- Read more...
- 0 comments
- 724 views
-
Posts
2,455 -
Joined
-
Last visited
-
Days Won
327
Content Type
Profiles
Forums
Events
Jinvani
Articles
दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव
शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)
Downloads
Gallery
Blogs
Musicbox
Blog Entries posted by admin
-
क्र.स. तीर्थ क्षेत्र का नाम Name of the Tirth क्षेत्र 1 सूर्यपहाड़ Suryapahad अतिशय क्षेत्र -
क्र.स. तीर्थ क्षेत्र का नाम Name of the Tirth क्षेत्र 1 कुलचारम् Kulcharam अतिशय क्षेत्र - Read more...
- 0 comments
- 807 views
-
क्र.स. तीर्थ क्षेत्र का नाम Name of the Tirth क्षेत्र 1 आरा Arrah अतिशय क्षेत्र 2 बासोकुण्ड (वैशाली) Basokund (Vaishali) कल्याणक क्षेत्र 3 चम्पापुर Champapur सिद्ध क्षेत्र 4 गुणावाँजी Gunawaji सिद्ध क्षेत्र 5 कमलदहजी Kamaldahji सिद्ध क्षेत्र 6 कुण्डलपुर Kundalpur कल्याणक क्षेत्र 7 कुण्डलपुर-नंद्यावर्त महल Kundalpur-Nandyavart Mahal कल्याणक क्षेत्र 8 मन्दारगिर Mandargir सिद्ध क्षेत्र 9 पावापुरी Pawapuri सिद्ध क्षेत्र 10 राजगिरजी Rajgirji सिद्ध क्षेत्र 11 वैशाली Vaishali अतिशय क्षेत्र - Read more...
- 0 comments
- 2,020 views
-
माननीय पद्मश्री डा.आर .के .जैन उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष बने। भारत का पहला राज्य जिसमे प्रथम बार किसी जैन को अल्प संख्यक आयोग का अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला। माननीय प्रधानमंत्री भारत सरकार एवं मुख्यमंत्री उत्तराखंड सरकार को सम्पूर्ण जैन समाज की ओर से आभार एवम धन्यवाद।
- Read more...
- 0 comments
- 400 views
-
An initiative for Jain Ekta
जैन समाज के सशक्तिकरण का प्रयास
www.jainsamaj.vidyasagar.guru
Phase 1. Connecting Jain Industrialists, Businessmen & Professionals.
Register http://jainsamaj.vidyasagar.guru/register/
Join Collaborate, communicate and help the Jain community grow together
lets together, share the best practice and create the knowledge
1 Jain Accountants & Finance Professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/167-jain-accountants-finance-professionals/
2 Jain Actuary professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/168-jain-actuary-professionals/
3 Jain Agents & Brokers
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/169-jain-agents-brokers/
4 Jain Bloggers Authors & Translators
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/170-jain-bloggers-authors-translators/
5 Jain Bureaucrats
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/171-jain-bureaucrats/
6 Jain Businessmen
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/172-jain-businessmen/
7 Jain Charted Accountants
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/173-jain-charted-accountants/
8 Jain Company Secretaries
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/174-jain-company-secretaries/
9 Jain Data science & Analytics professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/175-jain-data-science-analytics-professionals/
10 Jain Doctors
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/176-jain-doctors-medical-practitioner/
11 Jain Engineers
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/177-jain-engineers/
12 Jain Housewives
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/178-jain-housewives/
13 Jain Industrialist
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/179-jain-industrialist/
14 Jain IT professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/180-jain-it-professionals/
15 Jain Journalists and Media professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/181-jain-journalists-and-media-professionals/
16 Jain life Science professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/182-jain-life-science-professionals/
17 Jain Management professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/183-jain-management-professionals/
18 Jain Retailers and Shopkeepers
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/184-jain-retailers-and-shopkeepers/
19 Jain Sales & Marketing professionals
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/185-jain-sales-marketing-professionals/
20 Jain Scholar & Research professional
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/186-jain-scholar-research-professional/
21 Jain Scientist
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/187-jain-scientist/
22 Jain Self Employed Entrepreneur
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/188-jain-self-employed-entrepreneur/
23 Jain Students
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/189-jain-students/
24 Jain Teachers & Professors
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/190-jain-teachers-professors/
25 Jain Traders & Suppliers
http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/191-jain-traders-suppliers/
www.jainsamaj.vidyasagar.guru/register/
- Read more...
- 1 comment
- 873 views
-
मुनिश्री ब्रह्मानन्द महाराज की समाधि
पंचम युग में चतुर्थकालीन चर्या का पालन करने वाले व्योवर्द्ध महातपस्वी परम् पूजनीय मुनिश्री ब्रह्मनन्द जी महामुनिराज ने समस्त आहार जल त्याग कर उत्कृष्ट समाधि पूर्वक देह त्याग दी।
परम् पुज्य मुनिश्री ऐसे महान तपस्वी रहें है जिनकी चर्या का जिक्र अक्सर आचार्य भगवंत श्री विद्यासागर जी महामुनिराज संघस्थ साधुगण एवं आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज प्रवचन के दौरान करते थे।
पिड़ावा के श्रावकजनो ने मुनिश्री की संलेखना के समय अभूतपुर्व सेवा एवं वैयावर्ती की है।
ऐसे समाधिस्थ पुज्य मुनिराज के पावन चरणों में कोटि कोटि नमन।
मुनिराज का समाधिमरण अभी दोपहर 1:35 पर हुआ उनकी उत्क्रष्ट भावना अनुसार 48 मिनट के भीतर ही देह की अंतेष्टि की जाएगी।
(20,अप्रैल,2018)
कर्नाटक प्रांत के हारुवेरी कस्बे में जन्मे महान साधक छुल्लक श्री मणिभद्र सागर जी 80 के दशक आत्मकल्याण और जिनधर्म की प्रभावना करते हुऐ मध्यप्रदेश में प्रवेश किया । छुल्लक अवस्था मे चतुर्थकालीन मुनियों सी चर्या । कठिन तप ,त्याग के कारण छुल्लक जी ने जँहा भी प्रवास किया वँहा अनूठी छाप छोड़ी।
पीड़ित मानवता के लिए महाराज श्री के मन मे असीम वात्सल्य था। महाराज श्री की प्रेरणा से तेंदूखेड़ा(नरसिंहपुर)मप्र में
समाज सेवी संस्था का गठन किया गया। लगभग बीस वर्षों तक इस संस्था द्वारा हजारों नेत्ररोगियों को निःशुल्क नेत्र शिवरों के माध्यम से नेत्र ज्योति प्रदान की गई। जरूरतमंद समाज के गरीब असहाय लोगों को आर्थिक सहयोग संस्था द्वारा किया जाता था। आज भी लगभग बीस वर्षों तक महाराज श्री की प्रेणना से संचालित इस संस्था ने समाज सेवा के अनेक कार्य किये ।
छुल्लक मणिभद्र सागर जी ने मप्र के सिलवानी नगर में आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य मुनि श्री सरल सागर जी से मुनि दीक्षा धारण की और नाम मिला मुनि श्री ब्रम्हांन्द सागर जी। इस अवसर पर अन्य दो दीक्षाएं और हुईं जिनमे मुनि आत्मा नन्द सागर, छुल्लक स्वरूपानन्द सागर,। महाराज श्री का बरेली,सिलवानी, तेंदूखेड़ा,महाराजपुर,केसली,सहजपुर,टडा, वीना आदि विभिन्न स्थानों पर सन 1985 से से लगातार सानिध्य ,बर्षायोग, ग्रीष्मकालीन,शीतकालीन सानिध्य प्राप्त होते रहे।। महाराज श्री को आहार देने वाले पात्र का रात्रि भोजन,होटल,गड़न्त्र, का आजीवन त्याग, होना आवश्यक था। और बहुत सारे नियम आहार देने वाले पात्र के लिए आवश्यक थे। महाराज श्री को निमित्य ज्ञान था। जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण मेरे स्वयं के पास है। उनके द्वारा कही बात मैने सत्य होते देखी है।
आज 20 अप्रेल मध्यान 1:45 पर
पंचम युग में चतुर्थकालीन चर्या' का पालन करने वाले व्योवर्द्ध महातपस्वी परम् पूजनीय मुनिश्री ब्रह्मनन्द जी महामुनिराज ने समस्त आहार जल त्याग कर उत्कृष्ट समाधि पूर्वक देह त्याग दी।
परम् पुज्य मुनिश्री ऐसे महान तपस्वी रहें है जिनकी चर्या का जिक्र अक्सर आचार्य भगवंत श्री विद्यासागर जी महामुनिराज संघस्थ साधुगण एवं आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज प्रवचन के दौरान करते थे।
पिड़ावा के श्रावकजनो ने मुनिश्री की संलेखना के समय अभूतपुर्व सेवा एवं वैयावर्ती की है।
ऐसे समाधिस्थ पुज्य मुनिराज के पावन चरणों में कोटि कोटि नमन। महाराज श्री की भावना अनुसार 48 मिनिट के भीतर ही उनकी अंतिम क्रियाएं की जाएंगी।
मुनि श्री को बारम्बार नमोस्तु ?
??नमोस्तु मुनिवर??
- Read more...
- 0 comments
- 1,355 views
-
1. Jain Samaj Bharat
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Bharat/
2. Jain Samaj Burma
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Burma
3. Jain Samaj Canada
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Canada
4. Jain Samaj Germany
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Germany
5. Jain Samaj Kenya
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Kenya/
6. Jain Samaj Malaysia
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Malaysia
7. Jain Samaj Nepal
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Nepal
8. Jain Samaj Tanzania
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Tanzania
9. Jain Samaj Uganda
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Uganda
10. Jain Samaj Singapore
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Singapore
11. Jain Samaj United States of America
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.USA
- Read more...
- 0 comments
- 320 views
-
सभी को जय जिनेन्द्र,
संयम स्वर्ण महोत्सव में हम सभी कर रहे हैं आचार्य श्री के व्यक्तित्व को विश्व में फ़ैलाने का प्रयास, हमने भी की हैं शुरुआत, केवल whatsapp पर पूरा नहीं होगा प्रयास
सोशल मीडिया में दीजिये साथ, जुड़िये और करियें सम्पूर्ण समाज को जोड़ने का सफल प्रयास
*आपके देश व राज्य के समाज के फेसबुक समूह से जुड़िये और समाज के सभी श्रावको को समूह से जोड़े *
1. Jain Samaj Andaman and Nicobar Islands
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Andaman.Nicobar.Islands
2. Jain Samaj Andhra Pradesh
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Andhra.Pradesh
3. Jain Samaj Arunachal Pradesh
https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.Arunachal.Pradesh
4. Jain Samaj Assam
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Assam
5. Jain Samaj Bihar
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Bihar
6. Jain Samaj Chandigarh
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Chandigarh
7. Jain Samaj Chhattisgarh
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Chhattisgarh
8. Jain Samaj Dadar and Nagar Haveli Silvassa
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Dadar.Nagar.Haveli.Silvassa
9. Jain Samaj Daman
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Daman
10. Jain Samaj Delhi
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Delhi
11. Jain Samaj Goa
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Goa
12. Jain Samaj Gujarat
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Gujarat
13. Jain Samaj Haryana
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Haryana
14. Jain Samaj Himachal Pradesh
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Himachal.Pradesh
15. Jain Samaj Jammu and Kashmir
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Jammu.and.Kashmir
16. Jain Samaj Jharkhand
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Jharkhand
17. Jain Samaj Karnataka
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Karnataka
18. Jain Samaj Kerala
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Kerala
19. Jain Samaj Lakshadweep
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Lakshadweep
20. Jain Samaj Madhya Pradesh
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Madhya.Pradesh
21. Jain Samaj Maharashtra
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Maharashtra
22. Jain Samaj Manipur
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Manipur
23. Jain Samaj Meghalaya
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Meghalaya
24. Jain Samaj Mizoram
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Mizoram
25. Jain Samaj Nagaland
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Nagaland
26. Jain Samaj Odisha
https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.Odisha
27. Jain Samaj Pondicherry
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Pondicherry
28. Jain Samaj Punjab
https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.punjab
29. Jain Samaj Rajasthan
https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.rajasthan
30. Jain Samaj Sikkim
https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.sikkim
31. Jain Samaj Tamil Nadu
https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.tamil.nadu
32. Jain Samaj Telangana
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Telangana
33. Jain Samaj Tripura
https://www.facebook.com/groups/Jain.samaj.Tripura
34. Jain Samaj Uttar Pradesh
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Uttar.Pradesh
35. Jain Samaj Uttarakhand
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Uttarakhand
36. Jain Samaj West Bengal
https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.West.Bengal---------
- Read more...
