९६. हीनाधिक अक्षर की कथा
उन जिन भगवान् को नमस्कार कर, जिनका कि केवलज्ञान एक सर्वोच्च नेत्र की उपमा धारण करने वाला है, न्यूनाधिक अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाली धरसेनाचार्य की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
गिरनार पर्वत की एक गुफा में श्रीधरसेनाचार्य, जो कि जैनधर्मरूप समुद्र के लिए चन्द्रमा की उपमा धारण करने वाले हैं, निवास करते थे । उन्हें निमित्तज्ञान से जान पड़ा कि उनकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्रज्ञान की रक्षा के लिए कुछ अंगादि का ज्ञान करा दें । आचार्य ने तब तीर्थयात्रा के लिए आन्ध्रदेश के वेनातट नगर में आए हुए संघाधिपति महासेनाचार्य को एक पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा- ॥३-४॥
'भगवान् महावीर का शासन अचल रहे, उसका सब देशों में प्रचार हो । लिखने का कारण यह है कि कलियुग में अंगादि का ज्ञान यद्यपि न रहेगा तथापि शास्त्रज्ञान की रक्षा हो, इसलिए कृपाकर आप दो ऐसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों को मेरे पास भेजिये, जो बुद्धि के बड़े तीक्ष्ण हों, स्थिर हों, सहनशील हों और जैनसिद्धान्त का उद्धार कर सकें ॥५-६॥
आचार्य ने पत्र देकर एक ब्रह्मचारी को महासेनाचार्य के पास भेजा। महासेनाचार्य उस पत्र को पढ़कर बहुत खुश हुए। उन्होंने तब अपने संघ में से पुष्पदन्त और भूतबलि ऐसे दो धर्मप्रेमी और सिद्धान्त के उद्धार करने में समर्थ मुनियों को बड़े प्रेम के साथ धरसेनाचार्य के पास भेजा। ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्य के पास पहुँचने वाले थे। उसकी पिछली रात को धरसेनाचार्य को एक स्वप्न देख पड़ा। स्वप्न में उन्होंने दो हृष्टपुष्ट, सुडौल और सफेद बैलों को बड़ी भक्ति से अपने पाँवों में पड़ते देखा। इस उत्तम स्वप्न को देखकर आचार्य को जो प्रसन्नता हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वे ऐसा कहते हुए, कि सब सन्देहों के नाश करने वाली श्रुतदेवी - जिनवाणी सदा काल इस संसार में जल लाभ करे, उठ बैठे। स्वप्न का फल उनके विचार अनुसार ठीक निकला। सबेरा होते ही दो मुनियों ने जिनकी कि उन्हें चाह थी, आकर आचार्य के पाँवों में बड़ी भक्ति के साथ अपना सिर झुकाया और आचार्य की स्तुति की। आचार्य ने तब उन्हें आशीर्वाद दिया- तुम चिरकाल जीकर महावीर भगवान् के पवित्र शासन की सेवा करो । अज्ञान और विषयों के दास बने संसारी जीवों को ज्ञान देकर उन्हें कर्तव्य की ओर लगाओ। उन्हें सुझाओ कि अपने धर्म और अपने भाइयों के प्रति जो उनका कर्तव्य है उसे पूरा करें ॥७-१२ ॥
इसके बाद आचार्य ने उन दोनों मुनियों को दो-तीन दिन तक अपने पास रखा और उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्तव्य बुद्धि का परिचय प्राप्त कर दोनों को दो विद्याएँ सिद्ध करने को दीं । आचार्य ने उनकी परीक्षा के लिए विद्या साधने के मन्त्रों के अक्षरों को कुछ न्यूनाधिक कर दिया था। आचार्य की आज्ञानुसार ये दोनों गिरनार पर्वत के एक पवित्र और एकान्त भाग में भगवान् नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र मन से विद्या सिद्ध करने को बैठे। मंत्र साधन की अवधि जब पूरी होने को आई तब दो देवियाँ उनके पास आयी । उन देवियों में एक देवी तो आँखों से अन्धी थी और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले हुए थे । देवियों के ऐसे रूप को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने सोचा देवों का तो ऐसा रूप होता नहीं, फिर यह क्यों? तब उन्होंने मंत्रों की जाँच की, मंत्रों को व्याकरण से उन्होंने मिलाया कि कहीं उनमें तो गलती न रह गई हो ? इनका अनुमान सच हुआ। मंत्रों की गलती उन्हें भास गई फिर उन्होंने उन्हें शुद्ध कर जपा | अब की बार दो देवियाँ सुन्दर वेष में उन्हें दीख पड़ी। गुरु के पास आकर तब उन्होंने अपना सब हाल कहा। धरसेनाचार्य उनका वृत्तान्त सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । आचार्य ने उन्हें सब तरह योग्य पा फिर खूब शास्त्राभ्यास कराया। आगे चलकर यही दो मुनिराज गुरुसेवा के प्रसाद से जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् बनकर सिद्धान्त के उद्धारकर्ता हुए। जिस प्रकार उन मुनियों ने शास्त्रों का उद्धार किया उसी प्रकार अन्य धर्मप्रेमियों को भी शास्त्रोद्धार या शास्त्रप्रचार करना उचित है ॥१३-२२॥
श्रीमान् धरसेनाचार्य और जैनसिद्धान्त के समुद्र श्री पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य मेरी बुद्धि को स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले पवित्र जैनधर्म में लगावें; जो जीव मात्र का हित करने वाले और देवों द्वारा पूजा किए जाते हैं ॥२३॥
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