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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मोक्ष सुख के देने वाले श्री जिनभगवान् धर्म प्राप्ति के लिए नमस्कार कर मैं एक ऐसे चाण्डाल की कथा लिखता हूँ, जिसकी कि देवों तक ने पूजा की है ॥१॥
    काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “ नन्दीश्वरपर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदंड का भागी होगा ।" वही एक सेठ पुत्र रहता था । उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। वह सात व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे मांस खाने की बुरी आदत पड़ी हुई थी। एक दिन भी बिना मांस खाये उससे नहीं रहा जाता था। एक दिन वह गुप्त रीति से राजा के बगीचे में गया। वहाँ एक राजा का खास मेढ़ा बँधा करता था। उसने उसे मार डाला और उसके कच्चे ही मांस को खाकर वह उसकी हड्डियों को एक गड्ढे में गाड़ गया। सच है - व्यसनी मनुष्य नियम में पाप में सदा तत्पर रहा करते है॥२-६॥
    दूसरे दिन जब राजा ने बगीचे में मेढ़ा नहीं देखा और उसके लिए बहुत खोज करने पर भी जब उसका पता नहीं चला, तब उन्होंने उसका शोध लगाने को अपने बहुत से गुप्तचर नियुक्त किए। एक गुप्तचर राजा के बाग में भी चला गया। वहाँ का बागमाली रात को सोते समय सेठ पुत्र के द्वारा मेंढे के मारे जाने का हाल अपनी स्त्री से कह रहा था, उसे गुप्तचर ने सुन लिया । सुनकर उसने महाराज से जाकर सब हाल कह दिया । राजा को इससे सेठ पुत्र पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने कोतवाल को बुलाकर आज्ञा की कि, पापी धर्म ने एक तो जीव हिंसा की और दूसरे राजाज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिए उसे ले जाकर शूली चढ़ा दो। कोतवाल राजाज्ञा के अनुसार धर्म को शूली के स्थान पर लिवा ले गया और नौकरों को भेजकर उसने यमपाल चाण्डाल को इसलिए बुलाया कि वह धर्म को शूली पर चढ़ा दें क्योंकि यह काम उसी के सुपुर्द था । पर यमपाल ने एक दिन सर्वोषधिऋद्धिधारी मुनिराज के द्वारा जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुनकर, जो कि दोनों भवों में सुख का देने वाला है, प्रतिज्ञा कि थी कि - ॥७-१२॥
    मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीवहिंसा नहीं करूँगा । इसलिए उसने राज नौकरों को आते हुए देखकर अपने व्रत की रक्षा के लिए अपनी स्त्री से कहा- प्रिये, किसी को मारने के लिए मुझे बुलाने को राज- नौकर आ रहे हैं, सो तुम उनसे कह देना कि घर में वे नहीं हैं, दूसरे ग्राम गए हुए हैं। इस प्रकार वह चांडाल अपनी प्रिया को समझाकर घर के एक कोने में छुप रहा। जब राज-नौकर उसके घर पर आए और उनसे चाण्डालप्रिया ने अपने स्वामी के बाहर चले जाने का समाचार कहा, तब नौकर ने बड़े खेद के साथ कहा-हाय ! वह बड़ा अभागा है । दैव ने उसे धोखा दिया । आज ही तो एक सेठ पुत्र के मारने को मौका आया था और आज ही वह चल दिया। यदि वह आज सेठ पुत्र को मारता तो उसे उसके सब वस्त्राभूषण प्राप्त होते । वस्त्राभूषण का नाम सुनते ही चाण्डालिनी के मुँह में पानी भर आया। वह अपने लोभ के सामने अपने स्वामी का हानि-लाभ कुछ नहीं सोच सकी। उसने रोने को ढोंग बनाकर और यह कहते हुए, कि हाय वे आज ही गाँव को चले गए, आती हुई लक्ष्मी को उन्होंने पाँव ठुकरा दी, हाथ के इशारे से घर के भीतर छुपे हुए अपने स्वामी को बता दिया | सच है- ॥१३-१८॥