- 0 comments
- 408 views
-
- Read more...
- 1 comment
- 2,874 views
-
- Read more...
- 0 comments
- 2,293 views
-
- Read more...
- 0 comments
- 1,569 views
-
जय जिनेंद्र जी
अपने बच्चों के 24 अगस्त को स्कूल अवकाश के लिए इस तरह की अर्जी【application】लिख कर भेजे।
- Read more...
- 0 comments
- 2,940 views
-
⚫ धर्म बचाओ आंदोलन ⚫
24 अगस्त, सोमवार
**************************
सभी स्थानों पर मीटिंग का दौर शुरू हुआ । प्रायः सभी स्थानों पर निम्नांकित बिंदुओं पर विचार किया गया है~
1 २४ अगस्त को सकल जैन समाज अपने ऑफिस, प्रतिष्ठान, स्कूल, कॉलेज की छुट्टी/ बन्द रखेंगे।
2 २४ अगस्त को माननीय प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, कलेक्टर, SDM, तहसीलदार के नाम का विरोध रूपी ज्ञापन सौपेंगे।
3 २४ अगस्त को समाज का प्रत्येक व्यक्ति महिला पुरुष बच्चे सभी एक साथ विरोध प्रदर्शन जुलूस मे सम्मलित होंगे।
4 २४ अगस्त को बन्द करने के लिए व्यापारी वर्ग, राजनेताओं, और विभिन्न संगठनों से अपील करेंगे कि वह जैन धर्म के विपत्ति के समय उनका सहयोग करें एवं बंद मे साथ दें। उसके लिए १८ अगस्त मंगलवार को अन्य समाज, व्यापारी वर्ग, संगठन के साथ समाज के वरिष्ट व्यक्तियों की मीटिंग रखी गयी है।
5 प्रदर्शन जुलूस/आंदोलन .....से प्रारम्भ होकर तहसील/कलेक्ट्रेट मे ज्ञापन देकर समाप्त होगा।
6 ज्ञापन "धर्म बचाओ आंदोलन" के बेनर तले सौंपा जाएगा।
7 जैन बंधुओं के प्रतिष्ठानों मे कल से ही ""२४ अगस्त धर्म बचाओ आंदोलन , राजस्थान उच्च न्यायालय का संथारा/ संलेखना के विरोध मे दुकान बंद रहेगी ""के बेनर/ फ्लेक्स लगा दिए जाएंगे।
8 शहर के मुख्य चौराहों ,बिल्डिंगों मे " धर्म बचाओ आंदोलन" के बेनर लगाये जाएंगे।
9 संथारा/ संलेखना का जैन धर्म मे क्या महत्व है, के पोस्टर/ पम्पलेट शहर के लोगों मे जागरूकता फैलाने के लिए बाटें जाएंगे।
10 २४ अगस्त के बन्द का सोशल मीडिया/ प्रिंट मीडिया/ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मे जम कर प्रचार प्रसार किया जायेगा।
11 24 अगस्त को कोई भी जैन समाज का बंधु शहर से बाहर नही जाएगा, सभी एक साथ ज्ञापन सौपने जाएंगे।
12 स्कूल/ कॉलेज के विद्यार्थी 22 अगस्त या उससे पहले ही छुट्टी के लिए आवेदन देकर आएंगे जिसमे नही आने का कारण जैन धर्म पर संकट स्पष्ट रूप से लिखा जाएगा।
13 सरकारी कर्मचारी भी अपने ऑफिस मे पहले ही आवेदन देंगे जिसमे न जाने का कारण स्पष्ट रूप से अंकित होगा।
हम सभी यही चाहते है कि हमारा विरोध दमदार असरदार हो।
प्रदर्शन शालीन हो । शांत हो । भाषा मर्यादित हो । कानून का उल्लंघन न हो ।
जय जिनेन्द्र
- Read more...
- 0 comments
- 878 views
-
क्र. सं. तीर्थक्षेत्र का नाम Name of the Teerth क्षेत्र 1 आहूजी Aahuji अतिशय क्षेत्र 2 अहारजी Aharji सिद्ध क्षेत्र 3 अजयगढ़ Ajaygarh अतिशय क्षेत्र 4 अमरकंटक Amarkantak अतिशय क्षेत्र 5 बाड़ी Badi अतिशय क्षेत्र 6 बड़ोह Badoh कला क्षेत्र 7 बही पार्श्वनाथ Bahi Parshvanath अतिशय क्षेत्र 8 बहोरीबन्द Bahoriband अतिशय क्षेत्र 9 बजरंगगढ़ Bajranggarh अतिशय क्षेत्र 10 बंधाजी Bandhaji अतिशय क्षेत्र 11 बनेड़ियाजी Banediyaji अतिशय क्षेत्र 12 बरासोंजी Baransoji अतिशय क्षेत्र 13 बरेला Barela अतिशय क्षेत्र 14 बरही Barhi अतिशय क्षेत्र 15 बावनगजा (चूलगिरि) Bawangaja सिद्ध क्षेत्र 16 भोजपुर Bhojpur अतिशय क्षेत्र 17 भौंरासा Bhourasa अतिशय क्षेत्र 18 बिजोरी Bijori अतिशय क्षेत्र 19 बीनाजी (बारहा) Binaji (Barha) अतिशय क्षेत्र 20 चन्देरी Chanderi अतिशय क्षेत्र 21 छोटा महावीरजी Chota Mahaveerji अतिशय क्षेत्र 22 द्रोणगिरि Drongiri सिद्ध क्षेत्र 23 ईशुरवारा Eshurwara अतिशय क्षेत्र 24 फलहोड़ी बड़ागाँव Falhodi Badagaon सिद्ध क्षेत्र 25 गंधर्वपुरी Gandharvapuri पुरातत्व क्षेत्र 26 गोलाकोट Golakot अतिशय क्षेत्र 27 गोम्मटगिरि (इन्दौर) Gommatgiri अतिशय क्षेत्र 28 गोपाचल पर्वत Gopachal Parwat सिद्ध क्षेत्र 29 गुड़र Gudar अतिशय क्षेत्र 30 ग्वालियर - स्वर्ण मंदिर Gwalior-Swarna Mandir दर्शनीय क्षेत्र 31 ग्यारसपुर Gyaraspur अतिशय क्षेत्र 32 जामनेर Jamner अतिशय क्षेत्र 33 जयसिंहपुरा-उज्जैन Jaysinghpura-Ujjain अतिशय क्षेत्र 34 कैथूली Kaithuli अतिशय क्षेत्र 35 खजुराहो Khajuraho अतिशय क्षेत्र 36 खंदारगिरि Khandargiri अतिशय क्षेत्र 37 खनियाँधाना Khaniyadhana दर्शनीय क्षेत्र 38 कुण्डलगिरि (कोनीजी) Kundalgiri (Koniji) अतिशय क्षेत्र 39 कुण्डलपुर (दमोह) Kundalpur (Damoh) सिद्ध क्षेत्र 40 लखनादौन Lakhnadaun अतिशय क्षेत्र 41 महावीर तपोभूमि-उज्जैन Shri Mahavir-Tapobhumi-Ujjain अतिशय क्षेत्र 42 मक्सी पार्श्वनाथ Maksi-Parshvanath अतिशय क्षेत्र 43 मंगलगिरि (सागर) Mangalgiri (Sagar) अतिशय क्षेत्र 44 मनहरदेव Manhardev अतिशय क्षेत्र 45 मानतुंगगिरि (धार) Mantunggiri अतिशय क्षेत्र 46 मुक्तागिरि (मेंढागिरि) Muktagiri सिद्ध क्षेत्र 47 नैनागिरि (रेशंदीगिरि) Nainagiri सिद्ध क्षेत्र 48 नेमावर (सिद्धोदय) Nemawar (Siddhodaya) सिद्ध क्षेत्र 49 निंसईजी (मल्हारगढ़) Nisaiji अन्य क्षेत्र 50 निसईजी सूखा (पथरिया) Nisaiji Sukha अतिशय क्षेत्र 51 नोहटा (आदीश्वरगिरि) Nohta अतिशय क्षेत्र 52 पंचराई Pacharai अतिशय क्षेत्र 53 पजनारी Pajnari अतिशय क्षेत्र 54 पनागर Panagar अतिशय क्षेत्र 55 पानीगाँव Panigaon कला क्षेत्र 56 पपौराजी Paporaji अतिशय क्षेत्र 57 पाश्वगिरि (बड़वानी) Parshvagiri (Badwani) अतिशय क्षेत्र 58 पटेरिया (गढ़ाकोटा) Pateria (Gadakota) अतिशय क्षेत्र 59 पटनागंज (रहली) Patnaganj (Raheli) अतिशय क्षेत्र 60 पावई (पावागढ़) Paawai (Pawagadh) अतिशय क्षेत्र 61 पिड़रूवा Pidruva अतिशय क्षेत्र 62 पिसनहारी-मढ़ियाजी Pisanhari-Madiyaji अतिशय क्षेत्र 63 पुष्पगिरि Pushpagiri अतिशय क्षेत्र 64 पुष्पावती बिलहरी Pushpavati Bilhari अतिशय क्षेत्र 65 सेमरखेड़ी (निसईंजी) Semarkhedi (Nisaiji) अतिशय क्षेत्र 66 सेसई Sesai अतिशय क्षेत्र 67 सिद्धवरकूट Siddhvarkut सिद्ध क्षेत्र 68 सिहोंनियाँजी Sihoniyaji अतिशय क्षेत्र 69 सिरोंज Sironj अतिशय क्षेत्र 70 सोनागिरिजी Sonagiriji सिद्ध क्षेत्र 71 तालनपुर Talanpur अतिशय क्षेत्र 72 तेजगढ़ Tejgarh अतिशय क्षेत्र 73 थुबोनजी Thubonji अतिशय क्षेत्र 74 तिगोड़ाजी Tigodaji अतिशय क्षेत्र 75 ऊन (पावागिरि) Un (Pawagiri) सिद्ध क्षेत्र 76 उरवाहा Urwaha अतिशय क्षेत्र
- Read more...
