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  1. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    बालक जैसा देखता है, वैसा ही कह भी देता है क्योंकि उसका हृदय पवित्र रहता है । यहाँ मैं जिनभगवान् को नमस्कार कर एक ऐसी ही कथा लिखता हूँ, जिसे पढ़कर सर्व साधारण का ध्यान पापकर्मों के छोड़ने की ओर जाये॥१॥
    कौशाम्बी में जयपाल नाम के राजा हो गए हैं। उनके समय में वहीं एक सेठ हुआ है। उसका नाम समुद्रदत्त था और उसकी स्त्री का नाम समुद्रदत्ता । उसके एक पुत्र हुआ। उसका नाम सागरदत्त था। वह बहुत ही सुन्दर था । उसे देखकर सबका चित्त उसे खिलाने के लिए व्यग्र हो उठता था। समुद्रदत्त का एक गोपायन नाम का पड़ोसी था । पूर्वजन्म के पापकर्म के उदय से वह दरिद्री हुआ। इसलिए धन की लालसा ने उसे व्यसनी बना दिया । उसकी स्त्री का नाम सोमा था । उसके भी एक सोमक नाम का पुत्र था। वह धीरे-धीरे कुछ बड़ा हुआ और अपनी मीठी और तोतली बोली से माता पिता को आनन्दित करने लगा ॥२-५॥
    एक दिन गोपायन के घर पर सागरदत्त और सोमक अपना बालसुलभ खेल खेल रहे थे। सागरदत्त इस समय गहना पहने हुए था । उसी समय पापी गोपायन आ गया । सागरदत्त को देखकर उसके हृदय में पाप वासना हुई दरवाजा बन्द कर वह कुछ लोभ के बहाने सागरदत्त को घर के भीतर लिवा ले गया। उसी के साथ सोमक भी दौड़ा गया। भीतर ले जाकर पापी गोपायन ने उस अबोध बालक का बड़ी निर्दयता से छुरी द्वारा गला काट दिया और उसका सब गहना उतारकर उसे गड्ढे में गाड़ दिया॥६-८॥
    कई दिनों तक बराबर कोशिश करते रहने पर भी जब सागरदत्त के माता-पिता को अपने बच्चे का कुछ हाल नहीं मिला, तब उन्होंने जान लिया कि किसी पापी ने उसे धन के लोभ से मार डाला है। उन्हें अपने प्रिय बच्चे की मृत्यु से जो दुःख हुआ उसे वे ही पाठक अनुभव कर सकते हैं जिन पर कभी ऐसा प्रसंग आया हो । आखिर बेचारे अपना मन मसोस कर रहे गए। इसके सिवा वे और करते भी तो क्या? ॥९॥
    कुछ दिन बीतने पर एक दिन सोमक समुददत्त के घर के आँगन में खेल रहा था। तब समुद्रदत्ता के मन में न जाने क्या बुद्धि उत्पन्न हुई सो उसने सोमक को बड़े प्यारे से अपने पास बुलाकर उससे पूछा- भैया, बतला तो तेरा साथी सागरदत्त कहाँ गया है? तूने उसे देखा है ?
    सोमक बालक था और साथ ही बालस्वभाव के अनुसार पवित्र हृदयी था। इसलिए उसने झट से कह दिया कि वह तो मेरे घर में एक गड्ढे में गड़ा हुआ है। बेचारी समुद्रदत्ता अपने बच्चे की दुर्दशा सुनते ही धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी। इतने में समुद्रदत्त भी वहीं आ पहुँचा। उसने उसे होश में लाकर उसके मूर्च्छित हो जाने का कारण पूछा। समुद्रदत्त ने सोमक का कहा हाल उसे सुना दिया। समुद्रदत्त ने उसी समय दौड़े जाकर यह खबर पुलिस को दी। पुलिस ने आकर मृत बच्चे की लाश सहित गोपायन को गिरफ्तार किया, मुकदमा राजा के पास पहुँचा। उन्होंने गोपायन के कर्म के अनुसार उसे फाँसी की सजा दी । बहुत ठीक कहा है- पापी लोग बहुत छुपकर भी पाप करते हैं, पर वह नहीं छुपता और प्रकट हो ही जाता है और परिणाम में अनन्त काल तक संसार के दुःख भोगना पड़ता है। इसलिए सुख चाहने वाले पुरुषों को हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पाप, जो कि दुःख देने वाले हैं, छोड़कर सुख देने वाला दयाधर्म, जिनधर्म ग्रहण करना उचित है ॥१०-१५॥
    बालपने में विशेष ज्ञान नहीं होता, इसलिए बालक अपना हिताहित नहीं जान पाता, युवावस्था में कुछ ज्ञान का विकास होता है, पर काम उसे अपने हित की ओर नहीं फटकने देता और वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ जर्जर हो जाती है, किसी काम के करने में उत्साह नहीं रहता और न शक्ति ही रहती है। इसके सिवा और जो अवस्थाएँ हैं, उनमें कुटुम्ब परिवार के पालन-पोषण का भार सिर पर रहने के कारण सदा अनेक प्रकार की चिन्ताएँ घेरे रहती हैं कभी स्वस्थचित्त होने ही नहीं पाता, इसलिए तब भी आत्महित का कुछ साधन प्राप्त नहीं होता । आखिर होता यह है कि जैसे पैदा हुए, वैसे ही चल बसते हैं। अत्यन्त कठिनता से प्राप्त हुई मनुष्य पर्याय को समुद्र में रत्न फेंक देने की तरह गँवा बैठते हैं और प्राप्त करते हैं वही एक संसार भ्रमण । जिसमें अनन्त काल ठोकरें खाते-खाते बीत गए। पर ऐसा करना उचित नहीं किन्तु प्रत्येक जीवमात्र को अपने आत्महित की ओर ध्यान देना परमावश्यक है। उन्हें सुख प्रदान करने वाला जिनधर्म ग्रहण कर शान्तिलाभ करना चाहिए ॥१६॥
  2. admin
    मैं संसार के हित करने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर दुर्जनों की संगति से जो दोष उत्पन्न होते हैं, उससे सम्बन्ध रखने वाली एक कथा लिखता हूँ, जिससे कि लोग दुर्जनों की संगति छोड़ने का यत्न करें ॥१॥
    यह कथा उस समय की है, जब कि कौशाम्बी का राजा धनपाल था। धनपाल अच्छा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। शत्रु तो उसका नाम सुनकर काँपते थे । राजा के यहाँ एक पुरोहित था। उसका नाम था शिवभूति। वह पौराणिक अच्छा था ॥२-३॥
    वहीं दो शूद्र रहते थे। उनके नाम कल्पपाल और पूर्णचन्द्र थे। उनके पास कुछ धन भी था। उनमें पूर्णचन्द्र की स्त्री का नाम था मणिप्रभा । उसके एक सुमित्रा नाम की लड़की थी । पूर्णचन्द्र ने उसके विवाह में अपने जातीय भाइयों को जिमाया और उसका राज पुरोहित से कुछ परिचय होने से उसने उसे भी निमंत्रित किया। पर पुरोहित महाराज ने उसमें यह बाधा दी कि भाई, तुम्हारा भोजन तो मैं नहीं कर सकता। तब कल्पपाल ने बीच में ही कहा-अस्तु । आप हमारे यहाँ का भोजन न करें। हम ब्राह्मणों के द्वारा आपके लिए भोजन तैयार करवा देंगे तब तो आपको कुछ उजर न होगा । पुरोहितजी आखिर थे तो ब्राह्मण ही न? जिनके विषय में यह नीति प्रसिद्ध है कि “असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः” अर्थात् लोभ में फँसकर ब्राह्मण नष्ट हुए । सो वे एक बार के भोजन का लोभ नहीं रोक सके। उन्होंने यह विचार कर, कि जब ब्राह्मण भोजन बनाने वाले हैं, तब तो कुछ नुकसान नहीं, उसका भोजन करना स्वीकार कर लिया। पर इस बात पर उन्होंने तनिक भी विचार नहीं किया कि ब्राह्मणों ने भोजन बना दिया तो हुआ क्या? आखिर पैसा तो उसका है और न जाने उसने कैसे-कैसे पापों द्वारा उसे कमाया है।
    जो हो, नियमित समय पर भोजन तैयार हुआ । एक ओर पुरोहित देवता भोजन के लिए बैठे और दूसरी और पूर्णचन्द्र का परिवार वर्ग । इस जगह इतना और ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों का चौका अलग-अलग था। भोजन होने लगा। पुरोहित जी ने मन भर माल उड़ाया। मानों उन्हें कभी ऐसे भोजन का मौका ही नसीब नहीं हुआ था । पुरोहित जी को वहाँ भोजन करते हुए कुछ लोगों ने देख लिया। उन्होंने पुरोहित की शिकायत महाराज से कर दी । महाराज ने उसकी परीक्षा करने हेतु उसे वमन करवाया तब उसके अतिदुर्गंधित वमन से राजा कुपित हुआ । महाराज ने एक शूद्र के साथ भोजन करने वाले, वर्ण व्यवस्था को धूल में मिलाने वाले ब्राह्मण को अपने राज्य में रखना उचित न समझ देश से निकलवा दिया। सच है - " कुसंगो कष्टदो ध्रुवम् ” अर्थात् बुरी संगति दुःख देने वाली ही होती है। इसलिए अच्छे पुरुषों को उचित है कि वे बुरों की संगति न कर सज्जनों की संगति करें, जिससे वे अपने धर्म, कुल, मान-मर्यादा की रक्षा कर सकें ॥४-१७॥
  3. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मोक्ष राज्य के अधीश्वर श्रीपंच परम गुरु को नमस्कार कर श्री नागदत्त मुनि का सुन्दर चरित मैं लिखता हूँ ॥१॥
    मगधदेश की प्रसिद्ध राजधानी राजगृह में प्रजापाल नाम के राजा थे। वे विद्वान् थे, उदार थे, धर्मात्मा थे, जिनभगवान् के भक्त थे और नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते थे । उनकी रानी का नाम था प्रियधर्मा वह भी बड़ी सरल स्वभाव की सुशील थी । उसके दो पुत्र हुए । उनके नाम थे प्रियधर्म और प्रियमित्र। दोनों भाई बड़े बुद्धिमान् और सुचरित थे ॥२-४॥
    किसी कारण से दोनों भाई संसार से विरक्त होकर साधु बन गए और अन्त समय समाधिमरण कर अच्युतस्वर्ग में जाकर देव हुए। उन्होंने वहाँ परस्पर में प्रतिज्ञा की कि, “जो दोनों में से पहले मनुष्य पर्याय प्राप्त करे उसके लिए स्वर्गस्थ देव का कर्तव्य होगा कि वह उसे जाकर सम्बोधे और संसार से विरक्त कर मोक्षसुख को देने वाली जिनदीक्षा ग्रहण करने के लिए उसे उत्साहित करे ।" इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे वहाँ सुख से रहने लगे। उन दोनों में से प्रियदत्त की आयु पहले पूर्ण हो गई वह वहाँ से उज्जयिनी के राजा नागधर्म की प्रिया नागदत्ता के, जो कि बहुत ही सुन्दरी थी, नागदत्त नामक पुत्र हुआ। नागदत्त सर्पों के साथ क्रीड़ा करने में बहुत चतुर था, सर्प के साथ उसे विनोद करते देखकर सब लोग बड़ा आश्चर्य प्रकट करते थे ॥५-१०॥
    एक दिन प्रियधर्म, जो कि स्वर्ग में नागदत्त का मित्र था, गारुड़िका वेष लेकर नागदत्त को सम्बोधने को उज्जयिनी में आया। उसके पास दो भयंकर सर्प थे। वह शहर में घूम-घूमकर लोगों को तमाशा बताता और सर्व साधारण में यह प्रकट करता कि मैं सर्प-क्रीड़ा का अच्छा जानकार हूँ। कोई और भी इस शहर में सर्प-क्रीड़ा का अच्छा जानकार हो, तो फिर उसे मैं अपना खेल दिखलाऊँ । यह हाल धीरे-धीरे नागदत्त के पास पहुँचा । वह तो सर्प-क्रीड़ा का पहले ही से बहुत शौकीन था, फिर अब तो एक और उसका साथी मिल गया। उसने उसी समय नौकरों को भेजकर उसे अपने पास बुलाया। गारुड़ि तो इस कोशिश में था कि नागदत्त को किसी तरह मेरी खबर लग जाये और वह मुझे बुलावे । प्रियधर्म उसके पास गया। उसके पहुँचते ही नागदत्त ने अभिमान में आकर उससे कहा-मंत्रविद्, तुम अपने सर्पों को बाहर निकालो न ? मैं उनके साथ कुछ खेल तो देखूं कि वे कैसे जहरीले हैं ॥११-१४॥
    प्रियधर्म बोला- मैं राजपुत्रों के साथ ऐसी हँसी दिल्लगी या खेल करना नहीं चाहता कि जिसमें जान की जोखिम तक हो, बतलाओ मैं तुम्हारे सामने सर्प निकाल कर रख दूँ और तुम उनके साथ खेलों, इस बीच में कुछ तुम्हें जोखिम पहुँच जाये तब राजा मेरी क्या बुरी दशा करें? क्या उस समय वे मुझे छोड़ देंगे? कभी नहीं । इसलिए न तो मैं ही ऐसा कर सकता हूँ और न तुम्हें ही इस विषय में कुछ विशेष आग्रह करना उचित है। हाँ तुम कहो तो मैं तुम्हें कुछ खेल दिखा सकता हूँ ॥१५॥
    नागदत्त बोला- तुम्हें पिताजी की ओर से कुछ भय नहीं करना चाहिए। वे स्वयं अच्छी तरह जानते हैं कि मैं इस विषय में कितना विज्ञ हूँ और इस पर भी तुम्हें सन्तोष न हो तो आओ मैं पिताजी से तुम्हें क्षमा करवाये देता हूँ। यह कहकर नागदत्त प्रियदत्त को पिता के पास ले गया और मारे अभिमान में आकर बड़े आग्रह के साथ महाराज से उसे अभय दिलवा दिया। नागधर्म कुछ तो नागदत्त का सर्पों के साथ खेलना देख चुके थे और इस समय पुत्र का बहुत आग्रह था, इसलिए उन्होंने विशेष विचार न कर प्रियधर्म को अभय प्रदान कर दिया । नागदत्त बहुत प्रसन्न हुआ उसने प्रियधर्म से सर्पों को बाहर निकालने के लिए कहा। प्रियधर्म ने पहले एक साधारण सर्प निकाला। नागदत्त उसके साथ क्रीड़ा करने लगा और थोड़ी देर में उसे उसने पराजित कर दिया, निर्विष कर दिया। अब तो नागदत्त का साहस खूब बढ़ गया । उसने दूने अभिमान के साथ कहा कि तुम क्या ऐसे मुर्दे सर्प को निकालकर और मुझे शर्मिन्दा करते हो? कोई अच्छा विषधर सर्प निकालो न? जिससे मेरी शक्ति का तुम भी परिचय पा सको ॥१६-१७॥
    प्रियधर्म बोला-आपका होश पूरा हुआ। आपने एक सर्प को हरा भी दिया है। अब आप अधिक आग्रह न करें तो अच्छा है। मेरे पास एक सर्प और है, पर वह बहुत जहरीला है, दैवयोग से उसने काट खाया तो समझिये फिर उसका कुछ उपाय ही नहीं है। उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसलिए उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए। उसने नागदत्त से बहुत - बहुत प्रार्थना की पर नागदत्त ने उसकी एक नहीं मानी। उलटा उस पर क्रोधित होकर वह बोला- तुम अभी नहीं जानते कि इस विषय में मेरा कितना प्रवेश है? इसीलिए ऐसी डरपोकपने की बातें करते हो । पर मैंने ऐसे-ऐसे हजारों सर्पों को जीत कर पराजित किया है। मेरे सामने यह बेचारा तुच्छ जीव कर ही क्या सकता है? और फिर इसका डर तुम्हें हो या मुझे? वह काटेगा तो मुझे ही न? तुम मत घबराओ, उसके लिए मेरे पास बहुत से ऐसे साधन हैं, जिससे भयंकर से भयंकर सर्प का जहर भी क्षणमात्र में उतर सकता है ॥१८-१९॥
    प्रियधर्म ने कहा-अच्छा यदि तुम्हारा अत्यन्त ही आग्रह है तो उससे मुझे कुछ हानि नहीं । इसके बाद उसने राजा आदि की साक्षी से अपने दूसरे सर्प को पिटारे में से निकाल कर बाहर कर दिया। सर्प निकलते ही फुंकार मारना शुरू किया। वह इतना जहरीला था कि उसके साँस की हवा ही से लोगों के सिर घूमने लगते थे। जैसे ही नागदत्त उसे हाथ में पकड़ने को उसकी ओर बढ़ा कि सर्प ने उसे बड़े जोर से काट खाया। सर्प का काटना था कि नागदत्त उसी समय चक्कर खाकर धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा और अचेत हो गया । उसकी यह दशा देखकर हाहाकार मच गया । सब की आँखों से आँसू  की धारा बह चली। राजा ने उसी समय नौकरों को दौड़ाकर सर्प का विष उतारने वालों को बुलवाया। बहुत से मांत्रिक-तांत्रिक इकट्ठे हुए। सबने अपनी-अपनी करनी में कोई की कमी नहीं रक्खी। पर किसी का किया कुछ नहीं हुआ । सबने राजा को यही कहा कि महाराज, युवराज को तो कालसर्प ने काटा है, अब ये नहीं जी सकेंगे। राजा बड़े निराश हुए। उन्होंने सर्प वाले से यह कह कर, कि यदि तू इसे जिला देगा तो मैं तुझे अपना आधा राज्य दे दूँगा । नागदत्त को उसी के सुपुर्द कर दिया। प्रियधर्म तब बोला- महाराज, इसे काटा तो है कालसर्प ने और इसका जी जाना भी असंभव है, यदि यह जी जाये तो आप इसे मुनि हो जाने की आज्ञा दें तो, मैं भी एक बार इसके जिलाने का यत्न कर देखूँ। राजा ने कहा-मैं इसे भी स्वीकार करता हूँ । तुम इसे किसी तरह जिला दो, यही मुझे इष्ट है ॥२०-२६॥
    इसके बाद प्रियधर्म ने कुछ मन्त्र पढ़ पढ़ाकर उसे जिन्दा कर दिया । जैसे मिथ्यात्वरूपी विष से अचेत हुए मनुष्यों को परोपकारी मुनिराज अपना स्वरूप प्राप्त करा देते हैं। जैसे ही नागदत्त सचेत होकर उठा और उसे राजा ने अपनी प्रतिज्ञा कह सुनाई वह उससे बहुत प्रसन्न हुआ । पश्चात् एक क्षणभर भी वह वहाँ न ठहर कर वन की ओर रवाना हो गया और यमधर मुनिराज के पास पहुँचकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। उसे दीक्षित हो जाने पर प्रियधर्म, जो गारुड़ का वेष लेकर स्वर्ग से नागदत्त को सम्बोधने को आया था, उसे सब हाल कहकर और अन्त में नमस्कार कर स्वर्ग चला गया ॥ २७-३०॥
    बनकर नागदत्त खूब तपस्या करने लगे और अपने चारित्र को दिन पर दिन निर्मल करके अन्त में जिनकल्पी मुनि हो गए अर्थात् जिनभगवान् की तरह अब वे अकेले ही विहार करने लगे। एक दिन वे तीर्थयात्रा करते हुए एक भयानक वन में निकल आए। वहाँ चोरों का अड्डा था, सो चोरों ने मुनिराज को देख लिया । उन्होंने यह समझ कर, कि ये हमारा पता लोगों को बता देंगे और फिर हम पकड़ लिए जावेंगे, उन्हें पकड़ लिया और अपने मुखिया के पास वे लिवा ले गए। मुखिया का नाम था सूरदत्त । वह मुनि को देखकर बोला- तुमने इन्हें क्यों पकड़ा? ये तो बड़े सीधे और सरल स्वभावी हैं। इन्हें किसी से कुछ लेना देना नहीं, किसी पर इनका राग-द्वेष नहीं। ऐसे साधु को तुमने कष्ट देकर अच्छा नहीं किया। इन्हें जल्दी छोड़ दो। जिस भय की तुम इनके द्वारा आशंका करते हो, वह तुम्हारी भूल है। ये कोई बात ऐसी नहीं करते जिससे दूसरों को कष्ट पहुँचे। अपने मुखिया की आज्ञा के अनुसार चोरों ने उसी समय मुनिराज को छोड़ दिया ॥ ३१-३७॥
    इसी समय नागदत्त की माता अपनी पुत्री को साथ लिए हुए वत्स देश की ओर जा रही थी। उसे उसका विवाह कौशाम्बी के रहने वाले जिनदत्त सेठ के पुत्र धनपाल से करना था। अपने जमाई को दहेज देने के लिए उसने अपने पास उपयुक्त धन-सम्पत्ति भी रख ली थी । उसके साथ और भी पुरजन परिवार के लोग थे । सो उसे रास्ते में अपने पुत्र नागदत्त मुनि के दर्शन हो गए। उसने उन्हें प्रणाम कर पूछा-प्रभो, आगे रास्ता तो अच्छा है न? मुनिराज इसका कुछ उत्तर न देकर मौन सहित चले गए क्योंकि उनके लिए तो शत्रु और मित्र दोनों ही समान है ॥३८-४२॥
    आगे चलकर नागदत्ता को चोरों ने पकड़कर उसका सब माल असबाब छीन लिया और उसकी कन्या को भी उन पापियों ने छीन लिया। तब सूरदत्त उनका मुखिया उनसे बोला-क्यों आपने देखी न उस मुनि की उदासीनता और निस्पृहता ? जो इस स्त्री ने मुनि को प्रणाम किया और उनकी भक्ति की तब भी उन्होंने इससे कुछ नहीं कहा और हम लोगों ने उन्हें बाँधकर कष्ट पहुँचाया तब उन्होंने हमसे कुछ द्वेष नहीं किया। सच बात तो यह कि उनकी वह वृत्ति ही इतने ऊँचे दरजे की है, जो उसमें भक्ति करने वाले पर तो प्रेम नहीं और शत्रुता करने वाले से द्वेष नहीं । दिगम्बर मुनि बड़े ही शान्त, धीर, गम्भीर और तत्त्वदर्शी हुआ करते हैं ॥४३-४६॥
    नागदत्ता यह सुनकर, कि यह सब कारस्तानी मेरे ही पुत्र की है, यदि वह मुझे इस रास्ते का स हाल कह देता, तो क्यों आज मेरी यह दुर्दशा होती ? क्रोध के तीव्र आवेग से थरथर काँपने लगी। उसने अपने पुत्र की निर्दयता से दुःखी होकर चोरों के मुखिया सूरदत्त से कहा- भाई, जरा अपनी छुरी तो मुझे दे, जिससे मैं अपनी कोख को चीरकर शान्ति लाभ करूँ। जिस पापी का तुम जिक्र कर रहे हो, वह मेरा ही पुत्र है। जिसे मैंने नौ महीने कोख में रखा और बड़े-बड़े कष्ट सहे उसी ने मेरे साथ इतनी निर्दयता की कि मेरे पूछने पर भी उसने मुझे रास्ते का हाल नहीं बतलाया । तब ऐसे कुपुत्र को पैदाकर मुझे जीते रहने से ही क्या लाभ? ॥४७-४८॥
    नागदत्ता का हाल जानकर सूरदत्त को बड़ा वैराग्य हुआ ! वह उससे बोला- जो उस मुनि की माता है, वह मेरी भी माता, क्षमा करो । यह कहकर उसने उसका सब धन असबाब उसी समय लौटा दिया और आप मुनि के पास पहुँचा । उसने बड़ी भक्ति के साथ परम गुणवान् नागदत्त मुनि की स्तुति की और पश्चात् उन्हीं के द्वारा दीक्षा लेकर वह तपस्वी बन गया ॥४९-५२॥
    साधु बनकर सूरदत्त ने तपश्चर्या और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अनेक भव्य जीवों को कल्याण का रास्ता बतलाया और अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर अविनाशी, अनन्त, मोक्ष पद प्राप्त किया ॥५३-५४॥
    श्री नागदत्त और सूरदत्त मुनि संसार के दुःखों को नष्ट कर मेरे लिए शान्ति प्रदान करें, जो कि गुणों के समुद्र हैं, जो देवों द्वारा सदा नमस्कार किए जाते हैं और जो संसारी जीवों के नेत्ररूपी कुमुद पुष्पों को प्रफुल्लित करने के लिए चन्द्रमा समान हैं जिन्हें देखकर नेत्रों को बड़ा आनन्द मिलता है शान्ति मिलती हैं ॥५५॥
  4. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार के परम गुरु जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं प्रभावना अंग के पालन करने वाले श्री वज्रकुमार मुनि की कथा लिखता हूँ ॥१॥
    जिस समय की यह कथा है, उस समय हस्तिनापुर के राजा थे बल। वह राजनीति के अच्छे विद्वान् थे, बड़े तेजस्वी थे और दयालु थे । उनके मंत्री का नाम था गरुड़ । उसका एक पुत्र था। उनका नाम सोमदत्त था। वह सब शास्त्रों का विद्वान् था और सुन्दर भी बहुत था । उसे देखकर सब को बड़ा आनन्द होता था। एक दिन सोमदत्त अपने मामा सुभूति के यहाँ गया, जो कि अहिच्छत्रपुर में रहता था। उसने मामा से विनयपूर्वक कहा - मामाजी, यहाँ के राजा से मिलने की मेरी बहुत उत्कंठा है। कृपाकर आप उनसे मेरी मुलाकात करवा दीजिये न? सुभूति ने अभिमान में आकर अपने महाराज से सोमदत्त की मुलाकात नहीं कराई सोमदत्त को मामा की यह बात बहुत खटकी। आखिर वह स्वयं ही दुर्मुख महाराज के पास गया और मामा का अभिमान नष्ट करने के लिए राजा को अपने पाण्डित्य और प्रतिभाशालिनी बुद्धि का परिचय कराकर स्वयं भी उनका राजमंत्री बन गया । ठीक भी है सबको अपनी ही शक्ति सुख देने वाली होती है ॥२- ७॥
    सुभूति को अपने भानजे का पाण्डित्य देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई उसने उसके साथ अपनी यज्ञदत्ता नाम की पुत्री को ब्याह दिया। दोनों दम्पत्ति सुख से रहने लगे। कुछ दिनों बाद यज्ञदत्ता के गर्भ रहा॥८-९॥
    समय चातुर्मास का था । यज्ञदत्ता को दोहद उत्पन्न हुआ। उसे आम खाने की प्रबल उत्कण्ठा हुई स्त्रियों को स्वभाव से गर्भावस्था में दोहद उत्पन्न हुआ ही करते हैं । सो आम का समय न होने पर भी सोमदत्त वन में आम ढूँढ़ने को चला। बुद्धिमान् पुरुष असमय में भी अप्राप्त वस्तु के लिए साहस करते ही हैं। सोमदत्त वन में पहुँचा, तो भाग्य से उसे सारे बगीचे में केवल एक आम का वृक्ष फला हुआ मिला। उसके नीचे एक परम महात्मा योगिराज बैठे हुए थे। उनसे वह वृक्ष ऐसा जान पड़ता था, मानो मूर्तिमान् धर्म है। सारे वन में एक ही वृक्ष को फला हुआ देखकर उसने समझ लिया कि यह मुनिराज का प्रभाव है। नहीं तो असमय में आम कहाँ? वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उस पर से बहुत से फल तोड़कर अपनी प्रिया के पास पहुँचा दिये और आप मुनिराज को नमस्कार कर भक्ति से उनके पाँवों के पास बैठ गया। उसने हाथ जोड़कर मुनि से पूछा-प्रभो, संसार में सार क्या है? इस बात को आप के श्रीमुख से सुनने की मेरी बहुत उत्कण्ठा है। कृपाकर कहिए ॥१०- १५॥