    स्त्रियाँ एक तो वैसे ही मायाविनी होती है, और फिर लोभादि का कारण मिल जाये तब तो उनकी माया का कहना ही क्या? जलती हुई अग्नि वैसे ही भयानक होती है और यदि ऊपर से खूब हवा चल रही हो तब फिर उसकी भयानकता का क्या पूछना? ॥१९॥
    यह देख राज-नौकरों ने उसे घर से बाहर निकाला। निकलते ही निर्भय होकर उसने कहा- आज चतुर्दशी है और मुझे आज अहिंसाव्रत है, इसलिए मैं किसी तरह, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न जायें कभी हिंसा नहीं करूँगा । यह सुन नौकर लोग उसे राजा के पास लिवा ले गए। वहाँ भी उसने वैसा ही कहा । ठीक है-जिसका धर्म पर दृढ़ विश्वास है, उसे कहीं भी भय नहीं होता ॥२०-२२॥
    राजा सेठ पुत्र के अपराध के कारण उस पर अत्यन्त गुस्सा हो ही रहे थे कि एक चाण्डाल की निर्भयपने की बातों ने उन्हें और भी अधिक क्रोधी बना दिया । एक चाण्डाल को राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला और इतना अभिमानी देखकर उनके क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । उन्होंने उसी समय कोतवाल की आज्ञा की कि जाओ, इन दोनों को ले जाकर अपने मगरमच्छादि क्रूर जीवों से भरे हुए तालाब में डाल आओ । वही हुआ। दोनों को कोतवाल ने तालाब में डलवा दिया। तालाब में डालते ही पापी धर्म को तो जल जीवों ने खा लिया। रहा यमपाल, सो वह अपने जीवन की कुछ परवाह न कर अपने व्रतपालन में निश्चल बना रहा। उसके उच्च भावों और व्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उसकी रक्षा की। उन्होंने धर्मानुराग से तालाब में ही एक सिंहासन पर यमपाल चाण्डाल को बैठाया, उसका अभिषेक किया और उसे खूब स्वर्गीय वस्त्राभूषण प्रदान किए, खूब उसका आदर सम्मान किया। जब राजा प्रजा को यह हाल सुन पड़ा, तो उन्होंने भी उस चाण्डाल का बड़े आनन्द और हर्ष के साथ सम्मान किया । उसे खूब धन दौलत दी | जिनधर्म का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर और भव्य पुरुषों को उचित है कि वे स्वर्ग - मोक्ष का सुख देने वाले जिनधर्म में अपनी बुद्धि को लगावें स्वर्ग के देवों ने भी एक अत्यन्त नीच चाण्डाल का आदर किया, यह देखकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वेश्यों को अपनी-अपनी जाति का कभी अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि पूजा जाति की नहीं होती किन्तु गुणों की होती है ॥२३-३०॥
    यमपाल जाति का चाण्डाल था, पर उसके हृदय में जिनधर्म की पवित्र वासना थी, इसलिए देवों ने उसका सम्मान किया, उसे रत्नादिकों के अलंकार प्रदान किए; अच्छे-अच्छे वस्त्र दिये, उस पर फूलों की वर्षा की । यह जिनभगवान् के उपदिष्ट धर्म का प्रभाव है, वे ही जिनेन्द्रदेव, जिन्हें कि स्वर्ग के देव भी पूजते हैं, मुझे मोक्ष श्री प्रदान करें । यह मेरी उनसे प्रार्थना है ॥३१॥
  2. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञान जिनका नेत्र है ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर हरिषेण चक्रवर्ती की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    अंगदेश के सुप्रसिद्ध कांपिल्य नगर के राजा सिंहध्वज थे । इनकी रानी का नाम प्रिया था । कथानायक हरिषेण इन्हीं का पुत्र था । हरिषेण बुद्धिमान् था, शूरवीर था, सुन्दर था, दानी था और बड़ा तेजस्वी था। सब उसका बड़ा मान - आदर करते थे ॥२-३॥
