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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    निर्मल केवलज्ञान धारी जिन भगवान् को नमस्कार का मान करने से बुरा फल प्राप्त करने वाले की कथा लिखी जाती है। इस कथा को सुनकर जो लोग मान के छोड़ने का यत्न करेंगे वे सुख लाभ करेंगे ॥१॥
    बनारस के राजा वृषध्वज प्रजा का हित चाहने वाले और बड़े बुद्धिमान् थे । इनकी रानी का नाम वसुमती था। वसुमती बड़ी सुन्दर थी। राजा का उस पर अत्यन्त प्रेम था ॥२-३॥
    गंगा के किनारे पर पलास नाम का एक गाँव बसा हुआ था। उसमें अशोक नाम का एक ग्वाला रहता था । वह ग्वाला राजा को गाँव के लगान में कोई एक हजार घी के भरे घड़े दिया करता था। उसकी स्त्री नन्दा पर इसका प्रेम न था । इसलिए कि वह बाँझ थी और यह सच है, सुन्दर या गुणवान् स्त्री भी बिना पुत्र के शोभा नहीं पाती है और न उस पर पति का पूरा प्रेम होता है । वह फल रहित लता की तरह निष्फल समझी जाती है। अपनी पहली स्त्री को निःसन्तान देखकर अशोक ग्वाले ने एक और ब्याह कर लिया। इस नई स्त्री का नाम सुनन्दा था। कुछ दिनों तक तो इन दोनों सौतों में लोक-लाज से पटती रही, पर जब बहुत ही लड़ाई-झगड़ा होने लगा तब अशोक ने इनसे तंग आकर अपनी जितनी धन-सम्पत्ति थी उसे दोनों के लिए आधी-आधी बाँट दिया । नन्दा को अलग घर में रहना पड़ा और सुनन्दा अशोक के पास ही रही । नन्दा में एक बात बड़ी अच्छी थीं वह एक तो समझदार थी। दूसरे वह अपने दूध दुहने के लिए बरतन वगैरह को बड़ा साफ रखती । उसे सफाई बड़ी पसन्द थी। इसके सिवा वह अपने नौकर ग्वाले पर बड़ा प्रेम करती। उन्हें अपना नौकर न समझ अपने कुटुम्ब की तरह मानती। वह उनका बड़ा आदर-सत्कार करती। उन्हें हर एक त्यौहारों के मौकों पर दान- मानादि से बड़ा खुश रखती। इसलिए वे ग्वाले लोग भी उसे बहुत चाहते थे और उनके कामों को अपना ही समझ कर किया करते थे। जब वर्ष पूरा होता तो नन्दा राज लगान के हजार घी के घड़ों से अपना आधा हिस्सा पाँच सौ घड़े अपने स्वामी को प्रतिवर्ष दे दिया करती थी। पर सुनन्दा में ये सब बातें न थीं। उसे अपनी सुन्दरता का बड़ा अभिमान था । इसके सिवा यह बड़ी शौकीन थी । साज - सिंगार में ही उसका सब समय चला जाता था। वह अपने हाथों से कोई काम करना पसन्द न करती थी। सब नौकर-चाकरों द्वारा ही होता था। इस पर भी उसका अपने नौकरों के साथ अच्छा बरताव न था । सदा उनके साथ वह माथा- -फोड़ी किया करती थी। किसी का अपमान करती, किसी को गालियाँ देती और किसी को भला-बुरा कहकर झिटकारती । न वह उन्हें कभी त्यौहारों पर कुछ देकर प्रसन्न करती। गर्ज यह कि सब नौकर-चाकर उससे प्रसन्न न थे। जहाँ तक उनका बस चलता वे भी सुनन्दा को हानि पहुँचाने का यत्न करते थे। यहाँ तक कि वे जो गायों को चराने जंगल में ले जाते, वहाँ उनका दूध दुह कर पी लिया करते थे। इससे सुनन्दा के यहाँ पहले वर्ष में ही घी बहुत थोड़ा हुआ। वह राज लगान का अपना आधा हिस्सा भी न दे सकी। उसके इस आधे हिस्से को भी बेचारी नन्दा ने ही चुकाया । सुनन्दा की यह दशा देख कर अशोक ने घर से निकाल बाहर की । नन्दा को अपना गया अधिकार प्राप्त हुआ । पुण्य से वह अशोक की प्रेमपात्र हुई । घर बार, धन-दौलत की वह मालकिन हुई जिस प्रकार नन्दा अपने घर गृहस्थी के कामों को अच्छी तरह चलाने के लिए सदा दान - मानादि किया करती उसी प्रकार अपने पारमार्थिक कामों के लिए भव्यजनों को भी अभिमान रहित होकर जैनधर्मखुश रखती। इसलिए वे ग्वाले लोग भी उसे बहुत चाहते थे और उनके कामों को अपना ही समझ कर किया करते थे। जब वर्ष पूरा होता तो  की उन्नति के कार्यों में दान- मानादि करते रहना चाहिए। उससे वे सुखी होंगे और सम्यग्ज्ञान लाभ करेंगे। जो स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले जिन भगवान् को बड़ी भक्ति से पूजा-प्रभावना करते हैं, भगवान् के उपदेश किए शास्त्रों के अनुसार चल उनका सत्कार करते हैं, पवित्र जैनधर्म पर श्रद्धा - विश्वास करते हैं और सज्जन धर्मात्माओं का आदर सत्कार करते हैं वे संसार में सर्वोच्च यश लाभ करते हैं और अन्त में कर्मों का नाश कर परम पवित्र केवलज्ञान - कभी नाश न होने वाला सुख प्राप्त करते हैं ॥४-१७॥
  2. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    पुण्य के कारण जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर उपधान अवग्रह की अर्थात् वह काम जब तक न होगा तब तक मैं ऐसी प्रतिज्ञा करता हूँ, इस प्रकार का नियम कर जिसने फल प्राप्त किया, उसकी कथा लिखी जाती है, जो सुख को देने वाली है॥१॥
    अहिच्छत्रपुर के राजा वसुपाल बड़े बुद्धिमान् थे। जैनधर्म पर उनकी बड़ी श्रद्धा थी। उनकी रानी का नाम वसुमती था । वसुमती भी अपने स्वामी के अनुरूप बुद्धिमती और धर्म पर प्रेम करने वाली थी। वसुपाल ने एक बड़ा ही विशाल और सुन्दर ' सहस्रकूट' नाम का जिनमन्दिर बनवाया।उसमें उन्होंने श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा विराजमान की । राजा ने प्रतिमा पर लेप चढ़ाने को एक अच्छे होशियार लेपकार को बुलाया और प्रतिमा पर लेप चढ़ाने को उससे कहा। राजाज्ञा पाकर लेपकार ने प्रतिमा पर बहुत सुन्दरता से लेप चढ़ाया । पर रात होने पर वह लेप प्रतिमा पर से गिर पड़ा। दूसरे दिन फिर ऐसा ही किया गया। रात में वह लेप भी गिर पड़ा। गर्ज यह कि वह दिन में लेप लगाता और रात में वह लेप गिर पड़ता । इस तरह उसे कई दिन बीत गए। ऐसा क्यों होता है, इसका उसे कुछ भी कारण न जान पड़ा। उससे वह तथा राजा वगैरह बड़े दुःखी हुए। बात असल में यह थी कि वह लेपकार मांस खाने वाला था । इसलिए उसकी अपवित्रता से प्रतिमा पर लेप न ठहरता था। तब उस लेपकार को एक मुनि द्वारा ज्ञान हुआ कि प्रतिमा अतिशय वाली है, कोई शासनदेवी या देव उसकी रक्षा में सदा नियुक्त रहते हैं । इसलिए जब तक यह कार्य पूरा हो तब तक मुझे मांस के न खाने का व्रत लेना चाहिए। लेपकार ने वैसा ही किया, मुनिराज के पास उसने मांस न खाने का नियम ले लिया। इसके बाद जब उसने दूसरे दिन लेप किया तो अब की बार वह ठहर गया। सच है, व्रती पुरुषों के कार्य की सिद्धि होती ही है। तब राजा ने अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण देकर लेपकार का बड़ा आदर-सत्कार किया । जिस तरह इस लेपकार ने अपने कार्य की सिद्धि के लिए नियम किया उसी प्रकार और लोगों को तथा मुनियों को भी ज्ञान प्रचार, शासन-प्रभावना आदि कामों में अवग्रह या प्रतिज्ञा करना चाहिए ॥२-११॥
    वह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश किया ज्ञानरूपी समुद्र मुझे भी केवलज्ञानी-सर्वज्ञ बनावें, जो अत्यन्त पवित्र साधुओं द्वारा आत्म-सुख की प्राप्ति के लिए सेवन किया जाता है और देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि बड़े - बड़े महापुरुष जिसे भक्ति से पूजते हैं ॥१२॥
  3. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर विनयधर्म के पालने वाले मनुष्य की पवित्र कथा लिखी जाती है ॥१॥
    वत्सदेश में सुप्रसिद्ध कौशाम्बी के राजा धनसेन वैष्णव धर्म के मानने वाले थे। उनकी रानी धनश्री, जो बहुत सुन्दरी और विदुषी थी, जिनधर्म पालती थी। उसने श्रावकों के व्रत ले रक्खे थे। यहाँ सुप्रतिष्ठ नाम का एक वैष्णव साधु रहता था। राजा इसका बड़ा आदर-सत्कार कराते थे और यही कारण था कि राजा इसे स्वयं ऊँचे आसन पर बैठाकर भोजन कराते थे । इसके पास एक जलस्तंभिनी नाम की विद्या थी । उससे यह बीच यमुना में खड़ा रहकर ईश्वराराधना किया करता था, पर डूबता न था। इसके ऐसे प्रभाव को देखकर मूढ़ लोग बड़े चकित होते थे । सो ठीक ही है मूर्खों को ऐसी मूर्खता की क्रियाएँ पसन्द हुआ ही करती है ॥२-६॥
    विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में बसे हुए रथनूपुर के राजा विद्युत्प्रभ जैनी थे, श्रावकों के व्रतों के पालने वाले थे और उनकी रानी विद्युद्वेगा वैष्णव धर्म की मानने वाली थी । सो एक दिन ये राजा-रानी प्रकृति की सुन्दरता देखते और अपने मन को बहलाते कौशाम्बी की ओर नदी- किनारे आ गए। वहाँ पहुँच कर देखा कि एक साधु यमुना में खड़ा रहकर तपस्या कर रहा है। विद्युत्प्रभ ने सुप्रतिष्ठ को जल में खड़ा देख उसने जान लिया कि यह मिथ्यादृष्टि है। पर उनकी रानी विद्युद्वेगा ने उस साधु की बहुत प्रशंसा की । विद्युत्प्रभ ने रानी से कहा यह कोई मिथ्यादृष्टि है जो लोगों को ठग रहा है। रानी ने कहा नहीं है एक बड़ा साधु है तब विद्युत्प्रभ ने रानी से कहा- अच्छी बात है, प्रिये, आओ तो मैं तुम्हें जरा इसकी मूर्खता बतलाता हूँ। इसके बाद ये दोनों चाण्डाल का वेष बना ऊपर किनारे की ओर गए और मरे ढोरों का चमड़ा नदी में धोने लगे। अपने इस निन्द्यकर्म द्वारा इन्होंने जल को अपवित्र कर दिया। उस साधु को यह बहुत बुरा लगा। सो वह इन्हें कुछ कह सुनकर ऊपर की ओर चला गया। वहाँ उसने फिर नहाया धोया । सच है - मूर्खता के वश लोग कौन काम नहीं करते। साधु की यह मूर्खता देखकर ये भी फिर आगे जाकर चमड़ा धोने लगे। इनकी बार-बार यह शैतानी देखकर साधु को बड़ा गुस्सा आया। तब वह और आगे चला गया। इसके पीछे हो ये दोनों भी जाकर फिर अपना काम करने लगे। गर्ज यह कि इन्होंने उस साधु को बहुत ही कष्ट दिया। तब हार खाकर बेचारे को अपना जप-तप, नाम - ध्यान ही छोड़ देना पड़ा। इसके बाद उस साधु को इन्होंने अपनी विद्या के बल से वन में एक बड़ा भारी महल खड़ा कर देना, झूला बनाकर उस पर झूलना आदि अनेक अचम्भे डालने वाली बातें बतलाई उन्हें देखकर सुप्रतिष्ठ साधु बड़ा चकित हुआ। वह मन में सोचने लगा कि जैसी विद्या इन चाण्डालों के पास है ऐसी तो अच्छे-अच्छे विद्याधरों या देवों के पास भी न होगी। यदि यही विद्या मेरे पास भी होती तो मैं भी इनकी तरह बड़ी मौज मारता। अस्तु, देखें, इनके पास जाकर मैं कहूँ कि ये अपनी विद्या मुझे भी दे दें। इसके बाद वह उनके पास आया और उनसे बोला- आप लोग कहाँ से आ रहे हैं? आपके पास तो लोगों को चकित करने वाली बड़ी-बड़ी करामातें हैं । आपका यह विनोद देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उत्तर में विद्युत्प्रभ विद्याधर ने कहा - योगी जी, आप मुझे नहीं जानते कि मैं चाण्डाल हूँ। मैं तो अपने गुरु महाराज के दर्शन के लिए यहाँ आया हुआ था। गुरुजी ने खुश होकर मुझे जो विद्या दी है, उसी के प्रभाव से यह सब कुछ मैं करता हूँ । अब तो साधुजी के मुँह में भी विद्यालाभ के लिए पानी आ गया। उन्होंने तब उस चाण्डाल रूपधारी विद्याधर से कहा- तो क्या कृपा करके आप मुझे भी यह विद्या दे सकते हैं, जिससे कि मैं भी फिर आपकी तरह खुशी मनाया करूँ । उत्तर में विद्याधर ने कहा- भाई, विद्या के देने में तो मुझे कोई हर्ज मालूम नहीं होता, पर बात यह है कि मैं ठहरा चाण्डाल और आप वेद-वेदांग के पढ़े हुए एक उत्तम कुल के मनुष्य, तब आपका मेरा गुरु-शिष्य भाव नहीं बना सकता और ऐसी हालत में आपसे मेरा विनय भी न हो सकेगा और बिना विनय के विद्या आ नहीं सकती । हाँ यदि आप यह स्वीकार करें कि जहाँ मुझे देख पावें वहाँ मेरे पाँवों में पड़कर बड़ी भक्ति के साथ यह कहें कि प्रभो, आप ही की चरणकृपा से मैं जीता हूँ तब तो मैं आपको विद्या दे सकता हूँ और तभी विद्या सिद्ध हो सकती है। बिना ऐसा किए सिद्ध हुई विद्या भी नष्ट हो जाती है। उसने यह सब बातें स्वीकार कर लीं। तब विद्युत्प्रभ विद्याधर इसे विद्या देकर अपने घर चला गया ॥७-२९॥
    इधर सुप्रतिष्ठ साधु को जैसे ही विद्या सिद्ध हुई, उसने उन सब लीलाओं को करना शुरू किया जिन्हें कि विद्याधर ने किया था । सब बातें वैसी ही हुई देखकर सुप्रतिष्ठ बड़ा खुश हुआ। उसे विश्वास हो गया कि अब मुझे विद्या सिद्ध हो गई। इसके बाद वह भोजन के लिए राजमहल आया । उसे देर से आया हुआ देखकर राजा ने पूछा-भगवन् आज आपको बड़ी देर लगी? मैं बड़ी देर से आपका रास्ता देख रहा हूँ। उत्तर में सुप्रतिष्ठ ने मायाचारी से झूठ-मूठ ही कह दिया कि राजन्, आज मेरी तपस्या के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सब देव आए थे। ये बड़ी भक्ति से मेरी पूजा करके अभी गए हैं। यही कारण मुझे देरी लगी और राजन् एक बात नई यह हुई कि मैं अब आकाश में ही चलने-फिरने लग गया। सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही में यह सब कौतुक देखने की उसकी मंशा हुई। उसने तब सुप्रतिष्ठ से कहा- अच्छा तो महाराज, अब आप आइए और भोजन कीजिए क्योंकि बहुत देर हो चुकी है। आप वह सब कौतुक मुझे बतलाइएगा। सुप्रतिष्ठ ‘अच्छी बात है' कहकर भोजन के लिए चला आया ॥ ३०-३६॥
    दूसरे दिन सबेरा होते ही राजा और उसके अमीर-उमराव वगैरह सभी सुप्रतिष्ठ साधु के मठ में उपस्थित हुए। दर्शकों का भी ठाठ लग गया। सबकी आँखें और मन साधु की ओर जा लगे कि वह अपना नया चमत्कार बतलावें । सुप्रतिष्ठ साधु भी अपनी करामात बतलाने को आरंभ करने वाला ही था कि इतने में वह विद्युत्प्रभ विद्याधर और उसकी स्त्री उसी चाण्डाल वेष में वहीं आ धमके। सुप्रतिष्ठ के देवता उन्हें देखते ही कूँच कर गए। ऐसे समय उनके आ जाने से इसे उन पर बड़ी घृणा हुई उसने मन ही मन घृणा के साथ कहा-ये दुष्ट इस समय क्यों चले आये। उसका यह कहना था कि उसकी विद्या नष्ट हो गई। वह राजा वगैरह को अब कुछ भी चमत्कार न बतला सका और बड़ा शर्मिन्दा हुआ। तब राजा ने “ऐसा एक साथ क्यों हुआ”, इसका सब कारण सुप्रतिष्ठ से पूछा। झक मारकर फिर उसे सब बातें राजा से कह देनी पड़ीं ॥३७-३९॥
    सुनकर राजा ने उन चाण्डालों को बड़ी भक्ति से प्रणाम किया। राजा की यह भक्ति देखकर उन्होंने वह विद्या राजा को दे दी। राजा उसकी परीक्षा कर बड़ी प्रसन्नता से अपने महल लौट गया। सो ठीक ही है विद्या का लाभ सभी की सुख देने वाला होता है ॥४०-४१॥
    राजा की भी परीक्षा का समय आया । विद्या प्राप्ति के कुछ दिनों बाद एक दिन राजा राज- दरबार में सिंहासन पर बैठा हुआ था । राजसभा सब अमीरों-उमरावों से ठसा - ठस भरी हुई थी। इसी समय राजगुरु चाण्डाल वहाँ आया, जिसने कि राजा को विद्या दी थी । राजा उसे देखते ही बड़ी भक्ति से सिंहासन पर से उठा और उसके सत्कार के लिए कुछ आगे बढ़कर उसने उसे नमस्कार किया और कहा-प्रभो, आप ही के चरणों की कृपा से मैं जीता हूँ । राजा की ऐसी भक्ति और विनयशीलता देखकर विद्युत्प्रभ बड़ा खुश हुआ। उसने तब अपना खास रूप प्रकट किया और राजा को और भी कई विद्याएँ देकर वह अपने घर चला गया। सच है, गुरुओं के विनय से लोगों को सभी सुन्दर-सुन्दर वस्तुएँ प्राप्त होती है। इस आश्चर्य को देखकर धनसेन, विद्युद्वेगा तथा और भी बहुत से लोगों ने श्रावक-व्रत स्वीकार किए। विनय का इस प्रकार फल देखकर अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे गुरुओं का विनय, भक्ति निर्मल भावों से करें ॥४२-४७॥
    जो गुरुभक्ति क्षण मात्र कठिन से कठिन काम को पूरा कर देती है वही भक्ति मेरी सब क्रियाओं की भूषण बने । मैं उन गुरुओं को नमस्कार करता हूँ कि जो संसार - समुद्र से स्वयं तैरकर पार होते हैं और साथ ही और भव्यजनों को पार करते हैं ॥४८-४९॥
