतने में क्या देखते हैं, लगभग ५०० गुंडे नंगी चमचमाती तलवार लेकर मुनि संघ पर प्रहार करने के हेतु छिद्दी ब्राम्हण के साथ वहाँ आ गए।
                मुनिराज आज बाहर ध्यान नहीं कर रहे थे, इससे उनकी आक्रमण करने की पाप भावना मन के मन में ही रही आयी। उन नीचों ने जैन श्रावकों पर आक्रमण किया। श्रावकों ने यथायोग्य साधनों से मुकाबला किया। श्रावकों ने जोर की मार लगाकर उन आतताइयों को दूर भगाया था, किन्तु शस्त्र सज्जित होने के कारण वे पुनः बढ़ते आते थे, ताकि जैन साधुओं के प्राणों के साथ होली खेलें। श्रावक भी गुरुभक्त थे। प्राणों की परवाह न करते हुए उनसे खूब लड़े। किसी का हाथ कटा किसी की अंगुली कटी, जगह-२ चोट आई।
             इतने में संध्या को रियासत की सेना आयी, तब इन नर पिशाचों का उपद्रव रुका। छिद्दी नामक ब्राम्हण पकड़ लिया गया। उस उपद्रव के समय संघ के साधुओं में भय का लेश भी नहीं था, वे ऐसे बैठे थे, मानों कोई चिंता की बात ही न होवे। उन्होंने अद्भुत आत्म संयम का परिचय दिया। उस समय मेघो ने भयंकर वर्षा कर दी थी, इससे उपद्रवकारियों का मनोबल सफल न हो पाया। प्रकृति ने धर्म रक्षा में योग दया था।
                पुलिस के बड़े-२ अधिकारी मुनि महाराजों के पास आये। उनके दर्शन कर उनके मन में उपद्रव कारियों के प्रति भयंकर क्रोध जागृत हुआ। वे सोचने लगे, ऐसे महात्मा पर जुल्म करने की उन नरपिशाचों ने चेष्टा कर बड़ा पाप किया। उनको कड़ी से कड़ी सजा देंगे।
       ?साम्य भाव अर्थात विश्व बंधुत्व?
                      प्रभात का समय आया। आचार्य महराज ने यह प्रतिज्ञा की थी, कि जब तक तुम छिद्दी ब्राम्हण को हिरासत से नहीं छोड़ोगे, तब तक हम आहार नहीं लेंगे।
                 आचार्य महराज के व्यवहार को देखकर कौन कहेगा कि इनकी दृष्टि में भी कोई शत्रु नाम की प्राणधारी मूर्ति है? अपने अनन्त प्रेम से ये समस्त विश्व को मंगलमय बनाते हैं।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल अष्टमी?
  15. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           यहाँ से गणेशप्रसाद का जैनधर्म के बड़े विद्वान पं. गोपालदासजी वरैयाजी से संपर्क का वर्णन प्रारम्भ हुआ। वर्णीजी ने यहाँ उस समय उनके गुरु पं. पन्नालालजी बाकलीवाल का भी उनके जीवन में बहुत महत्व बताया है।
            वर्णीजी के अध्यन के समय तक सिर्फ हस्तलिखित ग्रंथ ही प्रचलन में थे। यह महत्वपूर्ण बात यहाँ से ज्ञात होती है। जिनवाणी की कितनी विनय थी उस समय के श्रावकों में कि ग्रंथों का मुद्रण भी योग्य नहीं समझते थे।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