- 0 comments
- 15,329 views
-
सुख के देने वाले श्री जिन भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर श्रीसंजयन्त मुनिराज की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यक् तप का उद्योत किया था । सुमेरु के पश्चिम की ओर विदेह के अन्तर्गत गन्धमालिनी नाम का देश है। उसकी प्रधान राजधानी वीतशोकपुर है। जिस समय की बात हम लिख रहे हैं, उस समय उसके राजा वैजयन्त थे । उनकी महारानी का नाम भव्य श्री था । उनके दो पुत्र थे। उनके नाम थे संजयन्त और जयन्त ॥१-५॥पीठ
एक दिन की बात है कि बिजली के गिरने से महाराज वैजयन्त का प्रधान हाथी मर गया। यह देख उन्हें संसार से बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने राज्य छोड़ने का निश्चय कर अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और उन्हें राज्य भार सौंपना चाहा; तब दोनों भाईयों ने उनसे कहा - पिताजी, राज्य तो संसार के बढ़ाने का कारण है, इससे तो उल्टा हमें सुख की जगह दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिए हम तो इसे नहीं लेते । आप भी तो इसीलिए छोड़ते हैं न ? कि यह बुरा है, पाप का कारण है । इसीलिए हमारा तो विश्वास है कि बुद्धिमानों को, आत्म हित के चाहने वालों को, राज्य सरीखी झंझटों को शिर पर उठाकर अपनी स्वाभाविक शान्ति को नष्ट नहीं करना चाहिए । यही विचार कर हम राज्य लेना उचित नहीं समझते । बल्कि हम तो आपके साथ ही साधु बनकर अपना आत्महित करेंगे ॥६॥
वैजयन्त ने पुत्रों पर अधिक दबाव न डालकर उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें साधु बनने की आज्ञा दे दी और राज्य का भार संजयन्त के पुत्र वैजयन्त को देकर स्वयं भी तपस्वी बन गये। साथ ही वे दोनों भाई भी साधु हो गये ॥७॥
तपस्वी बनकर वैजयन्त मुनिराज खूब तपश्चर्या करने लगे, कठिन से कठिन परीषह सहन करके अन्त में ध्यानरूपी अग्नि से घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया। उस समय उनके ज्ञानकल्याणक की पूजा करने को स्वर्ग से देव आये। उनके स्वर्गीय ऐश्वर्य और उनकी दिव्य सुन्दरता को देखकर संजयन्त के छोटे भाई जयन्त ने निदान किया- मैंने जो इतना तपश्चरण किया है, मैं चाहता हूँ कि उसके प्रभाव से मुझे दूसरे जन्म में ऐसी ही सुन्दरता और ऐसी ही विभूति प्राप्त हो। वही हुआ । उसका किया निदान उसे फला। वह आयु के अन्त में मरकर धरणेन्द्र हुआ ॥८-११॥
इधर संजयन्त मुनि पन्द्रह-पन्द्रह दिन के, एक-एक महीना के उपवास करने लगे, भूख-प्यास की कुछ परवाह न कर बड़ी घोरता के साथ परीषह सहने लगे। शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया, तब भी भयंकर वनों में सुमेरु के समान निश्चल रहकर सूर्य की ओर मुँह किये वे तपश्चर्या करने लगे। गर्मी के दिनों में अत्यन्त गर्मी पड़ती, शीत के दिनों में ठंडी खूब सताती, वर्षा के समय मूसलाधार पानी वर्षा करता और आप वृक्षों के नीचे बैठकर ध्यान करते । वन के जीव-जन्तु सताते, पर इन सब कष्टों को कुछ परवाह न कर आप सदा आत्मध्यान में लीन रहते ॥१२- १३॥
एक दिन की बात है संजयन्त मुनिराज तो अपने ध्यान में डूबे हुए थे कि उसी समय एक विद्युवंष्ट्र नाम का विद्याधर आकाश मार्ग से उधर होकर निकला, पर मुनि के प्रभाव से उसका विमान आगे नहीं बढ़ पाया। एकाएक विमान को रुका हुआ देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने नीचे की ओर दृष्टि डालकर देखा तो उसे संजयन्त मुनि दीख पड़े। उन्हें देखते ही उसका आश्चर्य क्रोध के रूप में परिणत हो गया। उसने मुनिराज को अपने विमान को रोकने वाले समझकर उन पर नाना प्रकार के भयंकर उपद्रव करना शुरू किया, उससे जहाँ तक बना उसने उन्हें बहुत कष्ट पहुँचाया। पर मुनिराज उसके उपद्रवों से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। वे जैसे निश्चल थे वैसे ही खड़े रहे। सच है वायु का कितना ही भयंकर वेग क्यों न चले पर सुमेरु हिलता तक भी नहीं ॥१४-१५॥
इन सब भयंकर उपद्रवों से भी जब उसने मुनिराज को पर्वत जैसा अचल देखा तब उसका क्रोध और भी बहुत बढ़ गया। वह अपने विद्याबल से मुनिराज को वहाँ से उठा ले चला और भारतवर्ष में पूर्व दिशा की ओर बहने वाली सिंहवती नाम की एक बड़ी भारी नदी में, जिसमें कि पाँच बड़ी- बड़ी नदियाँ और मिली थीं, डाल दिया । भाग्य से उस प्रान्त के लोग भी बड़े पापी थे । सो उन्होंने मुनि को एक राक्षस समझकर और सर्वसाधारण में यह प्रचार कर, कि यह हमें खाने के लिए आया है, पत्थरों से खूब मारा। मुनिराज ने सब उपद्रव बड़ी शान्ति के साथ सहा। उन्होंने अपने पूर्ण आत्मबल के प्रभाव से हृदय को लेशमात्र भी अधीर नहीं बनने दिया क्योंकि सच्चे साधु वे ही हैं-
तृणं रत्नं वा रिपुरिव परममित्रमथवा स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ ।
सुख वा दुःखं वा पितृवनमहोत्सौधमथवा स्फुटं निर्ग्रन्थानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम्॥
जिनके पास रागद्वेष का बढ़ाने वाला परिग्रह नहीं है, जो निर्ग्रन्थ हैं और सदा शान्तचित्त रहते हैं, उन साधुओं के लिए तृण हो या रत्न, शत्रु हो या मित्र, उनकी कोई प्रशंसा करो या बुराई, वे जीवें अथवा मर जायें, उन्हें सुख हो या दुःख और उनके रहने को श्मशान हो या महल, पर उनकी दृष्टि सब पर समान रहेगी। वे किसी से प्रेम या द्वेष न कर सब पर समभाव रखेंगे । यही कारण था कि संजयन्त मुनि ने विद्याधरकृत सब कष्ट समभाव से सहकर अपने अलौकिक धैर्य का परिचय दिया। इस अपूर्व ध्यान के बल से संजयन्त मुनि ने चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और इसके बाद अघातिया कर्मों का भी नाश कर वे मोक्ष चले गये । उनके निर्वाण कल्याणक की पूजन करने को देव आये । वह धरणेन्द्र भी इनके साथ था, जो संजयन्त मुनि का छोटा भाई था और निदान करके धरणेन्द्र हुआ था। धरणेन्द्र को अपने भाई के शरीर की दुर्दशा देखकर बड़ा क्रोध आया। उसने भाई को कष्ट पहुँचाने का कारण वहाँ के नगरवासियों की समझकर उन सबको अपने नागपाश से बाँध लिया और लगा उन्हें वह दुःख देने । नगरवासियों ने हाथ जोड़कर उससे कहा - प्रभो ! हम तो इस अपराध से सर्वथा निर्दोष हैं। आप हमें व्यर्थ ही कष्ट दे रहे हो। यह सब कर्म तो पापी विद्युवंष्ट्र विद्याधर का है। आप उसे ही पकड़िये न ? सुनते ही धरणेन्द्र विद्याधर को पकड़ने के लिए दौड़ा और उसके पास पहुँचकर उसे उसने नागपाश से बाँध लिया। इसके बाद उसे खूब मार पीटकर धरणेन्द्र ने समुद्र में डालना चाहा ॥१६-२५॥
धरणेन्द्र का इस प्रकार निर्दय व्यवहार देखकर एक दिवाकर नाम के दयालु देव ने उससे कहा- तुम इसे व्यर्थ ही क्यों कष्ट दे रहे हो? इसकी तो संजयन्त मुनि के साथ कोई चार भव से शत्रुता चली आती है। इसी से उसने मुनि पर उपसर्ग किया था।॥२६-२७॥
धरणेन्द्र बोला-यदि ऐसा है तो उसका कारण मुझे बतलाइये ? ॥२८॥
दिवाकर देव ने तब यों कहना आरंभ किया-पहले समय में भारतवर्ष में एक सिंहपुर नाम का शहर था । उसके राजा सिंहसेन थे । वे बड़े बुद्धिमान् और राजनीति के अच्छे जानकार थे। उनकी रानी का नाम रामदत्ता था। वह बुद्धिमती और बड़ी सरल स्वभाव की थी । राजमंत्री का नाम श्रीभूति था । वह बड़ा कुटिल था। दूसरों को धोखा देना, उन्हें ठगना यह उसका प्रधान कर्म था । ॥२९-३०॥
एक दिन पद्मखंडपुर के रहने वाले सुमित्र सेठ का पुत्र समुद्रदत्त श्रीभूति के पास आया और उससे बोला-‘“महाशय, मैं व्यापार के लिए विदेश जा रहा हूँ । देवकी विचित्र लीला से न जाने कौन समय कैसा आवे ? इसलिए मेरे पास ये पाँच रत्न हैं, इन्हें आप अपनी सुरक्षा में रखें तो अच्छा होगा और मुझपर भी आपकी बड़ी दया होगी। मैं पीछा आकर अपने रत्न ले लूंगा।” यह कहकर और श्रीभूति को रत्न सौंपकर समुद्रदत्त चल दिया ॥३१-३३॥
कई वर्ष बाद समुद्रदत्त पीछे लौटा। वह बहुत धन कमाकर लाया था। जाते समय जैसा उसने सोचा दैव की प्रतिकूलता से वही घटना उसके भाग्य में घटी । किनारे लगते-लगते जहाज फट पड़ा। सब माल असबाब समुद्र के विशाल उदर में समा गया । पुण्योदय से समुद्रदत्त को कुछ ऐसा सहारा मिल गया, जिससे उसकी जान बच गई। वह कुशलपूर्वक अपना जीवन लेकर घर लौट आया ॥३४॥