    जिनके चरणों की पूजा देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े महापुरुष करते है उन जिन भगवान् का, उनके रचे पवित्र शास्त्रों का और उनके बताये मार्ग पर चलने वाले मुनिराजों का जो हृदय से विनय करते हैं, उनकी भक्ति करते है उनके पास कीर्ति, सुन्दरता, उदारता, सुख-सम्पत्ति और ज्ञान - आदि पवित्र गुण अत्यन्त पड़ोसी होकर रहते हैं अर्थात् विनय के फल से उन्हें सब गुण होते हैं ॥५०॥
  4. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार द्वारा पूजे जाने वाले और केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र है, ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर असमय में जो शास्त्राभ्यास के लिए योग्य नहीं है, शास्त्राभ्यास करने से जिन्हें उसका बुरा फल भोगना पड़ा, उनकी कथा लिखी जाती है । इसलिए कि विचारशीलों को इस बात का ज्ञान हो कि असमय में शास्त्राभ्यास करना अच्छा नहीं है, उसका बुरा फल होता है ॥१॥
    शिवनन्दी मुनि ने अपने गुरु द्वारा यद्यपि यह ज्ञान रखा था कि स्वाध्याय का समय-काल श्रवण नक्षत्र का उदय होने के बाद माना गया है, तथापि कर्मों के तीव्र उदय से वे अकाल में ही  शास्त्राभ्यास किया करते थे । फल इसका यह हुआ कि मिथ्या समाधिमरण द्वारा मरकर उन्होंने गंगा में एक बड़े भारी मच्छ की पर्याय धारण की । सो ठीक ही है जिन भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करने से इस जीव को दुर्गति के दुःख भोगने ही पड़ते हैं ॥२-४॥
    एक दिन नदी किनारे पर एक मुनि शास्त्राभ्यास कर रहे थे । इस मच्छ ने उनके पाठ को सुन लिया। उससे उसे जातिस्मरण हो गया । तब उसने इस बात का बहुत पछतावा किया कि हाय ! मैं पढ़कर भी मूर्ख बना रहा, जो जैनधर्म से विमुख होकर मैंने पापकर्म बाँधा । उसी का यह फल हैं, जो मुझे मच्छ-शरीर लेना पड़ा। इस प्रकार अपनी निन्दा और अपने पापकर्म की आलोचना कर उसने भक्ति से सम्यक्त्व ग्रहण किया, जो कि सब जीवों का हित करने वाला है । इसके बाद वह जिन भगवान् की आराधना कर पुण्य के उदय से स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ। सच है, मनुष्य धर्म की आराधना कर स्वर्ग जाता है और पापी धर्म से उल्टा चलकर दुर्गति में जाता है। पहला सुख भोगता है और दूसरा दुःख उठाता है। यह जानकर बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्तव्य है कि वे जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए धर्म की भक्ति से अपनी शक्ति के अनुसार आराधना करें, जो कि सब सुखों का देने वाला है ॥५-१०॥
    सम्यग्ज्ञान जिसने प्राप्त कर लिया उसकी सारे संसार में कीर्ति होती है, सब प्रकार की उत्तम- उत्तम सम्पदाएँ उसे प्राप्त होती है, शान्ति मिलती है और वह पवित्रता की साक्षात्प्रतिमा बन जाता है। इसलिए भव्यजनों को उचित है कि वे जिन भगवान् के पवित्र ज्ञान को, जो कि देवों और विद्याधरों द्वारा पूजा-माना जाता है, प्राप्त करने का यत्न करें ॥११॥
  5. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनका ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है और संसारसमुद्र से पार करने वाला है, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर उचित काल में शास्त्राध्ययन कर जिसने फल प्राप्त किया उसकी कथा लिखी जाती है ॥१॥
    जैनतत्त्व के विद्वान् वीरभद्र मुनि एक दिन सारी रात शास्त्राभ्यास करते रहे। उन्हें इस हालत में देखकर श्रुतदेवी एक अहीरनी का वेष लेकर उनके पास आई इसलिए कि मुनि को इस बात का ज्ञान हो जाए कि यह समय शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने का नहीं है। देवी अपने सिर पर छाछ की मटकी रखकर और यह कहती हुई, कि लो, मेरे पास बहुत ही मीठी छाछ है, मुनि के चारों ओर घूमने लगी। मुनि ने तब उसकी और देखकर कहा - अरी, तू बड़ी बेसमझ जान पड़ती है, कहीं पगली तो नहीं हो गई है बतला तो ऐसे एकान्त स्थान में ओर रात में कौन तेरी छाछ खरीदेगा ? उत्तर में देवी ने कहा-महाराज क्षमा कीजिए । मैं तो पगली नहीं हूँ किन्तु मुझे आप ही पागल देख पड़ते हैं। नहीं तो ऐसे असमय में, जिसमें पठन-पाठन की मना है, आप क्यों शास्त्राभ्यास करते ? देवी का उत्तर सुनकर मुनिजी की आँखें खुलीं । उन्होंने आकाश की ओर नजर उठाकर देखा तो उन्हें तारे चमकते हुए देख पड़े उन्हें मालूम हुआ कि अभी बहुत रात है । तब वे पढ़ना छोड़कर सो गए ॥२-७॥
    सबेरा होने पर वे अपने गुरु महाराज के पास गए और अपनी इस क्रिया की आलोचना कर उनसे उन्होंने प्रायश्चित्त लिया। तब से वे शास्त्राभ्यास का जो काल है उसी में पठन-पाठन करने लगे। उन्हें अपनी गलती का सुधार किए देखकर देवी उनसे बहुत खुश हुई। बड़ी भक्ति से उसने उनकी पूजा की। सच है, गुणवानों की सभी पूजा करते हैं ॥७-९॥
    इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र का यथार्थ पालन कर वीरभद्र मुनिराज अन्त समय में धर्म-ध्यान से मृत्यु लाभ कर स्वर्गधाम सिधारे ॥१०॥
    भव्यजनों को भी उचित है कि वे जिन भगवान् के उपदेश किए, संसार को अपनी महत्ता से मुग्ध करने वाले, स्वर्ग या मोक्ष की सर्वोच्च सम्पदा को देने वाले, दुःख, शोक, कलंक आदि आत्मा पर लगे हुए कीचड़ को धो- देने वाले, संसार के पदार्थों का ज्ञान कराने में दीये की तरह काम देने वाले और सब प्रकार के सांसारिक सुख के आनुषंगिक कारण ऐसे पवित्र ज्ञान को भक्ति से प्राप्त कर मोक्ष का अविनाशी सुख लाभ करें ॥११॥
  6. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सर्वोत्तम धर्म का उपदेश करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर सोमशर्म मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    आलोचना, गर्हा, आत्मनिन्दा, व्रत उपवास, स्तुति और कथाएँ तथा इनके द्वारा प्रमाद को असावधानी को नाश करना चाहिए। जैसे मंत्र, औषधि आदि से विष का वेग नाश किया जाता है। इसी सम्बन्ध की यह कथा है ॥२॥
    भारत के किसी हिस्से में बसे हुए पुण्ड्रक देश के प्रधान शहर देवी- कोटपुर में सोमशर्म नाम का ब्राह्मण हो चुका है। सोमशर्म वेद और वेदांग, व्याकरण, निरुरक्त, छन्द, ज्योतिष, शिक्षा और कला का अच्छा विद्वान् था। इसकी स्त्री का नाम सोमिल्या था । इसके अग्निभूति और वायुभूति दो लड़के थे ॥३-४॥
    यहाँ विष्णुदत्त नाम का एक और ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम विष्णु श्री था । विष्णुदत्त अच्छा धनी था। पर स्वभाव का अच्छा आदमी न था । किसी दिन कोई खास जरूरत पड़ने पर सोमशर्म ने विष्णुदत्त से कुछ रुपया कर्ज लिया था। उसका कर्ज अदा न कर पाया था कि एक दिन सोमशर्म के किसी जैनमुनि के धर्मोपदेश से वैराग्य हो जाने से मुनि हो गया। वहाँ से विहार कर वह कहीं अन्यत्र चला गया और दूसरे नगरों और गाँवों में धर्म का उपदेश करता हुआ एक बार फिर वह कोटपुर में आया। विष्णुदत्त ने तब उसे देखकर पकड़ लिया और कहा - साधुजी, आपके दोनों लड़के तो इस समय महा दरिद्र दशा में हैं। उनके पास एक फूटी कौड़ी तक नहीं हैं वे मेरा रुपया नहीं दे सकते। इसलिए या तो आप मेरा रुपया दे दीजिये या अपना धर्म बेच दीजिये । सोमशर्म मुनि के सामने बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई, वे क्या करें, इसकी उन्हें कुछ सूझ न पड़ी। तब उनके गुरु वीरभद्राचार्य ने उनसे कहा-अच्छा तुम जाओ और धर्म बेचो ! उनकी आज्ञा पाकर सोमशर्म मुनि मसान में जाकर धर्म बेचने लगे। इस समय एक देवी ने आकर उनसे पूछा- मुनिराज, जिस धर्म को आप बेच रहे हैं, भला कहिए तो वह कैसा है ? उत्तर में मुनि ने कहा- मेरा धर्म अट्ठाईस मूलगुण और चौरासी लाख उत्तरगुणों से युक्त है तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन और ब्रह्मचर्य इन दस भेद रूप है। धर्म का यह स्वरूप श्री जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। मुनि द्वारा अपने बेचे जाने वाले धर्म की इस प्रकार व्याख्या सुनकर वह देवी बहुत प्रसन्न हुई उसने मुनि को नमस्कार कर धर्म की प्रशंसा में कहा - मुनिराज, आपने जो कहा वह बहुत ठीक है । यही धर्म संसार को वश करने के लिए एक वशीकरण मंत्र है, अमूल्य चिन्तामणि है, सुखरूप अमृत की धारा है और मनचाही वस्तुओं के दुहने-देने के लिए कामधेनु हैं। अधिक क्या किन्तु यह समझना चाहिए कि संसार में जो- जो मनोहरता देख पड़ती है वह सब एक धर्महीन का फल है। धर्म एक सर्वोत्तम अमोल वस्तु है। उसका मोल हो ही नहीं सकता। पर मुनिराज, आपको उस ब्राह्मण का कर्ज चुकाना है। आपका यह उपसर्ग दूर हो, इसलिए दीक्षा समय- केशलोंच किए आपके बालों को उस कर्ज के बदले दिये देती हूँ। यह कहकर देवी उन बालों को अपनी दैवी-माया से चमकते हुए बहुमूल्य रत्न बनाकर आप अपने स्थान पर चल दी। सच है, जैनधर्म का प्रभाव कौन वर्णन कर सकता है, जो कि सदा ही सुख देने वाला और देवों द्वारा पूजा किया जाता है ॥५-१७॥
    सबेरा होने पर विष्णुदत्त, सोमशर्म मुनि के तप का प्रभाव देखकर चकित रह गया। उसकी मुनि पर तब बड़ी श्रद्धा हो गई उसने नमस्कार कर उनकी प्रशंसा में कहा- योगिराज, सचमुच आप बड़े ही भाग्यशाली है। आपके सरीखा विद्वान् और धीर मैंने किसी को नहीं देखा। यह आपही से महात्माओं का काम है जो मोहपाश को तोड़ - तुड़ाकर इस प्रकार दु:सह तपस्या कर रहे हैं। महाराज, आपकी मैं किन शब्दों में तारीफ करूँ, यह मुझे नहीं जान पड़ता। आपने तो अपने जीवन को सफल बना लिया । पर हाय! मैं पापी पापकर्म के उदय से धनरूपी चोरों द्वारा ठगा गया। मैं अब इनके पैंचीले जाल से कैसे छूट सकूँगा? दयासागर ! मुझे बचाइये । नाथ, अब तो मैं आप ही के चरणों की सेवा करूँगा। आपकी सेवा को ही अपना ध्येय बनाऊँगा । तब ही कहीं मेरा भला होगा। इस प्रकार बड़ी देर तक विष्णुदत्त ने सोमशर्म मुनि की स्तुति की । अन्त में प्रार्थना कर उनसे दीक्षा ले वह मुनि हो गया। जो विष्णुदत्त एक ही दिन पहले मुनि की इज्जत, प्रतिष्ठा बिगाड़ने को हाथ धोकर उनके पीछा पड़ा था और मुनि को उपसर्ग कर जिसने पाप बाँधा था वही गुरुभक्ति से स्वर्ग और मोक्ष के सुख का पात्र हो गया। सच है, धर्म की शरण ग्रहण कर सभी सुखी होती हैं । विष्णुदत्त के सिवा और भी बहुतेरे भव्यजन जैनधर्म का ऐसा प्रभाव देखकर जैनधर्म के प्रेमी हो गए और उस धन से, जिसे देवी ने मुनि के बालों को रत्नों के रूप में बनाया था, कोटितीर्थ नाम का एक बड़ा ही सुन्दर जिनमन्दिर बनवा दिया, जिसमें धर्मसाधन कर भव्यजन सुख-शान्ति लाभ - करते थे ॥१८-२४॥
    जो बुद्धिरूपी धन के मालिक, बड़े विचारशील साधु-सन्त जिन भगवान् के द्वारा उपदेश किए, सारे संसार में पूजे-माने जाने वाले, स्वर्ग-मोक्ष के या और सब प्रकार सांसारिक सुख के कारण, संसार का भय मिटाने वाले ऐसे परम पवित्र तप को भक्ति से ग्रहण करते हैं वे कभी नाश न होने वाले मोक्ष सुख का लाभ करते हैं। ऐसे महात्मा योगीराज मुझे भी आत्मीक सच्चा सुख दें ॥२५॥
  7. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब दोषों के नाश करने वाले और सुख के देने वाले ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर अपने बुरे कर्मों की निन्दा-आलोचना करने वाली बीरा ब्राह्मणी की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    दुर्योधन जब अयोध्या का राजा था तब की यह कथा है। यह राजा बड़ा न्यायी और बुद्धिमान् हुआ है। इसकी रानी का नाम श्रीदेवी था । श्रीदेवी बड़ी सुन्दरी और सच्ची पतिव्रता थी । यहाँ एक सर्वोपाध्याय नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम वीरा था । उसका चाल-चलन अच्छा न था। जवानी के जोर में वह मस्त रहा करती थी । उपाध्याय के घर पर एक विद्यार्थी पढ़ा करता था। उसका नाम अग्निभूति था । वीरा ब्राह्मणी के साथ इसकी अनुचित प्रीति थी । ब्राह्मणी इसे बहुत चाहती थी। पर उपाध्याय इन दोनों के सुख का काँटा था। इसलिए ये मनमाना ऐशोआराम न कर पाते थे। ब्राह्मणी को यह बहुत खटका करता था । सो एक दिन मौका पाकर ब्राह्मणी ने अपने पति को मार डाला और उसे श्मशान में फेंक आने को छत्री में छुपाकर अन्धेरी रात में वह घर से निकली । श्मशान में जैसे ही उपाध्याय के मुर्दे को फेंकने को तैयार हुई कि एक व्यन्तरदेवी ने उसके ऐसे नीच कर्म पर गुस्सा होकर छत्री को कील दिया और कहा - " सबेरा होने पर जब तू सारे शहर की स्त्रियों के घर-घर पर जाकर अपना यह नीच कर्म प्रकट करेगी, अपने कर्म पर पछतायेगी तब तेरे सिर पर से यह छत्री गिरेगी।” देवी के कहे अनुसार ब्राह्मणी ने वैसा ही किया। तब कहीं उसका पीछा छूटा, छत्री सिर से अलग हो सकी। इस आत्म-निन्दा से ब्राह्मणी का पापकर्म बहुत हल्का हो गया, वह  शुद्ध हुई। इसी तरह अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे प्रतिदिन होने वाले बुरे कर्मों की गुरुओं के पास आलोचना किया करें। उससे उनका पाप नष्ट होगा और अपने आत्मा को वे शुद्ध बना सकेंगे। किसी पुरुष के शरीर में काँटा लग गया और वह उससे बहुत कष्ट पा रहा है। पर जब तक वह काँटा उसके शरीर से नहीं निकलेगा तब तक वह सुखी नहीं हो सकता। इसलिए उस काँटे को निकाल फेंककर जैसे वह पुरुष सुखी होता है, उसी तरह जो आत्म- हितैषी जैनधर्म के बताये सिद्धान्त पर चलने वाले वीतरागी साधुओं की शरण ले अपने आत्मा को कष्ट पहुँचाने वाले पापकर्म रूपी काँटे की कृत कर्मों की आलोचना द्वारा निकाल फेंकते हैं वे फिर कभी नाश न होने वाली आत्मीक लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं ॥२- १०॥
  8. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    चारों प्रकार के देवों द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर उस स्त्री की कथा लिखी जाती है कि जिसने अपने किए पापकर्मों की आलोचना कर अच्छा फल प्राप्त किया है ॥१॥
    बनारस के राजा विशाखदत्त थे । उनकी रानी का नाम कनकप्रभा था। इनके यहाँ एक चितेरा रहता था। इसका नाम विचित्र था । वह चित्रकला का बड़ा अच्छा जानकार था । चितेरे की स्त्री का नाम विचित्रपताका था। उसके बुद्धिमती नाम की एक लड़की थी । बुद्धिमती बड़ी सुन्दरी और चतुर थी ॥२-४॥
    एक दिन विचित्र चितेरा राजा के खास महल में, जो कि बड़ा सुन्दर था, चित्रकारी कर रहा था। उसकी लड़की बुद्धिमती उसके लिए भोजन लेकर आयी । उसने विनोद वश हो भीत पर मोर की पीछी का एक चित्र बनाया वह चित्र इतना सुन्दर बना कि सहसा कोई न जान पाता कि वह चित्र है। जो उसे देखता वह यही कहता कि यह मोर की पीछी है । इसी समय महाराज विशाखदत्त इस ओर आ गए। वे उस चित्र को मोर की पीछी समझ उठाने को उसकी ओर बढ़े। यह देख बुद्धिमती ने समझा कि महाराज बे - समझ है । नहीं तो इन्हें इतना भ्रम नहीं होता ॥५-६ ॥
    दूसरे दिन बुद्धिमती ने एक और अद्भुत चित्र राजा को बतलाते हुए अपने पिता को पुकारा- पिताजी, जल्दी आइए, भोजन की जवानी का समय बीत रहा है। बुद्धिमती के इन शब्दों को सुनकर राजा बड़े अचम्भे में पड़ गया । वह उसके कहने का कुछ भाव न समझ कर एक टक की लगाये उसके मुँह की ओर देखता रह गया । राजा को अपना भाव न समझा देख बुद्धिमती को उसके मूर्ख होने का और दृढ़ विश्वास हो गया ॥७-९॥