    *पं.गोपालदास वरैया के संपर्क में*
       
                        *क्रमांक - ६२*

                    बम्बई परीक्षा फल निकला। श्रीजी के चरणों के प्रसाद से मैं परीक्षा उत्तीर्ण हो गया। महती प्रसन्नता हुई। 
            श्रीमान स्वर्गीय पंडित गोपालदासजी का पत्र आया कि मथुरा में दिगम्बर जैन विद्यालय खुलने वाला है, यदि तुम्हे आना हो तो आ सकते हो। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।
            मैं श्री पंडितजी की आज्ञा पाते ही आगरा चला गया और मोतीकटरा की धर्मशाला में ठहर गया। वहीं श्री गुरु पन्नालाल जी बाकलीवाल भी आ गये। आप बहुत ही उत्तम लेखक तथा संस्कृत के ज्ञाता थे। 
             आपकी प्रकृति अत्यंत सरल और परोपकाररत थी। मेरे तो प्राण ही थे-इनके द्वारा मेरा जो उपकार हुआ उसे इस जन्म में नहीं भूल सकता। आप श्रीमान स्वर्गीय पं. बलदेवदास जी से सर्वार्थसिद्धि का अभ्यास करने लगे। मैं आपके साथ जाने लगा।
          उन दिनों छापे का प्रचार जैनियों में न था। मुद्रित पुस्तक का लेना महान अनर्थ का कारण माना जाता था, अतः हाथ से लिखे हुए ग्रंथों का पठन पाठन होता था। हम भी हाथ की लिखी सर्वार्थसिद्धि पर अभ्यास करते थे।
    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथि - श्रावण कृष्ण ३?
  16. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             
             आप जान रहे हैं एक ऐसे महापुरुष की आत्मकथा जिनका जन्म तो अजैन कुल में हुआ था लेकिन जो आत्मकल्याण हेतु संयम मार्ग पर चले तथा वर्तमान में सुलभ दिख रही जैन संस्कृति के सम्बर्धन का श्रेय उन्ही को जाता है।
        प्रस्तुत अंशो से हम लोग देख रहे हैं पूज्य वर्णी ने कितनी सहजता से अपनी ज्ञान प्राप्ति की यात्रा में आई सभी बातों को प्रस्तुत किया है।
    ? संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

          *"पं. गोपालदास वरैया के संपर्क में"*
                        *क्रमांक -६४*

     
           ऐसी ही एक गलती और भी हो गई। वह यह कि मथुरा विद्यालय में पढ़ाने के लिए श्रीमान पंडित ठाकुर प्रसाद जी शर्मा उन्हीं दिनों यहाँ पर आये थे, और मोतीकटरा की धर्मशाला में ठहरे थे। आप व्याकरण और वेदांत के आचार्य थे, साथ ही साहित्य और न्याय के प्रखर विद्वान थे। आपके पांडित्य के समक्ष अच्छे-अच्छे विद्वान नतमस्तक हो जाते थे। हमारे श्रीमान स्वर्गीय पंडित बलदेवदास जी ने भी आपसे भाष्यान्त व्याकरण का अभ्यास किया था।
            आपके भोजन की व्यवस्था श्रीमान बरैयाजी ने मेरे जिम्मे कर दी। चतुर्दशी का दिन था। पंडितजी ने कहा बाजार से पूड़ी तथा शाक ले आओ।' मैं बाजार गया और हलवाई के यहाँ से पूडी तथा शाक ले आ रहा था कि मार्ग में देवयोग से श्रीमान पं. नंदराम जी साहब पुनः मिल गये। मैंने प्रणाम किया। 
          पंडितजी ने देखते ही पूछा- 'कहाँ गये थे? मैंने कहा- पंडितजी के लिए बाजार से पूडी शाक लेने गया था।' उन्होंने कहा- 'किस पंडितजी के लिए?' मैंने उत्तर दिया- 'हरिपुर जिला इलाहाबाद के पंडित श्री ठाकुरप्रसाद जी के लिए, जोकि दिगम्बर जैन महाविद्यालय मथुरा में पढ़ाने के लिए नियुक्त हुए हैं।'
          अच्छा, बताओ शाक क्या है? मैंने कहा - 'आलू और बैगन का।' सुनते ही पंडितजी साहब अत्यन्त कुपित हुए। क्रोध से झल्लाते हुए बोले- 'अरे मूर्ख नादान ! आज चतुर्दशी के दिन यह क्या अनर्थ किया?'
           मैंने धीमे स्वर में कहा- 'महाराज ! मैं तो छात्र हूँ? मैं अपने खाने को तो नहीं लाया, कौन सा अनर्थ इसमें हो गया? मैं तो आपकी दया का पात्र हूँ।'