    मुनिराज बोले- वत्स, संसार में सार - आत्मा को कुगतियों से बचाकर सुख देने वाला, एक धर्म है। उसके दो भेद हैं-१. मुनिधर्म, २. श्रावक धर्म । मुनियों का धर्म-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग ऐसे पाँच महाव्रत तथा उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप आदि दस लक्षण धर्म और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ऐसे तीन रत्नत्रय, पाँच समिति, तीन गुप्ति, खड़े होकर आहार करना, स्नान न करना, , सहनशक्ति बढ़ाने के लिए सिर के बालों का हाथों से ही लुंचन करना, वस्त्र का न रखना आदि हैं और श्रावक धर्म-बारह व्रतों का पालन करना, भगवान् की पूजा करना, पात्रों को दान देना और जितना अपने से बन सके दूसरों पर उपकार करना, किसी की निन्दा बुराई न करना, शान्ति के साथ अपना जीवन बिताना आदि है । मुनिधर्म का पालन सर्वदेश करेंगे अर्थात् स्थावर जीवों की भी हिंसा वे नहीं करेंगे और श्रावक इसी व्रत का पालन एकदेश अर्थात् स्थूल रूप से करेगा। वह त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करेगा और स्थावर जीव-वनस्पति आदि को अपने काम लायक उपयोग में लाकर शेष की रक्षा करेगा ॥१६-१९॥
    श्रावकधर्म परम्परा से मोक्ष का कारण है और मुनिधर्म द्वारा उसी पर्याय से भी मोक्ष जाया जा सकता है। श्रावक को मुनिधर्म धारण करना ही पड़ता है क्योंकि उसके बिना मोक्ष होता ही नहीं । जन्म- जरा-मरण का दुःख बिना मुनिधर्म के कभी नहीं छूटता। इसमें भी एक विशेषता है। वह यह कि जितने मुनि होते हैं, वे सब मोक्ष में ही जाते होंगे ऐसा नहीं समझना चाहिए। उसमें परिणामों पर सब बात निर्भर है। जिसके जितने - जितने परिणाम उन्नत होते जायेंगे और राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, , लोभ आदि आत्मशत्रु नष्ट होकर अपने स्वभाव की प्राप्ति होती जायेगी वह उतना ही अन्तिम साध्य मोक्ष के पास पहुँचता जायेगा। पर यह पूर्ण रीति से ध्यान में रखना चाहिए कि मोक्ष होगा तो मुनिधर्म ही से|
      इस प्रकार श्रावक और मुनिधर्म तथा उनकी विशेषताएँ सुनकर सोमदत्त को मुनिधर्म ही बहुत पसन्द आया। उसने अत्यन्त वैराग्य के वश होकर मुनिधर्म की ही दीक्षा ग्रहण की, जो कि सब पापों की नाश करने वाली है। साधु बनकर गुरु के पास उसने खूब शास्त्राभ्यास किया। सब शास्त्रों में उसने बहुत योग्यता प्राप्त कर ली। इसके बाद सोमदत्त मुनिराज नाभिगिरी नामक पर्वत पर जाकर तपश्चर्या करने लगे और परीषह सहन द्वारा अपनी आत्मशक्ति को बढ़ाने लगे ॥२०-२२॥
    इधर यज्ञदत्ता के पुत्र हुआ । उसकी दिव्य सुन्दरता और तेज को देखकर यज्ञदत्ता बड़ी प्रसन्न हुई । एक दिन उसे किसी के द्वारा अपने स्वामी के समाचार मिले। उसने वह हाल अपने घर के लोगों से कहा और उनके पास चलने के लिए उनसे आग्रह किया। उन्हें साथ लेकर यज्ञदत्त नाभिगिरी पर पहुँची। मुनि इस समय तापसयोग से अर्थात् सूर्य के सामने मुँह किए ध्यान कर रहे थे। उन्हें मुनिवेष में देखकर यज्ञदत्ता के क्रोध का कुछ ठिकाना नहीं रहा । उसने गर्जकर कहा- दुष्ट! पापी !! यदि तुझे ऐसा करना था मेरी जिन्दगी बिगाड़नी थी, तो पहले ही से मुझे न ब्याहता? बतला तो अब मैं किस के पास जाकर रहूँ? निर्दय! तुझे दया भी न आई जो मुझे निराश्रय छोड़कर तप करने को यहाँ चला आया? अब इस बच्चे का पालन कौन करेगा? जरा कह तो सही ! मुझ से इसका पालन नहीं होता । तू ही इसे लेकर पाल । यह कहकर निर्दयी यज्ञदत्ता बेचारे निर्दोष बालक को मुनि के पाँवों में पटक कर घर चली गई उस पापिनी को अपने हृदय के टुकड़े पर इतनी भी दया नहीं आई कि मैं सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जीवों से भरे हुए ऐसे भयंकर पर्वत पर उसे कैसे छोड़ जाती हूँ? उसकी कौन रक्षा करेगा? सच तो यह क्रोध के वश हो स्त्रियाँ क्या नहीं करतीं? ॥२३ - २९॥
    इधर तो यज्ञदत्ता पुत्र को मुनि के पास छोड़कर घर पर गई और इतने ही में दिवाकर देव नाम का एक विद्याधर इधर आ निकला। वह अमरावती का राजा था। पर भाई-भाई में लड़ाई हो जाने से उसके छोटे भाई पुरन्दर ने उसे युद्ध में पराजित कर देश से निकाल दिया था । सो वह अपनी स्त्री को साथ लेकर तीर्थयात्रा के लिए चल दिया। यात्रा करता हुआ वह नाभिपर्वत की ओर आ निकला। पर्वत पर मुनिराज को देखकर उनकी वन्दना के लिए नीचे उतरा। उसकी दृष्टि उस खेलते हुए तेजस्वी बालक के प्रसन्न मुखकमल पर पड़ी। बालक को भाग्यशाली समझकर उसने अपनी गोद में उठा लिया और प्रसन्नता के साथ उसे अपनी प्रिया को सौंपकर कहा-प्रिये, यह कोई बड़ा पुण्य पुरुष है । आज अपना जीवन कृतार्थ हुआ जो हमें अनायास ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । उसकी स्त्री भी बच्चे को पाकर बहुत खुश हुई उसने बड़े प्रेम के साथ उसे अपनी छाती से लगाया और अपने को कृतार्थ माना। बालक होनहार था। उसके हाथों में वज्र का चिह्न देखकर विद्याधर महिला ने उसका नाम भी वज्रकुमार रख दिया। इसके बाद दम्पत्ति मुनि को प्रणाम कर अपने घर पर लौट आए । यज्ञदत्ता तो अपने पुत्र को छोड़कर चली आई, पर जो भाग्यवान् होता है उसका कोई न कोई रक्षक बनकर आ ही जाता है। बहुत ठीक लिखा है-पुण्यवानों को कहीं कष्ट प्राप्त नहीं होता । विद्याधर के घर पर पहुँच कर वज्रकुमार द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा और अपनी बाल लीलाओं से सबको आनन्द देने लगा जो उसे देखता वही उसकी स्वर्गीय सुन्दरता पर मुग्ध हो उठता था ॥३०-३८॥
    दिवाकर देव के सम्बन्ध से वज्रकुमार का मामा कनकपुरी का राजा विमलवाहन हुआ। अपने मामा के यहाँ रहकर वज्रकुमार ने खूब शास्त्राभ्यास किया। छोटी ही उमर में वह एक प्रसिद्ध विद्वान् बन गया। उसकी बुद्धि देखकर विद्याधर बड़ा आश्चर्य करने लगे ॥३९-४०॥
    एक दिन वज्रकुमार ह्रीमंतपर्वत पर प्रकृति की शोभा देखने को गया हुआ था। वहीं पर एक गरुड़वेग विद्याधर की पवनवेगा नाम की पुत्री विद्या साध रही थी । सो विद्या साधते-साधते भाग्य से एक काँटा हवा से उड़कर उसकी आँख में गिर गया। उसके दुःख से उसका चित्त चंचल हो उठा। । उससे विद्या सिद्ध होने में उसके लिए बड़ी कठिनता आ उपस्थित हुई । इसी समय वज्रकुमार इधर आ निकला। उसे ध्यान से विचलित देखकर उसने उसकी आँख में से काँटा निकाल दिया। पवनवेगा स्वस्थ होकर फिर मंत्र साधन से तत्पर हुई मंत्रयोग पूरा होने पर उसे विद्या सिद्ध हो गई वह सब उपकार वज्रकुमार का समझकर उसके पास आई और उससे बोली- आपने मेरा बहुत उपकार किया है। ऐसे समय यदि आप उधर नहीं आते तो कभी संभव नहीं था, कि मुझे विद्या सिद्ध होती । इसका बदला मैं एक क्षुद्र बालिका क्या चुका सकती हूँ, पर यह जीवन आपको समर्पण कर आपकी चरण दासी बनना चाहती हूँ। मैंने संकल्प कर लिया है कि इस जीवन में आपके सिवा किसी को मैं अपने पवित्र हृदय में स्थान न दूँगी। मुझे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए। यह कहकर वह सतृष्ण नयनों से वज्रकुमार की ओर देखने लगी । वज्रकुमार ने मुस्कुराकर उसके प्रेमोपहार को बड़े आदर के साथ ग्रहण किया। दोनों वहाँ से विदा होकर अपने-अपने घर गए। शुभ दिन में गरुड़वेग ने पवनवेगा का परिणय संस्कार वज्रकुमार के साथ कर दिया। दोनों दंपति सुख से रहने लगे ॥४१-४९॥
    एक दिन वज्रकुमार को मालूम हो गया कि मेरे पिता थे तो राजा, पर उन्हें उनके छोटे भाई ने लड़ झगड़कर अपने राज्य से निकाल दिया है। यह देख उसे काका पर बड़ा क्रोध आया। वह पिता बहुत कुछ मना करने पर भी कुछ सेना और अपनी पत्नी की विद्या को लेकर उसी समय अमरावती पर जा चढ़ा । पुरन्दरदेव को इस चढ़ाई का हाल कुछ मालूम नहीं हुआ था, इसलिए वह बात की बातों में पराजित कर बाँध लिया गया। राज्य सिंहासन दिवाकर देव के अधिकार में आया । सच है " सुपुत्रः कुलदीपकः” अर्थात् सुपुत्र से कुल की उन्नति ही होती है। इस वीर वृतान्त से वज्रकुमार बहुत प्रसिद्ध हो गया। अच्छे-अच्छे शूरवीर उसका नाम सुनकर काँपने लगे ॥५०-५२॥
    इसी समय दिवाकरदेव की प्रिया जयश्री के भी एक और पुत्र उत्पन्न हो गया। अब उसे वज्रकुमार से डाह होने लगी । उसे एक भ्रम - सा हो गया कि इसके सामने मेरे पुत्र को राज्य कैसे मिलेगा? खैर, यह भी मान लूँ कि मेरे आग्रह से प्राणनाथ अपने पुत्र को राज्य दे तो यह क्यों उसे देने देगा? ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो-
    आश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् । -वादीभसिंह
    आती हुई लक्ष्मी को पाँव की ठोकर से ठुकरावेगा ? तब अपने पुत्र को राज्य मिलने में यह एक कंटक है। इसे किसी तरह उखाड़ फेंकना चाहिए । यह विचार कर मौका देखने लगी । एक दिन वज्रकुमार ने अपनी माता के मुँह से यह सुन लिया कि "वज्रकुमार बड़ा दुष्ट है। देखो, तो कहाँ तो उत्पन्न हुआ और किसे कष्ट देता है?" उसकी माता किसी के सामने उसकी बुराई कर रही थी। सुनते ही वज्रकुमार के हृदय में मानों आग बरस गई उसका हृदय जलने लगा । उसे फिर एक क्षणभर भी उस घर में रहना नरक बराबर भयंकर हो उठा। यह उसी समय अपने पिता के पास गया और बोला- पिताजी, जल्दी बतलाइए मैं किसका पुत्र हूँ? और क्यों यहाँ आया? मैं जानता हूँ कि आपने मेरा अपने बच्चे से कहीं बढ़कर पालन किया है, तब भी मुझे कृपाकर बतला दीजिए कि मेरे सच्चे पिता कौन हैं? यदि आप मुझे ठीक-ठीक हाल नहीं कहेंगे तो मैं आज से भोजन नहीं करूँगा ॥५३-५७॥
    दिवाकर देव ने एकाएक वज्रकुमार के मुँह से अचम्भे में डालने वाली बातें सुनकर वज्रकुमार से कहा-पुत्र, क्या आज तुम्हें कुछ हो तो नहीं गया, जो बहकी-बहकी बातें करते हो? तुम समझदार हो, तुम्हें ऐसी बातें करना उचित नहीं, जिससे मुझे कष्ट हो ॥५८॥
    वज्रकुमार बोला-पिताजी मैं यह नहीं कहता कि मैं आपका पुत्र नहीं क्योंकि मेरे सच्चे पिता तो आप ही हैं, आप ही ने मुझे पालापोषा है । पर जो सच्चा वृतान्त है, उसके जानने की मेरी बड़ी उत्कण्ठा है; इसलिए उसे आप न छिपाइए। उसे कहकर मेरे अशान्त हृदय को शान्त कीजिए । बहुत सच है बड़े पुरुषों के हृदय में जो बात एक बार समा जाती है फिर वे उसे तब तक नहीं छोड़ते जब तक उसका उन्हें आदि अन्त मालूम न हो जाये । वज्रकुमार के आग्रह से दिवाकर देव को उसका पूर्व हाल सब ज्यों का त्यों कह देना ही पड़ा क्योंकि आग्रह से कोई बात छुपाई नहीं जा सकती । वज्रकुमार अपना हाल सुनकर बड़ा विरक्त हुआ । उसे संसार का मायाजाल बहुत भयंकर जान पड़ा। वह उसी समय विमान में चढ़कर अपने पिता की वन्दना करने को गया । उसके साथ ही उसका पिता तथा और बन्धुलोग भी गए। सोमदत्त मुनिराज मथुरा के पास एक गुफा में ध्यान कर रहे थे। उन्हें देखकर सब ही बहुत आनन्दित हुए। सब बड़ी भक्ति के साथ मुनि को प्रणाम कर जब बैठे, तब वज्रकुमार ने मुनिराज से कहा-पूज्यपाद, आज्ञा दीजिए, जिससे मैं साधु बनकर तपश्चर्या द्वारा अपना आत्मकल्याण करूँ । वज्रकुमार को एक साथ संसार से विरक्त देखकर दिवाकर देव को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने इस अभिप्राय से कि सोमदत्त मुनिराज वज्रकुमार को कहीं मुनि हो जाने की आज्ञा न दे दें, उनसे वज्रकुमार उन्हीं का पुत्र है और उसी पर मेरा राज्यभार भी निर्भर है आदि सब हाल कह दिया। इसके बाद वह वज्रकुमार से बोला- पुत्र, तुम यह क्या करते हो? तप करने का मेरा समय है या तुम्हारा? तुम अब सब तरह योग्य हो गए, राजधानी में जाओ और अपना कारोबार सम्हालो । अब मैं सब तरह निश्चिन्त हुआ। मैं आज ही दीक्षा ग्रहण करूँगा । दिवाकर देव ने उसे बहुत कुछ समझाया और दीक्षा लेने से रोका, पर उसने किसी की एक न सुनी और सब वस्त्राभूषण फेंककर मुनिराज के पास दीक्षा ले ली। कन्दर्पकेसरी वज्रकुमार मुनि साधु बनकर खूब तपश्चर्या करने लगे । कठिन से कठिन परीषह सहने लगे। वे जिनशासनरूप समुद्र के बढ़ाने वाले चन्द्रमा के समान शोभने लगे ॥५९-६८॥
    वज्रकुमार के साधु बन जाने के बाद की कथा अब लिखी जाती है। इस समय मथुरा के राजा थे पूतीगन्ध। उनकी रानी का नाम था उर्विला । वह बड़ी धर्मात्मा थी, सती थी, विदुषी थी और सम्यग्दर्शन से भूषित थी । उसे जिनभगवान् की पूजा से बहुत प्रेम था। वह प्रत्येक नन्दीश्वरपर्व में आठ दिन तक खूब पूजा महोत्सव करवाती, खूब दान करती । उससे जिनधर्म की बहुत प्रभावना होती । सर्व साधारण पर जैन धर्म का अच्छा प्रभाव पड़ता । मथुरा ही में एक सागरदत्त नाम का सेठ था । उसकी गृहिणी का नाम था समुद्रदत्ता । पूर्व पाप के उदय से उसके दरिद्रा नाम की पुत्री हुई उसके जन्म से माता पिता को सुख न होकर दुःख हुआ। धन सम्पत्ति सब जाती रही। माता-पिता मर गए। बेचारी दरिद्रा के लिए अब अपना पेट भरना भी मुश्किल पड़ गया। अब वह दूसरों का झूठा खा-खाकर दिन काटने लगी। सच है पाप के उदय से जीवों को दुःख भोगना ही पड़ता है ॥ ६९-७५॥
    एक दिन दो मुनि भिक्षा के लिए मथुरा में आए। उनके नाम थे नन्दन और अभिनन्दन। उनमें नन्दन बड़े थे और अभिनन्दन छोटे । दरिद्रा को एक-एक अन्न का झूठा कण खाती हुई देखकर अभिनंदन ने नन्दन से कहा- - मुनिराज, देखिये हाय ! यह बेचारी बालिका कितनी दुःखी है? कैसे कष्ट से अपना जीवन बिता रही है। तब नन्दनमुनि ने अवधिज्ञान से विचार कर कहा- हाँ यद्यपि इस समय इसकी दशा अच्छी नहीं है तथापि इसका पुण्यकर्म बहुत प्रबल है उससे यह पूतीगन्ध राजा की पट्टरानी बनेगी। मुनि ने दरिद्रा का जो भविष्य सुनाया, उसे भिक्षा के लिए आए हुए एक बौद्ध भिक्षुक ने भी सुन लिया। उसे जैन ऋषियों के विषय में बहुत विश्वास था, इसलिए वह दरिद्रा को अपने स्थान पर लिवा लाया और उसका पालन करने लगा ॥७६-८१॥
    दरिद्रा जैसी-जैसी बड़ी होती गई वैसे ही वैसे यौवन ने उसकी श्री को खूब सम्मान देना आरम्भ किया। वह अब युवती हो चली। उसके सारे शरीर से सुन्दरता की सुधाधारा बहने लगी। आँखों ने चंचल मीन को लजाना शुरू किया। मुँह ने चन्द्रमा को अपना दास बनाया । नितम्बों को अपने से जल्दी बढ़ते देखकर शर्म के मारे स्तनों का मुँह काला पड़ गया। एक दिन युवती दरिद्रा शहर के बगीचे में जाकर झूले पर झूल रही थी कि कर्मयोग से उसी दिन राजा भी वहीं आ गए। उनकी नजर एकाएक दरिद्रा पर पड़ी। उसे देखकर वे अचम्भे में आ गए कि यह स्वर्ग सुन्दरी कौन है? उन्होंने दरिद्रा से उसका परिचय पूछा। उसने निस्संकोच होकर अपना परिचय वगैरह सब उन्हें बता दिया । वह बेचारी भोली थी। उसे क्या मालूम कि मुझ से खास मथुरा के राजा पूछताछ कर रहे हैं। राजा तो उसे देखकर कामान्ध हो गए। वे बड़ी मुश्किल से अपने महल पर आए। आते ही उन्होंने अपने मंत्री को श्रीवन्दन के पास भेजा। मंत्री ने पहुँचकर श्रीवन्दक से कहा- आज तुम्हारा और तुम्हारी कन्या का बड़ा ही भाग्य है, जो मथुराधीश्वर उसे अपनी महारानी बनाना चाहते हैं । कहो, तुम्हें भी यह बात सम्मत है न? श्रीवन्दक बोला-हाँ मुझे महाराज की बात स्वीकार है, पर एक शर्त के साथ। वह शर्त यह है कि महाराज बौद्धधर्म स्वीकार करें तो मैं इसका ब्याह महाराज के साथ कर सकता हूँ । मन्त्री ने महाराज से श्रीवन्दक की शर्त कह सुनाई महाराज ने उसे स्वीकार किया। सच है लोग काम के वश होकर धर्मपरिवर्तन तो क्या बड़े-बड़े अनर्थ भी कर बैठते हैं ॥८२-८६॥
    आखिर महाराज दरिद्रा के साथ ब्याह हो गया। दरिद्रा मुनिराज के भविष्य कथनानुसार पट्टरानी हुई। दरिद्रा इस समय बुद्धदासी के नाम से प्रसिद्ध है। इसलिए आगे हम भी इसी नाम से उसका उल्लेख करेंगे। बुद्धदासी पट्टरानी बनकर बुद्धधर्म का प्रचार बढ़ाने में सदा तत्पर रहने लगी। सच है, जिनधर्म संसार में सुख का देने वाला और पुण्य प्राप्ति का खजाना हैं, पर उसे प्राप्त कर पाते है भाग्यशाली ही। बेचारी अभागिनी बुद्धदासी के भाग्य में उसकी प्राप्ति कहाँ? ॥८७-८८॥
    अष्टाह्निका का पर्व आया । उर्विला महारानी ने सदा के नियमानुसार अब की बार भी उत्सव करना आरम्भ किया। जब रथ निकालने का दिन आया और रथ, छत्र, चंवर, वस्त्र, भूषण, पुष्पमाला  आदि से खूब सजाया गया, उसमें भगवान् की प्रतिमा विराजमान की जाकर वह निकाला जाने लगा, तब बुद्धदासी ने राजा से यह कह कर, कि पहले मेरा रथ निकलेगा, उर्विला रानी का रथ रुकवा दिया। राजा ने भी उस पर कुछ बाधा न देकर उसके कहने को मान लिया । सच है- ॥८९-९४॥
    अर्थात् मोह से अन्धे हुए मनुष्य गाय के दूध में और आकड़े के दूध में कुछ भी भेद नहीं समझते। बुद्धदासी के प्रेम ने यही हालत पूतिगंधराजा की कर दी । उर्विला को इससे बहुत कष्ट पहुँचा। उसने दुःखी होकर प्रतिज्ञा कर ली कि जब पहले मेरा रथ निकलेगा तब ही मैं भोजन करूँगी । यह प्रतिज्ञा कर वह क्षत्रिया नाम की गुफा में पहुँची । वहाँ योगिराज सोमदत्त और वज्रकुमार महामुनि रहा करते हैं। वह उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर बोली- हे जिनशासन रूप समुद्र के बढ़ाने वाले चन्द्रमाओं और हे मिथ्यात्वरूप अन्धकार के नष्ट करने वाले सूर्य ! इस समय आप ही मेरे लिए शरण हैं । आप ही मेरा दुःख दूर कर सकते हैं। जैनधर्म पर इस समय बड़ा संकट उपस्थित है, उसे नष्ट कर उसकी रक्षा कीजिए । मेरा रथ निकलने वाला था, पर उसे बुद्धदासी ने महाराज से कहकर रुकवा दिया है। आजकल वह महाराज की बड़ी कृपापात्र है, इसलिए जैसा वह कहती है महाराज भी बिना विचारे वही कहते हैं। मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि सदा की भाँति मेरा रथ पहले निकलेगा तब ही मैं भोजन करूँगी । अब जैसा आप उचित समझें वह कीजिए। उर्विला अपनी बात कर रही थी कि इतने में वज्रकुमार तथा सोमदत्त मुनि की वन्दना करने को दिवाकर देव आदि बहुत से विद्याधर आए। वज्रकुमार मुनि ने उनसे कहा-आप लोग समर्थ है और इस समय जैनधर्म पर कष्ट उपस्थित है । बुद्धदासी ने महारानी उर्विला का रथ रुकवा दिया है। सो आप जाकर जिस तरह बन सके इसका रथ निकलवाइये। वज्रकुमार मुनि की आज्ञानुसार सब विद्याधर लोग अपने विमान पर चढ़कर मथुरा आए । सच है जो धर्मात्मा होते हैं वे धर्म प्रभावना के लिए स्वयं प्रयत्न करते हैं, तब उन्हें तो मुनिराज ने स्वयं प्रेरणा की है, इसलिए रानी उर्विला को सहायता देना तो उन्हें आवश्यक ही था । विद्याधरों ने पहुँचकर बुद्धदासी को बहुत समझाया और कहा, जो पुरानी रीति है उसे ही पहले होने देना अच्छा है। पर बुद्धदासी को तो अभिमान आ रहा था, इसलिए वह क्यों मानने चली? विद्याधरों ने सीधेपन से अपना कार्य होता हुआ न देखकर बुद्धदासी के नियुक्त किए हुए सिपाहियों से लड़ना शुरू किया और बात की बात में उन्हें भगाकर बड़े उत्सव और आनन्द के साथ उर्विला रानी का रथ निकलवा दिया। रथ के निर्विघ्न निकलने से सबको बहुत आनन्द हुआ। जैनधर्म की भी खूब प्रभावना हुई बहुतों ने मिथ्यात्व छोड़कर सम्यग्दर्शन ग्रहण किया। बुद्धदासी और राजा पर भी इस प्रभावना का खूब प्रभाव पड़ा। उन्होंने भी शुद्धान्तःकरण से जैनधर्म स्वीकार किया ॥९५-११३॥
    जिस प्रकार श्रीवज्रकुमार मुनिराज ने धर्म प्रेम के वश होकर जैनधर्म की प्रभावना करवाई उसी तरह और धर्मात्मा पुरुषों को भी संसार का उपकार करने वाली और स्वर्ग सुख की देने वाली धर्म प्रभावना करना चाहिए। जो भव्य पुरुष, प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार, रथयात्रा, विद्यादान, आहारदान, अभयदान आदि द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि होकर त्रिलोक पूज्य होते हैं और अन्त में मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं ॥११४-११७॥
    धर्म प्रेमी श्रीवज्रकुमार मुनि मेरी बुद्धि को सदा जैनधर्म में दृढ़ रखें, जिसके द्वारा मैं भी कल्याण पथ पर चलकर अपना अन्तिम साध्य मोक्ष प्राप्त कर सकूँ ॥११८॥ 
     
    श्रीमल्लिभूषण गुरु मुझे मंगल प्रदान करें, वे मूल संघ के प्रधान शारदा गच्छ में हुए हैं। वे ज्ञान के समुद्र हैं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्नों से अलंकृत हैं। मैं उनकी भक्तिपूर्वक आराधना करता हूँ ॥११९॥
  5. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    अनन्त सुख प्रदान करने वाले जिनभगवान् जिनवाणी और जैन साधुओं को नमस्कार कर मैं वात्सल्य अंग के पालन करने वाले श्री विष्णुकुमार मुनिराज की कथा लिखता हूँ ॥१॥
    अवन्तिदेश के अन्तर्गत उज्जयिनी बहुत सुन्दर और प्रसिद्ध नगरी है । जिस समय का यह उपाख्यान है, उस समय उसके राजा श्रीवर्मा थे । वे बड़े धर्मात्मा थे, सब शास्त्रों के अच्छे विद्वान् थे, विचारशील थे, और अच्छे शूरवीर थे। वे दुराचारियों को उचित दण्ड देते और प्रजा का नीति के साथ पालन करते। सुतरां प्रजा उनकी बड़ी भक्त थी ॥२-३॥
    उनकी महारानी का नाम था श्रीमती । वह भी विदुषी थी । उस समय की स्त्रियों में वह प्रधान सुन्दरी समझी जाती थी। उसका हृदय बड़ा दयालु था । वह जिसे दुःखी देखती, फिर उसका दुःख दूर करने के लिए जी जान से प्रयत्न करती । महारानी को सारी प्रजा देवी समझती थी।
    श्रीवर्मा के राजमंत्री चार थे। उनके नाम थे बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि। ये चारों ही धर्म के कट्टर शत्रु थे। इन पापी मंत्रियों से युक्त राजा ऐसे जान पड़ते थे मानों जहरीले सर्प से युक्त जैसे चन्दन का वृक्ष हो ॥४-५॥
    एक दिन ज्ञानी अकम्पनाचार्य देश - विदेशों में पर्यटन कर भव्य पुरुषों को धर्मरूपी अमृत से सुखी करते हुए उज्जयिनी में आए। उनके साथ सात सौ मुनियों का बड़ा भारी संघ था। वे शहर के बाहर एक पवित्र स्थान में ठहरे। अकम्पनाचार्य को निमित्तज्ञान से उज्जयिनी की स्थिति अनिष्ट कर जान पड़ी। इसलिए उन्होंने सारे संघ से कह दिया कि देखो, राजा वगैरह कोई आवे पर आप लोग उनसे वादविवाद न कीजियेगा। नहीं तो सारा संघ बड़े कष्ट में पड़ जायेगा, उस पर घोर उपसर्ग आएगा। गुरु की हितकर आज्ञा को स्वीकार कर सब मुनि मौन के साथ ध्यान करने लगे। सच है- ॥६-१०॥
     वे शिष्य प्रशंसा के पात्र हैं, जो विनय और प्रेम के साथ अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं। इसके विपरीत चलने वाले कुपुत्र के समान निन्दा के पात्र हैं ॥११॥
