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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. admin
    क्र. सं. तीर्थ क्षेत्र का नाम  Name of the Teerth क्षेत्र  1 अहिच्छत्र पार्श्वनाथ  Ahikhetra Parshvanath अतिशय क्षेत्र  2 अयोध्या Ayodhya कल्याणक क्षेत्र  3 बड़ागाँव Badagaon अतिशय क्षेत्र  4 बड़ागाँव त्रिलोकतीर्थ Badagaon Trilok Tirth अतिशय क्षेत्र  5 बहसूमा Bahsuma अतिशय क्षेत्र  6 बानपुर Banpur अतिशय क्षेत्र  7 बरनावा-जिला-बागपत Barnava-Jila-Bagpat अतिशय क्षेत्र  8 भदैनीजी-वाराणसी Bhadainiji-Varanasi कल्याणक क्षेत्र  9 भेलूपुर - वाराणसी Bhelupur - Varanasi कल्याणक क्षेत्र  10 चन्द्रावतीजी Chandravatiji कल्याणक क्षेत्र  11 चन्द्रवाड़ (फिरोज़ाबाद) Chandrawad (Firozabad) अतिशय क्षेत्र  12 देवगढ़जी Devgarhji अतिशय क्षेत्र  13 गिरारगिरिजी Girargiriji अतिशय क्षेत्र  14 हस्तिनापुर Hastinapur कल्याणक क्षेत्र  15 हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप Hastinapur-Jamboodveep कल्याणक क्षेत्र  16 हुसैनपुर कलाँ Husainpur Kalan अतिशय क्षेत्र  17 कहाऊँ Kahaun कल्याणक क्षेत्र  18 काकन्दी Kakandi कल्याणक क्षेत्र  19 कम्पिलजी Kampilji कल्याणक क्षेत्र  20 करगुवाँजी Karguwanji अतिशय क्षेत्र  21 कारीटोरन Karitoran अतिशय क्षेत्र  22 कौशाम्बी Kaushambi कल्याणक क्षेत्र  23 महलका-जिला-मेरठ Mahalka-Jila-Meerut अतिशय क्षेत्र  24 मङ्गलायतन Manglayatan कला क्षेत्र  25 मरसलगंज Marsalganj अतिशय क्षेत्र  26 मथुरा चौरासी Mathura Chourasi सिद्ध क्षेत्र  27 नवागढ़ (नन्दपुर) Navagarh (Nandpur) अतिशय क्षेत्र  28 पावागिरजी Pawagirji सिद्ध क्षेत्र  29 पावानगर Pawanagar सिद्ध क्षेत्र  30 प्रभासगिरि (पभौसा) Prabhasgiri (Pabhausa) कल्याणक क्षेत्र  31 प्रयाग Prayag कल्याणक क्षेत्र  32 प्रयाग-ऋषभदेव तपस्थली Prayag-Rishabhadev Tapsthali कल्याणक क्षेत्र  33 राजमल (फिरोजाबाद) Rajmal (Firozabad) अतिशय क्षेत्र  34 रतनपुरी Ratanpuri कल्याणक क्षेत्र  35 ऋषभांचल Rishabhanchal अतिशय क्षेत्र  36 सेरोनजी Seronji अतिशय क्षेत्र  37 सीरोनजी (मड़ावरा) Sironji (Madawara) अतिशय क्षेत्र  38 शान्तिगिरि (मदनपुर) Shantigiri (Madanpur) अतिशय क्षेत्र  39 शौरीपुर (बटेश्वर) Shouripur (Bateshvar) कल्याणक क्षेत्र  40 श्रावस्ती (सहेठ-महेठ) Shravasti (Saheth-Maheth) कल्याणक क्षेत्र  41 सिंहपुरी (सारनाथ) Sinhpuri (Sarnath) कल्याणक क्षेत्र  42 टोड़ी फतेहपुर Todi Fatehpur अतिशय क्षेत्र  43 त्रिलोकपुर Trilokpur अतिशय क्षेत्र  44 त्रिमूर्ति मन्दिर - एत्मादपुर Trimurti Mandir (Etmadpur) अतिशय क्षेत्र  45 वहलना Vahalana अतिशय क्षेत्र   
  2. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    Listen to अंजनचोर की कथा byआचार्य श्री विद्यासागर on hearthis.at
     
    सुख के देने वाले श्रीसर्वज्ञ वीतराग भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर अंजनचोर की कथा लिखता है, जिसने सम्यग्दर्शन के निःशंकित अंग का उद्योत किया है ॥१॥
    भारतवर्ष-मगधदेश के अन्तर्गत राजगृह नामक शहर में एक जिनदत्त सेठ रहता था। वह बड़ा धर्मात्मा था। वह निरन्तर जिनभगवान् की पूजा करता, दीन-दुखियों को दान देता, श्रावकों के व्रतों का पालन करता और सदा शान्त और विषयभोगों से विरक्त रहता । एक दिन जिनदत्त चतुर्दशी के दिन आधी रात के समय श्मशान में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था । उस समय वहाँ दो देव आये। उनके नाम अमितप्रभ और विद्युत्प्रभ थे। अमितप्रभ जैनधर्म का विश्वासी था और विद्युत्प्रभ दूसरे धर्म का।
    वे अपने-अपने स्थान से परस्पर के धर्म की परीक्षा करने को निकले थे। पहले उन्होंने एक पंचाग्नि तप करने वाले तापस की परीक्षा की । वह अपने ध्यान से विचलित हो गया। इसके बाद उन्होंने जिनदत्त को श्मशान में ध्यान करते देखा । तब अमितप्रभ ने विद्युत्प्रभ से कहा-प्रिय, उत्कृष्ट चारित्र के पालने वाले जिनधर्म के सच्चे साधुओं की परीक्षा की बात को तो जाने दो परन्तु देखते हो, वह गृहस्थ जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ है, यदि तुममें कुछ शक्ति हो, तो तुम उसे ही अपने ध्यान से विचलित कर दो यदि तुमने उसे ध्यान से चला दिया तो हम तुम्हारा ही कहना सत्य मान लेंगे ॥२-९॥
    अमितप्रभ से उत्तेजना पाकर विद्युत्प्रभ ने जिनदत्त पर अत्यन्त दुस्सह और भयानक उपद्रव किया, पर जिनदत्त उससे कुछ भी विचलित न हुआ और पर्वत की तरह खड़ा रहा। जब सबेरा हुआ तब दोनों देवों ने अपना असली वेष प्रकट कर बड़ी भक्ति के साथ उसका खूब सत्कार किया और बहुत प्रशंसा कर जिनदत्त को एक आकाशगामिनी विद्या दी। इसके बाद वे जिनदत्त से यह कहकर कि श्रावकोत्तम! तुम्हें आज से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई; तुम पंच नमस्कार मंत्र की साधना विधि के साथ इसे दूसरों को प्रदान करोगे तो उन्हें भी यह सिद्ध होगी-अपने स्थान पर चले गये ॥१०-१३॥
    विद्या की प्राप्ति से जिनदत्त बड़ा प्रसन्न हुआ। उसकी अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने की इच्छा पूरी हुई। वह उसी समय विद्या के प्रभाव से अकृत्रिम चैत्यालय के दर्शन करने को गया और खूब भक्तिभाव से उसने जिनभगवान् की पूजा की, जो कि स्वर्ग-मोक्ष को देने वाली है ॥१४॥
    इसी प्रकार अब जिनदत्त प्रतिदिन अकृत्रिम जिनमन्दिरों के दर्शन करने के लिए जाने लगा। एक दिन वह जाने के लिए तैयार खड़ा हुआ था कि उससे एक सोमदत्त नाम के माली ने पूछा- आप प्रतिदिन सबेरे ही उठकर कहाँ जाया करते हैं? उत्तर में जिनदत्त सेठ ने कहा- मुझे दो देवों की कृपा से आकाशगामिनी विद्या की प्राप्ति हुई है। सो उसके बल से सुवर्णमय अकृत्रिम जिनमन्दिरों की पूजा करने के लिए जाया करता हूँ, जो कि सुख शान्ति को देने वाली है । तब सोमदत्त ने जिनदत्त से कहा- प्रभो, मुझे भी विद्या प्रदान कीजिये न ? जिससे मैं भी अच्छे सुन्दर सुगन्धित फूल लेकर प्रतिदिन भगवान् की पूजा करने को जाया करूँ और उसके द्वारा शुभकर्म उपार्जन करूँ । आपकी बड़ी कृपा होगी यदि आप मुझे विद्या प्रदान करेंगे ॥ १५-२० ॥ 
    सोमदत्त की भक्ति और पवित्रता को देखकर जिनदत्त ने उसे विद्या साधन करने की रीति बतला दी। सोमदत्त उससे सब विधि ठीक-ठीक समझकर विद्या साधने के लिए कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की अन्धेरी रात में श्मशान में गया, जो कि बड़ा भयंकर था । वहाँ उसने एक बड़ की डाली में एक सौ आठ लड़ी का एक दूबा का सींका बाँधा और उसके नीचे अनेक भयंकर तीखे - तीखे शस्त्र सीधे मुँह गाड़ कर उनकी पुष्पादि से पूजा की। इसके बाद वह सींके पर बैठकर पंच नमस्कार मंत्र जपने लगा । मंत्र पूरा होने पर जब सींका के काटने का समय आया और उसकी दृष्टि चमचमाते हुए शस्त्रों पर पड़ी तब उन्हें देखते ही वह कांप उठा । उसने विचारा यदि जिनदत्त ने मुझे झूठ कह दिया हो तब तो मेरे प्राण ही चले जायेंगे; यह सोचकर वह नीचे उतर आया। उसके मन में फिर कल्पना उठी कि भला जिनदत्त को मुझसे क्या लेना है जो वह झूठ कहकर मुझे ऐसे मृत्यु के मुख में डालेगा ? और फिर वह तो जिनधर्म का परम श्रद्धालु है, उसके रोम-रोम में दया भरी हुई है, उसे मेरी जान लेने से क्या लाभ ? इत्यादि विचारों से अपने मन को सन्तुष्ट कर वह फिर सींके पर चढ़ा, पर जैसे ही उसकी दृष्टि फिर शस्त्रों पर पड़ी कि वह फिर भय के मारे नीचे उतर आया। इसी तरह वह बार-बार उतरने चढ़ने लगा, पर उसकी हिम्मत सींका काट देने की नहीं हुई । सच है जिन्हें स्वर्ग - मोक्ष का सुख देने वाले जिनभगवान् के वचनों पर विश्वास नहीं, मन में उन पर निश्चय नहीं, उन्हें संसार में कोई सिद्धि कभी प्राप्त नहीं होती ॥२१-२९॥
    उसी रात को एक और घटना हुई वह उल्लेख योग्य है और खासकर उसका इसी घटना से सम्बन्ध है। इसलिए उसे लिखते हैं । वह इस प्रकार है- इधर तो सोमदत्त सशंक होकर क्षणभर में वृक्ष पर चढ़ता और क्षणभर में उस पर से उतरता था और दूसरी ओर इसी समय माणिकांजन सुन्दरी नाम को एक वेश्या ने अपने पर प्रेम करने वाले एक अंजन नाम के चोर से कहा- प्राणवल्लभ, आज मैंने प्रजापाल महाराज की कनकवती नाम की पट्टरानी के गले में रत्न का हार देखा है। वह बहुत ही सुन्दर है । मेरा तो यह भी विश्वास है कि संसार भर में उसकी तुलना करने वाला कोई और हार होगा ही नहीं । सो आप उसे लाकर मुझे दीजिये, तब ही आप मेरे स्वामी हो सकेंगे अन्यथा नहीं ॥३०-३२॥ 
    माणिकांजन सुन्दरी की ऐसी कठिन प्रतिज्ञा सुनकर पहले तो वह कुछ हिचका, पर साथ ही उसके प्रेम ने उसे वैसा करने को बाध्य किया । वह अपने जीवन की भी कुछ परवाह न कर हार चुरा लाने के लिए राजमहल पहुँचा और मौका देखकर महल में घुस गया। रानी के शयनागार में पहुँचकर उसने उसके गले में से बड़ी कुशलता के साथ हार निकाल लिया। हार लेकर वह चलता बना। हजारों पहरेदारों को आँखों में धूल डालकर साफ निकल जाता, पर अपने दिव्य प्रकाश से गाढ़े से गाढ़े अन्धकार को भी नष्ट करने वाले हार ने उसे सफल प्रयत्न नहीं होने दिया । पहरे वालों ने उसे हार ले जाते हुए देख लिया। वे उसे पकड़ने को दौड़े। अंजनचोर भी खूब जी छोड़कर भागा, पर आखिर कहाँ तक भाग सकता था? पहरेदार उसे पकड़ लेना ही चाहते थे कि उसने एक नई युक्ति की। वह हार को पीछे की ओर जोर से फेंक कर भागा। सिपाही लोग तो हार उठाने में लगे और इधर अंजनचोर बहुत दूर तक निकल आया। सिपाहियों ने तब भी उसका पीछा न छोड़ा। वे उसका पीछा किये चले ही गये। अंजनचोर भागता-भागता श्मशान की ओर जा निकला, जहाँ जिनदत्त के उपदेश से सोमदत्त विद्या साधन के लिए व्यग्र हो रहा था । उसका यह भयंकर उपक्रम देखकर अंजन ने उससे पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो ? क्यों अपनी जान दे रहे हो ? उत्तर में सोमदत्त ने सब बातें उसे बता दीं, जैसी कि जिनदत्त ने उसे बतलाई थीं। सोमदत्त की बातों से अंजन को बड़ी खुशी हुई। उसने सोचा कि सिपाही लोग तो मुझे मारने के लिए पीछे आ ही रहे हैं और वे अवश्य मुझे मार भी डालेंगे क्योंकि मेरा अपराध कोई साधारण अपराध नहीं है। फिर यदि मरना ही है तो धर्म के आश्रित रहकर ही मरना अच्छा है। यह विचार कर उसने सोमदत्त से कहा - बस इसी थोड़ी-सी बात के लिए इतने डरते हो? अच्छा लाओ, मुझे तलवार दो, मैं भी तो जरा आजमा लूँ। यह कहकर उसने सोमदत्त से तलवार ले ली और वृक्ष पर चढ़कर सींके पर जा बैठा। वह सींके को काटने के लिए तैयार हुआ कि सोमदत्त के बताये मन्त्र को भूल गया । पर उसकी वह कुछ परवाह न कर और केवल इस बात पर विश्वास करके कि “जैसा सेठ ने कहा-उसका कहना मुझे प्रमाण है।” उसने निःशंक होकर एक ही झटके में सारे सींके को काट दिया। काटने के साथ ही जब तक वह शस्त्रों पर गिरता तब तक आकाशगामिनी विद्या ने आकर उससे कहा–देव, आज्ञा कीजिये, मैं उपस्थित हूँ । विद्या को अपने सामने खड़ी देखकर अंजनचोर को बड़ी खुशी हुई। उसने विद्या से कहा, मेरु पर्वत पर जहाँ जिनदत्त सेठ भगवान् की पूजा कर रहा है, वहीं मुझे पहुँचा दो। उसके कहने के साथ ही विद्या ने उसे जिनदत्त के पास पहुँचा दिया। सच है, जिनधर्म के प्रसाद से क्या नहीं होता ? ॥३३ -४१ ॥
    सेठ के पास पहुँचकर अंजन ने बड़ी भक्ति के साथ उन्हें प्रणाम किया और वह बोला- हे दया के समुद्र! मैंने आपकी कृपा से आकाशगामिनी विद्या तो प्राप्त की, पर अब आप मुझे कोई ऐसा मंत्र बतलाइये, जिससे मैं संसार समुद्र से पार होकर मोक्ष में पहुँच जाऊँ, सिद्ध हो जाऊँ ॥४२-४३॥
    अंजन की इस प्रकार वैराग्य भरी बातें सुनकर परोपकारी जिनदत्त ने उसे एक चारणऋद्धि के धारक मुनिराज के पास ले जाकर उनसे जिनदीक्षा दिलवा दी । अंजनचोर साधु बनकर धीरे-धीरे कैलाश पर जा पहुँचा। वहाँ खूब तपश्चर्या कर ध्यान के प्रभाव से उसने घातिया कर्मों का नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर वह त्रैलोक्य द्वारा पूजित हुआ । अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर अंजन मुनिराज ने अविनाशी, अनन्त गुणों के समुद्र मोक्षपद को प्राप्त किया ॥४४-४६॥
    सम्यग्दर्शन के निःशंकित गुण का पालन कर अंजनचोर भी निरंजन हुआ, कर्मों के नाश करने में समर्थ हुआ। इसलिए भव्य पुरुषों को तो निःशंकित अंग का पालन करना ही चाहिए ॥४७॥
    मूलसंघ में श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए। वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप उत्कृष्ट रत्नों से अलंकृत थे, बुद्धिमान् थे और ज्ञान के समुद्र थे । सिंहनन्दी मुनि उनके शिष्य थे । वे मिथ्यात्वमतरूपी पर्वतों को तोड़ने के लिए वज्र के समान थे, बड़े पाण्डित्य के साथ वे अन्य सिद्धान्तों का खण्डन करते थे और भव्य पुरुष रूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए वे सूर्य के समान थे वे चिरकाल तक जीयें उनका यशः शरीर इस नश्वर संसार में सदा बना रहे ॥४८॥
     
  3. admin
    आंध्रप्रदेश
    क्र. सं. तीर्थ क्षेत्र का नाम  Name of the Teerth क्षेत्र  1 कुलचारम् Kulcharam अतिशय क्षेत्र असम
    2 सूर्यपहाड़ Suryapahad अतिशय क्षेत्र बिहार
    3 आरा Arrah अतिशय क्षेत्र 4 बासोकुण्ड (वैशाली) Basokund (Vaishali) कल्याणक क्षेत्र 5 चम्पापुर Champapur सिद्ध क्षेत्र 6 गुणावाँजी Gunawaji सिद्ध क्षेत्र 7 कमलदहजी Kamaldahji सिद्ध क्षेत्र 8 कुण्डलपुर Kundalpur कल्याणक क्षेत्र 9 कुण्डलपुर-नंद्यावर्त महल Kundalpur-Nandyavart Mahal कल्याणक क्षेत्र 10 मन्दारगिर Mandargir सिद्ध क्षेत्र 11 पावापुरी Pawapuri सिद्ध क्षेत्र 12 राजगिरजी Rajgirji सिद्ध क्षेत्र 13 वैशाली Vaishali अतिशय क्षेत्र गुजरात
    14 भिलोड़ा Bhiloda अतिशय क्षेत्र 15 चैतन्यधाम Chetanyadham साधना तीर्थ 16 देरोल-वाघेला Derol-Vaghela अतिशय क्षेत्र 17 घोघा Ghogha अतिशय क्षेत्र 18 गिरनारजी Girnarji सिद्ध क्षेत्र 19 महुवा पार्श्वनाथ Mahua अतिशय क्षेत्र 20 पावागढ़ Pawagarh सिद्ध क्षेत्र 21 शत्रुजयजी (पालीताणा) Shatrunjayaji सिद्ध क्षेत्र 22 तारंगाजी Tarangaji सिद्ध क्षेत्र 23 उमता Umata अतिशय क्षेत्र हरियाणा
    24 हाँसी (पुण्योदय तीर्थ) Hansi अतिशय क्षेत्र 25 कासनगांव Kasangaon अतिशय क्षेत्र 26 रानीला (आदिनाथपुरम्) Ranila अतिशय क्षेत्र 27 रोहतक Rohtak अतिशय क्षेत्र झारखंड
    28 कोल्हुआ पहाड़ Kolhua Pahad सिद्ध क्षेत्र 29 सम्मेदशिखरजी Sammedshikharji सिद्ध क्षेत्र कर्नाटक
    30 बीजापुर Bijapur अतिशय क्षेत्र 31 धर्मस्थल Dharmasthal कला क्षेत्र 32 हरसूर Harsur अतिशय क्षेत्र 33 हॅमचा Humcha अतिशय क्षेत्र 34 हुणसे हडगली Hunse Hadgali अतिशय क्षेत्र 35 ज्वालामालिनि Jwalamalini अतिशय क्षेत्र 36 कमठाण Kamthan अतिशय क्षेत्र 37 कनकगिरि (मलेयूर) Kanakgiri (Maleyur) सिद्ध क्षेत्र 38 कारकल Karkal अतिशय क्षेत्र 39 कोथली Kothali अन्य क्षेत्र 40 मलखेड Malkhed अतिशय क्षेत्र 41 मूडबिद्री Mudbidri अतिशय क्षेत्र 42 शंखबसदी Shankhabasdi कला क्षेत्र 43 श्रवणबेलगोला Shrawanbelgola अतिशय क्षेत्र 44 स्तवनिधी (तवंदी) Stavanidhi (Tavandi) अतिशय क्षेत्र 45 वेणूर Venur कला क्षेत्र मध्य प्रदेश
    46 आहूजी Aahuji अतिशय क्षेत्र  47 अहारजी Aharji सिद्ध क्षेत्र  48 अजयगढ़ Ajaygarh अतिशय क्षेत्र  49 अमरकंटक Amarkantak अतिशय क्षेत्र  50 बाड़ी Badi अतिशय क्षेत्र  51 बड़ोह Badoh कला क्षेत्र  52 बही पार्श्वनाथ Bahi Parshvanath अतिशय क्षेत्र  53 बहोरीबन्द Bahoriband अतिशय क्षेत्र  54 बजरंगगढ़ Bajranggarh अतिशय क्षेत्र  55 बंधाजी Bandhaji अतिशय क्षेत्र  56 बनेड़ियाजी Banediyaji अतिशय क्षेत्र  57 बरासोंजी Baransoji अतिशय क्षेत्र  58 बरेला Barela अतिशय क्षेत्र  59 बरही Barhi अतिशय क्षेत्र  60 बावनगजा (चूलगिरि) Bawangaja सिद्ध क्षेत्र  61 भोजपुर Bhojpur अतिशय क्षेत्र  62 भौंरासा Bhourasa अतिशय क्षेत्र  63 बिजोरी Bijori अतिशय क्षेत्र  64 बीनाजी (बारहा) Binaji (Barha) अतिशय क्षेत्र  65 चन्देरी Chanderi अतिशय क्षेत्र  66 छोटा महावीरजी Chota Mahaveerji अतिशय क्षेत्र  67 द्रोणगिरि Drongiri सिद्ध क्षेत्र  68 ईशुरवारा Eshurwara अतिशय क्षेत्र  69 फलहोड़ी बड़ागाँव Falhodi Badagaon सिद्ध क्षेत्र 70 गंधर्वपुरी Gandharvapuri पुरातत्व क्षेत्र  71 गोलाकोट Golakot अतिशय क्षेत्र  72 गोम्मटगिरि (इन्दौर) Gommatgiri अतिशय क्षेत्र  73 गोपाचल पर्वत Gopachal Parwat सिद्ध क्षेत्र 74 गुड़र Gudar अतिशय क्षेत्र  75 ग्वालियर - स्वर्ण मंदिर Gwalior-Swarna Mandir दर्शनीय क्षेत्र  76 ग्यारसपुर Gyaraspur अतिशय क्षेत्र  77 जामनेर Jamner अतिशय क्षेत्र  78 जयसिंहपुरा-उज्जैन Jaysinghpura-Ujjain अतिशय क्षेत्र  79 कैथूली Kaithuli अतिशय क्षेत्र  80 खजुराहो Khajuraho अतिशय क्षेत्र  81 खंदारगिरि Khandargiri अतिशय क्षेत्र  82 खनियाँधाना Khaniyadhana दर्शनीय क्षेत्र  83 कुण्डलगिरि (कोनीजी) Kundalgiri (Koniji) अतिशय क्षेत्र  84 कुण्डलपुर (दमोह) Kundalpur (Damoh) सिद्ध क्षेत्र 85 लखनादौन Lakhnadaun अतिशय क्षेत्र  86 महावीर तपोभूमि-उज्जैन Shri Mahavir-Tapobhumi-Ujjain अतिशय क्षेत्र  87 मक्सी पार्श्वनाथ Maksi-Parshvanath अतिशय क्षेत्र  88 मंगलगिरि (सागर) Mangalgiri (Sagar) अतिशय क्षेत्र  89 मनहरदेव Manhardev अतिशय क्षेत्र  90 मानतुंगगिरि (धार) Mantunggiri अतिशय क्षेत्र  91 मुक्तागिरि (मेंढागिरि) Muktagiri सिद्ध क्षेत्र 92 नैनागिरि (रेशंदीगिरि) Nainagiri सिद्ध क्षेत्र 93 नेमावर (सिद्धोदय) Nemawar (Siddhodaya) सिद्ध क्षेत्र 94 निंसईजी (मल्हारगढ़) Nisaiji अन्य क्षेत्र  95 निसईजी सूखा (पथरिया) Nisaiji Sukha अतिशय क्षेत्र  96 नोहटा (आदीश्वरगिरि) Nohta अतिशय क्षेत्र  97 पंचराई Pacharai अतिशय क्षेत्र  98 पजनारी Pajnari अतिशय क्षेत्र  99 पनागर Panagar अतिशय क्षेत्र  100 पानीगाँव Panigaon कला क्षेत्र  101 पपौराजी Paporaji अतिशय क्षेत्र  102 पाश्वगिरि (बड़वानी) Parshvagiri (Badwani) अतिशय क्षेत्र  103 पटेरिया (गढ़ाकोटा) Pateria (Gadakota) अतिशय क्षेत्र  104 पटनागंज (रहली) Patnaganj (Raheli) अतिशय क्षेत्र  105 पावई (पावागढ़) Paawai (Pawagadh) अतिशय क्षेत्र  106 पिड़रूवा Pidruva अतिशय क्षेत्र  107 पिसनहारी-मढ़ियाजी Pisanhari-Madiyaji अतिशय क्षेत्र  108 पुष्पगिरि Pushpagiri अतिशय क्षेत्र  109 पुष्पावती  बिलहरी Pushpavati Bilhari अतिशय क्षेत्र  110 सेमरखेड़ी (निसईंजी) Semarkhedi (Nisaiji) अतिशय क्षेत्र  111 सेसई Sesai अतिशय क्षेत्र  112 सिद्धवरकूट Siddhvarkut सिद्ध क्षेत्र 113 सिहोंनियाँजी Sihoniyaji अतिशय क्षेत्र  114 सिरोंज Sironj अतिशय क्षेत्र  115 सोनागिरिजी Sonagiriji सिद्ध क्षेत्र 116 तालनपुर Talanpur अतिशय क्षेत्र  117 तेजगढ़ Tejgarh अतिशय क्षेत्र  118 थुबोनजी Thubonji अतिशय क्षेत्र  119 तिगोड़ाजी Tigodaji अतिशय क्षेत्र  120 ऊन (पावागिरि) Un (Pawagiri) सिद्ध क्षेत्र 121 उरवाहा Urwaha अतिशय क्षेत्र  महाराष्ट्र
    122 आसेगांव Aasegaon अतिशय क्षेत्र 123 आष्टा (कासार) Aashta (Kasar) अतिशय क्षेत्र 124 अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ Antariksha Parshvanath अतिशय क्षेत्र 125 भातकुली जैन Bhatkuli Jain अतिशय क्षेत्र 126 दहीगाँव Dahigaon अतिशय क्षेत्र 127 धरणगाँव Dharangaon अतिशय क्षेत्र 128 एलोरा (वेरूल) Ellora (Verul) अतिशय क्षेत्र 129 गजपंथा Gajpantha सिद्ध क्षेत्र 130 जटवाड़ा Jatwada अतिशय क्षेत्र 131 कचनेर Kachner अतिशय क्षेत्र 132 कारंजा (लाड़) Karanja (Lad) अतिशय क्षेत्र 133 कौडण्यपुर Kaudanyapur अतिशय क्षेत्र 134 केसापुरी-बीड़ Kesapuri-Bir अतिशय क्षेत्र 135 कुम्भोज बाहुबली Kumbhoj Bahubali अतिशय क्षेत्र 136 कुण्डल Kundal सिद्ध क्षेत्र 137 कुंथलगिरि Kunthalgiri सिद्ध क्षेत्र 138 कुन्थुगिरि Kunthugiri अतिशय क्षेत्र 139 मांडल Mandal अतिशय क्षेत्र 140 मांगीतुंगी Mangitungi सिद्ध क्षेत्र 141 नाईचाकुर Naichakur अतिशय क्षेत्र 142 नंदीश्वर-पंचालेश्वर Nandishwar-Panchaleshwar अतिशय क्षेत्र 143 नवागढ़ (उखलद) Nawagarh अतिशय क्षेत्र 144 नेमगिरि, जिंतूर Nemgiri Jintur अतिशय क्षेत्र 145 पैठण Paithan अतिशय क्षेत्र 146 पोदनपुर (बोरीवली) Podanpur (Borivalli) अतिशय क्षेत्र 147 रामटेक Ramtek अतिशय क्षेत्र 148 सावरगाँव (काटी) Sawargaon अतिशय क्षेत्र 149 शिरड़ शहापुर Shirad अतिशय क्षेत्र 150 तेर Ter अतिशय क्षेत्र 151 विजय गोपाल Vijay Gopal अतिशय क्षेत्र उड़ीसा
    152 खंडगिरि-उदयगिरि Khandgiri-Udaygiri सिद्ध क्षेत्र राजस्थान
    153 अडिन्दा Adinda अतिशय क्षेत्र 154 अन्देश्वर पार्श्वनाथ Andeshwar Parshvanath अतिशय क्षेत्र 155 अरथूना नसियाँजी Arthuna Nasiyaji अतिशय क्षेत्र 156 बिजौलियां पार्श्वनाथ Bijoliya parshvanath अतिशय क्षेत्र 157 चमत्कारजी (सवाईमाधोपुर) Chamatkarji अतिशय क्षेत्र 158 चाँदखेड़ी Chandkhedi अतिशय क्षेत्र 159 चन्द्रगिरि बैनाड़ Chandragiri Bainad अतिशय क्षेत्र 160 चंवलेश्वर पार्श्वनाथ Chanwaleshwar Parshvanath अतिशय क्षेत्र 161 चूलगिरि (खानियांजी) Chulgiri Khaniyaji अतिशय क्षेत्र 162 देबारी Debari अतिशय क्षेत्र 163 देहरा - तिजारा Dehara-Tijara अतिशय क्षेत्र 164 दिलवाड़ा-माउण्ट आबू Dilwada-Mount Abu अतिशय क्षेत्र 165 जहाजपुर Jahajpur अतिशय क्षेत्र 166 झाझीरामपुरा-दौसा Jhajhirampura-Dausa अतिशय क्षेत्र 167 झालरापाटन-पार्श्वगिरि Jhalarapatan Parshwagiri अतिशय क्षेत्र 168 केशवराय पाटन Keshorai Patan अतिशय क्षेत्र 169 खेरवाड़ा Khairwada अतिशय क्षेत्र 170 खन्डारजी Khandarji अतिशय क्षेत्र 171 खूणादरी Khunadari अतिशय क्षेत्र 172 महावीरजी Mahavirji अतिशय क्षेत्र 173 मालपुरा - टोंक Malpura - Tonk अतिशय क्षेत्र 174 मौजमाबाद Maujamabad अतिशय क्षेत्र 175 मेहन्दवास - टोंक Mehandwas - Tonk अतिशय क्षेत्र 176 नागफणी पार्श्वनाथ Nagphani Parshvanath अतिशय क्षेत्र 177 नारेली Nareli दर्शनीय क्षेत्र 178 नौगामा नसियाँजी Naugama Nasiyaji कला क्षेत्र 179 पदमपुरा (बाड़ा) Padampura (Baada) अतिशय क्षेत्र 180 रैवासा-सीकर Raiwasa-Seekar अतिशय क्षेत्र 181 ऋषभदेव (केशरियाजी) Rishabhdev Keshriyaji अतिशय क्षेत्र 182 सालेड़ा Saleda अतिशय क्षेत्र 183 संधीजी-सांगानेर Sanghiji-Sanganer अतिशय क्षेत्र 184 सांखना - टोंक Sankhana - Tonk अतिशय क्षेत्र 185 सरवाड़ Sarvaad अतिशय क्षेत्र 186 शांतिनाथ-बमोतर Shantinath-Bamotar अतिशय क्षेत्र 187 वागोल-पार्श्वनाथ Vagol-Parshvanath अतिशय क्षेत्र तमिलनाडु
    188 मेलचित्तामूर Melchitamur अतिशय क्षेत्र 189 पोन्नूरमले Ponnurmalle अतिशय क्षेत्र 190 तिरूमलै Tirumalle अतिशय क्षेत्र उत्तराखंड
    191  अष्टापद कैलाश बद्रीनाथ Ashtapad Kailash Badrinath सिद्ध क्षेत्र उत्तर प्रदेश 
    192 अहिच्छत्र पार्श्वनाथ  Ahikhetra Parshvanath अतिशय क्षेत्र  193 अयोध्या Ayodhya कल्याणक क्षेत्र  194 बड़ागाँव Badagaon अतिशय क्षेत्र  195 बड़ागाँव त्रिलोकतीर्थ Badagaon Trilok Tirth अतिशय क्षेत्र  196 बहसूमा Bahsuma अतिशय क्षेत्र  197 बानपुर Banpur अतिशय क्षेत्र  198 बरनावा-जिला-बागपत Barnava-Jila-Bagpat अतिशय क्षेत्र  199 भदैनीजी-वाराणसी Bhadainiji-Varanasi कल्याणक क्षेत्र  200 भेलूपुर - वाराणसी Bhelupur - Varanasi कल्याणक क्षेत्र  201 चन्द्रावतीजी Chandravatiji कल्याणक क्षेत्र  202 चन्द्रवाड़ (फिरोज़ाबाद) Chandrawad (Firozabad) अतिशय क्षेत्र  203 देवगढ़जी Devgarhji अतिशय क्षेत्र  204 गिरारगिरिजी Girargiriji अतिशय क्षेत्र  205 हस्तिनापुर Hastinapur कल्याणक क्षेत्र  206 हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप Hastinapur-Jamboodveep कल्याणक क्षेत्र  207 हुसैनपुर कलाँ Husainpur Kalan अतिशय क्षेत्र  208 कहाऊँ Kahaun कल्याणक क्षेत्र  209 काकन्दी Kakandi कल्याणक क्षेत्र  210 कम्पिलजी Kampilji कल्याणक क्षेत्र  211 करगुवाँजी Karguwanji अतिशय क्षेत्र  212 कारीटोरन Karitoran अतिशय क्षेत्र  213 कौशाम्बी Kaushambi कल्याणक क्षेत्र  214 महलका-जिला-मेरठ Mahalka-Jila-Meerut अतिशय क्षेत्र  215 मङ्गलायतन Manglayatan कला क्षेत्र  216 मरसलगंज Marsalganj अतिशय क्षेत्र  217 मथुरा चौरासी Mathura Chourasi सिद्ध क्षेत्र  218 नवागढ़ (नन्दपुर) Navagarh (Nandpur) अतिशय क्षेत्र  219 पावागिरजी Pawagirji सिद्ध क्षेत्र  220 पावानगर Pawanagar सिद्ध क्षेत्र  221 प्रभासगिरि (पभौसा) Prabhasgiri (Pabhausa) कल्याणक क्षेत्र  222 प्रयाग Prayag कल्याणक क्षेत्र  223 प्रयाग-ऋषभदेव तपस्थली Prayag-Rishabhadev Tapsthali कल्याणक क्षेत्र  224 राजमल (फिरोजाबाद) Rajmal (Firozabad) अतिशय क्षेत्र  225 रतनपुरी Ratanpuri कल्याणक क्षेत्र  226 ऋषभांचल Rishabhanchal अतिशय क्षेत्र  227 सेरोनजी Seronji अतिशय क्षेत्र  228 सीरोनजी (मड़ावरा) Sironji (Madawara) अतिशय क्षेत्र  229 शान्तिगिरि (मदनपुर) Shantigiri (Madanpur) अतिशय क्षेत्र  230 शौरीपुर (बटेश्वर) Shouripur (Bateshvar) कल्याणक क्षेत्र  231 श्रावस्ती (सहेठ-महेठ) Shravasti (Saheth-Maheth) कल्याणक क्षेत्र  232 सिंहपुरी (सारनाथ) Sinhpuri (Sarnath) कल्याणक क्षेत्र  233 टोड़ी फतेहपुर Todi Fatehpur अतिशय क्षेत्र  234 त्रिलोकपुर Trilokpur अतिशय क्षेत्र  235 त्रिमूर्ति मन्दिर - एत्मादपुर Trimurti Mandir (Etmadpur) अतिशय क्षेत्र  236 वहलना Vahalana अतिशय क्षेत्र  पश्चिम बंगाल
    237 चिन्सुरा Chinsura अतिशय क्षेत्र 238 पाकबीरा (पुरुलिया) Paakbira (Purulia) अतिशय क्षेत्र  
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    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    स्वर्ग और मोक्ष सुख के देने वाले श्री अर्हंत , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करके मैं सम्यक् चारित्र का उद्योत करने वाले चौथे सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा लिखता हूँ ॥१॥
    अनन्तवीर्य भारतवर्ष के अन्तर्गत वीतशोक नामक शहर के राजा थे। उनकी महारानी का नाम सीता था। हमारे चरित्रनायक सनत्कुमार इन्हीं के पुण्य के फल थे। वे चक्रवर्ती थे। सम्यग्दृष्टियों में प्रधान थे। उन्होंने छहों खण्ड पृथ्वी अपने वश में कर ली थी। उनकी विभूति का प्रमाण ऋषियों ने इस प्रकार लिखा है-नवनिधि, चौदहरत्न, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ शूरवीर, छ्यानवें करोड़ धान्य से भरे हुए ग्राम छ्यानवें हजार सुन्दरियाँ और सदा सेवा में तत्पर रहने वाले बत्तीस हजार बड़े-बड़े राजा इत्यादि संसार श्रेष्ठ संपत्ति से वे युक्त थे। देव विद्याधर उनकी सेवा करते थे। वे बड़े सुन्दर थे, बड़े भाग्यशाली थे। जिनधर्म पर उनकी पूर्ण श्रद्धा थी। वे अपना नित्य-नैमित्तिक कर्म श्रद्धा के साथ करते, कभी उनमें विघ्न नहीं आने देते। इसके सिवा अपने विशाल राज्य का वे बड़ी नीति के साथ पालन करते और सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते ॥२-१०॥
    एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में पुरुषों के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा कर रहा था। सभा में बैठे हुए एक विनोदी देव ने उनसे पूछा - प्रभो ! जिस रूप गुण की आप बेहद तारीफ कर रहे हैं, भला, ऐसा रूप भारतवर्ष में किसी का है भी या केवल यह प्रशंसा ही मात्र है? ॥११-१२॥
    उत्तर में इन्द्र ने कहा-हाँ, इस समय भी भारतवर्ष में एक ऐसा पुरुष है, जिसके रूप की मनुष्य तो क्या देव भी तुलना नहीं कर सकते। उसका नाम है सनत्कुमार चक्रवर्ती ॥१३॥
    इन्द्र के द्वारा देव दुर्लभ सनत्कुमार चक्रवर्ती के रूपसौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर मणिमाल और रत्नचूल नाम के दो देव चक्रवर्ती की रूपसुधा के पान की बढ़ी हुई लालसा को किसी तरह नहीं रोक सके। वे उसी समय गुप्त वेश में स्वर्गधरा को छोड़कर भारतवर्ष में आए और स्नान करते हुए चक्रवर्ती का वस्त्रालंकार रहित, पर उस हालत में भी त्रिभुवनप्रिय और सर्वसुन्दर रूप को देखकर उन्हें अपना सिर हिलाना ही पड़ा। उन्हें मानना पड़ा कि चक्रवर्ती का रूप वैसा ही सुन्दर है, जैसा इन्द्र ने कहा था और सचमुच यह रूप देवों के लिए भी दुर्लभ है। इसके बाद उन्होंने अपना असली वेष प्रकट कर पहरेदार से कहा तुम जाकर अपने महाराज से कहो कि आप के रूप को देखने के लिए स्वर्ग से दो देव आए हुए हैं। पहरेदार ने जाकर महाराज से देवों के आने का हाल कहा। चक्रवर्ती ने इसी समय अपना श्रृंगार किया। इसके बाद वे सिंहासन पर आकर बैठे और देवों को राजसभा में आने की आज्ञा दी ॥१४-१९॥
    देव राजसभा में आए और चक्रवर्ती का रूप उन्होंने देखा । देखते ही वे खेद के साथ बोल उठे, महाराज! क्षमा कीजिए; हमें बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि स्नान करते समय वस्त्राभूषण रहित आपके रूप में जो सुन्दरता, जो माधुरी हमने छुपकर देखी थी, अब वह नहीं रही। इससे जैनधर्म का यह सिद्धान्त बहुत ठीक है कि संसार की सब वस्तुएँ क्षण-क्षण में परिवर्तित होती है - सब क्षणभंगुर हैं ॥२०-२१॥
    देवों की विस्मय उत्पन्न करने वाली बात सुनकर राज कर्मचारियों तथा और उपस्थित सभ्यों ने देवों से कहा-हमें तो महाराज के रूप में पहले से कुछ भी कमी नहीं दिखती, न जाने तुमने कैसे पहली सुन्दरता से इसमें कमी बतलाई है। सुनकर देवों ने सबको उसका निश्चय कराने के लिए एक जल भरा हुआ घड़ा मँगवाया और उसे सबको बतलाकर फिर उसमें से तृण द्वारा एक जल की बूँद निकाल ली। उसके बाद फिर घड़ा सबको दिखलाकर उन्होंने उनसे पूछा- बतलाओ पहले जैसे घड़े में जल भरा था अब भी वैसा ही भरा है, पर तुम्हें पहले से इसमें कुछ विशेषता दिखती है क्या? सबने एक मत होकर यही कहा कि नहीं। तब देवों ने राजा से कहा- महाराज, घड़ा पहले जैसा था, उसमें से एक बूँद जल की निकाल ली गई, तब भी वह इन्हें वैसा ही दिखता है । इसी तरह हमने आपका जो रूप पहले देखा था, वह अब नहीं रहा । वह कमी हमें दिखती है, पर इन्हें नहीं दिखती। यह कहकर दोनों देव स्वर्ग की ओर चले गए ॥२२-२८॥
    चक्रवर्ती ने इस चमत्कार को देखकर विचारा - स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु, धन, धान्य, दासी, दास, सोना, चाँदी आदि जितनी सम्पत्ति है, वह सब बिजली की तरह क्षणभर में देखते-देखते नष्ट होने वाली है और संसार दुःख का समुद्र है। यह शरीर भी, जिसे दिन-रात प्यार किया जाता है, घिनौना है, सन्ताप को बढ़ाने वाला है, दुर्गन्धयुक्त है और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है। तब इस क्षण विनाशी शरीर के साथ कौन बुद्धिमान् प्रेम करेगा? ये पाँच इन्द्रियों के विषय ठगों से भी बढ़कर ठग हैं। इनके द्वारा ठगा हुआ प्राणी एक पिशाचिनी की तरह उनके वश होकर अपनी सब सुध भूल जाता है और फिर जैसा वे नाच नचाते हैं नाचने लगता है । मिथ्यात्व जीव का शत्रु है, उसके वश हुए जीव अपने आत्महित के करने वाले, संसार के दुःखों से छुड़ाकर अविनाशी सुख के देने वाले, पवित्र जिनधर्म से भी प्रेम नहीं करते। सच भी तो है - पित्तज्वर वाले पुरुष को दूध भी कड़वा ही लगता है परन्तु मैं तो अब इन विषयों के जाल से अपनी आत्मा को छुड़ाऊँगा । मैं आज ही मोह-माया का नाशकर अपने हित के लिए तैयार होता हूँ। यह विचार कर वैरागी चक्रवर्ती ने जिनमन्दिर में पहुँचकर सब सिद्धि की  प्राप्ति कराने वाले भगवान् की पूजा की, याचकों को दयाबुद्धि से दान दिया और उसी समय पुत्र को राज्यभार देकर आप वन की ओर रवाना हो गए और चारित्रगुप्त मुनिराज के पास पहुँचकर उनसे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार का हित करने वाली है। इसके बाद वे पंचाचार आदि मुनिव्रतों का निरतिचार पालन करते हुए कठिन से कठिन तपश्चर्या करने लगे । उन्हें न शीत सताती है और न आताप सन्तप्त करता है। न उन्हें भूख की परवाह है और न प्यास की। वन के जीव-जन्तु उन्हें खूब सताते हैं, पर वे उससे अपने को कुछ भी दुःखी ज्ञान नहीं करते। वास्तव में जैन साधुओं का मार्ग बड़ा कठिन है, उसे ऐसे ही धीर वीर महात्मा पाल सकते हैं । साधारण पुरुषों में गम्य नहीं । चक्रवर्ती इस प्रकार आत्मकल्याण के मार्ग में आगे-आगे बढ़ने लगे ॥२९-३६॥