दूसरे दिन वह श्रीभूति के पास गया और अपने पर जैसी विपत्ति आई थी उसे उसने आदि से अन्त तक कहकर श्रीभूति से अपने अमानत रखे हुए रत्न पीछे मांगे। श्रीभूति ने आँखें चढ़ाकर कहा— कैसे रत्न तू मुझसे माँगता है? जान पड़ता है जहाज डूब जाने से तेरा मस्तक बिगड़ गया है। श्रीभूति ने बेचारे समुद्रदत्त को मनमानी फटकार बताकर और अपने पास बैठे हुए लोगों से कहा-देखिये न साहब, मैंने आपसे अभी ही कहा था न ? कि कोई निर्धन मनुष्य पागल बनकर मेरे पास आवेगा और झूठा ही बखेड़ाकर झगड़ा करेगा । वही सत्य निकला । कहिये तो ऐसे दरिद्री के पास रत्न आ कहाँ से सकते हैं? भला, किसी ने भी इसके पास कभी रत्न देखे हैं। यों ही व्यर्थ गले पड़ता है। ऐसा कहकर उसने नौकरों द्वारा समुद्रदत्त को निकलवा दिया। बेचारा समुद्रदत्त एक तो वैसे ही विपत्ति का मारा हुआ था; इसके सिवा उसे जो एक बड़ी भारी आशा थी, उसे भी पापी श्रीभूति ने नष्ट कर दिया। वह सब ओर से अनाथ हो गया । निराशा के अथाह समुद्र में गोते खाने लगा। पहले उसे अच्छा होने पर भी श्रीभूति ने पागल बना डाला था, पर अब वह सचमुच ही पागल हो गया । वह शहर में घूम-घूमकर चिल्लाने लगा कि पापी श्रीभूति ने मेरे पाँच रत्न ले लिए और अब वह उन्हें देता नहीं है। राजमहल के पास भी उसने बहुत पुकार मचाई, पर उसकी कहीं सुनाई नहीं हुई। सब उसे पागल समझकर दुतकार देते थे । अन्त में निरुपाय हो उसने एक वृक्ष पर चढ़कर, जो कि रानी के महल के पीछे ही था, पिछली रात को बड़े जोर से चिल्लाना आरंभ किया। रानी ने बहुत दिनों तक तो उस पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया। उसने भी समझ लिया कि कोई पागल चिल्लाता होगा। पर एक दिन उसे ख्याल हुआ कि वह पागल होता तो प्रतिदिन इसी समय आकर क्यों चिल्लाता ? सारे दिन ही इसी तरह आकर क्यों न चिल्लाता फिरता ? इसमें कुछ रहस्य अवश्य है । यह विचार कर उसने एक दिन राजा से कहा- प्राणनाथ! आप इस चिल्लाने वाले को पागल बताते हैं, पर मेरी समझ में यह बात नहीं आती क्योंकि यदि वह पागल होता तो न तो बराबर इसी समय चिल्लाता और न सदा एक ही वाक्य बोलता । इसलिए इसका ठीक-ठीक पता लगाना चाहिए कि बात क्या है ? ऐसा न हो कि अन्याय से बेचारा एक गरीब बिना मौत मारा जाय । रानी के कहने के अनुसार राजा ने समुद्रदत्त को बुलाकर सब बातें पूछीं। समुद्रदत्त ने जैसी अपने पर बीती थी, वह ज्यों को त्यों महाराज से कह सुनाई। तब रत्न कैसे प्राप्त किये जाँय, इसके लिए राजा को चिन्ता हुई। रानी बड़ी बुद्धिमती थी इसलिए रत्नों के मंगा लेने का भार उसने अपने पर लिया ॥३५-४२॥
रानी ने एक दिन श्रीभूति को बुलाया और उससे कहा- मैं आपकी शतरंज खेलने में बड़ी तारीफ सुना करती हूँ। मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि मैं एक दिन आपके साथ खेलूँ। आज बड़ा अच्छा सुयोग मिला जो आप यहीं पर उपस्थित हैं। यह कहकर उसने दासों को शतरंज ले आने की आज्ञा दी ॥४३॥
श्रीभूति रानी की बात सुनते ही घबरा गया। उसके मुँह से एक शब्द तक निकलना मुश्किल पड़ गया। उसने बड़ी घबराहट के साथ काँपते - काँपते कहा- महारानीजी, आज आप यह क्या कह रही हैं। मैं एक क्षुद्र कर्मचारी और आपके साथ खेलूँ ? यह मुझसे न होगा। भला, राजा साहब सुन पावें तो मेरा क्या हाल हो ?
रानी ने कुछ मुस्कराते हुए कहा- वाह, आप तो बड़े ही डरते हैं । आप घबराइये मत। मैंने खुद राजा साहब से पूछ लिया है और फिर आप तो हमारे बुजुर्ग हैं। इसमें डर की बात ही क्या है। मैं तो केवल विनोदवश होकर खेल रही हूँ ।
" राजा की मैंने स्वयं आज्ञा ले ली " जब रानी के मुँह से यह वाक्य सुना तब श्रीभूति के जी में जी आया और वह रानी के साथ खेलने के लिए तैयार हुआ।
दोनों का खेल आरम्भ हुआ । पाठक जानते हैं कि रानी के लिए खेल का तो केवल बहाना था। असल में तो उसे अपना मतलब गाँठना था इसीलिए उसने यह चाल चली थी। रानी खेलते-खेलते श्रीभूति की अपनी बातों में लुभाकर उसके घर की सब बातें जान ली और इशारे से अपनी दासी को कुछ बातें बतलाकर उसे श्रीभूति के यहाँ भेजा । दासी ने जाकर श्रीभूति की पत्नी से कहा-तुम्हारे पति बड़े कष्ट में फँसे हैं, इसलिए तुम्हारे पास उन्होंने जो पाँच रत्न रखे हैं, उनके लेने को मुझे भेजा है। कृपा करके वे रत्न जल्दी दे दो जिससे उनका छुटकारा हो जाये।
श्रीभूति की स्त्री ने उसे फटकार दिखला कर कहा चल, मेरे पास रत्न नहीं हैं और न मुझे कुछ मालूम है। जाकर उन्हीं से कह दे कि जहाँ रत्न रखे हों, वहाँ से तुम्हीं जाकर ले आओ। दासी ने पीछे लौट आकर सब हाल अपनी मालकिन से कह दिया। रानी ने अपनी चाल का कुछ उपयोग नहीं हुआ देखकर दूसरी युक्ति निकाली। अबकी बार वह हारजीत का खेल खेलने लगी। मंत्री ने पहले तो कुछ आनाकानी की, पर फिर “रानी के पास धन का तो कुछ पार नहीं है और मेरी जीत होगी तो मैं मालामाल हो जाऊँगा" यह सोचकर वह खेलने को तैयार हो गया।
रानी बड़ी चतुर थी। उसने पहले ही पासे में श्रीभूति की एक कीमती अंगूठी जीत ली। उस अंगूठी को चुपके से दासी के हाथ देकर और कुछ समझाकर उसने श्रीभूति के घर फिर भेजा और आप उसके साथ खेलने लगी ॥४४॥
अबकी बार रानी का प्रयत्न व्यर्थ नहीं गया। दासी ने पहुँचते ही बड़ी घबराहट के साथ कहा- देखो, पहले तुमने रत्न नहीं दिये, उससे उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ा। अब उन्होंने यह अंगूठी देकर मुझे भेजा है और यह कहलाया है कि यदि तुम्हें मेरी जान प्यारी हो, तो इस अंगूठी को देखते ही रत्नों को दे देना और रत्न प्यारे हों तो न देना । इससे अधिक में और कुछ नहीं कहता ॥४५॥
अब तो वह एक साथ घबरा गई। उसने उससे कुछ विशेष पूछताछ न करके केवल अँगूठी के भरोसे पर रत्न निकालकर दासी के हाथ सौंप दिये। दासी ने रत्नों को लाकर रानी को दे दिये और रानी ने उन्हें महाराज के पास पहुँचा दिये।
राजा को रत्न देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने रानी की बुद्धिमानी को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। इसके बाद उन्होंने समुद्रदत्त को बुलाया और उन रत्नों को और बहुत से रत्नों में मिलाकर उससे कहा–देखो, इन रत्नों में तुम्हारे रत्न हैं क्या? और हों तो उन्हें निकाल लो। समुद्रदत्त ने अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिया । सच है बहुत समय बीत जाने पर भी अपनी वस्तु को कोई नहीं भूलता ॥४६-४७॥
इसके बाद राजा ने श्रीभूति को राजसभा में बुलाया और रत्नों को उसके सामने रखकर कहा- कहिये आप तो इस बेचारे के रत्नों को हड़पकर भी उल्टा इसे ही पागल बनाते थे न ? यदि महारानी मुझसे आग्रह न करती और अपनी बुद्धिमानी से इन रत्नों को प्राप्त नहीं करती, तब यह बेचारा गरीब तो व्यर्थ मारा जाता और मेरे सिर पर कलंक का टीका लगता। क्या इतने उच्च अधिकारी बनकर मेरी प्रजा का इसी तरह तुमने सर्वस्व हरण किया है? ॥४८॥
राजा को बड़ा क्रोध आया। उसने अपने राज्य के कर्मचारियों से पूछा- कहो, इस महापापी को इसके पाप का क्या प्रायश्चित दिया जाय, जिससे आगे के लिए सब सावधान हो जायें और इस दुरात्मा का जैसा भयंकर कर्म है, उसी के उपयुक्त इसे उसका प्रायश्चित भी मिल जाय ? राज्य कर्मचारियों ने विचार कर और सबकी सम्मति मिलाकर कहा - महाराज, जैसा इन महाशय का नीच कर्म है, उसके योग्य हम तीन दण्ड उपयुक्त समझते हैं और उनमें से जो इन्हें पसन्द हो, वही ये स्वीकार करें । १. एक सेर पक्का गोमय खिलाया जाये; २. मल्ल के द्वारा बत्तीस घूँसे लगवाये जाये; या ३. सर्वस्व हरण पूर्वक देश निकाला दे दिया जाये ॥४९-५०॥
राजा ने अधिकारियों के कहे माफिक दण्ड की योजना कर श्रीभूति से कहा कि-तुम्हें जो दण्ड पसन्द हो, उसे बतलाओ । पहले श्रीभूत ने गोमय खाना स्वीकार किया, पर उसका उससे एक ग्रास भी नहीं खाया गया । तब उसने मल्ल के घूँसे खाना स्वीकार किया। मल्ल बुलवाया गया। घूँसे लगना आरम्भ हुआ। कुछ घूँसों की मार पड़ी होगी कि उसका आत्मा शरीर छोड़कर चल बसा। उसकी मृत्यु बड़े आर्तध्यान से हुई। वह मरकर राजा के खजाने पर ही एक विकराल सर्प हुआ ॥५१-५२॥
