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१०१. भावानुराग-कथा


सब प्रकार सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर धर्म में प्रेम करने वाले नागदत्त की कथा लिखी जाती है ॥ १ ॥

उज्जैन के राजा धर्मपाल थे। उनकी रानी का नाम धर्मश्री था । धर्मश्री धर्मात्मा और बड़ी उदार प्रकृति की स्त्री थी। यहाँ एक सागरदत्त नाम का सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के नागदत्त नाम का एक लड़का था । नागदत्त भी अपनी माता की तरह धर्मप्रेमी था। धर्म पर उसकी अचल श्रद्धा थी। इसका ब्याह समुद्रदत्त सेठ की सुन्दर कन्या प्रियंगुश्री के साथ बड़े ठाटबाट से हुआ। ब्याह में खूब दान दिया गया। पूजा उत्सव किया गया । दीन-दुःखियों की अच्छी सहायता की गई। प्रियंगुश्री को उसके मामा का लड़का नागसेन चाहता था और सागरदत्त ने उसका ब्याह कर दिया नागदत्त के साथ। इससे नागसेन को बड़ा ना - गवार मालूम हुआ । सो उसने बेचारे नागदत्त के साथ शत्रुता बाँध ली और उसे कष्ट देने का मौका ढूँढ़ने लगा ॥२-६॥

एक दिन उपासा नागदत्त धर्मप्रेम से जिन मन्दिर में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था। उसे नागसेन ने देख लिया। सो इस दुष्ट ने अपनी शत्रुता का बदला लेने के लिए एक षड्यन्त्र रचा। गले में से अपना हार निकाल कर उसने नागदत्त के पाँवों के पास रख दिया और हल्ला कर दिया कि मेरा हार चुराकर लिए जा रहा था, सो मैंने इसके पीछे दौड़कर इसे पकड़ लिया । अब ढोंग बनाकर ध्यान करने लग गया, ,जिससे यह पकड़ा न जाये । नागसेन का हल्ला सुनकर आसपास के बहुत से लोग इकट्ठे हो गए और सिपाही भी आ गए। नागदत्त पकड़ा गया उसे ले जाकर राजदरबार में उपस्थित किया गया। राजा ने नागदत्त की ओर से कोई प्रमाण न पाकर उसे मारने का हुक्म दे दिया। नागदत्त उसी समय बध्य-भूमि में ले जाया गया । उसका सिर काटने के लिए तलवार का जो वार उस पर किया गया, क्या आश्चर्य कि वह वार उसे ऐसा जान पड़ा मानों किसी ने उस पर फूलों की माला फेंकी हो। उसे जरा भी चोट न पहुँची और उसी समय आकाश से उस पर फूलों की वर्षा हुई जय धन्य धन्य, शब्दों से आकाश गूंज उठा। यह आश्चर्य देखकर सब लोग दंग रह गए। सच है- धर्मानुराग से सत्पुरुषों का, सहनशील महात्माओं का कौन उपकार नहीं करता । इस प्रकार जैनधर्म का सुखमय प्रभाव देखकर नागदत्त और धर्मपाल राजा बहुत प्रसन्न हुए। वे अब मोक्षसुख की इच्छा से संसार की सब माया-ममता को छोड़कर जिनदीक्षा ले साधु हो गए और बहुत से लोगों ने जो जैन नहीं थे, जैनधर्म को ग्रहण किया ॥७-१५॥

संसार के बड़े-बड़े महापुरुषों से पूजे जाने वाले, जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश किया पवित्र धर्म, स्वर्ग-मोक्ष के सुख का कारण है इसी के द्वारा भव्यजन उत्तम से उत्तम सुख प्राप्त करते हैं । यही पवित्र धर्म कर्मों का नाश कर मुझे आत्मिक सच्चा सुख प्रदान करें ॥१६॥

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