    अब की बार बुद्धिमती ने एक और चाल चली। एक भींत पर दो परदे लगा दिये और राजा को चित्र बतलाने के बहाने उसने एक परदा उठाया। उसमें चित्र न था। तब राजा उस दूसरे परदे की ओर चित्र की आशा से आँखें फाड़कर देखने लगा । बुद्धिमती ने दूसरा परदा भी उठा दिया। भीत पर चित्र को न देखकर राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ । उसकी इन चेष्टाओं से उसे पूरा मूर्ख समझ बुद्धिमती ने जरा हँस दिया । राजा और भी अचम्भे में पड़ गया । वह बुद्धिमती का कुछ भी अभिप्राय न समझ सका। उसने तब व्यग्र हो बुद्धिमती से ऐसा करने का कारण पूछा। बुद्धिमती के उत्तर से उसे जान पड़ा कि वह उसे चाहती है और इसलिए पिता को भोजन के लिए पुकारते समय व्यंग से राजा पर उसने अपना भाव प्रकट किया था । राजा उसकी सुन्दरता पर पहले ही से मुग्ध था, सो वह बुद्ध की बातों से बड़ा खुश हुआ । उसने फिर बुद्धिमती के साथ ब्याह भी कर लिया । धीरे- धीरे राजा का उस पर इतना अधिक प्रेम बढ़ गया कि अपनी सब रानियों में पट्टरानी उसने उसे ही बना दिया। सच बात यह है कि प्राणियों की उन्नति के लिए उनके गुण ही उनका दूतपना करते हैं, उन्हें उन्नति पर पहुँचा देते हैं ॥१०-१२॥ 
    राजा ने बुद्धिमती को सारे रनवास की स्वामिनी बना तो दिया, पर उसमें सब रानियाँ उस बेचारी की शत्रु बन गईं, उससे डाह, ईर्ष्या करने लगीं । आते-जाते वे बुद्धिमती के सिर पर मारती और उसे बुरी-भली सुनाकर बेहद कष्ट पहुँचातीं । बेचारी बुद्धिमती सीधी-साधी थी, सो न तो वह उनसे कुछ कहती और न महाराज से ही कभी उनकी शिकायत करती । इस कष्ट और चिन्ता से मन ही मन घुलकर वह सूख सी गई । वह जब जिन मन्दिर दर्शन करने जाती तब सब सिद्धियों के देने वाले भगवान् के सामने खड़े हो अपने पूर्व कर्मों की निन्दा करती और प्रार्थना करती कि हे संसार पूज्य, हे स्वर्ग-मोक्ष के सुख देने वाले, हे दुःखरूपी दावानल के बुझाने वाले मेघ, और हे दयासागर, मैं एक छोटे कुल में पैदा हुई हूँ, इसीलिए मुझे ये सब कष्ट हो रहे हैं। पर नाथ, इसमें दोष किसी का नहीं। मेरे पूर्व जन्म के पापों का उदय है। प्रभो, जो हो, पर मुझे विश्वास है कि जीवों को चाहे कितने ही कष्ट क्यों न सता रहे हों, पर जो आपको हृदय से चाहता है, आपका सच्चा सेवक है, उसके सब कष्ट बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और इसीलिए हे नाथ, कामी, क्रोधी, मानी, मायावी देवों को छोड़कर मैंने आपकी शरण ली है। आप मेरा कष्ट दूर करेंगे ही। बुद्धिमती न मन्दिर में ही किन्तु महल पर भी अपने कर्मों की आलोचना किया करती । वह सदा एकान्त में रहती और न किसी से विशेष बोलती - चालती । राजा ने उसके दुर्बल होने का कारण पूछा - बार - बार आग्रह किया, पर बुद्धिमती ने उससे कुछ भी न कहा ॥१३-१८॥
    बुद्धिमती क्यों दिनों-दिन दुर्बल होती जाती है, इसका शोध लगाने के लिए एक दिन राजा उसके पहले जिनमन्दिर आ गया । बुद्धिमती ने प्रतिदिन की तरह आज भी भगवान् के सामने खड़ी होकर आलोचना की। राजा ने वह सब सुन लिया । सुनकर वह सीधा महल पर आया। अपनी सब रानियों को उसने खूब ही फटकारा, धिक्कारा और बुद्धिमती को ही उनकी मालकिन-पट्टरानी बनाकर उन सबको उसकी सेवा करने के लिए बाध्य किया ॥१९-२०॥
    जिस प्रकार बुद्धिमती ने अपनी आत्म-निन्दा की, उसी तरह अन्य बुद्धिमानों और क्षुल्लक आदि को भी जिन भगवान् के सामने भक्तिपूर्वक आत्मनिन्दा - पूर्वक कर्मों की आलोचना करना उचित है। उत्तम कुल और उत्तम सुखों की देन वाली तथा दुर्गति के दुःखों की नाश करने वाली जिन भगवान् की भक्ति मुझे भी मोक्ष का सुख दें ॥२१-२२॥
  9. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    निर्मल केवलज्ञान द्वारा सारे संसार के पदार्थों को प्रकाशित करने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर श्रद्धागुण के धारी विनयंधर राजा की कथा लिखी जाती है जो कथा सत्पुरुषों को प्रिय है ॥१॥
    कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर का राजा विनयंधर था । उसकी रानी का नाम विनयवती था। यहाँ वृषभसेन नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम वृषभसेना था। उसके जिनदास नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था ॥२-३॥
    विनयंधर बड़ा कामी था । सो एक बार इसके कोई महारोग हो गया। सच है, ज्यादा मर्यादा से बाहर विषय सेवन भी उल्टा दुःख का ही कारण होता है । राजा ने बड़े- बड़े वैद्यों से इलाज करवाया पर उसका रोग किसी तरह न मिटा । राजा इस रोग से बड़ा दुःखी हुआ । उसे दिन-रात चैन न पड़ने लगा ॥४-५॥
    राजा का एक सिद्धार्थ नाम का मंत्री था । यह जैनी था । शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक था। सो एक दिन उसने पादौषधिऋद्धि के धारक मुनिराज के पाँव प्रक्षालन का जल लाकर, जो कि सब रोगों का नाश करने वाला होता है, राजा को दिया । जिन भगवान् के सच्चे भक्त उस राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ उस जल को पी लिया उसे पीने से उसका सब रोग जाता रहा। जैसे सूरज के उगने से अन्धकार जाता रहता है । सच है, महात्माओं के तप के प्रभाव को कौन कह सकता है, जिनके कि पाँव धोने के पानी से ही सब रोगों की शान्ति हो जाती है । जिस प्रकार सिद्धार्थ मन्त्री ने मुनि के पाँव प्रक्षालन का पवित्र जल राजा को दिया, उसी प्रकार अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे धर्मरूपी जल सर्व-साधारण को देकर उनका संसार ताप शान्त करें । जैनतत्त्व के परम विद्वान् वे पादौषधिऋद्धि के धारक मुनिराज मुझे शान्ति - सुख दें ॥६-१२॥
    जैनधर्म में या जैनधर्म के अनुसार किए जाने वाले दान, पूजा, व्रत, उपवास आदि पवित्र कार्यों में की हुई श्रद्धा, किया हुआ विश्वास दुःखों का नाश करने वाला है । इस श्रद्धा का आनुषङ्गिक फल है-इन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि की सम्पदा का लाभ और वास्तविक फल है मोक्ष का कारण केवलज्ञान, जिसमें कि अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये चार अनन्तचतुष्टय- आत्मा की खास शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। वह श्रद्धा आप भव्यजनों का कल्याण करे ॥१३॥
  10. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सुख के देने वाले संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर शकाल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    पाटलिपुत्र (पटना) के राजा नन्द के दो मंत्री थे । एक शकटाल और दूसरा वररुचि । शकटाल जैनी था, इसलिए सुतरां उसकी जैनधर्म पर अचल श्रद्धा या प्रीति थी और वररुचि जैनी नहीं था, इसलिए सुतरां उसे जैनधर्म से, जैनधर्म के पालने वालों से द्वेष करती थी और इसलिए शकटाल और वररुचि की कभी न बनती थी, एक से एक अत्यन्त विरुद्ध थे ॥ २-३॥
    एक दिन जैनधर्म के परम विद्वान् महापद्य मुनिराज अपने संघ को साथ लिए पटना में आए। शकटाल उनके दर्शन करने को गया । बड़ी भक्ति के साथ उसने उनकी पूजा - वन्दना की और उनके पास बैठकर मुनि और गृहस्थ धर्म का उनसे पवित्र उपदेश सुना । उपदेश का शकटाल के धार्मिक अतएव कोमल हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह उसी समय संसार का सब मायाजाल तोड़कर दीक्षा ले मुनि हो गया। इसके बाद उसने अपने गुरु द्वारा सिद्धान्तशास्त्र का अच्छा अभ्यास किया। थोड़े ही दिनों में शकटाल मुनि ने कई विषयों में बहुत अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। गुरु इनकी बुद्धि, विद्वत्ता, तर्कणाशक्ति और सर्वोपरि स्वाभाविक प्रतिभा देखकर बहुत ही खुश हुए। उन्होंने अपना आचार्य पद अब इन्हें ही दे दिया। यहाँ से ये धर्मोपदेश और धर्मप्रचार के लिए अनेक देशों, शहरों और गाँवों में घूमे-फिरे । इन्होंने बहुतों को आत्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और दुर्गति के दुःखों का नाश करने वाले पवित्र जैनधर्म का सब ओर प्रकाश फैलाया । इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए ये एक बार फिर पटना में आए ॥४-७॥
    एक दिन की बात है कि शकटाल मुनि राजा के अन्तःपुर में आहार कर तपोवन की ओर जा रहे थे। मंत्री वररुचि ने इन्हें देख लिया। सो उस पापी ने पुराने बैर का बदला लेने का अच्छा मौका देखकर नन्द से कहा-महाराज, आपको कुछ खबर है कि इस समय अपना पुराना मंत्री पापी शकटाल भीख के बहाने आपके अन्तःपुर में, रनवास में घुसकर न जाने क्या अनर्थ कर गया है। मुझे तो उसके चले जाने के बाद ये समाचार मिले, नहीं तो मैंने उसे कभी का पकड़वा कर पाप की सजा दिलवा दी होती। अस्तु, आपको ऐसे धूर्तों के लिए चुप बैठना उचित नहीं । सच है, दुर्गति में जाने वाले ऐसे पापी लोग बुरा से बुरा कोई काम करते नहीं चूकते । नन्द ने अपने मंत्री के बहकावे में आकर गुस्से से उसी समय एक नौकर को आज्ञा दी कि वह जाकर शकटाल को जान से मार आवें । सच है, मूर्ख पुरुष दुर्जनों द्वारा उकसाने पर, करने और न करने योग्य भले-बुरे कार्य का कुछ विचार न कर, अन्याय कर डालते हैं। शकटाल मुनि ने जब उस घातक मनुष्य को अपनी ओर आते देखा तब उन्हें विश्वास हो गया कि वह मेरे को ही मारने को आ रहा है और यह सब कर्म मन्त्री वररुचि का है। अस्तु, जब तक वह घातक शकटाल मुनि के पास पहुँचता है उसके पहले ही उन्होंने सावधान होकर संन्यास ले लिया। घातक अपना काम पूरा कर वापस लौट गया। इधर शकटाल मुनि ने समाधि से शरीर त्याग कर स्वर्ग लाभ किया। सच है, दुष्ट पुरुष अपनी ओर से कितनी ही दुष्टता क्यों न करे, पर उससे सत्पुरुषों को कुछ नुकसान न पहुँच कर लाभ ही होता है ॥८- १५॥
    परन्तु जब नन्द को यह सब सच्चा हाल ज्ञात हुआ और उसने सब बातों की गहरी छान-बीन की तब उसे मालूम हो गया कि शकटाल मुनि का कोई दोष न था, वे सर्वथा निरपराध थे । इसके पहले जैन मुनियों के सम्बन्ध में जो उसकी मिथ्या धारण हो गई थी और उन पर जो उसका बे-हद क्रोध हो रहा था उस सबको हृदय से दूर कर वह अब बड़ा ही पछताया । अपने पाप कर्मों की उसने बहुत निन्दा की। इसके बाद वह श्रीमहापद्म मुनि के पास गया। बड़ी भक्ति से उसने उनकी पूजा- वन्दना की और सुख के कारण पवित्र जैनधर्म का उनके द्वारा उपदेश सुना। धर्मोपदेश का उसके चित्त पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने श्रावकों के व्रत धारण किए। जैनधर्म पर अब इसकी अचल श्रद्धा हो गई॥१६-१८॥
    इस जीव को जब कोई बुरी संगति मिल जाती है तब तो वह बुरे से बुरे पापकर्म करने लग जाता है और जब अच्छे महात्मा पुरुषों की संगति मिलती है तब यही पुण्य-पवित्र कर्म करने लगता है। इसलिए भव्यजनों को सदा ऐसे महापुरुषों की संगति करना चाहिए जो संसार के आदर्श हैं और जिनकी सत्संगति से स्वर्ग - मोक्ष प्राप्त हो सकता है ॥१९ - २० ॥ 
    इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तपरूप रत्नों की सुन्दर माला को प्रभाचन्द्र आदि पूर्वाचार्यों ने शास्त्रों का सार लेकर बनाया है, जो ज्ञान के समुद्र और सारे संसार के जीव मात्र का हित करने वाले थे । उन्हीं की कृपा से मैंने इस आराधनारूपी माला को अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार बनाया है। यह माला भव्यजनों को और मुझे सुख दे ॥२१॥
  11. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    स्वर्गादि सुखों को देने वाले और मोक्षरूपी रमणी के स्वामी श्रीजिन भगवान् को नमस्कार कर जयसेन राजा की सुन्दर कथा लिखी जाती है ॥१॥
    श्रावस्ती के राजा जयसेन की रानी वीरसेना के एक पुत्र था। इसका नाम वीरसेन था। वीरसेन बुद्धिमान् और सच्चे हृदय का था, मायाचार-कपट उसे छू तक न गया था ॥२॥
    यहाँ एक शिवगुप्त नाम का बुद्ध भिक्षुक रहता था । यह मांसभक्षी और निर्दयी था। ईर्ष्या और द्वेष इसके रोम-रोम में ठसा था मानों वह इनका पुतला था। यह शिवगुप्त राजगुरु था। ऐसे मिथ्यात्व को धिक्कार है जिसके वश हो ऐसे मायावी और द्वेषी भी गुरु हो जाते हैं ॥३॥
    एक दिन यतिवृषभ मुनिराज अपने सारे संघ को साथ लिए श्रावस्ती में आए। राजा यद्यपि बुद्धधर्म का मानने वाला था, तथापि वह और लोगों को मुनिदर्शन के लिए जाते देख आप भी गया। उसने मुनिराज द्वारा धर्म का पवित्र उपदेश चित्त लगाकर सुना । उपदेश उसे बहुत पसन्द आया। उसने मुनिराज से प्रार्थना कर श्रावक के व्रत लिए। जैनधर्म पर अब उसकी दिनों-दिन श्रद्धा बढ़ती ही गई उसने अपने सारे राज्यभर में कोई ऐसा स्थान न रहने दिया जहाँ जिनमन्दिर न हो । प्रत्येक शहर, प्रत्येक गाँव में उसने जिनमन्दिर बनवा दिया। जिनधर्म के लिए राजा का यह प्रयत्न देख शिवगुप्त ईर्ष्या और द्वेष के मारे जल कर खाक हो गया। वह अब राजा को किसी प्रकार मार डालने के प्रयत्न में लगा। और एक दिन खास इसी काम के लिए वह पृथ्वीपुरी गया और वहाँ के बुद्धधर्म के अनुयायी राजा सुमति को उसने जयसेन के जैनधर्म धारण करने और जगह- जगह जिनमन्दिरों के बनवाने आदि का सब हाल कह सुनाया । यह सुन सुमति ने जयसेन को एक पत्र लिखा कि 'तुमने बुद्धधर्म छोड़कर जो जैनधर्म ग्रहण किया, यह बहुत बुरा किया है। तुम्हें उचित है कि तुम फिर से बुद्धधर्म स्वीकार कर लो।" इसके उत्तर में जयसेन ने लिख भेजा कि - " मेरा विश्वास है, निश्चय है कि जैनधर्म ही संसार में एक ऐसा सर्वोच्च धर्म है जो जीवमात्र का हित करने वाला है। जिस धर्म में जीवों का मांस खाया जाता है या जिनमें धर्म के नाम पर हिंसा वगैरह महापाप बड़ी खुशी के साथ किए जाते हैं वे धर्म नहीं हो सकते। धर्म का अर्थ है जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में रक्खें, सो यह बात सिवा जैनधर्म के और धर्मों में नहीं है। इसलिए इसे छोड़कर और सब अशुभ बन्ध के कारण है।" सच है, जिसने जैनधर्म का सच्चा स्वरूप जान लिया वह क्या फिर किसी से डिगाया जा सकता है? नहीं । प्रचण्ड हवा भी क्यों न चले पर क्या वह मेरु को हिला देगी? नहीं। जयसेन के इस प्रकार विश्वास को देख सुमति को बड़ा गुस्सा आया। तब उसने दो आदमियों को इसलिए श्रावस्ती में भेजा कि वे जयसेन की हत्या कर आवें । वे दोनों आकर कुछ समय तक श्रावस्ती में ठहरे और जयसेन के मार डालने की खोज में लगे रहे, पर उन्हें ऐसा मौका ही न मिल पाया जो वे जयसेन को मार सकें। तब लाचार हो वे वापस पृथ्वीपुरी लौट आए और सब हाल उन्होंने राजा से कह सुनाया। इससे सुमति का क्रोध और भी बढ़ गया । उसने तब अपने सब नौकरों को इकट्ठा कर कहा-क्या कोई मेरे आदमियों में ऐसा भी हिम्मत बहादुर है जो श्रावस्ती जाकर किसी तरह जयसेन को मार आवे। उनमें से एक हिमारक नाम के दुष्ट ने कहा- हाँ महाराज, मैं इस काम को कर सकता हूँ। आप मुझे आज्ञा दें। इसके बाद ही वह राजाज्ञा पाकर श्रावस्ती आया और यतिवृषभ मुनिराज के पास मायाचार से जिनदीक्षा लेकर मुनि हो गया ॥४-१६॥
    एक दिन जयसेन मुनिराज के दर्शन करने को आया और अपने नौकर-चाकरों को मन्दिर के बाहर ठहरा कर आप मन्दिर में गया। मुनि को नमस्कार कर वह कुछ धर्म-सम्बन्धी बातचीत की। इसके बाद जब वह चलने के पहले मुनिराज को ढोक देने के लिए झुका कि इतने में वह दुष्ट हिमारक जयसेन को मार कर भाग गया। सच है - बुद्ध लोग बड़े ही दुष्ट हुआ करते हैं। यह देख मुनि यतिवृषभ को बड़ी चिन्ता हुई उन्होंने सोचा - कहीं सारे संघ पर विपत्ति न आए, इसलिए पास ही की भीत पर उन्होंने यह लिखकर कि “ दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा काम किया गया है।” छुरी से अपना पेट चीर लिया और स्थिरता से संन्यास द्वारा मृत्यु प्राप्त कर वे स्वर्ग गए ॥१७-२२॥
