९७. सुव्रत मुनिराज की कथा
देवों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर सुव्रत मुनिराज की कथा लिखी जाती है ॥१॥
सौराष्ट्र देश की सुन्दर नगरी द्वारका में अन्तिम नारायण श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण की कई स्त्रियाँ थीं, पर उन सबमें सत्यभामा बड़ी भाग्यवती थी । श्रीकृष्ण का सबसे अधिक प्रेम उसी पर था। श्रीकृष्ण अर्धचक्री थे, तीन खण्ड के मालिक थे । हजारों राजा-महाराजा उनकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करते थे ॥२-३ ॥
एक दिन श्रीकृष्ण नमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ समवसरण में जा रहे थे। रास्ते में इन्होंने तपस्वी श्रीसुव्रत मुनिराज को सरोग दशा में देखा। सारा शरीर उनका रोग से कष्ट पा रहा था। उनकी यह दशा श्रीकृष्ण से न देखी गई धर्म प्रेम से उनका हृदय अस्थिर हो गया। उन्होंने उसी समय एक जीवक नाम के प्रसिद्ध वैद्य को बुलाया और मुनि को दिखलाकर औषधि के लिए पूछा। वैद्य के कहे अनुसार सब श्रावकों के घरों में उन्होंने औषधि-मिश्रित लड्डूओं के बनवाने की सूचना करवा दी। थोड़े ही दिनों में इस व्यवस्था से मुनि को आराम हो गया, सारा शरीर फिर पहले सा सुन्दर हो गया । इस औषधिदान के प्रभाव से श्रीकृष्ण के तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ । सच है - सुख के कारण सुपात्रदान से संसार में सत्पुरुषों को सभी कुछ प्राप्त होता है ॥४-८॥
निरोग अवस्था में सुव्रत मुनिराज को एक दिन देखकर श्रीकृष्ण बड़े खुश हुए। इसलिए कि उन्हें अपने काम में सफलता प्राप्त हुई । उनसे उन्होंने पूछा-भगवान्, अब अच्छे तो हैं? उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन्, शरीर स्वभाव से अपवित्र, नाश होने वाला और क्षण-क्षण में अनेक अवस्थाओं को बदलने वाला है, इसमें अच्छा और बुरापन क्या है? पदार्थों का जैसा परिवर्तन स्वभाव है उसी प्रकार यह कभी निरोग और कभी सरोग हो जाया करता है। मुझे इसके रोगी होने में न खेद है और न निरोग होने से हर्ष! मुझे तो अपने आत्मा से काम, जिसे कि मैं प्राप्त करने में लगा हुआ हूँ और जो मेरा परम कर्तव्य है। सुव्रत योगिराज की शरीर से इस प्रकार निस्पृहता देखकर श्रीकृष्ण को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने मुनि को नमस्कार कर उनकी बड़ी प्रशंसा की ॥९-१२॥
पर जब मुनि की यह निस्पृहता जीवक वैद्य के कानों में पहुँची तो उन्हें इस बात का बड़ा दुःख हुआ, बल्कि मुनि पर उन्हें अत्यन्त घृणा हुई कि मुनि का मैंने इतना उपकार किया तब भी उन्होंने मेरे सम्बन्ध में तारीफ का एक शब्द भी न कहा ! इससे उन्होंने मुनि को बड़ा कृतघ्न समझ उनकी बहुत निन्दा की-बुराई की। इस मुनि निन्दा से उन्हें बहुत पाप का बन्ध हुआ । अन्त में जब उनकी मृत्यु हुई तब वे इस पाप के फल से नर्मदा के किनारे पर एक बन्दर हुए। सच है - अज्ञानियों को साधुओं के अचार-विचार, व्रत-नियमादि का कुछ ज्ञान तो होता नहीं है । व्यर्थ उनकी निन्दा-बुराई कर वे पापकर्म बाँध लेते हैं। इससे उन्हें दुःख उठाना पड़ता है ॥१३-१५॥
एक दिन की बात है कि यह जीवक वैद्य का जीव बन्दर जिस वृक्ष पर बैठा हुआ था, उससे नीचे यही सुव्रत मुनिराज ध्यान कर रहे थे । इस समय उस वृक्ष की एक टहनी टूट कर मुनि पर गिरी । उसकी तीखी नोंक जाकर मुनि के पेट में घुस गई पेट का कुछ हिस्सा चिरकर उससे खून बहने लगा। मुनि पर जैसे ही उस बन्दर की नजर पड़ी उसे जातिस्मरण हो गया । वह पूर्व जन्म की शत्रुता भूलकर उसी समय दौड़ा और थोड़ी ही देर में बहुत से बन्दरों को बुला लाया। उन सबने मिलकर उस डाली को बड़ी सावधानी से खींचकर निकाल लिया और वैद्य के जीव ने पूर्व जन्म के संस्कार से जंगल से जड़ी-बूटी लाकर उसका रस उन मुनि के घाव पर निचोड़ दिया। उससे मुनि को शान्ति मिली। उस बन्दर ने भी उस धर्मप्रेम से बहुत पुण्यबंध किया । सच है, पूर्व जन्मों में जैसा अभ्यास किया जाता है, जैसा पूर्व जन्म का संस्कार होता है दूसरे जन्मों में भी उसका संस्कार बना रहता है और प्रायः जीव वैसा ही कार्य करने लगता है । बन्दर में - एक पशु में इस प्रकार दयाशीलता देखकर मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा तो उन्हें वैद्य के जीव के जन्म का सब हाल ज्ञात हो गया। उन्होंने तब उसे भव्य समझकर उसके पूर्वजन्म की सब कथा उसे सुनाई और धर्म का उपदेश किया। मुनि की कृपा से धर्म का पवित्र उपदेश सुनकर धर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा हो गई उसने भक्ति से सम्यक्त्व-व्रत पूर्वक अणुव्रतों को ग्रहण किया। उन्हें उसने बड़ी अच्छी तरह पाला भी । अन्त में वह सात दिन का संन्यास ले मरा। इस धर्म के प्रभाव से वह सौधर्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ। सच है, जैनधर्म से प्रेम करने वालों को क्या प्राप्त नहीं होता । देखिए, यह धर्म का ही तो प्रभाव था जिससे कि एक बन्दर -पशु देव हो गया इसलिए धर्म या गुरु से बढ़कर संसार में कोई सुख का कारण नहीं है ॥१६-२५॥
वह जैनधर्म जय लाभ करे, संसार में निरन्तर चमकता रहे, जिसके प्रसाद से एक तुच्छ प्राणी भी देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की सम्पत्ति लाभ कर उसका सुख भोगकर अन्त में मोक्षश्री का अनन्त, अविनाशी सुख प्राप्त करता है । इसलिए आत्महित चाहने वाले बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्तव्य है कि वे मोक्षसुख के लिए परम पवित्र जैनधर्म के प्राप्त करने का और प्राप्त कर उसके पालने का सदा यत्न करें ॥२६॥
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