    हरिषेण की माता धर्मात्मा थी । भगवान् पर उसकी अचल भक्ति थी । यही कारण था कि वह अठाई के पर्व में सदा जिन भगवान् का रथ निकलवाया करती और उत्सव मनाती। सिंहध्वज की दूसरी रानी लक्ष्मीमती को जैनधर्म पर विश्वास न था । वह सदा उसकी निन्दा करती थी। एक बार उसने अपने स्वामी से कहा- आज पहले मेरा भगवान् का रथ शहर में घूमे ऐसी आप आज्ञा दीजिए, सिंहध्वज ने इसका परिणाम क्या होगा, इस पर कुछ विचार न कर लक्ष्मीमती का कहा मान लिया। पर जब धर्मवत्सल वप्रा रानी को इस बात की खबर मिली तो उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने उसी समय प्रतिज्ञा की कि मैं खाना-पीना तभी करूँगी जब कि मेरा रथ पहले निकलेगा। सच है- सत्पुरुषों को धर्म ही शरण होता है, उनकी धर्म तक ही दौड़ होती है ॥४-८॥
    हरिषेण इतने में भोजन करने को आया । उसने सदा की भाँति आज अपनी माता को हँस - मुख न देखकर उदास मन देखा। इससे उसे बड़ा खेद हुआ। माता क्यों दुःखी हैं, इसका कारण जब उसे जान पड़ा तब वह एक पलभर भी फिर वहाँ न ठहर कर घर से निकल पड़ा। यहाँ से चलकर वह एक चोरों के गाँव में पहुँचा। इसे देखकर एक तोता अपने मालिकों से बोला- जो कि चोरों का सिखाया- पढ़ाया था, देखिये, यह राजकुमार जा रहा है, इसे पकड़ो। तुम्हें लाभ होगा । तोते के इस प्रकार कहने पर किसी चोर का ध्यान न गया । इसलिए हरिषेण बिना किसी आफत के आए यहाँ से निकल गया। सच है, दुष्टों की संगति पाकर दुष्टता आती ही है। फिर ऐसे जीवों से कभी किसी का हित नहीं होता ॥९-११॥
    यहाँ से निकल कर हरिषेण फिर एक शतमन्यु नाम के तापसी के आश्रम में पहुँचा। वहाँ भी एक तोता था परन्तु यह पहले तोते सा दुष्ट न था । इसलिए उसने हरिषेण को देखकर मन में सोचा कि जिसके मुँह पर तेजस्विता और सुन्दरता होती है उसमें गुण अवश्य ही होते हैं। यह जाने वाला भी कोई ऐसा ही पुरुष होना चाहिए। इसके बाद ही उसने अपने मालिक तापसियों से कहा-वह राजकुमार जा रहा है। इसका आप लोग आदर करें। राजकुमार को बड़ा अचम्भा हुआ। उसने पहले का हाल कह कर इस तोते से पूछा- क्यों भाई, तेरे भाई ने तो अपने मालिकों से मेरे पकड़ने को कहा था और तू अपने मालिक से मेरा मान - आदर करने को कह रहा है, इसका कारण क्या है? तोता बोला-अच्छा राजकुमार, सुनो मैं तुम्हें इसका कारण बतलाता हूँ । उस तोते की और मेरी माता एक ही है, हम दोनों भाई-भाई हैं । इस हालत में मुझमें और उसमें विशेषता होने का कारण यह है कि मैं इन तपस्वियों के हाथ पड़ा और वह चोरों के । मैं रोज-रोज इन महात्माओं की अच्छी-अच्छी बातें सुना करता हूँ और वह उन चोरों की बुरी - बुरी बातें सुनता है । इसलिए मुझमें और उसमें इतना अन्तर है। सो आपने अपनी आँखों से देख ही लिया कि दोष और गुण ये संगति के फल हैं। अच्छों की संगति से गुण प्राप्त होते हैं और बुरों की संगति से दुर्गुण ॥१२-१८॥