    अकम्पनाचार्य के आने के समाचार शहर के लोगों को मालूम हुए। वे पूजा द्रव्य लेकर बड़ी भक्ति के साथ आचार्य की वन्दना को जाने लगे । आज एकाएक अपने शहर में आनन्द की धूमधाम देखकर महल पर बैठे हुए श्रीवर्मा ने मंत्रियों से पूछा- ये सब लोग आज ऐसे सजधज कर कहाँ जा रहे हैं? उत्तर में मंत्रियों ने कहा- महाराज, सुना जाता है कि अपने शहर में नंगे जैन साधु आए हुए हैं। ये सब उनकी पूजा के लिए जा रहे हैं। राजा ने प्रसन्नता के साथ कहा- तब तो हमें भी चलकर उनके दर्शन करना चाहिए। वे महापुरुष होंगे। यह विचार कर राजा भी मंत्रियों के साथ आचार्य के दर्शन करने को गए। उन्हें आत्मध्यान में लीन देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने क्रम से एक-एक मुनि को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । सब मुनि अपने आचार्य की आज्ञानुसार मौन रहे। किसी ने भी उन्हें धर्मवृद्धि नहीं दी। राजा उनकी वन्दना कर वापस महल लौट चले। लौटते समय मंत्रियों ने उनसे कहा-महाराज, देखा साधुओं को ? बेचारे बोलना तक भी नहीं जानते, सब नितान्त मूर्ख हैं। यही तो कारण है कि सब मौनी बैठे हुए हैं। उन्हें देखकर सर्व साधारण तो यह समझेंगे कि ये सब आत्मध्यान कर रहे हैं, बड़े तपस्वी हैं पर यह इनका ढोंग है । अपनी सब पोल न खुल जाये, इसलिए उन्होंने लोगों को धोखा देने को यह कपटजाल रचा है। महाराज, ये दाम्भिक हैं। इस प्रकार त्रैलोक्यपूज्य और परम शान्त मुनिराजों की निन्दा करते हुए ये मलिनहृदयी मंत्री राजा के साथ लौट के आ रहे थे कि रास्ते में इन्हें एक मुनि मिल गए, जो कि शहर से आहार करके लौट रहे थे, इन पापियों ने उनकी हँसी की, महाराज, देखिए वह एक बैल और पेट भरकर चला आ रहा है। मुनि ने मंत्रियों के निन्दा वचनों को सुन लिया। सुनकर भी उनका कर्तव्य था कि वे शान्त रह जाते, पर वे निन्दा न सह सकें । कारण वे आहार के लिए शहर में चले गए थे, इसलिए उन्हें अपने आचार्य की आज्ञा मालूम न थी। मुनि ने यह समझ कर, कि इन्हें अपनी विद्या का बड़ा अभिमान है, उसे मैं चूर्ण करूँगा, कहा-तुम व्यर्थ क्यों किसी की बुराई करते हो? यदि तुममें कुछ विद्या हो, आत्मबल हो, तो मुझ से शास्त्रार्थ करो। फिर तुम्हें जान पड़ेगा कि बैल कौन है? भला वे भी तो राजमंत्री थे, उस पर भी दुष्टता उनके हृदय में कूट- कूटकर भरी हुई थी; फिर वे कैसे एक अकिंचन साधु के वचनों को सह सकते थे? उन्होंने कह तो दिया कि हम ने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। अभिमान में आकर उन्होंने कह तो दिया कि हम शास्त्रार्थ करेंगे पर जब शास्त्रार्थ हुआ तब उन्हें जान पड़ा कि शास्त्रार्थ करना बच्चों का सा खेल नहीं है। एक ही मुनि ने अपने स्याद्वाद के बल सेकी बात में चारों मंत्रियों को पराजित कर दिया। सच है-एक ही सूर्य सारे संसार के अन्धकार को नष्ट करने के लिए समर्थ है ॥१२-२५॥
    विजय लाभ कर श्रुतसागर मुनि अपने आचार्य के पास आए। उन्होंने रास्ते की सब घटना आचार्य से ज्यों की त्यों कह सुनाई सुनकर आचार्य खेद के साथ बोले- हाय! तुमने बहुत ही बुरा किया, जो उनसे शास्त्रार्थ किया। तुमने अपने हाथों से सारे संघ का घात किया, संघ की अब कुशल नहीं है। अस्तु, जो हुआ, अब यदि तुम सारे संघ की जीवन रक्षा चाहते हो, तो पीछे जाओ और जहाँ मंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ है, वहीं जाकर कायोत्सर्ग ध्यान करो । आचार्य की आज्ञा को सुनकर श्रुतसागर मुनिराज जरा भी विचलित नहीं हुए। वे संघ की रक्षा के लिए उसी समय वहाँ से चल दिये और शास्त्रार्थ की जगह पर आकर मेरु की तरह निश्चल हो बड़े धैर्य के साथ कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे ॥२६-२९॥
    शास्त्रार्थ कर मुनि से पराजित होकर मंत्री बड़े लज्जित हुए। अपने मानभंग का बदला चुकाने का विचार कर मुनिवध के लिए रात्रि समय वे चारों शहर से बाहर हुए। रास्ते में श्रुतसागर मुनि ध्यान करते हुए मिले। पहले उन्होंने अपने मानभंग करने वाले ही को परलोक पहुँचा देना चाहा। उन्होंने मुनि की गर्दन काटने को अपनी तलवार को म्यान से खींचा और एक ही साथ उनका काम तमाम करने के विचार से उन पर वार करना चाहा कि, इतने में मुनि के पुण्य प्रभाव से पुरदेवी ने आकर उन्हें तलवार उठाये हुए ही कील दिये ॥३०-३४॥
    प्रातःकाल होते ही बिजली की तरह सारे शहर में मंत्रियों की दुष्टता का हाल फैल गया। सब शहर उन्हें देखने को आया । राजा भी आए । सबने एक स्वर से उन्हें धिक्कारा । है भी तो ठीक, जो पापी लोग निरपराधों को कष्ट पहुँचाते हैं वे इस लोक में भी घोर दुःख उठाते हैं और परलोक में नरकों के असह्य दु:ख सहते हैं। राजा ने उन्हें बहुत धिक्कार कर कहा - पापियों, जब तुमने मेरे सामने इन निर्दोष और संसार मात्र का उपकार करने वाले मुनियों की निन्दा की थी, तब मैं तुम्हारे विश्वास पर निर्भर रहकर यह समझा था कि संभव है मुनि लोग ऐसे ही हों, पर आज मुझे तुम्हारी नीचता का ज्ञान हुआ, तुम्हारे पापी हृदय का पता लगा । तुम इन्हीं निर्दोष साधुओं की हत्या करने को आए थे न? पापियों, तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है । तुम्हें तुम्हारे इस घोर कर्म का उपयुक्त दण्ड तो यही देना चाहिए था कि जैसा तुम करना चाहते थे, वही तुम्हारे लिए किया जाता। पर पापियों, तुम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए हो और तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियाँ मेरे यहाँ मंत्री पद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं इसलिए उसके लिहाज से तुम्हें अभय देकर अपने नौकरों को आज्ञा करता हूँ कि वे तुम्हें गधों पर बैठाकर मेरेी सीमा से बाहर कर दें । राजा की आज्ञा का उसी समय पालन हुआ । चारों मन्त्री देश से निकलवा दिये गए। सच है-पापियों की ऐसी दशा होना उचित ही है ॥३५-३८ ॥
    धर्म के ऐसे प्रभाव को देखकर लोगों के आनन्द का ठिकाना न रहा। वे अपने हृदय में बढ़ते हुए हर्ष के वेग को रोकने में समर्थ नहीं हुए । उन्होंने जयध्वनि के मारे आकाश पाताल को एक कर दिया । मुनिसंघ का उपद्रव टला । सबके चित्त स्थिर हुए। अकम्पनाचार्य भी उज्जयिनी से विहार कर गए ॥३९॥
    हस्तिनापुर नाम का एक शहर है। उसके राजा हैं महापद्म, उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। उसके पद्म और विष्णु नाम के दो पुत्र हुए ॥४०-४१॥
    एक दिन राजा संसार की दशा पर विचार कर रहे थे। उसकी अनित्यता और निस्सारता देखकर उन्हें बहुत वैराग्य हुआ। उन्हें संसार दुःखमय दिखने लगा। वे उसी समय अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर अपने छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ वन में चले गए और श्रुतसागर मुनि के पास पहुँचकर दोनों पिता-पुत्र ने दीक्षा ग्रहण कर ली। विष्णुकुमार बालपने से ही संसार से विरक्त थे इसलिए पिता के रोकने पर भी वे दीक्षित हो गए। विष्णुकुमार मुनि साधु बनकर खूब तपश्चर्या करने लगे। कुछ दिनों बाद तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई ॥४२-४४॥
    पिता के दीक्षित हो जाने पर हस्तिनापुर का राज्य पद्मराज करने लगे । उन्हें सब कुछ होने पर भी एक बात का बड़ा दुःख था । वह यह कि, कुंभपुर का राजा सिंहबल उन्हें बड़ा कष्ट पहुँचाया करता था। उनके देश में अनेक उपद्रव किया करता था। उसके अधिकार में एक बड़ा भारी सुदृढ़ किला था। इसलिए वह पद्मराज की प्रजा पर एकाएक धावा मारकर अपने किले में जाकर छुप जाता है। तब पद्मराज उसका कुछ अनिष्ट नहीं कर पाते थे । इस कष्ट की उन्हें सदा चिन्ता रहा करती थी ॥४५-४७॥
    इसी समय श्रीवर्मा के चारों मंत्री उज्जयिनी से निकलकर कुछ दिनों बाद हस्तिनापुर की ओर आ निकले। उन्हें किसी तरह राजा के इस दुःख सूत्र का पता लग गया। वे राजा से मिले और उन्हें चिन्ता से निर्मुक्त करने का वचन देकर कुछ सेना के साथ सिंहबल पर जा चढ़े और अपनी बुद्धिमानी से किले को तोड़कर सिंहबल को उन्होंने बाँध लिया और लाकर पद्मराज के सामने उपस्थित कर दिया । पद्मराज उनकी वीरता और बुद्धिमानी से बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उन्हें अपना मंत्री बनाकर कहा-कि तुमने मेरा उपकार किया है। तुम्हारा मैं बहुत कृतज्ञ हूँ । यद्यपि उसका प्रतिफल नहीं दिया जा सकता, तब भी तुम जो कहो वह मैं तुम्हें देने को तैयार हूँ । उत्तर में बलि नाम के मंत्री ने कहा -! - प्रभो, आपकी हम पर कृपा है, तो हमें सब कुछ मिल चुका । इस पर भी आपका आग्रह है, तो उसे हम अस्वीकार भी नहीं कर सकते। अभी हमें कुछ आवश्यकता नहीं है । जब समय होगा तब आपसे प्रार्थना करेंगे ही ॥४८-५०
    इसी समय श्री अकम्पनाचार्य अनेक देशों में विहार करते हुए और धर्मोपदेश द्वारा संसार के जीवों का हित करते हुए हस्तिनापुर के बगीचे में आकर ठहरे। सब लोग उत्सव के साथ उनकी वन्दना करने को गए। अकम्पनाचार्य के आने का समाचार राजमंत्रियों को मालूम हुआ। मालूम होते ही उन्हें अपने अपमान की बात याद हो आई उनका हृदय प्रतिहिंसा से उद्विग्न हो उठा। उन्होंने परस्पर में विचार किया कि समय बहुत उपयुक्त है, इसलिए बदला लेना ही चाहिए। देखो न, इन्हीं दुष्टों के द्वारा अपने को कितना दुःख उठाना पड़ा था? सबके हम धिक्कार पात्र बने और अपमान के साथ देश से निकाले गए। पर हाँ अपने मार्ग में एक काँटा है। राजा इनका बड़ा भक्त है। वह अपने रहते हुए इनका अनिष्ट कैसे होने देगा? इसके लिए कुछ उपाय सोच निकालना आवश्यक है। नहीं तो ऐसा न हो कि ऐसा अच्छा समय हाथ से निकल जाये? इतने में बलि मंत्री बोल उठा कि, इसकी आप चिन्ता न करें ॥५१-५३॥
    अब सिंहबल के पकड़ लाने का पुरस्कार राजा से पाना बाकी है, उसकी ऐवज में उससे सात दिन का राज्य ले लेना चाहिए । फिर जैसा हम करेंगे वही होगा । राजा को उसमें दखल देने का कुछ अधिकार न रहेगा। यह प्रयत्न सबको सर्वोत्तम जान पड़ा। बलि उसी समय राजा के पास पहुँचा और बड़ी विनय से बोला-महाराज, आप पर हमारा एक पुरस्कार बाकी है। आप कृपाकर अब उसे दीजिये। इस समय उससे हमारा बड़ा उपकार होगा। राजा उसका कूट कपट न समझ और यह विचार कर, कि इन लोगों ने मेरा बड़ा उपकार किया था, अब उसका बदला चुकाना मेरा कर्तव्य है, बोला- बहुत अच्छा, जो तुम्हें चाहिए वह माँग लो, मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके तुम्हारे ऋण से उऋण होने का यत्न करूँगा। बलि बोला-महाराजा, यदि आप वास्तव में ही हमारा हित चाहते हैं, तो कृपा करके सात दिन के लिए अपना राज्य हमें प्रदान कीजिए ॥५४॥
    राजा सुनते ही अवाक् रह गया । उसे किसी बड़े भारी अनर्थ की आशंका हुई पर अब वश ही क्या था? उसे वचनबद्ध होकर राज्य दे देना पड़ा। राज्य के प्राप्त होते ही उनकी प्रसन्नता का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने मुनियों के मारने के लिए यज्ञ का बहाना बनाकर षड्यंत्र रचा जिससे कि सर्वसाधारण न समझ सकें ॥५५॥
    मुनियों को बीच में रखकर यज्ञ के लिए एक बड़ा भारी मंडप तैयार किया गया। उनके चारों ओर काष्ठ ही काष्ठ रखवा दिया गया। हजारों पशु इकट्ठे किए गए । यज्ञ आरम्भ हुआ । वेदों के जानकार बड़े-बड़े विद्वान् यज्ञ कराने लगे । वेदध्वनि से यज्ञमण्डप गूंजने लगा। बेचारे निरपराध पशु बड़ी निर्दयता से मारे जाने लगे। उनकी आहुतियाँ दी जाने लगीं। देखते-देखते दुर्गन्धित धुएँ से आकाश परिपूर्ण हुआ। मानों इस महापाप को न देख सकने के कारण सूर्य अस्त हुआ । मनुष्यों के हाथ से राज्य राक्षसों के हाथों में गया ॥५६-५८॥
    सारे मुनिसंघ पर भयंकर उपसर्ग हुआ परन्तु उन शान्ति की मूर्तियों ने इसे अपने किए कर्मों का फल समझकर बड़ी धीरता के साथ सहना आरम्भ किया। वे मेरु समान निश्चल रहकर एक चित्त से परमात्मा का ध्यान करने लगे । सच है - जिन्होंने अपने हृदय को खूब उन्नत और दृढ़ बना लिया है जिनके हृदय में निरन्तर यह भावना बनी रहती है- ॥५९॥
    अरि मित्र, महल मसान, कंचन काँच, निन्दन थुतिकरन ।
    अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन ॥
    वे क्या कभी ऐसे उपसर्गों से विचलित होते हैं? पाण्डवों को शत्रुओं ने लोहे के गरम-गरम आभूषण पहना दिये । अग्नि की भयानक ज्वाला उनके शरीर को भस्म करने लगी। पर वे विचलित नहीं हुए। धैर्य के साथ उन्होंने सब उपसर्ग सहा। जैन साधुओं का यही मार्ग है कि वे आए हुए कष्टों को शान्ति से सहे और वे ही यथार्थ साधु हैं, जिनका हृदय दुर्बल है, जो रागद्वेषरूपी शत्रुओं को जीतने के लिए ऐसे कष्ट नहीं सह सकते, दुःखों के प्राप्त होने पर समभाव नहीं रख सकते, वे न तो अपने आत्महित के मार्ग में आगे बढ़ पाते हैं और न वे साधुपद स्वीकार करने के योग्य हो सकते हैं।
    मिथिला में श्रुतसागर मुनि को निमित्तज्ञान से इस उपसर्ग का हाल मालूम हुआ। उनके मुँह से बड़े कष्ट के साथ वचन निकले-हाय ! हाय!! इस समय मुनियों पर बड़ा उपसर्ग हो रहा है। वहीं एक पुष्पदन्त नामक क्षुल्लक भी उपस्थित थे । उन्होंने मुनिराज से पूछा-प्रभो, यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है? उत्तर में श्रुतसागर मुनि बोले- हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों का संघ ठहरा हुआ है। उसके संरक्षक अकम्पनाचार्य हैं। उस सारे संघ पर पापी बलि के द्वारा यह उपसर्ग किया जा रहा है ।
    क्षुल्लक ने फिर पूछा- प्रभो, कोई ऐसा उपाय भी है,  जिससे यह उपसर्ग दूर मुनि ने कहा-हाँ उसका एक उपाय है।
    मुनि ने कहा-हाँ उसका एक उपाय है। भूमि भूषण पर्वत पर श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई है, वे अपनी ऋद्धि के बल से उपसर्ग को रोक सकते है ||६०-६५॥
     पुष्पदन्त फिर एक क्षणभर भी वहाँ न ठहरे और जहाँ विष्णुकुमार मुनि तपश्चर्या कर रहे थे, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर उन्होंने सब हाल विष्णुकुमार मुनि से कह सुनाया । विष्णुकुमार को ऋद्धि प्राप्त होने की पहले खबर नहीं हुई थी। पर जब पुष्पदन्त के द्वारा उन्हें मालूम हुआ, तब उन्होंने परीक्षा के लिए एक हाथ पसारकर देखा। पसारते ही उनका हाथ बहुत दूर तक चला गया। उन्हें विश्वास हुआ। वे उसी समय हस्तिनापुर आए और अपने भाई से बोले- भाई, आप किस नींद में सोते हुए हो? जानते हो, शहर में कितना बड़ा भारी अनर्थ हो रहा है? अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया? क्या पहले किसी ने भी अपने कुल में ऐसा घोर अनर्थ आज तक किया है? हाय! धर्म के अवतार, परम शान्त और किसी से कुछ लेते देते नहीं, उन मुनियों पर यह अत्याचार? और वह भी तुम सरीखे धर्मात्माओं के राज्य में ? खेद ! भाई, राजाओं का धर्म तो यह कहा गया है कि वे सज्जनों की, धर्मात्माओं की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। पर आप तो बिल्कुल इससे उल्टा कर रहे हैं। समझते हो, साधुओं का सताना ठीक नहीं । ठण्डा जल भी गरम होकर शरीर को जला डालता है इसलिए जब तक आपत्ति तुम पर न आवे, उसके पहले ही उपसर्ग शान्ति करवा दीजिये ॥६६-७१॥
    अपने भाई का उपदेश सुनकर पद्मराज बोले- मुनिराज, मैं क्या करूँ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे? अब तो मैं बिल्कुल विवश हूँ। मैं कुछ नहीं कर सकता । सात दिन तक जैसा कुछ ये करेंगे वह सब मुझे सहना होगा क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हूँ । अब तो आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए। आप इसके लिए समर्थ भी हैं और सब जानते हैं। उसमें मेरा दखल देना तो ऐसा है जैसा सूर्य को दीपक दिखलाना । शीघ्रता कीजिए । विलम्ब करना उचित नहीं ॥७२-७४॥
    विष्णुकुमार मुनि ने विक्रियाऋद्धि के प्रभाव से बामन ब्राह्मण का वेष बनाया और बड़ी मधुरता से वेदध्वनि का उच्चारण करते हुए वे यज्ञमंडप में पहुँचे। उनका सुन्दर स्वरूप और मनोहर वेदोच्चार सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए। बलि तो उन पर इतना मुग्ध हुआ कि उसके आनन्द का कुछ पार नहीं रहा। उसने बड़ी प्रसन्नता से उनसे कहा- महाराज, आपने पधारकर मेरे यज्ञ की अपूर्व शोभा कर दी। मैं बहुत खुश हुआ। आपको जो इच्छा हो, माँगिए। इस समय मैं सब कुछ देने को समर्थ हूँ ॥७५-७७॥
    विष्णुकुमार बोले-मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ। मुझे अपनी जैसी कुछ स्थिति है, उसमें सन्तोष है। मुझे धन-दौलत की कुछ आवश्यकता नहीं। पर आपका जब इतना आग्रह हैं, तो आपको असन्तुष्ट करना भी मैं नहीं चाहता। मुझे केवल तीन पग पृथ्वी की आवश्यकता है। यदि आप कृपा करके उतनी भूमि मुझे प्रदान कर देंगे तो मैं उसमें टूटी-फूटी झोंपड़ी बनाकर रह सकूँगा । स्थान की निराकुलता से मैं अपना समय वेदाध्ययनादि में बड़ी अच्छी तरह बिता सकूँगा। बस, इसके सिवा मुझे और कुछ इच्छा नहीं है ॥७८॥
    विष्णुकुमार की यह तुच्छ याचना सुनकर और-और ब्राह्मणों को उनकी बुद्धि पर बड़ा खेद हुआ। उन्होंने कहा भी कृपानाथ, आपको थोड़े में ही सन्तोष था, तब भी आप का यह कर्तव्य तो था कि आप बहुत कुछ माँग कर अपने जाति भाईयों का ही उपकार करते? उसमें आपका क्या बिगड़ जाना था ?
    बलि ने भी उन्हें समझाया और कहा कि आपने तो कुछ भी नहीं माँगा । मैं तो यह समझा था कि आप अपनी इच्छा से माँगते हैं, इसलिए जो कुछ माँगेंगे वह अच्छा ही माँगेंगे; परन्तु आपने तो मुझे बहुत ही हताश किया। यदि आप मेरे वैभव और मेरी शक्ति के अनुसार माँगते तो मुझे बहुत सन्तोष होता। महाराज, अब भी आप चाहें तो और भी अपनी इच्छानुसार माँग सकते हैं। मैं देने को प्रस्तुत हूँ ॥७९॥
    विष्णुकुमार बोले-नहीं, मैंने जो कुछ माँगा है, मेरे लिए वही बहुत है। अधिक चाह नहीं। आपको देना ही है तो और बहुत से ब्राह्मण मौजूद हैं; उन्हें दीजिए । बलि ने कहा कि जैसी आपकी इच्छा । आप अपने पाँवों से भूमि माप लीजिए। यह कहकर उसने हाथ में जल लिया और संकल्प कर उसे विष्णुकुमार के हाथ में छोड़ दिया। संकल्प छोड़ते ही उन्होंने पृथ्वी मापना शुरू की। पहला पाँव उन्होंने सुमेरु पर्वत पर रखा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, अब तीसरा पाँव रखने को जगह नहीं। उसे वे कहाँ रक्खें? उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठी, सब पर्वत चलायमान हो गए समुद्रों ने मर्यादा तोड़ दी, देवों और ग्रहों के विमान एक से एक टकराने लगे और देवगण आश्चर्य के मारे भौचक्के से रह गए। वे सब विष्णुकुमार के पास आए और बलि को बाँधकर बोले-प्रभो, क्षमा कीजिए! क्षमा कीजिए!! यह सब दुष्कर्म इसी पापी का है। यह आपके सामने उपस्थित है। बलि ने मुनिराज के पाँवों में गिरकर उनसे अपना अपराध क्षमा कराया और अपने दुष्कर्म पर बहुत पश्चाताप किया ॥८०-८४॥
    विष्णुकुमार मुनि ने संघ का उपद्रव दूर किया। सबको शान्ति हुई राजा और चारों मंत्री तथा प्रजा के सब लोग बड़ी भक्ति के साथ अकम्पनाचार्य की वन्दना करने को गए। उनके पाँवों में पड़कर राजा और मंत्रियों ने अपना अपराध उनसे क्षमा कराया और उसी दिन से मिथ्या मत छोड़कर सब अहिंसामयी पवित्र जिनशासन के उपासक बने ॥८५-८८॥
    देवों ने प्रसन्न होकर विष्णुकुमार की पूजन के लिए तीन बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय वीणायें प्रदान की, जिनके द्वारा उनका गुणानुवाद गा-गाकर लोग बहुत पुण्य उत्पन्न करेंगे। जैसा विष्णुकुमार ने वात्सल्य अंग का पालन कर अपने धर्म बन्धुओं के साथ प्रेम का अपूर्व परिचय दिया, उसी प्रकार और भव्य पुरुषों को भी अपने और दूसरों के हित के लिए समय-समय पर दूसरों के दुःखों में शामिल होकर वात्सल्य, उदार प्रेम का परिचय देना उचित है। इस प्रकार जिनभगवान् के परमभक्त विष्णुकुमार ने धर्म प्रेम के वश हो मुनियों का उपसर्ग दूरकर वात्सल्य अंग का पालन किया और पश्चात् ध्यानाग्नि द्वारा कर्मों का नाश कर मोक्ष गए। वे ही विष्णुकुमार मुनिराज मुझे भवसमुद्र से पार कर मोक्ष प्रदान करें ॥८९-९१॥
  6. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मैं संसारपूज्य जिनभगवान् को नमस्कार कर श्रीवारिषेण मुनि की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यग्दर्शन के स्थितिकरण नामक अंग का पालन किया है। अपनी सम्पदा से स्वर्ग को नीचा दिखाने वाले मगधदेश के अन्तर्गत राजगृह नाम का एक सुन्दर शहर था। उसके राजा थे श्रेणिक । वे सम्यग्दृष्टि थे, उदार थे और राजनीति के अच्छे विद्वान् थे। उनकी महारानी का नाम चेलना था। वह भी सम्यक्त्वरूपी अमोल रत्न से भूषित थी, बड़ी धर्मात्मा, सती और विदुषी थी । उसके एक पुत्र था। उसका नाम था वारिषेण । वारिषेण बहुत गुणी था, धर्मात्मा श्रावक था एक बार सत्य को जानने वाला यह वारिषेण चतुर्दशी की रात्रि में उपवास सहित कायोत्सर्ग से श्मशान में स्थित था । एक दिन मगधसुन्दरी नाम की एक वेश्या राजगृह के उपवन में क्रीड़ा करने को आई हुई थी। उसने वहाँ श्रीकीर्ति नामक सेठ के गले में एक बहुत ही सुन्दर रत्नों का हार पड़ा हुआ देखा। उसे देखते ही मगधसुन्दरी उसके लिए लालायित हो उठी। उसे हार के बिना अपना जीवन निरर्थक जान पड़ने लगा। सारा संसार उसे हारमय दिखने लगा। वह उदास मुँह घर पर लौट आई। रात के समय उसका प्रेमी विद्युत्चोर जब घर पर आया तब उसने मगधसुन्दरी को उदास मुँह देखकर बडे प्रेम से पूछा-प्रिये ! आज मैं तुम्हें उदास देखता हूँ, क्या इसका कारण तुम बतलाओगी? तुम्हारी यह उदासी मुझे अत्यन्त दुःखी कर रही है ॥२-८॥
    मगधसुन्दरी विद्युत् पर कटाक्षबाण चलाते हुए कहा- प्राणवल्लभ ! तुम मुझे इतना प्रेम करते हो, पर मुझे तो जान पड़ता है कि यह सब तुम्हारा दिखाऊ प्रेम है और सचमुच तुम्हारा यदि मुझ पर प्रेम है तो कृपाकर श्रीकीर्ति सेठ के गले का हार, जिसे आज मैंने बगीचे में देखा है और जो बहुत ही सुन्दर है, लाकर मुझे दीजिये; जिससे मेरी इच्छा पूरी हो । तब ही मैं समझँगी कि आप मुझ से सच्चा प्रेम करते हैं और तब ही मेरे प्राणवल्लभ होने के अधिकारी हो सकेंगे ॥९॥
