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१००. मनुष्य-जन्म की दुर्लभता के दस दृष्टान्त


admin

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अतिशय निर्मल केवलज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर मनुष्य जन्म का मिलना कितना कठिन है, इस बात को दस दृष्टान्तों - उदाहरणों द्वारा खुलासा समझाया जाता है ॥१॥

१. चोल्लक, २. पासा, ३. धान्य, ४. जुआ, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र, ८. कछुआ, ९. युग और १०. परमाणु।

अब पहले ही चोल्लक दृष्टान्त लिखा जाता है, उसे आप ध्यान से सुनें ।

१. चोल्लक

संसार के हितकर्ता नेमिनाथ भगवान् को निर्वाण गए बाद अयोध्या में ब्रह्मदत्त बारहवें चक्रवर्ती हुए। उनके एक वीर सामन्त का नाम सहस्रभट था । सहस्रभट की स्त्री सुमित्रा के सन्तान में एक लड़का था। उसका नाम वसुदेव था । वसुदेव न तो कुछ पढ़ा-लिखा था और न राज-सेवा वगैरह की उसमें योग्यता थी । इसलिए अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी जगह इसे न मिल सकी, जो कि एक अच्छी प्रतिष्ठित जगह थी और यह सच है कि बिना कुछ योग्यता प्राप्त किए राज-सेवा आदि में आदर-मान की जगह मिल भी नहीं सकती। उसकी इस दशा पर माता को बड़ा दुःख हुआ । पर बेचारी कुछ करने-धरने को लाचार थी । वह अपनी गरीबी के कारण एक पुरानी गिरी - पड़ी झोपड़ी में रहने लगी और जिस किसी प्रकार अपना गुजारा चलाने लगी। उसने भावी आशा से वसुदेव से कुछ काम लेना शुरू किया। वह लड्डू, पेड़ा, पान आदि वस्तुएँ एक खोमचे में रखकर उसे आस-पास के गाँवों में भेजने लगी, इसलिए कि वसुदेव को कुछ परिश्रम करना आ जाए, वह कुछ होशियार हो जाए । ऐसा करने से सुमित्रा को सफलता प्राप्त हुई और वसुदेव कुछ सीख भी गया । उसे पहले की तरह अब निकम्मा बैठे रहना अच्छा न लगने लगा। सुमित्रा ने तब कुछ वसीला लगाकर वसुदेव को राजा का अंगरक्षक नियत करा दिया ॥२-९॥

एक दिन चक्रवर्ती हवा-खोरी के लिए घोड़े पर सवार हो शहर बाहर हुए। जिस घोड़े पर वे बैठे थे वह बड़े दुष्ट स्वभाव को लिए था । सो जरा ही पाँव की एड़ी लगाने पर वह चक्रवर्ती को लेकर हवा हो गया। बड़ी दूर जाकर उसने उन्हें एक बड़ी भयावनी वन में ला गिराया। इस समय चक्रवर्ती बड़े कष्ट में थे। भूख-प्यास से उनके प्राण छटपटा रहे थे। पाठकों को स्मरण है कि इनके अंगरक्षक वासुदेव को उसकी माँ ने चलने-फिरने और दौड़ने-दुड़ाने के काम में अच्छा होशियार कर दिया था। यही कारण था कि जिस समय चक्रवर्ती को घोड़ा लेकर भागा, उस समय वसुदेव भी कुछ खाने-पीने की वस्तुएँ लेकर उनके पीछे-पीछे बेतहाशा भागा गया। चक्रवर्ती को आध-पौन घंटा वन में बैठे हुआ होगा कि इतने में वसुदेव भी उनके पास जा पहुँचा। खाने-पीने की वस्तुएँ उसने महाराज को भेंट की। चक्रवर्ती उससे बहुत सन्तुष्ट हुए। सच है, योग्य समय में थोड़ा भी दिया हुआ सुख का कारण होता है। जैसे बुझते हुए दीप में थोड़ा भी तेल डालने से वह झट से तेज हो उठता है। चक्रवर्ती ने खुश होकर उससे पूछा तू कौन है? उत्तर में वसुदेव ने कहा- महाराज, सहस्रभट सामन्त का मैं पुत्र हूँ, चक्रवर्ती फिर विशेष कुछ पूछताछ करके चलते समय उसे एक रत्नमयी कंकण देते गए ॥१०-१४॥