    एक दिन की बात है कि वे आहार के लिए शहर में गए। आहार करते समय कोई प्रकृति-विरुद्ध वस्तु उनके खाने में आ गई उसका फल यह हुआ कि उनका सारा शरीर खराब हो गया, , उसमें अनेक भयंकर व्याधियाँ उत्पन्न हो गई और सबसे भारी व्याधि तो यह हुई कि उनके सारे शरीर में कोढ़ फूट निकली। उससे रुधिर, पीप बहने लगा, दुर्गन्ध आने लगी । यह सब कुछ हुआ पर इन व्याधियों का असर चक्रवर्ती के मन पर कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने कभी इस बात की चिन्ता तक भी नहीं की कि मेरे शरीर की क्या दशा है? किन्तु वे जानते थे कि-
    बीभत्सु तापकं पूति शरीरमशुचेर्गृहम् । का प्रीतिर्विदुषामत्र यत्क्षणार्थे परिक्षयि॥
    इसलिए वे शरीर से सर्वथा निर्मोही रहे और बड़ी सावधानी से तपश्चर्या करते रहे-अपने व्रत पालते रहे ॥३७-३८॥
    एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में धर्म-प्रेम के वश हो मुनियों के पाँच प्रकार के चारित्र का वर्णन कर रहा था। उस समय एक मदनकेतु नामक देव ने उनसे पूछा-प्रभो ! जिस चारित्र का आपने अभी वर्णन किया उसका ठीक पालने वाला क्या कोई इस समय भारतवर्ष में है? उत्तर में इन्द्र ने कहा, सनत्कुमार चक्रवर्ती हैं। वे छह खण्ड पृथ्वी को तृण की तरह छोड़कर संसार, शरीर, भोग आदि से उदास हैं और दृढ़ता के साथ तपश्चर्या तथा पंच प्रकार का चारित्र पालन करते हैं ॥३९-४३॥
    मदनकेतु सुनते ही स्वर्ग से चलकर भारतवर्ष में जहाँ सनत्कुमार मुनि तपश्चर्या करते थे, वहाँ पहुँचा। उसने देखा कि उनका सारा शरीर रोगों का घर बन रहा है, तब भी चक्रवर्ती सुमेरु के समान निश्चल होकर तप कर रहे हैं। उन्हें अपने दुःख की कुछ परवाह नहीं हैं। वे अपने पवित्र चारित्र का धीरता के साथ पालन कर पृथ्वी को पावन कर रहे हैं। उन्हें देखकर मदनकेतु बहुत प्रसन्न हुआ। तब भी वे शरीर से कितने निर्मोही हैं, इस बात की परीक्षा करने के लिए उसने वैद्य का वेष बनाया और लगा वन में घूमने। वह घूम-घूमकर यह चिल्लाता था कि "मैं एक बड़ा प्रसिद्ध वैद्य हूँ, सब वैद्यों का शिरोमणि हूँ। कैसी ही भयंकर से भयंकर व्याधि क्यों न हो उसे देखते-देखते नष्ट करके शरीर को क्षणभर में मैं निरोग कर सकता हूँ।” देखकर सनत्कुमार मुनिराज ने उसे बुलाया और पूछा तुम कौन हो? किसलिए इस निर्जन वन में घूमते फिरते हो? और क्या कहते हो? उत्तर में देव ने कहा-मैं एक प्रसिद्ध वैद्य हूँ। मेरे पास अच्छी से अच्छी दवाएँ हैं। आपका शरीर बहुत बिगड़ रहा है, यदि आज्ञा दे तो मैं क्षणमात्र में इसकी सब व्याधियाँ खोकर इसे सोने सरीखा बना सकता हूँ। मुनिराज बोले- हाँ तुम वैद्य हो? यह तो बहुत अच्छा हुआ जो तुम इधर अनायास आ निकले। मुझे एक बड़ा भारी और महाभयंकर रोग हो रहा है, मैं उसके नष्ट करने का प्रयत्न करता हूँ, पर सफल प्रयत्न नहीं होता। क्या तुम उसे दूर कर दोगे? ॥४४-५०॥
    देव ने कहा-निस्सन्देह मैं आपके रोग को जड़ मूल से खो दूँगा । वह रोग शरीर से गलने वाला कोढ़ ही है न। मुनिराज बोले-नहीं, यह तो एक तुच्छ रोग है। इसकी तो मुझे कुछ भी परवाह नहीं। जिस रोग की बात मैं तुमसे कह रहा हूँ, वह तो बड़ा ही भयंकर है । देव बोला- अच्छा, तब बतलाइए यह क्या रोग है, जिसे आप इतना भयंकर बतला रहे हैं? मुनिराज ने कहा - सुनो, वह रोग है संसार का परिभ्रमण। यदि तुम मुझे उससे छुड़ा दोगे तो बहुत अच्छा होगा । बोलो क्या कहते हो? सुनकर देव बड़ा लज्जित हुआ। वह बोला, मुनिनाथ ! इस रोग को तो आप ही नष्ट कर सकते हैं । आप ही इसके दूर करने में शूरवीर और बुद्धिमान् हैं। तब मुनिराज ने कहा- भाई, जब इस रोग को तुम नष्ट नहीं कर सकते, तब मुझे तुम्हारी आवश्यकता भी नहीं । कारण विनाशीक, अपवित्र, निर्गुण और दुर्जन के समान इस शरीर की व्याधियों को तुमने नष्ट कर भी दिया तो उसकी मुझे जरूरत नहीं । जिस व्याधि का वमन के स्पर्शमात्र से जब क्षय हो सकता है, तब उसके लिए बड़े-बड़े वैद्यशिरोमणि की और अच्छी-अच्छी दवाओं की आवश्यकता ही क्या है? यह कहकर मुनिराज ने अपने वमन द्वारा एक हाथ के रोग को नष्टकर उसे सोने-सा निर्मल बना दिया। मुनि की इस अतुल शक्ति को देखकर देव भौंचक्का रह गया । वह अपने कृत्रिम वेष को पलटकर मुनिराज से बोला- भगवन्! आपके विचित्र और निर्दोष चारित्र की तथा शरीर में निर्मोहपने की सौधर्म इन्द्र ने धर्म प्रेम के वश होकर जैसी प्रशंसा की थी, वैसा ही मैंने आपको पाया। प्रभो ! आप धन्य है, संसार में आप ही का मनुष्य जन्म प्राप्त करना सफल और सुख देने वाला है। इस प्रकार मदनकेतु सनत्कुमार मुनिराज की प्रशंसा कर और बड़ी भक्ति के साथ उन्हें बारम्बार नमस्कार कर स्वर्ग में चला गया ॥५१-६०॥
    इधर सनत्कुमार मुनिराज क्षणक्षण में बढ़ते हुए वैराग्य के साथ अपने चारित्र को क्रमशः उन्नत करने लगे अन्त में शुक्लध्यान के द्वारा घातिया कर्मों का नाशकर उन्होंने लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया और इन्द्र धरणेन्द्रादि द्वारा पूज्य हुए ॥६१-६२॥
    इसके बाद वे संसार में दुःखरूपी अग्नि से झुलसते हुए अनेक जीवों को सद्धर्मरूपी अमृत की वर्षा से शान्त कर उन्हें मुक्ति का मार्ग बतलाकर और अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाशकर मोक्ष जा विराजे, जो कभी नाश नहीं होने वाला है ॥६३॥
    उन स्वर्ग और मोक्ष-सुख देने वाले श्रीसनत्कुमार केवली की हम भक्ति और पूजन करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं । वे हमें भी केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्रदान करें ॥६४॥
    जिस प्रकार सनत्कुमार मुनिराज ने सम्यक्चारित्र का उद्योत किया उसी तरह सब भव्य पुरुषों को भी करना उचित है । वह सुख का देने वाला है ॥६५॥
    श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छ में चारित्रचूड़ामणि श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए । सिंहनन्दी मुनि उनके प्रधान शिष्यों में थे । वे बड़े गुणी थे और सत्पुरुषों को आत्मकल्याण का मार्ग बतलाते थे। वे मुझे भी संसार समुद्र से पार करें ॥६६॥
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    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को, सर्वश्रेष्ठ गिनी जाने वाली जिनवाणी को और राग, द्वेष, मोह, माया आदि दोषों से रहित परम वीतरागी साधुओं को नमस्कार कर जिनपूजा द्वारा फल प्राप्त करने वाले एक मेंढक की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    शास्त्रों में उल्लेख किए उदाहरणों द्वारा यह बात खुलासा देखने में आती है कि जिन भगवान् की पूजा पापों की नाश करने वाली और स्वर्ग - मोक्ष के सुखों की देने वाली है। इसलिए जो भव्यजन पवित्र भावों द्वारा धर्मवृद्धि के अर्थ जिनपूजा करते हैं वे ही सच्चे सम्यग्दृष्टि हैं और मोक्ष जाने के अधिकारी हैं। इसके विपरीत पूजा की जो निन्दा करते हैं वे पापी हैं और संसार में निन्दा के पात्र हैं। ऐसे लोग सदा दुःख, दरिद्रता, रोग, शोक आदि कष्टों को भोगते हैं और अन्त में दुर्गति में जाते हैं। अतएव भव्यजनों को उचित है कि वे जिनभगवान् का अभिषेक, पूजन, स्तुति, ध्यान आदि सत्कर्मों को सदा किया करें। इसके सिवा तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार आदि द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए। इन पूजा प्रभावना आदि कारणों से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जिनभगवान् इंद्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुषों द्वारा पूज्य हैं। इसलिए उनकी पूजा तो करनी ही चाहिए। जिनपूजा के द्वारा सभी उत्तम - उत्तम सुख मिलते हैं। जिनपूजा करना महापुण्य का कारण है, ऐसा शास्त्रों में जगह-जगह लिखा मिलता है। इसलिए जिनपूजा समान दूसरा पुण्य का कारण संसार में न तो हुआ और न होगा। प्राचीन काल में भरत जैसे अनेक बड़े-बड़े पुरुषों ने जिनपूजा द्वारा जो फल प्राप्त किया है, किसकी शक्ति है जो उसे लिख सके । आठ द्रव्यों से पूजा करने वाले जिनपूजा द्वारा जो फल लाभ करते हैं, उनके सम्बन्ध में हम क्या लिखें, जब कि केवल फूल से पूजा कर एक मेंढक ने स्वर्ग सुख प्राप्त किया ॥२-११॥
    समन्तभद्र स्वामी ने भी इस विषय में लिखा है - राजगृह में हर्ष से उन्मत्त हुए एक मेंढक ने सत्पुरुषों को यह स्पष्ट बतला दिया कि केवल एक फूल द्वारा भी जिन भगवान् की पूजा करने से उत्तम फल प्राप्त होता है जैसा कि मैंने प्राप्त किया।
    अब मेंढक की कथा सुनिए
    यह भारतवर्ष जम्बूद्वीप के मेरु की दक्षिण दिशा में है। इसमें अनेक तीर्थंकरों का जन्म हुआ है। इसलिए यह महान् पवित्र है । मगध भारतवर्ष एक प्रसिद्ध और धनशाली देश है। सारे संसार की लक्ष्मी जैसे यहीं आकर इकट्ठी हो गई हो। यहाँ के निवासी प्रायः धनी है, धर्मात्मा है, उदार है और परोपकारी हैं॥१२-१३॥
    जिस समय की यह कथा है उस समय मगध की राजधानी राजगृह एक बहुत सुन्दर शहर था । सब प्रकार की उत्तम से उत्तम भोगोपभोग की वस्तुएँ वहाँ बड़ी सुलभता से प्राप्त थीं । विद्वानों का उसमें निवास था। वहाँ के पुरुष देवों से और स्त्रियाँ देवबालाओं से कहीं बढ़कर सुन्दर थीं। स्त्री- पुरुष प्रायः सब ही सम्यक्त्वरूपी भूषण से अपने को सिंगारे हुए थे और इसलिए राजगृह उस समय मध्यलोक का स्वर्ग कहा जाता था । वहाँ जैनधर्म का ही अधिक प्रचार था । उसे प्राप्त कर सब सुख-शान्ति लाभ करते थे ॥१४-१६॥
    राजगृह के राजा तब श्रेणिक थे । श्रेणिक धर्मज्ञ थे । जैनधर्म और जैनतत्त्व पर उनका पूर्ण विश्वास था। भगवान् की भक्ति उन्हें उतनी ही प्रिय थी, जितनी कि भौरे को कमलिनी । उनका प्रताप शत्रुओं के लिए मानों धधकती आग थी । सत्पुरुषों के लिए वे शीतल चन्द्रमा थे। पिता अपनी सन्तान को जिस प्यार से पालता है श्रेणिक का प्यार भी प्रजा पर वैसा ही था । श्रेणिक की कई रानियाँ थी। चेलना उन सबमें उन्हें अधिक प्रिय थी । सुन्दरता में, गुणों में, चतुरता में चेलना का आसन सबसे ऊँचा था। उसे जैनधर्म से, भगवान् की पूजा - प्रभावना से बहुत ही प्रेम था । कृत्रिम भूषणों द्वारा सिंगार करने को महत्त्व न देकर उसने अपने आत्मा को अनमोल सम्यग्दर्शन रूप भूषण से भूषित किया था । जिनवाणी सब प्रकार के ज्ञानविज्ञान से परिपूर्ण है और अतएव वह सुन्दर है, चेलना में किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की कमी न थी । इसलिए उसकी रूपसुन्दरता ने और अधिक सौन्दर्य प्राप्त कर लिया था । ' सोने में सुगन्ध' की उक्ति उस पर चरितार्थ थी ॥१७–२०॥
    राजगृह में एक नागदत्त नाम का सेठ रहता था । वह जैनी न था । इसकी स्त्री का नाम भवदत्ता था। नागदत्त बड़ा मायाचारी था। सदा माया के जाल में वह फँसा हुआ रहता था। इस मायाचार के पाप से मरकर यह अपने घर के आँगन की बावड़ी में मेंढक हुआ । नागदत्त यदि चाहता तो कर्मों का नाश कर मोक्ष जाता, पर पाप कर वह मनुष्य पर्याय से पशुजन्म में आया, एक मेंढक हुआ । इसलिए भव्य-जनों को उचित है कि वे संकट समय भी पाप न करें ॥२१-२३॥
    एक दिन भवदत्ता इस बावड़ी पर जल भरने को आई उसे देखकर मेंढक को जातिस्मरण हो गया। वह उछल कर भवदत्ता के वस्त्रों पर चढ़ने लगा । भवदत्ता ने डरकर उसे कपड़ों पर से झिड़क दिया। मेंढक फिर भी उछल-उछलकर उसके वस्त्रों पर चढ़ने लगा। उसे बार-बार अपने पास आता देखकर भवदत्ता बड़ी चकित हुई और डरी भी । पर इतना उसे भी विश्वास हो गया कि इस मेंढक का और मेरा पूर्वजन्म का कुछ न कुछ सम्बन्ध होना ही चाहिए। अन्यथा बार-बार मेरे झिड़क देने पर भी यह मेरे पास आने का साहस न करता । जो हो, मौका पाकर कभी किसी साधु-सन्त से इसका यथार्थ कारण पूछूंगी ॥२४-२७॥
    भाग्य से एक दिन अवधिज्ञानी सुव्रत मुनिराज राजगृह में आकर ठहरे। भवदत्ता को मेंढक का हाल जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी । इसलिए वह तुरन्त उनके पास गई उनसे प्रार्थना कर उसने मेंढक का हाल जानने की इच्छा प्रकट की । सुव्रत मुनिराज ने तब उससे कहा-जिसका तू हाल पूछने को आई है, वह दूसरा कोई न होकर तेरा पति नागदत्त है। वह बड़ा मायाचारी था, इसलिए मर कर माया के पाप से यह मेंढक हुआ है। उन मुनि के संसार - पार करने वाले वचनों को सुनकर भवदत्ता को सन्तोष हुआ। वह मुनि को नमस्कार कर घर पर आ गई उसने फिर मोहवश हो उस मेंढक को भी अपने यहाँ ला रखा। मेंढक वहाँ आकर बहुत प्रसन्न रहा ॥२८-३०॥
    इसी अवसर में वैभार पर्वत पर महावीर भगवान् का समवसरण आया। वनमाली ने आकर श्रेणिक को खबर दी कि राजराजेश्वर, जिनके चरणों को इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि प्रायः सभी महापुरुष पूजा-स्तुति करते हैं, वे महावीर भगवान् वैभार पर्वत पर पधारे हैं। भगवान् के आने के आनन्द-समाचार सुनकर श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुए । भक्तिवश हो सिंहासन से उठकर उन्होंने भगवान् को परोक्ष नमस्कार किया। इसके बाद इन शुभ समाचारों की सारे शहर में सबको खबर हो जाए, इसके लिए उन्होंने आनन्द घोषणा दिलवा दी। बड़े भारी लाव-लश्कर और वैभव के साथ भव्यजनों को संग लिए वे भगवान के दर्शनों को गए। वे दूर से उन संसार का हित करने वाले भगवान के समवसरण को देखकर उतने ही खुश हुए, जितने खुश मोर मेघों को देखकर होते हैं । रासायनिक लोग अपना मन चाहा रस लाभ कर होते हैं। समवसरण में पहुँचे। भगवान के उन्होंने दर्शन किए और उत्तम से उत्तम द्रव्यों से उनकी की । अन्त में उन्होंने भगवान् के गुणों का गान किया ॥३१-३७॥
    हे भगवान्! हे दया के सागर ! ऋषि- महात्मा आपको 'अग्नि' कहते हैं, इसलिए कि आप कर्मरूपी ईंधन को जला कर खाककर देने वाले हैं। आपको वे 'मेघ' भी कहते हैं, इसलिए कि आप प्राणियों को जलाने वाली दुःख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि दावाग्नि को क्षणभर में अपने उपदेश रूपी जल से बुझा डालते हैं । आप 'सूरज' भी हैं, इसलिए कि अपने उपदेशरूपी किरणों से भव्यजनरूपी कमलों को प्रफुल्लित कर लोक और अलोक के प्रकाशक हैं। नाथ, आप एक सर्वोत्तम वैद्य हैं, इसलिए कि धन्वन्तरी से वैद्यों की दवा से भी नष्ट न होने वाली ऐसी जन्म, जरा, मरण रूपी महान् व्याधियों को जड़ मूल से खो देते हैं । प्रभो, आप उत्तमोत्तम गुणरूपी जवाहरात के उत्पन्न करने वाले पर्वत हो, संसार के पालक हो, तीनों लोक के अनमोल भूषण हो, प्राणी मात्र के निःस्वार्थ बन्धु हो, दुःखों के नाश करने वाले हो और सब प्रकार के सुखों के देने वाले हो । जगदीश! जो सुख आपके पवित्र चरणों की सेवा से प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकार के कठिन से कठिन परिश्रम द्वारा भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए हे दयासागर ! मुझ गरीब को अपने चरणों को पवित्र और मुक्ति का सुख देने वाली भक्ति प्रदान कीजिए। जब तक कि मैं संसार से पार न हो जाऊँ । इस प्रकार बड़ी देर तक श्रेणिक ने भगवान् का पवित्र भावों से गुणानुवाद किया। बाद वे गौतम गणधर आदि महर्षियों को भक्ति से नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गए ॥३८-४४॥
    भगवान् के दर्शनों के लिए भवदत्ता सेठानी भी गई, आकाश में देवों का जय-जयकार और दुन्दुभी बाजों की मधुर - मनोहर आवाज सुनकर उस मेंढक को जातिस्मरण हो गया । वह भी तब बावड़ी में एक कमल की कली को अपने मुँह में दबाये बड़े आनन्द और उल्लास के साथ भगवान् की पूजा के लिए चला । रास्ते में आता हुआ वह हाथी के पैर नीचे कुचला जाकर मर गया। पर उसके परिणाम त्रैलोक्य पूज्य महावीर भगवान् की पूजा में लगे हुए थे, इसलिए वह उस पूजा के प्रेम से उत्पन्न होने वाले पुण्य से सौधर्म स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । देखिये, कहाँ तो वह मेंढक और कहाँ अब स्वर्ग का देव पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । कारण जिनभगवान् की पूजा से सब कुछ प्राप्त हो सकता है ॥४५-५०॥
    एक अंतर्मुहूर्त में वह मेंढक का जीव आँखों में चकाचौंध लाने वाला तेजस्वी और सुन्दर युवा देव बन गया। नाना तरह के दिव्य रत्नमयी अलंकारों की कान्ति से उसका शरीर ढक रहा था, बड़ी सुन्दर शोभा थी। वह ऐसा जान पड़ता था, मानों रत्नों की एक बहुत बड़ी राशि रखी हो या रत्नों का पर्वत बनाया गया हो। उसके बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा देखते ही बनती थी । गले में उसके स्वर्गीय कल्पवृक्षों के फूलों की सुन्दर मालाएँ शोभा दे रही थी। उनकी सुन्दर सुगन्ध ने सब दिशाओं को सुगन्धित बना दिया था। उसे अवधिज्ञान से जान पड़ा कि मुझे जो यह सब सम्पत्ति मिली है और मैं देव हुआ हूँ, यह सब भगवान् की पूजा की पवित्र भावना का फल है। इसलिए सबसे पहले मुझे जाकर पतित-पावन भगवान् की पूजा करनी चाहिए। इस विचार के साथ ही वह अपने मुकुट पर मेंढक का चिह्न बनाकर महावीर भगवान् के समवसरण में आया । भगवान् की पूजन करते हुए इस देव के मुकुट पर मेंढक के चिह्न को देखकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने गौतम भगवान् को हाथ जोड़ कर पूछा-हे संदेहरूपी अँधेरे को नाश करने वाले सूरज ! कृपाकर कहिए कि इस देव के मुकुट पर मेंढक का चिह्न क्यों है? मैंने तो आज तक देव के मुकुट पर ऐसा चिह्न नहीं देखा । ज्ञान की प्रकाशमान ज्योतिरूप गौतम भगवान् ने तब श्रेणिक को नागदत्त के भव से लेकर जब तक की सब कथा कह सुनाई उसे सुनकर श्रेणिक को तथा अन्य भव्यजनों को बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवान की पूजा करने में उनकी बड़ी श्रद्धा हो गई। जिनपूजन का इस प्रकार उत्कृष्ट फल जानकर अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे सुख देने वाली इस जिन पूजन को सदा करते रहें। जिन पूजा के फल से भव्यजन धन- दौलत, रूप-सौभाग्य,राज्य - वैभव, बाल-बच्चे और उत्तम कुछ जाति आदि सभी श्रेष्ठ सुख-चैन की मनचाही सामग्री लाभ करते हैं, वे चिरकाल तक जीते हैं, दुर्गति में नहीं जाते और उनके जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जिनपूजा सम्यग्दर्शन और मोक्ष का बीज है, संसार का भ्रमण मिटाने वाली है और सदाचार, सद्विद्या तथा स्वर्ग - मोक्ष के सुख की कारण है । इसलिए आत्महित के चाहने वाले सत्पुरुषों को चाहिए कि वे आलस छोड़कर निरन्तर जिनपूजा किया करें। इससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा ॥५१-६४॥
    यही जिन-पूजा सम्यग्दर्शनरूपी वृक्ष के सींचने को वर्षा सरीखी है, भव्यजनों को ज्ञान देने वाली मानों सरस्वती हैं, स्वर्ग की सम्पदा प्राप्त कराने वाली दूती है, मोक्षरूपी अत्यन्त ऊँचे मन्दिर तक पहुँचाने को मानो सीढ़ियों की श्रेणी है और समस्त सुखों को देने वाली है। यह आप भव्यजनों की पाप कर्मों से सदा रक्षा करें । जिनके जन्मोत्सव के समय स्वर्ग के इन्द्रों ने जिन्हें स्नान कराया, जिनके स्नान का स्थान सुमेरु पर्वत नियम किया गया और समुद्र जिनके स्नानजल के लिए बावड़ी नियत की गई, देवता लोगों ने बड़े आदर के साथ जिनकी सेवा बजाई, देवांगनाएँ जिनके इस मंगलमय समय में नाची और गन्धर्व देवों ने जिनके गुणों को गाया, जिनका यश बखान किया ऐसे जिन भगवान् आप भव्य-जनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ॥६५-६६॥
    वह भगवान् की पवित्र वाणी जय लाभ करे, संसार में चिर समय तक रहकर प्राणियों को ज्ञान के पवित्र मार्ग पर लगाये, जो अपने सुन्दर वाहन मोर पर बैठी हुई अपूर्व शोभा को धारण किए हैं, मिथ्यात्वरूपी गाढ़े अँधेरे को नष्ट करने के लिए जो सूरज के समान तेजस्विनी है, भव्यजनरूपी कमलों के वन को विकसित कर आनन्द की बढ़ाने वाली है, जो सच्चे मार्ग को दिखाने वाली है और स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुष जिसे बहुत मान देते हैं ॥६७॥
    मूलसंघ के सबसे प्रधान सारस्वत नाम के गच्छ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में प्रभाचन्द एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। वे जैनागमरूपी समुद्र के बढ़ाने के लिए चन्द्रमा की शोभा को धारण किए थे। बड़े-बड़े विद्वान् उनका आदर सत्कार करते थे। वे गुणों के मानों जैसे खजाने थे, बड़े गुणी थे ॥६८॥
    इसी गच्छ में कुछ समय बाद मल्लिभूषण भट्टारक हुए। वे मेरे गुरु थे । वे जिनभगवान् के चरण-कमलों के मानों जैसे भौरे थे - सदा भगवान् की पवित्र भक्ति में लगे रहते थे। मूलसंघ में इनके समय में यही प्रधान आचार्य गिने जाते थे । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय के ये धारक थे। विद्यानन्दि गुरु के पट्टरूपी कमल को प्रफुल्लित करने को ये जैसे सूर्य थे। इनसे उनके पट्ट की बड़ी शोभा थी। ये आप सत्पुरुषों को सुखी करें ॥६९॥
    वे सिंहनन्दी गुरु भी आपको सुखी करें, जो जिन भगवान् की निर्दोष भक्ति में सदा लगे रहते थे। अपने पवित्र उपदेश से भव्यजनों को सदा हितमार्ग दिखाते रहते थे। जो कामरूपी निर्दयी हाथी का दुर्मद नष्ट करने को सिंह सरीखे थे, काम को जिन्होंने वश कर लिया था । वे बड़े ज्ञानी ध्यानी थे, रत्नत्रय के धारक थे और उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी ॥७०॥
    वे प्रभाचन्द्राचार्य विजय लाभ करें, जो ज्ञान के समुद्र हैं। देखिये, समुद्र में रत्न होते हैं आचार्य महाराज सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किए हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं वे भी सप्तभंगीरूपी तरंगों से युक्त हैं-स्याद्वादविद्या के बड़े ही विद्वान् हैं। समुद्र की तरंगें जैसे कूड़े-करकट को निकाल बाहर फेंक देती हैं उसी तरह ये अपनी सप्तभंगी वाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्य मत के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय लाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ, घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेषरूपी भयानक मगरमच्छ न थे। समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिन भगवान् का वचनमयी अमृत समाया हुआ था और समुद्र में अनेक बिकने योग्य वस्तुएँ रहती है ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रय वस्तु को धारण किए थे। अतएव वे समुद्र की उपमा दिये गए ॥७१॥
    इन्हीं के पवित्र चरणकमलों की कृपा से जैनशास्त्रों के अनुसार मुझ नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप को प्राप्त करने वालों की इन पवित्र पुण्यमय कथाओं को लिखा है । कल्याण करने वाली ये कथाएँ भव्यजनों की धन-दौलत, सुख-चैन, शान्ति-सुयश और आमोद-प्रमोद आदि सभी सुख सामग्री प्राप्त कराने में सहायक हो । यह मेरी पवित्र कामना है ॥७२॥
  6. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर करकण्डु राजा का सुखमय पवित्र चरित लिखा जाता है ॥१॥
    जिसने पहले केवल एक कमल से जिन भगवान् की पूजा कर जो महान् फल प्राप्त किया, उसका चरित जैसा ग्रन्थों में पुराने ऋषियों ने लिखा है उसे देखकर या उनकी कृपा से उसका थोड़ा सार मैं लिखता हूँ ॥२-३॥
    नील और महानील तेरपुर के राजा थे । तेरपुर कुन्तल देश की राजधानी थी । यहाँ वसुमित्र नाम का एक जिनभक्त सेठ रहता था। सेठानी वसुमती उसकी स्त्री थी। धर्म से उसे बड़ा प्रेम था। इन सेठ- सेठानी के यहाँ धनदत्त नाम का एक ग्वाला नौकर था । वह एक दिन गाय चराने को जंगल में गयाहुआ था। एक तालाब में उसने कोई हजार पंखुड़ियों वाला एक बहुत सुन्दर कमल देखा। उस पर यह मुग्ध हो गया। तब तालाब में कूद कर उसने उस कमल को तोड़ लिया। उस समय नागकुमारी ने उससे कहा–धनदत्त, तूने मेरा कमल तोड़ा तो हैं, पर इतना तू ध्यान में रखना कि यह उस महापुरुष को भेंट किया जाए, जो संसार में सबसे श्रेष्ठ हो । नागकुमारी का कहा मानकर धनदत्त कमल लिए अपने सेठ के पास गया और उनसे सब हाल इसने कहा । वसुमित्र ने तब राजा के पास जाकर उनसे यह सब हाल कहा। सबसे श्रेष्ठ कौन है और यह कमल किसको भेंट चढ़ाया जाए, यह किसी को समझ में न आया। तब सब विचार कर चले कि यह हाल मुनिराज से कहें। संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है, इस बात का पता वे अपने को देंगे। यह निश्चय कर राजा, सेठ, ग्वाला तथा और बहुत से लोग सहस्रकूट नाम के जिन मन्दिरों में गए। वहाँ सुगुप्ति मुनिराज ठहरे हुए थे। उनसे राजा ने पूछा- हे करुणा के समुद्र, हे पवित्र धर्म के रहस्य को समझने वाले ! कृपया बतलाइए कि संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है? जिन्हें यह पवित्र कमल भेंट किया जाये । उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन् ! सारे संसार के स्वामी, राग-द्वेषादि दोषों से रहित जिन भगवान् सर्वोत्कृष्ट हैं क्योंकि संसार उन्हीं की पूजा करता है । यह सुनकर सबको बड़ा सन्तोष हुआ जिसे वे चाहते थे वह अनायास मिल गया। उसी समय वे सब भगवान् के सामने आए। धनदत्त ग्वाले ने तब भगवान् को नमस्कार कर कहा - हे संसार में सबसे श्रेष्ठ गिने जाने वाले, आपको यह कमल मैं भेंट करता हूँ। इसे आप स्वीकार कर मेरी आशा को पूरी करें। यह कहकर वह ग्वाला उस कमल को भगवान् के चरणों में चढ़ाकर चला गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पवित्र कर्म मूर्ख लोगों को भी सुख देने वाला होता है। इस कथा से सम्बन्ध रखने वाली एक दूसरी कथा यहाँ लिखी जाती है उसे सुनिए - ॥४-१७॥
    श्रावस्ती के रहने वाले सागरदत्त सेठ की स्त्री नागदत्त बड़ी पापिनी थी । उसका चाल-चलन अच्छा न था। एक सोमशर्मा ब्राह्मण के साथ उसका अनुचित बरताव था । सच है, कोई-कोई स्त्रियाँ तो बड़ी दुष्ट और कुल- कुलंकिनी हुआ करती है। उन्हें अपने कुल की मान-मर्यादा की कुछ लाज- शरम नहीं रहती। अपने उज्ज्वल कुलरूपी मन्दिर को मलिन करने के लिए वे काले धुएँ के समान होती है। बेचारा सेठ सरल स्वभावी था और धर्मात्मा था । इसलिए अपनी स्त्री का ऐसा दुराचार देखकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । उसने फिर संसार के भ्रमण को मिटाने वाली जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। वह बहुत ही कंटाल गया था। सागरदत्त तपस्या कर स्वर्ग गया। स्वर्गायु पूरी कर वह अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी में वसुपाल राजा की रानी वसुमती के दन्तिवाहन नाम का राजकुमार हुआ। वसुपाल सुख से राज करते रहे ॥ १८-२३॥
    इधर वह सोमशर्मा मर कर पाप के फल से बहुत समय तक दुर्गतियों में घूमा । एक से एक दुःसह कष्ट उसे सहना पड़ा। अन्त में वह कलिंग देश के जंगल में नर्मदा तिलक राजा का हाथी हुआ और ठीक ही है पाप से जीवों को दुर्गतियों के दुःख भोगने ही पड़ते हैं । कर्म से इस हाथी को किसी ने पकड़ लाकर वसुपाल को भेंट किया ॥२४-२५॥
    उधर इस हाथी के पूर्वभव के जीव सोमशर्मा की स्त्री नागदत्ता ने भी पाप के उदय से दुर्गतियों में अनेक कष्ट सहे। अन्त में वह ताम्रलिप्तनगर में भी वसुदत्त सेठ की स्त्री नागदत्ता हुई उस समय इसके धनवती और धनश्री नाम की दो लड़कियाँ हुई ये दोनों बहिनें बड़ी सुन्दर थीं। स्वर्ग कुमारियाँ इनका रूप देखकर मन ही मन बड़ी कुढ़ा करती थीं। इनमें धनवती का ब्याह नागानन्द पुर के रहने वाले वनपाल नाम के सेठ पुत्र के साथ हुआ और छोटी बहिन धनश्री कौशाम्बी के वसुमित्र की स्त्री हुई। वसुमित्र जैनी था। इसलिए उसके सम्बन्ध से धनश्री को कई बार जैनधर्म के उपदेश सुनने का मौका मिला। वह उपदेश उसे बहुत रुचि कर हुआ और फिर वह भी श्राविका हो गई। लड़की के प्रेम गोद को आज एकाएक भरी पा बहुत आनन्दित हुई। वह आनन्द इतना था कि उसके हृदय में भी न समा सका। यही कारण था कि उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। उसने बड़े प्रेम से इसे छाती से लगाया ॥२६-४०॥
    पद्मावती उस समय कोई तेरह - चौदह वर्ष की है। उसके सुकोमल, सुगन्धित और सुन्दर यौवनरूपी फूल की कलियाँ कुछ-कुछ खिलने लगी हैं। ब्रह्मा ने उसके शरीर को लावण्य सुधा-धारा से सींचना शुरू कर दिया है। वह अब थोड़े ही दिनों में स्वर्ग के देव कुमारियों से भी अधिक सुन्दरता लाभ कर ब्रह्मा को अपनी सृष्टि का अभिमानी बनायेगी। लोग स्वर्गीय सुन्दरता की बड़ी प्रशंसा करते हैं। ब्रह्मा को उनकी इस थोथी तारीफ से बड़ी डाह है। इसलिए कि इससे उसकी रचना सुन्दरता में कमी आती है और उस कमी से उन्हें नीचा देखना पड़ता है। ब्रह्मा ने सर्व साधारण के इस भ्रम को मिटाने लिए कि जो कुछ सुन्दरता है वह स्वर्ग में है, मानो पद्मावती को उत्पन्न किया है। इसके सिवा उन लोगों की झूठी प्रशंसा जो अमरांगनाएँ अभिमान के ऊँचे पर्वत पर चढ़कर सारे संसार को अपनी सुन्दरता की तुलना में ना- कुछ चीज समझ बैठी हैं, उनके इस गर्व को चूर-चूर करना है। इन्हीं सब अभिमान, ईर्ष्या, मत्सर आदि के वश हो ब्रह्मा पद्मावती को त्रिभुवन - सुन्दर बनाने में विशेष यत्नशील है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि पद्मावती कुछ दिनों बाद तो ब्रह्मा की सब तरह आशा पूरी करेगी ही। पर इस समय भी उसका रूप-सौंदर्य इतना मनोमधुर है कि उसे देखते रहने की इच्छा होती है। प्रयत्न करने पर भी आँखें उस ओर से हटना पसन्द नहीं करती है । अस्तु ।
    पद्मावती की इस अनिंद्य सुन्दरता का समाचार किसी ने चम्पा के राजा दन्तिवाहन को कह दिया। दन्तिवाहन उसकी सुन्दरता की तारीफ सुनकर कुसुमपुर आए । पद्मावती को एक माली की लड़की को इतनी सुन्दरी, इतनी तेजस्विनी देखकर उसके विषय में उन्हें कुछ सन्देह हुआ। उन्होंने तब उस माली को बुलाकर पूछा -सच कह यह लड़की तेरी ही है क्या ? और यदि तेरी नहीं तो इसे कहाँ से और कैसे लाया ? माली डर गया । उससे राजा के सवालों का कुछ उत्तर देते न बना। सिर्फ उसने इतना ही किया जिस सन्दूक में पद्मावती निकली थी, उसे राजा के सामने ला रख दिया और कह दिया था महाराज, मुझे अधिक तो कुछ मालूम नहीं, पर यह लड़की इस सन्दूक में से निकली थी। मेरे कोई लड़का-बाला न होने से इसे मैंने अपने यहाँ रख लिया। राजा ने सन्दूक खोलकर देखा तो उसमें एक अंगूठी निकली। उस पर कुछ इबादत खुदी हुई थी । उसे पढ़कर राजा को पद्मावती के सम्बन्ध में कोई सन्देह करने की जगह न रह गई । जैसे वे राजपुत्र हैं वैसे ही पद्मावती भी एक राजघराने की राजकन्या है। दन्तिवाहन तब उसके साथ ब्याह कर उसे चम्पा में ले आए और सुख से अपना समय बिताने लगे ॥४१-४५॥
    दन्तिवाहन के पिता वसुपाल ने कुछ वर्षों तक और राज्य किया । एक दिन उन्हें अपने सिर पर यमदूत सफेद केश दीख पड़ा । उसे देखकर इन्हें संसार, शरीर, विषय- भोगादि से बड़ा वैराग्य हुआ। वे अपने राज्य का सब भार दन्तिवाहन को सौंप कर जिनमन्दिर गए। वहाँ उन्होंने भगवान् का अभिषेक किया, पूजन किया, दान किया, गरीबों की सहायता की। उस समय उन्हें जो उचित कार्य जान पड़ा उसे उन्होंने खुले हाथों किया बाद वे वहीं एक मुनिराज द्वारा दीक्षा ले योगी हो गए। उन्होंने योगदशा में खूब तपस्या की। अन्त में समाधि से शरीर छोड़कर वे स्वर्ग गए। दन्तिवाहन अब राजा हुए प्रजा का शासन वे भी अपने पिता की भाँति प्रेम के साथ करते थे । धर्म पर उनकी भी पूरी श्रद्धा थी । पद्मावती सी त्रिलोक-सुन्दरी को पा ये अपने को कृतार्थ मानते थे। दोनों दम्पत्ति सदा बड़े हँसमुख और प्रसन्न रहते थे। सुख की इन्हें चाह न थी, पर सुख ही इनका गुलाम बन रहा था ॥४६-४९॥
    एक दिन सती पद्मावती ने स्वप्न में सिंह, हाथी और सूरज को देखा । सबेरे उठकर उसने अपने प्राणनाथ से इस स्वप्न का हाल कहा। दन्तिवाहन ने उसके फल के सम्बन्ध में कहा-प्रिये, स्वप्न तुमने बड़ा ही सुन्दर देखा हैं। तुम्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। सिंह का देखना जनाता है, कि वह बड़ा ही प्रतापी होगा हाथी के देखने से सूचित होता है कि वह सबसे प्रधान क्षत्रिय वीर होगा और सूरज यह कहता है कि वह प्रजारूपी कमल-वन को प्रफुल्लित करने वाला होगा, उसके शासन से प्रजा बड़ी सन्तुष्ट रहेगी। अपने स्वामी द्वारा स्वप्न फल सुनकर पद्मावती को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और सच है, पुत्र प्राप्ति की किसे प्रसन्नता नहीं होती ॥५०-५२॥
    पाठकों को तेरपुर के रहने वाले धनदत्त ग्वाले का स्मरण होगा, जिसने कि एक हजार पंखुरियों का कमल भगवान् को चढ़ाकर बड़ा पुण्यबन्ध किया था । उसी की कथा फिर लिखी जाती है। धनदत्त को तैरने का बड़ा शौक था । वह रोज-रोज जाकर एक तालाब में तैरा करता था। एक दिन वह तैरने को गया हुआ था। कुछ होनहार ही ऐसा था जो वह तैरता - तैरता एक बार घनी काई में बिंध गया । बहुत यत्न किया पर उससे निकलते न बना । आखिर बेचारा मर ही गया । मरकर वह जिनपूजा के पुण्य से इसी सती पद्मावती के गर्भ में आया ॥ ५३-५४॥