    वीरसेन को जब अपने पिता की मृत्यु का हाल मालूम हुआ तो वह उसी समय दौड़ा हुआ मन्दिर आया। उसे इस प्रकार दिन-दहाड़े किसी साधारण आदमी की नहीं किन्तु खास राजा साहब की हत्या हो जाने और हत्याकारी का कुछ पता न चलने का बड़ा ही आश्चर्य हुआ और जब उसने अपने पिता के पास मुनि को भी मरा पाया तब तो उसके आश्चर्य का कुछ ठिकाना ही न रहा। वह बड़े विचार में पड़ गया। वे हत्याएँ क्यों हुई? और कैसे हुई? इसका कारण कुछ भी उसकी समझ में न आया। उसे यह भी सन्देह हुआ कि कहीं इन मुनि ने तो यह काम न किया हो? पर दूसरे ही क्षण में उसने सोचा कि ऐसा नहीं हो सकता । इनका और पिताजी का कोई वैर-विरोध नहीं, लेना- देना नहीं, फिर वे क्यों ऐसा करने चले ? और पिताजी तो इनके इतने बड़े भक्त थे और न केवल यही बात थी कि पिताजी ही इनके भक्त हों, ये साधु भी तो उनसे बड़ा प्रेम करते थे; घण्टों तक उनके साथ इनकी धर्मचर्चा हुआ करती थी । फिर इस सन्देह को जगह नहीं रहती कि एक निस्पृह और शान्त योगी यह अनर्थ किया जा सके। तब हुआ क्या? बेचारा वीरसेन बड़ी कठिन समस्या में फँसा । वह इस प्रकार चिन्तातुर हो कुछ सोच-विचार कर ही रहा था कि उसकी नजर सामने की भीत पर जा पड़ी। उस पर यह लिखा हुआ, कि “ दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा हुआ है” देखते ही उसकी समझ में उस समय सब बातें बराबर आ गई उसके मन को अब रहा-सहा सन्देह भी दूर हो गया। उसकी अब मुनिराज पर अत्यन्त श्रद्धा हो गई। उसने मुनिराज के धैर्य और सहनपने की बड़ी प्रशंसा की। जैनधर्म के विषय में उसका पूरा-पूरा विश्वास हो गया । जिनका दुष्ट स्वभाव है, जिनसे दूसरों के धर्म का अभ्युदय - उन्नति नहीं सही जाती ऐसे लोग जिनधर्म सरीखे पवित्र धर्म पर चाहे कितना ही दोष क्यों न लगावें, पर जिनधर्म तो बादलों से न ढके हुए सूरज की तरह सदा ही निर्दोष रहता है ॥२३-२५॥
    जिस धर्म को चारों प्रकार के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती, राजा-महाराजा आदि सभी महापुरुष भक्ति से पूजते-मानते हैं, जो संसार के दुःखों का नाश कर स्वर्ग या मोक्ष का देने वाला हैं, सुख का स्थान है, संसार के जीव मात्र का हित करने वाला है और जिसका उपदेश सर्वज्ञ भगवान् ने किया है और इसीलिए सबसे अधिक प्रमाण या विश्वास करने योग्य है, वह धर्म - वह आत्मा की एक खास शक्ति मुझे प्राप्त होकर मोक्ष का सुख दे ॥२६॥
  12. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    स्वर्ग और मोक्ष का सुख देने वाले तथा सारे संसार के द्वारा पूज्य-माने जाने वाले श्री भगवान् को नमस्कार कर वृषभसेन की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    पाटलिपुत्र (पटना) में वृषभदत्त नाम का एक सेठ रहता था। पूर्व पुण्य के प्रभाव से इसके पास धन सम्पत्ति खूब थी। उसकी स्त्री का नाम वृषभदत्ता था। उसके वृषभसेन नाम का सर्वगुण-सम्पन्न एक पुत्र था। वृषभसेन बड़ा धर्मात्मा और सदा दान-पूजादिक पुण्यकर्मों का करने वाला था ॥२-३॥
    वृषभसेन के मामा सेठ धनपति की स्त्री श्रीकान्ता के एक लड़की थी। उसका नाम धनश्री था। धनश्री सुन्दरी थी, चतुर थी और लिखी - पढ़ी थी । धनश्री का ब्याह वृषभसेन के साथ हुआ था। दोनों दम्पत्ति सुख से रहते थे । नाना प्रकार के विषय-भोगों की वस्तुएँ उनके लिए सदा हाजिर रहती थी ॥४-५॥
    एक दिन वृषभसेन दमधर मुनिराज के दर्शनों के लिए गया । भक्ति सहित उनकी पूजा- वन्दना कर उसने उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना । उपदेश उसे बहुत रुचा और उसका प्रभाव भी उस पर बहुत पड़ा। वह उसी समय संसार और भ्रम से सुख जान पड़ने वाले विषय-भोगों से उदासीन हो मुनिराज के पास आत्महित की साधक जिनदीक्षा ले गया । उसे युवावस्था में ही दीक्षा ले जाने से धनश्री को बड़ा दुःख हुआ । उसे दिन-रात रोने के सिवा कुछ न सूझता था। धनश्री का यह दुःख उसके पिता धनपति से न सहा गया। वह तपोवन में जाकर वृषभसेन को उठा लाया और जबरदस्ती उसकी दीक्षा वगैरह खण्डित कर दी, उसे गृहस्थ बना दिया । सच है, मोही पुरुष करने और न करने योग्य कर्मों का विचार न कर उन्मत्त की तरह हर एक काम करने लग जाता है, जिससे कि पापकर्मों का उसके तीव्र बन्ध होता है ॥ ६-८ ॥
    जैसे मनुष्य को कैद में जबरदस्ती रहना पड़ता है उसी समय वृषभसेन को भी कुछ समय तक और घर में रहना पड़ा। उसके बाद वह फिर मुनि हो गया । उसका फिर मुनि हो जाना जब धनपति को मालूम हुआ तो किसी बहाने से घर पर लाकर अब की बार उसे उसने लोहे की साँकल से बाँध दिया। मुनि ने यह सोचकर, कि यह मुझे अब की बार फिर व्रतरूपी पर्वत से गिरा देगा, मेरा व्रत भंग कर देगा, संन्यास ले लिया और इसी अवस्था में शरीर छोड़कर वह पुण्य के उदय से स्वर्ग में देव हुआ। दुर्जनों द्वारा सत्पुरुषों को कितने ही कष्ट क्यों न पहुँचाये जायें पर वे कभी पापबन्ध के कारण कामों में नहीं फँसते ॥९-१२॥
    दुर्जन पुरुष चाहे कितनी ही तकलीफ क्यों न दें, पर पवित्र बुद्धि के धारी सज्जन महात्मा पुरुष तो जिन भगवान् के चरणों की सेवा-पूजा से होने वाले पुण्य से सुख ही प्राप्त करेंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं ॥१३॥
  13. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    इस प्रकार के देवों द्वारा जो पूजा-स्तुति किए जाते हैं और ज्ञान के समुद्र हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धर्मसिंह मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    दक्षिण देश के कौशलगिर नगर के राजा वीरसेन की रानी वीरमती के दो सन्तान थीं। एक पुत्र और एक कन्या थी। पुत्र का नाम चन्द्रभूति और कन्या का चन्द्रश्री था । चन्द्र श्री बड़ी सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता देखते ही बनती थी । कौशल देश और कौशल ही शहर के राजा धर्मसिंह के साथ चन्द्रश्री का विवाह हुआ था। दोनों दम्पति सुख से रहते थे । नाना प्रकार की भोगोपभोग वस्तुएँ सदा उनके लिए मौजूद रहती थी। इतना होने पर भी राजा का धर्म पर पूर्ण विश्वास था, अगाध श्रद्धा थी। वे सदा दान, पूजा, व्रतादि धर्म कार्य करते ॥२-५॥
    एक दिन धर्मसिंह तपस्वी दमधर मुनि के दर्शनार्थ गए। उनकी भक्ति से पूजा-स्तुति कर उन्होंने उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना, जो धर्म देवों द्वारा भी बड़ी भक्ति के साथ पूजा जाता है । धर्मोपदेश का धर्मसिंह के चित्त पर बड़ा गहरा असर पड़ा। उससे वे संसार और विषय-भोगों से विरक्त हो गए और मुनि दीक्षा ले ली। उनकी रानी चन्द्र श्री को उन्हें जवानी में दीक्षा ले जाने से बड़ा कष्ट हुआ। पर बेचारी लाचार थी । उसके दुःख की बात जब उसके भाई चन्द्रभूति को मालूम हुई तो उसे भी अत्यन्त दुःख हुआ । उससे अपनी बहिन की यह हालत न देखी गई। उसने तब जबरदस्ती अपने बहनोई धर्मसिंह को उठा लाकर चन्द्र श्री के पास ला रखा । धर्मसिंह फिर भी न ठहरे और जाकर उन्होंने पुनः दीक्षा ले ली और महा तप तपने लगे ॥६-९॥
    एक दिन इसी तरह वे तपस्या कर रहे थे। तब उन्होंने चन्द्रभूति को अपनी ओर आता हुआ देखा। उन्होंने समझ लिया कि यह फिर मेरी तपस्या बिगाड़ेगा । सो तप की रक्षा के लिए पास ही पड़े हुए मृत हाथी के शरीर में घुसकर उन्होंने समाधि ले ली और अन्त में शरीर छोड़कर वे स्वर्ग में गए। इसलिए भव्यजनों को कष्ट के समय भी अपने व्रत की रक्षा करनी चाहिए। जिससे स्वर्ग या मोक्ष का सर्वोच्च सुख प्राप्त होता है ॥ १०-१३॥
    निर्मल जैनधर्म के प्रेमी श्रीधर्मसिंह मुनि ने जिन भगवान् के उपदेश किए और स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले तप मार्ग का आश्रय ले उसके पुण्य से स्वर्ग-सुख लाभ किया। वे संसार प्रसिद्ध महात्मा और अपने गुणों से सबकी बुद्धि पर प्रकाश डालने वाले मुझे भी मंगल - सुख दान करें ॥१४॥
  14. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों, विद्याधरों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किए जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुदृष्टि नामक सुनार की, जो रत्नों के काम में बड़ा होशियार था, कथा लिखी जाती है ॥१॥
    उज्जैन के राजा प्रजापाल बड़े प्रजाहितैषी, धर्मात्मा और भगवान् के सच्चे भक्त थे। उनकी रानी का नाम सुप्रभा था । सुप्रभा बड़ी सुन्दरी और सती थी । सच है - संसार में वही रूप और वही सौन्दर्य प्रशंसा के लायक होता है जो शील से भूषित हो ॥२-३॥
    यहाँ एक सुदृष्टि नाम का सुनार रहता था । जवाहरात के काम में यह बड़ा चतुर था तथा सदाचारी और सरल-स्वभावी था । इसकी स्त्री का नाम विमला था, विमला दुराचारिणी थी । अपने घर में रहने वाले एक वक्र नाम के विद्यार्थी से, जिसे कि सुदृष्टि अपने खर्च से लिखाता-पढ़ाता था, विमला का अनुचित सम्बन्ध था । विमला अपने स्वामी से बहुत नाखुश थी । इसलिए उसने अपने प्रेमी वक्र को उस्का कर, उसे कुछ भली - बुरी सुझाकर सुदृष्टि का खून करवा दिया। खून उस समय किया गया जब कि सुदृष्टि विषय - सेवन में मग्न था । सो यह मरकर विमला के ही गर्भ में आया। विमला ने कुछ दिनों बाद पुत्र प्रसव किया । आचार्य कहते हैं कि संसार की स्थिति बड़ी ही विचित्र है जो पल भर में कर्मों की पराधीनता से जीवों का अजब परिवर्तन हो जाता है । वे नट की तरह क्षणक्षण में रूप बदला ही करते हैं ॥४-८॥
    चैत का महीना था वसन्त शोभा ने सब ओर अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था । वन जन विद्याप उपवनों की शोभा मन को मोह लेती थी। इसी सुन्दर समय में एक दिन महारानी सुप्रभा अपने खास बगीचे में प्राणनाथ के साथ हँसी विनोद कर रही थी । इसी हँसी - विनोद में उसका क्रीड़ा - विलास नाम का सुन्दर बहुमूल्य हार टूट पड़ा। उसके सब रत्न बिखर गए । राजा ने उसे फिर वैसा ही बनवाने का बहुत यत्न किया, जगह-जगह से अच्छे सुनार बुलवाए पर हार पहले सा किसी से नहीं बना। सच है-बिना पुण्य के कोई उत्तम कला या ज्ञान नहीं होता। इसी टूटे हुए हार को विमला के लड़के ने अर्थात् पूर्वभव के उसके पति सुदृष्टि ने देखा। देखते ही उसे जातिस्मरण पूर्व जन्म का ज्ञान हो गया। उससे उसने इस हार को पहले जैसा ही बना दिया । इसका कारण यह था कि इस हार को पहले भी सुदृष्टि ने ही बनाया था और यह बात सच है कि इस जीव को पूर्व जन्म के संस्कार पुण्य से ही कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान दान - पूजा आदि सभी बातें प्राप्त हुआ करती है। प्रजापाल उसकी ऐसी होशियारी देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे पूछा भी कि भाई, यह हार जैसा सुदृष्टि का बनाया था वैसा ही तुमने कैसे बना दिया? तब वह विमला का लड़का मुँह नीचा कर बोला- राजाधिराज, मैं अपनी कथा आपसे क्या कहूँ। आप यह समझें कि वास्तव में मैं ही सुदृष्टि हूँ। इसके बाद उसने बीती हुई सब घटना राजा से कह सुनाई । वे संसार की इस विचित्रता को सुनकर विषय- भोगों से बड़े विरक्त हुए । उन्होंने उसी समय सब माया-जाल छोड़कर आत्महित का पथ जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ॥९ - १६॥ 
    इधर विमला के लड़के को भी अत्यन्त वैराग्य हुआ। वह स्वर्ग- मोक्ष के सुखों को देने वाली जिनदीक्षा लेकर योगी बन गया। यहाँ से फिर यह विशुद्धात्मा धर्मोपदेश के लिए अनेक शहरों में घूम- फिर कर तपस्या करता हुआ और अनेक भव्यजनों को आत्महित के मार्ग पर लगाता हुआ शौरीपुर के उत्तर भाग में यमुना के पवित्र किनारे पर आकर ठहरा। यहाँ शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर इसने लोकालोक का ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अन्त में मुक्ति लाभ किया। वे विमला - सुत मुनि मुझे शान्ति दें ॥१७-२०॥
    वे जिन भगवान् आप भव्यजनों को और मुझे मोक्ष का सुख दें, जो संसार - सिन्धु में डूबते हुए, असहाय-निराधार जीवों को पार करने वाले हैं, कर्म - शत्रुओं का नाश करने वाले है।, , संसार के सब पदार्थों को देखने वाले केवलज्ञान से युक्त हैं, सर्वज्ञ हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले हैं और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि प्रायः सभी महापुरुषों से पूजा किए जाते हैं ॥२१॥
  15. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को प्रसन्नता पूर्वक नमस्कार कर शुभ नाम के राजा की कथा लिखी जाती है । मिथिला नगर के राजा शुभ की रानी मनोरमा के देवरति नाम का एक पुत्र था। देवरति गुणवान् और बुद्धिमान् था । किसी प्रकार का दोष या व्यसन उसे छू तक न गया था ॥१-२॥
    एक दिन देवगुरु नाम के अवधिज्ञानी मुनिराज अपने संघ को साथ लिए मिथिला आए। शुभ राजा तब बहुत से भव्यजनों के साथ मुनि-पूजा के लिए गया । मुनिसंघ की सेवा-पूजा कर उसने धर्मोपदेश सुना। अन्त में उसने अपने भविष्य के सम्बन्ध का मुनिराज से प्रश्न किया - योगिराज, कृपाकर बतलाइए कि आगे मेरा जन्म कहाँ होगा ? उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन् सुनिए- पाप कर्मों के उदय से तुम्हें आगे के जन्म में तुम्हारे ही पाखाने में एक बड़े कीड़े की देह प्राप्त होगी, शहर में घुसते समय तुम्हारे मुँह में विष्टा प्रवेश करेगा, तुम्हारा छत्रभंग होगा और आज के सातवें दिन बिजली गिरने से तुम्हारी मौत होगी। सच है - जीवों के पाप के उदय से सभी कुछ होता है। मुनिराज ने ये सब बातें राजा से बड़े निडर होकर कहीं और यह ठीक भी है कि योगियों के मन में किसी प्रकार का भय नहीं रहता । मुनि का शुभ के सम्बन्ध का भविष्य कथन सच होने लगा । एक दिन बाहर से लौट कर जब वे शहर में घुसने लगे तब घोड़े के पाँवों की ठोकर से उड़े हुए थोड़े से विष्टा का अंश उनके मुँह में आ गिरा और यहाँ से वे थोड़े ही आगे बढ़े होंगे कि एक जोर की आँधी ने उनके छत्र को तोड़ डाला । सच है, पाप कर्मों के उदय से क्या नहीं होता। उन्होंने तब अपने पुत्र देवरति को बुलाकर कहा- बेटा, मेरे कोई ऐसा पापकर्म का उदय आएगा उससे मैं मरकर अपने पाखाने में पाँच रंग का कीड़ा होऊँगा, सो तुम उस समय मुझे मार डालना । इसलिए कि फिर मैं कोई अच्छी गति प्राप्त कर सकूँ । उक्त घटना को देखकर शुभ को यद्यपि यह एक तरह निश्चय-सा हो गया था कि मुनिराज की कहीं बातें सच्ची हैं और वे अवश्य होंगी पर तब भी उनके मन में कुछ- कुछ सन्देह बना रहा और इसी कारण बिजली गिरने के भय से डरकर उन्होंने एक लोहे की बड़ी मजबूत सन्दूक मँगवाई और उसमें बैठकर गंगा के गहरे जल में उसे रख आने को नौकरों को आज्ञा की। इसलिए कि जल में बिजली का असर नहीं होता । उन्हें आशा थी कि मैं इस उपाय से रक्षा पा जाऊँगा। पर उनकी ये बे-समझी थी । कारण प्रत्यक्ष - ज्ञानियों की कोई बात कभी झूठी नहीं होती। जो हो, सातवाँ दिन आया । आकाश में बिजलियाँ चमकने लगीं। इसी समय भाग्य से एक बड़े मच्छ ने राजा की उस सन्दूक को एक ऐसा जोर का उथेला दिया कि सन्दूक जल के बाहर दो हाथ ऊँचे तक उछल आयी सन्दूक का बाहर होना था कि इतने में बड़े जोर से कड़क कर उस पर बिजली आ गिरी। खेद है कि उस बिजली के गिरने से राजा अपने यत्न में कामयाब न हुए और आखिर वे मौत के मुँह में पड़ ही गए। मरकर वह मुनिराज के कहे अनुसार पाखाने में कीड़ा हुए। पिता के कहे अनुसार जब देवरति ने जाकर देखा तो सचमुच एक पाँच रंग का कीड़ा उसे देख पड़ा और तब उसने उसे मार डालना चाहा। पर जैसे ही देवरति ने हाथ का हथियार उसके मारने को उठाया, वह कीड़ा उस विष्टा के ढेर में घुस गया । देवरति को इससे बड़ा अचम्भा हुआ । उसने जिन-जिन से इस घटना का हाल कहा, उन सब को संसार की इस भयंकर लीला को सुन बड़ा डर मालूम हुआ। उन्होंने तब संसार का बन्धन काट देने के लिए जैनधर्म का आश्रय लिया, कितनों ने सब माया-ममता तोड़ जिनदीक्षा ग्रहण की और कितनों ने अभ्यास बढ़ाने को पहले श्रावकों के व्रत ही लिए ॥३-१६॥