    इस आश्रम के स्वामी तापसी शतमन्यु पहले चम्पापुरी के राजा थे । उनकी रानी का नाम नागवती है। इनके जनमेजय नाम का एक पुत्र और मदनावती नाम की एक कन्या है । शतमन्यु अपने पुत्र को राज्य देकर तापसी हो गए। राज्य अब जनमेजय करने लगा। एक दिन जनमेजय से मदनावती के सम्बन्ध में एक ज्योतिषी ने कहा कि यह कन्या चक्रवर्ती का सर्वोच्च स्त्रीरत्न होगी और यह सच है कि ज्ञानियों का कहा कभी झूठा नहीं होता ॥१९-२१॥
    जब मदनावती की इस भविष्यवाणी की सब ओर खबर पहुँची तो अनेकों राजा लोग उसे चाहने लगे। उन्हीं में उड्रदेश का राजा कलकल भी था । उसने मदनावती के लिए उसके भाई से मँगनी की। उसकी यह मँगनी जनमेजय ने नहीं स्वीकारी। इससे कलकल को बड़ा ना - गवार गुजरा। उसने रुष्ट होकर जनमेजय पर चढ़ाई कर दी और चम्पापुरी के चारों ओर घेरा डाल दिया। सच है-काम से अन्धे हुए मनुष्य कौन काम नहीं कर डालते । जनमेजय भी ऐसा डरपोक राजा न था। उसने फौरन ही युद्धस्थल में आ-डटने की अपनी सेना को आज्ञा दी। दोनों ओर के वीर योद्धाओं की मुठभेड़ हो गई खूब घमासान युद्ध आरम्भ हुआ। इधर युद्ध छिड़ा और इधर नागवती अपनी लड़की मदनावती को साथ ले सुरंग के रास्ते से निकल भागी । वह इसी शतमन्यु के आश्रम में आयी। पाठकों को याद होगा कि यही शतमन्यु नागवती का पति है। उसने युद्ध का सब हाल शतमन्यु को कह सुनाया। शतमन्यु ने नागवती और मदनावती को अपने आश्रम में ही रख लिया ॥ २२ - २५॥
    हरिषेण राजकुमार का ऊपर जिकर आया है। उसका मदनावती पर पहले से ही प्रेम था। हरिषेण उसे बहुत चाहता था । यह बात आश्रमवासी तापसियों को मालूम पड़ जाने से उन्होंने हरिषेण को आश्रम से निकाल बाहर कर दिया । हरिषेण को इससे बुरा लगा, पर वह कुछ कर-धर नहीं सकता था। इसलिए लाचार होकर उसे चला जाना पड़ा। उसने चलते समय प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा इस पवित्र राजकुमारी के साथ ब्याह होगा तो मैं अपने सारे देश में चार - चार कोस दूरी पर अच्छे-अच्छे सुन्दर और विशाल जिनमन्दिर बनवाऊँगा, जो पृथ्वी को पवित्र करने वाले कहलायेंगे। सच है, उन लोगों के हृदय में जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति सदा रहा करती है जो स्वर्ग या मोक्ष का सुख प्राप्त करने वाले होते हैं ॥२६-२९॥
    प्रसिद्ध सिन्धुदेश के सिन्धुतट शहर के राजा सिन्धुनद और रानी सिन्धुमती के कोई सौ लड़कियाँ थी। ये सब बड़ी सुन्दर थीं । उन लड़कियों के सम्बन्ध में नैमित्तिक ने कहा था कि-ये सब राजकुमारियाँ चक्रवर्ती हरिषेण की स्त्रियाँ होंगी। ये सिन्धुनदी पर स्नान करने के लिए जायेंगीं । उसी समय हरिषेण भी यहीं आ जाएगा। तब परस्पर की चार आँखें होते ही दोनों ओर से प्रेम का बीज अंकुरित हो उठेगा ॥ ३०-३२॥
    नैमित्तिक का कहना ठीक हुआ । हरिषेण दूसरे राजाओं पर विजय करता हुआ उसी सिन्धुनदी के किनारे पर आकर ठहरा। उसी समय सिन्धुनद की कुमारियाँ भी यहाँ स्नान करने के लिए आई हुई थीं। प्रथम ही दर्शन में दोनों के हृदय में प्रेम का अंकुर फूटा और फिर वह क्रम से बढ़ता ही गया। सिन्धुनद से यह बात छिपी न रही। उसने प्रसन्न होकर हरिषेण के साथ अपनी लड़कियों का ब्याह कर दिया ॥३३ - ३४॥