    मगधसुन्दरी के जाल में फँसकर उसे इस कठिन कार्य के लिए भी तैयार होना पड़ा। वह उसे सन्तोष देकर उसी समय वहाँ से चल दिया और श्रीकीर्ति सेठ के महल पर पहुँचा। वहाँ से वह श्रीकीर्ति के शयनागार में गया और अपनी कार्यकुशलता से उसके गले में से हार निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ वहाँ से चल दिया । हार के दिव्य तेज को वह नहीं छुपा सका । सो भागते हुए उसे सिपाहियों ने देख लिया। वे उसे पकड़ने को दौड़े। वह भागता हुआ श्मशान की ओर निकल आया । वारिषेण इस समय श्मशान में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे। सो विद्युत्वोर मौका देखकर पीछे आने वाले सिपाहियों के पंजे से छूटने के लिए उस हार को वारिषेण के आगे पटक कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ। इतने में सिपाही भी वहीं आ पहुँचे, जहाँ वारिषेण को हार के पास खड़ा देखकर भौचक्के से रह गए। वे उसे उस अवस्था में देखकर हँसे और बोले- वाह, चाल तो खूब खेली गई? मानों हम कुछ जानते ही नहीं। तुझे धर्मात्मा जानकर हम छोड़ जायेंगे। पर याद रखिये हम अपने मालिक की सच्ची नौकरी करते हैं। हम तुम्हें कभी नहीं छोड़ेंगे यह कहकर वे वारिषेण को बाँधकर श्रेणिक के पास ले गए और राजा से बोले-महाराज, ये हार चुराकर लिए जा रहा था, सो हमने इन्हें पकड़ लिया॥१०-१३॥
    सुनते ही श्रेणिक का चेहरा क्रोध के मारे लाल सुर्ख हो गया, उनके ओठ काँपने लगे, आँखों से क्रोध की ज्वालाएँ निकलने लगीं। उन्होंने गरज कर कहा- देखो, इस पापी का नीच कर्म जो श्मशान में जाकर ध्यान करता है और लोगों को, यह बतलाकर कि मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ, ठगता है, धोखा देता है। पापी! कुल कलंक! देखा मैंने तेरा धर्म का ढोंग ! सच है - दुराचारी, लोगों को धोखा देने के लिए क्या-क्या अनर्थ नहीं करते? जिसे मैं राज्यसिंहासन पर बिठाकर संसार का अधीश्वर बनाना चाहता था, वह इतना नीच होगा? इससे बढ़कर और क्या कष्ट हो सकता है? अच्छा जो इतना दुराचारी है और प्रजा को धोखा देकर ठगता है उसका जीवित रहना सिवा हानि के लाभदायक नहीं हो सकता इसलिए जाओ इसे ले जाकर मार डालो ॥१४-१७॥
    अपने खास पुत्र के लिए महाराज की ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर सब चित्र लिखे से होकर महाराज की ओर देखने लगे। सबकी आँखों में पानी भर आया । पर किस की मजाल जो उनकी आज्ञा का प्रतिवाद कर सके। जल्लाद लोग उसी समय वारिषेण को बध्यभूमि में ले गए। उनमें से एक ने तलवार खींचकर बड़े जोर से वारिषेण की गर्दन पर मारी, पर यह क्या आश्चर्य? जो उसकी गर्दन पर बिल्कुल घाव नहीं हुआ किन्तु वारिषेण को उल्टा यह जान पड़ा - मानो किसी ने उस पर फूलों की माला फेंकी है। जल्लाद लोग देखकर दाँतों में अँगुली दबा गए। वारिषेण के पुण्य ने उसकी रक्षा की। सच है- ॥१८-२०॥
    पुण्य के उदय से अग्नि जल बन जाती है, समुद्र स्थल हो जाता है, विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है और विपत्ति सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इसलिए जो लोग सुख चाहते हैं, उन्हें पवित्र कार्यों द्वारा सदा पुण्य उत्पन्न करना चाहिए ॥२१-२२॥
    जिनभगवान् की पूजा करना, दान देना, व्रत-उपवास करना, सदा विचार पवित्र और शुद्ध रखना, परोपकार, हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापकर्मों का न करना ये पुण्य उत्पन्न करने के कारण हैं ॥२३॥
    वारिषेण की यह हालत देखकर सब उसकी जय जयकार करने लगे। देवों ने प्रसन्न होकर उस पर सुगंधित फूलों की वर्षा की। नगरवासियों को इस समाचार से बड़ा आनन्द हुआ । सबने एक स्वर से कहा कि, वारिषेण तुम धन्य हो, तुम वास्तव में साधु पुरुष हो, तुम्हारा चारित्र बहुत निर्मल है, तुम जिनभगवान् के सच्चे सेवक हो, तुम पवित्र पुरुष हो, तुम जैनधर्म के सच्चे पालन करने वाले हो । पुण्य-पुरुष, तुम्हारी जितनी प्रशंसा की जाये उतनी थोड़ी है। सच है, पुण्य से क्या नहीं होता? श्रेणिक ने जब इस अलौकिक घटना का हाल सुना तो उन्हें भीअपने अविचार पर बड़ा पश्चाताप हुआ। वे दुःखी होकर बोले- ॥२४-२९॥
    जो मूर्ख लोग आवेश में आकर बिना विचारे किसी काम को कर बैठते हैं, वे फिर बड़े भी क्यों न हों, उन्हें मेरी तरह दुःख ही उठाने पड़ते हैं । इसलिए चाहे कैसा ही काम क्यों न हो, उसे बड़े विचार के साथ करना चाहिए। श्रेणिक बहुत कुछ पश्चाताप करके पुत्र के पास श्मशान में आए। वारिषेण की पुण्यमूर्ति को देखते ही उनका हृदय पुत्र प्रेम से भर आया । उनकी आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने पुत्र को छाती से लगाकर रोते-रोते कहा- प्यारे पुत्र, मेरी मूर्खता को क्षमा करो! मैं क्रोध के मारे अन्धा बन गया था, इसलिए आगे पीछे का कुछ सोच विचार न कर मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। पुत्र, पश्चाताप से मेरा हृदय जल रहा है, उसे अपने क्षमारूपी जल से बुझाओ ! दुःख के समुद्र में मैं गोते खा रहा हूँ, मुझे सहारा देकर निकालो! ॥३०-३१॥
    अपने पूज्य पिता की यह हालत देखकर वारिषेण को बड़ा कष्ट हुआ । वह बोला- पिताजी, आप यह क्या कहते हैं? आप अपराधी कैसे? आपने तो अपने कर्तव्य का पालन किया है और कर्तव्य पालन करना कोई अपराध नहीं है। मान लीजिए कि यदि आप पुत्र-प्रेम के वश होकर मेरे लिए ऐसे दण्ड की आज्ञा न देते, तो उससे प्रजा क्या समझती ? चाहे मैं अपराधी नहीं भी था तब भी क्या प्रजा इस बात को देखती? वह तो यही समझती कि आपने मुझे अपना पुत्र जानकर छोड़ दिया। पिताजी, आपने बहुत ही बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का काम किया है। आप की नीतिपरायणता देखकर मेरा हृदय आनन्द समुद्र में लहरें ले रहा है। आपने पवित्र वंश की आज लाज रख ली। यदि आप ऐसे समय में अपने कर्तव्य से जरा भी खिसक जाते, तो सदा के लिए अपने कुल में कलंक का टीका लग जाता। इसके लिए तो आपको प्रसन्न होना चाहिए न कि दुःखी । हाँ इतना जरूर हुआ कि मेरे इस समय पापकर्म का उदय था; इसलिए मैं निरपराधी होकर भी अपराधी बना । पर इसका मुझे कुछ खेद नहीं क्योंकि - ॥३२॥ 
    अवश्य ह्यनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् - वादीभसिंह
    अर्थात्-जो जैसा कर्म करता है उसका शुभ या अशुभ फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है। फिर मेरे लिए कर्मों का फल भोगना कोई नई बात नहीं है।
    पुत्र के ऐसे उन्नत और उदार विचार सुनकर श्रेणिक बहुत आनन्दित हुए। वे सब दुःख भूल गए। उन्होंने कहा, पुत्र सत्पुरुषों ने बहुत ठीक लिखा है-
    चन्दन को कितना भी घिसिये, अगुरु को खूब जलाइये, उससे उनका कुछ न बिगड़कर उल्टा उनमें से अधिक-अधिक सुगन्ध निकलेगी । उसी तरह सत्पुरुषों को दुष्ट लोग कितना ही सतावें, कितना ही कष्ट दें, पर वे उससे कुछ भी विकार को प्राप्त नहीं होते, सदा शान्त रहते हैं और अपनी बुराई करने वाले का भी उपकार ही करते हैं ॥३३॥
    वारिषेण के पुण्य का प्रभाव देखकर विद्युत् चोर को बड़ा भय हुआ । उसने सोचा कि राजा को मेरा हाल मालूम हो जाने से वे मुझे बहुत कड़ी सजा देंगे। इससे यही अच्छा है कि मैं स्वयं ही जाकर उनसे सब सच्चा-सच्चा हाल कह दूँ। ऐसा करने से वे मुझे क्षमा भी कर सकेंगे। यह विचार कर विद्युत्चोर महाराज के सामने जा खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर उनसे बोला- प्रभो, यह सब पापकर्म मेरा है। पवित्रात्मा वारिषेण सर्वथा निर्दोष है। पापिनी वेश्या के जाल में फँसकर ही मैंने यह नीच काम किया था; पर आज से मैं कभी ऐसा काम नहीं करूँगा । मुझे दया करके क्षमा कीजिए ॥३४-३५॥
    विद्युत्चोर को अपने कृतकर्म के पश्चाताप से दुःखी देख श्रेणिक उसे अभय देकर अपने प्रिय पुत्र वारिषेण से बोले-पुत्र, अब राजधानी में चलो, तुम्हारी माता तुम्हारे वियोग से बहुत दुःखी हो रही होंगी ॥३६॥
    उत्तर में वारिषेण ने कहा - पिताजी, मुझे क्षमा कीजिए । मैंने संसार की लीला देख ली। मेरी आत्मा उसमें और प्रवेश करने के लिए मुझे रोकती है। इसलिए मैं अब घर पर न जाकर जिनभगवान् के चरणों का आश्रय ग्रहण करूँगा । सुनिये, अब मेरा कर्तव्य होगा कि मैं हाथ ही में भोजन करूँगा, सदा वन में रहूँगा और मुनि मार्ग पर चलकर अपना आत्महित करूँगा। मुझे अब संसार में घूमने की इच्छा नहीं, विषयवासना से प्रेम नहीं। मुझे संसार दुःखमय जान पड़ता है, इसलिए मैं जान-बूझकर अपने को दुःखों में फँसाना नहीं चाहता क्योंकि-
    निजे पाणौ दीपे लसति भुवि कूपे निपततां फलं किं तेन स्यादिति - जीवंधर चम्पू
    अर्थात्-हाथ में प्रदीप लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरना चाहे, तो बतलाइए उस दीपक से क्या लाभ? जब मुझे दो अक्षरों का ज्ञान है और संसार की लीला से मैं अपरिचित नहीं हूँ; इतना होकर भी फिर मैं यदि उसमें फँसू, तो मुझसा मूर्ख और कौन होगा? इसलिए आप मुझे क्षमा कीजिए कि मैं आपकी पालनीय आज्ञा का भी बाध्य होकर विरोध कर रहा हूँ । यह कहकर वारिषेण फिर एक मिनट के लिए भी न ठहर कर वन की ओर चल दिया और श्रीसूरदेव मुनि के पास जाकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ॥३७-३९॥
    तपस्वी बनकर वारिषेण मुनि बड़ी दृढ़ता के साथ चारित्र का पालन करने लगे। वे अनेक देश- विदेशों में घूम-घूम कर धर्मोपदेश करते हुए एक बार पलाशकूट नामक शहर में पहुँचे। वहाँ श्रेणिक का मन्त्री अग्निभूति रहता था। उसका एक पुष्पडाल नाम का पुत्र था। वह बहुत धर्मात्मा था और दान, व्रत, पूजा आदि सत्कर्मों के करने में सदा तत्पर रहा करता था । वह वारिषेण मुनि को भिक्षार्थ आए हुए देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके सामने गया और भक्तिपूर्वक उनका आह्वान कर उसने नवधा भक्ति सहित उन्हें प्रासुक आहार दिया । आहार करके जब वारिषेण मुनि वन में जाने लगे तब पुष्पडाल भी कुछ तो भक्ति से, कुछ बालपने की मित्रता के नाते से और कुछ राजपुत्र होने के लिहाज से उन्हें थोड़ी दूर पहुँचाने के लिए अपनी स्त्री से पूछकर उनके पीछे-पीछे चल दिया। वह दूर तक जाने की इच्छा न रहते हुए भी मुनि के साथ-साथ चलता गया क्योंकि उसे विश्वास था कि थोड़ी दूर जाने के बाद ये मुझे लौट जाने के लिए कहेंगे ही। पर मुनि ने उसे कुछ नहीं कहा, तब उसकी चिन्ता बढ़ गई उसने मुनि को यह समझाने के लिए, कि मैं शहर से बहुत दूर निकल आया हूँ, मुझे घर पर जल्दी लौट जाना है, कहा-कुमार, देखते हैं यह वी सरोवर है, जहाँ हम आप खेला करते थे; यह वही छायादार और उन्नत आम का वृक्ष है, जिसके नीचे आप हम बाललीला का सुख लेते थे और देखो, यह वही विशाल भूभाग है, जहाँ मैंने और आपने बालपन में अनेक खेल खेले थे इत्यादि अपने पूर्व परिचित चिह्नों को बार-बार दिखलाकर पुष्पडाल ने मुनि का ध्यान अपने दूर निकल आने की ओर आकर्षित करना चाहा, पर मुनि उसके हृदय की बात जानकर भी उसे लौट जाने को न कह सके । कारण, वैसा करना उनका मार्ग नहीं था । इसके विपरीत उन्होंने पुष्पडाल के कल्याण की इच्छा से उसे खूब वैराग्य का उपदेश देकर मुनिदीक्षा दे दी । पुष्पडाल मुनि हो गया, संयम का पालन करने लगा और खूब शास्त्रों का अभ्यास करने लगा; पर तब भी उसकी विषयवासना न मिटी, उसे अपनी स्त्री की बार-बार याद आने लगी। आचार्य कहते हैं कि - ॥४०-५२॥
    उस काम को, उस मोह को, उन भोगों को धिक्कार है, जिनके वश होकर उत्तम मार्ग से चलने वाले भी अपना हित नहीं कर पाते। यही हाल पुष्पडाल का हुआ, जो मुनि होकर भी वह अपनी स्त्री को हृदय न भुला सका ॥५३॥
    इसी तरह पुष्पडाल को बारह वर्ष बीत गए। उसकी तपश्चर्या सार्थक होने के लिए गुरु ने उसे तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी और उसके साथ वे भी चले । यात्रा करते-करते एक दिन वे भगवान् वर्धमान के समवसरण में पहुँच गए। भगवान् को उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उस समय वहाँ गंधर्वदेव भगवान् की भक्ति कर रहे थे । उन्होंने काम की निन्दा में एक पद्य पढ़ा। वह सब यह था- ॥५४-५६॥
    'स्त्री चाहे मैली हो, कुचैली हो, हृदय की मलिन हो, पर वह भी अपने पति के प्रवासी होने पर, विदेश में रहने पर, पतिवियोग से वन-वन, पर्वतों - पर्वतों में मारी-मारी फिरती है अर्थात् काम के वश होकर नहीं करने के काम भी कर डालती है । "
    उक्त पद्य को सुनते ही पुष्पडाल मुनि भी काम से पीड़ित होकर अपनी स्त्री की प्राप्ति के लिए अधीर हो उठे। वे व्रत से उदासीन होकर अपने शहर की ओर रवाना हुए। उनके हृदय की बात जानकर वारिषेण मुनि भी उन्हें धर्म में दृढ़ करने के लिए उनके साथ-साथ चल दिये ॥५७-५८॥
    गुरु और शिष्य अपने शहर में पहुँचे। उन्हें देखकर सती चेलना ने सोचा-कि जान पड़ता है, पुत्र चारित्र से चलायमान हुआ है। नहीं तो ऐसे समय इसके यहाँ आने की क्या आवश्यकता थी? वह विचार कर उसने उसकी परीक्षा के लिए उसके बैठने को दो आसन दिये। उनमें एक काष्ठ का था और दूसरा रत्नजड़ित । वारिषेण मुनि रत्नजड़ित आसन पर न बैठकर काष्ठ के आसन पर बैठे। सच है - जो सच्चे मुनि होते हैं वे कभी ऐसा तप नहीं करते जिससे उनके आचरण में किसी को सन्देह हो । इसके बाद वारिषेण मुनि ने अपनी माता के सन्देह को दूर करके उनसे कहा-माता, कुछ समय के लिए मेरी सब स्त्रियों को यहाँ बुलवा लीजिये । महारानी ने वैसा ही किया । वारिषेण की सब स्त्रियाँ खूब वस्त्राभूषणों से सजकर उनके सामने आ उपस्थित हुई वे बड़ी सुन्दरी थीं । देवकन्यायें भी उनके रूप को देखकर लज्जित होती थीं। मुनि को नमस्कार कर वे सब उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा के लिए खड़ी रहीं ॥५९-६५॥
    वारिषेण ने तब अपने शिष्य पुष्पडाल से कहा- क्यों देखते हो न? ये मेरी स्त्रियाँ हैं, यह राज्य है, यह सम्पत्ति है, यदि तुम्हें ये अच्छी जान पड़ती हैं, तुम्हारा संसार से प्रेम है, तो इन्हें तुम स्वीकार करो । वारिषेण मुनिराज का यह आश्चर्य में डालने वाला कर्तव्य देखकर पुष्पडाल बड़ा लज्जित हुआ। उसे अपनी मूर्खता पर बहुत खेद हुआ। वह मुनि के चरणों को नमस्कार कर बोला-प्रभो, आप धन्य हैं, आपने लोभरूपी पिशाच को नष्ट कर दिया है, आप ही ने जिनधर्म का सच्चा सार समझा है। संसार में वे ही बड़े पुरुष हैं, महात्मा हैं, जो आपके समान संसार की सब सम्पत्ति को लात मारकर वैरागी बनते हैं। उन महात्माओं के लिए फिर कौन वस्तु संसार में दुर्लभ रह जाती हैं? दयासागर, मैं तो सचमुच जन्मान्ध हूँ, इसीलिए तो मौलिक तपरत्न को प्राप्त कर भी अपनी स्त्री को चित्त से अलग नहीं कर सका। प्रभो, जहाँ आपने बारह वर्ष पर्यन्त खूब तपश्चर्या की वहाँ मुझ पापी ने इतने दिन व्यर्थ गँवा दिये-सिवा आत्मा को कष्ट पहुँचाने के कुछ नहीं किया । स्वामी, मैं बहुत अपराधी हूँ इसलिए दया करके मुझे अपने पाप का प्रायश्चित्त देकर पवित्र कीजिए । पुष्पडाल के भावों का परिवर्तन और कृतकर्मddे पश्चाताप से उनके परिणामों की कोमलता तथा पवित्रता देखकर वारिषेण मुनिराज बोले-धीर! इतने दुःखी न बनिये। पापकर्मों के उदय से कभी-कभी अच्छे-अच्छे विद्वान् भी हतबुद्धि हो जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । यही अच्छा हुआ जो तुम पीछे अपने मार्ग परआ गए। इसके बाद उन्होंने पुष्पडाल मुनि को उचित प्रायश्चित्त देकर धर्म में स्थिर किया, अज्ञान के कारण सम्यग्दर्शन से विचलित देखकर उनका धर्म में स्थितिकरण किया ॥६६-७५॥
    पुष्पडाल मुनि गुरु महाराज की कृपा से अपने हृदय को शुद्ध बनाकर बड़े वैराग्य भावों से कठिन-कठिन तपश्चर्या करने लगे, भूख-प्यास की कुछ परवाह न कर परीषह सहने लगे।
    इसी प्रकार अज्ञान व मोह से कोई धर्मात्मा पुरुष धर्मरूपी पर्वत से गिरता हो, तो उसे सहारा देकर न गिरने देना चाहिए । जो धर्मज्ञ पुरुष इस पवित्र स्थितिकरण अंग का पालन करते हैं, समझो कि वे स्वर्ग और मोक्ष सुख के देने वाले धर्मरूपी वृक्ष को सींचते हैं । शरीर, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदि अस्थिर हैं, विनाशक हैं इनकी रक्षा भी जब कभी - कभी सुख देने वाली हो जाती है तब अनन्तसुख देने वाली धर्म की रक्षा का कितना महत्त्व होगा, यह सहज में जाना जा सकता है। इसलिए धर्मात्माओं को दुःख देने वाले प्रमाद को छोड़कर संसार - समुद्र से पार करने वाले पवित्र धर्म का सेवन करना चाहिए ॥७६-८०॥
    श्रीवारिषेण मुनि, जो कि सदा जिनभगवान् की भक्ति में लीन रहते थे, तप पर्वत से गिरते हुए पुष्पडाल मुनि को हाथ का सहारा देकर तपश्चर्या और ध्यानाध्ययन करने के लिए वन में चले गए, वे प्रसिद्ध महात्मा आत्मसुख प्रदान कर मुझे भी संसार - समुद्र से पार करें ॥८१॥
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    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले श्रीजिनभगवान् को नमस्कार कर मैं जिनेन्द्रभक्त की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने कि सम्यग्दर्शन के उपगूहन अंग का पालन किया था ॥१॥
    नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र और दयालु पुरुषों से परिपूर्ण सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत एक पाटलिपुत्र नाम का शहर था । जिस समय की कथा है, उस समय वहाँ के राजा यशोध्वज थे। उनकी रानी का नाम सुसीमा था । वह बड़ी सुन्दर थी । उसके एक पुत्र था। उसका नाम था सुवीर । बेचारी सुसीमा के पाप के उदय से वह महाव्यसनी और चोर हुआ। सच तो यह है जिन्हें आगे कुयोनियों के दुःख भोगना होता है, उनका न तो अच्छे कुल में जन्म लेना काम आता है और न ऐसे पुत्रों से बेचारे माता-पिता को सुख होता है ॥२-५॥
    गोड़देश के अन्तर्गत ताम्रलिप्ता नाम की एक पुरी है । उसमें एक सेठ रहते थे। उनका नाम था जिनेन्द्रभक्त । जैसा उनका नाम था वैसे ही वे जिनभगवान् के भक्त थे भी । जिनेन्द्रभक्त सच्चे सम्यग्दृष्टि थे और अपने श्रावक धर्म का बराबर सदा पालन करते थे । उन्होंने बड़े - बड़े विशाल जिनमन्दिर बनवाएँ, बहुत से जीर्ण मन्दिरों का उद्धार किया, जिनप्रतिमायें बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करवाई और चारों संघों को खूब दान दिया, उनका खूब सत्कार किया ॥६-९॥
    सम्यग्दृष्टि शिरोमणि जिनेन्द्रभक्त का महल सात मंजिला था। उसकी अन्तिम मंजिल पर एक बहुत ही सुन्दर जिन चैत्यालय था । चैत्यालय में श्री पार्श्वनाथ भगवान् की बहुत मनोहर और रत्नमयी प्रतिमा थी। उस पर तीन छत्र, जो कि रत्नों के बने हुए थे, बड़ी शोभा दे रहे थे । उन छत्रों पर एक वैडूर्यमणि नाम का अत्यन्त कान्तिमान् बहुमूल्य रत्न लगा हुआ था। इस रत्न का हाल सुवीर ने सुना। उसने अपने साथियों को बुलाकर कहा - सुनते हो, जिनेन्द्रभक्त सेठ के चैत्यालय में प्रतिमा पर लगे हुए छत्रों में एक रत्न लगा हुआ है, वह अमोल है। क्या तुम लोगों में से कोई उसे ला सकता है? सुनकर उनमें से एक सूर्य नाम का चोर बोला, यह तो एक अत्यन्त साधारण बात है। यदि वह रत्न इन्द्र के सिर पर भी होता, तो मैं उसे क्षणभर में ला सकता था । यह सच भी है कि जो जितने ही दुराचारी होते हैं वे उतना ही पाप कर्म भी कर सकते हैं ॥१०-१५ ॥
    सूर्य के लिए रत्न लाने की आज्ञा हुई वहाँ से आकर उसने मायावी क्षुल्लक का वेष धारण किया। क्षुल्लक बनकर वह व्रत उपवासादि करने लगा । उससे उसका शरीर बहुत दुबला-पतला हो गया। इसके बाद वह अनेक शहरों और ग्रामों में घूमता हुआ और लोगों को अपने कपटी वेष से ठगता हुआ कुछ दिनों में ताम्रलिप्ता पुरी में आ पहुँचा। जिनेन्द्रभक्त सच्चे धर्मात्मा थे, इसलिए उन्हें धर्मात्माओं को देखकर बड़ा प्रेम होता था । उन्होंने जब इस धूर्त क्षुल्लक का आगमन सुना तो उन्हें
    बड़ी प्रसन्नता हुई वे उसी समय घर का सब कामकाज छोड़कर क्षुल्लक महाराज की वन्दना करने के लिए गए। उसे तपश्चर्या से क्षीण शरीर देखकर उनकी उस पर और अधिक श्रद्धा हुई उन्होंने भक्ति के साथ क्षुल्लक को प्रणाम किया और बाद वे उसे अपने महल लिवा लाये । सब बात यह है कि - ॥१६-१९॥
     जिनकी धूर्तता से अच्छे-अच्छे विद्वान् भी जब ठगे जाते हैं, तब बेचारे साधारण पुरुषों की क्या मजाल जो वे उनकी धूर्तता का पता पा सकें क ॥२०॥ 
    क्षुल्लक जी ने चैत्यालय में पहुँच कर जब उस मणि को देखा तो उनका हृदय आनन्द के मारे बाँसों उछलने लगा। वे बहुत सन्तुष्ट हुए। जैसे सुनार अपने पास कोई रकम बनवाने के लिए लाये हुए पुरुष के पास का सोना देखकर प्रसन्न होता है क्योंकि उसकी नियत सदा चोरी की ओर ही लगी रहती है ॥२१॥
    जिनेन्द्रभक्त को उसके मायाचार का कुछ पता नहीं लगा। इसलिए उन्होंने उसे बड़ा धर्मात्मा समझ कर और मायाचारी से क्षुल्लक के मना करने पर भी जबरन अपने जिनालय की रक्षा के लिए उसे नियुक्त कर दिया और आप उससे पूछकर समुद्रयात्रा करने के लिए चल पड़े ॥२२-२३॥
    जिनेन्द्रभक्त के घर बाहर होते ही क्षुल्लक जी की बन पड़ी । आधी रात के समय आप उस तेजस्वी रत्न को कपड़ों में छुपाकर घर से बाहर हो गए। पर पापियों का पाप कभी नहीं छुपता । यही कारण था कि रत्न लेकर भागते हुए उसे सिपाहियों ने देख लिया। वे उसे पकड़ने को दौड़े। क्षुल्लक जी दुबले पतले तो पहले ही से हो रहे थे, इसलिए वे अपने को भागने में असक्त समझ लाचार होकर जिनेन्द्रभक्त की ही शरण में गए और प्रभो, बचाइये ! बचाइये !! यह कहते हुए उनके पाँवों में गिर पड़े। जिनेन्द्रभक्त ने, ‘चोर भागा जाता है ! इसे पकड़ना' ऐसा हल्ला सुन करके जान लिया कि यह चोर है और क्षुल्लक वेष में लोगों को ठगता फिरता है । यह जानकर भी सम्यग्दर्शन की निन्दा के भय से जिनेन्द्रभक्त ने क्षुल्लक के पकड़ने को आए हुए सिपाहियों से कहा- आप लोग बड़े कम समझ के हैं !