    ? *मेरीजीवन गाथा- आत्मकथा*?
     ?आजकी तिथि- वैशाख कृष्ण ७?
  17. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            कल से हमने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य महान तपस्वी नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र को जानना प्रारम्भ किया था।
            आज के प्रसंग को जानकर हम सभी को ज्ञात होगा कि जीव कैसे-कैसे वातावरण से निकल कर मोक्ष मार्ग में लग सकता है।
    ? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३०*  ?
          *"पूर्व जीवन में मुस्लिम प्रभाव"*

           पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज का पूर्व जीवन सचमुच में आश्चर्यप्रद था। उन्होंने यह बात बताई थी - 
        "मैं अपने निवास स्थान कुड़ची ग्राम में मुसलमानों का स्नेह पात्र था। मैं मुस्लिम दरगाह में जाकर पैर पड़ा करता था। सोलह वर्ष की अवस्था तक मैं वहाँ जाकर उदबत्ती जलाता था। शक्कर चढ़ाता था।"
          "जब मुझे अपने धर्म की महिमा का ज्ञान हुआ, तब मैंने दरगाह आदि की तरफ जाना बंद कर दिया। मेरा परिवर्तन मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। वे लोग मेरे विरुद्ध हो गए और मुझे मारने का विचार करने लगे।"
            *"ऐनापुर में स्थान परिवर्तन*"
             "ऐसी स्थिति में अपनी धर्म-भावना के रक्षण के निमित्त मैं कुचडी से चार मील की दूरी पर स्थित ऐनापुर ग्राम में चला गया। वहाँ के पाटील की धर्म में रुचि थी। वह हम पर बहुत प्यार करता था। इससे मैंने ऐनापुर में ही रहना ठीक समझा।"

    *? स्वाध्याय चा.चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल नवमी?
  18. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - ३३२  ?

                    *पिताजी से चर्चा*

          पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज द्वारा उनके मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति का वृतांत ज्ञात हुआ। गृहस्थ जीवन के बारे में उन्होंने बताया कि-
       "एक दिन मैंने अपने पिताजी से कुड़ची में कहा- "मैं चातुर्मास में महराज के पास जाना चाहता हूँ।"
           वे बोले -"तू चातुर्मास में उनके समीप जाता है, अब क्या वापिस आएगा? "पिताजी मेरे जीवन को देख चुके थे, इससे उनका चित्त कहता था कि आचार्य महराज का महान व्यक्तित्व मुझे सन्यासी बनाए बिना नहीं रहेगा। यथार्थ में हुआ भी ऐसा।"

                *जीवनधारा में परिवर्तन*
            "चार माह के सत्संग ने मेरी जीवन धारा बदल दी। मैंने महराज से कहा- "महराज ! मेरे दीक्षा लेने के भाव हैं। अपने कुटुम्ब से परवानगी लेने का विचार नहीं है। घर वाले कैसे मंजूरी देंगे? मुफ्त में नौकर मिलता है, जो कुटुम्ब की सेवा करता रहता है, तब फिर परवानगी कौन देगा?"
           महराज ने कहा- "ऐसा शास्त्र में कहा है कि आत्मकल्याण के हेतु आज्ञा प्राप्त करना परम आवश्यक नहीं है।"
         "नेमीसागर जी ने बताया कि मेरे दीक्षा लेने के भाव अठारह वर्ष की अवस्था में ही उत्पन्न हो चुके थे। उसके पूर्व की मेरी कथा विचित्र थी।"
      यह कथा प्रसंग क्रमांक ३३० में भेजी गई थी। पुनः प्रेषित करता हूँ??
    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
        ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल ११?
  19. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२५   ?

              "किन ग्रंथों का प्रभाव पढ़ा"

               एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा, "महराज ! प्रारम्भ में कौन से शास्त्र आपको विशेष प्रिय लगते थे और किन ग्रंथो  ने आपके जीवन को विशेष प्रभावित किया?
             महराज ने कहा, "जब हम पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब हिन्दी में समयसार तथा आत्मानुशासन बांचा करते थे। हिन्दी रत्नकरंडश्रावकाचार की टीका भी पढ़ते थे। इससे मन को बड़ी शांति मिलती थी।
             आत्मानुशासन पढ़ने से मन में वैराग्य भाव बढ़ता था। इसमें वैराग्य तथा स्त्रीसुख से विरक्ति का अच्छा वर्णन है। इससे हमारा मन त्याग की ओर बढ़ता था। इरादा १७-१८ वर्ष की अवस्था से ही मुनि बनने का था।"
          महराज ने यह भी बताया कि आत्मानुशासन की चर्चा अपने श्रेष्ट सत्यव्रती मित्र रुद्रप्पा नामक लिंगायत बंधु से किया करते थे। इन दोनो महापुरुषों का परस्पर में तत्व विचार चला करता था। महराज ने कहा था कि "आत्मानुशासन की कथा रुद्रप्पा को बड़ी प्रिय लगती थी।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आजकी तिथी - आषाढ़ शुक्ल ४?
  20. Abhishek Jain
    ? *१५ जनवरी को प्रथम तीर्थंकर मोक्षकल्याणक पर्व*?
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
        
           १५ जनवरी, दिन सोमवार, माघ कृष्ण चतुर्दशी की शुभ तिथि को इस अवसर्पणी काल के *प्रथम तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ ऋषभनाथ भगवान* का मोक्ष कल्याणक पर्व आ रहा है-

    ??
    १५ जनवरी को सभी अपने-२ नजदीकी जिनालयों में सामूहिक निर्वाण लाडू चढ़ाकर मोक्षकल्याणक पर्व मनाएँ।
    ??
    इस पुनीत अवसर धर्म प्रभावना के अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए।
    ??
    इस पुनीत अवसर मानव सेवा के कार्यक्रमों का भी आयोजन करना चाहिए।

       ?? *ऋषभनाथ भगवान की जय*??

    ?? *श्रमण संस्कृति सेवासंघ, मुम्बई*??
        *"मातृभाषा अपनाएँ,संस्कृति बचाएँ"*
  21. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के जीवन चरित्र की प्रस्तुती की इस श्रृंखला में प्रस्तुत किए शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागर जी महराज के जीवन चरित्र को सभी ने बहुत ही पसंद किया तथा सभी के जीवन को प्रेरणादायी जाना।
            आज से पूज्य पायसागर जी महराज की भांति आश्चर्य जनक जीवन चरित्र के धारक पूज्य नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र की कुछ प्रसंगों में प्रस्तुती की जायेगी।
    *? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२९  ?*
            
              *"जीवन में उपवास साधना"*

            पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य पूज्य नेमीसागर जी महराज के दीक्षा के ४४ वर्ष ही हो गए एक उपवास, एक आहार का क्रम प्रारम्भ से चलता आ रहा है। इस प्रकार उनका नर जन्म का समय उपवासों में व्यतीत हुआ।
    उन्होंने तीस चौबीसी व्रत के ७२० उपवास किए।
     कर्मदहन के १५६ तथा चारित्रशुद्धि व्रत के १२३४ उपवास किए। 
    दशलक्षण के ५ बार १०-१० उपवास किये।
    अष्टान्हिका में तीन बार ८-८ उपवास किए।
    लोणंद में महराज नेमीसागर ने सोलहकारण के १६ उपवास किए थे।
          इस प्रकार उनकी तपस्या अद्भुत रही है। २, ३, ४ उपवास तो वह जब चाहे तब करते थे।

    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल अष्टमी?
  22. Abhishek Jain
    ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३१ ?
                       *परिचय*