    देवरति को इन घटना से बड़ा अचम्भा हो ही रहा था, सो एक दिन उसने ज्ञानी मुनिराज से इसका कारण पूछा-भगवन् ! क्यों तो मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैं विष्टा में कीड़ा होऊँगा सो मुझे तू मार डालना और जब मैं उस कीड़े को मारने जाता हूँ तब वह भीतर ही भीतर घुसने लगता है। मुनि ने उसके उत्तर में देवरति से कहा- भाई, जीव गति सुखी होता है फिर चाहे वे कितनी ही बुरी से बुरी जगह भी क्यों न पैदा हो। वह उसी में अपने को सुखी मानेगा, वहाँ से कभी मरना पसन्द न करेगा। यही कारण है कि जब तक तुम्हारे पिता जीते थे तब तक उन्हें मनुष्य जीवन से प्रेम था, उन्होंने न मरने के लिए यत्न भी किया, पर उन्हें सफलता न मिली और ऐसी उच्च मनुष्य गति से वे मरकर कीड़ा होंगे, सो भी विष्टा में । उसका उन्हें खेद था और इसलिए उन्होंने तुमसे उस अवस्था में मार डालने को कहा था । पर अब उन्हें वही जगह अत्यन्त प्यारी हैं, वे मरना पसन्द नहीं करते । इसलिए जब तुम उस कीड़ा को मारने जाते हो तब वह भीतर घुस जाता है। इसमें आश्चर्य और खेद करने की कोई बात नहीं । संसार की स्थिति ही ऐसी है । मुनिराज द्वारा यह मार्मिक उपदेश सुनकर देवरति को बड़ा वैराग्य हुआ । वह संसार छोड़कर, इसलिए कि उसमें सार कुछ नहीं है, मुनिपद स्वीकार कर आत्महित साधक योगी हो गया । जिनके वचन पापों के नाश करने वाले हैं, सर्वोत्तम हैं और संसार का भ्रमण मिटाने वाले हैं, वे देवों द्वारा, पूजे जाने वाले जिन भगवान् मुझे तब तक अपने चरणों को सेवा का अधिकार दें जब तक कि मैं कर्मों का नाश कर मुक्ति प्राप्त न कर लूँ ॥१७-१८॥ 
  16. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    चारों प्रकार के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर आठवें चक्रवर्ती सुभौम की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सुभौम ईर्ष्यावान् शहर के राजा कार्त्तवीर्य की रानी रेवती के पुत्र थे । चक्रवर्ती का एक विजयसेन नाम का रसोइया था । एक दिन चक्रवर्ती जब भोजन करने को बैठे तब रसोइये ने उन्हें गरम-गरम खीर परोस दी । उसके खाने से चक्रवर्ती का मुँह जल गया। इससे उन्हें रसोइये पर बड़ा गुस्सा आया। गुस्से से उन्होंने खीर रखे गरम बरतन को ही उसके सिर पर दे मारा। उससे उसका सारा सिर जल गया। इसकी घोर वेदना से मरकर वह लवणसमुद्र में व्यन्तर देव हुआ। कु- अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव की बात जानकर सुभौम चक्रवर्ती पर उसके गुस्से का पार न रहा। प्रतिहिंसा से उसका जी बे-चैन हो उठा। तब वह एक तापसी बनकर अच्छे-अच्छे सुन्दर फलों को अपने हाथ में लिए चक्रवर्ती के पास पहुँचा । फलों को उसने चक्रवर्ती को भेंट किया । चक्रवर्ती उन फलों को खाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उस तापस से कहा - महाराज, ये फल तो बड़े ही मीठे हैं । आप ये फल कहाँ से लाये ? और ये कहाँ मिलेंगे ? तब उस व्यन्तर ने धोखा देकर चक्रवर्ती से कहा- समुद्र के बीच में एक छोटा सा टापू है । वहीं मेरा घर है। आप मुझ गरीब पर कृपा कर मेरे घर को पवित्र करें तो मैं आपको बहुत से ऐसे - ऐसे उत्तम और मीठे फल भेंट करूँगा। कारण वहाँ ऐसे फलों के बहुत बगीचे हैं। चक्रवर्ती लोभ में फँसकर व्यन्तर के फॉंसे में आ गए और उसके साथ चल दिये। जब व्यन्तर उन्हें साथ लिए बीच समुद्र में पहुँचा तब अपने सच्चे स्वरूप में आ उसने बड़े गुस्से से चक्रवर्ती को कहा- पापी, जानता है कि मैं तुझे यहाँ क्यों लाया हूँ? यदि न जानता हो तो सुन-मैं तेरा जयसेन नाम का रसोइया था, तब तूने मुझे निर्दयता के साथ जलाकर मार डाला था। अब उसी का बदला लेने को मैं तुझे यहाँ लाया हूँ । बतला अब कहाँ जाएगा? जैसा किया उसका फल भोगने को तैयार हो जा । तुझसे पापियों की ऐसी गति होनी ही चाहिए। पर सुन, अब भी एक उपाय है, जिससे तू बच सकता है और वह यह कि यदि तू पानी में पंच नमस्कार मन्त्र लिखकर उसे अपने पाँवों से मिटा दे तो तुझे मैं जीता छोड़ सकता हूँ । अपनी जान बचाने के लिए कौन किस काम को नहीं कर डालता? ॥२-११॥
    वह भला है या बुरा इसके विचार करने की तो उसे जरूरत ही नहीं रहती। उसे तब पड़ी रहती है अपनी जान की। यही दशा चक्रवर्ती महाशय की हुई उन्होंने तब नहीं सोच पाया कि इस अनर्थ से मेरी क्या दुर्दशा होगी? उन्होंने उस व्यन्तर के कहे अनुसार झटपट जल में मंत्र लिख कर पाँव से उसे मिटा डाला। उनका मन्त्र मिटाना था कि व्यन्तर ने उन्हें मारकर समुद्र में फेंक दिया। इसका कारण यह हो सकता है कि मंत्र को पाँव से मिटाने के पहले व्यन्तर की हिम्मत चक्रवर्ती को मारने की इसलिए न पड़ी होगी कि जगत्पूज्य जिनेन्द्र भगवान् के भक्त को वह कैसे मारे या यह भी संभव था कि उस समय कोई जिनशासन का भक्त अन्य देव उसे इस अन्याय से रोककर चक्रवर्ती की रक्षा कर लेता और अब मंत्र को पाँवों से मिटा देने से चक्रवर्ती जिनधर्म का द्वेषी समझा गया और इसलिए व्यन्तर ने उसे मार डाला। मरकर इस पाप के फल से चक्रवर्ती सातवें नरक गया । उस मूर्खता को, उस लम्पटता को धिक्कार है जिससे चक्रवर्ती सारी पृथ्वी का सम्राट् दुर्गति में गया। जिसका जिन भगवान् के धर्म पर विश्वास नहीं होता उसे चक्रवर्ती की तरह कुगति में जाना पड़े तो इसमें आश्चर्य क्या? वे पुरुष धन्य है और वे ही सबके आदर पात्र हैं, जिनके हृदय में सुख देने वाले जिन वचन रूप अमृत का सदा स्रोत बहता रहता है। इन्हीं वचनों पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन जीवमात्र का हित करने वाला है, संसार भय मिटाने वाला है, नाना प्रकार के सुखों का देने वाला है, और मोक्ष प्राप्ति का मुख्य कारण है । देव, विद्याधर आदि सभी बड़े-बड़े पुरुष सम्यग्दर्शन की या उसके धारण करने वाले की पूजा करते हैं । यह गुणों का खजाना है । सम्यग्दृष्टि को किसी प्रकार की भय-बाधा नहीं होती। वह बड़ी सुख - शान्ति से रहता है । इसलिए जो सच्चे सुख की आशा रखते हैं उन्हें आठ अंग सहित इस पवित्र सम्यग्दर्शन का विश्वास के साथ पालन करना चाहिए ॥ १२-१६॥ 
  17. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक और स्वयंभू श्री आदिनाथ भगवान् को नमस्कार कर सत्पुरुषों को इस बात का ज्ञान हो कि केवल मन की भावना से ही मन में विचार करने मात्र से ही कितना दोष या कर्मबन्ध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सबसे अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ी भारी दीर्घकाय मच्छ है । वह लम्बाई में एक हजार योजन, चौड़ाई में पाँच सौ योजन और ऊँचाई में ढाई सौ योजन का है। (एक योजन चार या दो हजार कोस का होता है) यहीं एक और शालिसिक्थ नाम का मच्छ इस बड़े मच्छ के कानों के पास रहता है। पर यह बहुत ही छोटा है और इस बड़े मच्छ के कानों का मैल खाया करता है। जब यह बड़ा मच्छ सैकड़ों छोटे-मोटे जल - जीवों को खाकर और मुँह फाड़े छह मास की गहरी नींद के खुर्राटे में मग्न हो जाता उस समय कोई एक-एक दो-दो योजन के लंबे-चौड़े कछुए, मछलियाँ, घड़ियाल, मगर आदि जल जन्तु, बड़े निर्भीक होकर इसके विकराल डाढों वाले मुँह में घुसते और बाहर निकलते रहते हैं तब यह छोटा सिक्थ-मच्छ रोज-रोज सोचा करता है कि यह बड़ा मच्छ कितना मूर्ख है जो अपने मुख में आसानी से आए हुए जीवों को व्यर्थ ही जाने देता है! यदि कहीं मुझे वह सामर्थ्य प्राप्त हुई होती तो मैं कभी एक भी जीव को न जाने देता। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग अपने आप ही ऐसे बुरे भावों द्वारा महान् पाप का बन्धकर दुर्गतियों में जाते हैं और वहाँ अनेक कष्ट सहते हैं । सिक्थ-मच्छ की भी यह दशा हुई वह इस प्रकार बुरे भावों से तीव्र कर्मों का बन्ध कर सातवें नरक गया क्योंकि मन के भाव ही तो पुण्य या पाप के कारण होते हैं। इसलिए सत्पुरुषों को जैन शास्त्रों के अभ्यास या पढ़ने-पढ़ाने से मन को सदा पवित्र बनाये रखना चाहिए, जिससे उसमें बुरे विचारों का प्रवेश ही न हो पाये और शास्त्रों के अभ्यास के बिना अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिए शास्त्राभ्यास पवित्रता का प्रधान कारण है ॥२-११॥
    यही जिनवाणी मिथ्यात्वरूपी अंधेरे को नष्ट करने के लिए दीपक है, संसार के दुःखों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाली है, स्वर्ग- मोक्ष के सुख की कारण है और देव, विद्याधर आदि सभी महापुरुषों के आदर की पात्र है। सभी जिनवाणी की उपासना बड़ी भक्ति से करते हैं । आप लोग भी इस पवित्र जिनवाणी का शांति और सुख के लिए सदा अभ्यास मनन- चिन्तन करें ॥१२॥ 
  18. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी और ज्ञान के समुद्र साधुओं को नमस्कार कर वृषभसेन की उत्तम कथा लिखी जाती है ॥१॥
    दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुण्डल नगर के राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे और रिष्टामात्य नाम का इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा - मिथ्यात्वी और जैनधर्म का बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं ॥२-३॥
    एक दिन श्रीवृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिए कुण्डल नगर की ओर आए। वैश्रवण उनके आने के समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिए उनकी वन्दना को गया। भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना की और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सच है, इस सर्वोच्च और सब सुखों के देने वाले जैनधर्म का उपदेश सुनकर कौन सद्गति - का पात्र सुखी न होगा? ॥४-८॥
    राजमंत्री भी मुनिसंघ के पास आया। पर वह इसलिए नहीं कि वह उनकी पूजा - स्तुति करे किन्तु उनसे वाद-शास्त्रार्थ कर उनका मान भंग करने, लोगों की श्रद्धा उन पर से उठा देने। पर यह उसकी भूल थी। कारण, जो दूसरों के लिए कुँआ खोदते हैं उनमें पहले उन्हें ही गिरना पड़ता है। यही हुआ भी। मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान भी उसी का हुआ। मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा। उस अपमान की उसके हृदय पर गहरी चोट लगी। इसका बदला चुकाना निश्चित कर वह शाम को छुपा हुआ मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थान में वह ठहरा था उसमें उस पापी ने आग लगा दी। बड़े दुःख की बात है कि दुर्जनों का स्वभाव एक विलक्षण ही तरह का होता है। वे स्वयं तो पहले दूसरों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं और जब उन्हें अपने कृत का फल मिलता है तब वे यह समझ कर, कि मेरा इसने बुरा किया, दूसरे निर्दोष सत्पुरुषों पर क्रोध करते हैं और फिर उनसे बदला लेने के लिए उन्हें नाना प्रकार के कष्ट देते हैं ॥९-११॥
    जो हो, मंत्री ने अपनी दुष्टता में कोई कसर न की । मुनिसंघ पर उसने बड़ा ही भयंकर उपसर्ग किया। पर उन तत्त्वज्ञानी - वस्तु स्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवाह न कर बड़ी सहन-शीलता के साथ सब कुछ सह लिया और अन्त में अपने - अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही मोक्ष गए और कितने ही स्वर्ग में ॥१२॥
    दुष्ट पुरुष सत्पुरुषों को कितना ही कष्ट क्यों न पहुँचावे उससे खराबी उन्हीं की है उन्हें ही दुर्गति में दुःख भोगना पड़ेंगे और सत्पुरुष तो ऐसे कष्ट के समय में भी अपनी प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहकर अपना धर्म अर्थात् कर्तव्य पालन कर सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे। जैसा कि उक्त मुनिराजों ने किया ॥१३॥
    वे मुनिराज आप लोगों को भी सुख दें, जिन्होंने ध्यानरूपी पर्वत का आश्रय ले बड़ा दुःसह उपसर्ग जीता, अपने कर्तव्य से सर्वश्रेष्ठ कहलाने का सम्मान लाभ किया और अन्त में अपने उच्च भावों से मोक्ष सुख प्राप्त कर देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि द्वारा पूजा को प्राप्त हुए और संसार में सबसे पवित्र गिने जाने लगे ॥१४॥
  19. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों द्वारा पूजा किए जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर चाणक्य की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    पाटलिपुत्र या पटना के राजा नन्द के तीन मंत्री थे । कावी, सुबन्धु और शकटाल ये उनके नाम थे। यहीं एक कपिल नाम का पुरोहित रहता था । कपिल की स्त्री का नाम देविला था। चाणक्य इन्हीं का पुत्र था। यह बड़ा बुद्धिमान् और वेदों का ज्ञाता था ॥२-३॥
    एक बार आस-पास छोटे-मोटे राजाओं ने मिलकर पटना पर चढ़ाई कर दी । कावी मंत्री ने इस चढ़ाई का हाल नन्द से कहा । नन्द ने घबरा कर मंत्री से कह दिया कि जाओ जैसे बने उन अभिमानियों को समझा-बुझाकर वापस लौटा दो। धन देना पड़े तो वह भी दो । राजाज्ञा पा मंत्री ने उन्हें धन वगैरह देकर लौटा दिया। सच है, बिना मंत्री के राज्य स्थिर हो ही नहीं सकता ॥४-६॥
    एक दिन नन्द को स्वयं कुछ धन की जरूरत पड़ीं । उसने खजांची से खजाने में कितना धन मौजूद है, इसके लिए पूछा। खजांची ने कहा- महाराज, धन तो सब मंत्री महाशय ने दुश्मनों को दे डाला। खजाने में तो अब नाम मात्र के लिए थोड़ा-बहुत धन बचा होगा । यद्यपि दुश्मनों को धन स्वयं राजा ने दिलवाया था और इसलिए गलती उसी की थी, पर उस समय अपनी यह भूल उसे न दीख पड़ी और दूसरे के उकसाने में आकर उसने बेचारे निर्दोष मंत्री को और साथ में उसके सारे कुटुम्ब को एक अन्धे कुँए में डलवा दिया। मंत्री तथा उसका कुटुम्ब वहाँ बड़ा कष्ट पाने लगा। उनके खाने-पीने के लिए बहुत थोड़ा भोजन और थोड़ा सा पानी दिया जाता था। वह इतना थोड़ा था कि एक मनुष्य भी उससे अच्छी तरह पेट न भर सकता था । सच है, राजा किसी का मित्र नहीं होता । राजा के इस अन्याय ने कावी के मन में प्रतिहिंसा की आग धधका दी। इस आग ने बड़ा भयंकर रूप धारण किया। कावी ने तब अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा- जो भोजन इस समय हमें मिलता है उसे यदि हम इसी तरह थोड़ा थोड़ा सब मिलकर खाया करेंगे तब तो हम धीरे - धीरे सब ही मर मिटेंगे और ऐसी दशा में कोई राजा से उसके इस अन्याय का बदला लेने वाला न रहेगा। पर मुझे यह सह्य नहीं । इसलिए मैं चाहता हूँ कि मेरा कोई कुटुम्ब का मनुष्य राजा से बदला ले। तब ही मुझे शान्ति मिलेगी। इसलिए इस भोजन को वही मनुष्य अपने में से खाये जो बदला लेने की हिम्मत रखता हो। तब उसके कुटुंबियों ने कहा-इसका बदला लेने में आप ही समर्थ देख पड़ते हैं । इसलिए हम खुशी के साथ कहते हैं कि इस भार को आप ही अपने सर पर लें। उस दिन से उसका सारा कुटुम्ब भूखा रहने लगा और धीरे- धीरे सबका सब मर मिटा । इधर कावी अपने रहने योग्य एक छोटा सा गड्ढा उस कुँए में बनाकर दिन काटने लगा। ऐसे रहते उसे कोई तीन वर्ष बीत गए ॥७-१२॥
