Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

१०६. सम्यक्त्व को न छोड़ने वाले की कथा


जिन्हें स्वर्ग के देव नमस्कार करते हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर सम्यक्त्व को न छोड़ने वाली जिनमती की कथा लिखी जाती है ॥१॥

लाटदेश के सुप्रसिद्ध गलगोद्रह नाम के शहर में जिनदत्त नाम का एक सेठ हो चुका है। उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था । उसके जिनमती नाम की एक लड़की थी। जिनमती बहुत सुन्दरी थी। उसकी भुवनमोहिनी सुन्दरता देखकर स्वर्ग की अप्सराएँ भी लजा जाती थी। पुण्य से सुन्दरता प्राप्त होती है ॥२-३॥

यहीं पर एक दूसरा सेठ रहता था। उसका नाम नागदत्त था । नागदत्त की स्त्री नागदत्ता के रुद्रदत्त नाम का एक लड़का था । नागदत्त ने बहुतेरा चाहा कि जिनदत्त जिनमती का ब्याह उसके पुत्र रुद्रदत्त से कर दे। पर उसको विधर्मी होने से जिनदत्त ने उसे अपनी पुत्री न ब्याही | जिनदत्त का यह हठ नागदत्त को पसन्द न आया। उसने तब एक दूसरी युक्ति की । वह यह कि नागदत्त और रुद्रदत्त समाधिगुप्त मुनि से कुछ व्रत, नियम लेकर श्रावक बन गए और श्रावक सरीखी सब क्रियाएँ करने लगे। जिनदत्त को इससे बड़ी खुशी हुई और उसे इस बात पर पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही जैनी हो गए हैं तब उसने बड़ी खुशी के साथ जिनमती का ब्याह रुद्रदत्त से कर दिया। जहाँ ब्याह हुआ कि इन दोनों पिता-पुत्रों ने जैनधर्म छोड़कर पीछा अपना धर्म ग्रहण कर लिया ॥४-७॥

रुद्रदत्त अब जिनमती से रोज-रोज आग्रह करने लगा कि प्रिये, तुम भी अब क्यों न मेरा ही धर्म ग्रहण कर लेती हो । वह बड़ा उत्तम धर्म है । जिनमती की जिनधर्म पर गाढ़ श्रद्धा थी । वह जिनेन्द्र भगवान् की सच्ची सेविका थी । ऐसी हालत में उसे जिनधर्म के सिवा अन्य धर्म कैसे रुच सकता था। उसने तब अपने विचार, बड़ी स्वतन्त्रता के साथ अपने स्वामी पर प्रकट किए। वह बोली-प्राणनाथ, आपका जैसा विश्वास हो, उस पर मुझे कुछ कहना - सुनना नहीं। पर मैं अपने विश्वास के अनुसार यह कहूँगी कि संसार में जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है जो सर्वोच्च होने का दावा कर सकता है। इसलिए कि जीवमात्र का उपकार करने की उसमें योग्यता है और बड़े-बड़े राजा- महाराजाओं, स्वर्ग के देव, विद्याधर और चक्रवर्ती आदि उसे पूजते- मानते है फिर मैं ऐसी कोई बेजा बात उसमें नहीं पाती कि जिससे मुझे उसके छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़े। बल्कि मैं आपको भी सलाह दूँगी कि आप इसी सच्चे और जीव मात्र का हित करने वाले जैनधर्म को ग्रहण कर लें तो बड़ा अच्छा हो। इसी प्रकार इन दोनों पति-पत्नी की परस्पर बात-चीत हुआ करती थी। अपने- अपने धर्म की दोनों ही तारीफ किया करते थे । रुद्रदत्त जरा अधिक हठी था । इसलिए कभी - कभी जिनमती पर वह जरा गुस्सा भी हो जाता था । पर जिनमती बुद्धिमती और चतुर थी, इसलिए वह उसकी नाराजगी पर कभी अप्रसन्नता जाहिर न करती । बल्कि उसकी नाराजगी को हँसी का रूप दे झट से रुद्रदत्त को शान्त कर देती थी । जो हो, पर ये रोज-रोज की विवाद भरी बातें सुख का कारण नहीं होती ॥८-१२॥