अयोध्या में पहुँचा कर ही उन्होंने कोतवाल से कहा- मेरा कड़ा खो गया है, उसे ढूँढ़कर पता लगाइए। राजाज्ञा पाकर कोतवाल उसे ढूँढ़ने को निकला । रास्ते में एक जगह इसने वसुदेव को कुछ लोगों के साथ कड़े के सम्बन्ध की ही बात-चीत करते पाया। कोतवाल तब उसे पकड़ कर राजा के पास लिवा ले गया। चक्रवर्ती उसे देखकर बोले- मैं तुझ पर बहुत खुश हूँ । तुझे जो चाहिए वही माँग ले। वसुदेव बोला-महाराज, इस विषय में मैं कुछ नहीं जानता कि मैं आपसे क्या माँगूं। यदि आप आज्ञा करें तो मेरी माँ से पूछ आऊँ । चक्रवर्ती के कहने से वह अपनी माँ के पास गया और उसे पूछ आकर चक्रवर्ती से उसने प्रार्थना की महाराज, आप मुझे चोल्लक भोजन कराइए। उससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। तब चक्रवर्ती ने उनसे पूछा- भाई, चोल्लक भोजन किसे कहते हैं? हमने तो उसका नाम भी आज तक नहीं सुना । वसुदेव ने कहा - सुनिए महाराज, पहले तो बड़े आदर के साथ आपके महल में मुझे भोजन कराया जाए और खूब अच्छे-अच्छे सुन्दर कपड़े, गहने - दागीने दिये जायें। इसके बाद उसकी तरह आपकी रानियों के महलों में क्रम-क्रम से मेरा भोजन हो । फिर आपके परिवार तथा मण्डलेश्वर राजाओं के यहाँ मुझे इसी प्रकार भोजन कराया जाए। इतना सब हो चुकने पर क्रम-क्रम से फिर आप ही के यहाँ मेरा अन्तिम भोजन हो । महाराज, मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपकी आज्ञा से मुझे यह सब प्राप्त हो सकेगा ॥ १५-२३॥

भव्यजनों! इस उदाहरण से यह शिक्षा लेने की है कि यह चोल्लक भोजन वसुदेव सरीखे कंगाल को शायद प्राप्त हो भी जाए तो भी इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं, पर एक बार प्रमाद से खो-दिया गया मनुष्य जन्म बेशक अत्यन्त दुर्लभ है। फिर लाख प्रयत्न करने पर भी वह सहसा नहीं मिल सकता । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे दुःख के कारण खोटे मार्ग को छोड़कर जैनधर्म का शरण लें, जो कि मनुष्य जन्म की प्राप्ति और मोक्ष का प्रधान कारण है ॥२४-२५॥