    जब यह खबर आस-पास के राजाओं के पास पहुँची तब उन्होंने उस समय राज्य को अव्यवस्थित देख फिर चढ़ाई कर दी। अब तो नन्द के कुछ होश ढीले पड़े, अकल ठिकाने आई अब उसे न सूझ पड़ा कि वह क्या करे? तब उसे अपने मंत्री कावी की याद आयी । उसने नौकरों को आज्ञा दो कुँए से मंत्री को निकलवाया और मंत्री की जगह नियत किया। मंत्री ने भी इस समय तो उन राजाओं से सुलह कर नन्द की रक्षा कर ली। पर अब उसे अपना वैर निकालने की चिन्ता हुई वह किसी ऐसे मनुष्य को खोज करने लगा, जिससे उसे सहायता मिल सके। एक दिन कावी किसी वन में हवाखोरी के लिए गया हुआ था। इसने वहाँ एक मनुष्य को देखा कि जो काँटों के समान चुभने वाली दूबा को जड़-मूल से उखाड़ - उखाड़ कर फेंक रहा था, उसे एक निकम्मा काम करते देखकर कावी ने चकित होकर पूछा-ब्रह्मदेव, इसे खोदने से तुम्हारा क्या मतलब है? क्यों बे-फायदा इतनी तकलीफ उठा रहे हो? इस मनुष्य का नाम चाणक्य था । इसका उल्लेख ऊपर आ चुका है । चाणक्य ने तब कहा- वाह महाशय! इसे आप बे-फायदा बतलाते हैं। आप जानते हैं कि इसका क्या अपराध है? सुनिये ! इसने मेरा पाँव छेद डाला और मुझे महा कष्ट दिया, तब मैं क्यों इसे छोड़ने चला? मैं तो इसका जड़मूल से नाश कर ही दम लूँगा । यही मेरा संकल्प है। तब कावी ने उसके हृदय की थाह लेने के लिए कि इसकी प्रतिहिंसा की आग कहाँ जाकर ठण्डी पड़ती है, कहा - तो महाशय ! अब इस बेचारी को क्षमा कीजिए, बहुत हो चुका। उत्तर में चाणक्य ने कहा- नहीं, तब तक इसके खोदने से लाभ ही क्या जब तक कि इसकी जड़े बाकी रह जायें । उस शत्रु के मारने से क्या लाभ जब कि उसका सिर न काट लिया जाये ? चाणक्य की यह ओजस्विता देखकर कावी को बहुत संतोष हुआ । उसे निश्चय हो गया कि इसके द्वारा नन्दकुल का जड़ - मूल से नाश हो सकेगा । इससे अपने को बहुत सहायता मिलेगी। अब सूर्य और राहु का योग मिला देना अपना काम है । किसी तरह नन्द के सम्बन्ध में इसका मनमुटाव करा देना ही अपने कार्य का श्रीगणेश हो जाएगा। कावी मंत्री इस तरह का विचार कर ही रहा था कि प्यासे की जल की आशा होने की तरह एक योग मिल ही गया । इसी समय चाणक्य की स्त्री यशस्वती ने आकर चाणक्य से कहा - सुनती हूँ, राजा नन्द ब्राह्मणों को गौ दान किया करते हैं तब आप भी जाकर उनसे गौ लाइये न । चाणक्य ने कहा- अच्छी बात है, मैं अपने महाराज के पास जाकर जरूर गौ लाऊँगा । यशस्वती के मुँह से यह सुनकर कि नन्द गौओं का दान किया करता है, कावी मंत्री खुश होता हुआ राजदरबार में गया और राजा से बोला- महाराज! क्या आज आप गौएँ दान करेंगे? ब्राह्मणों को इकट्ठा करने की योजना की जाए ? महाराज, आपको तो यह पुण्यकार्य करना ही चाहिए । धन का ऐसी जगह सदुपयोग होता है। मंत्री ने अपना चक्र चलाया और वह राजा पर चल भी गया । सच है, जिनके मन में कुछ और होता है, जो वचनों से कुछ और बोलते हैं तथा शरीर जिनका माया से सदा लिपटा रहता हैं, उन दुष्टों की दुष्टता का पता किसी को नहीं लग पाता । कावी की सत् सम्मति सुनकर नन्द ने कहा-अच्छा ब्राह्मणों को आप बुलवाइये, मैं उन्हें गौएँ दान करूँगा। मंत्री जैसा चाहता था, वही हो गया। वह झटपट जाकर चाणक्य को ले आया और उसे सबसे आगे रखे आसन पर बैठा दिया। लोभी चाणक्य ने तब अपने आस-पास रखे हुए बहुत से आसनों को घर ले जाने की इच्छा से इकट्ठा कर अपने पास रख लिए। उसे इस प्रकार लोभी देखकर कावी ने कपट से कहा- - पुरोहित महाराज ! राजा साहस कहते हैं और बहुत से ब्राह्मण विद्वान् आए हैं, आप उनके लिए आसन दीजिये । चाणक्य ने तब एक आसन निकाल कर दे दिया। इसी तरह धीरे- धीरे मंत्री ने उससे सब आसन रखवाकर अन्त में कहा- महाराज, क्षमा कीजिए ! मेरा कोई अपराध नहीं हैं। मैं तो पराया नौकर हूँ । इसलिए जैसा मालिक कहते हैं उनका हुक्म बजाता हूँ पर जान पड़ता है कि राजा बड़ा अविचारी है जो आप सरीखे महा ब्राह्मण का अपमान करना चाहता है । महाराज, राजा का कहना है कि आप जिस अग्रासन पर बैठे हैं उसे छोड़कर चले जाइए। यह आसन दूसरे विद्वान् के लिए पहले ही से दिया जा चुका है। यह कहकर ही कावी ने गर्दन पकड़ चाणक्य को निकाल बाहर कर दिया । चाणक्य एक तो वैसे ही महाक्रोधी और अब उसका ऐसा अपमान किया गया और वह भी भरी राजसभा में! तब तो अब चाणक्य के क्रोध का पूछना ही क्या? वह नन्दवंश को जड़मूल से उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प कर जाता-जाता बोला कि जिसे नन्द का राज्य चाहना हो, वह मेरे पीछे-पीछे चला आवे। यह कहकर वह चलता बना । चाणक्य की इस प्रतिज्ञा के साथ ही कोई एक मनुष्य उसके पीछे हो गया। चाणक्य उसे लेकर उन आस-पास के राजाओं से मिल गया और फिर मौका देख एक घातक मनुष्य को साथ ले वह पटना आया और नन्द को मरवा कर आप उस राज्य का मालिक बन बैठा । सच है, मंत्री के क्रोध से कितने राजाओं का नाम इस पृथ्वी से उठ गया होगा ॥१३-३३॥
    इसके बाद चाणक्य ने बहुत दिनों तक राज्य किया । एक दिन उसे श्रीमहीधर मुनि द्वारा जैनधर्म का उपदेश सुनने का मौका मिला। उस उपदेश का उसके चित्त पर खूब असर पड़ा। वह उसी समय सब राज-काज छोड़कर मुनि बन गया । चाणक्य बुद्धिमान् और बड़ा तेजस्वी था। इसलिए थोड़े ही दिनों बाद उसे आचार्य पद मिल गया । वहाँ से कोई पाँच सौ शिष्यों को साथ लिए उसने बिहार किया। रास्ते में पड़ने वाले देशों, नगरों और गाँवों में धर्मोपदेश करता और अनेक भव्य-जनों को हितमार्ग में लगाता वह दक्षिण की ओर बसे हुए वनवास देश के क्रौंचपुर में आया। इस पुर के पश्चिम किनारे कोई अच्छी जगह देख इसने संघ ठहरा दिया । चाणक्य को यहाँ यह मालूम हो गया कि उसकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। इसलिए उसने वहीं प्रायोगपगमन संन्यास ले लिया ॥३४-३७॥
    नन्द का दूसरा मंत्री सुबन्धु था । चाणक्य ने जब नन्द को मरवा डाला तब उसके क्रोध का पार नहीं रहा। प्रतिहिंसा की आग उसके हृदय में दिन-रात जलने लगी। पर उस समय उसके पास कोई साधन बदला लेने का न था । इसलिए वह लाचार चुप रहा । नन्द की मृत्यु के बाद वह इसी क्रौंचपुर में आकर यहाँ के राजा सुमित्र का मंत्री हो गया। राजा ने जब मुनिसंघ के आने का समाचार सुना तो वह उसकी वन्दना - पूजा के लिए आया, बड़ी भक्ति से उसने सब मुनियों की पूजा कर उनसे धर्मोपदेश सुना और बाद उनकी स्तुति कर वह अपने महल में लौट आया । मिथ्यात्वी सुबन्धु को चाणक्य से बदला लेने का अब अच्छा मौका मिल गया। उसने उस मुनिसंघ के चारों ओर खूब घास इकट्ठा करवा कर उसमें आग लगवा दी। मुनि संघ पर हृदय को हिला देने वाला बड़ा ही भयंकर दुःसह उपसर्ग हुआ सही, पर उसने उसे बड़ी सहन-शीलता के साथ सह लिया और अन्त में अपनी शुक्लध्यानरूपी आत्मशक्ति से कर्मों का नाश कर सिद्धगति लाभ की । जहाँ राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, दुःख, चिन्ता आदि दोष नहीं हैं और सारा संसार जिसे सबसे श्रेष्ठ समझता है ॥ ३८-४२॥
    चाणक्य आदि निर्मल चारित्र के धारक ये सब मुनि अब सिद्धगति में ही सदा रहेंगे। ज्ञान के समुद्र ये मुनिराज मुझे भी सिद्धगति का सुख दें ॥४३॥
  20. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर पाँच सौ मुनियों पर एक साथ बीतने वाली घटना का हाल लिखा जाता है, जो कि कल्याण का कारण है ॥१॥
    भरत के दक्षिण की ओर बसे हुए कुम्भकारकट नाम के पुराने शहर के राजा का नाम दण्डक और उनकी रानी का नाम सुव्रता था । सुव्रता रूपवती ओर विदुषी थी । राजमंत्री का नाम बालक था। यह पापी जैनधर्म से बड़ा द्वेष रखा करता था। एक दिन इस शहर में पाँच सौ मुनियों का संघ आया। बालक मंत्री को अपनी पंडिताई पर बड़ा अभिमान था । सो वह शास्त्रार्थ करने को मुनिसंघ के आचार्य के पास जा रहा था । रास्ते में इसे एक खण्डक नाम के मुनि मिल गए। सो उन्हीं से आप झगड़ा करने को बैठ गया और लगा अन्ट-सन्ट बकने । तब मुनि ने उसकी युक्तियों का अच्छी तरह खण्डन कर स्याद्वाद-सिद्धान्त का इस शैली से प्रतिपादन किया कि बालक मंत्री का मुँह बन्द हो गया, उनके सामने फिर उससे कुछ बोलते न बना। तब उसे लज्जित हो घर लौट आना पड़ा। इस अपमान की आग उसके हृदय में खूब धधकी । उसने तब इसका बदला चुकाने की ठानी। इसके लिए उसने यह युक्ति की कि एक भाँड को छल से मुनि बनाकर सुव्रता रानी के महल में भेजा । यह भाँड रानी के पास जाकर उससे भला-बुरा हँसी-मजाक करने लगा । इधर उसने यह सब लीला राजा को भी बतला दी और कहा - महाराज, आप इन लोगों की इतनी भक्ति करते हैं, सदा इनकी सेवा में लगे रहते हैं, तो क्या यह सब इसी दिन के लिए है? जरा आँखें खोलकर देखिए कि सामने क्या हो रहा है? उस भाँड की लीला देखकर मूर्खराज दण्डक के क्रोध का कुछ पार न रहा। क्रोध से अन्धे होकर उसने उसी समय हुक्म दिया कि जितने मुनि इस समय मेरे शहर में मौजूद हों, उन सबको घानी में पेल दो। पापी मंत्री तो इसी पर मुँह धोये बैठा था । सो राजाज्ञा होते ही उसने पलभर का भी विलम्ब करना उचित न समझ मुनियों के पेले जाने की सब व्यवस्था फौरन जुटा दी। देखते-देखते वे सब मुनि घानी में पेल दिये गए। बदला लेकर बालक मंत्री की आत्मा सन्तुष्ट हुई । सच है-जो पापी होते हैं, जिन्हें दुर्गतियों में दुःख भोगना है, वे मिथ्यात्वी लोग भयंकर पाप करने में जरा भी नहीं हिचकते । चाहे फिर उस पाप के फल से उन्हें जन्म-जन्म में क्यों न कष्ट सहना पड़े। जो हो, मुनिसंघ पर इस समय बड़ा ही घोर और दुःसह उपद्रव हुआ। पर वे साहसी धन्य हैं, जिन्होंने जबान से चूँ तक न निकाल कर सब कुछ बड़े साहस के साथ सह लिया । जीवन की इस अन्तिम कसौटी पर वे खूब तेजस्वी उतरे । उन मुनियों ने शुक्लध्यानरूपी अपनी महान् आत्मशक्ति से कर्मों का, जो कि आत्मा के पक्के दुश्मन हैं, नाश कर मोक्ष लाभ किया ॥२-११॥ 
    दिपते हुए सुमेरु के समान स्थिर, कर्मरूपी मैल को, जो कि आत्मा को मलिन करने वाला हैं, नाश करने वाले और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किए गए जिन मुनिराजों ने संसार का नाश कर मोक्ष लाभ किया वे मेरा भी संसार - भ्रमण मिटावें ॥१२॥
  21. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सर्वोच्च धर्म का उपदेश करने वाले श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन्य नाम के मुनि की कथा लिखी जाती है, जो पढ़ने या सुनने से सुख प्रदान करने वाली है ॥१॥
    जम्बूद्वीप पूर्व की ओर बसे हुए विदेह क्षेत्र की प्रसिद्ध राजधानी वीतशोकपुर का राजा अशोक बड़ा ही लोभी राजा हो चुका है। जब फसल काटकर खेतों पर खले किए जाते थे तब वह बेचारे बैलों का मुँह बँधवा दिया करता और रसोई घर में रसोई बनाने वाली स्त्रियों के स्तन बँधवा कर उनके बच्चे को दूध न पीने देता था, सच है, लोभी मनुष्य कौन सा पाप नहीं करते? ॥२-५॥
    एक दिन अशोक के मुँह में कोई ऐसी बीमारी हो गई जिससे उसका असर उसके सिर में आ गया। सिर में हजारों फोड़े-फुंसी हो गए। उससे उसे बड़ा कष्ट होने लगा। उसने उस रोग की औषधि बनवाई वह उसे पीने को ही था कि इतने में अपने चरणों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए मुनि आहार के लिए इसी ओर आ निकले। भाग्य से यह मुनि भी राजा की तरह इसी माह रोग से पीड़ित हो रहे थे। इन तपस्वी मुनि की यह कष्टमय दशा देखकर राजा ने सोचा कि जिस रोग से मैं कष्ट पा रहा हूँ, जान पड़ता है उसी रोग से ये तपोनिधि भी दुःखी है। यह सोचकर या दया से प्रेरित होकर राजा जिस दवा को स्वयं पीने वाला था, उसे उसने मुनिराज को पिला दिया और वैसा ही उन्हें पथ्य भी दिया। दवा ने बहुत लाभ किया। बारह वर्ष का यह मुनि का महारोग थोड़े ही समय में मिट गया, मुनि भले चंगे हो गए ॥६-११॥
    अशोक जब मरा तो इस पुण्य के फल से वह अमलकण्ठपुर के राजा निष्ठसेन की रानी नन्दमती के धन्य नाम का सुन्दर गुणवान् पुत्र हुआ । धन्य को एक दिन श्रीनेमिनाथ भगवान् के पास धर्म का उपदेश सुनने को मौका मिला। वह भगवान् के द्वारा अपनी उम्र बहुत थोड़ी जानकर उसी समय सब माया-ममता छोड़ मुनि बन गया । एक दिन वह शहर में आहार के लिए गया, पर पूर्वजन्म के पाप कर्म के उदय से उसे आहार नहीं मिला। वह वैसे ही तपोवन में लौट आया। यहाँ से विहार कर वह तपस्या करता तथा धर्मोपदेश देता हुआ शौरीपुर आकर यमुना के किनारे आतापन योग द्वारा ध्यान करने लगा । इसी ओर यहाँ का राजा शिकार के लिए आया हुआ था, पर आज उसे शिकार न मिला। वह वापस अपने महल की ओर आ रहा था कि इसी समय इसकी नजर मुनि पर पड़ी। इसने समझ लिया कि बस, शिकार न मिलने का कारण इस नंगे का दीख पड़ना है, उसने यह अपशकुन किया है। यह धारणा कर इस पापी राजा ने मुनि को बाणों से खूब वेध दिया। मुनि ने तब शुक्लध्यान की शक्ति से कर्मों का नाश कर सिद्ध गति प्राप्त की । सच है, महापुरुषों की धीरता बड़ी ही चकित करने वाली होती है। जिससे महान् कष्ट के समय में भी मोक्ष प्राप्ति हो जाता है ॥१२- २०॥
    वे धन्य मुनि रोग, शोक, चिन्ता आदि दोषों को नष्ट कर मुझे शाश्वत, कभी नाश न होने वाला सुख दें, जो भव्यजनों का भय मिटाने वाले हैं, संसार समुद्र से पार करने वाले हैं, देवों द्वारा पूजा किए जाते हैं, मोक्ष - महिला के स्वामी हैं, ज्ञान का समुद्र हैं और चारित्र-चूड़ामणि हैं ॥२१॥
  22. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर चिलातपुत्र की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    राजगृह के राजा उपश्रेणिक एक बार हवाखोरी के लिए शहर से बाहर गए । वे जिस घोड़े पर सवार थे, वह बड़ा दुष्ट था। सो उसने उन्हें एक भयानक वन में जा छोड़ा। उस वन का मालिक एक यमदण्ड नाम का भील था । उसके एक लड़की थी। उसका नाम तिलकवती था । वह बड़ी सुन्दरी थी । उपश्रेणिक उसे देखकर काम के बाणों से अत्यन्त बींधे गये । उनकी यह दशा देखकर यमदण्ड ने उनसे कहा-राजाधिराज, यदि आप इससे उत्पन्न होने वाले पुत्र को राज्य का मालिक बनाना मंजूर करें तो मैं इसे आपके साथ ब्याह सकता हूँ । उपश्रेणिक ने यमदण्ड की शर्त मंजूर कर ली। यमदण्ड ने तब तिलकवती का ब्याह उनके साथ कर दिया। वे प्रसन्न होकर उसे साथ लिये राजगृह लौट आये ॥२-७॥
    बहुत दिनों तक उन्होंने तिलकवती के साथ सुख भोगा, आनन्द मनाया। तिलकवती के एक पुत्र हुआ। इसका नाम चिलातपुत्र रखा गया । उपश्रेणिक के पहली रानियों से उत्पन्न हुए और भी कई पुत्र थे। यद्यपि राज्य वे तिलकवती के पुत्र को देने का संकल्प कर चुके थे, तो भी उनके मन में यह खटका सदा बना रहता था कि कहीं इसके हाथ में राज्य जाकर धूलधानी न हो जाये । जो हो, I वे अपनी प्रतिज्ञा के न तोड़ने को लाचार थे । एक दिन उन्होंने एक अच्छे विद्वान् ज्योतिषी को बुलाकर उससे पूछा-पंडित जी, अपने निमित्तज्ञान को लगाकर मुझे आप यह समझाइए कि मेरे इन पुत्रों में राज्य का मालिक कौन होगा? ज्योतिषी जी बहुत कुछ सोच-विचार के बाद राजा से बोले- सुनिये महाराज, मैं आपको इसका खुलासा कहता हूँ । आपके सब पुत्र खीर का भोजन करने को एक जगह बिठाएँ जायें और उस समय उन पर कुत्तों का एक झुंड छोड़ा जाये। तब उन सबमें जो निडर होकर वहीं रखे हुए सिंहासन पर बैठे नगारा बजाता जाये और भोजन भी करता जाये और दूसरे कुत्तों को भी डालकर खिलाता जाये, उसमें राजा होने की योग्यता है। मतलब यह कि अपनी बुद्धिमानी से कुत्तों के स्पर्श से अछूता रहकर आप भोजन कर ले ॥८- १०॥