इस तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन ऐसा मौका आया कि दुष्ट भीलों ने शहर के किसी हिस्से में आग लगा दी। चारों ओर आग बुझाने के लिए दौड़ा-दौड़ पड़ गई। उस भयंकर आग को देखकर लोगों को अपनी जान का भी सन्देह होने लगा । इस समय को योग्य अवसर देख जिनमती ने अपने स्वामी रुद्रदत्त से कहा - प्राणनाथ, मेरी बात सुनिए । रोज-रोज का जो अपने में वाद- विवाद होता है, मैं उसे अच्छा नहीं समझती । मेरी इच्छा है कि यह झगड़ा रफा हो जाए ॥१३॥

इसके लिए मेरा यह कहना है कि आज अपने शहर में आग लगी है उस आग को जिसका देव बुझा दे, समझना चाहिए कि वही देव सच्चा है और फिर उसी को हमें परस्पर में स्वीकार कर लेना चाहिए। रुद्रदत्त ने जिनमती की यह बात मान ली। उसने तब कुछ लोगों को इस बात का गवाह कर अपने इष्ट आदि देवों के लिए अर्घ दिया, बड़ी भक्ति से उनकी पूजा - स्तुति कर उसने अग्नि शान्ति के लिए प्रार्थना की। पर उसकी इस प्रार्थना का कुछ उपयोग न हुआ । अग्नि जिस भयंकरता के साथ जल रही थी। वह उसी तरह जलती रही। सच है, ऐसे देवों से कभी उपद्रवों की शान्ति नहीं होती, जिनका हृदय दुष्ट है, जो मिथ्यात्वी है ॥१४- १७॥

अब धर्मवत्सला जिनमती की बारी आई उसने बड़ी भक्ति से पंच परमेष्ठियों के चरण- कमलों को अपने हृदय में विराजमान कर उनके लिए अर्घ चढ़ाया। इसके बाद वह अपने पति, पुत्र आदि कुटुम्ब वर्ग को अपने पास बैठाकर आप कायोत्सर्ग ध्यान द्वारा पंच-नमस्कार मन्त्र का चिन्तन करने लगी। इसकी इस अचल श्रद्धा और भक्ति को देखकर शासन देवी बड़ी प्रसन्न हुई उसने तब उसी समय आकर उस भयंकर आग को देखते-देखते बुझा दिया । इस अतिशय को देखकर रुद्रदत्त वगैरह बड़े चकित हुए । उन्हें विश्वास हुआ कि जैनधर्म ही सच्चा धर्म है। उन्होंने फिर सच्चे मन से जैनधर्म की दीक्षा ले श्रावकों के व्रत ग्रहण किए। जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई। सच है - संसार में श्रेष्ठ जैनधर्म की महिमा को कौन कह सकता है जो कि स्वर्ग - मोक्ष का देने वाला है। जिस प्रकार जिनमती ने अपने सम्यक्त्व की रक्षा की, उसी तरह अन्य भव्यजनों को सुख प्राप्ति के लिए पवित्र सम्यग्दर्शन की सदा सुरक्षा करते रहना चाहिए ॥१८ - २३॥

जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में जिनमती की अचल भक्ति, उसके हृदय की पवित्रता और उसका दृढ़ विश्वास देखकर स्वर्ग के देवों ने दिव्य वस्त्राभूषणों से उसका खूब आदर-मान किया और सच भी है-सच्चे जिनभक्त सम्यग्दृष्टि की कौन पूजा नहीं करते ॥२४॥

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Guest
Add a comment...

×   Pasted as rich text.   Paste as plain text instead

  Only 75 emoji are allowed.

×   Your link has been automatically embedded.   Display as a link instead

×   Your previous content has been restored.   Clear editor

×   You cannot paste images directly. Upload or insert images from URL.

  • अपना अकाउंट बनाएं : लॉग इन करें

    • कमेंट करने के लिए लोग इन करें 
    • विद्यासागर.गुरु  वेबसाइट पर अकाउंट हैं तो लॉग इन विथ विद्यासागर.गुरु भी कर सकते हैं 
    • फेसबुक से भी लॉग इन किया जा सकता हैं 

     

×
×
  • Create New...