    उधर वसुमित्र सेठ को जब इसके मरने का हाल ज्ञान हुआ तो उसे बड़ा दुःख हुआ । सेठ उसी समय तालाब पर आया और धनदत्त की लाश को निकलवा कर उसका अग्नि-संस्कार किया। संसार की यह क्षणभंगुर दशा देखकर वसुमित्र को बड़ा वैराग्य हुआ। वह सुगुप्ति मुनिराज द्वारा योगव्रत लेकर मुनि हो गया। अन्त में वह तपस्या कर पुण्य के उदय से स्वर्ग गया ॥ ५५-५६॥
    पद्मावती के गर्भ में धनदत्त के आने पर उसे दोहला उत्पन्न हुआ उसकी इच्छा हुई कि मेघ बरसने लगें और बिजलियाँ चमकने लगे । ऐसे समय पुरुष - वेष में हाथ में अंकुश लिए मैं स्वयं हाथी पर सवार होऊँ और मेरे साथ स्वामी भी बैठे। फिर हम दोनों घूमने के लिए शहर के बाहर निकलें। पद्मावती ने अपनी यह इच्छा दन्तिवाहन से जाहिर की । दन्तिवाहन ने उसकी इच्छा के अनुसार अपने मित्र वायुवेग विद्याधर द्वारा मायामयी कृत्रिम मेघ की काली काली घटाओं द्वारा आकाश आच्छादित करवाया। कृत्रिम बिजलियाँ भी उन मेघों में चमकने लगी । राजा-रानी इस समय उस नर्मदातिलक नाम के हाथी पर, जो सोमशर्मा का जीव था और जिसे किसी ने वसुपाल को भेंट किया था, चढ़कर बड़े ठाट बाट से नौकर-चाकरों को साथ लिए शहर के बाहर हुए । पद्मावती का यह दोहला सचमुच ही बड़ा ही आश्चर्यजनक था। जो हो, जब ये शहर के बाहर होकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि कर्मयोग से हाथी उन्मत्त हो गया । अंकुश वगैरह की वह कुछ परवाह न कर आगे चलने वाले लोगों की भीड़ को चीरता हुआ भाग निकला। रास्ते में एक घने वृक्षों की वनी में होकर वह भागा जा रहा था । सो दन्तिवाहन को उस समय कुछ ऐसी बुद्धि सूझ गई, कि जिससे वे एक वृक्ष की डाली को पकड़ कर लटक गए। हाथी आगे भागा ही चला गया। सच है, पुण्य कष्ट समय में जीवों को बचा लेता हैं। बेचारे दन्तिवाहन उदास मुँह अपनी राजधानी में आए। उन्हें इस बात का अत्यन्त दुःख हुआ कि गर्भिणी प्रिया की न जाने क्या दशा हुई होगी । दन्तिवाहन की यह दशा देखकर समझदार लोगों ने समझा-बुझाकर उन्हें शान्त किया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सत्पुरुषों के वचन चन्दन से कहीं बढ़कर शीतल होते हैं और उनके द्वारा दुखियों के हृदय का दुःख सन्ताप बहुत जल्दी ठण्डा पड़ जाता है ॥५७-६८॥
    उधर हाथी पद्मावती को लिए भागा चला गया । अनेक जंगलों और गाँवों को लाँघकर वह एक तालाब पर पहुँचा। वह बहुत थक गया था । इसलिए थकावट मिटाने को वह सीधा उस तालाब घुस गया। पद्मावती सहित तालाब में उसे घुसता देख जलदेवी ने झट से पद्मावती को हाथी पर से उतार कर तालाब के किनारे पर रख दिया । आफत की मारी बेचारी पद्मावती किनारे पर बैठी- बैठी रोने लगी। वह क्या करे, कहाँ जाए, इस विषय में उसका चित्त बिल्कुल धीर न धरता था। सिवा रोने के उसे कुछ न सूझता था । इसी समय एक माली इस ओर होकर अपने घर जा रहा था। उसने इसे रोते हुए देखा। इसके वेष-भूषा और चेहरे के रंग-ढंग से इसे किसी उच्च घराने की समझ उसे उस पर बड़ी दया आई उसने उसके पास आकर कहा- बहिन, जान पड़ता है तुम पर कोई भारी दुःख आकर पड़ा है। यदि तुम कोई हर्ज न समझो तो मेरे घर चलो। तुम्हें वहाँ कोई कष्ट न होगा | मेरा घर यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हस्तिनापुर में है और मैं जाति का माली हूँ । पद्मावती उसे दयावान् देख उसके साथ होली । इसके सिवा उसके लिए दूसरी गति भी न थी । उस माली ने पद्मावती को अपने घर ले जाकर बड़े आदर-सत्कार के साथ रखा। वह उसे अपने बहिन के बराबर समझता था। उसका स्वभाव बहुत अच्छा था। ठीक है, कोई-कोई साधारण पुरुष भी बड़े सज्जन होते हैं। उसके सरल और सज्जन होने पर भी उसकी स्त्री बड़ी कर्कशा थी । उसे दूसरे आदमी का अपने घर रहना अच्छा ही न लगता था। कोई अपने घर में पाहुना आया कि उस पर सदा मुँह चढ़ाये रहना, उससे बोलना-चालना नहीं आदि उसके बुरे स्वभाव की खास बातें थीं। पद्मावती के साथ भी उसका यही बर्ताव रहा। एक दिन भाग्य से वह माली किसी काम के लिए दूसरे गाँव चला गया। पीछे से इसकी स्त्री की बन पड़ी। उसने पद्मावती को गाली-गलौज देकर और बुरा भला कह घर से निकाल दिया। बेचारी पद्मावती अपने कर्मों को कोसती यहाँ से चल दी । वह एक घोर श्मशान में पहुँची । प्रसूति के दिन आ लगे थे। उस पर चिन्ता और दुःख के मारे इसे चैन नहीं था । उसने यहीं पर एक पुण्यवान् पुत्र को जना। उसके हाथ, पाँव, ललाट वगैरह में ऐसे सब चिह्न थे, जो बड़े से बड़े पुरुष के होने चाहिए। जो हो, इस समय तो उसकी दशा एक भिखारी से भी बढ़कर थी । पर भाग्य कहीं छुपा नहीं रहता। पुण्यवान् महात्मा पुरुष कहीं हो, कैसी अवस्था में हो, पुण्य वहीं पहुँच कर उसकी सेवा करता है। पर होना चाहिए पास में पुण्य । पुण्य बिना संसार में जन्म निस्सार है । जिस समय पद्मावती ने पुत्र जना उसी समय पुत्र के पुण्य का भेजा हुआ एक मनुष्य चाण्डाल के वेष में श्मशान में पद्मावती के पास आया और उसे विनय से सिर झुकाकर बोला- माँ, अब चिन्ता न करो। तुम्हारे लड़के का दास आ गया है। वह इसकी सब तरह जी-जान से रक्षा करेगा। किसी तरह का कोई कष्ट इसे न होने देगा। जहाँ इस बच्चे का पसीना गिरेगा वहाँ यह अपना खून गिरावेगा। आप मेरी मालकिन हैं। सब भार मुझ पर छोड़ आप निश्चिन्त होइये । पद्मावती ने ऐसे कष्ट के समय पुत्र की रक्षा करने वाले को पाकर अपने भाग्य को सराहा, पर फिर भी अपना सब सन्देह दूर हो, इसलिए उसने कहा- भाई, तुमने ऐसे निराधार समय में आकर मेरा जो उपकार करना विचारा है, तुम्हारे इस ऋण से मैं कभी मुक्त नहीं हो सकती। मुझे तुमसे दयावानों का अत्यन्त उपकार मानना चाहिए । अस्तु, इस समय मैं और क्या अधिक कह सकती हूँ कि जैसा तुमने मेरा भला किया, वैसा भगवान् तुम्हारा भी भला करे। भाई, मेरी इच्छा तुम्हारा विशेष परिचय पाने की है । इसलिए कि तुम्हारा पहनावा और तुम्हारे चेहरे पर की तेजस्विता देखकर मुझे बड़ा ही सन्देह हो रहा है। अतएव यदि तुम मुझसे अपना परिचय देने में कोई हानि न समझो तो कृपा कर कहो । वह आगत पुरुष पद्मावती से बोला-माँ, मुझ अभागे की कथा तुम सुनोगी। अच्छा तो सुनो, मैं सुनाता हूँ। विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में विद्युत्प्रभ नाम का एक शहर है। उसके राजा का नाम भी विद्युत्प्रभ है। विद्युत्प्रभ की रानी का नाम विद्युल्लेखा है । ये दोनों राजा-रानी मुझ अभागे के माता-पिता हैं। मेरा नाम बालदेव है। एक दिन मैं अपनी प्रिया कनकमाला के साथ विमान में बैठा हुआ दक्षिण की ओर जा रहा था ॥६९-७९॥
    रास्ते में मुझे रामगिरी पर्वत पड़ा। उस पर मेरा विमान अटक गया। मैंने नीचे नजर डालकर देखा तो मुझे एक मुनि दीख पड़े। उन पर मुझे बड़ा गुस्सा आया । मैंने तब कुछ आगा-पीछा न सोचकर मुनि को बहुत कष्ट दिया, उन पर घोर उपसर्ग किया। उनके तप के प्रभाव से जिनभक्त पद्मावती देवी का आसन हिला और वह उसी समय वहाँ आई उसने मुनि का उपसर्ग दूर किया। सच है, साधुओं पर किए उपद्रव को सम्यग्दृष्टि कभी नहीं सह सकते । माँ, उस समय देवी ने गुस्सा होकर मेरी सब विद्याएँ नष्ट कर दीं । मेरा सब अभिमान चूर हुआ । मैं एक मद रहित हाथी की तरह निःसत्व-तेज रहित हो गया। मैं अपनी इस दशा पर बहुत पछताया । मैं रोकर देवी से बोला- प्यारी माँ, मैं आपका अज्ञानी बालक हूँ। मैंने जो कुछ यह बुरा काम किया वह सब मूर्खता और अज्ञान से न समझ कर ही किया है। आप मुझे इसके लिए क्षमा करें और मेरी विद्याएँ मुझे लौटा दें। इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरी यह दीनता भरी पुकार व्यर्थ न गई। देवी ने शान्त होकर मुझे क्षमा किया और वह बोली-मैं तुझे तेरी विद्याएँ लौटा देती, पर मुझे तुझसे एक महान् कार्य करवाना है इसलिए मैं कहती हूँ वह कर। समय पाकर सब विद्याएँ तुझे अपने आप सिद्ध हो जायेगी। मैं हाथ जोड़े हुए उसके मुँह की ओर देखने लगा । वह बोली - "हस्तिनापुर के श्मशान में एक विपत्ति की मारी स्त्री के गर्भ से एक पुण्यवान् और तेजस्वी पुत्ररत्न जन्म लेगा । उस समय पहुँचकर तू उसकी सावधानी से रक्षा करना और अपने घर लाकर पालना - पोसना। उसके राज्य समय तुझे सब विद्याएँ सिद्ध होगी। माँ उसकी आज्ञा से मैं तभी से यहाँ इस वेष में रहता हूँ । इसलिए कि मुझे कोई पहचान न सके। माँ, यही मुझ अभागे की कथा है। आज मैं आपकी दया से कृतार्थ हुआ। पद्मावती विद्याध का हाल सुनकर दुःखी जरूर हुई, पर उसे अपने पुत्र का रक्षक मिल गया, इससे कुछ सन्तोष भी हुआ । उसने तब अपने प्रिय बच्चे को विद्याधर के हाथ में रखकर कहा- भाई, इसकी सावधानी से रक्षा करना ।अब इसके तुम ही सब प्रकार से कर्ता-धर्ता हो । मुझे विश्वास है कि तुम इसे अपना ही प्यारा बच्चा समझोगे। उसने फिर पुत्र के प्रकाशमान चेहरे पर प्रेमभरी दृष्टि डालकर पुत्र वियोग से भर आए हृदय से कहा-मेरे लाल! तुम पुण्यवान् होकर भी उस अभागिनी माँ के पुत्र हुए हो, जो जन्मते ही तुम्हें छोड़कर बिछुड़ना चाहती है। लाल ! मैं तो अभागिनी थी ही, पर तुम भी ऐसे अभागे हुए जो अपनी माँ के प्रेममय हृदय का कुछ भी पता न पा सके और न पाओगे ही। मुझे इस बात का बड़ा खेद रहेगा कि जिस पुत्र ने अपनी प्रेम - प्रतिमा माँ के पवित्र हृदय द्वारा प्रेम का पाठ न सीखा वह दूसरों के साथ किस तरह प्रेम करेगा? कैसे दूसरों के साथ प्रेम का बरताव कर उनका प्रेमपात्र बनेगा? जो हो, तब भी मुझे इस बात की खुशी है कि तुम एक दूसरी माँ के पास जाते हो और वह भी आखिर है तो माँ ही । जाओ लाल जाओ, सुख से रहना, परमात्मा तुम्हारा मंगल करें । इस प्रकार प्रेममय पवित्र आशीष देकर पद्मावती कड़ा हृदय कर चल दी । बालदेव ने उस सुन्दर और तेजपुंज बच्चे को अपने घर ले आकर अपनी प्रिया कनकमाला की गोद में रख दिया और कहा- - प्रिये, भाग्य से मिली इस निधि को लो। कनकमाला उस बाल - चन्द्रमा से अपनी गोद को भरी देखकर फूली न समाई। वह उसे जितना देखती उसका प्रेम क्षण-क्षण में अनंत गुणा बढ़ता ही गया । कनकमाला का जितना प्रेम होना संभव न था उतना इस नये बालक पर उसका प्रेम हो गया, सचमुच यह आश्चर्य है अथवा नई वस्तु स्वभाव से प्रिय होती है और फिर वह अपनी हो जाये तब तो उस पर होने वाले प्रेम के सम्बन्ध में कहना ही क्या? और वह प्रेम, जिसकी प्राप्ति के लिए आत्मा सदा तड़फा ही करता है और वह पुत्र जैसी परम प्रिय वस्तु तब पढ़ने वाले कनकमाला के प्रेममय हृदय का एक बार अवगाहन करके देखें कि एक नई माँ जिस बच्चे पर इतना प्रेम करती है तब जिसने उसे जन्म दिया उसके प्रेम का क्या कुछ अन्त है-सीमा है! नहीं। माँ का अपने बच्चे पर जो प्रेम होता है उसकी तुलना किसी दृष्टांत या उदाहरण द्वारा नहीं की जा सकती और जो करते हैं वे माँ के अनन्त प्रेम को कम करने का यत्न करते हैं। कनकमाला उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उसने उसका नाम करकण्डु रखा। इसलिए कि उस बच्चे के हाथ में उसे खुजली दीख पड़ी थी । कनकमाला ने उसका लालन-पालन करने में अपने खास बच्चे से कोई कमी न की । सच है, पुण्य के उदय से कष्ट समय में भी जीवों को सुख सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए भव्यजनों को जिन पूजा, पात्र - दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि पुण्य-कर्मों द्वारा सदा शुभ कर्म करते रहना चाहिए ॥८०-९३॥
    पद्मावती तब करकण्डु से जुदा होकर गान्धारी नाम की क्षुल्लिका के पास आई उसे उसने भक्ति से प्रणाम किया और आज्ञा पा उसी के पास वह बैठ गई। थोड़ी देर बार पद्मावती ने उस क्षुल्लिका से अपना सब हाल कहा और जिनदीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । क्षुल्लिका उसे तब समाधिगुप्त मुनि के पास लिवा गई पद्मावती ने मुनिराज को नमस्कार कर उनसे भी अपनी इच्छा कह सुनाई। उत्तर में मुनि ने कहा- बहिन, तू साध्वी होना चाहती है, तेरा यह विचार बहुत अच्छा है पर यह समय तेरी दीक्षा के लिए उपयुक्त नहीं हैं। कारण तूने पहले जन्म में नागदत्ता की पर्याय में जिनव्रत को तीन बार ग्रहण कर तीनों बार ही छोड़ दिया था और फिर चौथी बार ग्रहण कर तू उसके फल से राजकुमार हुई तूने तीन बार व्रत छोड़ा उससे तुझे तीनों बार ही दुःख उठाना पड़ा। तीसरी बार का कर्म कुछ और बचा है। वह जब शान्त हो जाए और इस बीच में तेरे पुत्र को भी राज्य मिल जाए तब कुछ दिनों तक राज्य सुख भोग कर फिर पुत्र के साथ-साथ ही तू भी साध्वी होना । मुनि द्वारा अपना भविष्य सुनकर पद्मावती उन्हें नमस्कार कर उस क्षुल्लिका के साथ चली गई। अब से वह पद्मावती उसी के पास रहने लगी ॥९४-१००॥
    इधर करकण्डु बालदेव के यहाँ दिनों-दिन बढ़ने लगा। जब उसकी पढ़ने की उमर हुई तब बालदेव ने अच्छे-अच्छे विद्वान् अध्यापकों को रखकर उसे पढ़ाया। करकण्डु पुण्य के उदय से थोड़े ही वर्षों में पढ़-लिखकर अच्छा होशियार हो गया। कई विषय में उसकी अरोक गति हो गई एक दिन बालदेव और करकण्डु हवा-खोरी करते-करते शहर के बाहर श्मशान में आ निकले। ये दोनों एक अच्छी जगह बैठकर श्मशान भूमि की लीला देखने लगे। इतने में जयभद्र मुनिराज अपने संघ को लिए इसी श्मशान में आकर ठहरे । यहाँ एक नर - कपाल पड़ा हुआ था । उसके मुँह और आँखों के तीन छेदों में तीन बाँस उग रहे थे। उसे देखकर एक मुनि ने विनोद से अपने गुरु से पूछा-भगवान् यह क्या कौतुक है, जो इस नर - कपाल में तीन बाँस उगे हुए हैं? तपस्वी मुनि ने उसके उत्तर में कहा- इस हस्तिनापुर का जो नया राजा होगा, इस बाँसों के उसके लिए अंकुश, छत्र, दण्ड वगैरह बनेंगे। जयभद्राचार्य द्वारा कहे गए इस भविष्य को किसी एक ब्राह्मण ने सुन लिया। अतः वह धन की आशा से इन बाँसों को उखाड़ लाया। उसके हाथ से इन्हें करकण्डु ने खरीद लिया। सच है मुनि लोग जिसके सम्बन्ध में जो बात कह देते हैं वह फिर होकर ही रहती है। उस समय हस्तिनापुर का राजा बलवाहन था। इसके कोई संतान न थी । उसकी मृत्यु हो गई अब राजा किसको बनाया जाए, इस विषय में चर्चा चली। आखिर यह निश्चय हुआ कि महाराज का खास हाथी जल भरा सुवर्ण-कलश देकर छोड़ा जाए। वह जिसका अभिषेक कर राजसिंहासन पर ला बैठा दे, वही इस राज्य का मलिक हो। ऐसा ही किया गया। हाथी राजा को ढूँढ़ने निकला। चलता-चलता वह करकण्डु के पास पहुँचा। वही इसे अधिक पुण्यवान् दीख पड़ा। उसी समय उसने करकण्डु का अभिषेक कर उसे अपने ऊपर चढ़ा लिया और राज्यसिंहासन पर ला रख दिया। सारी प्रजा ने उस तेजस्वी करकण्डु को अपना मालिक हुआ देख खूब जय-जयकार मनाया और खूब आनन्द उत्सव किया । करकण्डु के भाग्य का सितारा चमका। वह राजा हुआ । सच है, जिन भगवान् की पूजा के फल से क्या-क्या प्राप्त नहीं होता। करकण्डु के राजा होते ही बालदेव को उसकी नष्ट हुई विद्याएँ फिर सिद्ध हो गई उसे उसकी सेवा का मनचाहा फल मिल गया। इसके बाद बालदेव विद्या की सहायता से करकण्डु की खास माँ पद्मावती जहाँ थी, वहाँ गया और उसे करकण्डु के पास लाकर उसने दोनों माता-पुत्रों का मिलाप करवाया। पद्मावती आज कृतार्थ हुई उसकी वर्षों की तपस्या समाप्त हुई पश्चात् बालदेव इन दोनों को बड़ी नम्रता से प्रणाम कर अपनी राजधानी में चला गया ॥ १०१-११५॥
    करकण्डु के राजा होने पर कुछ राजा लोग उससे विरुद्ध होकर लड़ने को तैयार हुए। पर करकण्डु ने अपनी बुद्धिमानी और राजनीति की चतुरता से सबको अपना मित्र बनाकर देशभर में शत्रु का नाम भी न रहने दिया। वह फिर सुख से राज्य करने लगा । करकण्डु के दिनों-दिन बढ़ते हुए प्रताप की खबर चारों ओर फैलती-फैलती दन्तिवाहन के पास पहुँची । दन्तिवाहन करकण्डु के पिता हैं। पर न तो दन्तिवाहन को यह ज्ञात था कि करकण्डु मेरा पुत्र है और न करकण्डु को इस बात का पता था कि दन्तिवाहन मेरे पिता हैं । यही कारण था कि दन्तिवाहन को इस नये राजा का प्रताप सहन नहीं हुआ । उन्होंने अपने एक दूत को करकण्डु के पास भेजा । दूत ने आकर करकण्डु से प्रार्थना की- " राजाधिराज दन्तिवाहन मेरे द्वारा आपको आज्ञा करते हैं कि यदि राज्य आप सुख से करना चाहते हैं तो उनकी आप आधीनता स्वीकार करें। ऐसे किए बिना किसी देश के किसी हिस्से पर आपकी सत्ता नहीं रह सकती।” करकण्डु एक तेजस्वी राजा और उस पर एक दूसरे की सत्ता, सचमुच करकण्डु के लिए यह आश्चर्य की बात थी। उसे दन्तिवाहन की इस धृष्टता पर बड़ा क्रोध आया। उसने तेज आँखें कर दूत की ओर देखा और उससे कहा-यदि तुम्हें अपनी जान प्यारी है तो तुम यहाँ से जल्दी भाग जाओ। तुम दूसरे के नौकर हो, इसलिए मैं तुम पर दया करता हूँ नहीं तो तुम्हारी इस धृष्टता का फल तुम्हें मैं अभी ही बता देता । जाओ और अपने मालिक से कह दो कि वह रणभूमि में आकर तैयार रहे। मुझे जो कुछ करना होगा मैं वही करूँगा । दूत ने जैसे ही करकण्डु की आँखें चढ़ी देखीं वह उसी समय डरकर राजदरबार से रवाना हो गया ॥११६-१२१॥
    इधर करकण्डु अपनी सेना में युद्धघोषणा दिलवा कर आप दन्तिवाहन पर जा चढ़ा और उनकी राजधानी को उसने सब ओर से घेर लिया । दन्तिवाहन तो इसके लिए पहले ही से तैयार थे । वे भी सेना ले युद्धभूमि में उतरे । दोनों ओर की सेना में व्यूह रचना हुई रणवाद्य बजने वाला ही था कि पद्मावती को यह ज्ञान हो कि यह युद्ध शत्रुओं का न होकर खास पिता-पुत्र का है। वह तब उसी समय अपने प्राणनाथ के पास गई और सब हाल उसने उन से कह सुनाया । दन्तिवाहन को इस समय अपनी प्रिया-पुत्र को प्राप्त कर जो आनन्द हुआ, उसका पता उन्हीं के हृदय को हैं । दूसरा वह कुछ थोड़ा बहुत पा सकता है जिस पर ऐसा ही भयानक प्रसंग आकर कभी पड़ा हो । सर्वसाधारण उनके उस आनन्द का, उस सुख का थाह नहीं ले सकते । दन्तिवाहन तब उसी समय हाथी से उतर कर अपने प्रिय-पुत्र के पास आए। करकण्डु को ज्ञात होते ही वह उनके सामने दौड़ा गया और जाकर उनके पाँवों में गिर पड़ा। दन्तिवाहन ने झट से उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। पिता-पुत्र का पुण्य मिलाप हुआ । इसके बाद दन्तिवाहन ने बड़े आनन्द और ठाठबाट से पुत्र का शहर में प्रवेश कराया। प्रजा ने अपने युवराज का अपार आनन्द के साथ स्वागत किया। घर-घर आनन्द उत्सव मनाया गया । दान दिया गया। पूजा-प्रभावना की गई महा अभिषेक किया गया। गरीब लोग मनचाही सहायता से खुश किए गए। इस प्रकार पुण्य-प्रसाद से करकण्डु ने राज्यसम्पत्ति के सिवा कुटुम्ब - सुख भी प्राप्त किया। वह अब स्वर्ग के देवों की तरह सुख से रहने लगा ॥१२२-१२८॥
    कुछ दिनों बाद दन्तिवाहन ने अपने पुत्र का विवाह समारंभ किया । उसमें उन्होंने खूब खर्च कर बड़े वैभव के साथ करकण्डु का कोई आठ हजार राजकुमारियों के साथ ब्याह किया । ब्याह के बाद ही दन्तिवाहन राज्य का भार सब करकण्डु के जिम्मे कर आप अपनी प्रिया पद्मावती के साथ सुख से रहने लगे। सुख-चैन से समय बिताना उन्होंने अब अपना प्रधान कार्य रखा ॥१२९-१३१॥
    इधर करकण्डु राज्यशासन करने लगा। प्रजा को उसके शासन की जैसी आशा थी, करकण्डु ने उससे कहीं बढ़कर धर्मज्ञता, नीति और प्रजा प्रेम बतलाया । प्रजा को सुखी बनाने में उसने कोई बात की कमी न रखी। इस प्रकार वह अपने पुण्य का फल भोगने लगा। एक दिन समय देख मंत्रियों ने करकण्डु से निवेदन किया- महाराज, चेरम, पाण्ड्य और चोल आदि राजा चिर समय से अपने आधीन हैं। पर जान पड़ता है उन्हें इस समय कुछ अभिमान ने आ घेरा है। वे मानपर्वत का आश्रय पा अब स्वतंत्र से हो रहे हैं। राज - कर वगैरह भी अब वे नहीं देते। इसलिए उन पर चढ़ाई करना बहुत आवश्यक है। इस समय ढील कर देने से सम्भव है थोड़े ही दिनों में शत्रुओं का जोर अधिक बढ़ जायें इसलिए इसके लिए प्रयत्न कीजिए कि वे ज्यादा सिर पर न चढ़ें, उसके पहले ही ठीक ठिकाने लगाया जाये। मंत्रियों की सलाह सुन और उस पर विचार कर पहले करकण्डु ने उन लोगों के पास अपना दूत भेजा। दूत अपमान के साथ लौट आया। करकण्डु ने सब सीधी तरह सफलता प्राप्त न होती देखी तब उसे युद्ध के लिए तैयार होना पड़ा। वह सेना लिए युद्धभूमि में जा डटा । शत्रु लोग भी चुपचाप न बैठकर उसके सामने हुए। दोनों ओर की सेना की मुठभेड़ हो गई घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के हजारों वीर काम आए। अन्त में करकण्डु की सेना के युद्धभूमि से पाँव उखड़े। यह देख करकण्डु स्वयं युद्धभूमि में उतरा। बड़ी वीरता से वह शत्रुओं के साथ लड़ा। इस नई उम्र में उसकी इस प्रकार वीरता देखकर शत्रुओं को दाँतों तले उँगली दबाना पड़ी। विजयश्री ने करकण्डु को ही वरा। जब शत्रु राजा आ-आकर इसके पाँव पड़ने लगे और इसकी नजर उनके मुकुटों पर पड़ी तो देखकर यह एक साथ हतप्रभ हो गया और बहुत- बहुत पश्चाताप करने लगा कि हाय ! मुझ पापी ने यह अनर्थ क्यों किया? न जाने इस पाप से मेरी क्या गति होगी? बात यह थी कि उन राजाओं के मुकुटों में जिन भगवान् की प्रतिमाएँ खुदी हुई थी और वे राजा जैनी थे । अपने धर्मबन्धुओं को जो उसने कष्ट दिया और भगवान् का अविनय किया उसका उसे बेहद दुःख हुआ । उसने उन लोगों को बड़े आदरभाव से उठाकर पूछा- क्या सचमुच आप जैनधर्मी हैं? उनकी ओर से सन्तोषजनक उत्तर पाकर उसने बड़े कोमल शब्दों में उनसे कहा-महानुभावो, मैंने क्रोध से अन्धे होकर जो आपको यह व्यर्थ कष्ट दिया, आप पर उपद्रव किया, इसका मुझे अत्यन्त दुःख है। मुझे इस अपराध के लिए आप लोग क्षमा करें। इस प्रकार उनसे क्षमा कराकर उनको साथ लिए वह अपने देश को रवाना हुआ ॥ १३२-१४२॥
    रास्ते में तेरपुर के पास इनका पड़ाव पड़ा। इसी समय कुछ भीलों ने आकर नम्र मस्तक से इनसे प्रार्थना की-राजाधिराज, हमारे तेरपुर से दो - कोस दूरी पर एक पर्वत है । उस पर एक छोटा-सा धाराशिव नाम का गाँव बसा हुआ है। इस गाँव में एक बहुत बड़ा ही सुन्दर और भव्य जिनमन्दिर बना हुआ है। उसमें विशेषता यह है कि उसमें कोई एक हजार खम्भे हैं। वह बड़ा सुन्दर है। उसे आप देखने को चलें। इसके सिवा पर्वत पर एक यह आश्चर्य की बात है कि वहाँ एक बाँवी है। एक हाथी रोज अपनी सूँड में थोड़ा-सा पानी और एक कमल का फूल लिए वहाँ आता है और उस बाँवी की परिक्रमा देकर वह पानी और फूल उस पर चढ़ा देता है। इसके बाद वह उसे अपना मस्तक नवाकर चला जाता है। उसका यह प्रतिदिन का नियम है। महाराज ! नहीं जान पड़ता कि इसका क्या कारण है? करकण्डु भीलों द्वारा यह शुभ समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । इस समाचार को लाने वाले भीलों को उचित इनाम देकर वह स्वयं सबको साथ लिए, उस कौतुकमय स्थान को देखने गया। पहले उसने जिनमन्दिर जाकर भक्ति पूर्वक भगवान् की पूजा की, स्तुति की। सच है - धर्मात्मा पुरुष धर्म के कामों में कभी प्रमाद - आलस नहीं करते। बाद में वह उस बाँवी की जगह गया । उसने वहाँ भीलों के कहे माफिक हाथी को उस बाँवी की पूजा करते पाया। देखकर उसे बड़ा अचम्भा हुआ उसने सोचा कि इसका कुछ न कुछ कारण होना चाहिए। नहीं तो इस पशु में ऐसा भक्तिभाव नहीं देखा जाता । यह विचार कर उसने उस बाँवी को खुदवाया । उसमें से एक सन्दूक निकली। उसने उसे खोलकर देखा । सन्दूक में एक रत्नमयी पार्श्वनाथ भगवान् की पवित्र प्रतिमा थी । उसे देखकर धर्मप्रेमी करकण्डु को अतिशय प्रसन्नता हुई उसने तब वहाँ‘अग्गलदेव' नाम का एक विशाल जिन मन्दिर बनवाकर उसमें बड़े उत्सव के साथ उस प्रतिमा को विराजमान किया। प्रतिमा पर एक गाँठ देखकर करकण्डु ने शिल्पकार से कहा-देखो, तो प्रतिमा पर यह गाँठ कैसी है? प्रतिमा की सब सुन्दरता इससे मारी गई इसे सावधानी के साथ तोड़ दो। यह अच्छी नहीं दीख पड़ती ॥१४३-१५५॥
    शिल्पकार ने कहा-महाराज, यह गाँठ ऐसी वैसी नहीं है जो तोड़ दी जाये । ऐसी रत्नमयी दिव्य प्रतिमा पर गाँठ होने का कुछ न कुछ कारण जान पड़ता है। इसका बनाने वाला इतना कम बुद्धि न होगा कि प्रतिमा की सुन्दरता नष्ट होने का ख्याल न कर इस गाँठ को रहने देता। मुझे जहाँ तक जान पड़ता है, इस गाँठ का सम्बन्ध किसी भारी जल-प्रवाह से होना चाहिए और यह असंभव भी नहीं । संभवतः इसकी रक्षा के लिए यह प्रयत्न किया गया हो। इसलिए मेरी समझ में इसका तुड़वाना उचित नहीं। करकण्डु ने उसका कहा न माना। उसे उसकी बात पर विश्वास न हुआ। उसने तब शिल्पकार से बहुत आग्रह कर आखिर उसे तुड़वाया ही । जैसे ही वहाँ गाँठ टूटी उसमें से एक बड़ा भारी जल- प्रवाह वह निकला। मन्दिर में पानी इतना भर गया कि करकण्डु वगैरह को अपने जीवन के बचने का भी सन्देह हो गया। तब वह जिनभक्त उस प्रवाह के रोकने के लिए संन्यास ले कुशासन पर बैठ कर परमात्मा का स्मरण चिंतन करने लगा । उसके पुण्य - प्रभाव से नागकुमार ने प्रत्यक्ष आकर उससे कहा- राजन् काल अच्छा नहीं इसलिए प्रतिमा की सुरक्षा के लिए मुझे यह जल पूर्ण लवण बनाना पड़ा इसलिए आप इस जलप्रवाह के रोकने का आग्रह न करें इस प्रकार ककण्डु को नागकुमार ने समझा कर आसन पर से उठ जाने को कहा। करकण्डु नागकुमार के कहने से संन्यास छोड़ उठ गया। उठकर उसने नागकुमार से पूछा- क्यों जी, ऐसा सुन्दर यह लवण यहाँ किसने बनाया और किसने इस बाँवी में इस प्रतिमा को विराजमान किया? नागकुमार ने कहा - सुनिए, विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में खूब सम्पत्तिशाली नभस्तिलक नाम का एक नगर था । उसमें अमितवेग और सुवेग नाम के दो विद्याधर राजा हो चुके हैं। दोनों धर्मज्ञ और सच्चे जिनभक्त थे । एक दिन वे दोनों भाई आर्यखण्ड के जिनमन्दिरों के दर्शन करने के लिए आये । कई मंदिरों में दर्शन-पूजन कर वे मलयाचल पर्वत पर आये यहाँ घूमते हुए उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान् की इस रत्नमयी प्रतिमा को देखा । इसके दर्शन कर उन्होंने इसे एक सन्दूक में बन्द कर दिया और सन्दूक को एक गुप्त स्थान पर रखकर वे उस समय चले गए। कुछ समय बाद वे आकर उस सन्दूक को कहीं अन्यत्र ले जाने के लिए उठाने लगे पर सन्दूक अब की बार उनसे न उठी। तब तेरपुर जाकर उन्होंने अवधिज्ञानी मुनिराज से अब हाल कहकर सन्दूक के न उठने का कारण पूछा। मुनि ने कहा- " - "सुनिए, यह सुखकारिणी सन्दूक तो पहले लयण ऊपर दूसरा लयण होगी। मतलब यह कि यह सुवेग आर्तध्यान से मरकर हाथी होगा। वह इस सन्दूक की पूजा किया करेगा। कुछ समय बाद करकण्डु राजा यहाँ आकर इस सन्दूक को निकालेगा और सुवेग का जीव हाथी तब संन्यास ग्रहण कर स्वर्ग गमन करेगा । इस प्रकार मुनि द्वारा इस प्रतिमा की चिरकाल तक अवस्थिति जानकर उन्होंने मुनि से फिर पूछा- तो प्रभो ! इस लयण को किसने बनाया? मुनिराज बोले-इसी विजयार्द्ध की दक्षिण श्रेणी में बसे हुए रथनूपुर में नील और महानील नाम के दो राजा हो गए हैं। शत्रुओं के साथ युद्ध में उनकी विद्या, धन, राज्य वगैरह सब कुछ नष्ट हो गया। तब वे इस मलय पर्वत पर आकर बसे । यहाँ वे कई वर्षों तक आराम से रहे। दोनों भाई बड़े धर्मात्मा थे। उन्होंने यह लयण बनवाया। पुण्य से उन्हें उनकी विद्याएँ फिर प्राप्त हो गई तब वे पीछे अपनी जन्मभूमि रथनूपुर चले गए। इसके बाद कुछ दिनों तक वे दोनों गृह- संसार में रहे। फिर जिनदीक्षा लेकर दोनों भाई साधु हो गए। अन्त में तपस्या के प्रभाव से वे स्वर्ग गए।" इस प्रकार सब हाल सुनकर बड़ा भाई अमितवेग तो उसी समय दीक्षा लेकर मुनि हो गया और अन्त में समाधि से मरकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ और सुवेग- अमितवेग का छोटा भाई आर्तध्यान से मरकर वह हाथी हुआ। सो ब्रह्मोत्तर स्वर्ग से पूर्व जन्म के भातृप्रेम के वश देखने आकर उसे धर्मोपदेश किया, समझाया। उससे इस हाथी को जातिस्मरण हो गया । तब उसने अणुव्रत ग्रहण किए। तब से यह इस प्रकार शान्त रहता है और सदा इस बाँवी की पूजन किया करता है तुमने बाँवी तुड़ाकर उसमें से प्रतिमा निकाल ली तब से हाथी संन्यास लिए यहीं रहता है और राजन्, आप पूर्वजन्म में इसी तेरपुर में ग्वाले थे। आपने तब एक कमल के फल द्वारा जिनभगवान् की पूजा की थी। उसी के फल से समय आप राजा हुए हैं। राजन्, यह जिनपूजा सब पुण्यकर्मों में उत्तम पुण्यकर्म है यही तो कारण है कि क्षणमात्र में इसके द्वारा उत्तम से उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार करकण्डु को आदि से इति पर्यन्त सब हाल कहकर और धर्म प्रेम से उसे नमस्कार कर नागकुमार अपने स्थान चला गया। सच है यह पुण्य ही का प्रभाव है जो देव भी मित्र हो जाते हैं ॥१५६-१९२॥
    हाथी को संन्यास लिए आज तीसरा दिन था । करकण्डु ने उसके पास जाकर उसे धर्म का पवित्र उपदेश किया हाथी अन्त में सम्यक्त्व सहित मरकर सहस्रार स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ। एक पशु धर्म का उपदेश सुनकर स्वर्ग में अनन्त सुखों का भोगने वाला देव हुआ, तब जो मनुष्य जन्म पाकर पवित्र भावों से धर्म पालन करें तो उन्हें क्या प्राप्त न हो? बात यह है कि धर्म से बढ़कर सुख देने वाली संसार में कोई वस्तु है ही नहीं । इसलिए धर्म प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। करकण्डु ने इसके बाद इसी पर्वत पर अपने, अपनी माँ के तथा बालदेव के नाम से विशाल और सुन्दर तीन जिनमन्दिर बनवाएँ, बड़े वैभव के साथ उनकी प्रतिष्ठा करवाई जब करकण्डु ने देखा कि मेरा सांसारिक कर्तव्य सब पूरा हो चुका, तब राज्य का सब भार अपने पुत्र वसुपाल को सौंप कर और संसार, शरीर, भोगों को महादोष वाला जानकर करके भोगादि से विरक्त होकर आप अपने माता-पिता तथा और भी कई राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले योगी हो गया । योगी होकर करकण्डु मुनि ने खूब तप किया, जो कि निर्दोष और संसार-समुद्र से पार करने वाला है । अन्त में परमात्म-स्मरण में लीन हो उसने भौतिक शरीर छोड़ा। तप के प्रभाव से उसे सहस्रार स्वर्ग में दिव्य देह मिली। पद्मावती, दन्तिवाहन तथा अन्य राजा तो अपने पुण्य के अनुसार स्वर्गलोक गए ॥ १९३ - २०२॥
    करकण्डु ने ग्वाले के जन्म में केवल एक कमल के फूल द्वारा भगवान् की पूजा की थी । उसे उसका जो फल मिला उसे आप सुन चुके हैं । तब जो पवित्र भावपूर्वक आठ द्रव्यों से भगवान् की पूजा करेंगे उनके सुख का तो फिर पूछना ही क्या? थोड़े में यों समझिए कि जो भव्यजन भक्ति से भगवान् की प्रतिदिन पूजा किया करते हैं वे सर्वोत्तम - सुख मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं, तब और सांसारिक सुखों की तो उनके सामने गिनती ही क्या हैं? ॥२०३-२०४॥
    एक बे-समझ ग्वाले ने जिन भगवान् के पवित्र चरणों की एक कमल के फूल से पूजा की थी, उसके फल से वह करकण्डु राजा होकर देवों द्वारा पूज्य हुआ । इसलिए सुख की चाह करने वाले भव्यजनों को भी उचित है कि वे जिन-पूजा की ओर अपने ध्यान को आकर्षित करें । उससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा, क्योंकि भावों का पवित्र होना पुण्य का कारण है और भावों के पवित्र करने को जिन-पूजा भी एक प्रधान कारण है ॥२०५॥
  7. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अभय - दान द्वारा फल प्राप्त करने वाली की कथा जैनग्रन्थों के अनुसार यहाँ संक्षेप में लिखी जाती है ॥१॥
    भव्यजनों द्वारा भक्ति से पूजी जाने वाली सरस्वती श्रुतज्ञानरूपी महासमुद्र के पार पहुँचाने के लिए नाव की तरह मेरी सहायता करें | परब्रह्म स्वरूप आत्मा का निरन्तर ध्यान करने वाले उन योगियों को शान्ति के लिए मैं सदा याद करता हूँ, जिनकी केवल भक्ति से भव्यजन सन्मार्ग लाभ करते हैं, सुखी होते हैं। इस प्रकार मंगलमय जिनभगवान्, जिनवाणी और जैन योगियों का स्मरण कर मैं वसतिदान-अभयदान की कथा लिखता हूँ ॥२-४॥
    धर्म-प्रचार, धर्मोपदेश, धर्म- क्रिया आदि द्वारा पवित्रता लाभ किए हुए भारतवर्ष में मालवा में बहुत काल से प्रसिद्ध और सुन्दर देश है । अपनी सर्वश्रेष्ठ सम्पदा और ऐश्वर्य से वह ऐसा जान पड़ता है मानों सारे संसार की लक्ष्मी यहीं आकर इकट्ठी हो गई है। वह सुख देने वाले बगीचों, प्रकृति- सुन्दर पर्वतों और सरोवरों की शोभा से स्वर्ग के देवों को भी अत्यन्त प्यारा है। वे यहाँ आकर मनचाहा सुख लाभ करते हैं। यहाँ के स्त्री-पुरुष सुन्दरता में अपनी तुलना में किसी को न देखते थे। देश के सब लोग खूब सुखी थे, भाग्यशाली थे और पुण्यवान् थे । मालवे के सब शहरों में, पर्वतों में और सब वनों में बड़े-बड़े ऊँचे विशाल और भव्य जिनमन्दिर बने हुए थे। उनके ऊँचे शिखरों में लगे हुए सोने के चमकते कलश बड़े सुन्दर जान पड़ते थे। रात में तो उनकी शोभा बड़ी ही विलक्षणता धारण करती थी। वे ऐसे जान पड़ते थे मानों स्वर्गों के महलों में दीये जगमगा रहे हों। हवा के झकोरों से इधर-उधर फड़क रही उन मन्दिरों पर की ध्वजाएँ ऐसी देख पड़ती थीं मानों वे पथिकों को हाथों के इशारे से स्वर्ग जाने का रास्ता बतला रही हैं। उन पवित्र जिन मन्दिरों के दर्शन मात्र से पापों का नाश होता था तब उनके सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखें। जिनमें बैठे हुए रत्नत्रय धारी साधु-तपस्वियों को उपदेश करते हुए देखकर यह कल्पना होती थी कि मानों वे मोक्ष के रास्ते हों ॥५- १२॥