    आपने बहुत बुरा किया जो एक तपस्वी को चोर बतला दिया। रत्न तो ये मेरे कहने से लाये हैं। आप नहीं जानते कि ये बड़े सच्चरित्र साधु हैं? अस्तु । आगे से ध्यान रखिये। जिनेन्द्रभक्त के वचनों को सुनते ही सब सिपाही लोग ठण्डे पड़ गए और उन्हें नमस्कार कर चलते बने ॥२४-३०॥
    जब सब सिपाही चले गए तब जिनेन्द्रभक्त ने क्षुल्लक जी से रत्न लेकर एकान्त में उनसे कहा- बड़े दुःख की बात है कि तुम ऐसे पवित्र वेष को धारण कर उसे ऐसे नीच कर्मों से लजा रहे हो? तुम्हें यही उचित है क्या? याद रक्खो, ऐसे अनर्थों से तुम्हें कुगतियों में अनन्त काल दुःख भोगना पड़ेंगे। शास्त्रकारों ने पापी पुरुषों के लिए लिखा है कि- ॥३१-३२॥
    अर्थात्-जो पापी लोग न्यायमार्ग को छोड़कर और पाप के द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार समुद्र में अनन्त काल दुःख भोगते हैं। ध्यान रक्खो कि अनीति से चलने वाले और अत्यन्त तृष्णावान् तुम सरीखे पापी लोग बहुत ही जल्दी नाश को प्राप्त होते हैं । तुम्हें उचित है, तुम बड़ी कठिनता से प्राप्त हुए इस मनुष्य जन्म को इस तरह बर्बाद न कर कुछ आत्म हित करो। इस प्रकार शिक्षा देकर जिनेन्द्रभक्त ने अपने स्थान से उसे अलग कर दिया ॥३३-३५॥
    इसी प्रकार और भी भव्य पुरुषों को, दुर्जनों के मलिन कर्मों से निन्दा को प्राप्त होने वाले सम्यग्दर्शन की रक्षा करनी उचित है। जिनभगवान् का शासन पवित्र है, निर्दोष है, उसे जो सदोष बनाने की कोशिश करते हैं, वे मूर्ख हैं, उन्मत्त हैं। ठीक भी है उन्हें वह निर्दोष धर्म अच्छा जान भी नहीं पड़ता। जैसे पित्तज्वर वाले को अमृत के समान मीठा दूध भी कड़वा ही लगता है ॥३६-३७॥

     
  8. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार का हित करने वाले जिनभगवान् को परम भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अमूढदृष्टि अंग का पालन करने वाली रेवती रानी की कथा लिखता हूँ । विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघकूट नाम का एक सुन्दर शहर है। उसके राजा हैं चन्द्रप्रभ। चन्द्रप्रभ ने बहुत दिनों तक सुख के साथ अपना राज्य किया। एक दिन वे बैठे हुए थे कि एकाएक उन्हें तीर्थयात्रा करने की इच्छा हुई। राज्य का कारोबार अपने चन्द्रशेखर नाम के पुत्र को सौंपकर वे तीर्थयात्रा के लिए चल दिये। वे यात्रा करते हुए दक्षिण मथुरा में आये। उन्हें पुण्य से वहाँ गुप्ताचार्य के दर्शन हुए। आचार्य से चन्द्रप्रभ ने धर्मोपदेश सुना। उनके उपदेश का उन पर बहुत असर पड़ा। वे आचार्य के द्वारा-
    प्रोक्तः परोपकारोऽत्र महापुण्याय भूतले । - ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् परोपकार करना महान् पुण्य का कारण है, यह जानकर और तीर्थयात्रा करने के लिए एक विद्या को अपने अधिकार में रखकर क्षुल्लक बन गये ॥१-६॥
    एक दिन उनकी इच्छा उत्तर मथुरा की यात्रा करने की हुई। जब वे जाने को तैयार हुए तब उन्होंने अपने गुरु महाराज से पूछा- हे दया के समुद्र ! मैं यात्रा के लिए जा रहा हूँ, क्या आपको कुछ समाचार तो किसी के लिए नहीं कहना है ? गुप्ताचार्य बोले- मथुरा में एक सूरत नाम के बड़े ज्ञानी और गुणी मुनिराज हैं, उन्हें मेरा नमस्कार कहना और सम्यग्दृष्टिनी धर्मात्मा रेवती के लिए मेरी धर्मवृद्धि
    कहना ॥७-९॥
    क्षुल्लक ने और पूछा कि इसके सिवा और भी आपको कुछ कहना है क्या ? आचार्य ने कहा नहीं। तब क्षुल्लक ने विचारा कि क्या कारण है जो आचार्य ने एकादशांग के ज्ञाता श्री भव्यसेन मुनि तथा और-और मुनियों की रहते उन्हें कुछ नहीं कहा और केवल सूरत मुनि और रेवती के लिए ही नमस्कार किया तथा धर्मवृद्धि दी ? इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। अस्तु । जो कुछ होगा वह आगे स्वयं मालूम हो जायेगा। यह सोचकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक वहाँ से चल दिये। उत्तर मथुरा पहुँचकर उन्होंने सूरत मुनि को गुप्ताचार्य की वन्दना कह सुनाई । उससे सूरत मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने चन्द्रप्रभ के साथ खूब वात्सल्य का परिचय दिया । उससे चन्द्रप्रभ को बड़ी खुशी हुई। बहुत ठीक कहा है ॥१०-१२॥
    ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः ।
    साधर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले ॥ - ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् संसार में उन्हीं का जन्म लेना सफल है जो धर्मात्माओं से वात्सल्य-प्रेम करते हैं।
    इसके बाद क्षुल्लक चन्द्रप्रभ एकादशांग के ज्ञाता, पर नाम मात्र के भव्यसेन मुनि के पास गये। उन्होंने भव्यसेन को नमस्कार किया । पर भव्यसेन मुनि ने अभिमान में आकर चन्द्रप्रभ को धर्मवृद्धि तक भी न दी। ऐसे अभिमान को धिक्कार है जिन अविचारी पुरुषों के वचनों में भी दरिद्रता है जो वचनों से भी प्रेमपूर्वक आये हुए अतिथि से नहीं बोलते वे उनका और क्या सत्कार करेंगे ? उनसे तो स्वप्न में भी अतिथिसत्कार नहीं बन सकेगा। जैन शास्त्रों का ज्ञान सब दोषों से रहित है, निर्दोष है। उसे प्राप्त कर हृदय पवित्र होना ही चाहिए। पर खेद है कि उसे पाकर भी मान होता है। पर यह शास्त्र का दोष नहीं किन्तु यों कहना चाहिए कि पापियों के लिए अमृत भी विष हो जाता है। जो हो, तब भी देखना चाहिए कि इनमें कुछ भी भव्यपना है भी या केवल नाम मात्र के ही भव्य हैं? यह विचार कर दूसरे दिन सबेरे जब भव्यसेन कमण्डलु लेकर शौच के लिए चले तब उनके पीछे-पीछे चन्द्रप्रभ क्षुल्लक भी हो लिए। आगे चलकर क्षुल्लक महाशय ने अपने विद्याबल से भव्यसेन के आगे की भूमि को कोमल और हरे-हरे तृणों से युक्त कर दिया । भव्यसेन उसकी कुछ परवाह न कर और यह विचार कर कि जैनशास्त्रों में तो इन्हें एकेन्द्री कहा है, इनकी हिंसा का विशेष पाप नहीं होता, उस पर से निकल गए। आगे चलकर जब वे शौच हो लिए और शुद्धि के लिए कमण्डलु की ओर देखा तो उसमें जल नहीं और वह औंधा पड़ा हुआ है, तब तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई । इतने में एकाएक क्षुल्लक महाशय भी उधर आ निकले। कमण्डलु का जल यद्यपि क्षुल्लकजी ने ही अपने विद्याबल से सुखा दिया था, तब भी वे बड़े आश्चर्य के साथ भव्यसेन से बोले- मुनिराज, पास ही एक निर्मल जल का सरोवर भरा हुआ है, वहीं जाकर शुद्धि कर लीजिए न? भव्यसेन ने अपने पदस्थ पर, अपने कर्तव्य पर कुछ भी ध्यान न देकर जैसा क्षुल्लक ने कहा, वैसा ही कर लिया। सच बात तो यह है - ॥१३-२३॥
    किं करोति न मूढात्मा कार्यं मिथ्यात्वदूषितः ।
    न स्यान्मुक्तिप्रदं ज्ञानं चरित्रं दुर्दशामपि ॥
     उद्गतो भास्करश्चापि किं घूकस्य सुखायते ।
     मिथ्यादृष्टेः श्रुतं शास्त्रं कुमार्गाय प्रवर्तते ।
    यथा मृष्टं भवेत्कष्टं सुदुग्धं तुम्बिकागतम् ॥ -ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् मूर्ख पुरुष मिथ्यात्व के वश होकर कौन बुरा काम नहीं करते ? मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान और चारित्र मोक्ष का कारण नहीं होता । जैसे सूर्य के उदय से उल्लू को कभी सुख नहीं होता। मिथ्यादृष्टियों का शास्त्र सुनना, शास्त्राभ्यास करना केवल कुमार्ग में प्रवृत होने का कारण है। जैसे मीठा दूध भी तूबड़ी के सम्बन्ध से कड़वा हो जाता है। इन सब बातों को विचार क्षुल्लक ने भव्यसेन के आचरण से समझ लिया कि ये नाम मात्र के जैनी हैं, पर वास्तव में इन्हें जैनधर्म पर श्रद्धान नहीं, ये मिथ्यात्वी हैं। उस दिन से चन्द्रप्रभ ने भव्यसेन का नाम अभव्यसेन रखा। सच बात है दुराचार से क्या नहीं होता ? ॥२४-२८॥
    क्षुल्लक ने भव्यसेन की परीक्षा कर अब रेवती रानी की परीक्षा करने का विचार किया। दूसरे दिन उसने अपने विद्याबल से कमल पर बैठे हुए और वेदों का उपदेश करते हुए चतुर्मुख ब्रह्मा का वेष बनाया और शहर से पूर्व दिशा की ओर कुछ दूरी पर जंगल में वह ठहरा। यह हाल सुनकर राजा, भव्यसेन आदि सभी वहाँ गए और ब्रह्माजी को उन्होंने नमस्कार किया। उनकी चरण वंदना कर वे बड़े खुश हुए। राजा ने चलते समय अपनी प्रिया रेवती से भी ब्रह्माजी की वन्दना के लिए चलने को कहा था, पर रेवती सम्यक्त्व रत्न से भूषित थी, जिनभगवान् की अनन्यभक्त थी इसलिए वह नहीं गई। उसने राजा से कहा-महाराज, मोक्ष और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र को प्राप्त कराने वाला सच्चा ब्रह्मा जिनशासन में आदि जिनेन्द्र कहा गया है, उसके सिवा अन्य ब्रह्मा हो ही नहीं सकता और जिस ब्रह्मा की वन्दना के लिए आप जा रहे हैं, वह ब्रह्मा नहीं है किन्तु कोई धूर्त ठगने के लिए ब्रह्मा का वेष लेकर आया है। मैं तो नहीं चलूँगी ॥ २९-३५॥
    दूसरे दिन क्षुल्लक ने गरुड़ पर बैठे हुए, चतुर्बाहु, शंख, चक्र, गदा आदि से युक्त और दैत्यों को कँपाने वाले वैष्णव भगवान् का वेष बनाकर दक्षिण दिशा में अपना डेरा जमाया ॥३६-३७॥
    तीसरे दिन उस बुद्धिमान् क्षुल्लक ने बैल पर बैठे हुए, पार्वती के मुख कमल को देखते हुए, सिर पर जटा रखाये हुए, गणपति युक्त और जिन्हें हजारों देव आ-आकर नमस्कार कर रहे हैं, ऐसा शिव का वेष धारण कर पश्चिम दिशा की शोभा बढ़ाई ॥३८-३९॥
    चौथे दिन उसने अपनी माया से सुन्दर समवसरण में विराजे हुए, आठ प्रातिहार्यों से विभूषित, मिथ्यादृष्टियों के मान को नष्ट करने वाले मानस्तंभादि से युक्त, निर्ग्रन्थ और जिन्हें हजारों देव,विद्याधर, चक्रवर्ती आ-आकर नमस्कार करते हैं, ऐसा संसार श्रेष्ठ तीर्थंकर का वेष बनाकर उत्तर दिशा को अलंकृत किया। तीर्थंकर भगवान् का आगमन सुनकर सबको बहुत आनन्द हुआ। सब प्रसन्न होते हुए भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करने को गए । राजा, भव्यसेन आदि भी उनमें शामिल थे । तीर्थंकर भगवान् के दर्शनों के लिए भी रेवती रानी को न जाती हुई देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ । बहुतों ने उससे चलने के लिए आग्रह भी किया, पर वह न गई कारण, वह सम्यक्त्वरूप मौलिक रत्न से भूषित थी, उसे जिनभगवान् के वचनों पर पूरा विश्वास था कि तीर्थंकर परम देव चौबीस ही होते हैं और वासुदेव नौ और रुद्र ग्यारह होते हैं। फिर उनकी संख्या को तोड़ने वाले ये दसवें वासुदेव, बारहवें रुद्र और पच्चीसवें तीर्थंकर आ कहाँ से सकते हैं? वे तो अपने-अपने कर्मों के अनुसार जहाँ उन्हें जाना था वहाँ चले गए। फिर यह नई सृष्टि कैसी ? इनमें न तो कोई सच्चा रुद्र है, न वासुदेव है और न तीर्थंकर है किन्तु कोई मायावी ऐन्द्रजालिक अपनी धूर्तता से लोगों को ठगने के लिए आया है। यह विचार कर रेवती रानी तीर्थंकर की वन्दना के लिए भी नहीं गई। सच है कहीं वायु से मेरु पर्वत भी चला है? ॥४०-४८॥
    इसके बाद चन्द्रप्रभ, क्षुल्लक वेष ही में, पर अनेक प्रकार की व्याधियों से युक्त तथा अत्यन्त मलिन शरीर होकर रेवती के घर भिक्षा के लिए पहुँचे। आँगन में पहुँचते ही वे मूर्च्छा खाकर पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पड़े। उन्हें देखते ही धर्मवत्सला रेवती रानी हाय-हाय कहती हुई उनके पास दौड़ी गई और बड़ी भक्ति और विनय से उसने उन्हें उठाकर सचेत किया। इसके बाद अपने महल में ले जाकर बड़े कोमल और पवित्र भावों से उसने उन्हें प्रासुक आहार कराया। सच है जो दयावान् होते हैं उनकी बुद्धि दान देने में स्वभाव ही से तत्पर रहती है ॥४९-५३॥
    क्षुल्लक को अब तक भी रेवती की परीक्षा से सन्तोष नहीं हुआ। सो उन्होंने भोजन करने के साथ ही वमन कर दिया, जिसमें अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही थी क्षुल्लक की यह हालत देखकर रेवती को बहुत दुःख हुआ। उसने बहुत पश्चाताप किया कि न जाने क्या अपथ्य मुझ पापिनी के द्वारा दे दिया गया, जिससे इनकी यह हालत हो गई मेरी इस असावधानता को धिक्कार है । इस प्रकार बहुत कुछ है पश्चाताप करके उसने क्षुल्लक का शरीर पोंछा और बाद में कुछ गरम जल से उसे धोकर साफ किया ॥५४-५६॥
    क्षुल्लक रेवती की भक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हुए। वे अपनी माया समेट कर बड़ी खुशी के साथ रेवती से बोले-देवी, संसार श्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गुप्ताचार्य की धर्मवृद्धि तेरे मन को पवित्र करे, जो कि सब सिद्धियों की देने वाली है और तुम्हारे नाम से मैंने यात्रा में जहाँ-जहाँ जिनभगवान् की पूजा की है वह भी तुम्हें कल्याण की देने वाली हो ॥५७-६०॥
    देवी, तुमने जिन संसार श्रेष्ठ और संसार समुद्र से पार करने वाले अमूढदृष्टि अंग को ग्रहण किया है, उसकी मैंने नाना तरह से परीक्षा की, पर उसमें तुम्हें अचल पाया तुम्हारे इस त्रिलोक पूज्य सम्यक्त्व की कौन प्रशंसा करने को समर्थ हैं? कोई नहीं । इस प्रकार गुणवती रेवती रानी की प्रशंसा कर और उसे सब हाल कहकर क्षुल्लक अपने स्थान चले गए ॥६१-६३॥
    इसके बाद वरुण नृपति और रेवती रानी का बहुत समय सुख के साथ बीता। एक दिन राजा को किसी कारण से वैराग्य हो गया है। वे अपने शिवकीर्ति नामक पुत्र को राज्य सौंपकर और सब माया जाल तोड़कर तपस्वी बन गए। साधु बनकर उन्होंने खूब तपश्चर्या की और आयु के अन्त में समाधिमरण कर वे माहेन्द्र स्वर्ग में जाकर देव हुए ॥६४-६५॥
  9. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार-श्रेष्ठ जिनभगवान्, जिनवाणी और जैन ऋषियों को नमस्कार कर उदयन राजा की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यक्त्व के तीसरे निर्विचिकित्सा अंग का पालन किया है ॥१॥
    उड्वायन रौरवक नामक शहर के राजा थे, जो कि कच्छदेश के अन्तर्गत था। उड्वायन सम्यग्दृष्टि थे, दानी थे, विचारशील थे, जिनभगवान् के सच्चे भक्त थे और न्यायी थे । सुतरां प्रजा का उन पर बहुत प्रेम था और वे भी प्रजा के हित में सदा उद्यत रहा करते थे ॥२-३॥
    उसकी रानी का नाम प्रभावती था। वह भी सती थी, धर्मात्मा थी । उसका मन सदा पवित्र रहता था। वह अपने समय को प्रायः दान, पूजा, व्रत, उपवास, स्वाध्यायादि में बिताती थी ॥४॥
    उड्वायन अपने राज्य का शान्ति और सुख से पालन करते और अपनी शक्ति के अनुसार जितना बन पड़ता, उतना धार्मिक काम करते। कहने का मतलब यह कि वे सुखी थे, उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी। उनका राज्य भी शत्रु रहित निष्कंटक था ॥५॥
    एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में धर्मोपदेश कर रहा था कि संसार में सच्चे देव अरहन्त भगवान् हैं, जो कि भूख, प्यास, रोग, शोक, भय, जन्म, जरा, मरण आदि दोषों से रहित और जीवों को संसार के दुःखों से छुड़ाने वाले हैं; सच्चा धर्म, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दशलक्षण रूप है; गुरु निर्ग्रन्थ हैं; जिनके पास परिग्रह का नाम निशान नहीं और जो क्रोध, मान, माया, लोभ, द्वेष आदि से रहित हैं और वह सच्ची श्रद्धा है, जिससे जीवाजीवादिक पदार्थों में रुचि होती है। वही रुचि स्वर्ग-मोक्ष की देने वाली है। यह रुचि अर्थात् श्रद्धा धर्म में प्रेम करने से, तीर्थयात्रा करने से, रथोत्सव कराने से, जिनमन्दिरों का जीर्णोद्धार कराने से, प्रतिष्ठा कराने से, प्रतिमा बनवाने से और साधर्मियों से वात्सल्य अर्थात् प्रेम करने से उत्पन्न होती है। आप लोग ध्यान रखिये कि सम्यग्दर्शन संसार में एक सर्वश्रेष्ठ वस्तु है और कोई वस्तु उसकी समानता नहीं कर सकती। यही सम्यग्दर्शन दुर्गतियों का नाश करके स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला है। इसे तुम धारण करो। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का और उसके आठ अंगों का वर्णन करते समय इन्द्र ने निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने वाे उड्वायन राजा की बहुत प्रशंसा की । इन्द्र के मुँह से एक मध्यलोक के मनुष्य की प्रशंसा सुनकर एक बासव नाम का देव उसी समय स्वर्ग से भारत में आया और उड्वायन राजा की परीक्षा करने के लिए एक कोढ़ी मुनि का वेश बनाकर भिक्षा के लिए दोपहर ही को उड्वायन के महल गया ॥६-१३॥
    उसके शरीर से कोढ़ गल रहा था, उसकी वेदना से उसके पैर इधर-उधर पड़ रहे थे, सारे शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और सब शरीर विकृत हो गया था। उसकी यह हालत होने पर भी जब वह राजद्वार पर पहुँचा और महाराज उद्दायन की उस पर दृष्टि पड़ी तब वे उसी समय सिंहासन से उठकर आये और बड़ी भक्ति से उन्होंने उस छली मुनि का आह्वान किया। इसके बाद नवधाभक्तिपूर्वक हर्ष के साथ राजा ने मुनि को प्रासुक आहार कराया। राजा आहार कराकर निवृत हुए कि इतने में उस कपटी मुनि ने अपनी माया से महा दुर्गन्धित वमन कर दिया। उसकी असह्य दुर्गन्ध के कारण जितने और लोग पास खड़े हुए थे, वे सब भाग खड़े हुए किन्तु केवल राजा और रानी मुनि की सम्हाल करने को वहीं रह गये। रानी मुनि का शरीर पोंछने को उसके पास गई। कपटी मुनि ने उस बेचारी पर भी महा दुर्गन्धित उछाट कर दी। राजा और रानी ने इसकी कुछ परवाह न कर उलटा इस बात पर बहुत पश्चाताप किया कि हमसे मुनि की प्रकृति विरुद्ध न जाने क्या आहार दे दिया गया, जिससे मुनिराज को इतना कष्ट हुआ। हम लोग बड़े पापी हैं । इसीलिए तो ऐसे उत्तम पात्र का हमारे यहाँ निरन्तराय आहार नहीं हुआ। सच है जैसे पापी लोगों को मनोवांछित देने वाला चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष प्राप्त नहीं होता, उसी तरह सुपात्र के दान का योग भी पापियों को नहीं मिलता है। इस प्रकार अपनी आत्मनिन्दा कर और अपने प्रमाद पर बहुत - बहुत खेद प्रकाश कर राजा रानी ने मुनि का सब शरीर जल से धोकर साफ किया । उनकी इस प्रकार अचलभक्ति देखकर देव अपनी माया समेटकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बोला-राजराजेश्वर, सचमुच हो तुम सम्यग्दृष्टि हो, महादानी हो । निर्विचिकित्सा अंग के पालन करने में इन्द्र ने जैसी तुम्हारी प्रशंसा की थी, वह अक्षर-अक्षर ठीक निकली, वैसा ही मैंने तुम्हें देखा। वास्तव में तुम ही ने जैनशासन का रहस्य समझा है। यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे बिना और कौन मुनि की दुर्गन्धित उछाट अपने हाथों से उठाता ? राजन् ! तुम धन्य हो, शायद ही इस पृथ्वी मंडल पर इस समय तुम सरीखा सम्यग्दृष्टियों में शिरोमणि कोई होगा ? इस प्रकार उड्वायन की प्रशंसा कर देव अपने स्थान पर चला गया और राजा फिर अपने राज्य का सुखपूर्वक पालन करते हुए दान, पूजा, व्रत आदि में अपना समय बिताने लगे ॥१४-२८॥
    इसी तरह राज्य करते-करते उड्वायन का कुछ और समय बीत गया। एक दिन वे अपने महल पर बैठे हुए प्रकृति की शोभा देख रहे थे कि इतने में एक बड़ा भारी बादल का टुकड़ा उनकी आँखों के सामने से निकला। वह थोड़ी ही दूर पहुँचा होगा कि एक प्रबल वायु के वेग ने उसे देखते-देखते नामशेष कर दिया। क्षणभर में एक विशाल मेघखण्ड की यह दशा देखकर उड्वायन की आँखें खुलीं। उन्हें सारा संसार ही अब क्षणिक जान पड़ने लगा । उन्होंने उसी समय महल से उतरकर अपने पुत्र को बुलाया और उसके मस्तक पर राजतिलक करके आप भगवान् वर्द्धमान के समवसरण में पहुँचे और भक्ति के साथ भगवान् की पूजा कर उनके चरणों के पास ही उन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जिसका इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि सभी आदर करते हैं ॥२९-३१॥
    साधु होकर उड्वायन राजा ने खूब तपश्चर्या की, संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ रत्नत्रय प्राप्त किया। इसके बाद ध्यानरूपी अग्नि से घातिया कर्मों का नाशकर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। उसके द्वारा उन्होंने संसार के दुःखों से तड़फते हुए अनेक जीवों को उबार कर, अनेकों को धर्म के पथ पर लगाया और अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर अविनाशी अनन्त मोक्षपद प्राप्त किया ॥३२-३३॥
    उधर उनकी रानी सती प्रभावती भी जिनदीक्षा ग्रहण कर तपश्चर्या करने लगी और अन्त में समाधि-मृत्यु प्राप्त कर ब्रह्मस्वर्ग में जाकर देव हुई ॥३४॥
    वे जिन भगवान् मुझे मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करें, जो सब श्रेष्ठ गुणों के समुद्र हैं, जिनका केवलज्ञान संसार के जीवों का हृदयस्थ अज्ञानरूपी आताप नष्ट करने को चन्द्रमा समान है, जिनके चरणों को इन्द्र, नरेन्द्र आदि सभी नमस्कार करते हैं, जो ज्ञान के समुद्र और साधुओं के शिरोमणि हैं ॥३५॥
  10. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मोक सुख के देने वाले श्री अरिहन्त भगवान् के चरणों को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अनन्तमती की कथा लिखता हूँ, जिसके द्वारा सम्यग्दर्शन के निःकांक्षित गुण का प्रकाश हुआ है ॥१॥
    संसार में अंगदेश बहुत प्रसिद्ध देश है। जिस समय की हम कथा लिखते हैं, उस समय उसकी प्रधान राजधानी चंपापुरी थी। उसके राजा थे वसुवर्धन और उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। वह सती थी, गुणवती थी और बड़ी सरल स्वभाव की थी। उनके एक पुत्र था। उसका नाम था प्रियदत्त । प्रियदत्त को जिनधर्म पर पूर्ण श्रद्धा थी । उसकी गृहिणी का नाम अंगवती था। वह बड़ी धर्मात्मा थी, उदार थी। अंगवती के एक पुत्री थी । उसका नाम अनन्तमती था । वह बहुत सुन्दर थी, गुणों की समुद्र थी॥२-४॥
    अष्टाह्निका पर्व आया। प्रियदत्त ने धर्मकीर्ति मुनिराज के पास आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लिया। साथ ही में उसने अपनी प्रिय पुत्री को भी विनोद वश होकर ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया । कभी-कभी सत्पुरुषों का विनोद भी सत्य मार्ग का प्रदर्शक बन जाता है । अनन्तमती के चित्त पर भी प्रियदत्त के दिलाये व्रत का ऐसा ही प्रभाव पड़ा। जब अनन्तमती के ब्याह का समय आया और उसके लिए आयोजन होने लगा, तब अनन्तमती ने अपने पिता से कहा - पिताजी ! आपने मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिया था न ? फिर यह ब्याह का आयोजन आप किसलिए करते हैं ? ॥५-७॥
    उत्तर में प्रियदत्त ने कहा- पुत्री, मैंने तो तुझे जो व्रत दिलवाया था वह केवल मेरा विनोद था। क्या तू उसे सच समझ बैठी है ? ॥८ ॥
    अनन्तमती बोली-पिताजी, धर्म और व्रत में हँसी विनोद कैसा, यह मैं नहीं समझी ?