इधर समुद्रदत्त को इस घटना से बड़ा वैराग्य हुआ। उसने संसार की दशा देखकर उसमें अपने को फँसाना उचित नहीं समझा। वह उसी समय अपना सब धन परोपकार के कामों में लगाकर वन की ओर चल दिया और धर्माचार्य नाम के महामुनि से पवित्र धर्म का उपदेश सुनकर साधु बन गया। बहुत दिनों तक उसने तपश्चर्या की । इसके बाद आयु के अन्त में मृत्यु प्राप्त कर वह इन्हीं सिंहसेन राजा के सिंहचन्द्र नामक पुत्र हुआ ॥५३-५४॥
एक दिन राजा अपने खजाने को देखने के लिए गये थे, उन्हें देखकर श्रीभूति के जीव को, जो कि खजाने पर सर्प हुआ था, बड़ा क्रोध आया । क्रोध के वश ही उसने महाराज को काट खाया। महाराज आर्त्तध्यान से मरकर सल्लकी नामक वन में हाथी हुए । राजा की सर्प द्वारा मृत्यु देखकर सुघोष मंत्री को बड़ा क्रोध आया। उसने अपने मन्त्र बल से बहुत से सर्पों को बुलाकर कहा-यदि तुम निर्दोष हो, तो इस अग्निकुण्ड में प्रवेश करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले जाओ। तुम्हें ऐसा करने से कुछ भी कष्ट न होगा। जितने बाहर के सर्प आये थे, वे सब तो चले गये। अब श्रीभूति का जीव बाकी रह गया। उससे कहा गया कि या तो तू विष खींचकर महाराज को छोड़ दे या इस अग्निकुण्ड में प्रवेश कर। पर वह महाक्रोधी था उसने अग्निकुण्ड में प्रवेश करना अच्छा समझा, पर विष खींच लेना उचित नहीं समझा। वह क्रोध के वश हो अग्नि में प्रवेश कर गया। प्रवेश करते ही वह देखते-देखते जलकर खाक हो गया। जिस सल्लकी वन में महाराज का जीव हाथी हुआ था, वह सर्प भी मरकर उसी वन में मुर्गा हुआ। सच है पापियों का कुयोनियों में उत्पन्न होना, कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इधर तो ये सब अपने-अपने कर्मों के अनुसार दूसरे भवों में उत्पन्न हुए और उधर सिंहसेन की रानी पति- वियोग से बहुत दुःखी हुई । उसे संसार की क्षणभंगुर लीला देखकर वैराग्य हुआ। वह उसी समय संसार का मायाजाल तोड़ताड़ कर वनश्री आर्यिका के पास साध्वी बन गई। सिंहसेन का पुत्र सिंहचन्द्र भी वैराग्य के वश हो, अपने छोटे भाई पूर्णचन्द्र की राज्यभार सौंपकर सुव्रत नामक मुनिराज के पास दीक्षित हो गया। साधु होकर सिंहचन्द्र मुनि ने खूब तपश्चर्या की, शान्ति और धीरता के साथ परीषहों पर विजय प्राप्त किया, इन्द्रियों को वश किया और चंचल मन को दूसरी ओर से रोककर ध्यान की ओर लगाया। अन्त में ध्यान के बल से उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हुआ । उन्हें मन:पर्ययज्ञान से युक्त देखकर उनकी माता ने, जो कि इन्हीं के पहले आर्यिका हुई थी, नमस्कार कर पूछा- साधुराज ! मेरी कोख धन्य है, वह आज कृतार्थ हुई, जिसने आपसे पुरुषोत्तम को धारण किया । पर अब यह तो कहिये कि आपके छोटे भाई पूर्णचन्द्र आत्महित के लिए कब उद्यत होंगे ? ॥५५-६६॥
उत्तर में सिहचंद्र मुनि बोले- ' माता, सुनो तो मैं तुम्हें संसार की विचित्र लीला सुनाता हूँ, जिसे सुनकर तुम भी आश्चर्य करोगी। तुम जानती हो कि पिताजी को सर्प ने काटा था और उसी से उनकी मृत्यु हो गई थी। वे मरकर सल्लकी वन में हाथी हुए । वे ही पिता एक दिन मुझे मारने के लिए मेरे पर झपटे, तब मैंने उस हाथी को समझाया और कहा- गजेन्द्रराज ! जानते हो, तुम पूर्व जन्म में राजा सिंहसेन थे और मैं प्राणों से भी प्यारा सिंहचन्द्र नाम का तुम्हारा पुत्र था । कैसा आश्चर्य है कि आज पिता ही पुत्र को मारना चाहता है । मेरे इन शब्दों को सुनते ही गजेन्द्र को जातिस्मरण हो आया, पूर्व जन्म की उसे स्मृति हो गई । वह रोने लगा, उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली । वह मेरे सामने चित्र लिखा सा खड़ा रह गया। उसकी यह अवस्था देखकर मैंने उसे जिनधर्म का उपदेश दिया और पंचाणुव्रत का स्वरूप समझाकर उसे अणुव्रत ग्रहण करने को कहा । उसने अणुव्रत ग्रहण किये और पश्चात् वह प्रासुक भोजन और प्रासुक जल से अपना निर्वाह कर व्रत का दृढ़ता के साथ पालन करने लगा। एक दिन वह जल पीने के लिए नदी पर पहुँचा । जल के भीतर प्रवेश करते समय वह कीचड़ में फँस गया। उसने निकलने की बहुत चेष्टा की, पर वह प्रयत्न सफल नहीं हुआ । अपना निकलना असंभव समझकर उसने समाधिमरण की प्रतिज्ञा ले ली। उस समय वह श्रीभूति का जीव, जो मुर्गा हुआ था, हाथी के सिर पर बैठकर उसका मांस खाने लगा। हाथी पर बड़ा उपसर्ग आया, पर उसने उसकी कुछ परवाह न कर बड़ी धीरता के साथ पंचनमस्कार मंत्र की आराधना करना शुरू कर दिया, जो कि सब पापों का नाश करने वाला है। आयु के अन्त में शान्ति के साथ मृत्यु प्राप्त कर वह सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ। सच है धर्म के सिवा और कल्याण का कारण हो ही क्या सकता है ? ॥६७–७६॥
वह सर्प भी बहुत कष्टों को सहन कर मरा और तीव्र पापकर्म के उदय से चौथे नरक में जाकर उत्पन्न हुआ, जहाँ अनन्त दुःख हैं और जब तक आयु पूर्ण नहीं होती तब तक पलक गिराने मात्र भी सुख प्राप्त नहीं होता ॥७७॥
सिंहसेन का जीव जो हाथी मरा था, उसके दाँत और कपोलों में से निकले हुए मोती, एक के हाथ लगे। भील ने उन्हें एक धनमित्र नामक साहूकार के हाथ बेच दिये और धनमित्र ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ और कीमती समझकर राजा पूर्णचंद्र को भेंट कर दिये । राजा देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उनके बदले में धनमित्र को खूब धन दिया। इसके बाद राजा ने दाँतों के तो अपने पलंग के पाये बनवाये और मोतियों का रानी के लिए हार बनवा दिया। इस समय वे विषय सुख में खूब मग्न होकर अपना काल बिता रहे हैं। यह संसार की विचित्र दशा है। क्षण-क्षण में क्या होता है सो सिवा ज्ञानी के कोई नहीं जान पाता और इसी से जीवों को संसार के दुःख भोगना पड़ते हैं। माता, पूर्णचन्द्र के कल्याण का एक मार्ग है, यदि तुम जाकर उपदेश दो और यह सब घटना उसे सुनाओ तो वह अवश्य अपने कल्याण की ओर दृष्टि देगा ॥७८-८१॥
सुनते ही वह उठी और पूर्णचन्द्र के महल पहुँची । अपनी माता को देखते ही पूर्णचंद्र उठे और बड़े विनय से उसका सत्कार कर उन्होंने उसके लिए पवित्र आसन दिया और हाथ जोड़कर वे बोले- ‘माताजी, आपने अपने पवित्र चरणों से इस समय भी इस घर को पवित्र किया, उससे मुझे जो प्रसन्नता हुई वह वचनों द्वारा नहीं कही जा सकती। मैं अपने जीवन को सफल समझँगा यदि मुझे आप अपनी आज्ञा का पात्र बनावेंगी। वह बोली- मुझे एक आवश्यक बात की ओर तुम्हारा ध्यान आकर्षित करना है। इसीलिए मैं यहाँ आई हूँ और वह बड़ी विलक्षण बात है, सुनते हो न ? इसके बाद आर्यिका ने यों कहना आरंभ किया - ॥८२-८३॥
“पुत्र, जानते हो, तुम्हारे पिता को सर्प ने काटा था, उसकी वेदना से मरकर वे सल्लकी वन में हाथी हुए और वह सर्प मरकर उसी वन में मुर्गा हुआ। एक दिन हाथी जल पीने गया । वह नदी के किनारे पर खूब गहरे कीचड़ में फँस गया । वह उसमें से किसी तरह निकल नहीं सका। अन्त में निरुपाय होकर वह मर गया। उसके दाँत और मोती एक भील के हाथ लगे। भील ने उन्हें एक सेठ के हाथ बेच दिये। सेठ के द्वारा वे ही दाँत और मोती तुम्हारे पास आये । तुमने दाँतों के तो पलंग के पाये बनवाये और मोतियों का अपनी पत्नी के लिए हार बनवाया । यह संसार की विचित्र लीला है। इसके बाद तुम्हें उचित जान पड़े सो करो” । आर्यिका इतना कहकर चुप हो रही । पूर्णचन्द्र अपने पिता की कथा सुनकर एक साथ रो पड़ा। उनका हृदय पिता के शोक से सन्तप्त हो उठा। जैसे दावाग्नि से पर्वत सन्तप्त हो उठता है । उनके रोने के साथ ही सारे अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। उन्होंने पितृप्रेम के वश हो उन पलंग के पायों को छाती से लगाया। इसके बाद उन्होंने पलंग के पायों और मोतियों को चन्दनादि से पूजा कर उन्हें जला दिया । ठीक है मोह के वश होकर यह जीव क्या नहीं करता? ॥८४-९१॥
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मोह का चक्र जब अच्छे-अच्छे महात्माओं पर भी चल जाता है, तब पूर्णचन्द्र पर उसका प्रभाव पड़ना कोई आश्चर्य का कारण नहीं है । पर पूर्णचन्द्र बुद्धिमान् थे, उन्होंने झटसे अपने को सम्हाल लिया और पवित्र श्रावक धर्म को ग्रहण कर बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ उनका पालन करने लगे। फिर आयु के अन्त में वे पवित्र भावों से मृत्यु लाभकर महाशुक्र नामक स्वर्ग में देव हुए। उनकी माता भी अपनी शक्ति के अनुसार तपश्चर्या कर उसी स्वर्ग में देव हुई। सच है संसार में जन्म लेकर कौन-कौन काल के ग्रास नहीं बने ? मन:पर्ययज्ञान के धारक सिंहचन्द्र मुनि भी तपश्चर्या और निर्मल चारित्र के प्रभाव से मृत्यु प्राप्त कर ग्रैवेयक में जाकर देव हुए ॥९२-९४॥