    मालवे में जिन भगवान् के पवित्र और सुख देने वाले धर्म का अच्छा प्रचार है। सम्यक्त्व की जगह-जगह चर्चा है। अनेक सम्यक्त्व रत्न के धारण करने वाले भव्यजनों से वह युक्त हैं। दान-व्रत, पूजा-प्रभावना आदि वहाँ खूब हुआ करते हैं। वहाँ के भव्यजनों का निर्भ्रान्त विश्वास है कि अठारह दोष रहित जिन भगवान् ही सच्चे देव हैं। वे ही केवलज्ञानी - सर्वज्ञ हैं । उनकी स्वर्ग के देव तक सेवा-पूजा करते हैं। सच्चा धर्म दशलक्षणमय है और उनके प्रकटकर्ता जिनदेव हैं। गुरु परिग्रह रहित और वीतरागी है। तत्त्व वही सच्चा हैं जिसे जिन भगवान् ने उपदेश किया है । वहाँ के भव्यजन अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों में सदा प्रयत्नवान् रहते हैं। वे भगवान् की स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाली पूजा सदा करते हैं, पात्रों को भक्ति से पवित्र दान देते हैं, व्रत, उपवास, शील, संयम को पालते हैं और आयु के अन्त में सुख-शांति से मृत्यु लाभ कर सद्गति प्राप्त करते हैं । इस प्रकार मालवा उस समय धर्म का प्रधान केन्द्र बन रहा था, जिस समय की कि यह कथा है ॥१३-१७॥
    मालवे में तब एक घटगाँव नाम का सम्पत्ति शाली शहर था । इस शहर में देविल नाम का एक धनी कुम्हार और एक धर्मिल नाम का नाई रहता था। इन दोनों ने मिलकर बाहर के आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला बनवा दी। एक दिन देविल ने एक मुनि को लाकर इस धर्मशाला में ठहरा दिया। धर्मिल को जब मालूम हुआ तो उसने मुनि को हाथ पकड़ कर बाहर निकाल दिया और वहाँ संन्यासी को लाकर ठहरा दिया। सच है, जो दुष्ट हैं, दुराचारी हैं, पापी हैं, उन्हें साधु-सन्त अच्छे नहीं लगते, जैसे उल्लू को सूर्य । धर्मिल ने मुनि को निकाल दिया, उनका अपमान किया, पर मुनि ने इसका कुछ बुरा न माना। वे जैसे शान्त थे वैसे ही रहे । धर्मशाला से निकल कर वे एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर गए। रात इन्होंने वहीं पूरी की। डांस, मच्छर वगैरह का इन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा। इन्होंने सब सहा और बड़ी शान्ति से सहा । सच है, जिनका शरीर से रत्तीभर मोह नहीं उनके लिए तो कष्ट कोई चीज ही नहीं । सबेरे जब देविल मुनि के दर्शन करने को आया और उन्हें धर्मशाला में न देखकर एक वृक्ष के नीचे बैठा देखा तो उसे धर्मिल की इस दुष्टता पर बड़ा क्रोध आया । धर्मिल का सामना होने पर उसने उसे फटकारा। देविल की फटकार धर्मिल न सह सका और बात बहुत बढ़ गई यहाँ तक कि परस्पर में मारामारी हो गई, दोनों ही परस्पर में लड़कर मर मिटे । क्रूर भावों से मरकर ये दोनों क्रम से सूअर और व्याघ्र हुए। देविल का जीव सूअर विंध्य पर्वत की गुफा में रहता था। एक दिन कर्मयोग गुप्त और त्रिगुप्ति नाम के दो मुनिराज अपने विहार से पृथ्वी को पवित्र करते इसी गुफा में आकर ठहरे। उन्हें देखकर इस सूअर को जातिस्मरण हो गया । इसने उपदेश करते हुए मुनिराज द्वारा धर्म का उपदेश सुन कुछ व्रत ग्रहण किए । व्रत ग्रहण कर यह बहुत सन्तुष्ट हुआ ॥१८-२९॥
    इसी समय मनुष्यों की गन्ध पाकर धर्मिल का जीव व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा हुआ आया। सूअर उसे दूर से देखकर गुफा के द्वार पर आकर डट गया । इसलिए कि वह भीतर बैठे हुए मुनियों की रक्षा कर सके । व्याघ्र ने गुफा के भीतर घुसने के लिए सूअर पर बड़ा जोर का आक्रमण किया। सूअर पहले से ही तैयार बैठा था। दोनों के भावों में बड़ा अन्तर था। एक के भाव थे मुनिरक्षा करने के और दूसरे के उनको खा जाने के। इसलिए देविल का जीव सूअर तो मुनिरक्षा रूप पवित्र भावों से मर कर सौधर्म स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों को धारी देव हुआ। जिसके शरीर की चमकती हुई कान्ति गाढ़े से गाढ़े अन्धकार को नाश करने वाली है, जिसकी रूप- सुन्दरता लोगों के मन को देखने मात्र से मोह लेती है, जो स्वर्गीय दिव्य वस्त्रों और मुकुट, कुण्डल, हार आदि बहुमूल्य भूषणों को पहनता है, अपनी स्वभाव-सुन्दरता से जो कल्पवृक्षों को नीचा दिखाता है, जो अणिमादि ऋद्धि-सिद्धियों का धारक है, अवधिज्ञानी है, पुण्य के उदय से जिसे सब दिव्य सुख प्राप्त हैं, अनेक सुन्दर-सुन्दर देव- कन्याएँ और देवगण जिसकी सेवा में सदा उपस्थित रहते हैं, जो महा वैभवशाली हैं, महा सुखी हैं, स्वर्गों के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं ऐसे जिन भगवान् की, जिन प्रतिमाओं की और कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिन मन्दिरों की जो सदा भक्ति और प्रेम से पूजा करता है, दुर्गति के दुःखों को नाश करने वाले तीर्थों की यात्रा करता है, महामुनियों की भक्ति करता है और धर्मात्माओं के साथ वात्सल्यभाव रखता है ऐसी उसकी सुखमय स्थिति है । जिस प्रकार वह सूअर धर्म के प्रभाव से उक्त प्रकार सुख का भोगने वाला हुआ उसी प्रकार जो और भव्यजन इस पवित्र धर्म का पालन करेंगे वे भी उसके प्रभाव से सब सुख-संपत्ति लाभ करेंगे। समझिए, संसार में जो-जो धन प्राप्त होता है, स्त्री, पुत्र, सुख, ऐश्वर्य आदि अच्छी-अच्छी आनन्द भोग की वस्तुएँ प्राप्त होती है, उनका कारण एक मात्र धर्म है। इसलिए सुख की चाह करने वाले भव्यजनों को जिन-पूजा, पात्र - दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि धर्म का निरन्तर पवित्र भावों से सेवन करना चाहिए। देविल तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग गया और धर्मिल ने मुनियों को खा जाना चाहा था इसलिए वह पाप के फल से मरकर नरक गया। इस प्रकार पुण्य और पाप का फल जानकर भव्यजनों को उचित है कि वे पुण्य के कारण पवित्र जैनधर्म में अपनी बुद्धि दृढ़ करें ॥३०-४६॥
    इस प्रकार परम सुख-मोक्ष के कारण, पापों का नाश करने वाले और पात्र - भेद से विशेष आदर योग्य इस पवित्र अभयदान की कथा अन्य जैन शास्त्रों के अनुसार संक्षेप में यहाँ लिखी गई। यह सत्य कथा संसार में प्रसिद्ध होकर सबका हित करे ॥४७॥
  8. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार-समुद्र से पार करने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुख प्राप्ति की कारण शास्त्र - दान की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    मैं उस भारती सरस्वती को नमस्कार करता हूँ, जिसके प्रकटकर्ता जिनभगवान् हैं और जो आँखों के आड़े आने वाले, पदार्थों का ज्ञान न होने देने वाले अज्ञान -पटल को नाश करने वाली सलाई है। भावार्थ-नेत्ररोग दूर करने के लिए जैसे सलाई द्वारा सूरमा लगाया जाता है या कोई सलाई ऐसी वस्तुओं की बनी होती है जिसके द्वारा सब नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह अज्ञानरूपी रोग को नष्ट करने के लिए सरस्वती-जिनवाणी सलाई का काम देने वाली है। इसकी सहायता से पदार्थों का ज्ञान बड़े सहज में हो जाता है ॥२॥
    उन मुनिराजों को मैं नमस्कार करता हूँ, जो मोह को जीतने वाले हैं, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विभूषित हैं और जिनके चरण-कमल लक्ष्मी के-सब सुखों के स्थान हैं ॥३॥
    इस प्रकार देव, गुरु और शास्त्र को नमस्कार कर शास्त्रदान करने वाले की कथा संक्षेप में यहाँ लिखी जाती है। जिससे कि इसे पढ़कर सत्पुरुषों के हृदय में ज्ञानदान की पवित्र भावना जागृत हो । ज्ञान जीवमात्र का सर्वोत्तम नेत्र है । जिसके यह नेत्र नहीं, उसके चर्म नेत्र होने पर भी वह अन्धा है, उसके जीवन का कुछ मूल्य नहीं होता। इसलिए अकिंचित्कर जीवन को मूल्यवान् बनाने के लिए ज्ञान-दान देना चाहिए। यह दान सब दानों का राजा हैं और दानों द्वारा थोड़े समय की और एक ही जीवन की ख्वाहिशें मिटेंगी, पर ज्ञान-दान से जन्म-जन्म की ख्वाहिशें मिटकर वह दाता और दान लेने वाला ये दोनों ही उस अनन्त स्थान को पहुँच जाते हैं, जहाँ ज्ञान के सिवा कुछ नहीं है, ज्ञान ही जिनका आत्मा हो जाता है। यह हुई परलोक की बात। इसके सिवा ज्ञानदान से इस लोक में भी दाता की निर्मल कीर्ति चारों ओर फैल जाती है । सारा संसार उसकी शत- मुख से बड़ाई करता है। ऐसे लोग जहाँ जाते हैं। वहीं उनका मनमाना आदरमान होता है। इसलिए ज्ञान-दान भुक्ति और मुक्ति इन दोनों का ही देने वाला है। अतः भव्यजनों को उचित है - उनका कर्तव्य है कि वे स्वयं ज्ञान-दान करें और दूसरों को भी इस पवित्र मार्ग में आगे करें । इस ज्ञान-दान के सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने की यह है कि यह सम्यक्त्वपने को लिए हुए हो अर्थात् ऐसा हो कि जिससे किसी जीव का अहित, बुरा न हो, जिसमें किसी तरह का विरोध या दोष न हो, क्योंकि कुछ लोग उसे भी ज्ञान बतलाते हैं, जिसमें जीवों की हिंसा को धर्म कहा गया है, धर्म के बहाने जीवों को अकल्याण का मार्ग बतलाया जाता है और जिसमें कहीं कुछ कहा गया है और कहीं कुछ कहा गया है जो परस्पर विरोधी है। ऐसा ज्ञान सच्चा ज्ञान नहीं किन्तु मिथ्याज्ञान है। इसलिए सच्चे - सम्यग्ज्ञान दान देने की आवश्यकता है। जीव अनादि से कर्मों के वश हुआ अज्ञानी बनकर अपने निज ज्ञानमय शुद्ध स्वरूप को भूल गया है और माया-ममता के पेंचीले जाल में फँस गया है, इसलिए प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि जिससे यह अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त कर सके। ऐसी दशा में इसे असुख का रास्ता बतलाना उचित नहीं है। सुख प्राप्त करने का सच्चा प्रयत्न सम्यग्ज्ञान है। इसलिए दान, मान पूजा - प्रभावना, पठन-पाठन आदि से इस सम्यग्ज्ञान की आराधना करना चाहिए । ज्ञान प्राप्त करने की पाँच भावनाएँ ये हैं-उन्हें सदा उपयोग में लाते रहना चाहिए। वे भावनाएँ हैं-
    वाचना—पवित्र ग्रन्थ का स्वयं अध्ययन करना या दूसरे पुरुषों को कराना ।
    पृच्छना- किसी प्रकार के सन्देह को दूर करने के लिए परस्पर में पूछ-ताछ करना।
    अनुप्रेक्षा–शास्त्रों में जो विषय पढ़ा हो या सुना हो उसका बार-बार मनन- चिन्तन करना।
    आम्नाय–पाठ का शुद्ध पढ़ना या शुद्ध ही पढ़ाना और धर्मोपदेश - पवित्र धर्म का भव्यजन को उपदेश करना। ये पाँचों भावनाएँ ज्ञान बढ़ाने की कारण हैं । इसलिए इनके द्वारा सदा अपने ज्ञान की वृद्धि करते रहना चाहिए। ऐसा करते रहने से एक दिन वह आयेगा जब कि केवलज्ञान भी प्राप्त हो जाएगा। इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान सर्वोत्तम दान है और यही संसार के जीवमात्र का हित करने वाला है। पुरा काल से जिन-जिन भव्य जनों ने ज्ञानदान किया आज तो उनके नाम मात्र का उल्लेख करना भी असंभव है, तब उनका चरित लिखना तो दूर रहा। अस्तु, कौण्डेश का चरित ज्ञानदान करने वालों में अधिक प्रसिद्ध है । इसलिए उसी का चरित संक्षेप में लिखा जाता है ॥४-१२॥
    जिनधर्म के प्रचार या उपदेशादि से पवित्र हुए भारतवर्ष में कुरुमरी गाँव में गोविन्द नाम का एक ग्वाला रहता था। उसने एक बार जंगल में एक वृक्ष की कोटर में जैनधर्म का एक पवित्र ग्रन्थ देखा। उसे वह अपने घर पर ले आया और रोज-रोज उसकी पूजा करने लगा। एक दिन पद्मनंदि नाम के महात्मा को गोविन्द ने जाते देखा। इसने वह ग्रन्थ इन मुनि को भेंट कर दिया ॥१३-१५॥ 
    यह जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ द्वारा पहले भी मुनियों ने यहाँ भव्यजनों को उपदेश किया है, इसके पूजा महोत्सव द्वारा जिनधर्म की प्रभावना की है और अनेक भव्यजनों को कल्याण मार्ग में लगाकर सच्चे मार्ग का प्रकाश किया है । अन्त में वे इस ग्रन्थ को इसी वृक्ष की कोटर में रखकर विहार कर गए हैं। उनके बाद जबसे गोविन्द ने इस ग्रन्थ को देखा तभी से वह इसकी भक्ति और श्रद्धा से निरन्तर पूजा किया करता था । इसी समय अचानक गोविन्द की मृत्यु हो गई वह निदान करके इसी कुरुमरी गाँव में गाँव के चौधरी के यहाँ लड़का हुआ। इसकी सुन्दरता देखकर लोगों की आँखें इस पर से हटती ही न थी, सब इससे बड़े प्रसन्न होते थे। लोगों के मन को प्रसन्न करना, उनकी अपने पर प्रीति होना यह सब पुण्य की महिमा है । इसके पल्ले में पूर्व जन्म का पुण्य था। इसलिए इसे ये सब बातें सुलभ थीं ॥१६-२२॥
    एक दिन उसने उन्हीं पद्मनन्दि मुनि को देखा, जिन्हें कि इस गोविन्द ने ग्वाले के भव में ग्रन्थ भेंट किया था। उन्हें देखकर इसे जातिस्मरण हो गया। मुनि को नमस्कार कर सब धर्मप्रेम से उसने उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। इसकी प्रसन्नता का कुछ पार न रहा। यह बड़े उत्साह से तपस्या करने लगा। दिनों-दिन उसके हृदय की पवित्रता बढ़ती ही गई। आयु के अन्त में शान्ति से मृत्यु लाभ कर वह पुण्य के उदय से कौण्डेश नाम का राजा हुआ | कौण्डेश बड़ा ही वीर था। तेज में वह सूर्य से टक्कर लेता था। सुन्दरता उसकी इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि उसे देखकर कामदेव को भी नीचा मुँह कर लेना पड़ता था। उसकी स्वभाव - सिद्ध कान्ति को देखकर तो लज्जा के मारे बेचारे चन्द्रमा का हृदय ही काला पड़ जाता। शत्रु उसका नाम सुनकर काँपते थे । वह बड़ा ऐश्वर्यवान् था, भाग्यशाली था, यशस्वी था और सच्चा धर्मज्ञ था। वह अपनी प्रजा का शासन प्रेम और नीति के साथ करता था। अपनी सन्तान के माफिक ही उसका प्रजा पर प्रेम था। इस प्रकार बड़े ही सुख - शान्ति से उसका समय बीतता था ॥२३-२८॥
    इस तरह कौण्डेश का बहुत समय बीत गया। एक दिन उसे कोई ऐसा कारण मिल गया कि जिससे उसे संसार से बड़ा वैराग्य हो गया । वह संसार को अस्थिर, विषयभोगों को रोग के समान, सम्पत्ति को बिजली की तरह चंचल - तत्काल देखते-देखते नष्ट होने वाली, शरीर को मांस, मल, रुधिर आदि महा अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ, दुःखों का देने वाला, घिनौना और नाश होने वाला जानकर सबसे उदासीन हो गया। इस जैनधर्म के रहस्य को जानने वाले कौण्डेश के हृदय में वैराग्य भावना की लहरें लहराने लगी। उसे अब घर में रहना कैद खाने के समान जान पड़ने लगा। वह राज्याधिकार पुत्र को सौंपकर जिनमन्दिर गया। वहाँ उसने जिन भगवान् की पूजा की, जो सब सुखों की कारण है। इसके बाद निर्ग्रन्थ गुरु को नमस्कार कर उनके पास वह दीक्षित हो गया। पूर्व जन्म में कौण्डेश ने जो दान किया था, उसके फल से वह थोड़े ही समय में श्रुतकेवली हो गया। वह श्रुतकेवली होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि ज्ञानदान तो केवलज्ञान का भी कारण है। जिस प्रकार ज्ञान-दान से एक ग्वाला श्रुतज्ञानी हुआ उसी तरह अन्य भव्य पुरुषों को भी ज्ञान - दान देकर, अपना आत्महित करना चाहिए । जो भव्यजन संसार के हित करने वाले इस ज्ञान-दान की भक्तिपूर्वक पूजा-प्रभावना, पठन-पाठन लिखने - लिखाने, दान-मान, स्तवन - जपन आदि सम्यक्त्व के कारणों से आराधना किया करते हैं वे धन, जन, यश, ऐश्वर्य, उत्तम कुल, गोत्र, दीर्घायु आदि का मनचाहा सुख प्राप्त करते हैं। अधिक क्या कहा जाए किन्तु इसी ज्ञानदान द्वारा वे स्वर्ग या मोक्ष का सुख भी प्राप्त कर सकेंगे । अठारह दोष रहित जिन भगवान् के ज्ञान का मनन, चिन्तन करना उच्च सुख का कारण है ॥२९-४१॥
    मैंने जो यह दान की कथा लिखी है वह आप लोगों को तथा मुझे केवलज्ञान के प्राप्त करने में सहायक हो ॥४२॥
    मूलसंघ सरस्वती गच्छ में भट्टारक मल्लिभूषण हुए। वे रत्नत्रय से युक्त थे। उनके प्रिय शिष्य ब्रह्मनेमिदत्त ने यह ज्ञानदान की कथा लिखी है । यह निरन्तर आप लोगों के संसार की शान्ति करें अर्थात् जन्म, जरा, मरण मिटाकर अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्त कराये ॥४३॥
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    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन भगवान् जिनवाणी और जैन साधुओं के चरणों को नमस्कार कर औषधिदान के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती हैं ॥१॥
    निरोगी होना, चेहरे पर सदा प्रसन्नता रहना, धनादि विभूति का मिलना, ऐश्वर्य का प्राप्त होना, सुन्दर होना, तेजस्वी और बलवान् होना और अन्त में स्वर्ग या मोक्ष का सुख प्राप्त करना ये सब औषधिदान के फल हैं। इसीलिए जो सुखी होना चाहते हैं उन्हें निर्दोष औषधिदान करना उचित है । इस औषधिदान के द्वारा अनेक सज्जनों ने फल प्राप्त किया है, उन सबके सम्बन्ध में लिखना औरों के लिए नहीं तो मुझ अल्पबुद्धि के लिए तो अवश्य असम्भव है। उनमें से एक वृषभसेना का पवित्र चरित यहाँ संक्षिप्त में लिखा जाता है। आचार्यों ने जहाँ औषधिदान देने वाले का उल्लेख किया है वहाँ वृषभसेना का प्रायः कथन आता है। उन्हीं का अनुकरण मैं भी करता हूँ ॥२-६॥
    भगवान् के जन्म से पवित्र इस भारतवर्ष का जनपद नाम के देश में नाना प्रकार उत्तमोत्तम सम्पत्ति से भरा अतएव अपनी सुन्दरता से स्वर्ग की शोभा को नीची करने वाला कावेरी नाम का नगर है। जिस समय की वह कथा है, उस समय कावेरी नगर के राजा उग्रसेन थे । उग्रसेन प्रजा के सच्चे हितैषी और राजनीति के अच्छे पण्डित ॥७-८॥
    यहाँ धनपति नाम का एक अच्छा सद्गृहस्थ सेठ रहता था । जिन भगवान् की पूजा- प्रभावनादि से उसे अत्यन्त प्रेम था । उसकी स्त्री धनश्री उसके घर की मानों दूसरी लक्ष्मी थी । धनश्री सती और बड़े सरल मन की थी। पूर्व पुण्य से इसके वृषभसेना नाम की एक देवकुमारी से सुन्दरी और सौभाग्यवती लड़की हुई । सच है - -पुण्य के उदय से क्या प्राप्त नहीं होता । वृषभसेना की धाय रूपवती उसे सदा नहाया - धुलाया करती थी । उसके नहाने का पानी बह - बह कर एक गड्ढे में जमा हो गया था। एक दिन की बात है कि रूपमती वृषभसेना को नहला रही थी । उसी समय एक महारोगी कुत्ता उस गड्ढे में, जिसमें कि वृषभसेना के नहाने का पानी इकट्ठा हो रहा था, गिर पड़ा। क्या आश्चर्य की बात है कि जब वह उस पानी में से निकला तो बिल्कुल नीरोग दीख पड़ा। रूपवती उसे देखकर चकित हो रही है ॥९-१२॥
    उसने सोचा-केवल साधारण जल से इस प्रकार रोग नहीं जा सकता । पर वह वृषभसेना के नहाने का पानी है। उसमें उसके पुण्य का कुछ भाग जरूर होना चाहिए। जान पड़ता है वृषभसेना कोई बड़ी भाग्यशालिनी लड़की है। ताज्जुब नहीं कि यह मनुष्य रूपिणी कोई देवी हो ! नहीं तो इसके नहाने के जल में ऐसी चकित करने वाली करामात हो ही नहीं सकती । इस पानी की और परीक्षा कर देख लू, जिससे और भी दृढ़ विश्वास हो जाएगा कि यह पानी सचमुच ही क्या रोगनाशक है? ॥१३-१५॥
    तब रूपवती थोड़े से उस पानी को लेकर अपनी माँ के पास आई। उसकी माँ की आँखें कोई बारह वर्षों से खराब हो रही थी। इससे वह बड़ी दुःख में थी । आँखों को रूपवती ने उस जल से धोकर साफ किया और देखा तो उनका रोग बिल्कुल जाता रहा। वे पहले से बड़ी सुन्दर हो गई रूपवती को वृषभसेना के पुण्यवती होने में अब कोई सन्देह न रह गया । इस रोग नाश करने वाले जल के प्रभाव से रूपवती की चारों और बड़ी प्रसिद्धि हो गई। बड़ी-बड़ी दूर के रोगी अपने रोग का इलाज कराने को आने लगे। क्या आँख के रोग को, क्या पेट के रोग को, क्या सिर सम्बन्धी पीड़ाओं की और क्या कोढ़ वगैरह रोगों को, यही नहीं किन्तु जहर सम्बन्धी असाध्य से असाध्य रोगों को भी रूपवती केवल एक इसी पानी से आराम करने लगी । रूपवती इससे बड़ी प्रसिद्ध हो गई ॥१६-१८॥
    उग्रसेन और मेघपिंगल राजा की पुरानी शत्रुता चली आ रही थी। उस समय उग्रसेन ने अपने मन्त्री रणपिंगल को मेघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी । रणपिंगल सेना लेकर मेघपिंगल पर जा चढ़ा और उसके सारे देश को उसने घेर लिया। मेघपिंगल ने शत्रु को युद्ध में पराजित करना कठिन समझ दूसरी युक्ति से उसे देश से निकाल बाहर करना विचारा और उसके लिए उसने ये योजना की कि शत्रु की सेना में जिन-जिन कुँए, बावड़ी से पीने को जल आता था उन सबमें अपने चतुर जासूसों द्वारा विष घुलवा दिया। फल यह हुआ कि रणपिंगल की बहुत सी सेना तो मर गई और बची हुई सेना को साथ लिए वह स्वयं भी भाग कर अपने देश लौट आया। उसकी सेना पर तथा उस पर जो विष का असर हुआ था, उसे रूपवती ने उसी जल से आराम किया। गुरुओं के वचनामृत से जैसे जीवों को शान्ति मिलती है रणपिंगल को उसी प्रकार शान्ति रूपवती के जल से मिली और वह रोगमुक्त हुआ ॥१९-२१॥
    रणपिंगल का हाल सुनकर उग्रसेन को मेघपिंगल पर बड़ा क्रोध आया तब स्वयं उन्होंने उस पर चढ़ाई की। उग्रसेन ने अब की बार अपने जानते सावधानी रखने में कोई कसर न की । पर भाग्य का लेख किसी तरह नहीं मिटता । मेघपिंगल का चक्र उग्रसेन पर भी चल गया। जहर मिले जल को पीकर उनकी भी तबियत बहुत बिगड़ गई तब जितनी जल्दी उनसे बन सका अपनी राजधानी में उन्हें लौट आना पड़ा। उनका भी बड़ा ही अपमान हुआ। रणपिंगल से उन्होंने, वह कैसे आराम हुआ था, इस बाबत पूछा । रणपिंगल ने रूपवती का जल के बारे में बतलाया । उग्रसेन ने तब उसी समय अपने आदमियों को जल ले आने के लिए सेठ के यहाँ भेजा। अपनी लड़की का स्नान-जल लेने को राजा के आदमियों को आया देख सेठानी धनश्री ने अपने स्वामी से कहा- क्यों जी, अपनी वृषभसेना का स्नान-जल राजा के सिर पर छिड़का जाए यह तो उचित नहीं जान पड़ता। सेठ ने कहा—तुम्हारा यह कहना ठीक है, परन्तु जिसके लिए दूसरा कोई उपाय नहीं तब क्या किया जाये । हम तो जान-बूझकर ऐसा नहीं करते हैं और न सच्चा हाल किसी से छिपाते हैं, तब इससे अपना तो कोई अपराध नहीं हो सकता। यदि राजा साहब ने पूछा तो हम सब हाल उनसे यथार्थ कह देंगे। सच है-अच्छे पुरुष प्राण जाने पर भी झूठ नहीं बोलते। दोनों ने विचार कर रूपवती को जल देकर उग्रसेन के महल पर भेजा। रूपवती ने उस जल को राजा के सिर पर छिड़क कर उन्हें आराम कर दिया। उग्रसेन रोगमुक्त हो गए। उन्हें बहुत खुशी हुई रूपवती से उन्होंने उस जल का हाल पूछा। रूपवती कोई बात न छुपाकर जो बात सच्ची थी वह राजा से कह दी । सुनकर राजा ने धनपति सेठ को बुलाया और उसका बड़ा आदर-सम्मान किया। वृषभसेना का हाल सुनकर ही उग्रसेन की इच्छा उसके साथ ब्याह करने की हो गई थी और इसीलिए उन्होंने मौका पाकर धनपति से अपनी इच्छा कह सुनाई। धनपति ने उसके उत्तर में कहा- राजराजेश्वर, मुझे आपकी आज्ञा मान लेने में कोई रुकावट नहीं है। पर इसके साथ आपको स्वर्ग-मोक्ष की देने वाली और जिसे इन्द्र, स्वर्गवासी देव, चक्रवर्ती, विद्याधर, राजा-महाराजा आदि महापुरुष बड़ी भक्ति के साथ करते है । ऐसी अष्टाह्निका पूजा करनी होगी और भगवान् का खूब उत्सव के साथ अभिषेक करना होगा और आपके यहाँ जो पशु-पक्षी पिंजरों में बन्द हैं, उन्हें तथा कैदियों को छोड़ना होगा। ये सब बातें आप स्वीकार करें तो मैं वृषभसेना का ब्याह आपके साथ कर सकता हूँ । उग्रसेन ने धनपति की सब बातें स्वीकार कीं और उसी समय उन्हें कार्य में भी परिणत कर दिया ॥२२ - ३६॥
    वृषभसेना का ब्याह हो गया । सब रानियों में पट्टरानी का सौभाग्य उसे ही मिला। राजा ने अब अपना राजकीय कामों से बहुत कुछ सम्बन्ध कम कर दिया। उनका प्रायः समय वृषभसेना के साथ सुखोभोग में जाने लगा। वृषभसेना पुण्योदय से राजा की खास प्रेम - पात्र हुई स्वर्ग सरीखे सुखों को वह भोग ने लगी। यह सब कुछ होने पर भी वह अपने धर्म-कर्म को थोड़ा भी न भूली थी। वह जिन भगवान् की सदा जलादि आठ द्रव्यों से पूजा करती, साधुओं को चारों प्रकार का दान देती, अपनी शक्ति के अनुसार व्रत, तप, शील, संयमादि का पालन करती और धर्मात्मा सत्पुरुषों का अत्यन्त प्रेम के साथ आदर-सत्कार करती और सच है - पुण्योदय से जो उन्नति हुई, उसका फल तो यही है कि साधर्मियों से प्रेम हो, हृदय में उनके प्रति उच्च भाव हों। वृषभसेना का अपना जो कर्तव्य था, उसे पूरा करती, भक्ति से जिनधर्म की जितनी बनती उतनी सेवा करती और सुख से रहा करती थी ॥ ३७-४२॥
    राजा उग्रसेन के यहाँ बनारस का राजा पृथ्वीचन्द्र कैद था और वह अधिक दुष्ट था। पर उग्रसेन का तो तब भी यही कर्तव्य था कि वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ब्याह के समय उसे भी छोड़ देते। पर ऐसा उन्होंने नहीं किया । यह अनुचित हुआ अथवा यों कहिए कि जो अधिक दुष्ट होते हैं उनका भाग्य ही ऐसा होता है जो वे मौके पर भी बन्धन मुक्त नहीं हो पाते ॥४३-४४॥
    पृथ्वीचन्द्र की रानी का नाम नारायणदत्ता था । उसे आशा थी कि उग्रसेन अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वृषभसेना के साथ ब्याह के समय मेरे स्वामी को अवश्य छोड़ देंगे। पर उसकी यह आशा व्यर्थ हुई पृथ्वीचन्द्र तब भी न छोड़े गए। यह देख नारायणदत्ता ने अपने मंत्रियों से सलाह ले पृथ्वीचन्द्र को छुड़ाने के लिए एक दूसरी युक्ति की और उसमें उसे मनचाही सफलता भी प्राप्त हुई उसने अपने यहाँ वृषभसेना के नाम से कई दानशालाएँ बनवाई कोई विदेशी या स्वदेशी हो सबको उनमें भोजन करने को मिलता था । उन दानशालाओं में बढ़िया से बढ़िया छहों रसमय भोजन कराया जाता था। थोड़े ही दिनों में इन दानशालाओं की प्रसिद्धि चारों ओर हो गई। जो इनमें एक बार भी भोजन कर जाता वह फिर उनकी तारीफ करने में कोई कमी न करता था । बड़ी-बड़ी दूर से इनमें भोजन करने को लोग आने लगे । कावेरी के भी बहुत से ब्राह्मण यहाँ भोजन कर जाते थे। उन्होंने इन शालाओं की बहुत तारीफ की ॥४५ - ४८॥
    रूपवती को इन वृषभसेना के नाम से स्थापित की गई दानशालाओं का हाल सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही उसे वृषभसेना पर इस बात से बड़ा गुस्सा आया कि मुझे बिना पूछे उसने बनारस में ये शालाएँ बनवाई ही क्यों ? और उसका उसने वृषभसेना को उलाहना भी दिया। वृषभसेना ने तब कहा-माँ, मुझ पर तुम व्यर्थ ही नाराज होती हो । न तो मैंने कोई दानशाला बनारस में बनवाई और न मुझे उनका कुछ हाल ही मालूम है । यह सम्भव हो सकता है कि किसी ने मेरे नाम से उन्हें बनायी हो। पर इसका शोध लगाना चाहिए कि किसने ये शालाएँ बनवाई और क्यों बनवाई? आशा है पता लगाने से सब रहस्य ज्ञात हो जाएगा। रूपवती ने तब कुछ जासूसों को उन शालाओं की सच्ची हकीकत जानने को भेजा । उनके द्वारा रूपवती को मालूम हुआ कि वृषभेसना के ब्याह के समय उग्रसेन ने सब कैदियों को छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी । उस प्रतिज्ञा के अनुसार पृथ्वीचन्द्र को उन्होंने न छोड़ा। यह बात वृषभसेना को जान पड़े, उसका ध्यान इस ओर आकर्षित करने के लिए ये दान- शालाएँ उनके नाम से पृथ्वीचन्द्र की रानी नारायणदत्ता ने बनवाई हैं। रूपवती ने यह सब हाल वृषभसेना से कहा। वृषभसेना ने तब उग्रसेन से प्रार्थना कर उसी समय पृथ्वीचन्द्र को छुड़वा दिया। पृथ्वीचन्द्र वृषभसेना के इस उपकार से बड़ा कृतज्ञ हुआ। उसने इस कृतज्ञता के वश हो उग्रसेन और वृषभसेना का एक बहुत बढ़िया चित्र तैयार करवाया। उस चित्र में दोनों राजा-रानी के पाँवों में सिर झुकाया हुआ अपना चित्र भी पृथ्वीचन्द्र ने खिचवाया । वह चित्र फिर उनको भेंट कर उसने वृषभसेना से कहा-‍ हा - माँ, तुम्हारी कृपा से मेरा जन्म सफल हुआ। आपकी इस दया का मैं जन्म-जन्म में ऋणी रहूँगा। आपने इस समय मेरा जो उपकार किया उसका बदला तो मैं क्या चुका सकूँगा पर उसकी तारीफ में कुछ कहने तक के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं है । पृथ्वीचन्द्र की यह नम्रता यह विनयशीलता देखकर उग्रसेन उस पर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने उसका तब बड़ा आदर-सत्कार किया ॥४९-५६॥
    मेघपिंगल उग्रसेन का शत्रु था, जिसका जिकर ऊपर आया है । उग्रसेन से वह भले ही बिल्कुल न डरता हो, पृथ्वीचन्द्र से बहुत डरता था । उसका नाम सुनते ही वह काँप उठता था। उग्रसेन को यह बात मालूम थी । इसलिए अब की बार उन्होंने पृथ्वीचन्द्र को उस पर चढ़ाई करने की आज्ञा की। उनकी आज्ञा सिर पर चढ़ा पृथ्वीचन्द्र अपनी राजधानी में गया और तुरंत उसने अपनी सेना को मेघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा की । सेना के प्रयाण का बाजा बजने वाला ही था कि कावेरी नगर से खबर आ गई " अब चढ़ाई की कोई जरूरत नहीं । मेघपिंगल स्वयं महाराज उग्रसेन के दरबार में उपस्थित हो गया है।" बात यह थी कि मेघपिंगल पृथ्वीचन्द्र के साथ लड़ाई में पहले कई बार हार चुका था। इसलिए वह उससे बहुत डरता था । यही कारण था कि उसने पृथ्वीचन्द्र से लड़ना उचित न समझा। तब अगत्या उसे उग्रसेन की शरण में आ जाना पड़ा। अब वह उग्रसेन का सामन्त राजा बन गया। सच है, पुण्य के उदय से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं ॥५७-६०॥
    एक दिन दरबार लगा हुआ था । उग्रसेन सिंहासन पर अधिष्ठित थे। उस समय उन्होंने एक प्रतिज्ञा की-आज सामन्त - राजाओं द्वारा जो भेंट आयेगी, वह आधी मेघपिंगल की और आधी श्रीमती वृषभसेना की भेंट होगी । इसलिए कि उग्रसेन महाराज की अपने मेघपिंगल पर पूरी कृपा हो गई थी। आज और बहुत-सी धन-दौलत के सिवा दो बहुमूल्य सुन्दर कम्बल उग्रसेन की भेंट में आए। उग्रसेन ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भेंट का आधा हिस्सा मेघपिंगल के यहाँ और आधा हिस्सा वृषभसेना के यहाँ पहुँचा दिया। धन-दौलत, वस्त्राभूषण, आयु आदि ये सब नाश होने वाली वस्तुएँ हैं, तब इनका प्राप्त करना सफल तभी हो सकता है कि ये परोपकार में लगाई जायें, इनके द्वारा दूसरों का भला हो ॥६१-६४॥
    एक दिन मेघपिंगल की रानी इस कम्बल को ओढ़ किसी आवश्यक कार्य के लिए वृषभसेना के महल आयी । पाठकों को याद होगा कि ऐसा ही एक कम्बल वृषभसेना के पास भी था। आज वस्त्रों के उतारने और पहरने में भाग्य से मेघपिंगल की रानी का कम्बल वृषभसेना के कम्बल से बदल गया। उसे इसका कुछ ख्याल न रहा और वह वृषभसेना का कम्बल ओढ़े ही अपने महल आ गई। कुछ दिनों बाद मेघपिंगल को राज- दरबार में जाने का काम पड़ा। वह वृषभसेना के इसी कम्बल को ओढ़े चला गया। कम्बल को ओढ़े मेघपिंगल को देखते ही उग्रसेन के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने वृषभसेना के कम्बल को पहचान लिया । उनकी आँखों से आग की - सी चिनगारियाँ निकलने लगीं। उन्हें काटो तो खून नहीं । महारानी वृषभसेना का कम्बल इसके पास क्यों और कैसे गया? इसका कोई गुप्त कारण जरूर होना चाहिए। बस, यह विचार उनके मन में आते ही उनकी अजब हालत हो गई। उग्रसेन का अपने पर अकारण क्रोध देखकर मेघपिंगल को इसका कुछ भी कारण न आया। पर ऐसी दशा में उसने अपना वहाँ रहना उचित न समझा । वह उसी समय वहाँ से भागा और एक अच्छे तेज घोड़े पर सवार हो बहुत दूर निकल गया । जैसे दुर्जनों से डरकर सत्पुरुष दूर जा निकलते हैं। उसे भागता देख उग्रसेन को सन्देह और बढ़ा । उन्होंने तब एक ओर तो मेघपिंगल को पकड़ लाने के लिए अपने सवारों को दौड़ाया और दूसरी ओर क्रोधाग्नि से जलते हुए आप वृषभसेना के महल पहुँचे। वृषभसेना से कुछ न कह सुनकर तूने अमुक अपराध किया है, ऐसा कहकर दोनों को एक साथ समुद्र में फिकवाने का उन्होंने हुक्म दे दिया। बेचारी निर्दोष वृषभसेना राजाज्ञा के अनुसार समुद्र में डाल दी गयी । उस क्रोध को धिक्कार ! उस मूर्खता को धिक्कार ! जिसके वश हो लोग योग्य और अयोग्य कार्य का भी विचार नहीं कर पाते । अजान मनुष्य किसी को कोई कितना ही कष्ट क्यों न दे, दुःखों की कसौटी पर उसे कितना ही क्यों न चढ़ावें, उसकी निरपराधता को अपनी क्रोधाग्नि में क्यों न झोंक दें, पर यदि वह कष्ट सहने वाला मनुष्य निरपराध है, निर्दोष है, उसका हृदय पवित्रता से सना है, रोम-रोम में उसके पवित्रता का वास है तो निःसन्देह उसका कोई बाल बाँका नहीं कर सकता। ऐसे मनुष्यों को कितना ही कष्ट हो, उससे उनका हृदय रत्ती भर भी विचलित न होगा। बल्कि जितना-जितना वह इस परीक्षा की कसौटी पर चढ़ता जायेगा उतना-उतना ही अधिक उसका हृदय बलवान् और निर्भीक बनता जाएगा। उग्रसेन महाराज भले ही इस बात को न समझें कि वृषभसेना निर्दोष है, उसका कोई अपराध नहीं, पर पाठकों को अपने हृदय में इस बात का अवश्य विश्वास है, न केवल विश्वास ही है किन्तु बात भी वास्तव में यही सत्य है कि वृषभसेना निरपराध है। वह सती है, निष्कलंक है । जिस कारण उग्रसेन महाराज उस पर नाराज हुए थे, वह कारण निर्भ्रान्त नहीं था । वे यदि जरा गम खाकर कुछ शान्ति से विचार करते तो उनकी समझ में भी वृषभसेना की निर्दोषता बहुत जल्दी आ जाती। पर क्रोध ने उन्हें आपे में न रहने दिया और इसलिए उन्होंने एकदम क्रोध से अन्धे हो एक निर्दोष व्यक्ति को काल के मुँह में फेंक दिया। जो हो, वृषभसेना के पवित्र जीवन की उग्रसेन ने कुछ कीमत न समझी, उसके साथ महान् अन्याय किया, पर वृषभसेना को अपने सत्य पर पूर्ण विश्वास था । वह जानती थी कि मैं सर्वथा निर्दोष हूँ। फिर मुझे कोई ऐसी बात नहीं देख पड़ती कि जिसके लिए मैं दुःख कर अपने आत्मा को निर्बल बनाऊँ। बल्कि मुझे इस बात की प्रसन्नता होनी चाहिए कि सत्य के लिए मेरा जीवन गया। उसने ऐसे ही और बहुत से विचारों से अपने आत्मा को खूब बलवान् और सहनशील बना लिया । ऊपर यह लिखा जा चुका है कि सत्यता और पवित्रता के सामने किसी की नहीं चलती बल्कि सबको उनके लिए अपना मस्तक झुकाना पड़ता है। वृषभसेना अपनी पवित्रता पर विश्वास रखकर भगवान् के चरणों का ध्यान करने लगी। अपने मन को उसने परमात्मा - प्रेम में लीन कर लिया। साथ ही प्रतिज्ञा की कि यदि इस परीक्षा में मैं पास होकर नया जीवन लाभ कर सकूँतो अब मैं संसार की विषयवासना में न फँसकर अपने जीवन को तप के पवित्र प्रवाह में बहा दूँगी, जो तप जन्म और मरण का ही नाश करने वाला है। उस समय वृषभसेना की वह पवित्रता, वह दृढ़ता, वह शील का प्रभाव, वह स्वभावसिद्ध प्रसन्नता आदि बातों ने उसे एक प्रकाशमान उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत कर दिया था । उसके इस अलौकिक तेज के प्रकाश ने स्वर्ग के देवों की आँखों तक में चकाचौंध पैदा कर दी। उन्हें भी इस तेजस्विता देवी को सिर झुकाना पड़ा। वे वहाँ से उसी समय आये और वृषभसेना को एक मूल्यवान् सिंहासन पर अधिष्ठित कर उन्होंने उस मनुष्य रूपधारिणी पवित्रता की मूर्तिमान देवी की बड़े भक्ति भावों से पूजा की, उसकी जय-जयकार मनाई, बहुत सत्य है, पवित्रशील के प्रभाव से सब कुछ हो सकता है । यही शील आग को जल, समुद्र को स्थल, शत्रु को मित्र, दुर्जन को सज्जन और विष को अमृत के रूप में परिणत कर देता है। शील का प्रभाव अचिन्त्य है। इसी शील के प्रभाव से धन-सम्पत्ति, कीर्ति, पुण्य, ऐश्वर्य, स्वर्ग-सुख आदि जितनी संसार में उत्तम वस्तुएँ हैं वे सब अनायास बिना परिश्रम किए प्राप्त हो जाती हैं। न यही किन्तु शीलवान् मनुष्य मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे अपने चंचल मनरूपी बन्दर को वश कर उसे कहीं न जाने देकर पवित्र शीलव्रत की, जिसे कि भगवान् ने सब पापों का नाश करने वाला बतलाया है, रक्षा में लगावें ॥६५ - ७९॥