    रात को हरिषेण चित्रशाला नाम के एक खास महल में सोया हुआ था । इसी समय एक वेगवती नाम की विद्याधरी आकर हरिषेण को सोता हुआ ही उठा ले चली। रास्ते में हरिषेण जग उठा। अपने को एक स्त्री कहीं लिए जा रही है, इस बात का मालूम होते ही उसे बड़ा गुस्सा आया। उसने तब उसे विद्याधरी को मारने के लिए घूँसा उठाया। उसे गुस्सा हुआ देख विद्याधरी डरी और हाथ जोड़ कर बोली-महाराज, क्षमा कीजिए । मेरी एक प्रार्थना सुनिए । विजयार्द्ध पर्वत पर बसे हुए सूर्योदर शहर के राजा इन्द्रधनु और रानी बुद्धिमती की एक कन्या है । उसका नाम जयचन्द्रा है। वह सुन्दर है, बुद्धिमती है और बड़ी चतुर है । पर उसमें एक दुर्गुण है और वह महा दुर्गुण है। वह यह कि उसे पुरुषों से बड़ा द्वेष है, पुरुषों को वह आँखों से देखना तक पसन्द नहीं करती। नैमित्तिक ने उसके सम्बन्ध में कहा है कि जो सिन्धुनद की सौ राजकुमारियों का पति होगा, वही इसका भी होगा । तब मैंने आपका चित्र ले जाकर उसे बतलाया । वह उसे देखकर बड़ी प्रसन्न हुई। उसका सब कुछ आप पर न्यौछावर हो चुका है । वह आपके सम्बन्ध की तरह-तरह की बातें पूछा करती है और बड़ी चाव से उन्हें सुनती है। आप का जिकर छिड़ते ही वह बड़े ध्यान से उसे सुनने लगती है। उसकी इन सब चेष्टाओं से जान पड़ता है कि उसका आप पर अत्यन्त प्रेम है। यही कारण है कि मैं उसी की आज्ञा से आपको उसके पास लिए जा रही हूँ । सुनकर हरिषेण बहुत खुश हुआ और फिर वह कुछ भी न बोलकर जहाँ उसे विद्याधरी लिवा गई, चला गया । वेगवती ने हरिषेण को इन्द्रधनु के महल पर ला रखा। हरिषेण के रूप और गुणों को देख कर सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई जयचन्द्रा के माता-पिता ने उसके ब्याह का भी दिन निश्चित कर दिया। जो दिन ब्याह का था उस दिन राजकुमारी जयचन्द्रा के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर ये दोनों हरिषेण पर चढ़ आए। इसलिए कि वह जयचन्द्रा को स्वयं ब्याहना चाहते थे। हरिषेण ने इनके साथ बड़ी वीरता से युद्ध कर उन्हें हराया। उस युद्ध में हरिषेण के हाथ जवाहरात और बहुत धन-दौलत लगी। वह चक्रवर्ती होकर अपने घर लौटा। रास्ते में उसने अपनी प्रेमिणी मदनावती से भी ब्याह किया । घर आकर फिर उसने अपनी माता की इच्छा पूरी की। पहले उसी का रथ चला। इसके बाद हरिषेण ने अपने देशभर में जिन मन्दिर बनवा कर अपनी प्रतिज्ञा को भी निबाहा । सच है - पुण्यवानों के लिए कोई काम कठिन नहीं ॥३५-४३॥
    वे जिनेन्द्र भगवान् सदा जय लाभ करें, जो देवादिकों द्वारा पूजा किए जाते हैं, गुणरूपी रत्नों की खान हैं, स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले है, संसार के प्रकाशित करने वाले निर्मल चन्द्रमा हैं केवलज्ञानी, सर्वज्ञ है और जिनके पवित्र धर्म का पालन कर भव्यजन सुख लाभ करते हैं ॥४४॥
  3. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी और ज्ञान के समुद्र साधुओं को नमस्कार कर वृषभसेन की उत्तम कथा लिखी जाती है ॥१॥
    दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुण्डल नगर के राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे और रिष्टामात्य नाम का इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा - मिथ्यात्वी और जैनधर्म का बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं ॥२-३॥