२. पाशे का दृष्टान्त

मगध देश में शतद्वार नाम का एक अच्छा शहर था उसके राजा का नाम शतद्वार था। शतद्वार ने अपने शहर में एक ऐसा देखने योग्य दरवाजा बनवाया, कि जिसमें ग्यारह हजार खंभे थे। उन एक-एक खम्भे में छियानवे ऐसे स्थान बने हुए थे जिनमें जुआरी लोग पाशे द्वारा सदा जुआ खेला करते थे। एक शिवशर्मा नाम के ब्राह्मण ने उन जुआरियों से प्रार्थना की- भाइयों, मैं बहुत ही गरीब हूँ, इसलिए यदि आप मेरा इतना उपकार करें, कि आप सब खेलने वालों का दाव यदि किसी समय एक ही सा पड़ जाए और वह सब धन-माल आप मुझे दे दें, तो बहुत अच्छा हो। जुआरियों ने शिवशर्मा की प्रार्थना स्वीकार कर ली । इसलिए कि उन्हें विश्वास था कि ऐसा होना नितान्त ही कठिन है, बल्कि असंभव है । पर दैवयोग ऐसा हुआ कि एक बार सबका दाव एक ही सा पड़ गया और उन्हें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सब धन शिवशर्मा को दे देना पड़ा। वह उस धन को पाकर बहुत खुश हुए। इस दृष्टान्त से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जैसा योग शिवशर्मा को मिला था, वैसा योग मिलकर और कर्मयोग से इतना धन भी प्राप्त हो जाए तो कोई बात नहीं, परन्तु जो मनुष्य जन्म एक बार प्रमाद वश हो नष्ट कर दिया जाए तो वह फिर सहज में नहीं मिल सकता। इसलिए सत्पुरुषों को निरन्तर ऐसे पवित्र कार्य करते रहना चाहिए, जो मनुष्य - जन्म या स्वर्ग - मोक्ष के प्राप्त कराने वाले हैं ऐसे कर्म हैं-जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करना, दान देना, परोपकार करना, व्रतों का पालना, ब्रह्मचर्य से रहना और उपवास करना आदि ॥२६-३४॥

३. धान्य दृष्टान्त

एक बड़ा भारी गड्डा खोदा जाकर वह सरसों से भर दिया जाये ॥३५॥

उसमें से फिर रोज-रोज एक-एक सरसों निकाली जाया करे। ऐसा निरन्तर करते रहने से एक दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस दिन वह कुण्ड सरसों से खाली हो जायेगा । पर यदि प्रमाद से यह जन्म नष्ट हो गया तो वह समय फिर आना एक तरह असम्भव ही हो जायेगा, जिनमें कि मनुष्य जन्म मिल सके। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे प्राप्त हुए मनुष्य जन्म को निष्फल न खोकर जिनपूजा, व्रत, दान, परोपकारादि पवित्र कामों में लगावें, क्योंकि ये सब परम्परा मोक्ष के साधन हैं ॥३६-३७॥

धान्य का दूसरा दृष्टान्त

अयोध्या के राजा प्रजापाल पर राजगृह के जितशत्रु राजा ने एक बार चढ़ाई की और सारी अयोध्या को सब ओर से घेर लिया। तब राजा ने अपनी प्रजा से कहा- जिसके यहाँ धान के जितने बोरे हों, उन सब बोरों को लाकर और गिनती करके मेरे कोठों में सुरक्षित रख दें। मेरी इच्छा है कि शत्रु को एक अन्न का दाना भी यहाँ से प्राप्त न हो। ऐसी हालत में उसे झखमार कर लौट जाना पड़ेगा। सारी प्रजा ने राजा की आज्ञानुसार ऐसा ही किया । जब अभिमानी शत्रु को अयोध्या से अन्न न मिला तब थोड़े ही दिनों में उसकी अकल ठिकाने पर आ गई। उसकी सेना भूख के मारे मरने लगी। आखिर जितशत्रु को लौट जाना ही पड़ा। जब शत्रु अयोध्या का घेरा उठा चल दिया तब प्रजा ने राजा से अपने-अपने धान के ले जाने की प्रार्थना की। राजा ने कह दिया कि हाँ अपना-अपना धान पहचान कर सब लोग ले जायें। कभी कर्मयोग से ऐसा हो जाना भी सम्भव है, पर यदि मनुष्य जन्म एक बार व्यर्थ नष्ट हो गया तो उसका पुनः मिलना अत्यन्त ही कठिन है। इसलिए इसे व्यर्थ खोना उचित नहीं । इसे तो सदा शुभ कामों में ही लगाये रहना चाहिए ॥३८-४५॥