    वृषभसेना के शील का माहात्म्य जब उग्रसेन को जान पड़ा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। अपनी बे-समझी पर वे बहुत पछताए। वृषभसेना के पास जाकर उससे उन्होंने अपने इस अज्ञान की क्षमा माँगी और महल चलने के लिए उससे प्रार्थना की। यद्यपि वृषभसेना ने पहले यह प्रतिज्ञा की थी कि इस कष्ट से छुटकारा पाते ही मैं योगिनी बनकर आत्महित करूँगी और इस पर वह दृढ़ भी थी परन्तु इस समय जब खुद महाराज उसे लिवाने को आए तब उनका अपमान न हो; इसलिए उसने एक बार महल जाकर एक-दो दिन बाद फिर दीक्षा लेना निश्चय किया । वह बड़ी वैरागिन होकर महाराज के साथ महल आ रही थी । पर जिसके मन जैसी भावना होती है और वह यदि सच्चे हृदय से उत्पन्न हुई होती है वह नियम से पूरी होती ही है। वृषभसेना के मन में जो पवित्र भावना थी वह सच्चे संकल्प से की गई थी । इसलिए उसे पूरी होना ही चाहिए था और वह हुई भी। रास्ते में वृषभसेना को एक महा तपस्वी और अवधिज्ञानी गुणधर नाम के मुनिराज के पवित्र दर्शन हुए। वृषभसेना ने बड़ी भक्ति से उन्हें हाथ जोड़ सिर नवाया। इसके बाद उसने उनसे पूछा-हे दया के समुद्र योगिराज! क्या आप कृपाकर मुझे यह बतलावेंगे कि मैंने पूर्व जन्मों में क्या-क्या कर्म किए हैं, जिनका मुझे यह फल भोगना पड़ा ? मुनि बोले- पुत्री, सुन तुझे तेरे पूर्व जन्म का हाल सुनाता हूँ। तू पहले जन्म में ब्राह्मण की लड़की थी । तेरा नाम नाग श्री था । इस राजघराने में तू बुहारी दिया करती थी। एक दिन मुनिदत्त नाम के योगिराज महल के कोट के भीतर एक वायु रहित पवित्र गड्ढे में बैठे ध्यान कर रहे थे। समय सन्ध्या का था। इसी समय तू बुहारी देती हुई इधर आई तूने मूर्खता से क्रोध कर मुनि से कहा-ओ नंगे ढोंगी, उठ यहाँ से, मुझे झाड़ने दे। आज महाराज इसी महल में आयेंगे। इसलिए इस स्थान को मुझे साफ करना है। मुनि ध्यान में थे, इसलिए वे उठे नहीं और न ध्यान पूरा होने तक उठ ही सकते थे वे वैसे के वैसे ही अडिग बैठे रहे, इससे तुझे और अधिक गुस्सा आया। तूने तब सब जगह का कूड़ा-कचरा इकट्ठा कर मुनि को उससे ढँक दिया। उसके बाद तू चली गई। बेटा तू तब मूर्ख थी, कुछ समझती न थी । पर तूने वह काम बहुत बुरा किया था। तू नहीं जानती थी कि साधु-संत तो पूजा करने योग्य होते हैं, उन्हें कष्ट देना उचित नहीं । जो कष्ट देते हैं वे बड़े मूर्ख और पापी हैं। अस्तु, सबेरे राजा आए । उनकी नजर उस कचड़े के ढेर पर पड़ गई। मुनि के साँस लेने से उन पर का वह कूड़ा-कचरा ऊँचा- नीचा हो रहा था । उन्हें कुछ सन्देह सा हुआ । तब उन्होंने उसी समय उस कचरे को हटाया। देखा तो उन्हें मुनि दिख पड़े। राजा ने उन्हें निकाल लिया। तुझे जब यह हाल मालूम हुआ और आकर तूने उन शान्ति के मन्दिर मुनिराज को पहले सा ही शान्त पाया। तब तुझे उनके गुणों की कीमत जान पड़ी । तू तब बहुत पछताई अपने कर्मों को तूने बहुत धिक्कारा। मुनिराज से अपने अपराध की क्षमा कराई तब तेरी श्रद्धा उन पर बहुत हो गई मुनि के उस कष्ट दूर करने को तूने बहुत यत्न किया, उनकी औषधि की और भरपूर सेवा की। उस सेवा के फल से तेरे पापकर्मों की स्थिति बहुत कम रह गई। बहिन, उसी मुनि सेवा के फल से तू इस जन्म में धनपति सेठ की लड़की हुई, तूने जो मुनि को औषधिदान दिया था उससे तो तुझे वह सर्वौषधि प्राप्त हुई जो तेरे स्नान जल से कठिन से कठिन रोग क्षण-भर में नाश हो जाते हैं और मुनि को कचरे से ढक कर जो उन पर घोर उपसर्ग किया था, उससे तुझे इस जन्म में झूठा कलंक लगा। इसलिए बहिन, साधुओं को कभी कष्ट देना उचित नहीं किन्तु ये स्वर्ग या मोक्ष सुख की प्राप्ति के कारण हैं, इसलिए इनकी तो बड़ी भक्ति और श्रद्धा से सेवा-पूजा करनी चाहिए। मुनिराज द्वारा अपना पूर्वमत सुनकर वृषभसेना का वैराग्य और बढ़ गया। उसने फिर महल पर न जाकर अपने स्वामी से क्षमा कराई और संसार की सब माया-ममता का पेचीदा जाल तोड़कर परलोक-सिद्धि के लिए इन्हीं गुणधर मुनि द्वारा योग-दीक्षा ग्रहण कर ली । जिस प्रकार वृषभसेना ने औषधिदान देकर उसके फल से सर्वौषधि प्राप्त की उसी तरह और बुद्धिमानों को भी उचित है कि वे जिसे जिस दान की जरूरत समझें उसी के अनुसार सदा हर एक की व्यवस्था करते रहें । दान महान् पवित्र कार्य हैं और पुण्य का कारण है ॥८०-१०४॥
    गुणधर मुनि के द्वारा वृषभसेना का पवित्र और प्रसिद्ध चरित्र सुनकर बहुत से भव्यजनों ने जैनधर्म को धारण किया, जिन को जैनधर्म के नाम तक से चिढ़ थी। वे भी उससे प्रेम करने लगे । इन भव्यजनों को तथा मुझे सती वृषभसेना पवित्र करें, हृदय में चिरकाल से स्थान से किए रोग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, मत्सरता आदि दुर्गुणों को, जो आत्मप्राप्ति से दूर रखने वाले हैं, नाश करें उनकी जगह पवित्रता की प्रकाशमान ज्योति को जगावें ॥ १०५ ॥
  10. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जगद्गुरु तीर्थंकर भगवान् को नमस्कार कर पात्र दान के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    जिन भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमा से जन्मी पवित्र जिनवाणी ज्ञानरूपी महा समुद्र से पार करने के लिए मुझे सहायता दें, मुझे ज्ञान - दान दें ॥२॥
    उन साधु रत्नों को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारक हैं, परिग्रह कनक - कामिनी आदि से रहित वीतरागी हैं और सांसारिक सुख तथा मोक्ष सुख की प्राप्ति के कारण हैं ॥३॥
    पूर्वाचार्यों ने दान को चार हिस्सों बाँटा है, जैसे आहार - दान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान। ये ही दान पवित्र हैं। योग्य पात्रों को यदि ये दान दिये जायें तो इनका फल अच्छी जमीन में बोये हुए बड़ के बीज की तरह अनन्त गुणा होकर फलता है। जैसे एक ही बावड़ी का पानी अनेक वृक्षों में जाकर नाना रूप में परिणत होता है उसी तरह पात्रों के भेद से दान के फल में भी भेद हो जाता है। इसलिए जहाँ तक बने अच्छे सुपात्रों को दान देना चाहिए। सब पात्रों में जैनधर्म का आश्रय लेने वाले को अच्छा पात्र समझना चाहिए, औरों को नहीं, क्योंकि जब एक कल्पवृक्ष हाथ लग गया फिर औरों से क्या लाभ? जैनधर्म में पात्र तीन बतलाये गए है । उत्तम पात्र - मुनि, मध्यम पात्र- व्रती श्रावक और जघन्य पात्र - अव्रतसम्यग्दृष्टि । इन तीन प्रकार के पात्रों को दान देकर भव्य पुरुष जो सुख लाभ करते हैं उसका वर्णन मुझसे नहीं किया जा सकता परन्तु संक्षेप में यह समझ लीजिए कि धन-दौलत, स्त्री- पुत्र, खान-पान, भोग-उपभोग आदि जितनी उत्तम - उत्तम सुख सामग्री है वह तथा इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की पदवियाँ, अच्छे सत्पुरुषों की संगति, दिनों-दिन ऐश्वर्यादि की बढ़वारी वे सब पात्रदान के फल से प्राप्त होते हैं। पात्रदान के फल से मोक्ष प्राप्ति भी सुलभ है। राजा श्रेयांस ने दान के ही फल से मुक्ति लाभ किया था। इस प्रकार पात्रदान का अनन्त फल जानकर बुद्धिमानों को इस ओर अवश्य अपने ध्यान को खींचना चाहिए। जिन-जिन सत्पुरुषों ने पात्रदान का आज तक फल पाया है, उन सबके नाम मात्र का उल्लेख भी जिन भगवान् के बिना और कोई नहीं कर सकता, तब उनके सम्बन्ध में कुछ कहना या लिखना मुझसे मतिहीन मनुष्यों के लिए तो असंभव ही है । आचार्यों ने ऐसे दानियों में सिर्फ चार जनों का उल्लेख शास्त्रों में किया है। इस कथा में उन्हीं का संक्षिप्त चरित मैं पुराने शास्त्रों के अनुसार लिखूँगा। उन दानियों के नाम हैं- श्रीषेण, वृषभसेना, कौण्डेश और एक पशु बराह-सूअर। इनमें श्रीषेण ने आहारदान, वृषभसेना ने औषधिदान, कौण्डेश ने शास्त्रदान और सूअर ने अभयदान किया था। उनकी क्रम से कथा लिखी जाती है ॥४-२० ॥
    प्राचीन काल में श्रीषेण राजा ने आहारदान दिया । उनके फल से वे शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए। श्रीशान्तिनाथ भगवान् जय लाभ करें, जो सब प्रकार का सुख देकर अन्त में मोक्ष सुख के देने वाले हैं और जिनका पवित्र चरित का सुनना परम शान्ति का कारण है । ऐसे परोपकार भगवान् को परम पवित्र और जीव मात्र का हित करने वाला चरित आप लोग भी सुनें, जिसे सुनकर आप सुख लाभ करेंगे ॥२१-२३॥
    प्राचीन काल में इस भारतवर्ष में मलय नाम का एक अति प्रसिद्ध देश था। रत्नसंचयपुर उसकी राजधानी थी। जैनधर्म का इस देश में खूब प्रचार था । उस समय उसके राजा श्रीषेण थे। श्रीषेण धर्मज्ञ, उदारमना, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी, दानी और बड़े विचारशील थे। पुण्य से प्रायः अच्छे-अच्छे सभी गुण उन्हें प्राप्त थे। उनका प्रतिद्वंद्वी या शत्रु कोई न था । वे राज्य निर्विघ्न किया करते थे। सदाचार में उस समय उनका नाम सबसे ऊँचा था। उनकी दो रानियाँ थीं । उनके नाम थे सिंहनन्दिता और अनन्दिता । दोनों ही अपनी-अपनी सुन्दरता में अद्वितीय थीं, विदुषी और सती थीं। इन दोनों के पुत्र हुए । उनके नाम इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन थे। दोनों ही भाई सुन्दर थे, गुणी थे, शूरवीर थे और हृदय के बड़े शुद्ध थे । इस प्रकार श्रीषेण धन-सम्पत्ति, राज्य-वैभव, कुटुम्ब-परिवार आदि से पूरे सुखी थे। प्रजा का नीति के साथ पालन करते हुए वे अपने समय को बड़े आनन्द के साथ बिताते थे ॥२४-२९॥
    यहाँ एक सात्यकि ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम जंघा था। इसके सत्यभामा नाम की एक लड़की थी। रत्नसंचयपुर के पास बल नाम का एक गाँव बसा हुआ था। उसमें धरणीजट नाम का ब्राह्मण वेदों का अच्छा विद्वान् था। अग्नीला उसकी स्त्री थी अग्लीना से दो लड़के हुए। उनके नाम इन्द्रभूति और अग्निभूति थे । उसके यहाँ एक दासी - पुत्र (शूद्र) का लड़का रहता था। उसका नाम कपिल था। धरणीजट जब अपने लड़कों को वेदादिक पढ़ाया करता, उस समय कपिल भी बड़े ध्यान से उस पाठ को चुपचाप छुपे हुए सुन लिया करता था । भाग्य से कपिल की बुद्धि बड़ी तेज थी। सो वह अच्छा विद्वान् बन गया, एक दासी पुत्र भी पढ़-लिखकर महा विद्वान् बन गया इस धरणीजट को बड़ा आश्चर्य हुआ। पर सच तो यह है कि बेचारा मनुष्य करे भी क्या, बुद्धि तो कर्मों के अनुसार होती है न? जब सर्व साधारण में कपिल के विद्वान् हो जाने की चर्चा उठी तो धरणीजट पर ब्राह्मण लोग बड़े बिगड़े और उसे डराने लगे कि तूने यह बड़ा भारी अन्याय किया जो दासी-पुत्र को पढ़ाया। उसका फल तुझे बहुत बुरा भोगना पड़ेगा। अपने पर अपने जातीय भाइयों को इस प्रकार क्रोध उगलते देख धरणीजट बड़ा घबराया। तब डर से उसने कपिल को अपने घर से निकाल दिया। कपिल उस गाँव से निकल रास्ते में ब्राह्मण बन गया और इसी रूप में वह रत्नसंचयपुर आ गया। कपिल विद्वान् और सुन्दर था । इसे उस सात्यकि ब्राह्मण ने देखा, जिसका कि ऊपर जिकर आ चुका है। उसके गुण रूप को देखकर सात्यकि बहुत प्रसन्न हुआ। उनके मन पर वह बहुत चढ़ गया। तब सात्यकि ने उसे ब्राह्मण ही समझ अपनी लड़की सत्यभामा का उसके साथ ब्याह कर दिया । कपिल अनायास इस स्त्री-रत्न को प्राप्त कर सुख से रहने लगा। राजा ने उसके पाण्डित्य की तारीफ सुन उसे अपने यहाँ पुराण कहने को रख लिया । इस तरह कुछ वर्ष बीते । एक बार सत्यभामा ऋतुमती हुई सो उस समय भी कपिल ने उससे संसर्ग करना चाहा। उसके इस दुराचार को देखकर सत्यभामा को इसके विषय में सन्देह हो गया। उसने इस पापी को ब्राह्मण न समझ इससे प्रेम करना छोड़ दिया। वह इससे अलग रह दुःख के साथ जिन्दगी बिताने लगी ॥३०-४२॥
    इधर धरणीजट के कोई ऐसा पाप का उदय आया कि उसकी सब धन-दौलत बरबाद हो गई वह भिखारी-सा हो गया । उसे मालूम हुआ की कपिल रत्नसंचयपुर में अच्छी हालत में है। राजा द्वारा उसे धन-मान खूब प्राप्त है। वह तब उसी समय सीधा कपिल के पास आया। उसे दूर से देखकर कपिल मन ही मन धरणीजट पर बड़ा गुस्सा हुआ । अपनी बढ़ी हुई मान-मर्यादा के समय उसका अचानक आ जाना कपिल को बहुत खटका । पर वह कर क्या सकता था। उसे साथ ही उस बात का बड़ा भय हुआ कि कहीं वह मेरे सम्बन्ध में लोगों को भड़का न दें। यही सब विचार कर वह उठा और बड़ी प्रसन्नता से सामने जाकर धरणीजट को उसने नमस्कार किया और बड़े मान से लाकर उसे ऊँचे आसन पर बैठाया ॥४३-४५॥
    उसके बाद उसने पूछा- पिताजी, मेरी माँ, भाई आदि सब सुख से तो हैं न? इस प्रकार कुशल समाचार पूछ कर धरणीजट को स्नान, भोजनादि कराया और उसका वस्त्रादि से खूब सत्कार किया। फिर सबसे आगे एक खास मेहमान की जगह बैठाकर कपिल ने सब लोगों को धरणीजट का परिचय कराया कि ये ही मेरे पिताजी हैं। बड़े विद्वान् और आचार-विचारवान् हैं। कपिल ने यह सब समाचार इसीलिए किया था कि कहीं उसकी माता का सब भेद खुल न जाए। धरणीजट दरिद्री हो रहा था। धन की उसे चाह थी ही, सो उसने उसे अपना पुत्र मान लेने में कुछ भी आनाकानी न की । धन के लोभ से उसे यह पाप स्वीकार कर लेना पड़ा । ऐसे लोभ को धिक्कार है, जिसके वश हो मनुष्य हर एक पापकर्म कर डालता है । तब धरणीजट वहीं रहने लग गया । यहाँ रहते इसे कई दिन हो चुके। सबके साथ इसका थोड़ा बहुत परिचय भी हो गया। एक दिन मौका पाकर सत्यभामा ने उसे कुछ थोड़ा बहुत द्रव्य देकर एकान्त में पूछा - महाराज, आप ब्राह्मण हैं और मेरा विश्वास है कि ब्राह्मण देव कभी झूठ नहीं बोलते इसलिए कृपाकर मेरे संदेह को दूर कीजिए। मुझे आपके इन कपिल जी का दुराचार देख यह विश्वास नहीं होता कि ये आप सरीखे पवित्र ब्राह्मण के कुल उत्पन्न हुए हों, तब क्या वास्तव में ये ब्राह्मण ही हैं या कुछ गोलमाल है । धरणीजट को कपिल से इसलिए द्वेष हो ही रहा था कि भरी सभा में कपिल ने उसे अपना पिता बता उसका अपमान किया था और दूसरे उसे धन की चाह थी, सो उसके मन के माफिक धन सत्यभामा ने उसे पहले ही दे दिया था। तब वह कपिल की सच्ची हालत क्यों छिपायेगा ? जो हो, धरणीजट सत्यभामा को सब हाल कहकर और प्राप्त धन लेकर रत्नसंचयपुर से चल दिया । सुनकर कपिल पर सत्यभामा की घृणा पहले से कोई सौ गुणी बढ़ गई तब उसने उससे बोलना - चालना तक छोड़कर एकान्तवास स्वीकार कर लिया, पर अपने कुलाचार की मान-मर्यादा को न छोड़ा । सत्यभामा को इस प्रकार अपने से घृणा करते देख कपिल उससे बलात्कार करने पर उतारू हो गया। तब सत्यभामा घर से भागकर श्रीषेण महाराज की शरण में आ गई और उसने सब हाल उनसे कह दिया। श्रीषेण ने तब उस पर दयाकर उसे अपनी लड़की की तरह अपने यहीं रख लिया । कपिल सत्यभामा के अन्याय की पुकार लेकर श्रीषेण के पास पहुँचा। उसके व्यभिचार की हालत उन्हें पहले ही मालूम हो चुकी थी, इसलिए उसकी कुछ न सुनकर श्रीषेण ने उस लम्पटी और कपटी ब्राह्मण को अपने देश से निकाल दिया। सो ठीक ही है राजा को सज्जनों की रक्षा और दुष्टों को सजा देनी ही चाहिए। ऐसा न करने पर वे अपने कर्तव्य से च्युत होते है और प्रजा के धनहारी हैं ॥४६-५७॥
    एक दिन श्रीषेण के यहाँ आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारणऋद्धि के धारी मुनिराज पृथ्वी को अपने पाँवों से पवित्र करते हुए आहार के लिए आए। श्रीषेण ने बड़ी भक्ति से उनका आह्वान कर उन्हें पवित्र आहार कराया । इस पात्रदान से उनके यहाँ स्वर्ग के देवों ने रत्नों की वर्षा की, कल्पवृक्षों ने सुन्दर और सुगन्धित फूल बरसाये, दुन्दुभी बाजे बजे, मन्द-सुगन्ध वायु बहा और जय-जयकार हुआ, खूब बधाइयाँ मिलीं और सच है, सुपात्रों को दिये दान के फल से क्या नहीं हो पाता। इसके बाद श्रीषेण ने और बहुत वर्षों तक राज्य - सुख भोगा । अन्त में मरकर वे धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वभाग की उत्तर - कुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुए। सच है, साधुओं की संगति से जब मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है तब कौन ऐसी उससे बढ़कर वस्तु होगी जो प्राप्त न हो । श्रीषेण की दोनों रानियाँ तथा सत्यभामा भी इसी उत्तरकुरु भोगभूमि में जाकर उत्पन्न हुई। सब इस भोगभूमि में दस प्रकार के कल्पवृक्ष से मिलने वाले सुखों को भोगते और आनन्द से रहते हैं । यहाँ इन्हें कोई खाने-कमाने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती है। पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों को निराकुलता से ये आयु पूर्ण होने तक भोगेंगे । यहाँ की स्थिति बड़ी अच्छी है । यहाँ के निवासियों को कोई प्रकार की बीमारी, शोक, चिन्ता, दरिद्रता आदि से होने वाले कष्ट नहीं सता पाते। इनकी कोई प्रकार के अपघात से मौत नहीं होती । यहाँ किसी के साथ शत्रुता नहीं होती। यहाँ न अधिक जाड़ा पड़ता और न अधिक गर्मी होती है किन्तु सदा एक सी सुन्दर ऋतु रहती है। यहाँ न किसी की सेवा करनी पड़ती है और न किसी के द्वारा अपमान सहना पड़ता है, न यहाँ युद्ध है और न कोई किसी का वैरी है। यहाँ के लोगों के भाव सदा पवित्र रहते हैं। आयु पूरी होने तक ये इसी तरह सुख से रहते हैं । अन्त में स्वाभाविक सरल भावों से मृत्यु लाभ कर ये दानी महात्मा कुछ बाकी बचे पुण्य फल से स्वर्ग में जाते हैं। श्रीषेण ने भी भोग भूमि का खूब सुख भोगा। अन्त में वे स्वर्ग गए। स्वर्ग में भी मनचाहा दिव्य सुख भोगकर अन्त में वे मनुष्य हुए। इस जन्म में ये कई बार अच्छे-अच्छे राजघराने में उत्पन्न हुए। पुण्य से फिर स्वर्ग गए। वहाँ की आयु पूरी कर अबकी बार भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध शहर हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन की रानी ऐरा के यहाँ उन्होंने अवतार लिया । यही सोलहवें श्रीशान्तिनाथ तीर्थंकर के नाम से संसार में प्रख्यात हुए। उनके जन्म समय में स्वर्ग के देवों ने आकर बड़ा उत्सव किया था, उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसमुद्र स्फटिक से पवित्र और निर्मल जल से उनका अभिषेक किया था। भगवान् शान्तिनाथ ने अपना जीवन बड़ी ही पवित्रता के साथ बिताया। उनका जीवन संसार का आदर्श जीवन है। अन्त में योगी होकर उन्होंने धर्म का पवित्र उपदेश देकर अनेक जनों को संसार से पार किया, दुःखों से उनकी रक्षा कर उन्हें सुखी किया । अपना संसार के प्रति जो कर्तव्य था उसे पूरा कर इन्होंने निर्वाण लाभ किया। यह सब पात्रदान का फल है। इसलिए जो लोग पात्रों को भक्ति से दान देंगे वे भी नियम से ऐसा ही उच्च सुख लाभ करेंगे। यह बात ध्यान में रखकर सत्पुरुषों का कर्तव्य है, कि वे प्रतिदिन कुछ न कुछ दान अवश्य करें । यही दान स्वर्ग और मोक्ष के सुख का देने वाला है ॥५८-७४॥
    मूलसंघ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए। रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारी थे । इन्हीं गुरु महाराज की कृपा से मुझ अल्पबुद्धि नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने पात्रदान के सम्बन्ध में श्रीशान्तिनाथ भगवान् की पवित्र कथा लिखी है। यह कथा मेरी परम शान्ति की कारण हो ॥७५॥
  11. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जो सारे संसार के देवाधिदेव हैं और स्वर्ग के देव जिनकी भक्ति से पूजा किया करते हैं उन जिन भगवान् को प्रणाम कर महारानी चेलना और श्रेणिक के द्वारा होने वाली सम्यक्त्व के प्रभाव की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    उपश्रेणिक मगध के राजा थे राजगृह मगध की राजधानी थी । उपश्रेणिक की रानी का नाम सुप्रभा था । श्रेणिक इसी के पुत्र थे । श्रेणिक जैसे सुन्दर थे, वैसे ही उनमें अनेक गुण भी थे। वे बुद्धिमान् थे, बड़े गम्भीर प्रकृति के थे, शूरवीर थे, दानी थे और अत्यन्त तेजस्वी थे ॥२-३॥
    मगध राज्य की सीमा से लगते ही एक नागधर्म नाम के राजा का राज्य था। नागदत्त की और उपश्रेणिक की पुरानी शत्रुता चली आती थी । नागदत्त उसका बदला लेने का मौका तो सदा ही देखता रहता था, पर उस समय उपश्रेणिक के साथ कोई भारी मनमुटाव न था । वह कपट से उपश्रेणिक का मित्र बना रहता था। यही कारण था कि उसने एक बार उपश्रेणिक के लिए एक दुष्ट घोड़ा भेंट में भेजा। घोड़ा इतना दुष्ट था कि वैसे तो वह चलता ही न था और उसे जरा ही ऐड़ लगाई या लगाम खींची कि बस यह फिर हवा से बातें करने लगता था । दुष्टों की ऐसी गति ही होती है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उपश्रेणिक एक दिन इसी घोड़े पर सवार हो हवा खोरी के लिए निकले। इन्होंने बैठने पर जैसे ही उसकी लगाम तानी कि वह हवा हो गया। बड़ी देर बाद वह एक अटवी में जाकर ठहरा। उस अटवी का मालिक एक यमदण्ड नाम का भील था, जो देखने में सचमुच ही यम सा भयानक था। उसके तिलकावती नाम की एक लड़की थी । तिलकावती बड़ी सुन्दरी थी । उसे देख यह कहना अनुचित न होगा कि कोयले की खान में हीरा निकला । कहाँ काला भुखंड यमदण्ड और कहाँ स्वर्ग के अप्सराओं को लजाने वाली इसकी लड़की चन्द्रवदनी तिलकावती अस्तु, उस भुवन - सुन्दर रूपराशि को देखकर उपश्रेणिक उस पर मोहित हो गए। उन्होंने तिलकावती के लिए यमदण्ड से मँगनी की। उत्तर में यमदण्ड ने कहा-राज-राजेश्वर, इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं बड़ा भाग्यवान् हूँ। जब कि एक पृथ्वी के सम्राट् मेरे जमाई बनते हैं और इसके लिए मुझे बेहद खुशी है। मैं अपनी पुत्री का आप के साथ ब्याह करूँ, इसके पहले आपको एक शर्त करनी होगी और वह कि आप राज्य तिलकावती से होने वाली सन्तान को देंगे। उपश्रेणिक ने यमदण्ड की इस बात को स्वीकार कर लिया। यमदण्ड ने भी तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसका ब्याह उपश्रेणिक से कर दिया । उपश्रेणिक फिर तिलकावती को साथ ले राजगृह आ गए ॥४-१०॥
    कुछ समय सुखपूर्वक बीतने पर तिलकावती के एक पुत्र हुआ। उसका नाम रखा गया चिलात पुत्र एक दिन उपश्रेणिक ने विचार कर कि मेरे इन पुत्रों में राजयोग किसको है, एक निमित्तज्ञानी को बुलाया और उससे पूछा-पंडित जी, अपना निमित्तज्ञान देखकर बतलाइये कि मेरे इतने पुत्रों में राज्य सुख कौन भोग सकेगा? निमित्तज्ञानी ने कहा- महाराज, जो सिंहासन पर बैठा हुआ नगाड़ा बजाता रहा और दूर ही से कुत्तों को खीर खिलाता हुआ आप भी खाता रहे और आग लगने पर सिंहासन, छत्र, चँवर आदि राज्य चिह्नों को निकाल ले भागे, वह राज्य - लक्ष्मी का सुख भोग करेगा। इसमें आप किसी तरह का सन्देह न समझें । उपश्रेणिक ने एक दिन इस बात की परीक्षा करने के लिए अपने सब पुत्रों को खीर खाने के लिए बैठाया। उनके पास ही सिंहासन और एक नगाड़ा भी रखवा दिया। पर यह किसी को पता न पड़ने दिया कि ऐसा क्यों किया गया । सब कुमार भोजन करने को बैठे और खाना उन्होंने आरम्भ किया, कि इतने में एक ओर से सैकड़ों कुत्तों का झुण्ड का झुण्ड उन पर आ टूटा। तब वे सब डर के मारे उठ-उठकर भागने लगे । श्रेणिक उन कुत्तों से न डरा, वह जल्दी से उठकर खीर की पत्तलों को एक ऊँचे स्थान पर धरने लगा। थोड़ी ही देर में उसने बहुत-सी पत्तले इकट्ठी कर ली। इसके बाद वह स्वयं उस ऊँचा स्थान पर रखे हुए सिंहासन पर बैठकर नगाड़ा बजाने लगा, जिससे कुत्ते उसके पास न आ पावें और इकट्ठी की हुई पत्तलों में से एक-एक पत्तल उठा-उठा कर दूर-दूर फेंकता गया। इस प्रकार अपनी बुद्धि से व्यवस्था कर उसने बड़ी निर्भयता के साथ भोजन किया। इसी प्रकार आग लगने पर श्रेणिक ने सिंहासन, छत्र, चँवर आदि राज्य चिह्नों की रक्षा कर ली ॥११- १९॥
    उपश्रेणिक को तब निश्चय हो गया कि इन सब पुत्रों में श्रेणिक ही एक ऐसा भाग्यशाली है जो मेरे राज्य को अच्छी तरह चलायेगा। उपश्रेणिक ने तब उसकी रक्षा के लिए उसे वहाँ से कहीं भेज देना उचित समझा। उन्हें इस बात का खटका था कि मैं राज्य का मालिक तिलकावती के पुत्र को बना चुका हूँ और ऐसी दशा में श्रेणिक यहाँ रहा तो कोई असंभव नहीं कि इसकी तेजस्विता, इसकी बुद्धिमानी, इसकी कार्यक्षमता को देखकर किसी को डाह उपज जाए और उस हालत में इसका कुछ अनिष्ट हो जाए। इसलिए जब तक यह अच्छा होशियार न हो जाये तब तक उसका कहीं बाहर रहना ही उत्तम हैं फिर यदि इसमें बल होगा तो यह स्वयं राज्य को हस्तगत कर सकेगा। इसके लिए उपश्रेणिक ने श्रेणिक के सिर पर यह अपराध मढ़ा कि उसने कुत्तों का झूठा खाया है, इसलिए अब यह राजघराने में रहने योग्य नहीं रहा। मैं उसे आज्ञा करता हूँ कि यह मेरे राज्य से निकल जाये। सच है, राजा लोग बड़े विचार के साथ काम करते हैं । निरपराध श्रेणिक पिता की आज्ञा पा उसी समय राजगृह से निकल गया। फिर एक मिनट के लिए भी वह वहाँ न ठहरा ॥२०-२२॥
    श्रेणिक वहाँ से चलकर कोई दोपहर के समय नन्द नामक गाँव में पहुँचा । वहाँ के लोगों को श्रेणिक के निकाले जाने का हाल मालूम हो गया था, इसलिए राजद्रोह के भय से उन्होंने श्रेणिक को अपने गाँव में न रहने दिया। श्रेणिक ने तब लाचार हो आगे का रास्ता लिया। रास्ते में उसे एकसंन्यासियों का आश्रम मिला। उसने कुछ दिनों यहीं अपना डेरा जमा दिया। मठ में वह रहता और संन्यासियों का उपदेश सुनता। मठ का प्रधान संन्यासी बड़ा विद्वान् था । श्रेणिक पर उसका बहुत असर पड़ा। उसने तब वैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया । श्रेणिक और कुछ दिनों तक यहाँ ठहरा। उसके बाद वह वहाँ से रवाना होकर दक्षिण दिशा की ओर बढ़ा ॥२३-२५॥
    इसी समय दक्षिण की राजधानी काँची के राजा वसुपाल थे। उनकी रानी का नाम वसुमती था। इनके वसुमित्रा नाम की एक सुन्दर और गुणवती पुत्री थी । वहाँ एक सोमशर्मा ब्राह्मण रहता था, सोमशर्मा की स्त्री का नाम सोमश्री था। उसके भी एक पुत्री थी। इसका नाम अभयमती था। अभयमती बड़ी बुद्धिमती थी ॥२५-२७॥
    एक बार सोमशर्मा तीर्थयात्रा करके लौट रहा था । रास्ते में उसे श्रेणिक ने देखा। कुछ मेल- मुलाकात और बोल-चाल हुए बाद में जब ये दोनों चलने को तैयार हुए तब श्रेणिक ने सोमशर्मा से कहा-मामाजी, आप भी बड़ी दूर से आते हैं और मैं भी बड़ी दूर से चला आ रहा हूँ, इसलिए हम दोनों ही थक चुके हैं। अच्छा हो यदि आप मुझे अपने कन्धे पर बैठा लें और आप मेरे कन्धे पर बैठकर चलें तो। श्रेणिक की यह बे- सिर पैर की बात सुनकर सोमशर्मा बड़ा चकित हुआ । उसने समझा कि यह पागल हो गया जान पड़ता है। उसने तब श्रेणिक की बात का कुछ जवाब न दिया। थोड़ी देर चुपचाप आगे बढ़ने पर श्रेणिक ने दो गाँवों को देखा। उसने तब जो छोटा गाँव था उसे तो बड़ा बताया और जो बड़ा था उसे छोटा बताया। रास्ते में श्रेणिक जहाँ सिर पर कड़ी धूप पड़ती वहाँ तो छत्री उतार लेता और जहाँ वृक्षों की ठंडी छाया आती वहाँ तो छत्री चढ़ा लेता । इसी तरह जहाँ कोई नदी-नाला पड़ता तब तो वह जूतियों को पाँवों में पहर लेता और रास्ते में उन्हें हाथ में लेकर नंगे पैरों चलता। आगे चलकर उसने एक स्त्री को पति द्वारा मार खाती देखकर सोमशर्मा से कहा- क्यों मामाजी, यह जो स्त्री पिट रही है वह बँधी है या खुली ? आगे एक मरे पुरुष को देखकर उसने पूछा कि यह जीता है या मर गया? थोड़ी दूर चलकर उसने एक धान के पके हुए खेत को देखकर कहा- इसे इसके मालिकों ने खा लिया है या वे अब खायेंगे? इसी तरह सारे रास्ते में एक से एक असंगत और बे-मतलब के प्रश्न सुनकर बेचारा सोमशर्मा ऊब गया । राम - राम करते वह घर पर आया। श्रेणिक को वह शहर के बाहर ही एक जगह बैठाकर यह कह आया कि मैं अपनी लड़की से पूछकर अभी आता हूँ, तब तक तुम यहीं बैठना ॥२८ - ३५॥
    अभयमती अपने पिता को आया देखकर खुश हुई | उन्हें कुछ खिला-पिला कर उसने पूछा- पिताजी, आप अकेले गए थे और अकेले ही आए है क्या? सोमशर्मा ने कहा- बेटा, मेरे साथ एक बड़ा ही सुन्दर लड़का आया है । पर बड़े दुःख की बात है कि वह बेचारा पागल हो गया जान पड़ता है।उसकी देवकुमार सी सुन्दर जिन्दगी धूलधानी हो गई। कर्मों की लीला बड़ी ही विचित्र है। मुझे तो उसकी यह स्वर्गीय सुन्दरता और साथ ही उसका वह पागलपन देखकर उस पर बड़ी दया आती है। मैं उसे शहर के बाहर एक स्थान पर बैठा आया हूँ । अपने पिता की बातें सुनकर अभयमती को बड़ा कौतुक हुआ। उसने सोमशर्मा से पूछा- हाँ तो पिताजी उसमें किस तरह का पागलपन है? मुझे उसके सुनने की बड़ी उत्कण्ठा हो गई है। आप बतलावें । सोमशर्मा ने तब अभयमती से श्रेणिक की वे सब चेष्टाएँ-कन्धे पर चढ़ना- चढ़ाना, छोटे गाँव को बड़ा और बड़े को छोटा कहना, वृक्ष के नीचे छत्री चढ़ा लेना और धूप में उतार देना, पानी में चलते समय जूते पहर लेना और रास्ते में चलते उन्हें हाथ में ले लेना आदि कह सुनाई। अभयमती ने उन सब को सुनकर अपने पिता से कहा-पिताजी, जिस पुरुष ने ऐसी बातें की हैं, उसे आप पागल या साधारण पुरुष न समझें। वह तो बड़ा ही बुद्धिमान् है। मुझे मालूम होता है उसकी बातों के रहस्य पर आपने ध्यान से विचार न किया । इसी से आपको उसकी बातें बे-सिर पैर की जान पड़ी। पर ऐसा नहीं है । उन सबमें कुछ न कुछ रहस्य जरूर है। अच्छा, वह सब मैं आपको समझाती हूँ-पहले उसने जो यह कहा कि आप मुझे अपने कन्धे पर चढ़ा लीजिए और आप मेरे कन्धों पर चढ़ जाइए, इससे उसका मतलब था, आप हम दोनों एक ही रास्ते से चलें क्योंकि स्कन्ध शब्द का अर्थ रास्ता भी होता है और यह उसका कहना ठीक था । इसलिए कि दो जने साथ रहने से हर तरह बड़ी सहायता मिलती रहती है ॥३६-३९॥
    दूसरे उसने दो ग्रामों को देखकर बड़े को तो छोटा और छोटे को बड़ा कहा था। इसमें उसका अभिप्राय यह है कि छोटे गाँव के लोग सज्जन है, धर्मात्मा हैं, दयालु हैं, परोपकारी हैं और हर एक की सहायता करने वाले हैं। इसलिए यद्यपि वह गाँव छोटा था, पर तब भी उसे बड़ा ही कहना चाहिए क्योंकि बड़प्पन गुणों और कर्तव्य पालन से कहलाता है । केवल बाहरी चमक दमक से नहीं और बड़े गाँव को उसने तब छोटा कहा, इससे उसका मतलब स्पष्ट है कि उसके रहवासी अच्छे लोग नहीं हैं, उनमें बड़प्पन के जो गुण होना चाहिए वे नहीं है। तीसरे उसने वृक्ष के नीचे छत्री को चढ़ा लिया था और रास्ते में उसे उतार लिया था। ऐसा करने से उसकी मंशा यह थी । रास्ते में छत्री को न लगाया जाये तो भी कुछ नुकसान नहीं और वृक्ष के नीचे न लगाने से उस पर बैठे हुए पक्षियों के बीट वगैरह के करने का डर बना रहता है। इसलिए वहाँ छत्री का लगाना आवश्यक है।
    चौथे उसने पानी में चलते समय तो जूतों को पहर लिया और रास्ते में चलते समय उन्हें हाथ में ले लिया था। इससे वह यह बतलाना चाहता है - पानी में चलते समय यह नहीं दीख पड़ता है कि कहाँ क्या पड़ा है। काँटे, कीलें और कंकर - पत्थरों के लग जाने का भय रहता है, जल जन्तुओं के काटने का भय रहता है। अतएव पानी में उसने जूतों को पहर कर बुद्धिमानों का ही काम किया। रास्ते में अच्छी तरह देखभाल कर चल सकते हैं, इसलिए यदि वहाँ जूते न पहने जायें तो उतनी हानि की संभावना नहीं ।
    पाँचवें उसने एक स्त्री को मार खाते देखकर पूछा था कि यह स्त्री बँधी है या खुली ? इस प्रश्न से मतलब था - उस स्त्री का ब्याह हो गया है या नहीं?