    एक दिन श्रीवृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिए कुण्डल नगर की ओर आए। वैश्रवण उनके आने के समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिए उनकी वन्दना को गया। भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना की और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सच है, इस सर्वोच्च और सब सुखों के देने वाले जैनधर्म का उपदेश सुनकर कौन सद्गति - का पात्र सुखी न होगा? ॥४-८॥
    राजमंत्री भी मुनिसंघ के पास आया। पर वह इसलिए नहीं कि वह उनकी पूजा - स्तुति करे किन्तु उनसे वाद-शास्त्रार्थ कर उनका मान भंग करने, लोगों की श्रद्धा उन पर से उठा देने। पर यह उसकी भूल थी। कारण, जो दूसरों के लिए कुँआ खोदते हैं उनमें पहले उन्हें ही गिरना पड़ता है। यही हुआ भी। मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान भी उसी का हुआ। मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा। उस अपमान की उसके हृदय पर गहरी चोट लगी। इसका बदला चुकाना निश्चित कर वह शाम को छुपा हुआ मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थान में वह ठहरा था उसमें उस पापी ने आग लगा दी। बड़े दुःख की बात है कि दुर्जनों का स्वभाव एक विलक्षण ही तरह का होता है। वे स्वयं तो पहले दूसरों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं और जब उन्हें अपने कृत का फल मिलता है तब वे यह समझ कर, कि मेरा इसने बुरा किया, दूसरे निर्दोष सत्पुरुषों पर क्रोध करते हैं और फिर उनसे बदला लेने के लिए उन्हें नाना प्रकार के कष्ट देते हैं ॥९-११॥
    जो हो, मंत्री ने अपनी दुष्टता में कोई कसर न की । मुनिसंघ पर उसने बड़ा ही भयंकर उपसर्ग किया। पर उन तत्त्वज्ञानी - वस्तु स्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवाह न कर बड़ी सहन-शीलता के साथ सब कुछ सह लिया और अन्त में अपने - अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही मोक्ष गए और कितने ही स्वर्ग में ॥१२॥
    दुष्ट पुरुष सत्पुरुषों को कितना ही कष्ट क्यों न पहुँचावे उससे खराबी उन्हीं की है उन्हें ही दुर्गति में दुःख भोगना पड़ेंगे और सत्पुरुष तो ऐसे कष्ट के समय में भी अपनी प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहकर अपना धर्म अर्थात् कर्तव्य पालन कर सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे। जैसा कि उक्त मुनिराजों ने किया ॥१३॥
    वे मुनिराज आप लोगों को भी सुख दें, जिन्होंने ध्यानरूपी पर्वत का आश्रय ले बड़ा दुःसह उपसर्ग जीता, अपने कर्तव्य से सर्वश्रेष्ठ कहलाने का सम्मान लाभ किया और अन्त में अपने उच्च भावों से मोक्ष सुख प्राप्त कर देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि द्वारा पूजा को प्राप्त हुए और संसार में सबसे पवित्र गिने जाने लगे ॥१४॥
  4. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सत्य धर्म का उपदेश करने वाले अतएव सारे संसार के स्वामी जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्रीधर्मघोष मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    एक महीना के उपवास से धर्ममूर्ति श्रीधर्मघोष मुनि एक दिन चम्पापुरी के किसी मुहल्ले में पारणा कर तपोवन की ओर लौट रहे थे। रास्ता भूल जाने से उन्हें बड़ी दूर तक हरी-हरी घास पर चलना पड़ा। चलने में अधिक परिश्रम होने