            पंडित श्री दिवाकर जी ने लिखा कि पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री १०८ नेमीसागर जी महराज महान तपस्वी हैं।
          नेमीसागर जी महराज ने बताया कि "हमारा और आचार्य महराज का ५० वर्ष पर्यन्त साथ रहा। चालीस वर्ष के मुनिजीवन के पूर्व मैंने गृहस्थ अवस्था में भी उनके सत्संग का लाभ लिया था।
           आचार्य महराज कोन्नूर में विराजमान थे। वे मुझसे कहते थे- "तुम शास्त्र पढ़ा करो। मैं उनका भाव लोगों को समझाऊँगा।"
            वे मुझे और बंडू को शास्त्र पढ़ने को कहते थे। मैं पाँच कक्षा तक पढ़ा था। मुझे भाषण देना नहीं आता था। शास्त्र बराबर पढ़ लेता था, इससे महराज मुझे शास्त्र बाचने को कहते थे। मेरे तथा बंडू के शास्त्र बाँचने पर जो महराज का उपदेश होता था, उससे मन को बहुत शांति मिलती थी। 
             अज्ञान भाव दूर होता था। ह्रदय के कपाट खुल जाते थे। उनका सत्संग मेरे मन में मुनि बनने का उत्साह प्रदान करता था। मेरा पूरा झुकाव गृह त्यागकर साधु बनने का हो गया था।"
    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
     ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल दशमी?
  23. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           आज का प्रसंग हर एक मनुष्य के मष्तिस्क में उठ सकने वाले प्रश्न का समाधान है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा दिया गया समाधान बहुत ही आनंद प्रद है।
              अपने जीवन के प्रति गंभीर दृष्टिकोण रखने वाले पाठक श्रावक अवश्य ही इस समाधान को जानकर आनंद का अनुभव करेंगे।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१८   ?

            "एक अंग्रेज का शंका समाधान"

           एक दिन एक विचारवान भद्र स्वभाव वाला अंग्रेज आया।
          उसने पूज्य शान्तिसागरजी महराज से पूंछा, "महराज ! आपने संसार क्यों छोड़ा, क्या संसार में रहकर आप शांति प्राप्त नहीं कर सकते थे?"
             महराज ने समझाया, "परिग्रह के द्वारा मन में चंचलता, राग, द्वेष आदि विकार होते हैं। पवन के बहते रहने से दीपशिखा कम्पन रहित नहीं हो सकती है। पवन के आघात से समुद्र में लहरों की परम्परा उठती जाती है। पवन के शांत होते ही दीपक की लौ स्थिर हो जाती है, समुद्र प्रशांत हो जाता है, इसी प्रकार राग- द्वेष के कारण रूप धन वैभव कुटुम्ब आदि को छोड़ देने पर मन में चंचलता नहीं रहता है। 
            मन के शांत रहने पर आत्मा भी शांत हो जाती है। निर्मल जीवन द्वारा मानसिक शांति आती है।
             विषय भोग की आसक्ति द्वारा इस जीव की मनोवृत्ति मलिन होती है। मलिन मन पाप का संचय करता हुआ दुर्गति में जाता है। परिग्रह को रखते हुए पूर्णतः अहिंसा धर्म का पालन नहीं हो सकता है, अतएव आत्मा की साधना निर्विघ्न रुप से करने के लिए विषय भोगों का त्याग आवश्यक है। 
              विषय भोगों से शांति भी तो नहीं होती है। आज तक इतना खाया, पिया, सुख भोगा, फिर भी क्या तृष्णा शांत हुई? विषयों की लालसा का रोग कम हुआ? वह तो बढ़ता ही जाता है।
            इससे भोग के बदले त्याग का मार्ग अंगीकार करना कल्याणकारी है। संसार का जाल ऐसा है कि उसमें जाने वाला मोहवश कैदी बन जाता है। वह फिर आत्मा का चिंत्वन नहीं कर पाता है।
           दूसरी बात यह है कि जब जीव मरता है, तब सब पदार्थ यही रह जाते हैं, साथ में अपने कर्म के सिवाय कोई भी चीज नहीं जाती है, इससे बाह्य पदार्थों में मग्न रहना, उनसे मोह करना अविचारित कार्य है।"
           इस विषय में आचार्यश्री की मार्मिक, अनुभवपूर्ण बातें सुनकर हर्षित हो वह अंग्रेज नतमस्तक हो गया।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आजकी तिथी-वैशाख कृ०अमावस?
  24. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              पूज्य शान्तिसागरजी महराज का सर्वत्र विहार आप सभी सामान्य दृष्टि से देख रहे होंगे। उस समय पूज्यश्री का विहार एक सामान्य बात नहीं थी क्योंकि उस समय भी देश परतंत्र ही था, ऐसी स्थिति में भी सन १९३१ में देश की राजधानी दिल्ली में चातुर्मास एक विशेष ही बात थी। उस समय परतंत्रता के समय में देश के केंद्र राजधानी दिल्ली में चातुर्मास पूज्य आचार्यश्री के दिगम्बरत्व को पुनः सर्वत्र प्रचारित होने की भावना का परिचायक है। और देश में सर्वत्र उनका अत्यंत प्रभावना के साथ निर्विध्न विहार उनके संयम और तपश्चरण का ही प्रभाव था।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१९   ?