    छठे-उसने एक मुर्दे को देखकर पूछा था - यह मर गया है या जीता है? पिताजी, उसका यह पूछना बड़ा मार्के का था। इससे वह यह जानना चाहता था कि यदि यह संसार का कुछ काम करके मरा है, यदि इसने स्वार्थ त्याग अपने धर्म, अपने देश और अपने देश के भाई-बन्धुओं के हित में जीवन का कुछ हिस्सा लगाकर मनुष्य जीवन का कुछ कर्तव्य पालन किया है, तब तो वह मरा हुआ भी जीता ही है। क्योंकि उसकी यह प्राप्त की हुई कीर्ति मौजूद है, सारा संसार उसे स्मरण करता है, उसे ही अपना पथ प्रदर्शक बनाता है। फिर ऐसी हालत में उसे मरा कैसे कहा जाये ? और इससे उल्टा जो जीता रह कर भी संसार का कुछ काम नहीं करता, जिसे सदा अपने स्वार्थ की ही पड़ी रहती है और जो अपनी भलाई के सामने दूसरों के होने वाले अहित या नुकसान को नहीं देखता; बल्कि दूसरों का बुरा करने की कोशिश करता है ऐसे पृथ्वी के बोझ को कौन जीता कहेगा? उससे जब किसी को लाभ नहीं तब उसे मरा हुआ ही समझना चाहिए।
    सातवें उसने पूछा कि यह धान को खेत मालिकों द्वारा खा लिया गया है या खाया जाएगा? इस प्रश्न से उसका यह मतलब था कि इसके मालिकों ने कर्ज लेकर इस खेत को बोया है या इसके लिए उन्हें कर्ज लेने की जरूरत न पड़ी अर्थात् अपना ही पैसा उन्होंने इसमें लगाया है? यदि कर्ज लेकर उन्होंने इसे तैयार किया तब तो समझना चाहिए कि यह खेत पहले ही खा लिया गया और यदि कर्ज नहीं लिया गया तो अब वे इसे खायेंगे - अपने उपयोग में लगावेंगे।
    इस प्रकार श्रेणिक के सब प्रश्नों का उत्तर अभयमती ने अपने पिता को समझाया। सुनकर सोमशर्मा को बड़ा ही आनन्द हुआ । सोमशर्मा तब अभयमती से कहा- तो बेटी, ऐसे गुणवान् और रूपवान् लड़के को तो अपने घर लाना चाहिए और अभयमती, वह जब पहले ही मिला तब उसने मुझे मामाजी कह कर पुकारा था । इसलिए उसका कोई अपने साथ सम्बन्ध भी होगा। अच्छा तो मैं उसे बुलाये लाता हूँ।
    अभयमती बोली-पिताजी, आपको तकलीफ उठाने की कोई आवश्यकता नहीं। मैं अपनी दासी को भेजकर, उसे अभी बुलवा लेती हूँ। मुझे अभी एक दो बातों द्वारा और उसकी जाँच करना है। इसके लिए मैं निपुणमती को भेजती हूँ। अभयमती ने इसके बाद निपुणमती को कुछ थोड़ा सा उबटन चूर्ण देकर भेजा और कहा तू उस नये आगन्तुक से कहना कि मेरी मालकिन ने आपकी मालिश के लिए यह तैल और उबटन चूर्ण भेजा है, सो आप अच्छी तरह मालिश तथा स्नान करके फलाँ रास्ते से घर पर आवें । निपुणमती ने श्रेणिक के पास पहुँच कर सब हाल कहा और तेल तथा उबटन रखने को उससे बर्तन माँगा । श्रेणिक उस थोड़े से तेल और उबटन को देखकर, जिससे कि एक हाथ की भी मालिश होना असंभव था, दंग रह गया। उसने तब जान लिया कि सोमशर्मा से मैंने जो-जो प्रश्न किए थे उसने अपनी लड़की से अवश्य कहा है और इसी से उसकी लड़की ने मेरी परीक्षा के लिए यह उपाय रचा है। अस्तु, कुछ परवाह नहीं । यह विचार कर श्रेणिक ने तेल और उबटन चूर्ण के रखने को अपने पाँव के अँगूठे से दो गढ़े बनाकर निपुणमती से कहा- आप तेल और चूर्ण के लिए बरतन चाहती हैं। अच्छी बात है, ये ( गढ़े की और इशारा करके) बरतन हैं। आप इनमें तेल और चूर्ण रख दीजिए। मैं थोड़ी ही देर बाद स्नान करके आपकी मालकिन की आज्ञा का पालन करूँगा। निपुणमती श्रेणिक की इस बुद्धिमानी को देखकर दंग रह गई । वह फिर श्रेणिक के कहे अनुसार तेल और चूर्ण रखकर चली गई ॥४० - ४१॥
    अभयमती ने श्रेणिक को जिस रास्ते से बुलाया था, उसमें उसने कोई घुटने-घुटने तक कीचड़ करवा दिया था और कीचड़ बाहर होने के स्थान पर बाँस की एक छोटी सी पतली छोई (कमची) और बहुत ही थोड़ा सा जल रख दिया था। इसलिए कि श्रेणिक अपने पाँवों को साफ कर भीतर आए ॥४२-४३॥
    श्रेणिक ने घर पहुँच कर देखा तो भीतर जाने के रास्ते में बहुत कीचड़ हो रहा है । वह कीचड़ में होकर यदि जाये तो उसके पाँव भरते हैं और दूसरी ओर से भीतर जाने का रास्ता उसे मालूम नहीं है। यदि वह मालूम भी करें तो उससे कुछ लाभ नहीं। अभयमती ने उसे इसी रास्ते बुलाया है। यह फिर कीचड़ में ही होकर गया। बाहर होते ही उसे पाँव धोने के लिए थोड़ा जल रखा हुआ मिला। वह बड़े आश्चर्य में आ गया कि कीचड़ से ऐसे लथपथ भरे पाँवों को मैं इसे थोड़े से पानी से कैसे धो सकूँगा। पर इसके सिवा उसके पास और कुछ उपाय भी न था। तब उसने पानी के पास ही रखी हुई उस छाई को उठाकर पहले उससे पाँवों का कीचड़ साफ कर लिया और फिर उस थोड़े से जल से धोकर एक कपड़े से उन्हें पोंछ लिया। इन सब परीक्षाओं में पास होकर जब श्रेणिक अभयमती के सामने आया तब अभयमती ने उसके सामने एक ऐसा मूंग का दाना रखा कि जिसमें हजारों बांके-सीधे छेद थे। यह पता नहीं पड़ पाता था कि किस छेद में सूत का धागा पिरोने से उसमें पिरोया जा सकेगा और साधारण लोगों के लिए यह बड़ा कठिन भी था । पर श्रेणिक ने अपनी बुद्धि की चतुरता से उस मूंग में बहुत जल्दी धागा पिरो दिया । श्रेणिक की इस बुद्धिमानी को देखकर अभयमती दंग रह गई उसने तब मन ही मन संकल्प किया कि मैं अपना ब्याह इसी के साथ करूँगी। इसके बाद उसने श्रेणिक का बड़ी अच्छी तरह आदर-सत्कार किया, खूब आनन्द के साथ उसे अपने ही घर पर जिमाया और कुछ दिनों के लिए उसे वहीं ठहरा भी लिया । अभयमती की मंशा उसकी सखी द्वारा जानकर उसके माता-पिता को बड़ी प्रसन्नता हुई । घर बैठे उन्हें ऐसा योग्य जँवाई मिल गया, इससे बढ़कर और प्रसन्नता की बात उनके लिए हो भी क्या सकती थी । कुछ दिनों बाद श्रेणिक के साथ अभयमती का ब्याह भी हो गया। दोनों ने नए जीवन में प्रवेश किया । श्रेणिक के कष्ट भी बहुत कम हो गए। वह अब अपनी प्रिया के साथ सुख से दिन बिताने लगा ॥४४-४५॥
    सोमशर्मा नाम का एक ब्राह्मण एक अटवी में जिनदत्त मुनि के पास दीक्षा लेकर संन्यास मरण हुआ था। उसका उल्लेख अभिषेक विधि से प्रेम करने वाले जिनदत्त और वसुमित्र की १०३ वीं कथा में आ चुका है। वह सोमशर्मा यहाँ से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। जब इसकी स्वर्गायु पूरी हुई तब यह कांचीपुर में हमारे इस कथानायक श्रेणिक के अभयकुमार नाम का पुत्र हुआ। अभयकुमार बड़ा वीर और गुणवान् था और सच भी है जो कर्मों का नाशकर मोक्ष जाने वाला है, उसकी वीरता का क्या पूछना? ॥४६-४९॥
    कांची के राजा वसुपाल एक बार दिग्विजय करने को निकले । एक जगह उन्होंने एक बड़ा ही सुन्दर और भव्य जिनमन्दिर देखा । उसमें विशेषता यह थी कि वह एक ही खम्भे के ऊपर बनाया गया था-उसका आधार एक ही खम्भा था । वसुपाल उसे देखकर बहुत खुश हुए। उनकी इच्छा हुई कि ऐसा मन्दिर कांची में भी बनवाया जाए। उन्होंने उसी समय अपने पुरोहित सोमशर्मा को एक पत्र लिखा। उसमें लिखा कि- अपने यहाँ एक ऐसा सुन्दर जिनमंदिर तैयार करवाना जिसकी इमारत भव्य और बड़ी मनोहर हो । सिवा इसके उसमें यह विशेषता भी हो कि मंदिर की सारी इमारत एक ही खम्भे पर खड़ी हो जाए। मैं जब तक आऊँ तब तक मंदिर तैयार हो जाना चाहिए। सोमशर्मा पत्र पढ़कर बड़ी चिन्ता में पड़ गया । वह इस विषय में कुछ जानता न था, इसलिए वह क्या करे? कैसा मंदिर बनवाएँ? इसकी उसे कुछ सूझ न पड़ती थी । चिन्ता उसके मुँह पर सदा छाई रहती थी। उसे इस प्रकार उदास देखकर श्रेणिक ने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा। सोमशर्मा ने तब वह पत्र श्रेणिक के हाथ में देकर कहा - यही पत्र मेरी चिन्ता का मुख्य कारण है । मुझे इस विषय का किंचित् भी ज्ञान नहीं तब मैं मन्दिर बनवाऊँ भी तो कैसा ? इसी से मैं चिन्तामग्न रहता हूँ! श्रेणिक ने सोमशर्मा से कहा-आप इस विषय की चिन्ता छोड़कर इसका सारा भार मुझे दे दीजिए। फिर देखिए, मैं थोड़े ही समय में महाराज के लिखे अनुसार मंदिर बनवाये देता हूँ । सोमशर्मा को श्रेणिक के इस साहस पर आश्चर्य तो अवश्य हुआ, पर उसे श्रेणिक की बुद्धिमानी का परिचय पहले ही मिल चुका था; इसलिए उसे कुछ सोच-विचार न कर सब काम श्रेणिक के हाथ सौंप दिया। श्रेणिक ने पहले मन्दिर का एक नक्शा तैयार किया । जब नक्शा उसके मन के माफिक बन गया तब उसने हजारों अच्छे-अच्छे कारीगारों को लगाकर थोड़े ही समय में मन्दिर की विशाल और भव्य इमारत तैयार करवा ली। श्रेणिक की इस बुद्धिमानी को जो देखता वही उसकी शतमुख से तारीफ करता और वास्तव में श्रेणिक ने यह कार्य प्रशंसा के लायक किया भी था । सच है, उत्तम ज्ञान, कला- चतुराई ये सब बातें बिना पुण्य के प्राप्त नहीं होती ॥५०-५४॥
    जब वसुपाल लौटकर कांची आए और उन्होंने मन्दिर की उस भव्य इमारत को देखा तो वे बड़े खुश हुए। श्रेणिक पर उनकी अत्यन्त प्रीति हो गई उन्होंने तब अपनी कुमारी वसुमित्रा का उसके साथ ब्याह भी कर दिया। श्रेणिक राजजमाई बनकर सुख के साथ रहने लगा ॥५५-५६॥
    अब राजगृह की कथा लिखी जाती है-
    उपश्रेणिक ने श्रेणिक को, उसकी रक्षा हो इसके लिए, देश बाहर कर दिया। इसके बाद कुछ दिनों तक उन्होंने और राज्य किया । फिर कोई कारण मिल जाने से उन्हें संसार - विषय - भोगादि से बड़ा वैराग्य हो गया। इसलिए वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, चिलातपुत्र को सब राज्यभार सौंपकर दीक्षा ले, योगी हो गए। राज्यसिंहासन को अब चिलातपुत्र ने अलंकृत किया। प्रायः यह देखा जाता है कि एक छोटी जाति के या विषयों के कीड़े, स्वार्थी, अभिमानी, मनुष्य को कोई बड़ा अधिकार या खूब मनमानी दौलत मिल जाती है तो फिर उसका सिर आसमान में चढ़ जाता है, आँखें उसकी अभिमान के कारण नीची देखती ही नहीं। ऐसा मनुष्य संसार में फिर सब कुछ अपने को ही समझने लगता है । दूसरों की इज्जत - आबरू की वह कुछ भी परवाह न कर उनका कौड़ी के भाव भी मोल नहीं समझता । चिलातपुत्र भी ऐसे ही मनुष्यों में था । बिना परिश्रम या बिना हाथ-पाँव हिलाये उसे एक विशाल राज्य मिल गया और मजा यह कि अच्छे शूरवीर और गुणवान् भाइयों के बैठे रहते। तब उसे क्यों न राजलक्ष्मी का अभिमान हो ? क्यों न वह गरीब प्रजा को पैरों नीचे कुचलकर इस अभिमान का उपयोग करे? उसकी माँ भील की लड़की, जिसका कि काम दिन-रात लूट-खसोट करने और लोगों को मारने- काटने का रहा, उसके विचार गन्दे, उसकी वासनाएँ नीचातिनीच; तब वह अपनी जाति, अपने विचार और अपनी वासना के अनुसार यदि काम करे तो इसमें नई बात क्या ? कुछ लोग ऐसा कहें कि यह सब कुछ होने पर भी अब वह राजा है, प्रजा का प्रतिपालक है, तब उसे तो अच्छा होना ही चाहिए । इसका यह उत्तर है कि ऐसा होना आवश्यक है और एक ऐसे मनुष्य को, जिसका कि अधिकार बहुत बड़ा है-हजारों लाखों अच्छे-अच्छे इज्जत-आबरूदार, धनी, गरीब, दीन, दुःखी जिसकी कृपा की चाह करते हैं, विशेष कर शिष्ट और सबका हितैषी होना ही चाहिए। हाँ ये सब बातें उसमें हो सकती हैं जिसमें दयालुता, परोपकारता, कुलीनता, निरभिमानता, सरलता, सज्जनता आदि गुण कुल-परम्परा से चले आते हों और जहाँ इनका मूल में ही कुछ ठिकाना नहीं वहाँ इन गुणों का होना असम्भव नहीं तो दुःसाध्य अवश्य है। आप एक कौए को मोर के पंखों से खूब सजाकर सुन्दर बना दीजिए, पर रहेगा वह कौआ का कौआ ही । ठीक इसी तरह चिलातपुत्र आज एक विशाल राज्य का मालिक जरूर बन गया, पर उसमें जो भील जाति का अंश है वह अपने चिर संस्कार के कारण इसमें पवित्र गुणों की दाल गलने नहीं देता और यही कारण हुआ कि राज्याधिकार प्राप्त होते ही उसकी प्रवृत्ति अच्छी न होकर अन्याय की ओर हुई। प्रजा को उसने हर तरह तंग करना शुरू किया। कोई दुर्व्यसन, कोई कुकर्म उससे न छूट पाया। अच्छे-अच्छे घराने की कुलशील सतियों की इज्जत ली जाने लगी। लोगों का धन - माल जबरन लूटा-जाने लगा। उसकी कुछ पुकार नहीं, सुनवाई नहीं, जिसे रक्षक जानकर नियम किया वही जब भक्षक बन बैठा तब उसकी पुकार, की भी कहाँ जाये ? प्रजा अपनी आँखों से घोर से घोर अन्याय देखती, पर कुछ करने-धरने को समर्थ न होकर वह मन मसोस कर रह जाती। जब चिलात बहुत ही अन्याय करने लगा तब उसकी खबर बड़ी-बड़ी दूर तक बात सुनाई पड़ने लगी । श्रेणिक को भी प्रजा द्वारा यह हाल मालूम हुआ । उसे अपने पिता की निरीह प्रजा पर चिलात का यह अन्याय सहन नहीं हुआ। उसने तब अपने श्वसुर वसुपाल से कुछ सहायता लेकर चिलात पर चढ़ाई कर दी । प्रजा को जब श्रेणिक की चढ़ाई का हाल मालूम हुआ तो उसने बड़ी खुशी मनाई और हृदय से उसका स्वागत किया। श्रेणिक ने प्रजा की सहायता से चिलात को सिंहासन से उतारकर देश बाहर किया और प्रजा की अनुमति से फिर आप ही सिंहासन पर बैठा। सच है, राज्यशासन वहीं कर सकता है और वही पात्र भी है जो बुद्धिमान् हो, समर्थ हो और न्यायप्रिय हो । दुर्बुद्धि, दुराचारी, कायर और अकर्मण्य पुरुष उसके योग्य नहीं ॥५७-६१॥
    इधर कई दिनों से अपने पिता को न देखकर अभयकुमार ने अपनी माता से एक दिन पूछा- माँ, बहुत दिनों से पिताजी दीख नहीं पड़ते, सो वे कहाँ है। अभयमती ने उत्तर में कहा- बेटा, वे जाते समय कह गए थे कि राजगृह में 'पाण्डुकुटि' नाम का महल है । प्रायः मैं वहीं रहता हूँ। सो मैं जब समाचार दूँ तब वहीं आ जाना। तब से अभी तक उनका कोई पत्र न आया। जान पड़ता है राज्य के कामों से उन्हें स्मरण न रहा । माता द्वारा पिता का पता पा अभयकुमार अकेला ही राजगृह को रवाना हुआ। कुछ दिनों में वह नन्दगाँव में पहुँचा ॥६२-६४॥
    पाठकों को स्मरण होगा कि जब श्रेणिक को उसके पिता उपश्रेणिक ने देश बाहर हो जाने की आज्ञा दी थी और श्रेणिक उसके अनुसार राजगृह से निकल गया था तब उसे सबसे पहले रास्ते में यही नन्दगाँव पड़ा था। पर यहाँ के लोगों ने राजद्रोह के भय से श्रेणिक को गाँवों में आने नहीं दिया था। श्रेणिक इससे उन लोगों पर बड़ा नाराज हुआ था । इस समय उन्हें उनकी असहानुभूति की सजा देने के अभिप्राय से श्रेणिक ने उन पर एक हुक्मनामा भेजा और उसमें लिखा कि- " आप के गाँव में एक मीठे पानी का कुँआ है। उसे बहुत जल्दी मेरे यहाँ भेजो, अन्यथा इस आज्ञा का पालन न होने से तुम्हें सजा दी जायेगी।” बेचारे गाँव के रहने वाले स्वभाव से डरपोक ब्राह्मण राजा के इस विलक्षण हुक्मनामे को सुनकर बड़े घबराये । जो ले जाने की चीज होती है वही ले जाई जाती है, पर कुँआ एक स्थान से अन्य स्थान पर कैसे-ले जाया जाए? वह कोई ऐसी छोटी-मोटी वस्तु नहीं जो यहाँ से उठाकर वहाँ रख दी जाए। तब वे बड़ी चिन्ता में पड़े। क्या करें, और क्या न करें, यह उन्हें बिल्कुल न सूझ पड़ा, न वे राजा के पास ही जाकर कह सकते हैं कि - महाराज, यह असम्भव बात कैसे हो सकती है। कारण गाँव के लोगों में इतनी हिम्मत कहाँ ? सारे गाँव में यही एक चर्चा होने लगी। सबके मुँह पर मुर्दनी छा गई और बात भी ऐसी ही थी । राजाज्ञा न पालने पर उन्हें दण्ड भोगना चाहिए। यह चर्चा घरों घर हो रही थी कि इसी समय अभयकुमार यहाँ आ पहुँचा, जिसका कि जिकर ऊपर आ चुका है। उसने इस चर्चा का आदि अन्त मालूम कर गाँव के सब लोगों को इकट्ठा कर कहा-इस साधारण बात के लिए आप लोग ऐसा चिन्ता में पड़ गए । घबराने की कोई बात नहीं। मैं जैसा कहूँ वैसा कीजिए। आपका राजा उससे खुश होगा। तब उन लोगों ने अभयकुमार की सलाह से श्रेणिक की सेवा में एक पत्र लिखा। उसमें लिखा कि- " राजराजेश्वर, आपकी आज्ञा को सिर पर चढ़ाकर हमने कुँए से बहुत-बहुत प्रार्थनाएँ कर कहा कि- महाराज तुझ पर प्रसन्न है । इसलिए वे तुझे अपने शहर में बुलाते हैं, तू राजगृह जा! पर महाराज, उसने हमारी एक भी प्रार्थना न सुनी और उल्टा रूठकर गाँव में बाहर चल दिया। सो हमारे कहने सुनने से तो वह आता नहीं दीख पड़ता । पर हाँ उसके ले जाने का एक उपाय है और उसे यदि आप करें तो संभव है वह रास्ते पर आ जाये । वह उपाय यह है कि पुरुष स्त्रियों का गुलाम होता है, स्त्रियों द्वारा वह जल्दी वश हो जाता है। इसलिए आप अपने शहर की उदुम्बर नाम की कुई को इसे लेने को भेजें तो अच्छा हो । बहुत विश्वास है कि उसे देखते ही हमारा कुँआ उसके पीछे-पीछे हो जायेगा। श्रेणिक पत्र पढ़कर चुप रह गए। उनसे उसका कुछ उत्तर न बन पड़ा। सच है-जब जैसे को तैसा मिलता है तब अकल ठिकाने पर आती है और धूर्तों को सहज में काबू में ले लेना कोई हँसी खेल थोड़े ही है? ॥६५-७३॥
    कुछ दिनों बाद श्रेणिक ने उनके पास एक हाथी भेजा और लिखा कि इसका ठीक-ठीक तोल कर जल्दी खबर दो कि यह वजन में कितना है ? अभयकुमार उन्हें बुद्धि सुझाने वाला था ही, सो उसके कहे अनुसार उन लोगों ने नाव में एक ओर तो हाथी को चढ़ा दिया और दूसरी ओर खूब पत्थर रखना शुरू किया । जब देखा कि दोनों ओर का वजन समतोल हो गया तब उन्होंने उन सब पत्थरों को अलग तोलकर श्रेणिक को लिख भेजा कि हाथी का तोल इतना है। श्रेणिक को अब भी चुप रह जाना पड़ा ॥७४॥
    तीसरी बार तब श्रेणिक ने लिख भेजा कि " आपका कुँआ गाँव के पूर्व में है, उसे पश्चिम की ओर कर देना। मैं बहुत जल्द उसे देखने को आऊँगा।” इसके लिए अभयकुमार ने उन्हें युक्ति सुझाकर गाँव को ही पूर्व की ओर बसा दिया। इससे कुँआ सुतरां पश्चिम में हो गया ॥७५॥
    चौथी बार श्रेणिक ने एक मेढ़ा भेजा कि "यह मेढ़ा न दुर्बल हो, न बढ़ जाए और न इसके खाने पिलाने में किसी तरह की असावधानी न की जाए । मतलब यह कि जिस स्थिति में यह अब है इसी स्थिति में बना रहे। मैं कुछ दिनों बाद इसे वापस मंगा लूँगा ।" इसके लिए अभयकुमार ने उन्हें यह युक्ति बताई कि मेंढ़े को खूब खिला-पिला कर घण्टा दो घण्टा के लिए उसे सिंह के सामने बाँध दिया करिए, ऐसा करने से न यह बढ़ेगा और न घटेगा ही । वैसा ही किया गया। मेंढ़ा जैसा था वैसा ही रहा। श्रेणिक को इस युक्ति में भी सफलता प्राप्त न हुई ॥७६-७७॥
    पाँचवी बार श्रेणिक ने उनसे घड़े में रखा एक कोला (कद्दू) मँगाया। इसके लिए अभयकुमार ने बेल पर लगे हुए एक छोटे कोले को घड़े में रखकर बढ़ाना शुरू किया और जब उससे घड़ा भर गया तब उसे घड़े को श्रेणिक के पास पहुँचा दिया ॥७८॥
    छठी बार श्रेणिक ने उन्हें लिख भेजा कि "मुझे बालू रेत की रस्सी की दरकार है, सो तुम जल्दी बनाकर भेजो।” अभयकुमार ने इसके उत्तर में यह लिखवा भेजा कि “महाराज, जैसी रस्सी आप तैयार करवाना चाहते हैं कृपा कर उसका नमूना भिजवा दीजिये। हम वैसी ही रस्सी फिर तैयार कर सेवा में भेज देंगे।" इत्यादि कई बातें श्रेणिक ने उनसे करवायी सब का उतर उन्हें बराबर मिला । उत्तर ही न मिला किन्तु श्रेणिक को हतप्रभ भी होना पड़ा। इसलिए कि वे उन ब्राह्मणों को इस बात की सजा देना चाहते थे कि उन्होंने मेरे साथ सहानुभूति क्यों न बतलाई ? पर वे सजा दे नहीं पाये। श्रेणिक को जब यह मालूम हुआ कि कोई एक विदेशी गाँव के लोगों को यह सब बातें सुझाया करता है। उन्हें उस विदेशी की बुद्धि देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और सन्तोष भी हुआ । श्रेणिक की उत्कण्ठा तब उसके देखने के लिए बढ़ी। उन्होंने एक पत्र लिखा । उसमें लिखा कि “ आपके यहाँ जो एक विदेशी आकर रहा है, उसे मेरे पास भेजिये । पर साथ में उसे इतना और समझा देना कि वह न तो रात में आये और न दिन में, न सीधे रास्ते से आये और न टेढ़े-मेढ़े रास्ते से ॥७९-८१॥
    अभयकुमार को पहले तो कुछ जरा विचार में पड़ना पड़ा, फिर उसे इसके लिए भी युक्ति सूझ गई और अच्छी सूझी। वह शाम के वक्त गाड़ी के एक कोने में बैठकर श्रेणिक के दरबार में पहुँचा। वहाँ वह देखता है तो सिंहासन पर एक साधारण पुरुष बैठा है। उस पर श्रेणिक नहीं है वह बड़ा आश्चर्य में पड़ गया। उसे ज्ञात हो गया कि यहाँ भी कुछ न कुछ चाल खेली गई है। बात यह थी कि श्रेणिक अंगरक्षक पुरुषों के साथ बैठ गए थे। उनकी इच्छा थी कि अभयकुमार मुझे न पहचान कर लज्जित हो। इसके बाद ही अभयकुमार ने एक बार अपनी दृष्टि राजसभा पर डाली। उसे कुछ गहरी निगाह से देखने पर जान पड़ा कि राजसभा में बैठे हुए लोगों की नजर बार- बार एक पुरुष पर पड़ रही है और वह लोगों की अपेक्षा सुन्दर और तेजस्वी है । पर आश्चर्य यह कि वह राजा अंगरक्षक लोगों में बैठा है। अभयकुमार को उसी पर कुछ सन्देह गया। तब उसके कुछ चिह्नों को देखकर उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि यही मेरे पूज्य पिता श्रेणिक है। तब उसने जाकर उनके पाँवों में अपना सिर रख लिया। श्रेणिक ने उठाकर झट उसे छाती से लगा लिया। वर्षों बाद पिता पुत्र का मिलाप हुआ । दोनों को ही बड़ा आनन्द हुआ। इसके बाद श्रेणिक ने पुत्र प्रवेश के उपलक्ष्य में प्रजा को उत्सव मानने की आज्ञा की। खूब आनन्द - उत्सव मनाया गया । दुःखी, अनाथों को दान किया गया। पूजा- प्रभावना की गई। सच है - कुलदीपक पुत्र के लिए कौन खुशी नहीं मनाता ? इसके बाद ही श्रेणिक ने अपने कुछ आदमियों को भेजकर कांची से अभयमती और वसुमित्रा इन दोनों प्रियाओं को भी बुलवा लिया। इस प्रकार प्रिया - पुत्र सहित श्रेणिक सुख से राज्य करने लगे। अब इसके आगे की कहानी लिखी जाती है- ॥८२-८७॥
    सिन्धु देश की विशाला नगरी के राजा चेटक थे। वे बड़े बुद्धिमान्, धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे। जिन भगवान् पर उनकी बड़ी भक्ति थी । उनकी रानी का नाम सुभद्रा था । सुभद्रा बड़ी पतिव्रता और सुन्दरी थी इसके सात लड़कियाँ थीं। इनमें पहली लड़की प्रियकारिणी थी । इसके पुण्य का क्या कहना, जो इसका पुत्र संसार का महान् नेता तीर्थंकर हुआ। दूसरी मृगावती, तीसरी सुप्रभा, चौथी प्रभावती, पाँचवीं चेलना, छठी ज्येष्ठा और सातवीं चन्दना थी । इनमें अन्त में चन्दना को बड़ा उपसर्ग सहना पड़ा। उस समय इसने बड़ी वीरता से अपनी सतीधर्म की रक्षा की ॥८८-९२॥
    चेटक महाराज का अपनी इन पुत्रियों पर बड़ा प्रेम था । इससे उन्होंने इन सबकी एक साथ तस्वीर बनवाई। चित्रकार बड़ा होशियार था, सो उसने उन सबका बड़ा ही सुन्दर चित्र बनाया। चित्रपट को चेटक महाराज बड़ी बारीकी के साथ देख रहे थे। देखते हुए उनकी नजर चेलना की जाँघ पर पड़ी, चेलना की जाँघ पर जैसा तिल का चिह्न था, चित्रकार ने चित्र में भी वैसा ही तिल का चिह्न बना दिया था सो चेटक महाराज ने ज्यों ही उस तिल को देखा उन्हें चित्रकार पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने उसी समय उसे बुलाकर पूछा कि तुझे इस तिल का हाल कैसे जान पड़ा। महाराज की क्रोध भरी आँखें देखकर वह बड़ा घबराया । उसने हाथ जोड़कर कहा- राजाधिराज इस तिल को मैंने कोई छह सात बार मिटाया, पर मैं ज्यों ही चित्र के पास लिखने को कलम ले जाता त्यों ही उसमें से रंग की बूँद इसी जगह पड़ जाती। तब मेरे मन में दृढ़ विश्वास हो गया कि ऐसा चिह्न राजकुमारी चेलना के होना ही चाहिए और यही कारण हैं कि मैंने फिर उसे न मिटाया। यह सुनकर चेटक महाराज बड़े खुश हुए। उन्होंने फिर चित्रकार को बहुत पारितोषिक दिया । सच है बड़े पुरुषों का खुश होना निष्फल नहीं जाता ॥९३-९८॥
    अब से चेटक महाराज भगवान् की पूजन करते समय पहले इस चित्रपट को खोलकर भगवान् की प्रतिमा के पास ही रख लेते हैं और फिर बड़ी भक्ति के साथ जिनपूजा करते रहते हैं। जिन पूजा सब सुखों की देने वाली और भव्यजनों के मन को आनन्दित करने वाली है ॥९९-१००॥
    एक बार चेटक महाराज किसी खास कारण वश अपनी सेना को साथ लिए राजगृह आए। वे शहर बाहर बगीचे में ठहरे । प्रातः काल शौच, मुख मार्जनादि आवश्यक क्रियाओं से निपट उन्होंने स्नान किया और निर्मल वस्त्र पहनकर भगवान् की विधिपूर्वक पूजा की। रोज के माफिक आज भी चेटक महाराज ने अपनी राजकुमारियों के उस चित्रपट को पूजन करते समय अपने पास रख लिया था और पूजन के अन्त में उस पर फूल वगैरह डाल दिये थे ॥१०१-१०३॥
    इसी समय श्रेणिक महाराज भगवान् के दर्शन करने को आए । उन्होंने इस चित्रपट को देखकर पास खड़े हुए लोगों से पूछा- यह किनका चित्रपट है? उन लोगों ने उत्तर दिया- राजराजेश्वर, ये जो विशाला के चेटक महाराज आये हैं, उनकी लड़कियों का यह चित्रपट है । इनमें चार लड़कियों का तो ब्याह हो चुका है और चेलना तथा ज्येष्ठा ये दो लड़कियाँ ब्याह योग्य हैं। सातवीं चन्दना अभी बिल्कुल बालिका है। ये तीनों ही इस समय विशाला में है यह सुन श्रेणिक महाराज चेलना और ज्येष्ठ पर मोहित हो गये। इन्होंने महल पर आकर अपने मन की बात मंत्रियों से कही। मंत्रियों ने अभयकुमार से कहा-आपके पिताजी ने चेटक महाराज से इनकी दो सुन्दर लड़कियों के लिए मँगनी की थी, पर उन्होंने अपने महाराज की अधिक उम्र देख उन्हें अपनी राजकुमारियों के देने से इंकार कर दिया। अब तुम बतलाओ कि क्या उपाय किया जाये जिससे काम पूरा पड़ ही जाये ॥१०४ - १०५ ॥
    बुद्धिमान् अभयकुमार मंत्रियों के वचन सुनकर बोला- आप इस विषय की चिन्ता न करें जब तक कि सब कामों को करने वाला मैं मौजूद हूँ। यह कहकर अभयकुमार ने अपने पिता का एक बहुत सुन्दर चित्र तैयार किया और उसे लेकर साहूकार के वेष में आप विशाला पहुँचा। किसी उपाय से उसने वह चित्रपट दोनों राजकुमारियों को दिखलाया । वह इतना बढ़िया बना था कि उसे यदि एक बार देवांगनाएँ देख पाती तो उनसे भी अपने आपे में न रहा जाता तब ये दोनों कुमारियाँ उसे देखकर मुग्ध हो जाए, इसमें आश्चर्य क्या? उन दोनों का श्रेणिक महाराज पर मुग्ध देख अभयकुमार उन्हें सुरंग के रास्ते से राजगृह ले जाने लगा । चेलना बड़ी धूर्त थी । उसे स्वयं तो जाना पसन्द था, पर वह ज्येष्ठा को ले जाना न चाहती थी। सो जब ये थोड़ी ही दूर आई होंगी कि चेलना ने ज्येष्ठा से कहा-हाँ, बहिन मैं तो अपने सब गहने-दागी महल में ही छोड़ आई हूँ, तू जाकर उन्हें ले-आ न? तब तक मैं यही खड़ी हूँ बेचारी भोली-भाली ज्येष्ठा इसके झाँसे में आकर चली गई वह आँखों की ओट हुई होगी कि चेलना ने वहाँ से रवाना होकर अभयकुमार के साथ राजगृह आ गई। फिर बड़े उत्सव के साथ यहाँ इसका श्रेणिक महाराज के साथ ब्याह हो गया। पुण्य के उदय से श्रेणिक की सब रानियों में चेलिनी के ही भाग्य का सितारा चमका - पट्टरानी यही हुई। यह बात ऊपर लिखी जा चुकी है-श्रेणिक एक संन्यासी के उपदेश से वैष्णवधर्मी हो गए थे और तब से वे इसी धर्म को पालते थे। महारानी चेलना जैनी थी। जिनधर्म पर जन्म से ही उसकी श्रद्धा थी । इन दो धर्मों को पालने वाले पति-पत्नी का अपने-अपने धर्म की उच्चता बाबत रोज-रोज थोड़ा बहुत वार्तालाप हुआ करता था। पर वह बड़ी शान्ति से। एक दिन श्रेणिक ने चेलना से कहा- - प्रिये, उच्च घराने की सुशील स्त्रियों का देव तो पति है तब तुम्हें मैं जो कहूँ वह करना चाहिए। मेरी इच्छा है कि एक बार तुम इन विष्णुभक्त सच्चे गुरुओं को भोजन दो। सुनकर महारानी चेलना ने बड़ी नम्रता के साथ कहा-अच्छा नाथ, दूँगी ॥१०६-११८॥
    इसके कुछ दिनों बाद चेलना ने कुछ भागवत् साधुओं का निमंत्रण किया और बड़े गौरव के साथ उन्हें अपने यहाँ बुलाया । आकर वे लोग अपना ढोंग दिखलाने के लिए कपट, मायाचारी से ईश्वराराधन करने को बैठे। उस समय चेलना ने उनसे पूछा- आप लोग क्या करते हैं? उत्तर में उन्होंने कहा–देवी, हम लोग मलमूत्रादि अपवित्र वस्तुओं से भरे इस शरीर को छोड़कर हम अपनी आत्मा को विष्णु अवस्था में प्राप्त कर स्वानुभव का सुख भोगते हैं ॥११९-१२१॥
    सुनकर चेलना ने उस मंडप में, जिसमें कि सब साधु ध्यान करने को बैठे थे, आग लगवा दी। आग लगते ही वे सब भाग खड़े हुए। यह देख श्रेणिक ने बड़े क्रोध के साथ चेलना से कहा- आज तुमने साधुओं के साथ अनर्थ किया। यदि तुम्हारी उन पर भक्ति नहीं थी, तो क्या उसका यह अर्थ है कि उन्हें जान से मार डालना ? बताओ उन्होंने तुम्हारा क्या अपराध किया जिससे तुम उनके जीवन की ही प्यासी हो उठी? ॥१२२-१२३॥
    रानी बोली-नाथ, मैंने तो कोई बुरा काम नहीं किया और जो किया वह उन्हीं के कहे अनुसार उनके लिए सुख का कारण था । मैंने तो केवल परोपकार बुद्धि से ऐसा किया था। जब वे लोग ध्यान करने को बैठे तब मैंने उनसे पूछा कि आप लोग क्या करते हैं, तब उन्होंने मुझे कहा कि हम अपवित्र शरीर को छोड़कर उत्तम सुखमय विष्णुपद को प्राप्त करते हैं । तब मैंने सोचा कि-अहो, ये जब शरीर छोड़कर विष्णुपद प्राप्त करते हैं तब तो बहुत ही अच्छा है और इससे यह और उत्तम होगा कि यदि ये निरन्तर विष्णु ही बने रहें । संसार में बार-बार आने-जाने का इनके पचड़ा क्यों? यह विचार कर वे निरन्तर विष्णुपद में रहकर सुख भोगें इस परोपकार बुद्धि से मैंने मण्डप में आग लगवा दी। तब आप ही विचार कर बतलाइए कि इसमें मैंने सिवा परोपकार के कौन बुरा काम किया? और सुनिए, मेरे वचनों पर आपको विश्वास हो, इसके लिए मैं एक कथा आपको सुना दूँ ॥१२४-१२६॥
    “ जिस समय की यह कथा है, उस समय वत्सदेश की राजधानी कौशाम्बी के राजा प्रजापाल थे। वे अपना राज्यशासन नीति के साथ करते हुए सुख से समय बिताते थे । कौशाम्बी में दो सेठ रहते थे। उनके नाम थे सागरदत्त और समुद्रदत्त । दोनों सेठों में परस्पर बहुत प्रेम था। उनका प्रेम सदा ऐसा ही दृढ़ बना रहे, इसके लिए उन्होंने परस्पर में एक शर्त रखी कि - " मेरे यदि पुत्री हुई तो मैं उसका ब्याह तुम्हारे लड़के के साथ कर दूँगा और इसी तरह मेरे पुत्र हुआ तो तुम्हें अपनी लड़की का ब्याह उसके साथ कर देना पड़ेगा ॥१२७-१३०॥
    दोनों ने उक्त शर्त स्वीकार की । उसके कुछ दिनों बाद सागरदत्त के घर पुत्र जन्म हुआ। उसका नाम वसुमित्र रखा। पर उसमें एक बड़े आश्चर्य की बात थी । वह यह कि - वसुमित्र न जाने किस कर्म के उदय से रात के समय तो एक दिव्य मनुष्य होकर रहता और दिन में एक भयानक सर्प ॥१३१-१३२॥
    उधर समुद्रदत्त के घर कन्या हुई उसका नाम रखा गया नागदत्ता । वह बड़ी खूबसूरत सुन्दरी थी। उसके पिता ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसका ब्याह वसुमित्र के साथ कर दिया। सच है -
    नैव वाचा चलत्वं स्यात्सतां कष्टशतैरपि ॥१३३-१३४॥
    सत्पुरुष सैकड़ों कष्ट सह लेते हैं, पर अपनी प्रतिज्ञा से कभी विचलित नहीं होते । वसुमित्र का ब्याह हो गया। वह अब प्रतिदिन दिन में तो सर्प बनकर एक पिटारे में रहता और रात में एक दिव्य पुरुष होकर अपनी प्रिया के साथ सुखोपभोग करता । सचमुच संसार की विचित्र ही स्थिति होती है। इसी तरह उसके कई दिन बीत गए। एक दिन नागदत्ता की माता अपनी पुत्री को एक ओर तो यौवन अवस्था में पदार्पण करती और दूसरी ओर उसके विपरीत भाग्य को देखकर दुःखी होकर बोली-हाय ! दैव की कैसी विडम्बना है, जो कहाँ तो देवकुमारी सरीखी सुन्दरी मेरी पुत्री और कैसा उसका अभाग्य जो उसे पति मिला एक भयंकर सर्प ! उसकी दुःख भरी आह को नागदत्ता ने सुन लिया। वह दौड़ी आकर अपनी माँ से बोली- माँ, इसके लिए आप क्यों दुःख करती है । मेरा जब भाग्य ही ऐसा है, तब उसके लिए दुःख करना व्यर्थ है और अभी मुझे विश्वास है कि मेरे स्वामी का इस दशा से उद्धार हो सकता है। इसके बाद नागदत्ता ने अपनी माँ को स्वामी के उद्धार के सम्बन्ध की बात समझा दी। सदा के नियमानुसार आज भी रात के समय वसुमित्र अपना सर्प-शरीर छोड़कर मनुष्य रूप में आया और अपने शय्या - भवन में पहुँचा। इधर समुद्रदत्ता छुपे हुए आकर वसुदत्त के पिटारे को वहाँ से उठा ले - आई और उसी समय उसने उसे जला डाला। तब से वसुमित्र मनुष्य रूप में ही अपनी प्रिया के साथ सुख भोगता हुआ अपना समय आनंद से बिताने लगा । नाथ, उसी तरह ये साधु भी निरन्तर विष्णु लोक में रहकर सुख भोगें यह मेरी इच्छा थी इसलिए मैंने वैसा किया था। महारानी चेलना की कथा सुनकर श्रेणिक उत्तर तो कुछ नहीं दे सके, पर वे उस पर बहुत गुस्सा हुए और उपयुक्त समय न देखकर वे अपने क्रोध को उस समय दबा गए ॥१३५-१४४॥
    एक दिन श्रेणिक शिकार के लिए गए हुए थे । उन्होंने वन में यशोधर मुनिराज को देखा। वे उस समय आतप योग धारण किए हुए थे । श्रेणिक ने उन्हें शिकार के लिए विघ्नरूप समझ कर मारने का विचार किया और बड़े गुस्से में आकर अपने क्रूर शिकारी कुत्तों को उन पर छोड़ दिया। कुत्ते बड़ी निर्दयता के साथ मुनि के खाने को झपटे। पर मुनिराज को तपस्या के प्रभाव से वे उन्हें कुछ कष्ट न पहुँचा सके। बल्कि उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके पाँवों के पास खड़े रह गए। यह देख श्रेणिक को और भी क्रोध आया। उन्होंने क्रोधान्ध होकर मुनि पर बाण चलाना आरम्भ किया। पर यह कैसा आश्चर्य जो बाणों के द्वारा उन्हें कुछ क्षति न पहुँचा कर वे ऐसे जान पड़े मानों किसी ने उन पर फूलों की वर्षा की है। सच, बात यह है कि तपस्वियों का प्रभाव कौन कह सकता है? श्रेणिक ने उन मुनि हिंसारूप तीव्र परिणामों द्वारा उस समय सातवें नरक की आयु का बन्ध किया, जिसकी स्थिति तैंतीस सागर की है ॥१४५-१५०॥ 
    इन सब अलौकिक घटनाओं को देखकर श्रेणिक का पत्थर के समान कठोर हृदय फूल सा कोमल हो गया, उनके हृदय की सब दुष्टता निकल कर उसमें मुनि के प्रति पूज्यभाव पैदा हो गया, वे मुनिराज के पास गए और भक्ति से मुनि के चरणों को नमस्कार किया । यशोधर मुनिराज ने श्रेणिक के हित के लिए इस समय को उपयुक्त समझ उन्हें अहिंसामयी पवित्र जिनशासन का उपदेश दिया। उसका श्रेणिक के हृदय पर बहुत असर पड़ा। उनके परिणामों में विलक्षण परिवर्तन हो गया। उन्हें अपने कृत कर्म पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। मुनिराज के उपदेशानुसार उन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण किया। उसके प्रभाव से, उन्होंने जो सातवें नरक की आयु का बन्ध किया था, वह उसी समय घटकर पहले नरक की रह गयी। यहाँ की स्थिति चौरासी हजार वर्षों की है। ठीक है सम्यग्दर्शन के प्रभाव से भव्यपुरुष को क्या प्राप्त नहीं होता ॥१५१-१५४॥
    इसके बाद श्रेणिक ने श्री चित्रगुप्त मुनिराज के पास क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया और अन्त में भगवान वर्धमान स्वामी के द्वारा शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व, जो कि मोक्ष का कारण है, प्राप्त कर पूज्य तीर्थंकर नाम प्रकृति का बन्ध किया । श्रेणिक महाराज अब तीर्थंकर होकर निर्वाण लाभ करेंगे ॥ १५५- १५७॥
    इसलिए भव्यजनों इस स्वर्ग-मोक्ष के सुख देने वाले तथा संसार का हित करने वाले सम्यग्दर्शन रूप रत्न द्वारा अपने को भूषित करना चाहिए। यह सम्यग्दर्शन रूप रत्न- इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सुख का देने वाला, दुःखों का नाश करने वाला और मोक्ष का प्राप्त कराने वाला है। विद्वज्जन आत्महित के लिए इसी को धारण करते हैं । उस सम्यग्दर्शन का स्वरूप श्रुतसागर आदि मुनिराजों ने कहा। जिनभगवान् के कहे हुए तत्त्वों का श्रद्धान करना ऐसा विश्वास करना कि भगवान् ने जैसा कहा वही सत्यार्थ है। तब आप लोग भी इस सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर आत्म - हित करें, यह मेरी भावना है ॥१५८-१५९॥
  12. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन्हें स्वर्ग के देव नमस्कार करते हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर सम्यक्त्व को न छोड़ने वाली जिनमती की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    लाटदेश के सुप्रसिद्ध गलगोद्रह नाम के शहर में जिनदत्त नाम का एक सेठ हो चुका है। उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था । उसके जिनमती नाम की एक लड़की थी। जिनमती बहुत सुन्दरी थी। उसकी भुवनमोहिनी सुन्दरता देखकर स्वर्ग की अप्सराएँ भी लजा जाती थी। पुण्य से सुन्दरता प्राप्त होती है ॥२-३॥
    यहीं पर एक दूसरा सेठ रहता था। उसका नाम नागदत्त था । नागदत्त की स्त्री नागदत्ता के रुद्रदत्त नाम का एक लड़का था । नागदत्त ने बहुतेरा चाहा कि जिनदत्त जिनमती का ब्याह उसके पुत्र रुद्रदत्त से कर दे। पर उसको विधर्मी होने से जिनदत्त ने उसे अपनी पुत्री न ब्याही | जिनदत्त का यह हठ नागदत्त को पसन्द न आया। उसने तब एक दूसरी युक्ति की । वह यह कि नागदत्त और रुद्रदत्त समाधिगुप्त मुनि से कुछ व्रत, नियम लेकर श्रावक बन गए और श्रावक सरीखी सब क्रियाएँ करने लगे। जिनदत्त को इससे बड़ी खुशी हुई और उसे इस बात पर पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही जैनी हो गए हैं तब उसने बड़ी खुशी के साथ जिनमती का ब्याह रुद्रदत्त से कर दिया। जहाँ ब्याह हुआ कि इन दोनों पिता-पुत्रों ने जैनधर्म छोड़कर पीछा अपना धर्म ग्रहण कर लिया ॥४-७॥