४. जुआ का दृष्टान्त

शतद्वारपुर में पाँच सौ सुन्दर दरवाजे हैं। उन एक-एक दरवाजों में जुआ खेलने के पाँच-पाँच सौ अड्डे हैं, उन एक-एक अड्डों में पाँच-पाँच सौ जुआरी लोग जुआ खेलते हैं। उनमें एक चयी नाम का जुआरी है। ये सब जुआरी कौड़ियाँ जीत-जीत कर अपने-अपने गाँवों में चले गए। चयी वहीं रहा । भाग्य से इन सब जुआरियों का और इस चयी का फिर भी कभी मुकाबला होना सम्भव है, पर नष्ट हुए मनुष्य-जन्म का पुण्यहीन पुरुषों को फिर सहसा मिलना दरअसल कठिन है ॥४६-५०॥

जुआ का दूसरा दृष्टान्त

इसी शतद्वारपुर में निर्लक्षण नाम का एक जुआरी था । उसके इतना भारी पापकर्म का उदय था कि वह स्वप्न में भी कभी जीत नहीं पाता था । एक दिन कर्मयोग से वह भी खूब धन जीता । जीतकर उस धन को उसने याचकों को बाँट दिया। वे सब धन लेकर चारों दिशाओं में जिसे जिधर जाना था उधर चले गए। वे सब लोग दैवयोग से फिर भी कभी इकट्ठे हो सकते हैं, पर गया जन्म फिर हाथ आना दुष्कर है। इसलिए जब तक मोक्ष न मिले तब तक यह मनुष्य - जन्म प्राप्त होता रहे, इसके लिए धर्म की शरण सदा लिए रहना चाहिए ॥५१-५४॥

५. रत्न-दृष्टान्त

भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, सुभौम, महापद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती इनके मुकुटों में जड़े हुए मणि, जिन्हें स्वर्गों के देव ले गए हैं और वे चौदह रत्न, नौ निधि तथा सब देव, ये सब कभी इकट्ठे नहीं हो सकते; इसी तरह खोया हुआ मनुष्य जीवन पुण्यहीन पुरुष कभी प्राप्त नहीं कर सकते। यह जानकर बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्तव्य है कि वे मनुष्य जीवन प्राप्त करने के कारण जैनधर्म को ग्रहण करें ॥५५-६०॥

६. स्वप्न-दृष्टान्त

उज्जैन में एक लकड़हारा रहता था। वह जंगल में से लकड़ी काट कर लाता और बाजार में बेच दिया करता था। उसी से उसका गुजारा चलता था । एक दिन वह लकड़ी का गट्ठा सिर पर लादे आ रहा था। ऊपर से बहुत गरमी पड़ रही थी । सो वह एक वृक्ष की छाया में सिर पर का गट्ठा उतार कर वहीं सो गया। ठंडी हवा बह रही थी। सो उसे नींद आ गई। उसने एक सपना देखा कि वह सारी पृथ्वी का मालिक चक्रवर्ती हो गया। हजारों नौकर-चाकर उसके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं। जो वह आज्ञा- हुक्म करता है वह सब उसी समय बजाया जाता है । यह सब कुछ हो रहा था इतने में उसकी स्त्री ने आकर उसे उठा दिया। बेचारे की सब सपने की सम्पत्ति आँख खोलते ही नष्ट हो गई उसे फिर वही लकड़ी का गट्ठा सिर पर लादना पड़ा। जिस तरह वह लकड़हारा स्वप्न में चक्रवर्ती बन गया, पर जगने पर रहा लकड़हारा का लकड़हारा ही । उसके हाथ कुछ भी धन-दौलत न लगी। ठीक इसी तरह जिसने एक बार मनुष्य जन्म प्राप्त कर व्यर्थ गँवा दिया उस पुण्यहीन मनुष्य के लिए फिर वह मनुष्य-जन्म जागृतदशा में लकड़हारे को न मिलने वाली चक्रवर्ती की सम्पत्ति की तरह असम्भव है ॥६१-६४॥