    दूसरा निमित्त यह होगा कि आग लगने पर जो सिंहासन, छत्र, चाँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल सके, वह राजा हो सकेगा इत्यादि और कई बातें है, पर उनके विशेष कहने की जरूरत नहीं ॥११-१२॥
    कुछ दिन बीतने पर उपश्रेणिक ने ज्योतिषी जी के बताये निमित्त की जाँच करने का उद्योग किया। उन्होंने सिंहासन के पास ही एक नगारा रखवाकर वहीं अपने सब पुत्रों को खीर खाने को बैठाया। वे जीमने लगे कि दूसरी ओर से कोई पाँच सौ कुत्तों का झुण्ड दौड़कर उन पर लपका। उन कुत्तों को देखकर राजकुमारों के तो होश गायब हो गए। वे सब चीख मारकर भाग खड़े हुए। पर हाँ एक श्रेणिक जो इन सबसे वीर और बुद्धिमान् था, उन कुत्तों से डरा नहीं और बड़ी फुरती से उठकर उसने खीर परोसी हुई बहुत-सी पत्तलों को एक ऊँची जगह रख कर आप पास ही रखे हुए सिंहासन पर बैठ गया और आनन्द से खीर खाने लगा। साथ में वह उन कुत्तों को भी थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक एक पत्तल उठा-उठा डालता गया और नगारा बजाता गया, जिससे कि कुत्ते उपद्रव न करें ॥१३-१६॥
    इसके कुछ दिनों बाद उपश्रेणिक ने दूसरे निमित्त की भी जाँच की । अब की बार उन्होंने कहीं कुछ थोड़ी-सी आग लगवा लोगों द्वारा शोरगुल करवा दिया कि राजमहल में आग लग गई। श्रेणिक ने जैसे ही आग लगने की बात सुनी वह दौड़ा गया और झटपट राजमहल से सिंहासन, चँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल बाहर हो गया । यही श्रेणिक आगे तीर्थंकर होगा ॥१७॥
    श्रेणिक की वीरता और बुद्धिमानी देखकर उपश्रेणिक को निश्चय हो गया कि राजा यही होगा। इसी के यह योग्य भी है। श्रेणिक के राजा होने की बात तब तक कोई न जान पाए जब तक वह अपना अधिकार स्वयं अपनी भुजाओं द्वारा प्राप्त न कर ले | इसके लिए उन्हें उसके रक्षा की चिन्ता हुई। कारण उपश्रेणिक राज्य का अधिकारी तिलकवती के पुत्र चिलात को बना चुके थे और इस हाल में किसी दुश्मन को या चिलात के पक्षपातियों को यह पता लग जाता कि इस राज्य का राजा तो श्रेणिक ही होगा, तब यह असम्भव नहीं था कि वे उसे राजा होने देने के पहले ही मार डालते। इसलिए उपश्रेणिक को यह चिन्ता करना वाजिब था, समयोचित और दूरदर्शिता का था। इसके लिए उन्हें एक अच्छी युक्ति सूझ गई और बहुत जल्दी उन्होंने उसे कार्य में भी परिणत कर दिया। उन्होंने श्रेणिक के सिर पर यह अपराध मढ़ा कि उसने कुत्तों का झूठा खाया, इसलिए वह भ्रष्ट है। अब वह न तो राजघराने में ही रहने योग्य रहा और न देश में ही । इसलिए मैं उसे आज्ञा देता हूँ कि वह बहुत जल्दी राजगृह से बाहर हो जाये । सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं ॥१८-१९॥
    श्रेणिक अपने पिता की आज्ञा पाते ही राजगृह से उसी समय निकल गया। वह फिर पलभर के लिए भी वहाँ न ठहरा। वहाँ से चलकर वह द्राविड़ देश की प्रधान नगरी काँची में पहुँचा। उसने अपनी बुद्धिमानी से वहाँ कोई ऐसा वसीला लगा लिया जिससे उसके दिन बड़े सुख से कटने लगे ॥२०॥
    इधर उपश्रेणिक कुछ दिनों तक तो और राजकाज चलाते रहे। इसके बाद कोई ऐसा कारण उन्हें देख पड़ा जिससे संसार और विषयभोगों से वे बहुत उदासीन हो गए। अब उन्हें संसार का वास एक बहुत ही पेचीला जाल जान पड़ने लगा। उन्होंने तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार चिलातपुत्र को राजा बनाकर सब जीवों का कल्याण करने वाला मुनिपद ग्रहण कर लिया ॥२१-२२॥
    चिलात - पुत्र राजा हो गया, पर उसका जाति - स्वभाव न गया और ठीक भी है कौए को मोर के पांख भले ही लगा दिये जायें, पर वह मोर न बनकर रहेगा कौआ का कौआ ही। यही दशा चिलातपुत्र की हुई। वह राजा बना भी दिया गया तो क्या हुआ, उसमें अगत के तो कुछ गुण नहीं थे, तब वह राजा होकर भी क्या बड़ा कहला सका? नहीं। अपने जाति स्वभाव के अनुसार प्रजा को कष्ट देना, उस पर जबरन जोर-जुल्म करना उसने शुरू किया । यह एक साधारण बात है कि अन्यायी का कोई साथ नहीं देता और यही कारण हुआ कि मगध की प्रजा की श्रद्धा उस पर से बिल्कुल ही उठ गई । सारी प्रजा उससे हृदय से नफरत करने लगी । प्रजा का पालक होकर जो राजा उसी पर अन्याय करे तब उससे बढ़कर और दुःख की बात क्या हो सकती है? ॥२३॥
    परन्तु इसके साथ यह भी बात है कि प्रकृति अन्याय को नहीं सहती । अन्यायी को अपने अन्याय का फल तुरन्त मिलता है । चिलातपुत्र के अन्याय की डुगडुगी चारों ओर पिट गई । श्रेणिक को जब यह बात सुन पड़ी तब उससे चिलातपुत्र का प्रजा पर जुल्म करना न सहा गया। वह उसी समय मगध की ओर रवाना हुआ। जैसे ही प्रजा को श्रेणिक के राजगृह आने की खबर लगी उसने उसका एकमत होकर साथ दिया । प्रजा की इस सहायता से श्रेणिक ने चिलात को राज्य से बाहर निकाल आप मगध का सम्राट् बना। सच है, राजा होने के योग्य वही पुरुष है जो प्रजा का पालन करने वाला हो। जिसमें यह योग्यता नहीं वह राजा नहीं किन्तु इस लोक में तथा परलोक में अपनी कीर्ति का नाश करने वाला है | २४ - २५॥
    चिलात पुत्र मगध से भागकर एक वन में जाकर बसा । वहाँ उसने एक छोटा-मोटा किला बनवा लिया और आसपास के छोटे-छोटे गाँवों से जबरदस्ती कर वसूल कर आप उनका मालिक बन बैठा। इसका भर्तृमित्र नाम का एक मित्र था । भर्तृमित्र के मामा रुद्रदत्त के एक लड़की थी । सो भर्तृमित्र ने अपने मामा से प्रार्थना की-वह अपनी लड़की का ब्याह चिलातपुत्र के साथ कर दे। उसकी बात पर कुछ ध्यान न देकर रुद्रदत्त चिलातपुत्र को लड़की देने से साफ मुकर गया। चिलातपुत्र से अपना वह अपमान न सहा गया। वह छुपा हुआ राजगृह में पहुँचा और विवाहित स्नान करती हुई सुभद्रा को उठा चलता बना। जैसे ही यह बात श्रेणिक के कानों में पहुँची वह सेना लेकर उसके पीछे दौड़ा। चिलातपुत्र ने जब देखा कि अब श्रेणिक के हाथ से बचना कठिन है, तब उस दुष्ट निर्दयी ने बेचारी सुभद्रा को जान से मार डाला और आप जान बचाकर भागा । वह वैभारपर्वत पर से जा रहा था कि उसे वहाँ एक मुनियों का संघ देख पड़ा । चिलातपुत्र दौड़ा हुआ संघाचार्य श्री मुनिदत्त मुनिराज के पास पहुँचा और उन्हें हाथ जोड़ सिर नवा उसने प्रार्थना की कि प्रभो, मुझे तप दीजिए, जिससे मैं अपना हित कर सकूँ । आचार्य ने तब उससे कहा-प्रिय, तूने बड़ा अच्छा सोचा 'तू तप लेना चाहता है। तेरी आयु अब सिर्फ आठ दिन की रह गई है। ऐसे समय जिनदीक्षा लेकर तुझे अपना हित करना उचित ही है। मुनिराज से अपनी जिन्दगी इतनी थोड़ी सुन उनसे उसी समय तप ले लिया जो संसार-समुद्र से पार करने वाला है। चिलातपुत्र तप लेने के साथ ही प्रायोपगमन संन्यास ले धीरता से आत्मभावना भाने लगा। इधर उसके पकड़ने को पीछे आने वाले श्रेणिक ने वैभारपर्वत पर आकर उसे इस अवस्था में जब देखा तब उसे चिलातपुत्र की इस धीरता पर बड़ा चकित होना पड़ा। श्रेणिक ने तब उसके इस साहस की बड़ी तारीफ की। इसे बाद वह उसे नमस्कार कर राजगृह लौट आया । चिलातपुत्र ने जिस सुभद्रा को मार डाला था, वह मरकर व्यन्तर देवी हुई । उसे जान पड़ा कि मैं चिलातपुत्र द्वारा बड़ी निर्दयता से मारी गई हूँ । मुझे भी तब अपने बैर का बदला लेना ही चाहिए । यह सोचकर वह चील का रूप ले चिलात मुनि के सिर पर आकर बैठ गई उसने मुनि को कष्ट देना शुरू किया। पहले उसने चोंच से उनकी दोनों आँखें निकाल लीं और बाद मधुमक्खी बनकर वह उन्हें काटने लगी। आठ दिन तक उन्हें उसने बेहद कष्ट पहुँचाया। चिलातमुनि ने विचलित न हो इस कष्ट को बड़े शान्ति से सहा। अन्त में समाधि से मरकर उसने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की ॥२६-४०॥
    जिस वीरों के वीर और गुणों की खान चिलात मुनि ने ऐसा दुःसह उपसर्ग सहकर भी अपना धैर्य नहीं छोड़ा और जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का, जो कि देवों द्वारा भी पूज्य हैं, खूब मन लगाकर ध्यान करते रहे और अन्त में जिन्होंने अपने पुण्यबल से सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की वे मुझे भी मंगल दें ॥ २६-४१॥
  23. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनकी कृपा से केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त हो सकती है, उन पंच परमेष्ठी - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार कर गुरुदत्त मुनि का पवित्र चरित लिखा जाता है ॥१॥
    गुरुदत्त हस्तिनापुर के धर्मात्मा राजा विजयदत्त की रानी विजया के पुत्र थे। बचपन से ही इनकी प्रकृति में गम्भीरता, धीरता, सरलता तथा सौजन्यता थी । सौन्दर्य में भी वे अद्वितीय थे। अस्तु, पुण्य की महिमा अपरम्पार है ॥२- ३॥
    विजयदत्त अपना राज्य गुरुदत्त को सौंपकर स्वयं मुनि हो गए और आत्महित करने लगे। राज्य की बागडोर गुरुदत्त ने अपने हाथ में लेकर बड़ी सावधानी और नीति के साथ शासन आरम्भ किया। प्रजा उनसे बहुत खुश हुई वह अपने नये राजा को हजार-हजार साधुवाद देने लगी। दुःख किसे कहते हैं, यह बात गुरुदत्त की प्रजा जानती ही न थी । कारण - किसी को कुछ, थोड़ा भी कष्ट होता था तो गुरुदत्त फौरन ही उसकी सहायता करता । तन से, मन से और धन से वह सभी के काम आता था ॥४॥
    लाट देश में द्रोणीमान पर्वत के पास चन्द्रपुरी नाम की एक सुन्दर नगरी बसी हुई थी। उसके राजा थे चन्द्रकीर्ति। उनकी रानी का नाम चन्द्रलेखा था । उनके अभयमती नाम की एक पुत्री थी । गुरुदत्त ने चन्द्रकीर्ति से अभयमती के लिए प्रार्थना की कि वे अपनी कुमारी का ब्याह उसके साथ कर दें परन्तु चन्द्रकीर्ति ने उनकी इस बात से साफ इनकार कर दिया, वे गुरुदत्त के साथ अभयमती का ब्याह करने को राजी न हुए। गुरुदत्त ने इससे कुछ अपना अपमान हुआ समझा । चन्द्रकीर्ति पर उसे गुस्सा आया। उसने उसी समय चन्द्रपुरी पर चढ़ाई कर दी और उसे चारों ओर से घेर लिया। कुमारी अभयमती गुरुदत्त पर पहले ही से मुग्ध थी और जब उसने उसके द्वारा चन्द्रपुरी का घेरा जाना सुना तो वह अपने पिता के पास आकर बोली- पिताजी ! अपने सम्बन्ध में मैं आपसे कुछ कहना उचित नहीं समझती, पर मेरे संसार को सुखमय होने में कोई बाधा या विघ्न न आए। इसलिए कहना या प्रार्थना करना उचित जान पड़ता है क्योंकि मुझे दुःख में देखना तो आप सपने में भी पसन्द नहीं करेंगे। वह प्रार्थना यह है कि आप गुरुदत्त जी के साथ ही मेरा ब्याह कर दें, इसी में मुझे सुख होगा । उदार-हृदय चन्द्रकीर्ति ने अपनी पुत्री की बात मान ली। इसके बाद अच्छा दिन देख खूब आनन्दोत्सव के साथ उन्होंने अभयमती का ब्याह गुरुदत्त के साथ कर दिया। इस सम्बन्ध से कुमार और कुमारी दोनों ही सुखी हुए। दोनों की मनचाही बात पूरी हुई ॥५ - ९॥
    ऊपर जिस द्रोणीमान पर्वत का उल्लेख हुआ है, उसमें एक बड़ा भयंकर सिंह रहता था। उसने सारे शहर को बहुत ही आतंकित कर रखा था। सबके प्राण सदा मुट्ठी में रहा करते थे। कौन जाने कब आकर सिंह खा ले, इस चिन्ता से सब हर समय घबराए हुए से रहते थे। इस समय कुछ लोगों ने गुरुदत्त से जाकर प्रार्थना की कि राजाधिराज, इस पर्वत पर एक बड़ा भारी हिंसक सिंह रहता है। उससे हमें बड़ा कष्ट है इसलिए आप कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे हम लोगों का कष्ट दूर हो ॥१०-११॥
    गुरुदत्त उन लोगों को धीरज बँधाकर आप अपने कुछ वीरों को साथ लिए पर्वत पर पहुँचा। सिंह को उसने सब ओर से घेर लिया। पर मौका पाकर वह भाग निकला और जाकर एक अँधेरी गुफा में घुसकर छिप गया। गुरुदत्त ने तब इस मौके को अपने लिए और भी अच्छा समझा। उसने उसी समय बहुत से लकड़े गुफा में भरवाकर सिंह के निकलने का रास्ता बन्द कर दिया और बाहर गुफा के मुँह पर भी एक लकड़ों का ढेर लगवा कर उसमें आग लगवा दी। लकड़ों की खाक के साथ-साथ उस सिंह की भी देखते-देखते खाक हो गयी। सिंह बड़े कष्ट के साथ मरकर इसी चन्द्रपुरी में भरत नाम के ब्राह्मण की विश्वदेवी स्त्री के कपिल नाम का लड़का हुआ। वह जन्म से ही बड़ा क्रूर हुआ और यह ठीक भी है कि पहले जैसा संस्कार होता है, वह दूसरे जन्म में भी आता है ॥१२- १५॥
    इसके बाद गुरुद्रत अपनी प्रिया को लिए राजधानी में लौट आया। दोनों नव दम्पत्ति बड़े सुख से रहने लगे। कुछ दिनों बाद अभयमती के एक पुत्र ने जन्म लिया। इसका नाम रखा गया सुवर्णभद्र। यह सुन्दर था, सरलता और पवित्रता की प्रतिमा था और बुद्धिमान् था। इसीलिए सब उसे बहुत प्यार करते थे। जब उसकी उमर योग्य हो गई और सब कामों में वह होशियार हो गया तब जिनेन्द्र भगवान् के सच्चे भक्त उसके पिता गुरुदत्त ने अपना राज्यभार इसे देकर आप वैरागी बन मुनि हो गए। इसके कुछ वर्षों बाद अनेक देशों, नगरों और गाँवों में धर्मोपदेश करते, भव्य-जनों को सुलटाते एक बार चन्द्रपुरी की ओर आए ॥१६-१९॥
    एक दिन गुरुदत्त मुनि कपिल ब्राह्मण के खेत पर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे। उसी समय कपिल घर पर अपनी स्त्री से यह कह कर, कि प्रिये, मैं खेत पर जाता हूँ, तुम वहाँ भोजन लेकर जल्दी आना, , खेत पर आ गया। जिस खेत पर गुरुदत्त मुनि ध्यान कर रहे थे, उसे तब जोतने योग्य न समझ वह दूसरे खेत पर जाने लगा। जाते समय मुनि से वह यह कहता गया कि मेरी स्त्री यहाँ भोजन लिए हुए आवेगी सो उसे आप कह दीजियेगा कि कपिल दूसरे खेत पर गया है। तू भोजन वहीं ले जा, सच है, मूर्ख लोग महामुनि के मार्ग को न समझ कर कभी-कभी बड़ा ही अनर्थ कर बैठते हैं। इसके बाद जब कपिल की स्त्री भोजन लेकर खेत पर आई और उसने अपने स्वामी को खेत पर न पाया तब मुनि से पूछा- - क्यों साधु महाराज, मेरे स्वामी यहाँ से कहाँ गए हैं? मुनि चुप रहे, कुछ बोले नहीं। उनसे कुछ उत्तर न पाकर वह घर पर लौट आयी । इधर समय पर समय बीतने लगा ब्राह्मण देवता भूख के मारे छटपटाने लगे पर ब्राह्मणी का अभी तक पता नहीं; यह देख उन्हें बड़ा गुस्सा आया। वे क्रोध से गुर्राते हुए घर आये और लगे बेचारी ब्राह्मणी पर गालियों की बौछार करने । राँड, मैं तो भूख के मारे मरा जाता हूँ और तेरा अभी तक आने का ठिकाना ही नहीं । उस नंगे को पूछकर खेत पर चली आती । बेचारी ब्राह्मणी घबराती हुई बोली- अजी तो इसमें मेरा क्या अपराध था । मैंने उस साधु से तुम्हारा ठिकाना पूछा। उसने कुछ न बताया तब मैं वापस घर पर आ गई। ब्राह्मण ने दाँत पीसकर कहा- हाँ, उस नंगे ने तुझे मेरा ठिकाना नहीं बताया और मैं तो उससे कह गया था । अच्छा, मैं अभी जाकर उसे उसका मजा चखता हूँ । पाठकों को याद होगा कि कपिल पहले जन्म में सिंह था और उसे इन्हीं गुरुदत्त मुनि ने राज अवस्था में जलाकर मार डाला था तब इस हिसाब से कपिल के वे शत्रु हुए। यदि कपिल को किसी तरह यह जान पड़ता कि ये मेरे शत्रु हैं, तो उस शत्रुता का बदला उसने कभी का ले लिया होता पर उसे इसके जानने का न तो कोई जरिया मिला और न था ही। तब उस शत्रुता को जाग्रत करने के लिए कपिल की स्त्री को कपिल के दूसरे खेत पर जाने का हाल जो मुनि ने न बताया, यह घटना सहायक हो गई । कपिल गुस्से से लाल होता हुआ मुनि के पास पहुँचा। वहाँ बहुत सी सेमल की रुई पड़ी हुई थी। कपिल ने उस रुई से मुनि को लपेट कर उसमें आग लगा दी। मुनि पर बड़ा उपसर्ग हुआ। पर उसे उन्होंने बड़ी धीरता से सहा । उस समय शुक्लध्यान के बल से घातिया कर्मों का नाश होकर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने आकर उन पर फूलों की वर्षा की, आनन्द मनाया। कपिल ब्राह्मण यह सब देखकर चकित हो गया । उसे तब जान पड़ा कि जिन साधु को मैंने अत्यन्त निर्दयता से जला डाला उनका कितना माहात्म्य था । उसे अपनी इस नीचता पर बड़ा ही पछतावा हुआ । उसने बड़ी भक्ति से भगवान् को हाथ जोड़कर अपने अपराध की उनसे क्षमा माँगी। भगवान् के उपदेश को उसने बड़े चाव से सुना । उसे वह बहुत रुचा भी । वैराग्यपूर्ण भगवान् के उपदेश ने उसके हृदय पर गहरा असर किया । वह उसी समय सब छोड़ कर अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिये मुनि हो गया। सच है, सत्पुरुषों-महात्माओं की संगति सुख देने वाली होती है। यही तो कारण था कि एक महाक्रोधी ब्राह्मण पल भर में सब छोड़कर योगी बन गया। इसलिये भव्य-जनों को सत्पुरुषों की संगति से अपने को, अपनी सन्तान को और अपने कुल को सदा पवित्र करने का यत्न करते रहना चाहिए । यह सत्संग परम सुख का कारण है ॥२० - ३४॥