    रुद्रदत्त अब जिनमती से रोज-रोज आग्रह करने लगा कि प्रिये, तुम भी अब क्यों न मेरा ही धर्म ग्रहण कर लेती हो । वह बड़ा उत्तम धर्म है । जिनमती की जिनधर्म पर गाढ़ श्रद्धा थी । वह जिनेन्द्र भगवान् की सच्ची सेविका थी । ऐसी हालत में उसे जिनधर्म के सिवा अन्य धर्म कैसे रुच सकता था। उसने तब अपने विचार, बड़ी स्वतन्त्रता के साथ अपने स्वामी पर प्रकट किए। वह बोली-प्राणनाथ, आपका जैसा विश्वास हो, उस पर मुझे कुछ कहना - सुनना नहीं। पर मैं अपने विश्वास के अनुसार यह कहूँगी कि संसार में जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है जो सर्वोच्च होने का दावा कर सकता है। इसलिए कि जीवमात्र का उपकार करने की उसमें योग्यता है और बड़े-बड़े राजा- महाराजाओं, स्वर्ग के देव, विद्याधर और चक्रवर्ती आदि उसे पूजते- मानते है फिर मैं ऐसी कोई बेजा बात उसमें नहीं पाती कि जिससे मुझे उसके छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़े। बल्कि मैं आपको भी सलाह दूँगी कि आप इसी सच्चे और जीव मात्र का हित करने वाले जैनधर्म को ग्रहण कर लें तो बड़ा अच्छा हो। इसी प्रकार इन दोनों पति-पत्नी की परस्पर बात-चीत हुआ करती थी। अपने- अपने धर्म की दोनों ही तारीफ किया करते थे । रुद्रदत्त जरा अधिक हठी था । इसलिए कभी - कभी जिनमती पर वह जरा गुस्सा भी हो जाता था । पर जिनमती बुद्धिमती और चतुर थी, इसलिए वह उसकी नाराजगी पर कभी अप्रसन्नता जाहिर न करती । बल्कि उसकी नाराजगी को हँसी का रूप दे झट से रुद्रदत्त को शान्त कर देती थी । जो हो, पर ये रोज-रोज की विवाद भरी बातें सुख का कारण नहीं होती ॥८-१२॥
    इस तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन ऐसा मौका आया कि दुष्ट भीलों ने शहर के किसी हिस्से में आग लगा दी। चारों ओर आग बुझाने के लिए दौड़ा-दौड़ पड़ गई। उस भयंकर आग को देखकर लोगों को अपनी जान का भी सन्देह होने लगा । इस समय को योग्य अवसर देख जिनमती ने अपने स्वामी रुद्रदत्त से कहा - प्राणनाथ, मेरी बात सुनिए । रोज-रोज का जो अपने में वाद- विवाद होता है, मैं उसे अच्छा नहीं समझती । मेरी इच्छा है कि यह झगड़ा रफा हो जाए ॥१३॥
    इसके लिए मेरा यह कहना है कि आज अपने शहर में आग लगी है उस आग को जिसका देव बुझा दे, समझना चाहिए कि वही देव सच्चा है और फिर उसी को हमें परस्पर में स्वीकार कर लेना चाहिए। रुद्रदत्त ने जिनमती की यह बात मान ली। उसने तब कुछ लोगों को इस बात का गवाह कर अपने इष्ट आदि देवों के लिए अर्घ दिया, बड़ी भक्ति से उनकी पूजा - स्तुति कर उसने अग्नि शान्ति के लिए प्रार्थना की। पर उसकी इस प्रार्थना का कुछ उपयोग न हुआ । अग्नि जिस भयंकरता के साथ जल रही थी। वह उसी तरह जलती रही। सच है, ऐसे देवों से कभी उपद्रवों की शान्ति नहीं होती, जिनका हृदय दुष्ट है, जो मिथ्यात्वी है ॥१४- १७॥
    अब धर्मवत्सला जिनमती की बारी आई उसने बड़ी भक्ति से पंच परमेष्ठियों के चरण- कमलों को अपने हृदय में विराजमान कर उनके लिए अर्घ चढ़ाया। इसके बाद वह अपने पति, पुत्र आदि कुटुम्ब वर्ग को अपने पास बैठाकर आप कायोत्सर्ग ध्यान द्वारा पंच-नमस्कार मन्त्र का चिन्तन करने लगी। इसकी इस अचल श्रद्धा और भक्ति को देखकर शासन देवी बड़ी प्रसन्न हुई उसने तब उसी समय आकर उस भयंकर आग को देखते-देखते बुझा दिया । इस अतिशय को देखकर रुद्रदत्त वगैरह बड़े चकित हुए । उन्हें विश्वास हुआ कि जैनधर्म ही सच्चा धर्म है। उन्होंने फिर सच्चे मन से जैनधर्म की दीक्षा ले श्रावकों के व्रत ग्रहण किए। जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई। सच है - संसार में श्रेष्ठ जैनधर्म की महिमा को कौन कह सकता है जो कि स्वर्ग - मोक्ष का देने वाला है। जिस प्रकार जिनमती ने अपने सम्यक्त्व की रक्षा की, उसी तरह अन्य भव्यजनों को सुख प्राप्ति के लिए पवित्र सम्यग्दर्शन की सदा सुरक्षा करते रहना चाहिए ॥१८ - २३॥
    जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में जिनमती की अचल भक्ति, उसके हृदय की पवित्रता और उसका दृढ़ विश्वास देखकर स्वर्ग के देवों ने दिव्य वस्त्राभूषणों से उसका खूब आदर-मान किया और सच भी है-सच्चे जिनभक्त सम्यग्दृष्टि की कौन पूजा नहीं करते ॥२४॥
  13. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब प्रकार के दोषों रहित जिन भगवान् को नमस्कार कर सम्यग्दर्शन को खूब दृढ़ता के साथ पालन करने वाले जिनदास सेठ की पवित्र कथा लिखी जाती है ॥१॥
    प्राचीन काल से प्रसिद्ध पाटलिपुत्र (पटना) में जिनदास नाम का एक प्रसिद्ध और जिनभक्त सेठ हो चुका है। जिनदास सेठ की स्त्री का नाम जिनदासी था । जिनदास, जिसकी कि यह कथा है, इसी का पुत्र था। अपनी माता के अनुसार जिनदास भी ईश्वर प्रेमी, पवित्र हृदयी और अनेक गुणों का धारक था ॥ २-३॥
    एक बार जिनदास सुवर्ण द्वीप से धन कमाकर अपने नगर की ओर आ रहा था। किसी काल नाम के देव की जिनदास के साथ कोई पूर्व जन्म की शत्रुता होगी इसलिए वह देव इसे मारना चाहता होगा। यही कारण था कि उसने कोई सौ योजन चौड़े जहाज पर बैठे-बैठे ही जिनदास से कहा- जिनदास, यदि तू यह कह दे कि जिनेन्द्र भगवान् कोई चीज नहीं, जैनधर्म कोई चीज नहीं, तो तुझे मैं जीता छोड़ सकता हूँ, नहीं तो मार डालूँगा । उस देव का वह डराना सुन जिनदास वगैरह ने हाथ जोड़कर श्रीमहावीर भगवान् को बड़ी भक्ति से नमस्कार किया और निडर होकर वे उससे बोले-पापी, यह हम कभी नहीं कह सकते कि जिनभगवान् और उनका धर्म कोई चीज नहीं; बल्कि हम यह दृढ़ता के साथ कहते हैं कि केवलज्ञान द्वारा सूर्य से अधिक तेजस्वी जिनेन्द्र भगवान् और संसार द्वारा पूजा जाने वाला उनका मत सबसे श्रेष्ठ है। उनकी समानता करने वाला कोई देव और कोई धर्म संसार में है ही नहीं । इतना कह कर ही जिनदास ने सबके सामने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की कथा, जो कि पहले कहानी संख्या १८ पर लिखी जा चुकी है, कह सुनाई उस कथा को सुनकर सबका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। इन धर्मात्माओं पर इस विपत्ति के आने से उत्तरकुरु में रहने वाले अनाव्रत नाम के यक्ष का आसन कंपा। उसने उसी समय आकर क्रोध से कालदेव के सिर पर चक्र की बड़ी जोर की मार जमाई और उसे उठाकर बड़वानल में डाल दिया ॥४-१२॥
    जहाज के लोगों की इस अचल भक्ति से लक्ष्मी देवी बड़ी प्रसन्न हुई उसने आकर इन धर्मात्माओं का बड़ा आदर-सत्कार किया और इनके लिए भक्ति से अर्घ चढ़ाया। सच है, जो भव्यजन सम्यग्दर्शन का पालन करते हैं, संसार में उनका आदर, मान कौन नहीं करता । इसके बाद जिनदास वगैरह सब लोग कुशलता से अपने घर आ गए। भक्ति से उत्पन्न हुए पुण्य ने इनकी सहायता की। एक दिन मौका पाकर जिनदास ने अवधिज्ञानी मुनि से कालदेव ने ऐसा क्यों किया इस बाबत का खुलासा पूछा। मुनिराज ने इस बैर का सब कारण जिनदास से कहा। जिनदास को सुनकर सन्तोष हुआ ॥१३-१६॥
    जो बुद्धिमान् हैं, उन्हें उचित है या उनका कर्तव्य है कि वे परम सुख के लिए संसार का हित करने वाले और मोक्ष के कारण पवित्र सम्यग्दर्शन को ग्रहण करें। इसे छोड़कर उन्हें और बातों के लिए कष्ट उठाना उचित नहीं, कारण वे मोक्ष के कारण नहीं है ॥१७॥
  14. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जो निर्मल केवलज्ञान द्वारा लोक और अलोक के जानने देखने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, उन जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर धर्म से अनुराग करने वाले राजकुमार लकुच की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    उज्जैन के राजा धनवर्मा और उनकी रानी धनश्री लकुच नाम का एक पुत्र था । लकुच बड़ा अभिमानी था, पर साथ में वीर भी था। उसे लोग मेघ की उपमा देते थे, इसलिए कि वह शत्रुओं की मानरूपी अग्नि को बुझा देता था, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना उसके बायें हाथ का खेल था ॥२-३॥
    काल-मेघ नाम के म्लेच्छ राजा ने एक बार उज्जैन पर चढ़ाई की थी । अवन्ति देश की प्रजा को तब जन-धन की बहुत हानि उठानी पड़ी थी । लकुच ने इसका बदला चुकाने के लिए कालमेघ के देश पर भी चढ़ाई कर दी। दोनों ओर से घमासान युद्ध होने पर विजयलक्ष्मी लकुच की गोद में आकर लेटी। लकुच ने तब कालमेघ को बाँध कर पिता के सामने रख दिया। धनवर्मा अपने पुत्र की इस वीरता को देखकर बड़े खुश हुए। इस खुशी में धनवर्मा ने लकुच को कुछ वर देने की इच्छा जाहिर की। पर उसकी प्रार्थना से वर को उपयोग में लाने का भार उन्होंने उसी की इच्छा पर छोड़ दिया। अपनी इच्छा के माफिक करने की पिता की आज्ञा पा लकुच की आँखें फिर गई उसने अपनी इच्छा का दुरुपयोग करना शुरू किया । व्यभिचार की ओर उसकी दृष्टि गई तब अच्छे-अच्छे घराने की सुशील स्त्रियाँ उसकी शिकार बनने लगीं। उनका धर्म भ्रष्ट किया जाने लगा । अनेक सतियों ने इस पापी से अपने धर्म की रक्षा के लिए आत्महत्याएँ तक कर डालीं । प्रजा के लोग तंग आ गए। वे महाराज से राजकुमार की शिकायत तक नहीं कर पाते। कारण राजकुमार के जासूस उज्जैन के कोने-कोने में फैल रहे थे इसलिए जिसने कुछ राजकुमार के विरुद्ध जबान हिलाई या विचार भी किया कि वह बेचारा फौरन ही मौत के मुँह में फेंक दिया जाता था ॥४-७॥
    यहाँ एक पुंगल नाम का सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम नागदत्ता था। नागदत्ता बड़ी खूबसूरत थी । एक दिन पापी लकुच की इस पर आँखें चली गई बस, फिर क्या देर थी? उसने उसी समय उसे प्राप्त कर अपनी नीच मनोवृत्ति की तृप्ति की । पुंगल उसकी इस नीचता से सिर से पाँव तक जल उठा। क्रोध की आग उसके रोम-रोम में फैल गई वह राजकुमार के दबदबे से कुछ करने- धरने को लाचार था। पर उस दिन की बाट वह बड़ी आशा से जोह रहा था, जिस दिन कि वह लकुच से उसके कर्मों का भरपूर बदला चुका कर अपनी छाती ठण्डी करे ॥८- ९॥
    एक दिन लकुच वन क्रीड़ा के लिए गया हुआ था । भाग्य से वहाँ उसे मुनिराज के दर्शन हो गए। उसने उनसे धर्म का उपदेश सुना । उपदेश का प्रभाव उस पर खूब पड़ा । इसलिए वह वहीं उनसे दीक्षा ले मुनि हो गया। उधर पुंगल ऐसे मौके की आशा लगाये बैठा ही था, सो जैसे ही उसे लकुच का मुनि होना जान पड़ा वह लोहे के बड़े-बड़े तीखे कीलों को लेकर लकुच मुनि के ध्यान करने की जगह पर आया। इस समय लकुच मुनि ध्यान में थे । पुंगल तब उन कीलों को मुनि के शरीर में ठोक कर चलता बना। लकुच मुनि ने इस दुःसह उपसर्ग को बड़ी शान्ति, स्थिरता और धर्मानुराग से सह कर स्वर्ग लोक प्राप्त किया । सच है, महात्माओं का चरित्र विचित्र ही हुआ करता है। वह अपने जीवन की गति को मिनट भर में कुछ को कुछ बदल डालते हैं ॥१०-१२॥
    वे लकुच मुनि जय लाभ करें, कर्मों को जीतें, जिन्होंने असह्य कष्ट सहकर जिनेन्द्र भगवान् रूपी चन्द्रमा की उपदेशरूपी अमृतमयी किरणों से स्वर्ग का उत्तम सुख प्राप्त किया, गुणरूपी रत्नों के जो पर्वत हुए और ज्ञान के गहरे समुद्र कहलाये ॥१३॥
  15. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    इन्द्रादिकों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर जिनाभिषेक से अनुराग करने वाले जिनदत्त और वसुमित्र की कथा लिखी जाती है। उज्जैन के राजा सागरदत्त के समय उनकी राजधानी में जिनदत्त और वसुमित्र नाम के दो प्रसिद्ध और बड़े गुणवान् सेठ हो गए हैं। जिनधर्म और जिनाभिषेक पर उनका बड़ा ही अनुराग था । ऐसा कोई दिन उनका खाली न जाता था जिस दिन वे भगवान् का अभिषेक न करते हों, पूजा प्रभावना न करते हों, दान-व्रत न करते हों । एक दिन ये दोनों सेठ व्यापार के लिए उज्जैन से उत्तर की ओर रवाना हुए। मंजिल दर मंजिल चलते हुए एक ऐसी घनी अटवी में पहुँच गए, जो दोनों बाजू आकाश से बातें करने वाले अवसीर और माला पर्वत नाम के पर्वतों से घिरी थी और जिसमें डाकू लोगों का अड्डा था। डाकू लोग इनका सब माल असबाब छीनकर हवा हो गए। अब ये दोनों उस अटवी मैं इधर-उधर घूमने लगे । इसलिए कि इन्हें उससे बाहर होने का रास्ता मिल जाये । पर इनका सब प्रयत्न निष्फल गया। न तो ये स्वयं रास्ते का पता लगा सके और न कोई रास्ता बताने वाला ही मिला। अपने अटवी के बाहर होने का कोई उपाय न देखकर अन्त में इन जिनपूजा और जिनाभिषेक से अनुराग करने वाले महानुभावों ने संन्यास ले लिया और जिन भगवान् का ये स्मरण - चिन्तन करने लगे । सच है, सत्पुरुष सुख और दुःख में सदा समान भाव रखते हैं, विचारशील रहते हैं ॥१-७॥
    एक और अभागा भूला भटका सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण अटवी में आ फँसा। घूमता-फिरता वह इन्हीं के पास आ गया। अपनी - जैसी इस बेचारे ब्राह्मण की दशा देखकर ये बड़े दिलगीर हुए। सोमशर्मा से उन्होंने सब हाल कहा और यह भी कहा- यहाँ से निकलने का कोई मार्ग प्रयत्न करने पर भी जब हमें न मिला तो हमने अन्त में धर्म का शरण लिया इसलिए कि यहाँ हमारी मरने के सिवा कोई गति ही नहीं है और जब हमें मृत्यु के सामने होना ही है तब कायरता और बुरे भावों से क्यों उसका सामना करना, जिससे कि दुर्गति में जाना पड़े । दुःखों का नाश कर सुखों का देने वाला है, इसलिए उसी धर्म का ऐसे समय में आश्रय लेना परम हितकारी है । हम तुम्हें भी सलाह देते है कि तुम भी सुगति की प्राप्ति के लिए धर्म का आश्रय ग्रहण करो। इसके बाद उन्होंने सोमशर्मा को धर्म का सामान्य स्वरूप समझाया देखो, जो अठारह दोषों से रहित और सबके देखने वाले सर्वज्ञ हैं, वे देव कहाते हैं और ऐसे निर्दोष भगवान् द्वारा बताये दयामय मार्ग को धर्म कहते हैं। धर्म का वैसे सामान्य लक्षण है- जो दुःखों से छुड़ाकर सुख प्राप्त करावे । ऐसे धर्म को आचार्यों ने दस भागों में बाँटा है अर्थात् सुख प्राप्त करने के दस उपाय है। वे यह हैं - उत्तम क्षमा, मार्दव- हृदय का कोमल होना, आर्जव - हृदय का सरल होना, सच बोलना, शौच-निर्लोभी या संतोषी होना, संयम - इन्द्रियों को वश में करना, तप-व्रत उपवासादि करना, त्याग-पुण्य से प्राप्त हुए धन को सुकृत के काम जैसे दान, परोपकार आदि में लगाना, आकिंचन-परिग्रह अर्थात् धन-धान्य, चाँदी-सोना, दास-दासी आदि दस प्रकार के परिग्रह की लालसा कम करके आत्मा को शान्ति के मार्ग पर ले जाना और ब्रह्मचर्य का पालना ॥८॥
    गुरु वे कहलाते हैं जो माया, मोह-ममता से रहित हों, विषयों की वासना जिन्हें छू तक न गई हो, जो पक्के ब्रह्मचारी हों, तपस्वी हों और संसार के दुःखी जीवों को हित का रास्ता बतला कर उन्हें सुख प्राप्त कराने वाले हों। इन तीनों पर अर्थात् देव, धर्म, गुरु पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन सुख - स्थान पर पहुँचने की सबसे पहली सीढ़ी है। इसलिए तुम इसे ग्रहण करो। इस विश्वास को जैन शासन या जैनधर्म भी कहते हैं । जैनधर्म में जीव को, जिसे कि आत्मा भी कहते हैं, अनादि माना है। न केवल माना ही है किन्तु वह अनादि ही है। नास्तिकों की तरह वह पंचभूत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ नहीं है क्योंकि ये सब पदार्थ जड़ है। ये देख-जान नहीं सकते और जीव का देखना- जानना ही खास गुण है। इसी गुण से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। जीव को जैनधर्म दो भागों में बाँट देता है । एक भव्य- अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का, जिन्होंने कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप को अनादि से ढाँक रखा है नाश कर मोक्ष जाने वाले और दूसरा अभव्य - जिसमें कर्मों के नाश करने की शक्ति न हो। इनमें कर्मयुक्त जीव को संसारी कहते हैं और कर्म रहित को मुक्त। जीव के सिवा संसार में एक और द्रव्य है उसे अजीव या पुद्गल कहते हैं। इसमें जानने देखने की शक्ति नहीं होती, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अजीव को जैनधर्म पाँच भागों में बाँटता है, जैसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इन पाँचों की दो श्रेणियाँ की गई हैं। एक मूर्तिक और दूसरी अमूर्तिक । मूर्तिक उसे कहते हैं जो छुई जा सके, जिसमें कुछ न कुछ स्वाद हो, गन्ध और वर्ण रूप-रंग हो अर्थात् जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये बातें पाई जाये वह मूर्तिक है और जिसमें ये न हों वह अमूर्तिक है । उक्त पाँच द्रव्यों में सिर्फ पुद्गल तो मूर्तिक है अर्थात् इसमें उक्त चारों बातें सदा से हैं और रहेंगी-कभी उससे जुदा न होंगी। इसके सिवा धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अमूर्तिक हैं । इन सब विषयों का विशेष खुलासा अन्य जैन ग्रन्थों में किया है। प्रकरणवश तुम्हें यह सामान्य स्वरूप कहा । विश्वास है अपने हित के लिए इसे ग्रहण करने का यत्न करोगे ॥९-११॥
    सोमशर्मा को यह उपदेश बहुत पसन्द पड़ा। उसने मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को स्वीकार कर लिया। इसके बाद जिनदत्त - वसुमित्र की तरह वह भी संन्यास ले भगवान् का ध्यान करने लगा। सोमशर्मा को भूख-प्यास, डाँस - मच्छर आदि की बहुत बाधा सहनी पड़ी। उसे उसने बड़ी धीरता के साथ सहा। अन्त में समाधि से मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से श्रेणिक महाराज का अभयकुमार नाम का पुत्र हुआ । अभयकुमार बड़ा ही धीर - वीर और पराक्रमी था, परोपकारी था । अन्त में वह कर्मों का नाश कर मोक्ष गया ॥ १२-१५॥
    सोमशर्मा की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद जिनदत्त और वसुमित्र की भी समाधि से मृत्यु हुई वे दोनों भी इसी सौधर्म स्वर्ग में, जहाँ कि सोमशर्मा देव हुआ था, देव हुए ॥१६॥
    संसार का उपकार करने वाले और पुण्य के कारण जिनके उपदेश किए धर्म को कष्ट समय में भी धारण कर भव्यजन उस कठिन से कठिन सुख को, जिसके कि प्राप्त करने की उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं होती, प्राप्त कर लेते हैं, वे सर्वज्ञ भगवान् मुझे वह निर्मल सुख दें, जिस सुख की इन्द्र, चक्री और विद्याधर राजा पूजा करते हैं ॥१७॥
  16. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जो जिनधर्म के प्रवर्तक हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धर्म से प्रेम करने वाले सुमित्र सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    अयोध्या के राजा सुवर्णवर्मा और उनकी रानी सुवर्णश्री के समय अयोध्या में सुमित्र नाम के एक प्रसिद्ध सेठ हो गए हैं। सेठ का जैनधर्म पर अत्यन्त प्रेम था। एक दिन सुमित्र सेठ रात के समय अपने घर में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे । उनकी ध्यान - समय की स्थिरता और भावों की दृढ़ता देखकर किसी एक देव ने सशंकित हो उनकी परीक्षा करनी चाही कि कहीं यह सेठ का कोरा ढोंग तो नहीं है। परीक्षा में उस देव ने सेठ की सारी सम्पत्ति, स्त्री, बाल-बच्चे आदि को अपने अधिकार में कर लिया । सेठ के पास इस बात की पुकार पहुँची । स्त्री, बाल-बच्चे रो-रोकर उसके पाँवों में जा गिरे और छुड़ाओं, छुड़ाओं की हृदय भेदने वाली दीन प्रार्थना करने लगे । जो न होने का था वह सब हुआ परन्तु सेठजी ने अपने ध्यान को अधूरा नहीं छोड़ा, वे वैसे ही निश्चल बने रहे। उनकी यह अलौकिक स्थिरता देखकर उस देव को बड़ी प्रसन्नता हुई उसने सेठ की शतमुख से भूरी-भूरी प्रशंसा की। अन्त में अपने निज स्वरूप में आ और सेठ को एक साँकरी नाम की आकाशगामिनी विद्या भेंट कर आप स्वर्ग चला गया। सेठ के इस प्रभाव को देखकर बहुतेरे भाइयों ने जैनधर्म को ग्रहण किया, कितनों ने मुनिव्रत, कितनों ने श्रावकव्रत और कितनों ने केवल सम्यग्दर्शन ही लिया॥२-९॥
    जिन भगवान् के चरण-कमल परम सुख के देने वाले हैं और संसारसमुद्र से पार करने वाले हैं, इसलिए भव्यजनों को उचित है कि वे सुख प्राप्ति के लिए उनकी पूजा करें, स्तुति करें, ध्यान करें, स्मरण करें ॥१०॥
  17. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब प्रकार सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर धर्म में प्रेम करने वाले नागदत्त की कथा लिखी जाती है ॥ १ ॥
    उज्जैन के राजा धर्मपाल थे। उनकी रानी का नाम धर्मश्री था । धर्मश्री धर्मात्मा और बड़ी उदार प्रकृति की स्त्री थी। यहाँ एक सागरदत्त नाम का सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के नागदत्त नाम का एक लड़का था । नागदत्त भी अपनी माता की तरह धर्मप्रेमी था। धर्म पर उसकी अचल श्रद्धा थी। इसका ब्याह समुद्रदत्त सेठ की सुन्दर कन्या प्रियंगुश्री के साथ बड़े ठाटबाट से हुआ। ब्याह में खूब दान दिया गया। पूजा उत्सव किया गया । दीन-दुःखियों की अच्छी सहायता की गई। प्रियंगुश्री को उसके मामा का लड़का नागसेन चाहता था और सागरदत्त ने उसका ब्याह कर दिया नागदत्त के साथ। इससे नागसेन को बड़ा ना - गवार मालूम हुआ । सो उसने बेचारे नागदत्त के साथ शत्रुता बाँध ली और उसे कष्ट देने का मौका ढूँढ़ने लगा ॥२-६॥
    एक दिन उपासा नागदत्त धर्मप्रेम से जिन मन्दिर में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था। उसे नागसेन ने देख लिया। सो इस दुष्ट ने अपनी शत्रुता का बदला लेने के लिए एक षड्यन्त्र रचा। गले में से अपना हार निकाल कर उसने नागदत्त के पाँवों के पास रख दिया और हल्ला कर दिया कि मेरा हार चुराकर लिए जा रहा था, सो मैंने इसके पीछे दौड़कर इसे पकड़ लिया । अब ढोंग बनाकर ध्यान करने लग गया, ,जिससे यह पकड़ा न जाये । नागसेन का हल्ला सुनकर आसपास के बहुत से लोग इकट्ठे हो गए और सिपाही भी आ गए। नागदत्त पकड़ा गया उसे ले जाकर राजदरबार में उपस्थित किया गया। राजा ने नागदत्त की ओर से कोई प्रमाण न पाकर उसे मारने का हुक्म दे दिया। नागदत्त उसी समय बध्य-भूमि में ले जाया गया । उसका सिर काटने के लिए तलवार का जो वार उस पर किया गया, क्या आश्चर्य कि वह वार उसे ऐसा जान पड़ा मानों किसी ने उस पर फूलों की माला फेंकी हो। उसे जरा भी चोट न पहुँची और उसी समय आकाश से उस पर फूलों की वर्षा हुई जय धन्य धन्य, शब्दों से आकाश गूंज उठा। यह आश्चर्य देखकर सब लोग दंग रह गए। सच है- धर्मानुराग से सत्पुरुषों का, सहनशील महात्माओं का कौन उपकार नहीं करता । इस प्रकार जैनधर्म का सुखमय प्रभाव देखकर नागदत्त और धर्मपाल राजा बहुत प्रसन्न हुए। वे अब मोक्षसुख की इच्छा से संसार की सब माया-ममता को छोड़कर जिनदीक्षा ले साधु हो गए और बहुत से लोगों ने जो जैन नहीं थे, जैनधर्म को ग्रहण किया ॥७-१५॥
    संसार के बड़े-बड़े महापुरुषों से पूजे जाने वाले, जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश किया पवित्र धर्म, स्वर्ग-मोक्ष के सुख का कारण है इसी के द्वारा भव्यजन उत्तम से उत्तम सुख प्राप्त करते हैं । यही पवित्र धर्म कर्मों का नाश कर मुझे आत्मिक सच्चा सुख प्रदान करें ॥१६॥
  18. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    अतिशय निर्मल केवलज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर मनुष्य जन्म का मिलना कितना कठिन है, इस बात को दस दृष्टान्तों - उदाहरणों द्वारा खुलासा समझाया जाता है ॥१॥
    १. चोल्लक, २. पासा, ३. धान्य, ४. जुआ, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र, ८. कछुआ, ९. युग और १०. परमाणु।
    अब पहले ही चोल्लक दृष्टान्त लिखा जाता है, उसे आप ध्यान से सुनें ।
    १. चोल्लक
    संसार के हितकर्ता नेमिनाथ भगवान् को निर्वाण गए बाद अयोध्या में ब्रह्मदत्त बारहवें चक्रवर्ती हुए। उनके एक वीर सामन्त का नाम सहस्रभट था । सहस्रभट की स्त्री सुमित्रा के सन्तान में एक लड़का था। उसका नाम वसुदेव था । वसुदेव न तो कुछ पढ़ा-लिखा था और न राज-सेवा वगैरह की उसमें योग्यता थी । इसलिए अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी जगह इसे न मिल सकी, जो कि एक अच्छी प्रतिष्ठित जगह थी और यह सच है कि बिना कुछ योग्यता प्राप्त किए राज-सेवा आदि में आदर-मान की जगह मिल भी नहीं सकती। उसकी इस दशा पर माता को बड़ा दुःख हुआ । पर बेचारी कुछ करने-धरने को लाचार थी । वह अपनी गरीबी के कारण एक पुरानी गिरी - पड़ी झोपड़ी में रहने लगी और जिस किसी प्रकार अपना गुजारा चलाने लगी। उसने भावी आशा से वसुदेव से कुछ काम लेना शुरू किया। वह लड्डू, पेड़ा, पान आदि वस्तुएँ एक खोमचे में रखकर उसे आस-पास के गाँवों में भेजने लगी, इसलिए कि वसुदेव को कुछ परिश्रम करना आ जाए, वह कुछ होशियार हो जाए । ऐसा करने से सुमित्रा को सफलता प्राप्त हुई और वसुदेव कुछ सीख भी गया । उसे पहले की तरह अब निकम्मा बैठे रहना अच्छा न लगने लगा। सुमित्रा ने तब कुछ वसीला लगाकर वसुदेव को राजा का अंगरक्षक नियत करा दिया ॥२-९॥
    एक दिन चक्रवर्ती हवा-खोरी के लिए घोड़े पर सवार हो शहर बाहर हुए। जिस घोड़े पर वे बैठे थे वह बड़े दुष्ट स्वभाव को लिए था । सो जरा ही पाँव की एड़ी लगाने पर वह चक्रवर्ती को लेकर हवा हो गया। बड़ी दूर जाकर उसने उन्हें एक बड़ी भयावनी वन में ला गिराया। इस समय चक्रवर्ती बड़े कष्ट में थे। भूख-प्यास से उनके प्राण छटपटा रहे थे। पाठकों को स्मरण है कि इनके अंगरक्षक वासुदेव को उसकी माँ ने चलने-फिरने और दौड़ने-दुड़ाने के काम में अच्छा होशियार कर दिया था। यही कारण था कि जिस समय चक्रवर्ती को घोड़ा लेकर भागा, उस समय वसुदेव भी कुछ खाने-पीने की वस्तुएँ लेकर उनके पीछे-पीछे बेतहाशा भागा गया। चक्रवर्ती को आध-पौन घंटा वन में बैठे हुआ होगा कि इतने में वसुदेव भी उनके पास जा पहुँचा। खाने-पीने की वस्तुएँ उसने महाराज को भेंट की। चक्रवर्ती उससे बहुत सन्तुष्ट हुए। सच है, योग्य समय में थोड़ा भी दिया हुआ सुख का कारण होता है। जैसे बुझते हुए दीप में थोड़ा भी तेल डालने से वह झट से तेज हो उठता है। चक्रवर्ती ने खुश होकर उससे पूछा तू कौन है? उत्तर में वसुदेव ने कहा- महाराज, सहस्रभट सामन्त का मैं पुत्र हूँ, चक्रवर्ती फिर विशेष कुछ पूछताछ करके चलते समय उसे एक रत्नमयी कंकण देते गए ॥१०-१४॥
    अयोध्या में पहुँचा कर ही उन्होंने कोतवाल से कहा- मेरा कड़ा खो गया है, उसे ढूँढ़कर पता लगाइए। राजाज्ञा पाकर कोतवाल उसे ढूँढ़ने को निकला । रास्ते में एक जगह इसने वसुदेव को कुछ लोगों के साथ कड़े के सम्बन्ध की ही बात-चीत करते पाया। कोतवाल तब उसे पकड़ कर राजा के पास लिवा ले गया। चक्रवर्ती उसे देखकर बोले- मैं तुझ पर बहुत खुश हूँ । तुझे जो चाहिए वही माँग ले। वसुदेव बोला-महाराज, इस विषय में मैं कुछ नहीं जानता कि मैं आपसे क्या माँगूं। यदि आप आज्ञा करें तो मेरी माँ से पूछ आऊँ । चक्रवर्ती के कहने से वह अपनी माँ के पास गया और उसे पूछ आकर चक्रवर्ती से उसने प्रार्थना की महाराज, आप मुझे चोल्लक भोजन कराइए। उससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। तब चक्रवर्ती ने उनसे पूछा- भाई, चोल्लक भोजन किसे कहते हैं? हमने तो उसका नाम भी आज तक नहीं सुना । वसुदेव ने कहा - सुनिए महाराज, पहले तो बड़े आदर के साथ आपके महल में मुझे भोजन कराया जाए और खूब अच्छे-अच्छे सुन्दर कपड़े, गहने - दागीने दिये जायें। इसके बाद उसकी तरह आपकी रानियों के महलों में क्रम-क्रम से मेरा भोजन हो । फिर आपके परिवार तथा मण्डलेश्वर राजाओं के यहाँ मुझे इसी प्रकार भोजन कराया जाए। इतना सब हो चुकने पर क्रम-क्रम से फिर आप ही के यहाँ मेरा अन्तिम भोजन हो । महाराज, मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपकी आज्ञा से मुझे यह सब प्राप्त हो सकेगा ॥ १५-२३॥
    भव्यजनों! इस उदाहरण से यह शिक्षा लेने की है कि यह चोल्लक भोजन वसुदेव सरीखे कंगाल को शायद प्राप्त हो भी जाए तो भी इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं, पर एक बार प्रमाद से खो-दिया गया मनुष्य जन्म बेशक अत्यन्त दुर्लभ है। फिर लाख प्रयत्न करने पर भी वह सहसा नहीं मिल सकता । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे दुःख के कारण खोटे मार्ग को छोड़कर जैनधर्म का शरण लें, जो कि मनुष्य जन्म की प्राप्ति और मोक्ष का प्रधान कारण है ॥२४-२५॥
    २. पाशे का दृष्टान्त
    मगध देश में शतद्वार नाम का एक अच्छा शहर था उसके राजा का नाम शतद्वार था। शतद्वार ने अपने शहर में एक ऐसा देखने योग्य दरवाजा बनवाया, कि जिसमें ग्यारह हजार खंभे थे। उन एक-एक खम्भे में छियानवे ऐसे स्थान बने हुए थे जिनमें जुआरी लोग पाशे द्वारा सदा जुआ खेला करते थे। एक शिवशर्मा नाम के ब्राह्मण ने उन जुआरियों से प्रार्थना की- भाइयों, मैं बहुत ही गरीब हूँ, इसलिए यदि आप मेरा इतना उपकार करें, कि आप सब खेलने वालों का दाव यदि किसी समय एक ही सा पड़ जाए और वह सब धन-माल आप मुझे दे दें, तो बहुत अच्छा हो। जुआरियों ने शिवशर्मा की प्रार्थना स्वीकार कर ली । इसलिए कि उन्हें विश्वास था कि ऐसा होना नितान्त ही कठिन है, बल्कि असंभव है । पर दैवयोग ऐसा हुआ कि एक बार सबका दाव एक ही सा पड़ गया और उन्हें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सब धन शिवशर्मा को दे देना पड़ा। वह उस धन को पाकर बहुत खुश हुए। इस दृष्टान्त से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जैसा योग शिवशर्मा को मिला था, वैसा योग मिलकर और कर्मयोग से इतना धन भी प्राप्त हो जाए तो कोई बात नहीं, परन्तु जो मनुष्य जन्म एक बार प्रमाद वश हो नष्ट कर दिया जाए तो वह फिर सहज में नहीं मिल सकता। इसलिए सत्पुरुषों को निरन्तर ऐसे पवित्र कार्य करते रहना चाहिए, जो मनुष्य - जन्म या स्वर्ग - मोक्ष के प्राप्त कराने वाले हैं ऐसे कर्म हैं-जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करना, दान देना, परोपकार करना, व्रतों का पालना, ब्रह्मचर्य से रहना और उपवास करना आदि ॥२६-३४॥
    ३. धान्य दृष्टान्त
    एक बड़ा भारी गड्डा खोदा जाकर वह सरसों से भर दिया जाये ॥३५॥
    उसमें से फिर रोज-रोज एक-एक सरसों निकाली जाया करे। ऐसा निरन्तर करते रहने से एक दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस दिन वह कुण्ड सरसों से खाली हो जायेगा । पर यदि प्रमाद से यह जन्म नष्ट हो गया तो वह समय फिर आना एक तरह असम्भव ही हो जायेगा, जिनमें कि मनुष्य जन्म मिल सके। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे प्राप्त हुए मनुष्य जन्म को निष्फल न खोकर जिनपूजा, व्रत, दान, परोपकारादि पवित्र कामों में लगावें, क्योंकि ये सब परम्परा मोक्ष के साधन हैं ॥३६-३७॥
    धान्य का दूसरा दृष्टान्त
    अयोध्या के राजा प्रजापाल पर राजगृह के जितशत्रु राजा ने एक बार चढ़ाई की और सारी अयोध्या को सब ओर से घेर लिया। तब राजा ने अपनी प्रजा से कहा- जिसके यहाँ धान के जितने बोरे हों, उन सब बोरों को लाकर और गिनती करके मेरे कोठों में सुरक्षित रख दें। मेरी इच्छा है कि शत्रु को एक अन्न का दाना भी यहाँ से प्राप्त न हो। ऐसी हालत में उसे झखमार कर लौट जाना पड़ेगा। सारी प्रजा ने राजा की आज्ञानुसार ऐसा ही किया । जब अभिमानी शत्रु को अयोध्या से अन्न न मिला तब थोड़े ही दिनों में उसकी अकल ठिकाने पर आ गई। उसकी सेना भूख के मारे मरने लगी। आखिर जितशत्रु को लौट जाना ही पड़ा। जब शत्रु अयोध्या का घेरा उठा चल दिया तब प्रजा ने राजा से अपने-अपने धान के ले जाने की प्रार्थना की। राजा ने कह दिया कि हाँ अपना-अपना धान पहचान कर सब लोग ले जायें। कभी कर्मयोग से ऐसा हो जाना भी सम्भव है, पर यदि मनुष्य जन्म एक बार व्यर्थ नष्ट हो गया तो उसका पुनः मिलना अत्यन्त ही कठिन है। इसलिए इसे व्यर्थ खोना उचित नहीं । इसे तो सदा शुभ कामों में ही लगाये रहना चाहिए ॥३८-४५॥
    ४. जुआ का दृष्टान्त
    शतद्वारपुर में पाँच सौ सुन्दर दरवाजे हैं। उन एक-एक दरवाजों में जुआ खेलने के पाँच-पाँच सौ अड्डे हैं, उन एक-एक अड्डों में पाँच-पाँच सौ जुआरी लोग जुआ खेलते हैं। उनमें एक चयी नाम का जुआरी है। ये सब जुआरी कौड़ियाँ जीत-जीत कर अपने-अपने गाँवों में चले गए। चयी वहीं रहा । भाग्य से इन सब जुआरियों का और इस चयी का फिर भी कभी मुकाबला होना सम्भव है, पर नष्ट हुए मनुष्य-जन्म का पुण्यहीन पुरुषों को फिर सहसा मिलना दरअसल कठिन है ॥४६-५०॥
    जुआ का दूसरा दृष्टान्त
    इसी शतद्वारपुर में निर्लक्षण नाम का एक जुआरी था । उसके इतना भारी पापकर्म का उदय था कि वह स्वप्न में भी कभी जीत नहीं पाता था । एक दिन कर्मयोग से वह भी खूब धन जीता । जीतकर उस धन को उसने याचकों को बाँट दिया। वे सब धन लेकर चारों दिशाओं में जिसे जिधर जाना था उधर चले गए। वे सब लोग दैवयोग से फिर भी कभी इकट्ठे हो सकते हैं, पर गया जन्म फिर हाथ आना दुष्कर है। इसलिए जब तक मोक्ष न मिले तब तक यह मनुष्य - जन्म प्राप्त होता रहे, इसके लिए धर्म की शरण सदा लिए रहना चाहिए ॥५१-५४॥
    ५. रत्न-दृष्टान्त
    भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, सुभौम, महापद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती इनके मुकुटों में जड़े हुए मणि, जिन्हें स्वर्गों के देव ले गए हैं और वे चौदह रत्न, नौ निधि तथा सब देव, ये सब कभी इकट्ठे नहीं हो सकते; इसी तरह खोया हुआ मनुष्य जीवन पुण्यहीन पुरुष कभी प्राप्त नहीं कर सकते। यह जानकर बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्तव्य है कि वे मनुष्य जीवन प्राप्त करने के कारण जैनधर्म को ग्रहण करें ॥५५-६०॥
    ६. स्वप्न-दृष्टान्त
    उज्जैन में एक लकड़हारा रहता था। वह जंगल में से लकड़ी काट कर लाता और बाजार में बेच दिया करता था। उसी से उसका गुजारा चलता था । एक दिन वह लकड़ी का गट्ठा सिर पर लादे आ रहा था। ऊपर से बहुत गरमी पड़ रही थी । सो वह एक वृक्ष की छाया में सिर पर का गट्ठा उतार कर वहीं सो गया। ठंडी हवा बह रही थी। सो उसे नींद आ गई। उसने एक सपना देखा कि वह सारी पृथ्वी का मालिक चक्रवर्ती हो गया। हजारों नौकर-चाकर उसके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं। जो वह आज्ञा- हुक्म करता है वह सब उसी समय बजाया जाता है । यह सब कुछ हो रहा था इतने में उसकी स्त्री ने आकर उसे उठा दिया। बेचारे की सब सपने की सम्पत्ति आँख खोलते ही नष्ट हो गई उसे फिर वही लकड़ी का गट्ठा सिर पर लादना पड़ा। जिस तरह वह लकड़हारा स्वप्न में चक्रवर्ती बन गया, पर जगने पर रहा लकड़हारा का लकड़हारा ही । उसके हाथ कुछ भी धन-दौलत न लगी। ठीक इसी तरह जिसने एक बार मनुष्य जन्म प्राप्त कर व्यर्थ गँवा दिया उस पुण्यहीन मनुष्य के लिए फिर वह मनुष्य-जन्म जागृतदशा में लकड़हारे को न मिलने वाली चक्रवर्ती की सम्पत्ति की तरह असम्भव है ॥६१-६४॥
    ७. चक्र-दृष्टान्त
    अब चक्र-दृष्टान्त कहा जाता है। बाईस मजबूत खम्भे हैं। एक-एक खम्भे पर एक-एक चक्र लगा हुआ है, एक-एक चक्र में हजार-हजार आरे हैं उन आरों में एक-एक छेद है। चक्र सब उल्टे घूम रहे हैं। पर जो वीर पुरुष हैं वे ऐसी हालत में भी उन खम्भों पर की राधा को वेध देते हैं। काकन्दी के राजा द्रुपद की कुमारी का नाम द्रौपदी था । वह बड़ी सुन्दरी थी । उसके स्वयंवर में अर्जुन ने ऐसी ही राधा वेध कर द्रौपदी को ब्याहा था । सो ठीक ही है पुण्य के उदय से प्राणियों को सब कुछ प्राप्त हो सकता है। यह सब योग कठिन होने पर भी मिल सकता है, पर यदि प्रमाद से मनुष्य जन्म एक बार नष्ट कर दिया जाए तो उसका मिलना बेशक कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है । वह प्राप्त होता है पुण्य से, इसलिए पुण्य के प्राप्त करने का यत्न करना अत्यन्त आवश्यक है ॥६५-७०॥
    ८. कछुए का दृष्टान्त
    सबसे बड़े स्वयंभूरमण समुद्र को एक बड़े भारी चमड़े में छोटा-सा छेद करके उससे ढक दीजिए। समुद्र में घूमते हुए एक कछुए ने कोई एक हजार वर्ष बाद उस चमड़े के छोटे से छेद में से सूर्य को देखा। वह छेद उससे फिर छूट गया । भाग्य से यदि फिर कभी ऐसा ही योग मिल जाए कि वह उस छिद्र पर फिर भी आ पहुँचे और सूर्य को देख ले, पर यदि मनुष्य-जन्म इसी तरह प्रमाद से नष्ट हो गया तो सचमुच ही उसका मिलना बहुत कठिन है ॥७१ - ७४॥