७. चक्र-दृष्टान्त

अब चक्र-दृष्टान्त कहा जाता है। बाईस मजबूत खम्भे हैं। एक-एक खम्भे पर एक-एक चक्र लगा हुआ है, एक-एक चक्र में हजार-हजार आरे हैं उन आरों में एक-एक छेद है। चक्र सब उल्टे घूम रहे हैं। पर जो वीर पुरुष हैं वे ऐसी हालत में भी उन खम्भों पर की राधा को वेध देते हैं। काकन्दी के राजा द्रुपद की कुमारी का नाम द्रौपदी था । वह बड़ी सुन्दरी थी । उसके स्वयंवर में अर्जुन ने ऐसी ही राधा वेध कर द्रौपदी को ब्याहा था । सो ठीक ही है पुण्य के उदय से प्राणियों को सब कुछ प्राप्त हो सकता है। यह सब योग कठिन होने पर भी मिल सकता है, पर यदि प्रमाद से मनुष्य जन्म एक बार नष्ट कर दिया जाए तो उसका मिलना बेशक कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है । वह प्राप्त होता है पुण्य से, इसलिए पुण्य के प्राप्त करने का यत्न करना अत्यन्त आवश्यक है ॥६५-७०॥

८. कछुए का दृष्टान्त

सबसे बड़े स्वयंभूरमण समुद्र को एक बड़े भारी चमड़े में छोटा-सा छेद करके उससे ढक दीजिए। समुद्र में घूमते हुए एक कछुए ने कोई एक हजार वर्ष बाद उस चमड़े के छोटे से छेद में से सूर्य को देखा। वह छेद उससे फिर छूट गया । भाग्य से यदि फिर कभी ऐसा ही योग मिल जाए कि वह उस छिद्र पर फिर भी आ पहुँचे और सूर्य को देख ले, पर यदि मनुष्य-जन्म इसी तरह प्रमाद से नष्ट हो गया तो सचमुच ही उसका मिलना बहुत कठिन है ॥७१ - ७४॥

९. युग का दृष्टान्त

दो लाख योजन चौड़े पूर्व के लवणसमुद्र में युग (धुरा) के छेद से गिरी हुई समिलाका पश्चिम समुद्र में बहते हुए युग (धुरा) के छेद में समय पाकर प्रवेश कर जाना सम्भव है, पर प्रमाद या विषयभोगों द्वारा गँवाया हुआ मनुष्य जीवन पुण्यहीन पुरुषों के लिए फिर सहसा मिलना असम्भव है। इसलिए जिन्हें दुःखों से छूटकर मोक्ष सुख प्राप्त करना है उन्हें तब तक ऐसे पुण्यकर्म करते रहना चाहिए कि जिनसे मोक्ष होने तक बराबर मनुष्य जीवन मिलता रहे ॥७५ -७८॥

१०. परमाणु दृष्टान्त

चार हाथ लम्बे चक्रवर्ती के दण्डरत्न के परमाणु बिखर कर दूसरी अवस्था को प्राप्त कर लें और फिर वे ही परमाणु दैवयोग से फिर कभी दण्डरत्न के रूप में आ जाएँ तो असम्भव नहीं, पर मनुष्य पर्याय यदि एक बार दुष्कर्मों द्वारा व्यर्थ खो दिया तो इसका फिर उन अभागे जीवों को प्राप्त हो जाना जरूर असम्भव है। इसलिए पण्डितों को मनुष्य पर्याय की प्राप्ति के लिए पुण्यकर्म करना कर्तव्य है॥७९-८१॥

इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जीवन को अत्यन्त दुर्लभ समझ कर बुद्धिमानों को उचित है कि वे मोक्ष सुख के लिए संसार के जीवमात्र के हित करने वाले पवित्र जैनधर्म को ग्रहण करें ॥८२॥

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