से थकावट के मारे उन्हें प्यास लग आई, वे आकर गंगा के किनारे एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठे गए। उन्हें प्यास से कुछ व्याकुल से देखकर गंगा देवी पवित्र जल का भरा एक लोटा लेकर उनके पास आई वह उनसे बोली- योगिराज, मैं आपके लिए ठंडा पानी लाई हूँ, आप इसे पीकर प्यास शान्त कीजिए। मुनि ने कहा- देवी, तूने अपना कर्तव्य पूरा किया, यह तेरे लिए उचित ही था; पर हमारे लिए देवों द्वारा दिया गया आहार- पानी काम नहीं आता । देवी सुनकर बड़ी चकित हुई वह उसी समय इसका कारण जानने के लिए विदेह क्षेत्र में गई और वहाँ सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर उसने पूछा-भगवान्, एक प्यासे मुनि को मैं जल पिलाने गई, पर उन्होंने मेरे हाथ का पानी नहीं पिया; इसका क्या कारण है? तब भगवान् ने इसके उत्तर में कहा- देवों का दिया आहार मुनि लोग नहीं कर सकते । भगवान् का उत्तर सुन देवी निरुपाय हुई तब उसने मुनि को शान्ति प्राप्त हो, इसके लिए उनके चारों ओर सुगन्धित और ठण्डे जल की वर्षा शुरू की । उससे मुनि को शान्ति प्राप्त हुई। इसके बाद शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वर्ग के देव उनकी पूजा करने को आए । अनेक भव्य-जनों को आत्म-हित के रास्ते पर लगा कर अन्त में उन्होंने निर्वाण लाभ किया ॥२-१२॥
    वे धर्मघोष मुनिराज आपको तथा मुझे भी सुखी करें, जो पदार्थों की सूक्ष्म स्थिति देखने के लिए केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं, भव्य जनों को हितमार्ग में लगाने वाले हैं, लोक तथा अलोक के जानने वाले हैं, देवों द्वारा पूजित हैं और भव्य - जनों के मिथ्यात्व, मोहरूपी गाढ़े अन्धकार को नाश करने के लिए सूर्य हैं ॥१३॥
  5. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    लोकालोक के प्रकाश करने वाले, केवलज्ञान द्वारा संसार के सब पदार्थों को जानकर उनका स्वरूप कहने वाले और देवेन्द्रादि द्वारा पूज्य श्री जिन भगवान् को नमस्कार कर मैं दृढ़सूर्य की कथा लिखता हूँ, जो कि जीवों को विश्वास दिलाने वाली है ॥१॥
    उज्जयिनी के राजा जिस समय धनपाल थे, उस समय की यह कथा है। धनपाल उस समय के राजाओं में एक प्रसिद्ध राजा थे। उनकी महारानी का नाम धनवती था । एक दिन धनवती अपनी सखियों के साथ वसन्त श्री देखने को उपवन में गई । उसके गले में एक बहुत कीमती रत्नों का हार पड़ा हुआ था। उसे वहीं आई हुए एक वसन्तसेना नाम की वेश्या ने देखा । उसे देखकर उसका मन उसकी प्राप्ति के लिए आकुलित हो उठा। उसके बिना उसे अपना जीवन निष्फल जान पड़ने लगा। वह दुःखी होकर अपने घर लौटी। सारे दिन वह उदास रही। जब रात के समय उसका प्रेमी दृढ़सूर्य आया तब उसने उसे उदास देखकर पूछा-प्रिये, कहो ! कहो !! तुम आज अप्रसन्न कैसी? बसन्तसेना ने उसे अपने लिए इस प्रकार खेदित देखकर कहा- आज मैं उपवन में गई हुई थी। वहाँ मैंने राजरानी के गले में एक हार देखा हैं। वह बहुत ही सुन्दर है । उसे आप लाकर दें तब ही मेरा जीवन रह सकता है और तब ही आप मेरे सच्चे प्रेमी हो सकते हैं ॥२-४॥