    ९. युग का दृष्टान्त
    दो लाख योजन चौड़े पूर्व के लवणसमुद्र में युग (धुरा) के छेद से गिरी हुई समिलाका पश्चिम समुद्र में बहते हुए युग (धुरा) के छेद में समय पाकर प्रवेश कर जाना सम्भव है, पर प्रमाद या विषयभोगों द्वारा गँवाया हुआ मनुष्य जीवन पुण्यहीन पुरुषों के लिए फिर सहसा मिलना असम्भव है। इसलिए जिन्हें दुःखों से छूटकर मोक्ष सुख प्राप्त करना है उन्हें तब तक ऐसे पुण्यकर्म करते रहना चाहिए कि जिनसे मोक्ष होने तक बराबर मनुष्य जीवन मिलता रहे ॥७५ -७८॥
    १०. परमाणु दृष्टान्त
    चार हाथ लम्बे चक्रवर्ती के दण्डरत्न के परमाणु बिखर कर दूसरी अवस्था को प्राप्त कर लें और फिर वे ही परमाणु दैवयोग से फिर कभी दण्डरत्न के रूप में आ जाएँ तो असम्भव नहीं, पर मनुष्य पर्याय यदि एक बार दुष्कर्मों द्वारा व्यर्थ खो दिया तो इसका फिर उन अभागे जीवों को प्राप्त हो जाना जरूर असम्भव है। इसलिए पण्डितों को मनुष्य पर्याय की प्राप्ति के लिए पुण्यकर्म करना कर्तव्य है॥७९-८१॥
    इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जीवन को अत्यन्त दुर्लभ समझ कर बुद्धिमानों को उचित है कि वे मोक्ष सुख के लिए संसार के जीवमात्र के हित करने वाले पवित्र जैनधर्म को ग्रहण करें ॥८२॥
  19. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन्हें स्वर्ग के देव पूजते हैं उन जिन भगवान् को नमस्कार कर दूसरों के दोषों को न देखकर गुण ग्रहण करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र धर्म-प्रेम के वश हो गुणवान् पुरुषों की अपने सभा में प्रशंसा कर रहा था। उस समय उसने कहा- जिस पुरुष का जिस महात्मा का हृदय इतना उदार है कि वह दूसरों के बहुत से गुणों पर बिल्कुल ध्यान न देकर उसमें रहने वाले गुणों के थोड़े भी हिस्से को खूब बढ़ाने का यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ गुणों के ग्रहण करने की ओर है वह पुरुष, वह महात्मा संसार में सबसे श्रेष्ठ है, उसी का जन्म भी सफल है। इन्द्र के मुँह से इस प्रकार दूसरों की प्रशंसा सुन एक मौजी ले देव ने उससे पूछा-देवराज, जैसा इस समय आपने गुणग्राहक पुरुष की प्रशंसा की है, क्या ऐसा कोई बड़भागी पृथ्वी पर है । इन्द्र ने उत्तर में कहा- हाँ हैं और वे अन्तिम वासुदेव द्वारका के स्वामी श्रीकृष्ण । सुनकर वह देव उसी समय पृथ्वी पर आया। इस समय श्रीकृष्ण नेमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ जा रहे थे । उनकी परीक्षा के लिए यह मरे कुत्ते का रूप ले रास्ते में पड़ गया। उसके शरीर से बड़ी ही दुर्गन्ध भभक रही थी । आने-जाने वालों के लिए इधर- उधर होकर आना-जाना मुश्किल हो गया था। उसकी उस असह दुर्गन्ध के मारे श्रीकृष्ण के साथी सब भाग खड़े हुए। उसी समय वह देव एक दूसरे ब्राह्मण का रूप लेकर श्रीकृष्ण के पास आया और उस कुत्ते की बुराई करने लगा, उसके दोष दिखाने लगा । श्रीकृष्ण ने उसकी सब बातें सुन- सुनाकर कहा - अहा! देखिये, इस कुत्ते के दाँतों की श्रेणी स्फटिक के समान कितनी निर्मल और सुन्दर है । श्रीकृष्ण ने कुत्ते के और दोषों पर उसकी दुर्गन्ध आदि पर कुछ ध्यान न देकर उसके दाँतों की, उसमें रहने वाले थोड़े से भी अच्छे भाग की उल्टी प्रशंसा ही की । श्रीकृष्ण की पशु के लिए इतनी उदार बुद्धि देखकर वह देव बहुत खुश हुआ । उसने फिर प्रत्यक्ष होकर सब हाल श्रीकृष्ण से कहा- और उचित आदर मान करके आप अपने स्थान चला गया ॥२- ११॥
    इसी तरह अन्य जिन भगवान् के भक्त भव्यजनों को भी उचित है कि वे दूसरों के दोषों को छोड़कर सुख की प्राप्ति के लिए प्रेम के साथ उनके गुणों को ग्रहण करने का यत्न करें । इसी से वे गुणज्ञ और प्रशंसा के पात्र कहे जा सकेंगे ॥१२॥
  20. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञान जिनका नेत्र है ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर हरिषेण चक्रवर्ती की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    अंगदेश के सुप्रसिद्ध कांपिल्य नगर के राजा सिंहध्वज थे । इनकी रानी का नाम प्रिया था । कथानायक हरिषेण इन्हीं का पुत्र था । हरिषेण बुद्धिमान् था, शूरवीर था, सुन्दर था, दानी था और बड़ा तेजस्वी था। सब उसका बड़ा मान - आदर करते थे ॥२-३॥
    हरिषेण की माता धर्मात्मा थी । भगवान् पर उसकी अचल भक्ति थी । यही कारण था कि वह अठाई के पर्व में सदा जिन भगवान् का रथ निकलवाया करती और उत्सव मनाती। सिंहध्वज की दूसरी रानी लक्ष्मीमती को जैनधर्म पर विश्वास न था । वह सदा उसकी निन्दा करती थी। एक बार उसने अपने स्वामी से कहा- आज पहले मेरा भगवान् का रथ शहर में घूमे ऐसी आप आज्ञा दीजिए, सिंहध्वज ने इसका परिणाम क्या होगा, इस पर कुछ विचार न कर लक्ष्मीमती का कहा मान लिया। पर जब धर्मवत्सल वप्रा रानी को इस बात की खबर मिली तो उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने उसी समय प्रतिज्ञा की कि मैं खाना-पीना तभी करूँगी जब कि मेरा रथ पहले निकलेगा। सच है- सत्पुरुषों को धर्म ही शरण होता है, उनकी धर्म तक ही दौड़ होती है ॥४-८॥
    हरिषेण इतने में भोजन करने को आया । उसने सदा की भाँति आज अपनी माता को हँस - मुख न देखकर उदास मन देखा। इससे उसे बड़ा खेद हुआ। माता क्यों दुःखी हैं, इसका कारण जब उसे जान पड़ा तब वह एक पलभर भी फिर वहाँ न ठहर कर घर से निकल पड़ा। यहाँ से चलकर वह एक चोरों के गाँव में पहुँचा। इसे देखकर एक तोता अपने मालिकों से बोला- जो कि चोरों का सिखाया- पढ़ाया था, देखिये, यह राजकुमार जा रहा है, इसे पकड़ो। तुम्हें लाभ होगा । तोते के इस प्रकार कहने पर किसी चोर का ध्यान न गया । इसलिए हरिषेण बिना किसी आफत के आए यहाँ से निकल गया। सच है, दुष्टों की संगति पाकर दुष्टता आती ही है। फिर ऐसे जीवों से कभी किसी का हित नहीं होता ॥९-११॥
    यहाँ से निकल कर हरिषेण फिर एक शतमन्यु नाम के तापसी के आश्रम में पहुँचा। वहाँ भी एक तोता था परन्तु यह पहले तोते सा दुष्ट न था । इसलिए उसने हरिषेण को देखकर मन में सोचा कि जिसके मुँह पर तेजस्विता और सुन्दरता होती है उसमें गुण अवश्य ही होते हैं। यह जाने वाला भी कोई ऐसा ही पुरुष होना चाहिए। इसके बाद ही उसने अपने मालिक तापसियों से कहा-वह राजकुमार जा रहा है। इसका आप लोग आदर करें। राजकुमार को बड़ा अचम्भा हुआ। उसने पहले का हाल कह कर इस तोते से पूछा- क्यों भाई, तेरे भाई ने तो अपने मालिकों से मेरे पकड़ने को कहा था और तू अपने मालिक से मेरा मान - आदर करने को कह रहा है, इसका कारण क्या है? तोता बोला-अच्छा राजकुमार, सुनो मैं तुम्हें इसका कारण बतलाता हूँ । उस तोते की और मेरी माता एक ही है, हम दोनों भाई-भाई हैं । इस हालत में मुझमें और उसमें विशेषता होने का कारण यह है कि मैं इन तपस्वियों के हाथ पड़ा और वह चोरों के । मैं रोज-रोज इन महात्माओं की अच्छी-अच्छी बातें सुना करता हूँ और वह उन चोरों की बुरी - बुरी बातें सुनता है । इसलिए मुझमें और उसमें इतना अन्तर है। सो आपने अपनी आँखों से देख ही लिया कि दोष और गुण ये संगति के फल हैं। अच्छों की संगति से गुण प्राप्त होते हैं और बुरों की संगति से दुर्गुण ॥१२-१८॥
    इस आश्रम के स्वामी तापसी शतमन्यु पहले चम्पापुरी के राजा थे । उनकी रानी का नाम नागवती है। इनके जनमेजय नाम का एक पुत्र और मदनावती नाम की एक कन्या है । शतमन्यु अपने पुत्र को राज्य देकर तापसी हो गए। राज्य अब जनमेजय करने लगा। एक दिन जनमेजय से मदनावती के सम्बन्ध में एक ज्योतिषी ने कहा कि यह कन्या चक्रवर्ती का सर्वोच्च स्त्रीरत्न होगी और यह सच है कि ज्ञानियों का कहा कभी झूठा नहीं होता ॥१९-२१॥
    जब मदनावती की इस भविष्यवाणी की सब ओर खबर पहुँची तो अनेकों राजा लोग उसे चाहने लगे। उन्हीं में उड्रदेश का राजा कलकल भी था । उसने मदनावती के लिए उसके भाई से मँगनी की। उसकी यह मँगनी जनमेजय ने नहीं स्वीकारी। इससे कलकल को बड़ा ना - गवार गुजरा। उसने रुष्ट होकर जनमेजय पर चढ़ाई कर दी और चम्पापुरी के चारों ओर घेरा डाल दिया। सच है-काम से अन्धे हुए मनुष्य कौन काम नहीं कर डालते । जनमेजय भी ऐसा डरपोक राजा न था। उसने फौरन ही युद्धस्थल में आ-डटने की अपनी सेना को आज्ञा दी। दोनों ओर के वीर योद्धाओं की मुठभेड़ हो गई खूब घमासान युद्ध आरम्भ हुआ। इधर युद्ध छिड़ा और इधर नागवती अपनी लड़की मदनावती को साथ ले सुरंग के रास्ते से निकल भागी । वह इसी शतमन्यु के आश्रम में आयी। पाठकों को याद होगा कि यही शतमन्यु नागवती का पति है। उसने युद्ध का सब हाल शतमन्यु को कह सुनाया। शतमन्यु ने नागवती और मदनावती को अपने आश्रम में ही रख लिया ॥ २२ - २५॥
    हरिषेण राजकुमार का ऊपर जिकर आया है। उसका मदनावती पर पहले से ही प्रेम था। हरिषेण उसे बहुत चाहता था । यह बात आश्रमवासी तापसियों को मालूम पड़ जाने से उन्होंने हरिषेण को आश्रम से निकाल बाहर कर दिया । हरिषेण को इससे बुरा लगा, पर वह कुछ कर-धर नहीं सकता था। इसलिए लाचार होकर उसे चला जाना पड़ा। उसने चलते समय प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा इस पवित्र राजकुमारी के साथ ब्याह होगा तो मैं अपने सारे देश में चार - चार कोस दूरी पर अच्छे-अच्छे सुन्दर और विशाल जिनमन्दिर बनवाऊँगा, जो पृथ्वी को पवित्र करने वाले कहलायेंगे। सच है, उन लोगों के हृदय में जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति सदा रहा करती है जो स्वर्ग या मोक्ष का सुख प्राप्त करने वाले होते हैं ॥२६-२९॥
    प्रसिद्ध सिन्धुदेश के सिन्धुतट शहर के राजा सिन्धुनद और रानी सिन्धुमती के कोई सौ लड़कियाँ थी। ये सब बड़ी सुन्दर थीं । उन लड़कियों के सम्बन्ध में नैमित्तिक ने कहा था कि-ये सब राजकुमारियाँ चक्रवर्ती हरिषेण की स्त्रियाँ होंगी। ये सिन्धुनदी पर स्नान करने के लिए जायेंगीं । उसी समय हरिषेण भी यहीं आ जाएगा। तब परस्पर की चार आँखें होते ही दोनों ओर से प्रेम का बीज अंकुरित हो उठेगा ॥ ३०-३२॥
    नैमित्तिक का कहना ठीक हुआ । हरिषेण दूसरे राजाओं पर विजय करता हुआ उसी सिन्धुनदी के किनारे पर आकर ठहरा। उसी समय सिन्धुनद की कुमारियाँ भी यहाँ स्नान करने के लिए आई हुई थीं। प्रथम ही दर्शन में दोनों के हृदय में प्रेम का अंकुर फूटा और फिर वह क्रम से बढ़ता ही गया। सिन्धुनद से यह बात छिपी न रही। उसने प्रसन्न होकर हरिषेण के साथ अपनी लड़कियों का ब्याह कर दिया ॥३३ - ३४॥
    रात को हरिषेण चित्रशाला नाम के एक खास महल में सोया हुआ था । इसी समय एक वेगवती नाम की विद्याधरी आकर हरिषेण को सोता हुआ ही उठा ले चली। रास्ते में हरिषेण जग उठा। अपने को एक स्त्री कहीं लिए जा रही है, इस बात का मालूम होते ही उसे बड़ा गुस्सा आया। उसने तब उसे विद्याधरी को मारने के लिए घूँसा उठाया। उसे गुस्सा हुआ देख विद्याधरी डरी और हाथ जोड़ कर बोली-महाराज, क्षमा कीजिए । मेरी एक प्रार्थना सुनिए । विजयार्द्ध पर्वत पर बसे हुए सूर्योदर शहर के राजा इन्द्रधनु और रानी बुद्धिमती की एक कन्या है । उसका नाम जयचन्द्रा है। वह सुन्दर है, बुद्धिमती है और बड़ी चतुर है । पर उसमें एक दुर्गुण है और वह महा दुर्गुण है। वह यह कि उसे पुरुषों से बड़ा द्वेष है, पुरुषों को वह आँखों से देखना तक पसन्द नहीं करती। नैमित्तिक ने उसके सम्बन्ध में कहा है कि जो सिन्धुनद की सौ राजकुमारियों का पति होगा, वही इसका भी होगा । तब मैंने आपका चित्र ले जाकर उसे बतलाया । वह उसे देखकर बड़ी प्रसन्न हुई। उसका सब कुछ आप पर न्यौछावर हो चुका है । वह आपके सम्बन्ध की तरह-तरह की बातें पूछा करती है और बड़ी चाव से उन्हें सुनती है। आप का जिकर छिड़ते ही वह बड़े ध्यान से उसे सुनने लगती है। उसकी इन सब चेष्टाओं से जान पड़ता है कि उसका आप पर अत्यन्त प्रेम है। यही कारण है कि मैं उसी की आज्ञा से आपको उसके पास लिए जा रही हूँ । सुनकर हरिषेण बहुत खुश हुआ और फिर वह कुछ भी न बोलकर जहाँ उसे विद्याधरी लिवा गई, चला गया । वेगवती ने हरिषेण को इन्द्रधनु के महल पर ला रखा। हरिषेण के रूप और गुणों को देख कर सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई जयचन्द्रा के माता-पिता ने उसके ब्याह का भी दिन निश्चित कर दिया। जो दिन ब्याह का था उस दिन राजकुमारी जयचन्द्रा के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर ये दोनों हरिषेण पर चढ़ आए। इसलिए कि वह जयचन्द्रा को स्वयं ब्याहना चाहते थे। हरिषेण ने इनके साथ बड़ी वीरता से युद्ध कर उन्हें हराया। उस युद्ध में हरिषेण के हाथ जवाहरात और बहुत धन-दौलत लगी। वह चक्रवर्ती होकर अपने घर लौटा। रास्ते में उसने अपनी प्रेमिणी मदनावती से भी ब्याह किया । घर आकर फिर उसने अपनी माता की इच्छा पूरी की। पहले उसी का रथ चला। इसके बाद हरिषेण ने अपने देशभर में जिन मन्दिर बनवा कर अपनी प्रतिज्ञा को भी निबाहा । सच है - पुण्यवानों के लिए कोई काम कठिन नहीं ॥३५-४३॥
    वे जिनेन्द्र भगवान् सदा जय लाभ करें, जो देवादिकों द्वारा पूजा किए जाते हैं, गुणरूपी रत्नों की खान हैं, स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले है, संसार के प्रकाशित करने वाले निर्मल चन्द्रमा हैं केवलज्ञानी, सर्वज्ञ है और जिनके पवित्र धर्म का पालन कर भव्यजन सुख लाभ करते हैं ॥४४॥
  21. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर सुव्रत मुनिराज की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सौराष्ट्र देश की सुन्दर नगरी द्वारका में अन्तिम नारायण श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण की कई स्त्रियाँ थीं, पर उन सबमें सत्यभामा बड़ी भाग्यवती थी । श्रीकृष्ण का सबसे अधिक प्रेम उसी पर था। श्रीकृष्ण अर्धचक्री थे, तीन खण्ड के मालिक थे । हजारों राजा-महाराजा उनकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करते थे ॥२-३ ॥
    एक दिन श्रीकृष्ण नमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ समवसरण में जा रहे थे। रास्ते में इन्होंने तपस्वी श्रीसुव्रत मुनिराज को सरोग दशा में देखा। सारा शरीर उनका रोग से कष्ट पा रहा था। उनकी यह दशा श्रीकृष्ण से न देखी गई धर्म प्रेम से उनका हृदय अस्थिर हो गया। उन्होंने उसी समय एक जीवक नाम के प्रसिद्ध वैद्य को बुलाया और मुनि को दिखलाकर औषधि के लिए पूछा। वैद्य के कहे अनुसार सब श्रावकों के घरों में उन्होंने औषधि-मिश्रित लड्डूओं के बनवाने की सूचना करवा दी। थोड़े ही दिनों में इस व्यवस्था से मुनि को आराम हो गया, सारा शरीर फिर पहले सा सुन्दर हो गया । इस औषधिदान के प्रभाव से श्रीकृष्ण के तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ । सच है - सुख के कारण सुपात्रदान से संसार में सत्पुरुषों को सभी कुछ प्राप्त होता है ॥४-८॥
    निरोग अवस्था में सुव्रत मुनिराज को एक दिन देखकर श्रीकृष्ण बड़े खुश हुए। इसलिए कि उन्हें अपने काम में सफलता प्राप्त हुई । उनसे उन्होंने पूछा-भगवान्, अब अच्छे तो हैं? उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन्, शरीर स्वभाव से अपवित्र, नाश होने वाला और क्षण-क्षण में अनेक अवस्थाओं को बदलने वाला है, इसमें अच्छा और बुरापन क्या है? पदार्थों का जैसा परिवर्तन स्वभाव है उसी प्रकार यह कभी निरोग और कभी सरोग हो जाया करता है। मुझे इसके रोगी होने में न खेद है और न निरोग होने से हर्ष! मुझे तो अपने आत्मा से काम, जिसे कि मैं प्राप्त करने में लगा हुआ हूँ और जो मेरा परम कर्तव्य है। सुव्रत योगिराज की शरीर से इस प्रकार निस्पृहता देखकर श्रीकृष्ण को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने मुनि को नमस्कार कर उनकी बड़ी प्रशंसा की ॥९-१२॥
    पर जब मुनि की यह निस्पृहता जीवक वैद्य के कानों में पहुँची तो उन्हें इस बात का बड़ा दुःख हुआ, बल्कि मुनि पर उन्हें अत्यन्त घृणा हुई कि मुनि का मैंने इतना उपकार किया तब भी उन्होंने मेरे सम्बन्ध में तारीफ का एक शब्द भी न कहा ! इससे उन्होंने मुनि को बड़ा कृतघ्न समझ उनकी बहुत निन्दा की-बुराई की। इस मुनि निन्दा से उन्हें बहुत पाप का बन्ध हुआ । अन्त में जब उनकी मृत्यु हुई तब वे इस पाप के फल से नर्मदा के किनारे पर एक बन्दर हुए। सच है - अज्ञानियों को साधुओं के अचार-विचार, व्रत-नियमादि का कुछ ज्ञान तो होता नहीं है । व्यर्थ उनकी निन्दा-बुराई कर वे पापकर्म बाँध लेते हैं। इससे उन्हें दुःख उठाना पड़ता है ॥१३-१५॥
    एक दिन की बात है कि यह जीवक वैद्य का जीव बन्दर जिस वृक्ष पर बैठा हुआ था, उससे नीचे यही सुव्रत मुनिराज ध्यान कर रहे थे । इस समय उस वृक्ष की एक टहनी टूट कर मुनि पर गिरी । उसकी तीखी नोंक जाकर मुनि के पेट में घुस गई पेट का कुछ हिस्सा चिरकर उससे खून बहने लगा। मुनि पर जैसे ही उस बन्दर की नजर पड़ी उसे जातिस्मरण हो गया । वह पूर्व जन्म की शत्रुता भूलकर उसी समय दौड़ा और थोड़ी ही देर में बहुत से बन्दरों को बुला लाया। उन सबने मिलकर उस डाली को बड़ी सावधानी से खींचकर निकाल लिया और वैद्य के जीव ने पूर्व जन्म के संस्कार से जंगल से जड़ी-बूटी लाकर उसका रस उन मुनि के घाव पर निचोड़ दिया। उससे मुनि को शान्ति मिली। उस बन्दर ने भी उस धर्मप्रेम से बहुत पुण्यबंध किया । सच है, पूर्व जन्मों में जैसा अभ्यास किया जाता है, जैसा पूर्व जन्म का संस्कार होता है दूसरे जन्मों में भी उसका संस्कार बना रहता है और प्रायः जीव वैसा ही कार्य करने लगता है । बन्दर में - एक पशु में इस प्रकार दयाशीलता देखकर मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा तो उन्हें वैद्य के जीव के जन्म का सब हाल ज्ञात हो गया। उन्होंने तब उसे भव्य समझकर उसके पूर्वजन्म की सब कथा उसे सुनाई और धर्म का उपदेश किया। मुनि की कृपा से धर्म का पवित्र उपदेश सुनकर धर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा हो गई उसने भक्ति से सम्यक्त्व-व्रत पूर्वक अणुव्रतों को ग्रहण किया। उन्हें उसने बड़ी अच्छी तरह पाला भी । अन्त में वह सात दिन का संन्यास ले मरा। इस धर्म के प्रभाव से वह सौधर्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ। सच है, जैनधर्म से प्रेम करने वालों को क्या प्राप्त नहीं होता । देखिए, यह धर्म का ही तो प्रभाव था जिससे कि एक बन्दर -पशु देव हो गया इसलिए धर्म या गुरु से बढ़कर संसार में कोई सुख का कारण नहीं है ॥१६-२५॥
    वह जैनधर्म जय लाभ करे, संसार में निरन्तर चमकता रहे, जिसके प्रसाद से एक तुच्छ प्राणी भी देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की सम्पत्ति लाभ कर उसका सुख भोगकर अन्त में मोक्षश्री का अनन्त, अविनाशी सुख प्राप्त करता है । इसलिए आत्महित चाहने वाले बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्तव्य है कि वे मोक्षसुख के लिए परम पवित्र जैनधर्म के प्राप्त करने का और प्राप्त कर उसके पालने का सदा यत्न करें ॥२६॥
  22. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    उन जिन भगवान् को नमस्कार कर, जिनका कि केवलज्ञान एक सर्वोच्च नेत्र की उपमा धारण करने वाला है, न्यूनाधिक अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाली धरसेनाचार्य की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
    गिरनार पर्वत की एक गुफा में श्रीधरसेनाचार्य, जो कि जैनधर्मरूप समुद्र के लिए चन्द्रमा की उपमा धारण करने वाले हैं, निवास करते थे । उन्हें निमित्तज्ञान से जान पड़ा कि उनकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्रज्ञान की रक्षा के लिए कुछ अंगादि का ज्ञान करा दें । आचार्य ने तब तीर्थयात्रा के लिए आन्ध्रदेश के वेनातट नगर में आए हुए संघाधिपति महासेनाचार्य को एक पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा- ॥३-४॥
    'भगवान् महावीर का शासन अचल रहे, उसका सब देशों में प्रचार हो । लिखने का कारण यह है कि कलियुग में अंगादि का ज्ञान यद्यपि न रहेगा तथापि शास्त्रज्ञान की रक्षा हो, इसलिए कृपाकर आप दो ऐसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों को मेरे पास भेजिये, जो बुद्धि के बड़े तीक्ष्ण हों, स्थिर हों, सहनशील हों और जैनसिद्धान्त का उद्धार कर सकें ॥५-६॥
    आचार्य ने पत्र देकर एक ब्रह्मचारी को महासेनाचार्य के पास भेजा। महासेनाचार्य उस पत्र को पढ़कर बहुत खुश हुए। उन्होंने तब अपने संघ में से पुष्पदन्त और भूतबलि ऐसे दो धर्मप्रेमी और सिद्धान्त के उद्धार करने में समर्थ मुनियों को बड़े प्रेम के साथ धरसेनाचार्य के पास भेजा। ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्य के पास पहुँचने वाले थे। उसकी पिछली रात को धरसेनाचार्य को एक स्वप्न देख पड़ा। स्वप्न में उन्होंने दो हृष्टपुष्ट, सुडौल और सफेद बैलों को बड़ी भक्ति से अपने पाँवों में पड़ते देखा। इस उत्तम स्वप्न को देखकर आचार्य को जो प्रसन्नता हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वे ऐसा कहते हुए, कि सब सन्देहों के नाश करने वाली श्रुतदेवी - जिनवाणी सदा काल इस संसार में जल लाभ करे, उठ बैठे। स्वप्न का फल उनके विचार अनुसार ठीक निकला। सबेरा होते ही दो मुनियों ने जिनकी कि उन्हें चाह थी, आकर आचार्य के पाँवों में बड़ी भक्ति के साथ अपना सिर झुकाया और आचार्य की स्तुति की। आचार्य ने तब उन्हें आशीर्वाद दिया- तुम चिरकाल जीकर महावीर भगवान् के पवित्र शासन की सेवा करो । अज्ञान और विषयों के दास बने संसारी जीवों को ज्ञान देकर उन्हें कर्तव्य की ओर लगाओ। उन्हें सुझाओ कि अपने धर्म और अपने भाइयों के प्रति जो उनका कर्तव्य है उसे पूरा करें ॥७-१२ ॥
    इसके बाद आचार्य ने उन दोनों मुनियों को दो-तीन दिन तक अपने पास रखा और उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्तव्य बुद्धि का परिचय प्राप्त कर दोनों को दो विद्याएँ सिद्ध करने को दीं । आचार्य ने उनकी परीक्षा के लिए विद्या साधने के मन्त्रों के अक्षरों को कुछ न्यूनाधिक कर दिया था। आचार्य की आज्ञानुसार ये दोनों गिरनार पर्वत के एक पवित्र और एकान्त भाग में भगवान् नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र मन से विद्या सिद्ध करने को बैठे। मंत्र साधन की अवधि जब पूरी होने को आई तब दो देवियाँ उनके पास आयी । उन देवियों में एक देवी तो आँखों से अन्धी थी और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले हुए थे । देवियों के ऐसे रूप को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने सोचा देवों का तो ऐसा रूप होता नहीं, फिर यह क्यों? तब उन्होंने मंत्रों की जाँच की, मंत्रों को व्याकरण से उन्होंने मिलाया कि कहीं उनमें तो गलती न रह गई हो ? इनका अनुमान सच हुआ। मंत्रों की गलती उन्हें भास गई फिर उन्होंने उन्हें शुद्ध कर जपा | अब की बार दो देवियाँ सुन्दर वेष में उन्हें दीख पड़ी। गुरु के पास आकर तब उन्होंने अपना सब हाल कहा। धरसेनाचार्य उनका वृत्तान्त सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । आचार्य ने उन्हें सब तरह योग्य पा फिर खूब शास्त्राभ्यास कराया। आगे चलकर यही दो मुनिराज गुरुसेवा के प्रसाद से जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् बनकर सिद्धान्त के उद्धारकर्ता हुए। जिस प्रकार उन मुनियों ने शास्त्रों का उद्धार किया उसी प्रकार अन्य धर्मप्रेमियों को भी शास्त्रोद्धार या शास्त्रप्रचार करना उचित है ॥१३-२२॥
    श्रीमान् धरसेनाचार्य और जैनसिद्धान्त के समुद्र श्री पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य मेरी बुद्धि को स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले पवित्र जैनधर्म में लगावें; जो जीव मात्र का हित करने वाले और देवों द्वारा पूजा किए जाते हैं ॥२३॥ 
  23. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    निर्मल केवलज्ञान के धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर व्यंजनहीन अर्थ करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे। ये बड़े धर्मात्मा और जिन भगवान् के सच्चे भक्त थे । इनकी रानी का नाम पद्मश्री था। पद्मश्री सरल स्वभाववाली थी, सुन्दरी थी और कर्मों के नाश करने वाले जिनपूजा, दान, व्रत उपवास आदि पुण्यकर्म निरन्तर किया करती थी। मतलब यह कि जिनधर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी॥२-३॥
    सुरम्य देश के पोदनपुर का राजा सिंहनाद और महापद्म में कई दिनों की शत्रुता चली आ रही थी। इसलिए मौका पाकर महापद्म ने उस पर चढ़ाई कर दी । पोदनपुर में महापद्म ने एक 'सहस्रकूट ' नाम से प्रसिद्ध जिनमन्दिर देखा । मन्दिर की हजार खम्भों वाली भव्य और विशाल इमारत देखकर महापद्म बड़े खुश हुए। उनके हृदय में भी धर्मप्रेम का प्रवाह बहा। अपने शहर में भी एक ऐसे ही सुन्दर मन्दिर के बनवाने की इनकी इच्छा हुई तब उसी समय इन्होंने अपनी राजधानी में पत्र लिखा। उसमें इन्होंने लिखा- ॥४-७॥
    'बहुत जल्दी बड़े - बड़े एक हजार खम्भे इकट्ठे करना । पत्र बाँचने वाले ने इस भ्रम से पड़ा- "महास्तभसहस्त्रस्य कर्तव्यः संग्रहो ध्रुवम् ” ' स्तंभ' शब्द को 'स्तभ' समझकर उसने खम्भे की जगह एक हजार बकरों को इकट्ठा करने को कहा । ऐसा ही किया गया । तत्काल एक हजार बकरे मँगवाये जाकर वे अच्छे खाने पिला ने द्वारा पाले जाने लगे ॥८- १०॥
    जब महाराज लौटकर वापस आए तो उन्होंने अपने कर्मचारियों से पूछा कि मैंने जो आज्ञा की थी, उसकी तामील की गई ? उत्तर में उन्होंने 'जी हाँ' कहकर उन बकरों को महाराजा को दिखलाया। महापद्म देखकर सिर से पैर तक जल उठे। उन्होंने गुस्सा होकर कहा- मैंने तो तुम्हें एक हजार खम्भों को इकट्ठा करने को लिखा था, तुमने वह क्या किया? तुम्हारे इस अविचार की सजा मैं तुम्हें जीवनदण्ड देता हूँ ॥११-१२॥
    महापद्म की ऐसी कठोर सजा सुनकर वे बेचारे बड़े घबराये ! उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि महाराज, इसमें हमारा तो कुछ दोष नहीं हैं। हमें तो जैसा पत्र बाँचने वाले ने कहा, वैसा ही हमने किया। महाराज ने तब उसी समय पत्र बाँचने वाले को बुलाकर उसके इस गुरुत्तर अपराध को जैसी चाहिए वैसी सजा की। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे ज्ञान, ध्यान आदि कामों में कभी ऐसा प्रमाद न करें क्योंकि प्रमाद कभी सुख के लिए नहीं होता ॥ १३-१५॥
    जो सत्पुरुष भगवान् के उपदेश किए पवित्र और पुण्यमय ज्ञान का अभ्यास करेंगे वे फिर मोह उत्पन्न करने वाले प्रमाद को न कर सुख देने वाले जिनपूजा, दान, व्रत, उपवासादि धार्मिक कामों में अपनी बुद्धि को लगाकर केवलज्ञान का अनन्तसुख प्राप्त करेंगे ॥१६॥
  24. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ऐसे पाँच कल्याणों में स्वर्ग के देवों ने आकर जिनकी बड़ी भक्ति से पूजा की, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर अर्थहीन अर्थात् उल्टा अर्थ करने के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    वसुपाल अयोध्या के राजा थे। उनकी रानी का नाम वसुमती था । इनके वसुमित्र नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था । वसुपाल ने अपने पुत्र के लिखने-पढ़ने का भार एक गर्ग नाम के विद्वान् पंडित को सौंपकर उज्जैन के राजा वीरदत्त पर चढ़ाई कर दी। कारण वीरदत्त हर समय वसुपाल का मानभंग किया करता था और उनकी प्रजा को भी कष्ट दिया करता था। वसुपाल उज्जैन आकर कुछ दिनों तक शहर का घेरा डाले रहे। इस समय उन्होंने अपनी राज्य-व्यवस्था के सम्बन्ध का एक पत्र अयोध्या भेजा। उसी में अपने पुत्र के बाबत उन्होंने लिखा- ॥२-६॥
    “वसुमित्र के पढ़ाने - लिखाने का प्रबन्ध अच्छा करना, कोई त्रुटि न करना और उसके पढ़ाने वाले पंडित जी को खाने-पीने की कोई तकलीफ न हो - उन्हें घी, चावल, दूध-भात वगैरह खाने को दिया करना। पत्र पहुँचा। बाँचने वाले ने उसे ऐसा ही बाँचा । पर श्लोक में 'मसस्पृिक्तं एक शब्द है। इसका अर्थ करने में वह गलती कर गया। उसने इसे 'शालिभक्तं' का विशेषण समझ यह अर्थ किया कि घी, दूध और मसि' मिले चावल पंडित जी को खाने को देना ऐसा ही हुआ।”॥७-८॥
    स्याही काली होती है और कोयला भी काला, शायद इसी रंग की समानता से ग्रन्थकार ने कोयले की जगह मसि का प्रयोग कर दिया होगा? पर है आश्चर्य ! ग्रन्थकार ने इस श्लोक में मसि शब्द को अलग लिखा है, पर ऊपर के श्लोक में आए हुए 'मसिस्पृक्तं' शब्द का ऐसा जुदा अर्थ किसी तरह नहीं किया जा सकता । ग्रन्थकार की कमजोरी की हद है, जो उनकी रचना इतनी शिथिल दीख पड़ती है।
    जब बेचारे पंडित जी भोजन करने को बैठते तब चावलों में घी वगैरह के साथ थोड़ा कोयला भी पीसकर मिला दिया जाया करता था । जब राजा विजय प्राप्त कर लौटे तब उन्होंने पंडित जी से कुशल समाचार उत्तर में पूछा। उत्तर में पंडित जी ने कहा- राजाधिराज, आपके पुण्य प्रसाद से मैं हूँ तो अच्छी तरह, पर खेद है कि आपके कुल परम्परा की रीति के अनुसार मुझसे मसि-कोयला नहीं खाया जा सकता। इसलिए अब क्षमा कर आज्ञा दें तो बड़ी कृपा हो । राजा को पंडित जी की बात का बड़ा अचम्भा हुआ । उनकी समझ में न आया कि बात क्या है। उन्होंने फिर उसका खुलासा पूछा। जब सब बातें उन्हें ज्ञान पड़ी तब उन्होंने रानी से पूछा- मैंने तो अपने पत्र में ऐसी कोई बात न लिखी थी, फिर पंडित जी को ऐसा खाने को दिया जाकर क्यों तंग किया जाता था? रानी ने राजा के हाथ में उनका लिखा हुआ पत्र देकर कहा- आपके बाँचने वाले ने हमें यही मतलब समझाया था। इसलिए यह समझकर, कि ऐसा करने से राजा साहब का कोई विशेष मतलब होगा मैंने ऐसी व्यवस्था की थी । सुनकर को बड़ा गुस्सा आया । उन्होंने पत्र बाँचने वाले को उसी समय देश निकाले की सजा देकर उसे अपने शहर बाहर करवा दिया । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे लिखने- बाँचने में ऐसा प्रमाद का अर्थ कर अनर्थ न करें ॥९-१६ ॥
    यह विचार कर जो पवित्र आचरण के धारी और ज्ञान जिनका धन है ऐसे सत्पुरुष भगवान् के उपदेश किए हुए, पुण्य के कारण और यश तथा आनन्द को देने वाले ज्ञान - सम्यग्ज्ञान के प्राप्त करने का भक्तिपूर्वक यत्न करेंगे वे अनन्तज्ञानरूपी लक्ष्मी का सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे ॥१७॥
  25. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनके सर्व-श्रेष्ठ ज्ञान में यह सारा संसार परमाणु के समान देख पड़ता है, उन सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर निह्नव - जिस प्रकार जो बात हो उसे उसी प्रकार न कहना, उसे छुपाना, इस सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
    उज्जैन के राजा धृतिषेण की रानी मलयावती के चण्डप्रद्योत नाम का एक पुत्र था। वह जैसा सुन्दर था वैसा ही गुणवान् भी था। पुण्य के उदय से उसे सभी सुख सामग्री प्राप्त थी ॥३॥
    एक बार दक्षिण देश के वेनातट नगर में रहने वाले सोमशर्मा ब्राह्मण का कालसंदीव नाम का विद्वान् पुत्र उज्जैन में आया । वह कई भाषाओं का जानने वाला था । इसलिए धृतिषेण ने चण्डप्रद्योत को पढ़ाने के लिए उसे रख लिया। कालसंदीव ने चण्डप्रद्योत को कई भाषाओं का ज्ञान कराने के बाद एक म्लेच्छ-अनार्यभाषा को पढ़ाना शुरू किया । इस भाषा का उच्चारण बड़ा ही कठिन था। राजकुमार को उसके पढ़ने में बहुत दिक्कत पड़ा करती थी । एक दिन कोई ऐसा ही पाठ आया, जिसका उच्चारण बहुत क्लिष्ट था । राजकुमार से उसका ठीक-ठीक उच्चारण न बन सका । कालसन्दीव ने उसे शुद्ध उच्चारण कराने की बहुत कोशिश की, पर उसे सफलता प्राप्त न हुई इससे कालसन्दीव को कुछ गुस्सा आ गया। गुस्से में आकर उसने राजकुमार के एक लात मार दी । चण्डप्रद्योत था तो राजकुमार ही सो उसका भी कुछ मिजाज बिगड़ गया। उसने अपने गुरु महाराज से तब कहा-अच्छा महाराज, आपने जो मुझे मारा हैं, मैं भी इसका बदला लिए बिना न छोडूंगा। मुझे आप राजा होने दीजिये, फिर देखिएगा कि मैं भी आपके इसी पाँव को काटकर ही रहूँगा। सच है, बालक कम-बुद्धि हुआ ही करते हैं । कालसन्दीव कुछ दिनों तक और यहाँ रहा, फिर वह यहाँ से दक्षिण की ओर चला गया। उधर कालसन्दीव को एक दिन किसी मुनि का उपदेश सुनने का मौका मिला। उपदेश सुनकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । वह मुनि हो गया ॥४-९॥
    इधर धृतिषेण राजा भी चण्डप्रद्योत को सब राज-काज सौंपकर साधु बन गया। राज्य की बागडोर चण्डप्रद्योत के हाथ में आयी । इसमें कोई सन्देह नहीं कि चण्डप्रद्योत ने भी राज्य शासन बड़ी नीति के साथ चलाया। प्रजा के हित के लिए उसने कोई बात उठा न रखी ॥१०॥
    एक दिन चण्डप्रद्योत पर एक यवनराज का पत्र आया । भाषा उसकी अनार्य थी । उस पत्र को कोई राजकर्मचारी न बाँच सका। तब राजा ने उसे देखा तो वह उससे बच गया। पत्र पढ़कर राजा की अपने गुरु कालसन्दीव पर बड़ी भक्ति हो गई। उसने बचपन की अपनी प्रतिज्ञा को उसी समय भुला दिया। इसके बाद राजा ने कालसन्दीव का पता लगाकर उन्हें अपने शहर बुलाया और बड़ी भक्ति से उनके चरणों की पूजा की। सच है, गुरुओं के वचन भव्यजनों को उसी तरह सुख देने वाले होते हैं जैसे रोगी को औषधि ॥११- १४॥
    कालसन्दीव मुनि यहाँ श्वेतसन्दीव नाम के किसी एक भव्य को दीक्षा देकर फिर बिहार कर गए। मार्ग में पड़ने वाले शहरों और गाँवों में उपदेश करते हुए वे विपुलाचल पर महावीर भगवान् के समवसरण में गए, जो कि बड़ी शान्ति देने वाला था। भगवान् के दर्शन कर उन्हें बहुत शान्ति मिली। वन्दना कर भगवान् का उपदेश सुनने के लिए वे वहीं बैठ गए ॥१५-१७॥
    श्वेतसन्दीव मुनि भी इन्हीं के साथ थे। वे आकर समवसरण के बाहर आतापन योग द्वारा तप करने लगे। भगवान् के दर्शन कर जब महामण्डलेश्वर श्रेणिक जाने लगे तब उन्होंने श्वेतसन्दीव मुनि को देखकर पूछा- आपके गुरु कौन है; किनसे आपने यह दीक्षा ग्रहण की? उत्तर में श्वेतसंदीव मुनि ने कहा- राजन्, मेरे गुरु श्रीवर्धमान भगवान् है । इतना कहना था कि उनका सारा शरीर काला पड़ गया। यह देख श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने जाकर गणधर भगवान् से इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा-श्वेतसन्दीव के असल गुरु हैं कालसंदीव, जो कि यहीं बैठे हुए हैं। उनका इन्होंने निह्नव किया-सच्ची बात न बतलाई इसलिए उनका शरीर काला पड़ गया है। तब श्रेणिक ने श्वेतसंदीव को समझा कर उनकी गलती उन्हें सुझाई और कहा - महाराज, आपकी अवस्था के योग्य ऐसी बातें नहीं हैं ऐसी बातों से पाप बन्ध होता है इसलिए आगे से आप कभी ऐसा न करेंगे, यह मेरी आपसे प्रार्थना है। श्रेणिक की इस शिक्षा का श्वेतसंदीव मुनि के चित्त पर बड़ा गहरा असर पड़ा। वे अपनी भूल पर बहुत पछताये। इस आलोचना से उनके परिणाम बहुत उन्नत हुए। यहाँ तक कि उसी समय शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया। वे सारे संसार द्वारा अब पूजे जाने लगे । अन्त में अघातिया कर्मों को नष्ट कर उन्होंने मोक्ष का अनन्त सुख लाभ किया । श्वेतसंदीव मुनि के इस वृत्तान्त से भव्यजनों को शिक्षा लेनी चाहिए कि वे अपने गुरु आदि का निह्नव न करें क्योंकि गुरु स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले हैं, इसलिए सेवा करने योग्य हैं ॥१८-२६॥
    वे श्रीश्वेतसंदीव मुनि मेरे बढ़ते हुए संसार की - भव - भ्रमण की शान्ति कर-मेरा संसार का भटकना मिटाकर मुझे कभी नाश न होने वाला और अन्त मोक्ष - सुख दें, जो केवलज्ञानरूपी अपूर्व नेत्र के धारक हैं, भव्यजनों को हित की ओर लगाने वाले हैं, देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूज्य है और अनन्तचतुष्टय - अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त हैं तथा और भी अनन्त गुणों के समुद्र हैं ॥२७॥
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