भारतवर्ष के अन्तर्गत सूर्याभपुर नामक एक शहर है। उसके राजा का नाम सुरावर्त्त है। वे बड़े बुद्धिमान् और तेजस्वी हैं। उनकी महारानी का नाम था यशोधरा । वह बड़ी सुन्दरी थी, बुद्धिमती थी, सती थी, सरल स्वभाव वाली थी और विदुषी थी। वह सदा दान देती, जिन भगवान् की पूजा करती और बड़ी श्रद्धा के साथ उपवासादि करती ॥९५-९६॥
सिंहसेन राजा का जीव, जो हाथी की पर्याय से मरकर स्वर्ग गया था, यशोधरा रानी का पुत्र हुआ। उसका नाम था रश्मिवेग । कुछ दिनों बाद महाराज सुरावर्त्त तो राज्यभार रश्मिवेग के लिए सौंपकर साधु बन गये और राज्यकार्य रश्मिवेग चलाने लगा ॥९७-९८॥
एक दिन की बात है कि धर्मात्मा रश्मिवेग सिद्धकूट जिनालय की वन्दना के लिए गया। वहाँ उसने एक हरिचन्द्र नाम के मुनिराज को देखा, उनसे धर्मोपदेश सुना। धर्मोपदेश का उसके चित्त पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसे बहुत वैराग्य हुआ। संसार, शरीर, भोगादिकों से उसे बड़ी घृणा हुई। उसने उसी समय मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर ली ॥९९-१००॥
एक दिन रश्मिवेग महामुनि एक पर्वत की गुफा में कायोत्सर्ग धारण किये हुए थे कि एक भयानक अजगर ने, जो कि श्रीभूति का जीव सर्प पर्याय से मरकर चौथे नरक गया था और वहाँ से आकर यह अजगर हुआ, उन्हें काट खाया। मुनिराज तब भी ध्यान में निश्चल खड़े रहे, जरा भी विचलित नहीं हुए। अन्त में मृत्यु प्राप्त कर समाधिमरण के प्रभाव से वे कापिष्ठ स्वर्ग में जाकर आदित्यप्रभ नामक महर्द्धिक देव हुए, जो कि सदा जिनभगवान् के चरणकमलों की भक्ति में लीन रहते थे और वह अजगर मरकर पाप के उदय से फिर चौथे नरक गया । वहाँ उसे नारकियों ने कभी तलवार से काटा और कभी करौती से, कभी उसे अग्नि में जलाया और कभी घानी में पेला, कभी अतिशय गरम तेल की कढ़ाई में डाला और कभी लोहे के गरम खंभों से आलिंगन कराया। मतलब यह कि नरक में उसे घोर दुःख भोगना पड़े ॥ १०१ - १०६॥
चक्रपुर नाम का एक सुन्दर शहर है। उसके राजा हैं चक्रायुध और उनकी महारानी का नाम चित्रादेवी है। पूर्वजन्म के पुण्य से सिंहसेन राजा का जीव स्वर्ग से आकर इनका पुत्र हुआ। उसका नाम था वज्रायुध । जिनधर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी । जब वह राज्य करने को समर्थ हो गया, तब महाराज चक्रायुध ने राज्य का भार उसे सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । वज्रायुध सुख और नीति के साथ राज्य का पालन करने लगे। उन्होंने बहुत दिनों तक राज्य सुख भोगा । पश्चात् एक दिन किसी कारण से उन्हें भी वैराग्य हो गया। वे अपने पिता के पास दीक्षा लेकर साधु बन गये । वज्रायुध मुनि एक दिन प्रियंगु नामक पर्वत पर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे कि इतने में एक दुष्ट भील ने, जो कि सर्प का जीव चौथे नरक गया था और वहाँ से अब यही भील हुआ, उन्हें बाण से मार दिया। मुनिराज तो समभावों से प्राण त्याग कर सर्वार्थसिद्धि गये और वह भील रौद्रभाव से मरकर सातवें नरक गया ॥१०७-११३॥
सर्वार्थसिद्धि से आकर वज्रायुध का जीव तो संजयन्त हुआ, जो संसार में प्रसिद्ध है और पूर्णचंद्र का जीव उनका छोटा भाई जयन्त हुआ। वे दोनों भाई छोटी ही अवस्था में कामभोगों से विरक्त होकर पिता के साथ मुनि हो गये और वह भील का जीव सातवें नरक से निकल कर अनेक कुगतियों में भटका। उनमें उसने बहुत कष्ट सहा । अन्त में वह मरकर ऐरावत क्षेत्रान्तर्गत भूतरमण नामक वन में बहने वाली वेगवती नाम की नदी के किनारे पर गोश्रृंग तापस की शंखिनी नाम की स्त्री के हरिणश्रृंग नामक पुत्र हुआ। वही पंचाग्नि तप तपकर यह विद्युवंष्ट्र विद्याधर हुआ है, जिसने कि संजयन्त मुनि पर पूर्वजन्म के बैर से घोर उपसर्ग किया और उनके छोटे भाई जयन्त मुनि निदान करके जो धरणेन्द्र हुए, वे तुम हो ॥११४-११९॥
संजयन्त मुनि पर पापी विद्युवंष्ट्र ने घोर उपसर्ग किया, तब भी वे पवित्रात्मा रंचमात्र विचलित नहीं हुए और सुमेरु के समान निश्चल रहकर उन्होंने सब परीषहों को सहा और सम्यक्त्व तप का उद्योत कर अन्त में मोक्ष प्राप्त किया । वहाँ उनके अनन्तज्ञानादि स्वाभाविक गुण प्रकट हुए। वे अनन्त काल तक मोक्ष में ही रहेंगे। अब वे संसार में नहीं आवेंगे ॥१२०-१२१॥”
दिवाकर ने कहा-नागेन्द्रराज ! यह संसार की स्थिति है। इसे देखकर इस बेचारे पर तुम्हें क्रोध करना उचित नहीं । इसे दया करके छोड़ दीजिये । सुनकर धरणेन्द्र बोला, मैं आपके कहने से इसे छोड़ देता है; परन्तु इसे अपने अभिमान का फल मिले, इसलिए मैं शाप देता हूँ कि -‘“मनुष्य पर्याय में इसे कभी विद्या की सिद्धि न हो ।” इसके बाद धरणेन्द्र अपने भाई संजयन्त मुनि के मृत शरीर की बड़ी भक्ति के साथ पूजा कर अपने स्थान पर चला गया ॥१२२-१२६॥
इस प्रकार उत्कृष्ट तपश्चर्या करके श्री संजयन्त मुनि ने अविनाशी मोक्ष श्री को प्राप्त किया। वे हमें भी उत्तम सुख प्रदान करें ॥१२७॥
श्रीमल्लिभूषण गुरु कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में हुए । जिनभगवान् के चरण कमलों के भ्रमर थे, उनकी भक्ति में सदा लीन रहते थे, सम्यग्ज्ञान के समुद्र थे, पवित्र चारित्र के धारक थे और संसार समुद्र से भव्य जीवों को पार करने वाले थे । वे ही मल्लिभूषण गुरु मुझे भी सुख-सम्पत्ति प्रदान करें ॥१२८॥
- Read more...
- 0 comments
- 276 views
-
जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अक्षरहीन अर्थ की कथा लिखी जाती है। मगधदेश की राजधानी राजगृह के राजा जब वीरसेन थे, उसी समय की यह कथा है। वीरसेन की रानी का नाम वीरसेना था। इनके एक पुत्र हुआ, उसका नाम रखा गया सिंह । सिंह को पढ़ाने के लिए वीरसेन महाराज ने सोमशर्मा ब्राह्मण को रखा । सोमशर्मा सब विषयों का अच्छा विद्वान् था ॥१-३॥
पोदनपुर के राजा सिंहरथ के साथ वीरसेन की बहुत दिनों से शत्रुता चली आती थी । सो मौका पाकर वीरसेन ने उस पर चढ़ाई कर दी। वहाँ से वीरसेन ने अपने यहाँ एक राज्य-व्यवस्था की बाबत पत्र लिखा और समाचारों के सिवा पत्र में वीरसेन ने एक यह भी समाचार लिख दिया था कि राजकुमार सिंह के पठन-पाठन की व्यवस्था अच्छी तरह करना। इसके लिए उन्होंने यह वाक्य लिखा था कि ‘सिंहो ध्यापयितव्यः”। जब यह पत्र पहुँचा तो इसे एक अर्धदग्ध ने बाँचकर सोचा-‘ध्यै' धातु का अर्थ है स्मृति या चिन्ता करना इसलिए अर्थ हुआ कि 'राजकुमार पर अब राज्य-चिन्ता का भार डाला जाये' उसे अब पढ़ाना उचित नहीं । बात यह थी कि उक्त वाक्य के पृथक् पद करने से - " सिंहः अध्यापयितव्यः” ऐसे पद होते हैं और इनका अर्थ होता है - सिंह को पढ़ाना, पर उस बाँचने वाले अर्धदग्ध ने इस वाक्य के - " सिंहः ध्यापयितव्य" ऐसे पद समझकर इसके सन्धिस्थ अकार पर ध्यान न दिया और केवल ‘ध्यै' धातु से बने हुए 'ध्यापयितव्यः' का चिन्ता अर्थ करके राजकुमार का लिखना-पढ़ना छुड़ा दिया । व्याकरण के अनुसार तो उक्त वाक्य के दोनों ही तरह पद होते है और दोनों ही शुद्ध हैं, पर यहाँ केवल व्याकरण की ही दरकार न थी । कुछ अनुभव भी होना चाहिए था । पत्र बाँचने वाले में इस अनुभव की कमी होने से उसने राजकुमार का पठन-पाठन छुड़ा दिया। इसका फल यह हुआ कि जब राजा आए और अपने कुमार का पठन-पाठन छूटा हुआ देखा तो उन्होंने उसके कारण की तलाश की। यथार्थ बात मालूम हो जाने पर उन्हें उस अर्धदग्ध-मूर्ख पत्र बाँचने वाले पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने इस मूर्खता की उसे बड़ी कड़ी सजा दी। इस कथा से भव्यजनों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वे कभी ऐसा प्रमाद न करें, जिससे कि अपने कार्य को किसी भी तरह की हानि पहुँचे। जिस प्रकार गुणहीन औषधि से कोई लाभ नहीं होता, वह शरीर के किसी रोग को नहीं मिटा सकती, उसी तरह अक्षर रहित शास्त्र या मन्त्र वगैरह भी लाभ नहीं पहुँचा सकते। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे सदा शुद्ध रीति से शास्त्राभ्यास करें - उसमें किसी तरह का प्रमाद न करें, जिससे कि हानि होने की संभावना है ॥४-११॥
- Read more...