    प्रियदत्त ने फिर कहा-मेरे कुल की प्रकाशक प्यारी पुत्री, मैंने तो तुझे ब्रह्मचर्य केवल विनोद से दिया था और तू उसे सच ही समझ बैठी है, तो भी वह आठ ही दिन के लिए था। फिर अब तू ब्याह से क्यों इंकार करती है ? ॥९॥
    अनन्तमती ने कहा-मैं मानती हूँ कि आपने अपने भावों से मुझे आठ ही दिन का ब्रह्मचर्य दिया होगा परन्तु न तो आपने उस समय मुझसे ऐसा कहा और न मुनि महाराज ने ही, तब मैं कैसे समझँ कि वह आठ ही दिन के लिए था । इसलिए अब जैसा कुछ हो, मैं तो जीवनपर्यन्त ही उसे पालूँगी। मैं अब ब्याह नहीं करूँगी ॥१०-११ ॥
    अनन्तमती की बातों से उसके पिता को बड़ी निराशा हुई; पर वे कर भी क्या सकते थे। उन्हें अपना सब आयोजन समेट लेना पड़ा। इसके बाद उन्होंने अनन्तमती के जीवन को धार्मिक-जीवन बनाने के लिए उसके पठन-पाठन का अच्छा प्रबन्ध कर दिया। अनन्तमती भी निराकुलता से शास्त्रों का अभ्यास करने लगी।
     इस समय अनन्तमती पूर्ण युवती है। उसकी सुन्दरता ने स्वर्गीय सुन्दरता धारण की है। उसके अंग-अंग से लावण्य सुधा का झरना बह रहा है। चन्द्रमा उसके अप्रतिम मुख की शोभा को देखकर फीका पड़ रहा है और नखों के प्रतिबिम्ब के बहाने से उसके पावों में पड़कर अपनी इज्जत बचा लेने के लिए उससे प्रार्थना करता है । उसकी बड़ी-बड़ी और प्रफुल्लित आँखों को देखकर बेचारे कमलों से मुख भी ऊँचा नहीं किया जाता है। यदि सच पूछो तो उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करना मानों उसकी मर्यादा बाँध देना है, पर वह तो अमर्याद है, स्वर्ग की सुन्दरियों को भी दुर्लभ है।
    चैत्र का महीना था। एक दिन अनन्तमती विनोदवश हो, अपने बगीचे में अकेली झूले पर झूल रही थी। इसी समय एक कुण्डलमंडित नामक विद्याधरों का राजा, जो कि विद्याधरों की दक्षिण श्रेणी के किन्नरपुर का स्वामी था, इधर ही होकर अपनी प्रिया के साथ वायुयान में बैठा हुआ जा रहा था। एकाएक उसकी दृष्टि झूलती हुई अनन्तमती पर पड़ी उसकी स्वर्गीय सुन्दरता को देखकर कुण्डलमंडित काम के बाणों से बुरी तरह बींधा गया । उसने अनन्तमती की प्राप्ति के बिना अपने जन्म को व्यर्थ समझा। वह उस बेचारी बालिका को उड़ा तो उसी वक्त ले जाता, पर साथ में प्रिया के होने से ऐसा अनर्थ करने के लिए उसकी हिम्मत न पड़ी। पर उसे बिना अनन्तमती के कब चैन पड़ सकता था ? इसलिए वह अपने विमान को शीघ्रता से घर लौटा ले गया और वहाँ अपनी प्रिया को रखकर उसी समय अनन्तमती के बगीचे में आ उपस्थित हुआ और बड़ी फुर्ती से उस भोली बालिका को उठा ले चला। उधर उसकी प्रिया को भी इसके कर्म का कुछ-कुछ अनुसन्धान लग गया था । इसलिए कुण्डलमंडित तो उसे घर पर छोड़ आया था, पर वह घर पर न ठहर कर उसके पीछे-पीछे हो चली। जिस समय कुण्डलमंडित अनन्तमती को लेकर आकाश की ओर जा रहा था कि उसकी दृष्टि अपनी प्रिया पर पडी। उसे क्रोध के मारे लाल मुख किये हुई देखकर कुण्डलमंडित के प्राणदेवता एक साथ शीतल पड़ गये। उसके शरीर को काटो तो खून नहीं । ऐसी स्थिति में अधिक गोलमाल होने के भय से उसने बड़ी फुर्ती के साथ अनन्तमती को एक पर्णलध्वी नाम की विद्या के आधीन कर उसे एक भयंकर वनी में छोड़ देने को आज्ञा दे दी और आप पत्नी के साथ घर लौट गया और उसके सामने अपनी निर्दोषता का यह प्रमाण पेश कर दिया कि अनन्तमती न तो विमान में उसे देखने को मिली और न विद्या के सुपुर्द करते समय कुण्डलमंडित ने ही उसे देखने दी ॥ १२-१७॥
    उस भयंकर वनी में अनन्तमती बड़े जोर-जोर से रोने लगी, पर उसके रोने को सुनता भी कौन? वह तो कोसों तक मनुष्यों के पदचार से रहित थी। कुछ समय बाद एक भीलों का राजा शिकार खेलता हुआ उधर आ निकला। उसने अनन्तमती को देखा। देखते ही वह भी काम के बाणों से घायल हो गया और उसी समय उसे उठाकर अपने गाँव में ले गया । अनन्तमती तो यह समझी कि देव ने मुझे इसके हाथ सौंपकर मेरी रक्षा की है और अब मैं अपने घर पहुँचा दी जाऊँगी। पर नहीं, उसकी यह समझ ठीक नहीं थी। वह छुटकारे के स्थान में एक और नई विपत्ति के मुख में फँस गई ॥१८॥
    राजा उसे अपने महल ले जाकर बोला-बाले, आज तुम्हें अपना सौभाग्य समझना चाहिए कि एक राजा तुम पर मुग्ध है और वह तुम्हें अपनी पट्टरानी बनाना चाहता है । प्रसन्न होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार करो और अपने स्वर्गीय समागम से उसे सुखी करो । वह तुम्हारे सामने हाथ जोड़े खड़ा है तुम्हें वनदेवी समझकर अपना मन चाहा वर माँगता है। उसे देकर उसकी आशा पूरी करो । बेचारी भोली अनन्तमती उस पापी की बातों का क्या जवाब देती ? वह फूट-फूटकर रोने लगी और आकाश पाताल एक करने लगी। पर उसकी सुनता कौन? वह तो राज्य ही मनुष्य जाति के राक्षसों का था ॥१९॥
    भील राजा के निर्दयी हृदय में तब भी अनन्तमती के लिए कुछ भी दया नहीं आई। उसने और भी बहुत-बहुत प्रार्थना की, विनय - अनुनय किया, भय दिखाया, पर अनन्तमती ने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया किन्तु यह सोचकर कि इन नारकियों के सामने रोने धोने से कुछ काम नहीं चलेगा, उसने उसे फटकारना शुरू किया। उसकी आँखों से क्रोध की चिनगारियाँ निकलने लगीं, उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया। सब कुछ हुआ, पर उस भील राक्षस पर उसका कुछ प्रभाव न पड़ा। उसने अनन्तमती से बलात्कार करना चाहा । इतने में उसके पुण्य प्रभाव से, नहीं, शील के अखंड बल से वनदेवी ने आकर अनन्तमती की रक्षा की और उस पापी को उसके पाप का खूब फल दिया और कहा-नीच, तू नहीं जानता यह कौन है? याद रख यह संसार की पूज्य एक महादेवी है, जो इसे तूने सताया कि समझ तेरे जीवन की कुशल नहीं है । यह कहकर वनदेवी अपने स्थान पर चली गई। उसके कहने का भीलराज पर बहुत असर पड़ा और पड़ना चाहिए था क्योंकि थी तो वह देवी ही न ? देवी के डर के मारे दिन निकलते ही उसने अनन्तमती को एक साहूकार के हाथ सौंपकर उससे कह दिया कि इसे इसके घर पहुँचा दीजियेगा। पुष्पक सेठ ने उस समय तो अनन्तमती को उसके घर पहुँचा देने का इकरार कर भीलराज सले ली। पर यह किसने जाना कि उसका हृदय भी भीतर से पापपूर्ण होगा। अनन्तमती को पाकर वह समझने लगा कि मेरे हाथ अनायास स्वर्ग की सुन्दरी लग गई। यह यदि मेरी बात प्रसन्नता पूर्वक मान ले तब तो अच्छा ही है, नहीं तो मेरे पंजे से छूट कर भी तो यह नहीं जा सकती। यह विचार कर उस पापी ने अनन्तमती से कहा- - सुन्दरी, तुम बड़ी भाग्यवती हो, जो एक नर-पिशाच के हाथ से छूटकर पुण्य पुरुष के सुपुर्द हुई। कहाँ तो यह तुम्हारी अनिन्द्य स्वर्गीय सुन्दरता और कहाँ वह भील राक्षस, कि जिसे देखते ही हृदय काँप उठता है? मैं तो आज अपने को देवों से भी कहीं बढ़कर भाग्यशाली समझता हूँ, जो मुझे अनमोल स्त्री रत्न सुलभता के साथ प्राप्त हुआ। भला,
    महाभाग्य के कहीं ऐसा रत्न मिल सकता है? सुन्दरी, देखती हो, मेरे पास अटूट धन है, अनन्त वैभव है, पर उस सबको तुम पर न्यौछावर करने को तैयार हूँ और तुम्हारे चरणों का अत्यन्त दास बनता हूँ। कहो, मुझ पर प्रसन्न हो ? मुझे अपने हृदय में जगह दोगी न ? दो और मेरे जीवन को, मेरे धन-वैभव को सफल करो ॥२०-२३॥
    अनन्तमती ने समझा था कि इस भले मानस की कृपा से मैं सुखपूर्वक पिताजी के पास पहुँच जाऊँगी, पर वह बेचारी पापियों के पापी हृदय की बात को क्या जाने? उसे जो मिलता था, उसे वह भला ही समझती थी। यह स्वाभाविक बात है कि अच्छे को संसार अच्छा ही दिखता है । अनन्तमती ने पुष्पक सेठ की पापपूर्ण बातें सुनकर बड़े कोमल शब्दों में कहा - महाशय, आपको देखकर तो मुझे विश्वास हुआ था कि अब मेरे लिए कोई डर की बात नहीं रही। मैं निर्विघ्न अपने घर पर पहुँच जाऊँगी, क्योंकि मेरे एक दूसरे पिता मेरी रक्षा के लिए आ गये हैं। पर मुझे अत्यन्त दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि आप सरीखे भले मानस के मुँह से और ऐसी नीच बातें ? जिसे मैंने रस्सी समझकर हाथ में लिया था, , मैं नहीं समझती थी कि वह इतना भयंकर सर्प होगा। क्या यह बाहरी चमक-दमक और सीधापन केवल दाम्भिकपना है? केवल हंसों में गणना कराने के लिए है? यदि ऐसा है तो मैं तुम्हें तुम्हारे इस ठगी वेष को, तुम्हारे कुल को, तुम्हारे धन-वैभव को और तुम्हारे जीवन को धिक्कार देती हूँ, अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देखती हूँ। जो मनुष्य केवल संसार को ठगने के लिए ऐसे मायाचार करता है, बाहर धर्मात्मा बनने का ढोंग रचता है, लोगोंो धोखा देकर अपने मायाजाल में फँसाता है, वह मनुष्य नहीं है किन्तु पशु है, पिशाच है, राक्षस है । वह पापी मुँह देखने योग्य नहीं, नाम लेने योग्य नहीं। उसे जितना धिक्कार दिया जाये थोड़ा है। मैं नहीं जानती थी कि आप भी उन्हीं पुरुषों में से एक होंगे । अनन्तमती और भी कहती, पर वह ऐसे कुल कलंक नीचों के मुँह लगना उचित नहीं समझ चुप हो रही। अपने क्रोध को वह दबा गई ॥२४॥
    उसकी जली भुनी बातें सुनकर पुष्पक सेठ की अक्ल ठिकाने आ गई। वह जलकर खाक हो गया, क्रोध से उसका सारा शरीर काँप उठा, पर तब भी अनन्तमती के दिव्य तेज के सामने उससे कुछ करते नहीं बना। उसने अपने क्रोध का बदला अनन्तमती से इस रूप में चुकाया कि वह उसे अपने शहर में ले जाकर एक कामसेना नाम की कुट्टिनी के हाथ सौंप दिया। सच बात तो यह है कि यह सब दोष दिया किसे जा सकता है किन्तु कर्मों की ही ऐसी विचित्र स्थिति है, जो जैसा कर्म करता है उसका उसे वैसा फल भोगना ही पड़ता है। इसमें नई बात कुछ नहीं है ॥२५-२६॥
    कामसेना ने भी अनन्तमती को कष्ट देने में कुछ कसर नहीं रखी। जितना उससे बना उसने भय से, लोभ से उसे पवित्र पथ से गिराना चाहा, उसके सतीत्व धर्म को भ्रष्ट करना चाहा पर अनन्तमती उससे नहीं डिगी। वह सुमेरु के समान निश्चल बनी रही। ठीक तो है जो संसार के दुःखों से डरते हैं, वे ऐसे भी सांसारिक कामों के करने से घबरा उठते हैं, जो न्याय मार्ग से भी क्यों न प्राप्त हुए हों, तब भला उन पुरुषों की ऐसे घृणित और पाप कार्यों में कैसे प्रीति हो सकती है? कभी नहीं होती ॥२७-२८॥
    कामसेना ने उस पर अपना चक्र चलता न देखकर उसे एक सिंहराज नाम के राजा को सौंप दिया। बेचारी अनन्तमती का जन्म ही न जाने कैसे बुरे समय में हुआ था, जो वह जहाँ पहुँचती वहीं आपत्ति उसके सिर पर सवार रहती । सिंहराज भी एक ऐसा ही पापी राजा था । वह अनन्तमती के देवांगना दुर्लभ रूप को देखकर उस पर मोहित हो गया। उसने भी उससे बहुत हाथाजोड़ी की, पर अनन्तमती ने उसकी बातों पर कुछ ध्यान न देकर उसे भी फटकार डाला । पापी सिंहराज ने अनन्तमती का अभिमान नष्ट करने को उससे बलात्कार करना चाहा। पर जो अभिमान मानवी प्रकृति का न होकर अपने पवित्र आत्मीय तेज का होता है, भला किसकी मजाल जो उसे नष्ट कर सके ? जैसे ही पापी सिंहराज ने उस तेजोमय मूर्ति की ओर पाँव बढ़ाया कि उसी वनदेवी ने, जिसने एक बार पहले भी अनन्तमती की रक्षा की थी, उपस्थित होकर कहा - खबरदार ! इस सती देवी का स्पर्श भूलकर भी मत करना, नहीं तो समझ लेना कि तेरा जीवन जैसे संसार में था ही नहीं। इसके साथ ही देवी उसे उसके पापकर्मों का उचित दण्ड देकर अन्तर्हित हो गई। देवी को देखते ही सिंहराज का कलेजा काँप उठा । वह चित्रलिखे सा निश्चेष्ट हो गया। देवी के चले जाने पर बहुत देर बाद उसे होश हुआ । उसने उसी समय नौकर को बुलवाकर अनन्तमती को जंगल में छोड़ आने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा का पालन हुआ। अनन्तमती एक भयंकर वन में छोड़ दी गई ॥२९-३१॥
    अनन्तमती कहाँ जायेगी, किस दिशा में उसका शहर है और वह कितनी दूर है? इन सब बातों का यद्यपि उसे कुछ पता नहीं था, तब भी वह पंचपरमेष्ठी का स्मरण कर वहाँ से आगे बढ़ी और फल- फूलादि से अपना निर्वाह कर वन, जंगल, पर्वतों को लाँघती हुई अयोध्या में पहुँच गई। वहाँ उसे एक पद्मश्री नाम की आर्यिका के दर्शन हुए। आर्यिका ने अनन्तमती से उसका परिचय पूछा। उसने अपना
    उधर प्रियदत्त को जब अनन्तमती के हरे जाने का समाचार मालूम हुआ तब वह अत्यन्त दुःखी हुआ। उसके वियोग से वह अस्थिर हो उठा। उसे घर श्मशान सरीखा भयंकर दिखने लगा। संसार उसके लिए सूना हो गया । पुत्री के विरह से दुःखी होकर तीर्थयात्रा के बहाने से वह घर से निकल खड़ा हुआ। उसे लोगों ने बहुत समझाया, पर उसने किसी की बात को न मानकर अपने निश्चय को नहीं छोड़ा। कुटुम्ब के लोग उसे घर पर न रहते देखकर स्वयं भी उसके साथ-साथ चले । बहुत से सिद्धक्षेत्रों और अतिशय क्षेत्रों की यात्रा करते-करते वे अयोध्या में आये। वहीं पर प्रियदत्त का साला जिनदत्त रहता था। प्रियदत्त उसी के घर पर ठहरा । जिनदत्त ने बड़े आदर सम्मान के साथ अपने बहनोई की पाहुनगति की। इसके बाद स्वस्थता के समय जिनदत्त ने अपनी बहिन आदि का समाचार पूछा। प्रियदत्त ने जैसी घटना बीती थी, वह सब उससे कह सुनाई । सुनकर जिनदत्त की भी अपनी भानजी के बाबत बहुत दुःख हुआ । दुःख सभी को हुआ पर उसे दूर करने के लिए सब लाचार थे । कर्मों की विचित्रता देखकर सब ही को सन्तोष करना पड़ा॥३५-३८॥
    दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर और स्नानादि करके जिनदत्त तो जिनमन्दिर चला गया। इधर उसकी स्त्री भोजन की तैयारी करके पद्मश्री आर्यिका के पास जो बालिका थी, उसे भोजन करने को और आँगन में चौक पूरने को बुला लाई । बालिका ने आकर चौक पूरा और बाद भोजन करके वह अपने स्थान पर लौट आई ॥३९-४१॥
    जिनदत्त के साथ प्रियदत्त भी भगवान् की पूजा करके घर पर आया । आते ही उसकी दृष्टि चौक पर पड़ी। देखते ही उसे अनंतमती की याद हो उठी। वह रो पड़ा । पुत्री के प्रेम से उसका हृदय व्याकुल ssहो गया। उसने रोते-रोते कहा- जिसने यह चौक पूरा है, क्या मुझ अभागे को उसके दर्शन होंगे। जिनदत्त अपनी स्त्री से उस बालिका का पता पूछकर जहाँ वह थी, वहीं दौड़ा गया और झट से उसे अपने घर ले लाया। बालिका को देखते ही प्रियदत्त के नेत्रों से आँसू बह निकले। उसका गला भर आया। आज वर्षों बाद उसे अपनी पुत्री के दर्शन हुए। बड़े प्रेम के साथ उसने अपनी प्यारी पुत्री को छाती से लगाया और उसे गोदी में बैठाकर उससे एक-एक बातें पूछना शुरू कीं। उसके दुःखों का हाल सुनकर प्रियदत्त बहुत दुःखी हुआ । उसने कर्मों का, इसलिए कि अनन्तमती इतने कष्टों को सहकर भी अपने धर्म पर दृढ़ रही और कुशलपूर्वक अपने पिता से आ मिली, बहुत-बहुत उपकार माना। पिता- पुत्री का मिलाप हो जाने से जिनदत्त को बहुत प्रसन्नता हुई। उसने इस खुशी में जिनभगवान् का रथ निकलवाया, सबका यथायोग्य आदर सम्मान किया और खूब दान किया ॥४२-४८॥
    इसके बाद प्रियदत्त अपने घर जाने को तैयार हुआ । उसने अनन्तमती से भी चलने को कहा । वह बोली-पिताजी, मैंने संसार की लीला को खूब देखा है। उसे देखकर तो मेरा जी काँप उठता है। अब मैं घर पर नहीं चलूँगी। मुझे संसार के दुःखों से बहुत डर लगता है। अब तो आप दया करके मुझे दीक्षा दिलवा दीजिये । पुत्री की बात सुनकर प्रियदत्त बहुत दुःखी हुआ, पर अब उसने उससे घर पर चलने का विशेष आग्रह न करके केवल इतना कहा कि-पुत्री, तेरा यह नवीन शरीर अत्यन्त कोमल है और दीक्षा का पालन करना बड़ा कठिन है उसमें बड़ी-बड़ी कठिन परीषह सहनी पड़ती है इसलिए अभी कुछ दिनों के लिए मन्दिर ही में रहकर अभ्यास कर और धर्मध्यान पूर्वक अपना समय बिता । इसके बाद जैसा तू चाहती है, वह स्वयं ही हो जायेगा। प्रियदत्त ने इस समय दीक्षा लेने से अनन्तमती को रोका, पर उसके तो रोम-रोम में वैराग्य प्रवेश कर गया था; फिर वह कैसे रुक सकती थी ? उसने मोह-जाल तोड़कर उसी समय पद्मश्री आर्यिका के पास जिनदीक्षा ग्रहण कर ही ली। दीक्षित होकर अनन्तमती खूब दृढ़ता के साथ तप तपने लगी। महिना-महिना के उपवास करने लगी, परीषह सहने लगी। उसकी उमर और तपश्चर्या देखकर सबको दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती थी । अनन्तमती का जब तक जीवन रहा तब तक उसने बड़े साहस से अपने व्रत का निर्वहन किया । अन्त में वह संन्यास मरण कर सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हुई । वहाँ वह नित्य नये रत्नों के स्वर्गीय भूषण पहनती है, जिनभगवान् की भक्ति के साथ पूजा करती है, हजारों देव देवाङ्गनायें उसकी सेवा में रहती हैं। उसके ऐश्वर्य का पार नहीं और न उसके सुख ही की सीमा है। बात यह है कि पुण्य के उदय से क्या-क्या नहीं होता ? ॥४९-५६॥

    अनन्तमती को उसके पिता ने केवल विनोद से शीलव्रत दे दिया था । पर उसने उसका बड़ी दृढ़ता के साथ पालन किया, कर्मों के पराधीन सांसारिक सुख की उसने स्वप्न में भी चाह नहीं की। उसके प्रभाव से वह स्वर्ग में जाकर देव हुई, जहाँ सुख का पार नहीं। वहाँ वह सदा जिनभगवान् के चरणों में लीन रहकर बड़ी शान्ति के साथ अपना समय बिताती है। सती - शिरोमणि अनन्तमती हमारा भी कल्याण करे ॥५७॥
     
  11. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार के द्वारा पूज्य और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाले श्री जिन भगवान् को नमस्कार कर श्री समन्तभद्राचार्य की पवित्र कथा लिखता हूँ, जो कि सम्यक्चारित्र की प्रकाशक है ॥१॥
    भगवान् समन्तभद्र का पवित्र जन्म दक्षिणप्रान्त के अन्तर्गत कांची नाम की नगरी में हुआ था। वे बड़े तत्त्वज्ञानी और न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयों के भी बड़े भारी विद्वान् थे। संसार में उनकी बहुत ख्याति थी। वे कठिन से कठिन चारित्र का पालन करते, दुस्सह तप तपते और बड़े आनन्द से अपना समय आत्मानुभव, पठन-पाठन, ग्रन्थरचना आदि में व्यतीत करते ॥२-४॥
    कर्मों का प्रभाव दुर्निवार है। उसके लिए राजा हो या रंक हो, धनी हो या निर्धन हो, विद्वान् हो या मूर्ख हो, साधु हो या गृहस्थ हो सब समान हैं, सबको अपने-अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। भगवान् समन्तभद्र के लिए भी एक ऐसा ही कष्ट का समय आया । वे बड़े भारी तपस्वी थे, विद्वान् थे, पर कर्मों ने इन बातों की कुछ परवाह न कर उन्हें अपने चक्र में फँसाया । असातावेदनीय के तीव्र उदय से भस्मक व्याधि नाम का एक भयंकर रोग उन्हें हो गया। उससे वे जो कुछ खाते वह उसी समय भस्म हो जाता और भूख वैसी की वैसी बनी रहती। उन्हें इस बात का बड़ा कष्ट हुआ कि हम विद्वान् हुए और पवित्र जिनशासन का संसार भर में प्रचार करने के लिए समर्थ भी हुए तब भी उसका कुछ उपकार नहीं कर पाते। इस रोग ने असमय में बड़ा कष्ट पहुँचाया। अस्तु । अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे इसकी शान्ति हो । अच्छे-अच्छे स्निग्ध, सच्चिकण और पौष्टिक पकवान का आहार करने से इसकी शान्ति हो सकेगी, इसलिए ऐसे भोजन का योग मिलाना चाहिए, पर यहाँ तो इसका कोई साधन नहीं दीख पड़ता। इसलिए जिस जगह, जिस तरह ऐसे भोजन की प्राप्ति हो सकेगी मैं वहीं जाऊँगा और वैसा ही उपाय करूँगा ॥५- १०॥
    यह विचार कर वे कांची से निकले और उत्तर की ओर रवाना हुए। कुछ दिनों तक चलकर वे पुण्द्र नगर में आए। वहाँ बौद्धों की एक बड़ी भारी दानशाला थी । उसे देखकर आचार्य ने सोचा, यह स्थान अच्छा है। यहाँ अपना रोग नष्ट हो सकेगा ॥११- १२॥
    इस विचार के साथ ही उन्होंने बौद्ध साधु का वेष बनाकर वहाँ रहे, परन्तु योग्य भोजन नहीं मिला। इसलिए वे फिर उत्तर की ओर आगे बढ़े और अनेक शहरों में घूमते हुए कुछ दिनों के बाद दशपुर-मन्दोसोर में आए। वहाँ उन्होंने भागवत - वैष्णवों का एक बड़ा भारी मठ देखा । उसमें बहुत से भागवत सम्प्रदाय के साधु रहते थे । उनके भक्त लोग उन्हें खूब अच्छा-अच्छा भोजन देते थे । यह देखकर उन्होंने बौद्धवेष को छोड़कर भागवत साधु का वेष ग्रहण कर लिया । वहाँ वे कुछ दिनों तक रहे, फिर उनकी व्याधि के योग्य उन्हें वहाँ भी भोजन नहीं मिला । तब वे वहाँ से भी निकलकर और अनेक देशों और पर्वतों में घूमते हुए बनारस आए। उन्होंने यद्यपि बाह्य में जैनमुनियों के वेष को छोड़कर कुलिंग धारण कर रखा था, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनके हृदय में सम्यग्दर्शन की पवित्र ज्योति जगमगा रही थी। इस वेष में वे ठीक ऐसे जान पड़ते थे, मानों कीचड़ से भरा हुआ कान्तिमान् रत्न हो। इसके बाद आचार्य योगलिंग धारण कर शहर में घूमने लगे ॥१३-१९॥
    उस समय बनारस के राजा थे शिवकोटि । वे शिव के बड़े भक्त थे। उन्होंने शिव का एक विशाल मन्दिर बनवाया था। वह बहुत सुन्दर था । उसमें प्रतिदिन अनेक प्रकार के व्यंजन शिव को भेंट चढ़ा करते थे। आचार्य ने देखकर सोचा कि यदि किसी तरह अपनी इस मन्दिर में कुछ दिनों के लिए स्थिति हो जाये, तो निस्सन्देह अपना रोग शान्त हो सकता है। यह विचार वे कर ही रहे कि इतने में पुजारी लोग महादेव की पूजा करके बाहर आए और उन्होंने एक बड़ी भारी व्यंजनों की राशि, जो कि शिव को भेंट चढ़ाई गई थी, लाकर बाहर रख दी। उसे देखकर आचार्य ने कहा, क्या आप लोगों में ऐसी किसी की शक्ति नहीं जो महाराज के भेजे हुए इस दिव्य भोजन को शिव की पूजा के बाद शिव को ही खिला सकें? तब उन ब्राह्मणों ने कहा, तो क्या आप अपने में इस भोजन को शिव को खिलाने की शक्ति रखते हैं? आचार्य ने कहा- हाँ मुझमें ऐसी शक्ति है । सुनकर उन बेचारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उसी समय जाकर यह हाल राजा से कहा-प्रभो! आज एक योगी आया है। उसकी बातें बड़ी विलक्षण हैं। हमने महादेव की पूजा करके उनके लिए चढ़ाया हुआ नैवेद्य बाहर लाकर रखा, उसे देखकर वह योगी बोला कि - " आश्चर्य है, आप लोग इस महादिव्य भोजन को पूजन के बाद महादेव को न खिलाकर पीछे उठा ले आते हो ! भला ऐसी पूजा से कैसा लाभ? उसने साथ ही यह भी कहा कि मुझमें ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा यह सब भोजन मैं महादेव को खिला सकता हूँ। यह कितने खेद की बात है कि जिसके लिए इतना आयोजन किया जाता है, इतना खर्च उठाया जाता है, वह यों ही रह जाये और दूसरे ही उससे लाभ उठावें? यह ठीक नहीं। इसके लिए कुछ प्रबन्ध होना चाहिए, जो जिसके लिए इतना परिश्रम और खर्च उठाया जाता है वही उसका उपयोग भी कर सके।” महाराज को भी इस अभूतपूर्व बात के सुनने से बड़ा अचंभा हुआ। वे इस विनोद को देखने के लिए उसी समय अनेक प्रकार के सुन्दर और सुस्वादु पकवान अपने साथ लेकर शिव मन्दिर गए और आचार्य से बोले- योगिराज! सुना है कि आपमें कोई ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा शिवमूर्ति को भी आप खिला सकते हैं, तो क्या यह बात सत्य है? और सत्य है तो लीजिये यह भोजन उपस्थित है, इसे महादेव को खिलाइए ॥२०-३१॥
    उत्तर में आचार्य ने ‘अच्छी बात है' यह कहकर राजा के लाये हुए, सब पकवानों को मन्दिर के भीतर रखवा दिया और सब पुजारी पंडों को मन्दिर से बाहर निकालकर भीतर से आपने मन्दिर के किवाड़ बन्द कर लिए। इसके बाद लगे उसे आप उदरस्थ करने। आप भूखे तो खूब थे ही इसलिए थोड़ी ही देर में सब आहार को हजमकर आपने झट से मन्दिर का दरवाजा खोल दिया और निकलते ही नौकरों को आज्ञा की कि सब बरतन बाहर निकाल लो। महाराज इस आश्चर्य को देखकर भौचक्के से रह गए । वे राजमहल लौट गए। उन्होंने बहुत तर्क-वितर्क उठाये पर उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया कि वास्तव में बात क्या है? ॥३२-३४॥
    अब प्रतिदिन एक से एक बढ़कर पकवान आने लगे और आचार्य महाराज भी उनके द्वारा अपनी व्याधि नाश करने लगे । इस तरह पूरे छह महीना बीत गए । आचार्य का रोग भी नष्ट हो गया ॥ ३५॥
    एक दिन आहार राशि को ज्यों की त्यों बची हुई देखकर पुजारी-पण्डों ने उनसे पूछा, योगिराज ! यह क्या बात है? क्यों आज यह सब आहार यों ही पड़ा रहा? आचार्य ने उत्तर दिया- राजा की परम भक्ति से भगवान् बहुत खुश हुए, वे अब तृप्त हो गए हैं। पर इस उत्तर से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने जाकर आहार के बाकी बचे रहने का हाल राजा से कहा । सुनकर राजा ने कहा-अच्छा इस बात का पता लगाना चाहिए कि वह योगी मन्दिर के किवाड़ बंदकर भीतर क्या करता है? जब इस बात का  ठीक-ठीक पता लग जाये तब उससे भोजन के बचे रहने का कारण पूछा जा सकता है और फिर उस पर विचार भी किया जा सकता है। बिना ठीक हाल जाने उससे कुछ पूछना ठीक नहीं जान पड़ता ॥३६-३८॥
    एक दिन की बात है कि आचार्य कहीं गए हुए थे और पीछे से उन सब ने मिलकर एक चालाक लड़के को महादेव के अभिषेक जल के निकलने की नाली में छुपा दिया और उसे खूब फूल पत्तों से ढक दिया। वह वहाँ छिपकर आचार्य की गुप्त क्रिया देखने लगा ॥३९॥
