(दोहा)
बड़ागाँव अतिशय बड़ा, बनते बिगड़े काज ।
तीन लोक तीरथ नमहुँ, पार्श्व प्रभु महाराज ।।१।।
आदि-चन्द्र-विमलेश-नमि, पारस-वीरा ध्याय ।
स्याद्वाद जिन-धर्म नमि, सुमति गुरु शिरनाय ।।२।।
(मुक्त छन्द)
भारत वसुधा पर वसु गुण सह, गुणिजन शाश्वत राज रहे ।
सबकल्याणक तीर्थ-मूर्ति सह, पंचपरम पद साज रहे ।।१।।
खाण्डव वन की उत्तर भूमी, हस्तिनापुर लग भाती है ।
धरा-धन्य रत्नों से भूषित, देहली पास सुहाती है ।।२।।
अर्धचक्रि रावण पंडित ने, आकर ध्यान लगाया था ।
अगणित विद्याओं का स्वामी, विद्याधर कहलाया था ।।३।।
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का, समवशरण मन भाया था ।
अगणित तीर्थंकर उपदेशी, भव्यों बोध कराया था ।।४।।
चन्द्रप्रभु अरु विमलनाथ का, यश-गौरव भी छाया था ।
पारसनाथ वीर प्रभुजी का, समोशरण लहराया था ।।५।।
बड़ागाँव की पावन-भूमी, यह इतिहास पुराना है ।
भव्यजनों ने करी साधना, मुक्ती का पैमाना है ।।६।।
काल परिणमन के चक्कर में, परिवर्तन बहुबार हुए ।
राजा नेक शूर-कवि-पण्डित, साधक भी क्रम वार हुए ।।७।।
जैन धर्म की ध्वजा धरा पर, आदिकाल से फहरायी ।
स्याद्वाद की सप्त-तरंगें, जन-मानस में लहरायी ।।८।।
बड़ागाँव जैनों का गढ़ था, देवों गढ़ा कहाता था ।
पाँचों पाण्डव का भी गहरा, इस भूमी से नाता था ।।९।।
पारस-टीला एक यहाँ पर, जन-आदर्श कहाता था ।
भक्त मुरादें पूरी होतीं, देवों सम यश पाता था ।।१०।।
टीले की ख्याती वायु सम, दिग्-दिगन्त में लहरार्इ ।
अगणित चमत्कार अतिशय-युत, सुरगण ने महिमा गार्इ ।।११।।
शीशराम की सुन्दर धेनु, नित टीले पर आती थी ।
मौका पाकर दूध झराकर, भक्ति-भाव प्रगटाती थी ।।१२।।
ऐलक जी जब लखा नजारा, कैसी अद्भुत माया है ।
बिना निकाले दूध झर रहा, क्या देवों की छाया है ।।१३।।
टीले पर जब ध्यान लगाया, देवों ने आ बतलाया ।
पारस-प्रभु की अतिशय प्रतिमा, चमत्कार सुर दिखलाया ।।१४।।
भक्तगणों की भीड़ भावना, धैर्य बाँध भी फूट पड़ा ।
लगे खोदने टीले को सब, नागों का दल टूट पड़ा ।।१५।।
भयाकुलित लख भक्त-गणों को, नभ से मधुर-ध्वनी आयी ।
घबराओ मत पारस प्रतिमा, शनै: शनै: खोदो भार्इ ।।१६।।
ऐलक जी ने मंत्र शक्ति से, सारे विषधर विदा किये ।
णमोकार का जाप करा कर, पार्श्व-प्रभू के दर्श लिये ।।१७।।
अतिशय दिव्य सुशोभित प्रतिमा, लखते खुशियाँ लहरार्इ ।
नाच उठे नर-नारि खुशी से, जय-जय ध्वनि भू नभ छार्इ ।।१८।।
मेला सा लग गया धरा, पारस प्रभु जय-जयकारे ।
मानव पशुगण की क्या गणना, भक्ती में सुरपति हारे ।।१९।।
जब-जब संकट में भक्तों ने, पारस प्रभु पुकारे हैं ।
जग-जीवन में साथ न कोर्इ, प्रभुवर बने सहारे हैं ।।२०।।