- 0 comments
- 127 views
-
जिन भगवान्, जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर रात्रि भोजन का त्याग करने से जिसने फल प्राप्त किया उसकी कथा लिखी जाती है ॥१॥
जो लोग धर्मरक्षा के लिए, रात्रिभोजन का त्याग करते हैं, वे दोनों लोकों में सुखी होते हैं, यशस्वी होते हैं, दीर्घायु होते हैं, कान्तिमान होते हैं और उन्हें सब सम्पदाएँ तथा शान्ति मिलती है, और जो लोग रात में भोजन करने वाले हैं, वे दरिद्री होते हैं, जन्मांध होते हैं, अनेक रोग और व्याधियाँ उन्हें सदा सताए रहती हैं, उनके संतान नहीं होती । रात में भोजन करने से छोटे जीव जन्तु नहीं दिखाई पड़ते। वे खाने में आ जाते हैं। उससे बड़ा पापबन्ध होता है । जीवहिंसा का पाप लगता है। मांस का दोष लगता है । इसलिए रात्रिभोजन का छोड़ना सबके लिए हितकारी है और खासकर उन लोगों को तो छोड़ना ही चाहिए जो मांस नहीं खाते। ऐसे धर्मात्मा श्रावकों को दिन निकले दो घड़ी बाद सबेरे और दो घड़ी दिन बाकी रहे तब शाम को भोजन वगैरह से निवृत्त हो जाना चाहिए । समन्तभद्रस्वामी का भी ऐसा ही मत है - " रात्रि भोजन का त्याग करने वाले को सबेरे शाम को आरम्भ और अन्त में दो-दो घड़ी छोड़कर भोजन करना चाहिए ।" जो नैष्ठिक श्रावक नहीं हैं उनके लिए पान, सुपारी, इलायची, जल और पवित्र औषधि आदि का सेवन विशेष दोष के कारण नहीं है, इन्हें छोड़कर और अन्न की चीजें या मिठाई, फलादिक ये सब कष्ट पड़ने पर भी कभी न खाना चाहिए। जो भव्य जीवन भर के लिए चारों प्रकार के आहार का रात में त्याग कर देते हैं उन्हें वर्ष भर में छह माह के उपवास का फल होता है। रात्रिभोजन को त्याग करने से प्रीतिंकर कुमार को फल प्राप्त हुआ था उसकी विस्तृत कथा अन्य ग्रन्थों में प्रसिद्ध है। यहाँ उसका सार लिखा जाता है-॥२-९॥
मगध में सुप्रतिष्ठपुर अच्छा प्रसिद्ध शहर था । अपनी सम्पत्ति और सुन्दरता से वह स्वर्ग से टक्कर लेता था। जिनधर्म का वहाँ विशेष प्रचार था। जिस समय की यह कथा है, उस समय उसके राजा जयसेन थे। जयसेन धर्मज्ञ, नीतिपरायण और प्रजाहितैषी थे ॥१०-११॥
यहाँ धनमित्र नाम का एक सेठ रहता था। इसकी स्त्री का नाम धनमित्रा था। दोनों ही की जैनधर्म पर अखण्ड प्रीति थी। एक दिन सागरसेन नाम के अवधिज्ञानी मुनि को आहार देकर इन्होंने उनसे पूछा-प्रभो! हमें पुत्र सुख होगा या नहीं? यदि न हों तो हमें व्यर्थ की आशा से अपने दुर्लभ मनुष्य- जीवन को संसार के मोह-माया में फँसा रखकर, उसका क्यों दुरुपयोग करें? फिर क्यों न हम पापों के नाश करने वाली पवित्र जिनदीक्षा ग्रहण कर आत्महित करें ? मुनि ने इनके प्रश्न के उत्तर में कहा-हाँ अभी तुम्हारी दीक्षा का समय नहीं आया । कुछ दिन गृहवास में तुम्हें अभी और ठहरना पड़ेगा। तुम्हें एक महाभाग और कुलभूषण पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । वह बड़ा तेजस्वी होगा। उसके द्वारा अनेक प्राणियों का उद्धार होगा और वह इसी भव से मोक्ष जाएगा । अवधिज्ञानी मुनि की यह भविष्यवाणी सुनकर दोनों को अपार हर्ष हुआ। सच है, गुरुओं के वचनामृत का पान कर किसे हर्ष नहीं होता ॥१२-१७॥
तब से वे सेठ-सेठानी अपना समय जिनपूजा, अभिषेक, पात्रदान आदि पुण्य कर्मों में अधिक समय देने लगे, क्योंकि उन्हें पूर्ण विश्वास था कि सुख का कारण धर्म ही है। इस प्रकार आनन्द उत्सव के साथ कुछ दिन बीतने पर धनमित्रा ने एक प्रतापी पुत्र प्रसव किया। मुनि की भविष्यवाणी सच हुई। पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में सेठ ने बहुत उत्सव किया, दान दिया, पूजा प्रभावना की । बन्धु- बाँधवों को बड़ा आनन्द हुआ। उस नवजात शिशु को देखकर सबको अत्यन्त प्रीति हुई इसलिए उसका नाम भी प्रीतिंकर रख दिया गया। दूज के चाँद की तरह वह दिनों-दिन बढ़ने लगा। सुन्दरता में यह कामदेव से कहीं बढ़कर था, बड़ा भाग्यवान् था और इसके बल के सम्बन्ध में तो कहना ही , जबकि यह चरमशरीर का धारी - इसी भव से मोक्ष जाने वाला हैं । जब प्रीतिंकर पाँच वर्ष का हो गया, तब उसके पिता ने उसे पढ़ाने के लिए गुरु को सौंप दिया। इसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी और फिर इस पर गुरु की कृपा हो गई। इससे यह थोड़े ही वर्षों में पढ़ लिखकर योग्य विद्वान् बन गया। कई शास्त्रों में उसकी अबाधगति हो गई, गुरु- सेवारूपी नाव द्वारा इसने शास्त्ररूपी समुद्र का प्रायः अधिकांश पार कर लिया । विद्वान् और धनी होकर भी उसे अभिमान छू तक न पाया था। यह सदा लोगों को धर्म का उपदेश दिया करता और पढ़ाता - लिखाता था । उसमें आलस्य, ईर्ष्या, मत्सरता आदि दुर्गुणों का नाम निशान भी न था । यह सबसे प्रेम करता था। वह सबके दुःख-सुख में सहानुभूति रखता । वही कारण था कि उसे सब छोटे-बड़े हृदय से चाहते थे। जयसेन उसको ऐसी सज्जनता और परोपकार बुद्धि देखकर बहुत खुश हुए। उन्होंने स्वयं उसका वस्त्राभूषणों से आदर सत्कार किया, इससे उसकी इज्जत बढ़ाई ॥ १८-२६॥
यद्यपि प्रीतिंकर को धन दौलत की कोई कमी नहीं थी परन्तु तब भी एक दिन बैठे-बैठे उसके मन में आया कि अपने को भी कमाई करनी चाहिए । कर्तव्यशीलों का यह काम नहीं कि बैठे-बैठे अपने बाप-दादों की सम्पत्ति पर मजा - मौज उड़ाकर आलसी और कर्तव्यहीन बनें और न सपूतों का यह काम है। इसलिए मुझे धन कमाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । यह विचार कर उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं स्वयं कुछ न कमा लूँगा तब तक ब्याह न करूँगा । प्रतिज्ञा के साथ ही वह विदेश के लिए रवाना हो गया। कुछ वर्षों तक विदेश में ही रहकर उसने बहुत धन कमाया। खूब कीर्ति अर्जित की। उसे अपने घर से गए कई वर्ष बीत गए थे, इसलिए अब उसे अपने माता- पिता की याद आने लगी । फिर वह बहुत दिनों बाहर रहकर अपना सब माल असबाब लेकर घर लौट आया। सच हैं पुण्यवानों को लक्ष्मी थोड़े ही प्रयत्न से मिल जाती है । प्रीतिंकर अपने माता- पिता से मिला। सब को बहुत आनन्द हुआ। जयसेन का प्रीतिंकर की पुण्यवानी और प्रसिद्धि सुनकर उस पर अत्यन्त प्रेम हो गया। उन्होंने तब अपनी कुमारी पृथ्वीसुन्दरी और एक दूसरे देश से आई हुए वसुन्धरा तथा और भी कई सुन्दर-सुन्दर राजकुमारियों का ब्याह इस महाभाग के साथ बड़े ठाट-बाट से कर दिया। इसके साथ जयसेन ने अपना आधा राज्य भी इसे दे दिया । प्रीतिंकर के राज्य प्राप्ति आदि के सम्बन्ध की विशेष कथा यदि जानना हो तो महापुराण का स्वाध्याय करना चाहिए ॥२७-३३॥
प्रीतिंकर को पुण्योदय से जो राज्यविभूति प्राप्त हुई उसे सुखपूर्वक भोगने लगा। उसके दिन आनन्द-उत्सव के साथ बीतने लगे। इससे यह न समझना चाहिए कि प्रीतिंकर सदा विषयों में ही फँसा रहता है। वह धर्मात्मा भी था क्योंकि वह निरन्तर जिन भगवान् की अभिषेक - पूजा करता, जो कि स्वर्ग या मोक्ष का सुख देने वाली और बुरे भावों या पापकर्मों का नाश करने वाली है। वह श्रद्धा, भक्ति आदि गुणों से युक्त हो पात्रों को दान देता, जो दान महान् सुख का कारण है । वह जिनमन्दिरों, तीर्थक्षेत्रों, जिन प्रतिमाओं आदि सप्त क्षेत्रों की, जो कि शान्तिरूपी धन के प्राप्त कराने के कारण हैं, जरूरतों को अपने धनरूपी जल - वर्षा से पूरी करता, परोपकार करना उसके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था। वह स्वभाव का बड़ा सरल था । विद्वानों से उसे प्रेम था । इस प्रकार इस लोक सम्बन्धी और पारमार्थिक कार्यों में सदा तत्पर रहकर वह अपनी प्रजा का पालन करता रहता था ॥३४-३९॥
प्रीतिंकर का समय इस प्रकार बहुत सुख से बीतता था। एक बार सुप्रतिष्ठपुर के सुन्दर बगीचे में सागरसेन नाम के मुनि आकर ठहरे थे । उनका वहीं स्वर्गवास हो गया था। उनके बाद फिर इस बगीचे में आज चारणऋद्धि धारी ऋजुमति और विपुलमति मुनि आए । प्रीतिंकर तब बड़े वैभव के साथ भव्यजनों को लिए उनके दर्शनों को गया । मुनिराज के चरणों की आठ द्रव्यों से पूजा की और नमस्कार कर बड़े विनय के साथ धर्म का स्वरूप पूछा- तब ऋजुमति मुनि ने उसे इस प्रकार संक्षेप में धर्म का स्वरूप कहा- ॥४०-४४॥