    सदा के माफिक आज भी खूब अच्छे-अच्छे पकवान आए । योगिराज ने उन्हें भीतर रखवाकर भीतर से मन्दिर का दरवाजा बन्द कर दिया और आप लगे भोजन करने। जब आपका पेट भर गया, तब किवाड़ खोलकर आप नौकरों से उस बचे सामान को उठा लेने के लिए कहना ही चाहते थे कि उनकी दृष्टि सामने ही खड़े हुए राजा और ब्राह्मणों पर पड़ी। आज एकाएक उन्हें वहाँ उपस्थित देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। ये झट से समझ गए कि आज अवश्य कुछ न कुछ दाल में काला है। इतने में ही वे ब्राह्मण उनसे पूछ बैठे कि योगिराज ! क्या बात है, जो कई दिनों से बराबर आहार बचा रहता है? क्या शिवजी अब कुछ नहीं खाते? जान पड़ता है, वे अब खूब तृप्त हो गए हैं। इस पर आचार्य कुछ कहना ही चाहते थे कि वह धूर्त लड़का उन फूल पत्तों के नीचे से निकलकर महाराज के सामने आ खड़ा हुआ और बोला- राजा राजेश्वर ! वे योगी तो यह कहते थे कि मैं शिवजी को भोजन कराता हूँ, पर इनका यह कहना बिल्कुल झूठा है। असल में ये शिवजी को भोजन न कराकर स्वयं ही खाते हैं। इन्हें खाते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है। योगिराज ! सब की आँखों में आपने तो बड़ी बुद्धिमानी से धूल झोंकी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप योगी नहीं, किन्तु एक बड़े भारी धूर्त हैं और महाराज ! इनकी धूर्तता तो देखिये, जो शिवजी को हाथ जोड़ना तो दूर रहा उल्टा ये उनका अविनय करते हैं । इतने में वे ब्राह्मण भी बोल उठे, महाराज! जान पड़ता है यह शिवभक्त भी नहीं है । इसलिए इससे शिवजी को हाथ जोड़ने के लिए कहा जाये, तब सब पोल स्वयं खुल जायेगी। सब कुछ सुनकर महाराज ने आचार्य से कहा-अच्छा जो कुछ हुआ उस पर ध्यान न देकर हम यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारा असल धर्म क्या है? इसलिए तुम शिवजी को नमस्कार करो। सुनकर भगवान् समन्तभद्र बोले- राजन्! मैं नमस्कार कर सकता हूँ, पर मेरा नमस्कार स्वीकार कर लेने को शिवजी समर्थ नहीं हैं।
    कारण-वे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया आदि विकारों से दूषित हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के पालन का भार एक सामान्य मनुष्य नहीं उठा सकता, उसी प्रकार मेरी पवित्र और निर्दोष नमस्कृति को एक रागद्वेषादि विकारों से अपवित्र देव नहीं सह सकता, किन्तु जो क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अठारह दोषों से रहित हैं, केवलज्ञानरूपी प्रचण्ड तेज का धारक है और लोकालोक का प्रकाशक है, वही जिनसूर्य मेरे नमस्कार के योग्य है और वही उसे सह भी सकता है। इसलिए मैं शिवजी को नमस्कार नहीं करूँगा इसके सिवा भी यदि आप आग्रह करेंगे तो आपको समझ लेना चाहिए कि इस शिवमूर्ति की कुशल नहीं है, यह तुरंत ही फट पड़ेगी। आचार्य की इस बात से राजा का विनोद और भी बढ़ गया । उन्होंने कहा- योगिराज ! आप इसकी चिन्ता न करें, यह मूर्ति यदि फट पड़ेगी तो इसे फट जाने दीजिये, पर आपको तो नमस्कार करना ही पड़ेगा । राजा का बहुत ही आग्रह देख आचार्य ने ‘तथास्तु' कहकर कहा, अच्छा तो कल प्रातःकाल ही मैं अपनी शक्ति का आपको परिचय कराऊँगा।‘अच्छी बात है, यह कहकर राजा ने आचार्य को मन्दिर में बन्द करवा दिया और मन्दिर के चारों ओर नंगी तलवार लिए सिपाहियों का पहरा लगवा दिया। इसके बाद “ आचार्य की सावधानी के साथ देख-रेख की जाये, वे कहीं निकल न भागें" इस प्रकार पहरेदारों को खूब सावधान कर आप राजमहल लौट गए ॥४०-५२॥
    आचार्य ने कहते समय तो कह डाला, पर अब उन्हें ख्याल आया कि मैंने यह ठीक नहीं किया । क्यों मैंने बिना कुछ सोचे - विचारे जल्दी से ऐसा कह डाला । यदि मेरे कहने के अनुसार शिवजी की मूर्ति न फटी तब मुझे कितना नीचा देखना पड़ेगा और उस समय राजा क्रोध में आकर न जाने क्या कर बैठे। खैर, उसकी भी कुछ परवाह नहीं, पर इससे धर्म की कितनी हँसी होगी। जिस परमात्मा की राजा के सामने मैं इतनी प्रशंसा कर चुका हूँ, उसे और मेरी झूठ को देखकर सर्व साधारण क्या विश्वास करेंगे आदि एक पर एक चिन्ता उनके हृदय में उठने लगी। पर अब हो भी क्या सकता था । आखिर उन्होंने यह सोचकर कि जो होना था वह तो हो चुका और जो कुछ बाकी है वह कल सबेरे हो जायेगा, अब व्यर्थ चिन्ता से ही लाभ क्या? जिनभगवान् की आराधना में अपने ध्यान को लगाया और बड़े पवित्र भावों से उनकी स्तुति करने लगे ॥५३॥
    आचार्य की पवित्र भक्ति और श्रद्धा के प्रभाव से शासनदेवी का आसन कम्पित हुआ। वह उसी समय आचार्य के पास आई और उनसे बोली- हे जिन चरण कमलों के भ्रमर! हे प्रभो! आप किसी बात की चिन्ता न कीजिए । विश्वास रखिये कि जैसा आपने कहा है वह अवश्य ही होगा । आप स्वयंभुवाभूतहितेन भूतले इस पद्यांश को लेकर चतुर्विंशति तीर्थंकरों का एक स्तवन रचियेगा। उसके प्रभाव से आपका कहा हुआ सत्य होगा और शिवमूर्ति भी फट पड़ेगी । इतना कहकर अम्बिका देवी अपने स्थान पर चली गई ॥५४-५८ ॥
    आचार्य को देवी के दर्शन से बड़ी प्रसन्नता हुई उनके हृदय की चिन्ता मिटी, आनन्द ने अब उस पर अपना अधिकार किया। उन्होंने उसी समय देवी के कहे अनुसार एक बहुत सुन्दर जिनस्तवन बनाया। वह उसी समय से स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है ॥५९॥
    रात सुखपूर्वक बीती। प्रातःकाल हुआ। राजा भी इसी समय वहाँ आ उपस्थित हुआ। उस साथ और भी बहुत से अच्छे-अच्छे विद्वान् आए । अन्य साधारण जनसमूह भी बहुत इकट्ठा हो गया। राजा ने आचार्य को बाहर ले आने की आज्ञा दी । वे बाहर लाये गए। अपने सामने आते हुए आचार्य को खूब प्रसन्न और उनके मुँह को सूर्य के समान तेजस्वी देखकर राजा ने सोचा इनके मुँह पर तो चिन्ता के बदले स्वर्गीय तेज की छटायें छूट रही हैं, इससे जान पड़ता हैं ये अपनी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अस्तु । तब भी देखना चाहिए कि ये क्या करते हैं । इसके साथ ही उसने आचार्य से कहा - योगिराज ! कीजिए नमस्कार, जिससे हम भी आपकी अद्भुत शक्ति का परिचय पा सकें ॥६०-६४॥
    राजा की आज्ञा होते ही आचार्य ने संस्कृत भाषा में एक बहुत ही सुन्दर और अर्थपूर्ण जिनस्तवन आरम्भ किया। स्तवन रचते-रचते जहाँ उन्होंने चन्द्रप्रभ भगवान् की स्तुति का चन्द्रप्रभ चन्द्रमरीचिगौरम्  यह पद्यांश रचना शुरू किया कि उसी समय शिवमूर्ति फटी और उसमें से श्रीचन्द्रप्रभ भगवान् की चतुर्मुख प्रतिमा प्रकट हुई इस आश्चर्य के साथ ही जयध्वनि के मारे आकाश गूँज उठा। आचार्य के इस अप्रतिम प्रभाव को देखकर उपस्थित जनसमूह को दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ी। सबके सब आचार्य की ओर देखते के देखते ही रह गए। इसके बाद राजा ने आचार्य महाराज से कहा - योगिराज ! आपकी शक्ति, आपका प्रभाव, आपका तेज देखकर हमारे आश्चर्य का कुछ ठिकाना नहीं रहता। बतलाइए तो आप हैं कौन? और आपने वेष तो शिवभक्त का धारण कर रखा है, पर आप शिवभक्त हैं नहीं। सुनकर आचार्य ने नीचे लिखे दो श्लोक पढ़े- ॥६५-७०॥
    ‘“मैं कांची में नग्न दिगम्बर साधु होकर रहा । इसके बाद शरीर में रोग हो जाने से पुंद्र नगर में बुद्धभिक्षुक, दशपुर (मंदसौर) में मिष्टान्नभोजी परिव्राजक और बनारस में शैवसाधु बनकर रहा। राजन्, मैं जैन निर्ग्रन्थवादी स्याद्वादी हूँ । जिसकी शक्ति वाद करने की हो, वह मेरे सामने आकर वाद करे।” पहले मैंने पाटलीपुत्र (पटना) में वादभेरी बजाई। इसके बाद मालवा, सिन्धुदेश, ढक्क (ढाका- बंगाल) कांचीपुर और विदिश नामक देश में भेरी बजाई। अब वहाँ से चलकर मैं बड़े-बड़े विद्वानों से भरे हुए इस करहाटक (कराड़जिला सतारा) में आया हूँ । राजन् शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं सिंह के समान निर्भय होकर इधर-उधर घूमता ही रहता हूँ । यह कहकर ही समन्तभद्रस्वामी ने शैव वेष छोड़कर जिनमुनि का वेष धारण कर लिया, जिसमें साधु लोग जीवों की रक्षा के लिए हाथ में मोर की पिच्छिका रखते हैं ॥७१॥
    इसके बाद उन्होंने शास्त्रार्थ कर बड़े-बड़े विद्वानों को, जिन्हें अपने पाण्डित्य का अभिमान था, अनेकान्त-स्याद्वाद के बल से पराजित किया और जैन शासन की खूब प्रभावना की, जो स्वर्ग और 
    मोक्ष की देने वाली है। भगवान् समन्तभद्र भावी तीर्थंकर हैं । उन्होंने कुदेव को नमस्कार न कर सम्यग्दर्शन का खूब प्रकाश किया, सबके हृदय पर उसकी श्रेष्ठता अंकित कर दी। उन्होंने अनेक एकान्तवादियों को जीतकर सम्यग्ज्ञान का भी उद्योत किया ॥७२-७५॥
    आश्चर्य में डालने वाली इस घटना को देखकर राजा की जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा हुई। विवेकबुद्धि ने उसके मन को खूब ऊँचा बना दिया और चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो जाने से उसके हृदय में वैराग्य का प्रवाह बह निकला। उसने उसे सब राज्यभार छोड़ देने के लिए बाध्य किया। शिवकोटि ने क्षणभर में सब मायामोह के जाल को तोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। साधु बनकर उन्होंने गुरु के पास खूब शास्त्रों का अभ्यास किया। इसके बाद उन्होंने श्रीलोहाचार्य के बनाये हुए चौरासी हजार श्लोक प्रमाण आराधना ग्रन्थ को संक्षेप में लिखा । वह इसलिए कि अब दिन पर दिन मनुष्यों की आयु और बुद्धि घटती जाती है और वह ग्रन्थ बड़ा और गंभीर था, सर्व साधारण उससे लाभ नहीं उठा सकते थे । शिवकोटि मुनि के बनाये हुए ग्रन्थ के चवालीस अध्याय हैं और उसकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार है। उससे संसार का बहुत उपकार हुआ ॥७६-८१॥
    वह आराधना ग्रन्थ और समन्तभद्राचार्य तथा शिवकोटि मुनिराज मुझे सुख के देने वाले हों तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप परम रत्नों के समुद्र और कामरूपी प्रचंड बलवान् हाथी के नष्ट करने को सिंह समान विद्यानन्दि गुरु और छहों शास्त्रों के अपूर्व विद्वान् तथा श्रुतज्ञान के समुद्र श्रीमल्लिभूषण मुनि मुझे मोक्षश्री प्रदान करें ॥८२-८३॥
  12. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मैं जीवों को सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार करके इस अध्याय में भट्टाकलंकदेव की कथा लिखता हूँ, जो कि सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाली है ॥१॥
    भारतवर्ष में एक मान्यखेट नाम का नगर था। उसके राजा थे शुभतुंग और उनके मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था। पुरुषोत्तम की गृहिणी पद्मावती थी। उसके दो पुत्र हुए। उनके नाम थे अकलंक और निकलंक। वे दोनों भाई बड़े बुद्धिमान् गुणी थे ॥२-३॥
    एक दिन की बात है कि अष्टाह्निका पर्व की अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम और उसकी गृहिणी बड़ी विभूति के साथ चित्रगुप्त मुनिराज की वन्दना करने को गए साथ में दोनों भाई भी गए। मुनिराज की वन्दना कर इनके माता-पिता ने आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य लिया और साथ ही विनोदवश अपने दोनों पुत्रों को भी उन्होंने ब्रह्मचर्य दिला दिया ॥४-५॥
    कुछ दिनों के बाद पुरुषोत्तम ने अपने पुत्रों के ब्याह की आयोजना की । यह देख दोनों भाईयों ने मिलकर पिता से कहा - पिताजी ! इतना भारी आयोजन, इतना परिश्रम आप किसलिए कर रहे हैं? अपने पुत्रों की भोली बात सुनकर पुरुषोत्तम ने कहा- यह सब आयोजन तुम्हारे ब्याह के लिए है। पिता का उत्तर सुनकर दोनों भाइयों ने फिर कहा - पिताजी ! अब हमारा ब्याह कैसा? आपने तो हमें ब्रह्मचर्य दिलवा दिया था न? पिता ने कहा नहीं, वह तो केवल विनोद से दिया गया था। उन बुद्धिमान् भाइयों ने कहा-पिताजी ! धर्म और व्रत में विनोद कैसा? यह हमारी समझ में नहीं आया । अच्छा आपने विनोद ही से दिया सही, तो अब उसके पालन करने में भी हमें लज्जा कैसी ? पुरुषोत्तम ने फिर कहा- अस्तु! जैसा तुम कहते हो वही सही, पर तब तो केवल आठ ही दिन के लिए ब्रह्मचर्य दिया था न ? दोनों भाइयों ने कहा - पिताजी! हमें आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य दिया गया था, इसका न तो आपने हमसे खुलासा कहा था और न आचार्य महाराज ने ही । तब हम कैसे समझें कि वह व्रत आठ ही दिन के लिए था। इसलिए हम तो अब उसका आजन्म पालन करेंगे, ऐसी हमारी दृढ़ प्रतिज्ञा है । हम अब विवाह नहीं करेंगे। यह कहकर दोनों भाइयों ने घर का सब कारोबार छोड़कर और अपना चित्त शास्त्राभ्यास की ओर लगाया। थोड़े ही दिनों में वे अच्छे विद्वान् बन गए। इनके समय में बौद्धधर्म का बहुत जोर था इसलिए उन्हें उसके तत्त्व जानने की इच्छा हुई। उस समय मान्यखेट में ऐसा कोई बौद्ध विद्वान् नहीं था, जिससे वे बौद्धधर्म का अभ्यास करते। इसलिए वे एक अज्ञ विद्यार्थी का वेश बनाकर महाबोधि नामक स्थान में बौद्धधर्माचार्य के पास गए। आचार्य ने इनकी अच्छी तरह परीक्षा करके कि कहीं ये छली तो नहीं हैं और जब उन्हें इनकी ओर से विश्वास हो गया तब वे और शिष्यों के साथ-साथ उन दोनों को भी पढ़ाने लगे। वे भी अन्तरंग में तो पक्के जिनधर्मी और बाहर से एक महामूर्ख बनकर स्वर व्यंजन सीखने लगे । निरन्तर बौद्धधर्म सुनते रहने से अकलंकदेव की बुद्धि बड़ी विलक्षण हो गई, उन्हें एक ही बार के सुनने से कठिन से कठिन बात भी याद हो जाने लगी और निकलंक को दो बार सुनने से याद होने लगा अर्थात् अकलंक एक संस्थ और निकलंक दो संस्थ हो गए। इस प्रकार वहाँ रहते दोनों भाइयों का बहुत समय बीत गया ॥६- १९॥
    एक दिन की बात है बौद्धगुरु अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे । उस समय प्रकरण था, , जैनधर्म के सप्तभंगी सिद्धान्त का। वहाँ कोई अशुद्ध पाठ आ गया, जो बौद्धगुरु की समझ न आया, तब वे अपने व्याख्यान को वहीं समाप्त कर कुछ समय के लिए बाहर चले आए। अकलंक बुद्धिमान् थे, वे बौद्धगुरु के भाव समझ गए; इसलिए उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उस पाठ को शुद्ध कर दिया और उसकी खबर किसी को न होने दी। इतने में पीछे बौद्धगुरु आए। उन्होंने अपना व्याख्यान आरम्भ किया। जो पाठ अशुद्ध था, वह अब देखते ही उनकी समझ में गया । यह देख उन्हें सन्देह हुआ कि अवश्य इस जगह कोई जिनधर्मरूप समुद्र का बढ़ाने वाला चन्द्रमा है और वह हमारे धर्म के नष्ट करने की इच्छा से बौद्धवेष धारण कर बौद्धशास्त्र का अभ्यास कर रहा है । उसका जल्दी ही पता लगाकर उसे मरवा डालना चाहिए। इस विचार के साथ ही बौद्धगुरु ने सब विद्यार्थियों को शपथ, प्रतिज्ञा आदि देकर पूछा, पर जैनधर्मी का पता उन्हें नहीं लगा। इसके बाद उन्होंने जिनप्रतिमा मँगवाकर उसे लाँघ जाने के लिए सबको कहा । सब विद्यार्थी तो लाँघ गए, अब अकलंक की बारी आई, उन्होंने अपने कपड़े में से एक सूत का सूक्ष्म धागा निकालकर उसे प्रतिमा पर डाल दिया और उसे परिग्रही समझकर वे झट से लाँघ गए। यह कार्य इतनी जल्दी किया गया कि किसी की समझ में न आया। बौद्धगुरु इस युक्ति में भी जब कृतकार्य नहीं हुए, तब उन्होंने एक और नई युक्ति की । उन्होंने बहुत से काँसे के बर्तन इकट्ठे करवाए और उन्हें एक बड़ी भारी गौन में भरकर वह बहुत गुप्त रीति से विद्यार्थियों के सोने की जगह के पास रखवा दी और विद्यार्थियों की देखरेख के लिए अपना एक-एक गुप्तचर रख दिया ॥२०-२८॥
    आधी रात का समय था । सब विद्यार्थी निडर होकर निद्रादेवी की गोद में सुख का अनुभव कर रहे थे। किसी को कुछ मालूम न था कि हमारे लिए क्या-क्या षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं। एकाएक बड़ा विकराल शब्द हुआ। मानों आसमान से बिजली टूटकर पड़ी। सब विद्यार्थी उस भयंकर आवाज से काँप उठे। वे अपना जीवन बहुत थोड़े समय के लिए समझकर अपने उपास्य परमात्मा का स्मरण कर उठे। अकलंक और निकलंक भी पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करने लग गए । पास ही बौद्धगुरु का जासूस खड़ा हुआ था। वह उन्हें बुद्ध भगवान् का स्मरण करने की जगह जिन भगवान् का स्मरण करते देखकर बौद्धगुरु के पास ले गया और गुरु से उसने प्रार्थना की । प्रभो! आज्ञा कीजिए कि इन दोनों धूर्तों का क्या किया जाये ? ये ही जैनी हैं। सुनकर वह दुष्ट बौद्धगुरु बोला-इस समय रात थोड़ी बीती है, इसलिए इन्हें ले जाकर कैदखाने में बन्द कर दो, जब आधी रात हो जाये तब इन्हें मार डालना। गुप्तचर ने दोनों भाइयों को ले जाकर कैदखाने में बन्द कर दिया ॥२९-३२॥
    अपने पर एक महाविपत्ति आई देखकर निकलंक ने बड़े भाई से कहा- भैया ! हम लोगों ने इतना कष्ट उठाकर तो विद्या प्राप्त की, पर कष्ट है कि उसके द्वारा हम कुछ भी जिनधर्म की सेवा न कर सके और एकाएक हमें मृत्यु का सामना करना पड़ा। भाई की दुःखभरी बात सुनकर महाधीर-वीर अकलंक ने कहा-प्रिय! तुम बुद्धिमान् हो, तुम्हें भय करना उचित नहीं । घबराओ मत। अब भी हम अपने जीवन की रक्षा कर सकेंगे। देखो मेरे पास यह छत्री है, इसके द्वारा अपने को छुपाकर हम लोग यहाँ से निकल चलते हैं। अभी हम शीघ्र ही अपने स्थान पर जा पहुँचते हैं। यह विचार करके दोनों भाई दबे पाँव निकल गए और जल्दी-जल्दी रास्ता तय करने लगे ॥३३-३७॥
    इधर जब आधी रात बीत चुकी और बौद्धगुरु की आज्ञानुसार उन दोनों भाइयों के मारने का समय आया; तब उन्हें पकड़ लाने के लिए नौकर लोग दौड़ाए गए, पर वे कैदखाने में जाकर देखते हैं तो वहाँ कोई भी नहीं । सभी को उनके एकाएक गायब हो जाने से बड़ा आश्चर्य हुआ । पर कर क्या सकते थे। उन्हें उनके कहीं आस-पास ही छुपे रहने का सन्देह हुआ। उन्होंने आस-पास के वन, जंगल, खंडहर, बावड़ी, कुँए, पहाड़, गुफाएँ आदि सब एक-एक करके ढूँढ़ डाले, पर उनका कहीं पता न चला। उन पापियों को तब भी सन्तोष न हुआ सो उनको मारने की इच्छा से अश्व द्वारा उन्होंने यात्रा की। उनकी दयारूपी बेल क्रोधरूपी दावाग्नि से खूब ही झुलस गई थी, इसीलिए उन्हें ऐसा करने को बाध्य होना पड़ा। दोनों भाई भागते जाते थे और पीछे फिर-फिर कर देखते जाते थे कि कहीं किसी ने हमारा पीछा तो नहीं किया है। पर उनका सन्देह ठीक निकला, दूर तक देखा तो उन्हें आकाश में धूल उठती हुई दिखाई पड़ी। निकलंक ने बड़े भाई से कहा- भैया ! हम लोग जितना कुछ करते हैं, वह सब निष्फल जाता है । जान पड़ता है दैव ने अपने से पूर्ण शत्रुता बाँधी है। खेद है परम पवित्र जिनशासन की हम लोग कुछ भी सेवा न कर सके और मृत्यु ने बीच ही में आकर धर दबाया। भैया! देखो, तो पापी लोग हमें मारने के लिए पीछा किए चले आ रहे हैं। अब रक्षा होना असंभव है। हाँ, मुझे एक उपाय सूझ पड़ा है उसे आप करेंगे तो जैनधर्म का बड़ा उपकार होगा । आप बुद्धिमान् हैं, एक संस्थ है। आपके द्वारा जैनधर्म का खूब प्रकाश होगा। देखते हैं - वह सरोवर है । उसमें बहुत से कमल हैं। आप जल्दी जाइए और तालाब में उतरकर कमलों में अपने को छुपा लीजिए । जाइए, जल्दी कीजिए; देरी का काम नहीं है । शत्रु पास पहुँचे आ रहे हैं। आप मेरी चिन्ता न कीजिए। मैं भी जहाँ तक बन पड़ेगा, जीवन की रक्षा करूँगा और यदि मुझे अपना जीवन देना भी पड़े तो मुझे उसकी कुछ परवाह नहीं, जबकि मेरा प्यारा भाई जीवित रहकर पवित्र जिनशासन की भरपूर सेवा करेगा। आप जाइए भैया! मैं अब यहाँ से भागता हूँ ॥३८-४२॥ विद्यापीठ
    अकलंक की आँखों से आँसुओं की धार बह चली। उनका गला भ्रातृप्रेम से भर आया। वे भाई से एक अक्षर भी न कह पाए कि निकलंक वहाँ से भाग खड़ा हुआ। लाचार होकर अकलंक को अपने जीवन की नहीं, पवित्र जिनशासन की रक्षा के लिए कमलों में छुपना पड़ा। उनके लिए कमलों का आश्रय केवल दिखाऊ था। वास्तव में तो उन्होंने जिसके बराबर संसार में कोई आश्रय नहीं हो सकता, उस जिनशासन का आश्रय लिया था ॥४३-४४॥
    निकलंक भाई से विदा हो, जी छोड़कर भागा जा रहा था, रास्ते में उसे एक धोबी कपड़े धो हुए मिला। धोबी ने आकाश में धूल की घटा छाई हुई देखकर निकलंक से पूछा, यह क्या हो रहा है? और तुम ऐसे जी छोड़कर क्यों भागे जा रहे हो? निकलंक ने कहा- पीछे शत्रुओं की सेना आ रही है । उन्हें जो मिलता है उसे ही वह मार डालती है इसीलिए मैं भागा जा रहा हूँ। ऐसा सुनते ही धोबी भी कपड़े वगैरह सब वैसे ही छोड़कर निकलंक के साथ भाग खड़ा हुआ। वे दोनों बहुत भागे, पर आखिर कहाँ तक भाग सकते थे? सवारों ने उन्हें धर पकड़ा और उसी समय अपनी चमचमाती हुई तलवार से दोनों का शिर काटकर वे अपने मालिक के पास ले गए। सच है पवित्र जिनधर्म अहिंसा धर्म से रहित मिथ्यात्व को अपनाए हुए पापी लोगों के लिए ऐसा कौन महापाप बाकी रह जाता है, जिसे वे नहीं करते। जिनके हृदय में जीवमात्र को सुख पहुँचाने वाले जिनधर्म का लेश भी नहीं है, उन्हें दूसरों पर दया आ भी कैसे सकती है ? ॥४५-५० ॥
    उधर शत्रु अपना काम कर वापस लौटे और इधर अकलंक अपने को निर्विघ्न समझ सरोवर से निकले और निडर होकर आगे बढ़े। वहाँ से चलते-चलते वे कुछ दिनों बाद कलिंग देशान्तर्गत रत्नसंचयपुर नामक शहर में पहुँचे। इसके बाद का हाल हम नीचे लिखते हैं ॥५१-५२॥
    उस समय रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल थे। उनकी रानी का नाम मदनसुन्दरी था। वह जिन भगवान् की बड़ी भक्त थी। उसने स्वर्ग और मोक्ष सुख के देने वाले पवित्र जिनधर्म की प्रभावना के लिए अपने बनवाये हुए जिनमन्दिर में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन से रथयात्रोत्सव का आरम्भ करवाया था। उसमें उसने बहुत द्रव्य व्यय किया था ॥५३-५५॥
    वहाँ संघश्री नामक बौद्धों का प्रधान आचार्य रहता था । उसे महारानी का कार्य सहन नहीं हुआ। उसने महाराज से कहकर रथयात्रोत्सव अटका दिया और साथ ही वहाँ जिनधर्म का प्रचार न देखकर शास्त्रार्थ के लिए घोषणा भी करवा दी । महाराज शुभतुंग ने अपनी महारानी से कहा-प्रिये, जब तक कोई जैन विद्वान् बौद्धगुरु के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव न फैलाएगा, तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है। महाराज की बातें सुनकर रानी को बड़ा खेद हुआ । पर वह कर ही क्या सकती थी। उस समय कौन उसकी आशा पूरी कर सकता था। वह उसी समय जिनमन्दिर गई और वहाँ मुनियों को नमस्कार कर उनसे बोली- प्रभो, बौद्धगुरु ने मेरा रथयात्रोत्सव रुकवा दिया है। वह कहता है कि पहले मुझसे शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर लो, फिर रथोत्सव करना । बिना ऐसा किए उत्सव न हो सकेगा। इसलिए मैं आपके पास आई हूँ। बतलाइए जैनदर्शन का अच्छा विद्वान् कौन है, जो बौद्धगुरु को जीतकर मेरी इच्छा पूरी करे? सुनकर मुनि बोले- इधर आसपास तो ऐसा विद्वान् नहीं दिखता जो बौद्धगुरु का सामना कर सके । हाँ मान्यखेट नगर में ऐसे विद्वान् अवश्य हैं। उनके बुलाने का आप प्रयत्न करें तो सफलता प्राप्त हो सकती है। रानी ने कहा- वाह, आपने बहुत ठीक कहा, सर्प तो सिर के पास फुंकार कर रहा है और कहते हैं कि गारुड़ी दूर है | भला, इससे क्या सिद्धि हो सकती है ? अस्तु ! जान पड़ा कि आप लोग इस विपत्ति का सद्य; प्रतिकार नहीं कर सकते । दैव को जिनधर्म का पतन कराना ही इष्ट मालूम देता है । जब मेरे पवित्र धर्म की दुर्दशा होगी, तब मैं ही जीकर क्या करूँगी ? यह कहकर महारानी राजमहल से अपना सम्बन्ध छोड़कर जिनमन्दिर गई और उसने यह दृढ़ प्रतिज्ञा की-‘“जब संघश्री का मिथ्याभिमान चूर्ण होकर मेरा रथोत्सव बड़े ठाठ-बाट के साथ निकलेगा और जिनधर्म की खूब प्रभावना होगी, तब ही मैं भोजन करूँगी, नहीं तो वैसे ही निराहार रहकर मर मिटँगी; पर अपनी आँखों से पवित्र जैनशासन की दुर्दशा कभी नहीं देखूँगी।" ऐसा हृदय में निश्चय कर मदनसुन्दरी जिन भगवान् के सन्मुख कायोत्सर्ग धारण कर पंच नमस्कार मंत्र की आराधना करने लगी । उस समय उसकी ध्यान निश्चय अवस्था बड़ी ही मनोहर दीख पड़ती थी । मानों सुमेरु गिरि की श्रेष्ठ निश्चल चूलिका हो।‘“भव्यजीवों को जिनभक्ति का फल अवश्य मिलता है।” इस नीति के अनुसार महारानी भी उससे वंचित नहीं रही । महारानी के निश्चय ध्यान के प्रभाव से पद्मावती का आसन कंपित हुआ ॥५६-६७॥
    वह आधी रात के समय आई और महारानी से बोली- देवी, जब तुम्हारे हृदय में जिन भगवान् के चरण कमल शोभित हैं, तब तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उनके प्रसाद से तुम्हारा मनोरथ नियम से पूर्ण होगा। सुनो, कल प्रातःकाल ही अकलंकदेव इधर आएँगे, वे जैनधर्म के बड़े भारी विद्वान् हैं। वे ही संघश्री का दर्प चूर्णकर जिनधर्म की खूब प्रभावना करेंगे और तुम्हारा रथोत्सव का कार्य निर्विघ्न समाप्त करेंगे। उन्हें अपने मनोरथों के पूर्ण करने वाले मूर्तिमान शरीर समझो। यह कहकर पद्मावती अपने स्थान चली गईं ॥६८-७२॥