    वे कर्मों के जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा संसार में रहें, उनका शासन चिरकाल तक जय लाभ करे जो सारे संसार को सुख देने वाले हैं, सब सन्देहों के नाश करने वाले हैं और देवों द्वारा जो पूजा स्तुति किये जाते हैं तथा दुःसह उपसर्ग आने पर भी जो मेरु की तरह स्थिर रहे और जिन्होंने अपना आत्मस्वभाव प्राप्त किया ऐसे गुरुदत्त मुनि तथा मेरे परम गुरु श्रीप्रभाचन्द्राचार्य, ये मुझे आत्मीक सुख प्रदान करें ॥३५॥
  24. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब सुखों के देने वाले और संसार में सर्वोच्च गिने जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार विद्युच्चर मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में इनके समय कोतवाल के ओहदे पर एक यमदण्ड नाम का मनुष्य नियुक्त था। वहीं एक विद्युच्चर नाम का चोर रहता था । यह अपने चोरी के फन में बड़ा चलता हुआ था। सो यह क्या करता कि दिन में तो एक कोढ़ी के वेष में किसी सुनसान मन्दिर में रहता और ज्यों ही रात होती कि एक सुन्दर मनुष्य का वेष धारण कर खूब मजा - मौज मारता । यही ढंग इसका बहुत दिनों से चला आता था । पर इसे कोई पहचान न सकता था। एक दिन विद्युच्चर राजा के देखते-देखते खास उन्हीं के हार को चुरा लाया । पर राजा से तब कुछ भी न बन पड़ा। सुबह उठकर राजा ने कोतवाल को बुलाकर कहा- देखो, कोई चोर अपनी सुन्दर वेषभूषा से मुझे मुग्ध बनाकर मेरा रत्न-हार उठा ले गया है। इसलिए तुम्हें हिदायत की जाती है कि सात दिन के भीतर उस हार को या उसके चुरा ले जाने वाले को मेरे सामने उपस्थित करो, नहीं तो तुम्हें इसकी पूरी सजा भोगनी पड़ेगी। जान पड़ता है तुम अपने कर्तव्य पालन में बहुत त्रुटि करते हों । नहीं तो राजमहल में से चोरी हो जाना कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है । " हुक्म हुजूर का” कहकर कोतवाल चोर के ढूँढ़ने को निकला। उसने सारे शहर की गली - कूँची, घर-बार आदि एक-एक करके छान डाला, पर उसे चोर का पता कहीं न चला। ऐसे उसे छह दिन बीत गए। सातवें दिन वह फिर घर से बाहर हुआ। चलते- चलते उसकी नजर एक सुनसान मन्दिर पर पड़ी। वह उसके भीतर घुस गया। वहाँ उसने एक कोढ़ी को पड़ा पाया। उस कोढ़ी का रंग ढंग देखकर कोतवाल को कुछ सन्देह हुआ। उसने उससे कुछ बातचीत इस ढंग से की कि जिससे कोतवाल उसके हृदय का कुछ पता पा सके। यद्यपि उस बातचीत से कोतवाल को जैसी चाहिए थी वैसी सफलता न हुई, पर तब भी उसके पहले शक को सहारा अवश्य मिला। कोतवाल उस कोढ़ी को राजा के पास ले गया और बोला - महाराज, आपके हार का चोर है। राजा के पूछने पर उस कोढ़ी ने साफ इनकार कर दिया कि मैं चोर नहीं हूँ। मुझे ये जबरदस्ती पकड़ लाये है। राजा ने कोतवाल की ओर नजर की। कोतवाल ने फिर भी दृढ़ता के साथ कहा कि महाराज, यही चोर है । इसमें कोई सन्देह नहीं। कोतवाल को बिना कुछ सबूत के इस प्रकार जोर देकर कहते देखकर कुछ लोगों के मन में यह विश्वास जम गया कि यह अपनी रक्षा के लिए जबरन इस बेचारे गरीब भिखारी को चोर बताकर सजा दिलवाना चाहता है । उसकी रक्षा हो जाए, इस आशय से उन लोगों ने राजा से प्रार्थना की कि महाराज, कहीं ऐसा न हो कि बिना ही अपराध के इस गरीब भिखारी को कोतवाल साहब की मार खाकर बेमौत मर जाना पड़े और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये इसे मारेंगे अवश्य । तब कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे अपना हार भी मिल जाए और बेचारे गरीब की जान भी न जाए। जो हो, राजा ने उन लोगों की प्रार्थना पर ध्यान दिया या नहीं, पर यह स्पष्ट है कि कोतवाल साहब उस गरीब कोढ़ी को अपने घर लिवा ले गए और जहाँ तक उनसे बन पड़ा। उन्होंने उसके मारने पीटने, सजा देने, बाँधने आदि में कोई कसर न की। वह कोढ़ी इतने दुःसह कष्ट दिये जाने पर भी हर बार यही कहता रहा कि मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ। दूसरे दिन कोतवाल ने फिर उसे राजा के सामने खड़ा करके कहा - महाराज, यही पक्का चोर है। कोढ़ी ने फिर भी यही कहा कि महाराज मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ । सच है, चोर बड़े ही कट्टर साहसी होते हैं॥२-१५॥
    तब राजा ने उससे कहा- अच्छा, मैं तेरा सब अपराध क्षमा कर तुझे अभय देता हूँ, तू सच्चा- सच्चा हाल कर दे कि तू चोर है या नहीं? राजा से जीवनदान पाकर उस कोढ़ी या विद्युच्चर ने कहा- यदि ऐसा है तो लीजिए कृपानाथ, मैं सब सच्ची बात आपके सामने प्रकट करे देता हूँ। यह कहकर वह बोला-राजाधिराज, अपराध क्षमा हो । वास्तव में मैं ही चोर हूँ । आपके कोतवाल साहब का कहना सत्य है। सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने तब विद्युच्चर से पूछा - जब तू चोर था तब फिर तूने इतनी मारपीट कैसे सह ली रे? विद्युच्चर बोला-महाराज, इसका तो कारण यह है कि मैंने एक मुनिराज द्वारा नरकों के दुःखों का हाल सुन रखा था। तब मैंने विचारा कि नरकों के दुःखों में और इन दुःखों में तो पर्वत और राई का सा अन्तर है और जब मैंने अनन्त बार नरकों के भयंकर दुःख, जिनके कि सुनने मात्र से ही छाती दहल उठती है, सहे है तब इन तुच्छ, ना कुछ चीज दुःखों का सह लेना कौन बड़ी बात है! यही विचार कर मैंने सब कुछ सहकर चूँ तक भी नहीं की। विद्युच्चर से उसकी सच्ची घटना सुनकर राजा ने खुश होकर उसे वर दिया कि तुझे 'जो कुछ माँगना हो माँग’। मुझे तेरी बातें सुनने से बड़ी प्रसन्नता हुई तब विद्युच्चर ने कहा- महाराज, आपकी इस कृपा का मैं अत्यन्त उपकृत हूँ। इस कृपा के लिए आप जो कुछ मुझे देना चाहते हैं वह मेरे मित्र इन कोतवाल साहब को दीजिए। राजा सुनकर और भी अधिक अचम्भे में पड़ गए। उन्होंने विद्युच्चर से कहा- क्यों यह तेरा मित्र कैसे है ? विद्युच्चर ने तब कहा - सुनिए महाराज, मैं सब आपको खुलासा सुनाता हूँ। यहाँ से दक्षिण की ओर आभीर प्रान्त में बहने वाली वेना नदी के किनारे पर बेनातट नाम का एक शहर बसा हुआ है। उसके राजा जितशत्रु और उनकी रानी जयावती ये मेरे माता-पिता हैं । मेरा नाम विद्युच्चर है। मेरे शहर में एक यमपाश नाम के कोतवाल थे। उनकी स्त्री यमुना थी। ये आपके कोतवाल यमदण्ड साहब उन्हीं के पुत्र है। हम दोनों एक ही गुरु के पास पढ़े हुए है। इसलिए तभी से मेरी इनके साथ मित्रता है। विशेषता यह है कि इन्होंने तो कोतवाली सम्बन्धी शास्त्राभ्यास किया था और मैंने चौर्यशास्त्र का । यद्यपि मैंने यह विद्या केवल विनोद के लिए पढ़ी थी, तथापि एक दिन हम दोनों अपनी-अपनी चतुरता की तारीफ कर रहे थे; तब मैंने जरा घमण्ड के साथ कहा-भाई, मैं अपने फन में कितना होशियार हूँ, इसकी परीक्षा मैं इसी से कराऊँगा कि जहाँ तुम कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त होगे, वहीं मैं आकर चोरी करूँगा । तब इन महाशय ने कहा- अच्छी बात है, मैं भी उसी जगह रहूँगा जहाँ तुम चोरी करोगे और मैं तुमसे शहर की अच्छी तरह रक्षा करूँगा। तुम्हारे द्वारा मैं उसे कोई तरह की हानि न पहुँचने दूँगा ॥१६-२९॥
    इसके कुछ दिनों बाद मेरे पिता जितशत्रु मुझे सब राजभार दे जिनदीक्षा ले गए। मैं तब राजा हुआ और इनके पिता यमपाश भी तभी जिनदीक्षा लेकर साधु बन गए । इनके पिता की जगह तब इन्हें मिली। पर ये मेरे डर के मारे मेरे शहर में न रहकर यहाँ कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त हुए। मैं अपनी प्रतिज्ञा के वश चोर बनकर इन्हें ढूंढ़ने को यहाँ आया । यह कहकर फिर विद्युच्चर ने उनके हार के चुराने के सब बातें कह सुनाई और फिर यमदण्ड को साथ लिए वह अपने शहर में आ गया ॥३०-३४॥
    विद्युच्चर को इस घटना से बड़ा वैराग्य हुआ । उसने राजमहल में पहुँचते ही अपने पुत्र को बुलाया और उसके साथ जिनेन्द्र भगवान् का पूजा-अभिषेक किया। इसके बाद वह सब राजभार पुत्र को सौंपकर आप बहुत से राजकुमारों के साथ जिनदीक्षा ले मुनि बन गया ॥३५-३६॥
    यहाँ से विहार कर विद्युच्चर मुनि अपने सारे संघ को साथ लिए देश विदेशों में बहुत घूमे- फिरे । बहुत से बे-समझ या मोह-माया में फँसे हुए जनों को इन्होंने आत्महित के मार्ग पर लगाया और स्वयं भी काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेषादि आत्मशत्रुओं का प्रभुत्व नष्ट कर उन पर विजय लाभ किया। आत्मोन्नति के मार्ग में दिन ब दिन बेरोक-टोक ये बढ़ने लगे। एक दिन घूमते-फिरते ये ताम्रलिप्तपुरी की ओर आए। अपने संघ के साथ वे पुरी में प्रवेश करने को ही थे कि इतने में वहाँ की चामुण्डा देवी ने आकर भीतर घुसने से इन्हें रोका और कहा - योगिराज, जरा ठहरिए, अभी मेरी पूजाविधि हो रही है। इसलिए जब तक वह पूरी न हो जाये तब तक आप यहीं ठहरें, भीतर न जायें । देवी के इस प्रकार मना करने पर भी अपने शिष्यों के आग्रह से वे न रुककर भीतर चले गए और पुरी के पश्चिम तरफ के परकोटे के पास कोई पवित्र जगह देखकर वहीं सारे संघ ने ध्यान करना शुरू कर दिया। अब तो देवी के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उसने अपनी माया से कोई कबूतर के बराबर डाँस तथा मच्छर आदि खून पीने वाले जीवों की सृष्टि रचकर मुनि पर घोर उपद्रव किया। विद्युच्चर मुनि ने इस कष्ट को बड़ी शान्ति से सह कर बारह भावनाओं के चिन्तन से अपने आत्मा को वैराग्य की ओर खूब दृढ़ किया और अन्त में शुक्ल - ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर अक्षय और अनन्त मोक्ष के सुख को अपनाया ॥३७-४५॥
    उन देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों तथा राजाओं - महाराजाओं द्वारा, जो अपने मुकुटों में जड़े हुए बहुमूल्य दिव्य रत्नों की कान्ति से चमक रहे हैं, बड़ी भक्ति से पूजा किए गए और केवलज्ञान से विराजमान वे विद्युच्चर मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को मंगल-मोक्ष सुख दें, जिससे संसार का भटकना छूटकर शान्ति मिले ॥४६॥
  25. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों द्वारा पूजा भक्ति किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर अभयघोष मुनिका चरित्र लिखा जाता है ॥१॥
    अभयघोष काकन्दी के राजा थे उनकी रानी का नाम अभयमती था। दोनों में परस्पर बहुत प्यार था। एक दिन अभयघोष घूमने को जंगल में गए हुए थे। इस समय एक मल्लाह एक बहुत बड़े और जीवित कछुए के चारों पाँव बाँध कर उसे लकड़ी में लटकाये हुए लिए जा रहा था। पापी अभयघोष की उस पर नजर पड़ गई उन्होंने मूर्खता के वश हो अपनी तलवार से उसके चारों पाँवों को काट दिया। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग बेचारे ऐसे निर्दोष जीवों को निर्दयता के साथ मार डालते हैं और न्याय-अन्याय का कुछ विचार नहीं करते! कछुआ उसी समय तड़फड़ा कर गत प्राण हो गया। मरकर वह अकाम - निर्जरा के फल से इन्हीं अभयघोष के यहाँ चंडवेग नाम का पुत्र हुआ ॥२-६॥
    एक दिन राजा को चन्द्र ग्रहण देखकर वैराग्य हुआ । उन्होंने विचार किया जो एक महान् तेजस्वी ग्रह है, जिसकी तुलना कोई नहीं कर सकता और जिसकी गणना देवों में है, वह भी जब दूसरों से हार खा जाता है तब मनुष्यों की तो बात ही क्या ? जिनके सिर पर काल सदा चक्कर लगाता रहता है। हाय, मैं बड़ा ही मूर्ख हूँ जो आज तक विषयों में फँसा रहा और कभी अपने हित की ओर मैंने ध्यान नहीं दिया। मोह रूपी गाढ़े अँधेरे ने मेरी दोनों आँखों को ऐसा अन्धा बना डाला, जिससे मुझे अपने कल्याण का रास्ता देखने या उस पर सावधानी के साथ चलने को सूझ ही न पड़ा। इसी मोह के पापमय जाल में फँस कर मैंने जैनधर्म से विमुख होकर अनेक पाप किए। हाय, मैं अब इस संसाररूपी अथाह समुद्र को पार कर सुखमय किनारे को कैसे प्राप्त कर सकूँगा? प्रभो, मुझे शक्ति प्रदान कीजिए, जिससे मैं आत्मिक सच्चा सुख पा सकूँ । इस विचार के बाद उन्होंने निश्चित किया कि जो हुआ सो हुआ । अब भी मुझे अपने कर्तव्य के लिए बहुत समय है। जिस प्रकार मैंने संसार में रहकर विषय सुख भोगा, शरीर और इन्द्रियों को खूब सन्तुष्ट किया, उसी तरह अब मुझे अपने आत्महित के लिए कड़ी से कड़ी तपस्या कर अनादि काल से पीछा किए हुए इन आत्मशत्रुरूपी कर्मों का नाश करना उचित हैं, यही मेरे पहले किए कर्मों का पूर्ण प्रायश्चित्त है और ऐसा करने से ही मैं शिवरमणी के हाथों का सुख - स्पर्श कर सकूँगा । इस प्रकार स्थिर विचार कर अभयघोष ने सब राजभार अपने कुँवर चण्डवेग को सौंप जिन दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर उन्हें आत्मशक्ति के बढ़ाने को सहायक बनाती है। इसके बाद अभयघोष मुनि संसार-समुद्र से पार करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज को नमस्कार कर और उनकी आज्ञा ले देश विदेशों में धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विचार कर गए। इसके कितने वर्षों बाद वे घूमते-फिरते फिर एक बार अपनी राजधानी काकन्दी की ओर आ निकले। एक दिन वे वीरासन से तपस्या कर रहे थे। इसी समय उनका पुत्र चण्डवेग इस ओर आ निकला। पाठकों को याद होगा कि चण्डवेग की और इसके पिता अभयघोष की शत्रुता है। कारण चण्डवेग पूर्व जन्म में कछुआ था और उसके पाँव अभयघोष न काट डाले थे। चण्डवेग की जैसे ही इन पर नजर पड़ी उसे अपने पूर्व की घटना याद आ गई उसने क्रोध से अन्धे होकर उनके भी हाथ पाँवों को काट डाला। सच है धर्महीन अज्ञानी जन कौन पाप नहीं कर डालते ॥७-१६॥
    अभयघोष मुनि पर महान् उपसर्ग हुआ, पर वे तब भी मेरु के समान अपने कर्तव्य में दृढ़ बने रहे। अपने आत्मध्यान से वे रत्तीभर भी न डिगे। इसी ध्यान बल से केवलज्ञान प्राप्त कर अन्त में उन्होंने अक्षयान्त मोक्ष लाभ किया। सच है, आत्मशक्ति बड़ी गहन है, आश्चर्य पैदा करने वाली है। देखिए कहाँ तो अभयघोष मुनि पर दुःसह कष्ट का आना और कहाँ मोक्ष प्राप्ति का कारण दिव्य आत्मध्यान ॥१७-१८॥
    सत्पुरुषों द्वारा सेवा किए गए वे अभयघोष मुनि मुझे भी मोक्ष का सुख दें, जिन्होंने दुःसह परीषह को जीता, आत्मशत्रु राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को नष्ट किया और जन्म-जन्म में दारुण दुःखों के देने वाले कर्मों का क्षय कर मोक्ष का सर्वोच्च सुख, जिस सुख की कोई तुलना नहीं कर सकता, प्राप्त किया ॥१९॥
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