श्री जिनवाणी शीश धार कर, सिद्ध परभू का करके ध्यान ।
लिखू नेमि चालीसा सुखकार, नेमी प्रभु की शरण में आन।।
समुन्द्र विजय यादव कुलराई, सौरिपुर रजधानी कहाई ।
शिवादेवी उनकी महारानी, षष्ठी कार्तिक शुक्ल बखानी ।।
सुख से शयन करें शैया पर, सपने देखे सौलह सुन्दर ।
तज विमान जयंत अवतारे, हुए मनोरथ पूरण सारे ।।
प्रतिदिन महल में रतन बरसते, यदुवंशी निज मन में हरषते ।
दिन षष्ठी सावन शुक्ल का, हुआ अभ्युदय पुत्र रतन का ।।
तिन लोक में आनद छाया, प्रभु को मेरु पर पधराश ।
न्वहन हेतु जल ले क्षीरसागर, मणियो के थे कलश मनोहर ।।
कर अभिषेक किया परनाम, अरिष्ट नेमि दिया शुभ नाम ।
शोभित तुमसे सत्य मराल, जीता तुमने काल कराल ।।
सहस अष्ट लक्षण सुलालाम, नील कमल सम वर्ण अभिराम ।
वज्र शारीर दस धनुष उतंग, लज्ज्ति तुम छवि देव अनंग ।।
चाचा ताऊ रहते साथ, नेमि कृष्ण चचेरे भ्रात ।
धरा जब यौवन जिनराई, राजुल के संघ हुई सगाई ।।
जूनागढ़ को चली बरात, छप्पन कोटि यादव साथ ।
सुना पशुओ का क्रंदन, तोडा मोर मुकुट और कंगन ।।
बाड़ा खोल दिया पशुओं का, धारा वेष दिगंबर मुनि का ।
कितना अद्भुत संयम मन में, ज्ञानी जन अनुभव करें मन में ।।
नौ नौ आंसू राजुल रोवे, बारम्बार मूर्छित होवे।
फेंक दिया दुल्हन श्रृंगार, रो रो कर यों करे पुकार ।।
नौ भव की तोड़ी क्यों प्रीत, कैसी हैं ये धर्मं की रीत ।
नेमि दे उपदेश त्याग का, उमड़ा सागर वैराग्य का ।।
राजुल ने भी ले ली दीक्षा, हुई संयम उत्तीर्ण परीक्षा ।
दो दिन रह कर के निराहार, तीसरे दिन करे स्वामी विहार ।।
वरदत्त महीपति दे आहार, पंचाश्चार्य हुए सुखकार ।
रहे मौन छप्पन दिन तक, तपते रहे कठिनतम तप व्रत ।।
प्रतिपदा अश्विन उजियारी, हुए केवली प्रभु अविकारी ।
समोशरण की रचना करते, सुरगण ज्ञान की पूजा करते ।।
भवि जीवों के पुण्य प्रभाव से, दिव्या ध्वनि खिरती सदभाव से ।
जो भी होता हे आत्माज्ञ, वो ही होता हे सर्वज्ञ ।।
ज्ञानी निज आतम को निहारे, अज्ञानी पर्याय संवारे ।
हैं अदभुत वैरागी दृष्टि, स्वाश्रित हो तजते सब सृष्टि ।।
जैन धर्मं तो धर्म सभी का, हैं निज धर्म ये प्राणीमात्र का ।
जो भी पहचाने जिनदेव, वो ही जाने आतम देव ।।
रागादि के उन्मूलन को, पूजे सब जिनदेव चरण को ।
देश विदेश में हुआ विहार, गाये अंत में गढ़ गिरनार ।।
सब कर्मो का करके नाश, प्रभु ने पाया पद अविनाश ।
जो भी प्रभु की शरण में आते, उनको मंवांचित मिल जाते ।।
ज्ञानार्जन करके शाष्त्रो से, लोकार्पण करती श्रद्धा से ।
अर्चना बस यही वर चाहें, निज आतम दर्शन हो जावे ।।