    देवी की बात सुनकर महारानी अत्यन्त प्रसन्न हुई उसने बड़ी भक्ति के साथ जिनभगवान् की स्तुति की और प्रातःकाल होते ही महाभिषेकपूर्वक पूजा की। इसके बाद उसने अपने राजकीय प्रतिष्ठित पुरुषों को अकलंकदेव को ढूँढ़ने को चारों और दौड़ाया। उनमें जो पूर्व दिशा की ओर गए थे, उन्होंने एक बगीचे में अशोक वृक्ष के नीचे बहुत से शिष्यों के साथ एक महात्मा को बैठे देखा । उनके किसी एक शिष्य से महात्मा का परिचय और नाम धाम पूछकर वे अपनी मालकिन के पास आए और सब हाल उन्होंने उससे कह सुनाया सुनकर ही वह धर्मवत्सला खानपान आदि सब सामग्री लेकर अपने साधर्मियों के साथ बड़े वैभव से महात्मा अकलंक के सामने गई, वहाँ पहुँच कर उसने बड़े प्रेम और भक्ति से उन्हें प्रणाम किया। उनके दर्शन से रानी को अत्यन्त आनन्द हुआ। जैसे सूर्य को देखकर कमलिनी को और मुनियों का तत्त्वज्ञान देखकर बुद्धि को आनन्द होता हैं। इसके बाद रानी ने धर्मप्रेम के वश होकर अकलंकदेव की चन्दन, अगुरु, फल, फूल, वस्त्रादि से बड़े विनय के साथ पूजा की और पुनः प्रणाम कर वह उनके सामने बैठ गई, उसे आशीर्वाद देकर पवित्रात्मा अकलंक बोले-देवी, तुम अच्छी तरह तो हो और सब संघ भी अच्छी तरह है न? महात्मा के वचनों को सुनकर रानी की आँखों से आँसू बह निकले, उसका गला भर आया । वह बड़ी कठिनता से बोली- प्रभो, संघ है तो कुशल, पर इस समय उसका घोर अपमान हो रहा है; उसका मुझे बड़ा कष्ट है। यह कहकर उसने संघश्री का सब हाल अकलंक से कह सुनाया । पवित्र धर्म का अपमान अकलंक न सह सके। उन्हें क्रोध हो आया। वे बोले - वह वराक संघ श्री मेरे पवित्र धर्म का अपमान करता है, पर वह मेरे सामने है कितना, इसकी उसे खबर नहीं है। अच्छा देखूँगा उसके अभिमान को कि वह कितना पाण्डित्य रखता है। मेरे साथ खास बुद्ध तक तो शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं रखता, तब वह बेचारा किस गिनती में है? इस तरह रानी को सन्तुष्ट करके अकलंक ने संघ श्री के शास्त्रार्थ के विज्ञापन की स्वीकारता उसके पास भेज दी और आप बड़े उत्सव के साथ जिनमन्दिर आ पहुँचे ॥७३-८६॥
    पत्र संघश्री के पास पहुँचा । उसे देखकर और उसकी लेखन शैली को पढ़कर उसका चित्त क्षुभित हो उठा। आखिर उसे शास्त्रार्थ के लिए तैयार होना ही पड़ा ॥८७॥
    अकलंक के आने के समाचार महाराज हिमशीतल के पास पहुँचे। उन्होंने उसी समय बड़े आदर सम्मान के साथ उन्हें राजसभा में बुलवाकर संघ श्री के साथ उनका शास्त्रार्थ कराया। संघ श्री उनके साथ शास्त्रार्थ करने को तो तैयार हो गया, पर जब उसने अकलंक के प्रश्नोत्तर करने का पाण्डित्य देखा और उससे अपनी शक्ति की तुलना की, तब उसे ज्ञान हुआ कि मैं अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने में असक्त हूँ, पर राजसभा में ऐसा कहना भी उसने उचित न समझा क्योंकि उससे उसका अपमान होता । तब उसने एक नई युक्ति सोचकर राजा से कहा- महाराज, यह धार्मिक विषय है, इसका निर्णय होना कठिन है। इसलिए मेरी इच्छा है कि यह शास्त्रार्थ सिलसिलेबार तब तक चलना चाहिए जब तक कि एक पक्ष पूर्ण निरुत्तर न हो जाये। राजा ने अकलंक की अनुमति लेकर संघश्री के कथन को मान लिया। उस दिन का शास्त्रार्थ बन्द हुआ। राजसभा भंग हुई ॥८८-८९॥
    अपने स्थान पर आकर संघ श्री ने जहाँ-जहाँ बौद्धधर्म के विद्वान् रहते थे, उनको बुलवाने को अपने शिष्यों को दौड़ाया और स्वयं ने रात्रि के समय अपने धर्म की अधिष्ठात्री देवी की आराधना की। देवी उपस्थित हुई संघश्री ने उससे कहा- देखती हो, धर्म पर बड़ा संकट उपस्थित हुआ है। उसे दूरकर धर्म की रक्षा करनी होगी। अकलंक बड़ा पंडित है। उसके साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त करना असम्भव था इसीलिए मैंने तुम्हें कष्ट दिया है। यह शास्त्रार्थ मेरे द्वारा तुम्हें करना होगा और अकलंक को पराजित कर बुद्धधर्म की महिमा प्रकट करनी होगी । बोलो, क्या कहती हो? उत्तर में देवी ने कहा- हाँ, मैं शास्त्रार्थ करूँगी सही, पर खुली सभा में नहीं; किन्तु परदे के भीतर घड़े में रहकर । 'तथास्तु' कहकर संघश्री ने देवी को विसर्जित किया और आप प्रसन्नता के साथ दूसरी निद्रा देवी की गोद में जा लेटा ॥९०-९३॥
    प्रातःकाल हुआ। शौच, स्नान, देवपूजन आदि नित्य कर्म से छुट्टी पाकर संघश्री राजसभा में पहुँचा और राजा से बोला- महाराज, हम आज से शास्त्रार्थ परदे के भीतर रहकर करेंगे। हम शास्त्रार्थ के समय किसी का मुँह नहीं देखेंगे। आप पूछेंगे क्यों? इसका उत्तर अभी न देकर शास्त्रार्थ के अन्त में दिया जायेगा। राजा संघश्री के कपट जाल को कुछ नहीं समझ सके । उसने जैसा कहा वैसा उन्होंने स्वीकार कर उसी समय वहाँ एक परदा लगवा दिया। संघ श्री ने उसके भीतर जाकर बुद्ध भगवान् की पूजा की और देवी की पूजा कर एक घड़े में आह्वान किया। धूर्त लोग बहुत कुछ छल कपट करते हैं, पर अन्त में उसका फल अच्छा न होकर बुरा ही होता हैं ॥९४-९६॥
    इसके बाद घड़े की देवी अपने में जितनी शक्ति थी, उसे प्रकट कर अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने लगी। इधर अकलंकदेव भी देवी के प्रतिपादन किए हुए विषय का अपनी दिव्य भारती द्वारा खण्डन और अपने पक्ष का समर्थन तथा परपक्ष का खण्डन करने वाले परम पवित्र अनेकान्त - स्याद्वाद मत का समर्थन बड़े ही पाण्डित्य के साथ निडर होकर करने लगे । इस प्रकार शास्त्रार्थ होते-होते छह महीने बीत गए, पर किसी की विजय न हो पाई, यह देख अकलंकदेव को बड़ी चिन्ता हुई उन्होंने सोचा-संघश्री साधारण पढ़ा-लिखा और जो पहले ही दिन मेरे सम्मुख थोड़ी देर भी न ठहर सका था, वह आज बराबर छह महीने से शास्त्रार्थ करता चला आता है; इसका क्या कारण है, सो नहीं जान पड़ता। उन्हें इसकी बड़ी चिन्ता हुई पर वे कर ही क्या सकते थे । एक दिन इसी चिन्ता में डूबे हुए थे कि इतने में जिनशासन की अधिष्ठात्री चक्रेश्वरी देवी आई और अकलंकदेव से बोली- प्रभो ! आपके साथ शास्त्रार्थ करने की मनुष्य मात्र में शक्ति नहीं है और बेचारा संघ श्री भी तो मनुष्य है, तब उसकी क्या मजाल जो वह आपसे शास्त्रार्थ करे? पर यहाँ तो बात कुछ और ही है। आपके साथ जो शास्त्रार्थ करता है वह संघश्री नहीं है किन्तु बुद्धधर्म की अधिष्ठात्री तारा नाम की देवी है। इतने दिनों से वही शास्त्रार्थ कर रही है। संघ श्री ने उसकी आराधना कर यहाँ बुलाया है। इसलिए कल जब शास्त्रार्थ होने लगे और देवी उस समय जो कुछ प्रतिपादन करे तब आप उससे उसी विषय का फिर से प्रतिपादन करने के लिए कहिए। वह उसे फिर न कह सकेगी और तब उसे अवश्य नीचा देखना पड़ेगा । यह कहकर देवी अपने स्थान पर चली गई, अकलंकदेव की चिन्ता दूर हुई वे बड़े प्रसन्न हुए ॥९७-१०७॥
    प्रातःकाल हुआ । अकलंकदेव अपने नित्यकर्म से मुक्त होकर जिनमन्दिर गए। बड़े भक्तिभाव से उन्होंने भगवान् की स्तुति की। इसके बाद वे वहाँ से सीधे राजसभा में आए। उन्होंने महाराज शुभतुंग को सम्बोधन करके कहा- राजन् ! इतने दिनों तक मैंने जो शास्त्रार्थ किया, उसका यह मतलब नहीं था कि मैं संघश्री को पराजित नहीं कर सका परन्तु ऐसा करने से मेरा अभिप्राय जिनधर्म का प्रभाव बतलाने का था। वह मैंने बतलाया। पर अब मैं इस वाद का अन्त करना चाहता हूँ। मैंने आज निश्चय कर लिया है कि मैं आज इस वाद की समाप्ति करके ही भोजन करूँगा । ऐसा कहकर उन्होंने परदे की ओर देखकर कहा-क्या जैनधर्म के सम्बन्ध में कुछ और कहना बाकी है या मैं शास्त्रार्थ समाप्त करूँ? वे कहकर जैसे ही चुप रहे कि परदे की ओर से फिर वक्तव्य आरम्भ हुआ । देवी अपना पक्ष समर्थन करके चुप हुई कि अकलंकदेव ने उसी समय कहा- जो विषय अभी कहा गया है, उसे फिर से कहो? वह मुझे ठीक नहीं सुन पड़ा। आज अकलंक का यह नया ही प्रश्न सुनकर देवी का साहस एक साथ ही न जाने कहाँ चला गया। देवता जो कुछ बोलते वे एक ही बार बोलते हैं- उसी बात को वे पुनः नहीं बोल पाते। तारा देवी का भी यही हाल हुआ। वह अकलंकदेव के प्रश्न का उत्तर न दे सकी। आखिर उसे अपमानित होकर भाग जाना पड़ा। जैसे सूर्योदय से रात्रि भाग जाती है ॥१०८-११२॥
    इसके बाद ही अकलंकदेव उठे और परदे को फाड़कर उसके भीतर घुस गए। वहाँ जिस घड़े में देवी का आह्वान किया गया था, उसे उन्होंने पाँव की ठोकर से फोड़ डाला। संघश्री सरीखे जिनशासन के शत्रुओं का, मिथ्यात्वियों का अभिमान चूर्ण किया। अकलंक की इस विजय और जिनधर्म की प्रभावना से मदनसुन्दरी और सर्वसाधारण को बड़ा आनन्द हुआ। अकलंक ने सब लोगों के सामने जोर देकर कहा - सज्जनों! मैंने इस धर्मशून्य संघ श्री को पहले ही दिन पराजित कर दिया था किन्तु इतने दिन जो देवी के साथ शास्त्रार्थ किया, वह जिनधर्म का माहात्म्य प्रकट करने के लिए और सम्यग्ज्ञान का लोगों के हृदय पर प्रकाश डालने के लिए था। यह कहकर अकलंकदेव ने इस श्लोक को पढ़ा ॥११३-११८॥
    अर्थात्-महाराज, हिमशीतल की सभा में मैंने सब बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को ठुकराया, यह न तो अभिमान के वश होकर किया और न किसी प्रकार द्वेषभाव से किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आई इसलिए उनकी दया से बाध्य होकर मुझे ऐसा करना पड़ा।
    उस दिन से बौद्धों का राजा और प्रजा के द्वारा चारों और अपमान होने लगा। किसी की बुद्धधर्म पर श्रद्धा नहीं रही। सब उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे । यही कारण है बौद्ध लोग यहाँ से भागकर विदेशों में जा बसे ॥११९॥
    महाराज हिमशीतल और प्रजा के लोग जिनशासन की प्रभावना देखकर बड़े खुश हुए। सबने मिथ्यात्व मत छोड़कर जिनधर्म स्वीकार किया और अकलंकदेव का सोने, रत्न आदि के अलंकारों से खूब आदर सम्मान किया, खूब उनकी प्रशंसा की । सच बात है जिन भगवान् के पवित्र सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से कौन सत्कार का पात्र नहीं होता ॥१२०-१२२॥
    अकलंकदेव के प्रभाव से जिनशासन का उपद्रव टला देखकर महारानी मदनसुन्दरी ने पहले से भी कई गुणे उत्साह से रथ निकलवाया। रथ बड़ी सुन्दरता के साथ सजाया गया था। उसकी शोभा देखते ही बन पड़ती थी। वह वेशकीमती वस्त्र था, छोटी-छोटी घंटियाँ उसके चारों ओर लगी हुई थी, उनकी मधुर आवाज एक बड़े घंटे की आवाज से मिलकर, जो कि उन घंटियों के ठीक बीच में था, बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी, उस पर रत्नों और मोतियों की माला से अपूर्व शोभा दे रही थी, उसके ठीक बीच में रत्नमयी सिंहासन पर जिनभगवान् की बहुत सुन्दर प्रतिमा शोभित थी । वह मौलिक छत्र, चामर, भामण्डल आदि से अलंकृत थी । रथ चलता जाता था और उसके आगे-आगे भव्य पुरुष बड़ी भक्ति के साथ जिनभगवान् की जय बोलते हुए और भगवान् पर अनेक प्रकार के सुगन्धित फूलों की, जिनकी महक से सब दिशाएँ सुगन्धित होतीं थीं, वर्षा करते चले जाते थे। चारणलोग भगवान् की स्तुति पढ़ते जाते थे। कुल कामिनियाँ सुन्दर-सुन्दर गीत गाती जाती थीं । नर्तकियाँ नृत्य करती जातीं थीं। अनेक प्रकार के बाजों का सुन्दर शब्द दर्शकों के मन को अपनी ओर आकर्षित करता था। इन सब शोभाओं से रथ ऐसा जान पड़ता था, मानों पुण्यरूपी रत्नों के उत्पन्न करने को चलने वाला वह एक दूसरा रोहण पर्वत उत्पन्न हुआ है। उस समय जो याचकों को दान दिया जाता था, वस्त्राभूषण वितीर्ण किए जाते थे, उससे रथ की शोभा एक चलते हुए कल्पवृक्ष की सी जान पड़ती थी । हम रथ की शोभा का कहाँ तक वर्णन करें? आप इसी से अनुमान कर लीजिए कि जिसकी शोभा को देखकर ही बहुत से अन्यधर्मी लोगों ने जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया, तब उसकी सुन्दरता का क्या ठिकाना है? इत्यादि दर्शनीय वस्तुओं से सजाकर रथ निकाला गया, उसे देखकर यही जान पड़ता था, मानों महादेवी मदनसुन्दरी की यशोराशि ही चल रही है। वह रथ भव्य-पुरुषों के लिए सुख को देने वाला था। उस सुन्दर रथ की हम प्रतिदिन भावना करते है, उसका ध्यान करते हैं । वह हमें सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी प्रदान करें ॥१२३-१३२॥
    जिस प्रकार अकलंकदेव ने सम्यग्ज्ञान की प्रभावना की, उसका महत्त्व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर दिया उसी प्रकार और - और भव्य पुरुषों को भी उचित है कि वे भी अपने से जिस तरह बन पड़े जिनधर्म की प्रभावना करें, जैनधर्म के प्रति उनका जो कर्तव्य है उसे वे पूरा करे। संसार में जिनभगवान् की सदा जय हो, जिन्हें इन्द्र, धरणेन्द्र नमस्कार करते हैं और जिनका ज्ञानरूपी प्रदीप सारे संसार को सुख देने वाला है। श्रीप्रभाचन्द्र मुनि मेरा कल्याण करें, जो गुण रत्नों के उत्पन्न होने के स्थान पर्वत हैं और ज्ञान के समुद्र हैं ॥१३३-१३४॥
  13. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    पात्रकेसरी आचार्य ने सम्यग्दर्शन का उद्योत किया था । उनका चरित मैं कहता हूँ, वह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का कारण है ॥१६॥
    भगवान् के पंचकल्याणकों से पवित्र और सब जीवों को सुख के देने वाले इस भारतवर्ष में एक मगध नाम का देश है । वह संसार के श्रेष्ठ वैभव का स्थान है। उसके अन्तर्गत एक अहिछत्र नाम का सुन्दर शहर है। उसकी सुन्दरता संसार को चकित करने वाली है ॥१७-१८॥
    नगरवासियों के पुण्य से उसका अवनिपाल नाम का राजा बड़ा गुणी था, सब राजविद्याओं का पण्डित था। अपने राज्य का पालन वह अच्छी नीति के साथ करता था । उनके पास पाँच सौ अच्छे विद्वान् ब्राह्मण थे । वे वेद और वेदांग के जानकार थे । राजकार्य में वे अवनिपाल को अच्छी सहायता देते थे। उनमें एक अवगुण था, वह यह कि उन्हें अपने कुल का बड़ा घमण्ड था। उससे वे सबको नीची दृष्टि से देखा करते थे । वे प्रातःकाल और सायंकाल नियमपूर्वक अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करते थे। उनमें एक विशेष बात थी, वह यह कि वे जब राजकार्य करने को राजसभा में जाते, तब उसके पहले कौतूहल से पार्श्वनाथ जिनालय में श्रीपार्श्वनाथ की पवित्र प्रतिमा का दर्शन कर जाया करते थे ॥१९-२१॥ 
    एक दिन की बात है कि वे जब अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करके जिनमन्दिर में आए तब उन्होंने एक चारित्रभूषण नाम के मुनिराज को भगवान् के सम्मुख देवागम नाम का स्तोत्र का पाठ करते देखा। उन सबमें प्रधान पात्रकेसरी ने मुनि से पूछा- क्या आप इस स्तोत्र का अर्थ भी जानते हैं? सुनकर मुनि बोले-मैं इसका अर्थ नहीं जानता। पात्रकेसरी फिर बोले- साधुराज, इस स्तोत्र को फिर तो एक बार पढ़ जाइए। मुनिराज ने पात्रकेसरी के कहे अनुसार धीरे-धीरे और पदान्त में विश्रामपूर्वक फिर देवागम को पढ़ा, उसे सुनकर लोगों का चित्त बड़ा प्रसन्न होता था ॥२२-२६॥
    पात्रकेसरी की धारणाशक्ति बड़ी विलक्षण थी । उन्हें एक बार के सुनने से ही सबका सब याद हो जाता था। देवागम को भी सुनते ही उन्होंने याद कर लिया। जब वे उसका अर्थ विचारने लगे, उस समय दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उन्हें यह निश्चय हो गया कि जिन भगवान् ने जो जीवादिक पदार्थों का स्वरूप कहा है, वही सत्य है और अतिरिक्त सत्य नहीं है । इसके बाद वे घर पर जाकर वस्तु का स्वरूप विचारने लगे। सब दिन उनका उसी तत्त्वविचार में बीता । रात को भी उनका यही हाल रहा। उन्होंने विचार किया - जैनधर्म में जीवादिक पदार्थों को प्रमेय - जानने योग्य माना है और तत्त्वज्ञान-सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना है। पर क्या आश्चर्य है कि अनुमान प्रमाण का लक्षण कहा ही नहीं गया, यह क्यों? जैनधर्म के पदार्थों में उन्हें कुछ सन्देह हुआ, उससे उनका चित्त व्यग्र हो उठा।
    इतने ही में पद्मावती देवी का आसन कम्पायमान हुआ। वह उसी समय वहाँ आई और पात्रकेसरी से उसने कहा-आपको जैनधर्म के पदार्थों में कुछ सन्देह हुआ है, पर इसकी आप चिन्ता न करें। आप प्रातःकाल जब जिन भगवान् के दर्शन करने को जायेंगे तब आपका सब सन्देह मिटकर आपको अनुमान प्रमाण का निश्चय हो जायेगा। पात्रकेसरी से इस प्रकार कहकर पद्मावती जिनमन्दिर गई और वहाँ पार्श्वजिन की प्रतिमा के फण पर एक श्लोक लिखकर वह अपने स्थान पर चली गई, वह श्लोक यह था ॥२७-३६॥
    'अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥" 
    अर्थात्-जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ हेतु के दूसरे तीन रूप मानने से क्या प्रयोजन है? तथा जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ हेतु के तीन रूप मानने से भी क्या फल है? भावार्थ-साध्य के अभाव में न मिलने वाले को ही अन्यथानुपपन्न कहते हैं। इसलिए अन्यथानुपपत्ति हेतु का असाधारण रूप है किन्तु बौद्ध इसको न मानकर हेतु के १ . पक्षेसत्त्व, २. सपक्षेसत्त्व, ३. विपक्षाद्व्यावृत्ति ये तीन रूप मानता है, सो ठीक नहीं है क्योंकि कहीं-कहीं पर त्रैरूप्य के न होने पर अन्यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु होता है और कहीं-कहीं पर एक त्रैरूप्य के होने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता। जैसे मुहूर्त के अनन्तर शकट का उदय होगा क्योंकि अभी कृतिका का उदय है। यहाँ पर पक्षेसत्त्व न होने पर भी अन्यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु है और ‘गर्भस्थ पुत्र श्याम होगा' क्योंकि यह मित्र का पुत्र है। यहाँ पर त्रैरूप्य के रहने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता।
    पात्रकेसरी ने जब पद्मावती को देखा तब ही उनकी श्रद्धा जैनधर्म में खूब दृढ़ हो गई थी, जो कि सुख देने वाली और संसार के परिवर्तन का नाश करने वाली है। पश्चात् जब वे प्रातःकाल जिनमन्दिर गए और श्रीपार्श्वनाथ की प्रतिमा पर उन्हें अनुमान प्रमाण का लक्षण लिखा हुआ मिला तब तो उनके आनन्द का कुछ पार नहीं रहा। उसे देखकर उनका सब सन्देह दूर हो गया। जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है ॥ ३७-३९॥
    इसके बाद ब्राह्मण-प्रधान, पुण्यात्मा और जिनधर्म के परम श्रद्धालु पात्रकेसरी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने हृदय में निश्चय कर लिया कि भगवान् ही निर्दोष और संसाररूपी समुद्र से पार कराने वाले देव हो सकते हैं और जिनधर्म ही दोनों लोक में सुख देने वाला धर्म हो सकता है। इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उन्हें सम्यक्त्वरूपी परम रत्न की प्राप्ति हो गई, उससे उनका मन बहुत प्रसन्न रहने लगा ॥४०-४२॥
    अब उन्हें निरंतर जिनधर्म के तत्त्वों की मीमांसा के सिवा कुछ न सूझने लगा-वे उनके विचार में मग्न रहने लगे। उनकी यह हालत देखकर उनसे ब्राह्मणों ने पूछा- आज कल हम देखते हैं कि आपने मीमांसा, गौतमन्याय, वेदान्त आदि का पठन-पाठन बिल्कुल ही छोड़ दिया है और उनकी जगह जिनधर्म के तत्त्वों का ही आप विचार किया करते हैं, यह क्यों? सुनकर पात्रकेसरी ने उत्तर दिया-आप लोगों को अपने वेदों का अभिमान है, उस पर ही आपका विश्वास है, इसलिए आपकी दृष्टि सत्य बात की ओर नहीं जाती पर मेरा विश्वास आपसे उल्टा है, मुझे वेदों पर विश्वास न होकर जैनधर्म पर विश्वास है, वही मुझे संसार में सर्वोत्तम धर्म दिखता है । मैं आप लोगों से भी आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि आप विद्वान् हैं, सच झूठ की परीक्षा कर सकते हैं, इसलिए जो मिथ्या हो, झूठा हो, उसे छोड़कर सत्य को ग्रहण कीजिए और ऐसा सत्यधर्म एक जिनधर्म ही हैं; इसलिए वह ग्रहण करने योग्य है ॥४३-४६॥
    पात्रकेसरी के इस उत्तर से उन ब्राह्मणों को सन्तोष नहीं हुआ। वे इसके विपरीत उनसे शास्त्रार्थ करने को तैयार हो गए। राजा के पास जाकर उन्होंने पात्रकेसरी के साथ शास्त्रार्थ करने की प्रार्थना की। राजाज्ञा के अनुसार पात्रकेसरी राजसभा में बुलवाए गए। उनका शास्त्रार्थ हुआ। उन्होंने वहाँ सब ब्राह्मणों को पराजित कर संसार पूज्य और प्राणियों को सुख देने वाले जिनधर्म का खूब प्रभाव प्रकट किया और सम्यग्दर्शन की महिमा प्रकाशित की ॥४७-४८॥
    उन्होंने एक जिनस्तोत्र बनाया, उसमें जिनधर्म के तत्त्वों का विवेचन और अन्यमतों के तत्त्वों का बड़े पाण्डित्य के साथ खण्डन किया गया है। उसका पठन-पाठन सबके लिए सुख का कारण है। पात्रकेसरी के श्रेष्ठ गुणों और अच्छे विद्वानों द्वारा उनका आदर सम्मान देखकर अवनिपाल राजा ने तथा उन ब्राह्मणों ने मिथ्यामत को छोड़कर शुभ भावों के साथ जैनमत को ग्रहण कर लिया ॥४९-५१॥
    इस प्रकार पात्रकेसरी के उपदेश से संसार समुद्र से पार करने वाले सम्यग्दर्शन को और स्वर्ग तथा मोक्ष के देने वाले पवित्र जिनधर्म को स्वीकार कर अवनिपाल आदि ने पात्रकेसरी की बड़ी श्रद्धा के साथ प्रशंसा की, कि द्विजोत्तम, तुमने जैनधर्म को बड़े पाण्डित्य के साथ खोज निकाला है, तुम्हीं ने जिन भगवान् के उपदेशित तत्त्वों के मर्म को अच्छी तरह समझा है, तुम ही जिन भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने वाले सच्चे भ्रमर हो, तुम्हारी जितनी स्तुति की जाये थोड़ी है । इस प्रकार पात्रकेसरी के गुणों और पाण्डित्य की हृदय से प्रशंसा करके उन सबने उनका बड़ा आदर सम्मान किया ॥५२-५४॥
    जिस प्रकार पात्रकेसरी ने सुख के कारण, परम पवित्र सम्यग्दर्शन का उद्योतकर उसका संसार में प्रकाशकर राजाओं के द्वारा सम्मान प्राप्त किया, उसी प्रकार और भी जो जिनधर्म का श्रद्धानी होकर भक्तिपूर्वक सम्यग्दर्शन का उद्योत करेगा, वह भी यशस्वी बनकर अंत में स्वर्ग या मोक्ष का पात्र होगा ॥५५॥
    कुन्दपुष्प, चन्द्र आदि के समान निर्मल और कीर्ति युक्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य की आम्नाय में श्री मल्लिभूषण भट्टारक हुए। श्रुतसागर उनके गुरुभाई हैं । उन्हीं की आज्ञा से मैंने यह कथा श्री सिंहनन्दी मुनि के पास रहकर बनाई है। वह इसलिए कि इसके द्वारा मुझे सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो ॥५६॥
  14. admin
    सादर जय जिनेन्द्र,
    आपको यह आज शाम 9 बजे तक भेजनी है।
    आओ शब्दो से भजन बनाये
    उदहारण :-
    ध     क   म      ज
    धरम करो  मस्त  जवानी में
    1  जी      है      पा     की     बूं    क
    2  मे      आ    कृ      से     स    का
    3   पा      प्या      ला     च    प्या
    4   मं      ण    ह    प्रा     से  प्या
    5    ज      से     गु    द   मि    म
    6   स     ध    क    जि    दि    मौ    की
    7    अ     ज   ज   सि      प्र    ज    ज
    8    ण     मं     है     न्या     जि    ला
    9    छो     सा      मं     ब    वी    गु
    10   वि     की     तृष्     को     छो   के
    11  हिं      पी      वि    रा    म
    12 तू      जा     रे     चे    प्रा    क
    13 ते      पां    हु    कल्     प्र    ए    बा
    14  सो     सो    में     नि     ग    सा    जिं
    15  मु      आ     मे     कु      में      आ    है
    16  मि        है       सच्    सु      के      भ
    17  मा      तू     द      क     क       से
    18 ल       ल      ल     के       झं       जि     का
    19 क      हूं      में      अ     स्वी    क
    20 झी     झी   उ      रे      गु     चा      रे
  15. admin
    23. सोलह सपने माता देखे, उन्नत गज है हर्ष विशेखे। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    24. बैल स्वप्न में माँ के आया, शभ लक्षण है गर्भ कहाया। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    25.  सिंह स्वप्न में माँ के आया, शुभ लक्षण है गर्भ कहाया।
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    26.  लक्ष्मी का अभिषेक कराएं, हस्ति देखो स्वप्न में आएं। 
    फल है इसका कौन बताएं, वीर प्रभु को शीश नवाएं।
     
    27. पुष्प सुगंधित दो मालाएं, स्वप्न में माता के है आएं। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।।
     
    28 पूर्ण चन्द्रमा मन को भाता, अंधकार को दूर भगाता। 
    स्वप्न में देखे त्रिशलारानी,स्वज के फल की कहो कहानी।।
     
    29. उदयाचल पर्वत पर भारी, सूर्य दिखा जो संकटहारी। 
    स्वप्न में देखे त्रिशलारानी, कहे कौन शुभ फल की वाणी।।
     
    30. स्वर्ण कलश दो स्वप्न में आए, जल से भरे सदा मन भाए।
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
     31.मत्स्य युगल तालाब में भाई, स्वप्न में देखे प्रभ सखदाई। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    32. जल से भरा सरोवर भाई , स्वप्न में देखे माँ सहाई।
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    33. जोरदार गर्जन है करता, सागर जल जो तरंग धरता।
    स्वप्न में देखे त्रिशला माई, कौन-सा फल है बताओ भाई ।।
     
    34. सिंहासन सपने में आया, माँ त्रिशला का मन हर्षाया।
    स्वप्न का फल है कौन बताये, सही बताकर इनाम पाये।
     
    35. स्वर्ग लोक का विमान भाई, स्वप्न में देखे माँ सुखदाई।
    फल है इसका कौन बताए, सही बताकर इनाम पाए।
  16. admin
    दिव्यध्वनि जो दुख को हरती, वीर प्रभु के मुख से खिरती।
    प्रथम देशना सबने पाई, तिथी कौन-सी बताओ भाई ।।
  17. admin
    वीर प्रभु ने कर्म नशाया, श्री अरिहन्त का पद है पाया।
    यक्ष-यक्षिणी कौन बताए, जिनशासन की शान बढ़ाए।
  18. admin
    केवलज्ञान प्रभु ने पाया, समवशरण भी इन्द्र रचाया।
    मौन रहे प्रभु वीर न बोले, कितने दिन तक मुख न खोले।
     
  19. admin
    14. नाम 'सन्मति' प्रभु ने पाया, सच्चा पथ है हमें बताया।
    मुनिवर कौन वे ऋद्धिधारी, कर्म सैन्य भी जिनसे हारी।।
     
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