प्रीतिंकर, धर्म उसे कहते हैं जो संसार के दुःखों से रक्षाकर उत्तम सुख प्राप्त करा सके। ऐसे धर्म के दो भेद हैं-एक मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थ धर्म । मुनियों का धर्म सर्व त्याग रूप होता है। सांसारिक माया-ममता से उनका कुछ सम्बन्ध नहीं रहता और वह उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि दस आत्मिक शक्तियों से युक्त होता है। गृहस्थधर्म में संसार के साथ लगाव रहता है। घर में रहते हुए धर्म का पालन करना पड़ता है। मुनिधर्म उन लोगों के लिए है जिनका आत्मा पूर्ण बलवान् है, जिनमें कष्टों के सहने की पूरी शक्ति है और गृहस्थ धर्म मुनिधर्म के प्राप्त करने की सीढ़ी है। जिस प्रकार एक साथ सौ-पचास सीढ़ियाँ नहीं चढ़ी जा सकतीं उसी प्रकार साधारण लोगों में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे एकदम मुनिधर्म ग्रहण कर सकें। उसके अभ्यास के लिए वे क्रम-क्रम से आगे बढ़ते जाँय, इसलिए पहले उन्हें गृहस्थधर्म का पालन करना पड़ता है। मुनिधर्म और गृहस्थधर्म में सबसे बड़ा भेद यह है कि, पहला साक्षात् मोक्ष का कारण है और दूसरा परम्परा से। श्रावकधर्म का मूल कारण है- सम्यग्दर्शन का पालन । यही मोक्ष - सुख का बीज है। बिना इसके प्राप्त किए ज्ञान, चारित्र वगैरह की कुछ कीमत नहीं। इस सम्यग्दर्शन को आठ अंगों सहित पालना चाहिए। सम्यक्त्व पालने के पहले मिथ्यात्व छोड़ा जाता है क्योंकि मिथ्यात्व ही आत्मा का एक ऐसा प्रबल शत्रु है जो संसार में इसे अनन्त काल तक भटकाये रहता है और कुगतियों के असह्य दुःखों को प्राप्त कराता है। मिथ्यात्व का संक्षिप्त लक्षण है-जिन भगवान् के उपदेश किए तत्त्व या धर्म से उल्टा चलना और यही धर्म से उल्टापन दुःख का कारण है । इसलिए उन पुरुषों को, जो सुख चाहते हैं, मिथ्यात्व के परित्याग पूर्वक शास्त्राभ्यास द्वारा अपनी बुद्धि को काँच के समान निर्मल बनानी चाहिए। इसके सिवा श्रावकों को मद्य, मांस और मधु (शहद) का त्याग करना चाहिए क्योंकि इनके खाने से जीवों को नरकादि दुर्गतियों में दुःख भोगना पड़ते हैं। श्रावकों के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रत हैं, उन्हें धारण करना चाहिए । रात के भोजन का, चमड़े में रखे हुए हींग, जल, घी, तैल आदि का तथा कन्दमूल, आचार और मक्खन का श्रावकों को खाना उचित नहीं। इनके खाने से मांस-त्याग- व्रत में दोष आता है। जुआ खेलना, चोरी करना, परस्त्री सेवन, वेश्या सेवन, शिकार करना, मांस खाना, मदिरा पीना ये सात व्यसन- दुःखों को देने वाली आदतें हैं। कुल, जाति, धन, जन, शरीर, सुख, कीर्ति, मान-मर्यादा आदि का नाश करने वाली हैं। श्रावकों को इन सबका दूर से ही काला मुँह कर देना चाहिए । इसके सिवा जल का छानना, पात्रों को भक्तिपूर्वक दान देना, श्रावकों का कर्तव्य होना चाहिए । ऋषियों ने पात्र तीन प्रकार बतलाये हैं । उत्तम पात्र- मुनि, मध्यम पात्र - व्रती श्रावक और जघन्य पात्र - अविरत - सम्यग्दृष्टि । इनके सिवा कुछ लोग और ऐसे हैं, जो दान पात्र होते हैं- दु:खी, अनाथ, अपाहिज आदि, जिन्हें कि दयाबुद्धि से दान देना चाहिए। पात्रों को जो थोड़ा भी दान देते हैं उन्हें उस दान का फल वटबीज की तरह अनन्त गुण मिलता है। श्रावकों के और भी आवश्यक कर्म हैं । जैसे- स्वर्ग - मोक्ष के सुख की कारण जिन भगवान् की जलादि द्रव्यों द्वारा पूजा करना, अभिषेक करना, जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराना, तीर्थयात्रा करना आदि। ये सब सुख के कारण और दुर्गति के दुःखों के नाश करने वाले हैं। इस प्रकार धार्मिक जीवन बना कर अन्त में भगवान् का स्मरण - चिंतन पूर्वक संन्यास लेना चाहिए। यही जीवन के सफलता का सीधा और सच्चा मार्ग है। इस प्रकार मुनिराज द्वारा धर्म का उपदेश सुनकर बहुतेरे सज्जनों ने व्रत, नियमादि को ग्रहण किया जैनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई। प्रीतिंकर ने मुनिराज को नमस्कार कर पुनः प्रार्थना की- हे करुणा के समुद्र योगिराज ! कृपाकर मुझे मेरे पूर्वभव का हाल सुनाइए। मुनिराज ने तब यों कहना शुरू किया- ॥४५-६५॥
" प्रीतिंकर, इसी बगीचे में पहले तपस्वी सागरसेन मुनि आकर ठहरे थे । उनके दर्शनों के लिए राजा वगैरह प्रायः सब ही नगर निवासी बड़े गाजे-बाजे और आनन्द उत्सव के साथ आये थे। वे मुनिराज की पूजा-स्तुति कर वापस शहर में चले गए। इसी समय एक सियार ने इनके गाजे-बाजे के शब्दों को सुनकर यह समझा कि ये लोग किसी मुर्दे को डाल कर गए हैं। सो वह उसे खाने के लिए आया। उसे आता देख मुनि ने अवधिज्ञान से जान लिया कि यह मुर्दे को खाने के अभिप्राय से इधर आ रहा है। पर यह है भव्य और व्रतों को धारण कर मोक्ष जायेगा । इसलिए इसे सुलटाना आवश्यक है। यह विचार कर मुनिराज ने उसे समझाया - अज्ञानी पशु, तुझे मालूम नहीं कि पाप का परिणाम बहुत बुरा होता है। देख, पाप के ही फल से तुझे आज इस पर्याय में आना पड़ा और फिर भी तू पाप करने से मुँह न मोड़कर मुर्दे को खाने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है, यह कितने आश्चर्य की बात है। तेरी इस इच्छा को धिक्कार है । प्रिय, जब तक तू नरकों में न गिरे इसके पहले ही तुझे यह महा पाप छोड़ देना चाहिए। तूने जिनधर्म को न ग्रहण कर आज तक दुःख उठाया, पर अब तेरे लिए बहुत अच्छा समय उपस्थित है। इसलिए तू इस पुण्य-पथ पर चलना सीख। सियार का होनहार अच्छा था या उसकी काललब्धि आ गई थी । यही कारण था कि मुनि के उपदेश को सुनकर वह बहुत शान्त हो गया। उसने जान लिया कि मुनिराज मेरे हृदय की वासना को जान गए । उसे इस प्रकार शान्त देखकर मुनि फिर बोले-प्रिय, तू और व्रतों को धारण नहीं कर सकता, इसलिए सिर्फ रात में खाना- पीना ही छोड़ दे। यह व्रत सर्व व्रतों का मूल है, सुख का देने वाला है और चित्त का प्रसन्न करने वाला है। सियार ने उपकारी मुनिराज के वचनों को मानकर रात्रिभोजन - त्याग - व्रत ले लिया। कुछ दिनों तक तो उसने केवल उसी व्रत को पाला । उसके बाद उसने मांस वगैरह भी छोड़ दिया । उसे जो कुछ थोड़ा पवित्र खाना मिल जाता, वह उसी को खाकर रह जाता । इस वृत्ति से उसे सन्तोष बहुत हो गया था। बस वह इसी प्रकार समय बिताता और मुनिराज के चरणों को स्मरण किया करता ॥६६-७८॥
इस प्रकार कभी खाने को मिलने और कभी न मिलने से वह सियार बहुत ही दुबला हो गया। ऐसी दशा में एक दिन उसे केवल सूखा भोजन खाने को मिला । समय गर्मी का था। उसे बड़े जोर की प्यास लगी। उसके प्राण छटपटाने लगे। वह एक कुँए पर पानी पीने को गया। भाग्य से कुँए का पानी बहुत नीचा था। जब वह कुँए में उतरा तो उसे अँधेरा ही अँधेरा दीखने लगा। कारण सूर्य का प्रकाश भीतर नहीं पहुँच पाता था । इसलिए सियार ने समझा कि रात हो गई, सो वह बिना पानी पिए ही कुँए के बाहर आ गया। बाहर आकर जब उसने दिन देखा तो फिर वह भीतर उतरा और भीतर पहले सा अँधेरा देखकर रात के भ्रम से फिर लौट आया। इस प्रकार वह कितनी ही बार आया गया, पर जल नहीं पी पाया। अन्त में वह इतना अशक्त हो गया कि उससे कुँए से बाहर नहीं आया गया। उसने तब घोर अँधेरे को देखकर सूरज को अस्त हुआ समझ लिया और वहीं वह संसार समुद्र से पार करने वाले अपने गुरु मुनिराज का स्मरण - चिन्तन करने लगा । तृषा रूपी आग उसे जलाए डालती थी, तब भी वह अपने व्रत में बड़ा दृढ़ रहा । उसके परिणाम क्लेशरूप या आकुल-व्याकुल न होकर बड़े शान्त रहे। उसी दशा में वह मरकर कुबेरदत्त और उसकी स्त्री धनमित्रा के प्रीतिंकर पुत्र हुआ है। तेरा यह अन्तिम शरीर है । अब तू कर्मों का नाश कर मोक्ष जाएगा। इसलिए सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि वे कष्ट समय में व्रतों की दृढ़ता से रक्षा करें । मुनिराज द्वारा प्रीतिंकर का यह पूर्व जन्म का हाल सुन उपस्थित मंडली की जिनधर्म पर अचल श्रद्धा हो गई। प्रीतिंकर को अपने इस वृत्तान्त से बड़ा वैराग्य हुआ। उसने जैनधर्म की बहुत प्रशंसा की और अन्त में उन स्वपरोपकार के करने वाले मुनिराजों को भक्ति से नमस्कार कर व्रतों के प्रभाव को हृदय में विचारता हुआ वह घर पर आया ॥ ७९-८९॥
मुनिराज के उपदेश का उस पर बहुत गहरा असर पड़ा। उसे अब संसार अस्थिर, विषयभोग दुःखों के देने वाले, शरीर पवित्र - अपवित्र वस्तुओं से भरा, महाघिनौना और नाश होने वाला, धन- दौलत बिजली की तरह चंचल और केवल बाहर से सुन्दर देख पड़ने वाली तथा स्त्री-पुत्र, भाई- बन्धु आदि ये सब अपने आत्मा से पृथक् जान पड़ने लगे। उसने तब इस मोहजाल की, जो केवल फँसाकर संसार में भटकाने वाला है, तोड़ देना ही उचित समझा। इस शुभ संकल्प के दृढ़ होते ही पहले प्रीतिंकर ने अभिषेक पूर्वक भगवान् की सब सुखों को देने वाली पूजा की, खूब दान किया और दुःखी, अनाथ, अपाहिजों की सहायता की । अन्त में वह अपने प्रियंकर पुत्र को राज्य देकर अपने बन्धु, बांधवों की सम्मति से योग लेने के लिए विपुलाचल पर भगवान् वर्धमान के समवसरण में गया और उन त्रिलोक पूज्य भगवान् के पवित्र दर्शन कर उसने भगवान् के द्वारा जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इसके बाद प्रीतिंकर मुनि ने खूब दुःसह तपस्या की और अन्त में शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया। अब वे लोकालोक के सब पदार्थों को हाथ की रेखाओं के समान साफ-साफ जानने देखने लग गए। उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। यह सुन विद्याधर, चक्रवर्ती, स्वर्ग के देव आदि बड़े-बड़े महापुरुष उनके दर्शन - -पूजन आने लगे। प्रीतिंकर भगवान् ने तब संसार ताप को नाश करने वाले परम पवित्र उपदेशामृत से अनेक जीवों को दुःखों से छुड़ाकर सुखी बनाये । अन्त में अघातिया कर्मों का नाश कर वे परम धाम मोक्ष सिधार गए। आठ कर्मों का नाश कर आठ आत्मिक महान् शक्तियों को उन्होंने प्राप्त किया । अब वे संसार में न आकर अनन्त काल तक वहीं रहेंगे । वे प्रीतिंकर स्वामी मुझे शांति प्रदान करें । प्रीतिंकर का यह पवित्र और कल्याण करने वाला चरित आप भव्यजनों को और मुझे सम्यग्ज्ञान के लाभ का कारण हो। यही मेरी पवित्र भावना है ॥९०-१००॥
एक अत्यन्त अज्ञानी पशुओं में जन्मे सियार ने भगवान् के पवित्र धर्म का थोड़ा सा आश्रय लिया अर्थात् केवल रात्रिभोजनत्याग व्रत स्वीकार कर मनुष्य जन्म लिया और उसमें खूब सुख भोगकर अन्त में अविनाशी मोक्ष - लक्ष्मी प्राप्त की । तब आप हम लोग भी क्यों न इस अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए पवित्र जैनधर्म में अपने विश्वास को दृढ़ करें ॥१०१॥
- Read more...
- 0 comments
- 622 views