बंजारों के बाजारों में, बड़ेगाँव की कीरत थी ।
लक्ष्मण सेठ बड़े व्यापारी, सेठ रत्न की सीरत थी ।।२१।।
अंग्रेजों ने अपराधी कह, झूठा दाग लगाया था ।
तोपों से उड़वाने का फिर, निर्दय हुकुम सुनाया था ।।२२।।
दुखी हृदय लक्ष्मण ने आकर, पारस-प्रभु से अर्ज करी ।
अगर सत्य हूँ हे निर्णायक, करवा दो प्रभु मुझे बरी ।।२३।।
कैसा अतिशय हुआ वहाँ पर, शीतल हुआ तोप गोला ।
गद-गद्-हृदय हुआ भक्तों का, उतर गया मिथ्या-चोला ।।२४।।
भक्त-देव आकर के प्रतिदिन, नूतन नृत्य दिखाते हैं ।
आपत्ति लख भक्तगणों पर, उनको धैर्य बंधाते हैं ।।२५।।
भूत-प्रेत जिन्दों की बाधा, जप करते कट जाती है ।
कैसी भी हो कठिन समस्या, अर्चे हल हो जाती है ।।२६।।
नेत्रहीन कतिपय भक्तों ने, नेत्र-भक्ति कर पाये हैं ।
कुष्ठ-रोग से मुक्त अनेकों, कंचन-काया भाये हैं ।।२७।।
दुख-दारिद्र ध्यान से मिटता, शत्रु मित्र बन जाते हैं ।
मिथ्या तिमिर भक्ति दीपक लख, स्वाभाविक छंट जाते हैं ।।२८।।
पारस कुइया का निर्मल जल, मन की तपन मिटाता है ।
चर्मरोग की उत्तम औषधि रोगी पी सुख पाता है ।।२९।।
तीन शतक पहले से महिमा, अधुना बनी यथावत् है ।
श्रद्धा-भक्ती भक्त शक्ति से, फल नित वरे तथावत् है ।।३०।।
स्वप्न सलोना दे श्रावक को, आदीश्वर प्रतिमा पायी ।
वसुधा-गर्भ मिले चन्दाप्रभु, विमल सन्मती गहरायी ।।३१।।
आदिनाथ का सुमिरन करके, आधि-व्याधि मिट जाती है ।
चन्दाप्रभु अर्चे छवि निर्मल, चन्दा सम मन भाती है ।।३२।।
विमलनाथ पूजन से विमला, स्वाभाविक मिल जाती है ।
पारस प्रभु पारस सम महिमा, वर्द्धमान सुख थाती है ।।३३।।
दिव्य मनोहर उच्च जिनालय समवशरण सह शोभित हैं ।
पंच जिनालय परमेश्वर के, भव्यों के मन मोहित हैं ।।३४।।
बनी धर्मशाला अति सुन्दर, मानस्तम्भ सुहाता है ।
आश्रम गुरुकुल विद्यालय यश, गौरव क्षेत्र बढ़ाता है ।।३५।।
यह स्याद्वाद का मुख्यालय, यह धर्म-ध्वजा फहराता है ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण सह, मुक्ती-पथ दरशाता है ।।३६।।
तीन लोक तीरथ की रचना, ज्ञान ध्यान अनुभूति करो ।
गुरुकुल साँवलिया बाबाजी, जो माँगो दें अर्ज करो ।।३७।।
अगहन शुक्ला पंचमि गुरुदिन, विद्याभूषण शरण लही ।
स्याद्वाद गुरुकुल स्थापन, पच्चीसों चौबीस भर्इ ।।३८।।
शिक्षा मंदिर औषधि शाला, बने साधना केन्द्र यहीं ।
दुख दारिद्र मिटे भक्तों का, अनशरणों की शरण सही ।।३९।।
स्वारथ जग नित-प्रति धोखे खा, सन्मति शरणा आये हैं ।
चूक माफ मनवांछित फल दो, स्याद्वाद गुण गाये हैं ।।४०।।
(दोहा)
हे पारस जग जीव हों, सुख सम्पति भरपूर ।
साम्यभाव ‘सन्मति’ रहे, भव दुख हो चकचूर ।।