                    "दिल्ली चातुर्मास"

                 दिल्ली आगमन के उपरांत पूज्य शान्तिसागरजी महराज का हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान हुआ। वहाँ अनेक स्थानों के भव्य जीवों का कल्याण करते हुए दिल्ली समाज के सौभाग्य से पुनः संघ का वहाँ आगमन हुआ।
                पूज्यश्री ने ससंघ राजधानी में ही चातुर्मास करने का निश्चय किया। संघ का निवास दरियागंज में हुआ था। पहले गुरुदेव के वियोग से जिन लोगों को संताप पहुँचा था, उनके आनंद का पारावार न रहा जब उनको ज्ञात हुआ कि अब दिल्ली का भाग्य पुनः जग गया, जहाँ ऐसे मुनिराज का चार माह तक धर्मोपदेश होगा।
              लोगों के मन में आशंका होती थी कि अंग्रेजों का राज्य है, कही राजधानी में मुनि विहार पर प्रतिबंध न आ जावे, किन्तु आचार्यश्री के सामने भय का नाम नहीं था। वे तो पूर्णतः निर्भय हैं। जो मृत्यु से भी सदा झूजने को तैयार रहते रहे हैं। उनको किस बात का डर होगा।

    ?समस्त देहली में दिगम्बर मुनियों का            
                       स्वतंत्र विहार?
                      मुनि संघ दरियागंज में स्थित था, किन्तु संघ के साधु आहार के लिए दिल्ली शहर के मुख्य-मुख्य राजपत्रों से आया जाया करते थे। कहीं कोई भी रोक टोक नहीं हुई। यह उनके तप का महान तेज था, जो उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ निर्विघ्न रीति से भारत की राजधानी में भ्रमण करता रहा।
            बड़े-बड़े राज्याधिकारी, न्यायाधीश आदि महराज के दर्शन करके अपने को धन्य मानते थे। दिगम्बर मुनियों का विहार न होने से कई लोगों को दिगम्बरत्व यथार्थ में 'अंधे की टेढ़ी खीर' जैसी समस्या बन जाया करता है, किन्तु किन्तु प्रत्यक्ष परिचय में आने वाले लोगों को वे परमाराध्य, सर्वदा, वंदनीय और मुक्ति का अनन्य उपाय प्रतीत होते हैं।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आजकी तिथी - वैशाख शुक्ल २?

        कल दान तीर्थ प्रवर्तन पर्व "अक्षय तृतीया पर्व" है। अक्षय तृतीया ही वह विशेष तिथी थी जिसमें हम सभी श्रावकों को मुनियों को आहार दान द्वारा अतिशय पुण्योपर्जन की विधी का ज्ञान हुआ था। 
              इस विशेष पर्व को मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान तथा वैयावृत्ति करके मनाना चाहिए।
  25. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९२   ?

            "आचार्य चरणों का प्रथम परिचय"

                      इस चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के यशस्वी लेखक दिवाकरजी कटनी के चातुर्मास के समय का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि मैंने भी पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन का निकट निरीक्षण नहीं किया था। अतः साधु विरोधी कुछ साथियों के प्रभाववश मैं पूर्णतः श्रद्धा शून्य था। 
                 कार्तिक की अष्टान्हिका के समय काशी अध्यन निमित्त जाते हुए एक दिन के लिए यह सोचकर कटनी ठहरा कि देखें इन साधुओं का अंतरंग जीवन कैसा है?
              लेकिन उनके पास पहुँचकर देखा, तो मन को ऐसा लगा कि कोई बलशाली चुम्बक चित्त को खेंच रहा है। मैंने दोष को देखने की दुष्ट बुद्धि से ही प्रेरित हो संघ को देखने का प्रयत्न किया था, किन्तु रंचमात्र भी सफलता नहीं मिली। संघ गुणों का रत्नाकर लगा।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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