काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “ नन्दीश्वरपर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदंड का भागी होगा ।" वही एक सेठ पुत्र रहता था । उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। वह सात व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे मांस खाने की बुरी आदत पड़ी हुई थी। एक दिन भी बिना मांस खाये उससे नहीं रहा जाता था। एक दिन वह गुप्त रीति से राजा के बगीचे में गया। वहाँ एक राजा का खास मेढ़ा बँधा करता था। उसने उसे मार डाला और उसके कच्चे ही मांस को खाकर वह उसकी हड्डियों को एक गड्ढे में गाड़ गया। सच है - व्यसनी मनुष्य नियम में पाप में सदा तत्पर रहा करते है॥२-६॥
दूसरे दिन जब राजा ने बगीचे में मेढ़ा नहीं देखा और उसके लिए बहुत खोज करने पर भी जब उसका पता नहीं चला, तब उन्होंने उसका शोध लगाने को अपने बहुत से गुप्तचर नियुक्त किए। एक गुप्तचर राजा के बाग में भी चला गया। वहाँ का बागमाली रात को सोते समय सेठ पुत्र के द्वारा मेंढे के मारे जाने का हाल अपनी स्त्री से कह रहा था, उसे गुप्तचर ने सुन लिया । सुनकर उसने महाराज से जाकर सब हाल कह दिया । राजा को इससे सेठ पुत्र पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने कोतवाल को बुलाकर आज्ञा की कि, पापी धर्म ने एक तो जीव हिंसा की और दूसरे राजाज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिए उसे ले जाकर शूली चढ़ा दो। कोतवाल राजाज्ञा के अनुसार धर्म को शूली के स्थान पर लिवा ले गया और नौकरों को भेजकर उसने यमपाल चाण्डाल को इसलिए बुलाया कि वह धर्म को शूली पर चढ़ा दें क्योंकि यह काम उसी के सुपुर्द था । पर यमपाल ने एक दिन सर्वोषधिऋद्धिधारी मुनिराज के द्वारा जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुनकर, जो कि दोनों भवों में सुख का देने वाला है, प्रतिज्ञा कि थी कि - ॥७-१२॥
मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीवहिंसा नहीं करूँगा । इसलिए उसने राज नौकरों को आते हुए देखकर अपने व्रत की रक्षा के लिए अपनी स्त्री से कहा- प्रिये, किसी को मारने के लिए मुझे बुलाने को राज- नौकर आ रहे हैं, सो तुम उनसे कह देना कि घर में वे नहीं हैं, दूसरे ग्राम गए हुए हैं। इस प्रकार वह चांडाल अपनी प्रिया को समझाकर घर के एक कोने में छुप रहा। जब राज-नौकर उसके घर पर आए और उनसे चाण्डालप्रिया ने अपने स्वामी के बाहर चले जाने का समाचार कहा, तब नौकर ने बड़े खेद के साथ कहा-हाय ! वह बड़ा अभागा है । दैव ने उसे धोखा दिया । आज ही तो एक सेठ पुत्र के मारने को मौका आया था और आज ही वह चल दिया। यदि वह आज सेठ पुत्र को मारता तो उसे उसके सब वस्त्राभूषण प्राप्त होते । वस्त्राभूषण का नाम सुनते ही चाण्डालिनी के मुँह में पानी भर आया। वह अपने लोभ के सामने अपने स्वामी का हानि-लाभ कुछ नहीं सोच सकी। उसने रोने को ढोंग बनाकर और यह कहते हुए, कि हाय वे आज ही गाँव को चले गए, आती हुई लक्ष्मी को उन्होंने पाँव ठुकरा दी, हाथ के इशारे से घर के भीतर छुपे हुए अपने स्वामी को बता दिया | सच है- ॥१३-१८॥
स्त्रियाँ एक तो वैसे ही मायाविनी होती है, और फिर लोभादि का कारण मिल जाये तब तो उनकी माया का कहना ही क्या? जलती हुई अग्नि वैसे ही भयानक होती है और यदि ऊपर से खूब हवा चल रही हो तब फिर उसकी भयानकता का क्या पूछना? ॥१९॥
यह देख राज-नौकरों ने उसे घर से बाहर निकाला। निकलते ही निर्भय होकर उसने कहा- आज चतुर्दशी है और मुझे आज अहिंसाव्रत है, इसलिए मैं किसी तरह, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न जायें कभी हिंसा नहीं करूँगा । यह सुन नौकर लोग उसे राजा के पास लिवा ले गए। वहाँ भी उसने वैसा ही कहा । ठीक है-जिसका धर्म पर दृढ़ विश्वास है, उसे कहीं भी भय नहीं होता ॥२०-२२॥
राजा सेठ पुत्र के अपराध के कारण उस पर अत्यन्त गुस्सा हो ही रहे थे कि एक चाण्डाल की निर्भयपने की बातों ने उन्हें और भी अधिक क्रोधी बना दिया । एक चाण्डाल को राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला और इतना अभिमानी देखकर उनके क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । उन्होंने उसी समय कोतवाल की आज्ञा की कि जाओ, इन दोनों को ले जाकर अपने मगरमच्छादि क्रूर जीवों से भरे हुए तालाब में डाल आओ । वही हुआ। दोनों को कोतवाल ने तालाब में डलवा दिया। तालाब में डालते ही पापी धर्म को तो जल जीवों ने खा लिया। रहा यमपाल, सो वह अपने जीवन की कुछ परवाह न कर अपने व्रतपालन में निश्चल बना रहा। उसके उच्च भावों और व्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उसकी रक्षा की। उन्होंने धर्मानुराग से तालाब में ही एक सिंहासन पर यमपाल चाण्डाल को बैठाया, उसका अभिषेक किया और उसे खूब स्वर्गीय वस्त्राभूषण प्रदान किए, खूब उसका आदर सम्मान किया। जब राजा प्रजा को यह हाल सुन पड़ा, तो उन्होंने भी उस चाण्डाल का बड़े आनन्द और हर्ष के साथ सम्मान किया । उसे खूब धन दौलत दी | जिनधर्म का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर और भव्य पुरुषों को उचित है कि वे स्वर्ग - मोक्ष का सुख देने वाले जिनधर्म में अपनी बुद्धि को लगावें स्वर्ग के देवों ने भी एक अत्यन्त नीच चाण्डाल का आदर किया, यह देखकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वेश्यों को अपनी-अपनी जाति का कभी अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि पूजा जाति की नहीं होती किन्तु गुणों की होती है ॥२३-३०॥
यमपाल जाति का चाण्डाल था, पर उसके हृदय में जिनधर्म की पवित्र वासना थी, इसलिए देवों ने उसका सम्मान किया, उसे रत्नादिकों के अलंकार प्रदान किए; अच्छे-अच्छे वस्त्र दिये, उस पर फूलों की वर्षा की । यह जिनभगवान् के उपदिष्ट धर्म का प्रभाव है, वे ही जिनेन्द्रदेव, जिन्हें कि स्वर्ग के देव भी पूजते हैं, मुझे मोक्ष श्री प्रदान करें । यह मेरी उनसे प्रार्थना है ॥३१॥
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