    दृढ़सूर्य हार के लिए चला। वह सीधा राजमहल पहुँचा। भाग्य से हार उसके हाथ पड़ गया। वह उसे लिए हुए राजमहल से निकला । सच है लोभी, लंपटी कौन काम नहीं करते? उसे निकलते ही पहरेदारों ने पकड़ लिया। सबेरा होने पर राजसभा में पहुँचाया गया। राजा ने उसे शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। वह शूली पर चढ़ाया गया । इसी समय धनदत्त नाम के एक सेठ दर्शन करने को जिनमन्दिर जा रहे थे। दृढ़सूर्य ने उनके चेहरे और चाल-ढाल से उन्हें दयालु समझ कर उनसे कहा- सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान् हैं, इसलिए आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहीं से थोड़ा सा जल लाकर मुझे पिला दें, तो आपका बड़ा उपकारी रहूँगा। धनदत्त ने उसकी भलाई की इच्छा से कहा - " भाई, मैं जल तो लाता हूँ, पर इस बीच में तुम्हें एक बात करनी होगी। वह यह कि-मैंने कोई बारह वर्ष के कठिन परिश्रम द्वारा अपने गुरु महाराज की कृपा से एक विद्या सीखी है, सो मैं तुम्हारे लिए जल लेने को जाते समय कदाचित् उसे भूल जाऊँ तो उससे मेरा सब श्रम व्यर्थ जायेगा और मुझे बहुत हानि भी उठानी पड़ेगी, इसलिए उसे मैं तुम्हें सौंप जाता हूँ। मैं जब जल लेकर आऊँ तब तुम मुझे वह लौटा देना। यह कहकर परोपकारी धनदत्त स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाला पंच नमस्कार मंत्र उसे सिखाकर जल लेने को चला गया। वह जल लेकर वापस लौटा, इतने में दृढ़सूर्य की जान निकल गई, वह मर गया। पर वह मरा नमस्कार मंत्र का ध्यान करता हुआ, उसे सेठ के इस कहने पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि वह विद्या महाफल के देने वाली है। नमस्कार मंत्र के प्रभाव से वह सौधर्मस्वर्ग जाकर देव हुआ । सच है -पंच नमस्कारमंत्र के प्रभाव से मनुष्य को क्या प्राप्त नहीं होता? इसी समय किसी एक दुष्ट ने राजा से धनदत्त की शिकायत कर दी कि, महाराज, धनदत्त ने चोर के साथ कुछ गुप्त मंत्रणा की है, इसलिए उसके घर में चोरी का धन होना चाहिए। नहीं तो एक चोर से बातचीत करने का उसे क्या मतलब? ऐसे दुष्टों को और उनके दुराचारों को धिक्कार है, जो व्यर्थ ही दूसरों के प्राण लेने के यत्न में रहते हैं और परोपकार करने वाले सज्जनों को भी जो दुर्वचन कहते रहते हैं ॥५-२०॥
    राजा सुनते ही क्रोध के मारे आग बबूला हो गए। उन्होंने बिना कुछ सोचे विचारे धनदत्त को बाँध ले आने के लिए अपने सैनिक को भेजा । इसी समय अवधिज्ञान द्वारा यह हाल देव को, जो कि दृढ़सूर्य का जीव था, मालूम हो गया। अपने उपकारी को, कष्ट में फँसा देखकर वह उसी समय उज्जयिनी में आया और स्वयं ही द्वारपाल बनकर उसके घर के दरवाजे पर पहरा देने लगा। जब सैनिक धनदत्त को पकड़ने के लिए घर में घुसने लगे तब देव ने उन्हें रोका। पर जब वे हठ करने लगे और जबरन घर में घुसने लगे तब देव ने भी अपनी माया से उन सब को एक क्षण भर में धराशायी कर दिया। राजा ने यह हाल सुनकर और भी बहुत से अपने अच्छे-अच्छे शूरवीरों को भेजा, देव ने उन्हें भी धराशायी कर दिया । इससे राजा का क्रोध अत्यन्त बढ़ गया। तब वे स्वयं अपनी सेना को लेकर धनदत्त पर आ चढ़े। पर उस एक ही देव ने उनकी सारी सेना को तीन तेरह कर दिया। यह देखकर राजा भय के मारे भगाने लगे। उन्हें भागते हुए देखकर देव ने उनका पीछा किया और वह उनसे बोला- आप कहीं नहीं भाग सकते। आपके जीने का एक उपाय है, आप धनदत्त के आश्रय में जायें और उससे अपने प्राणों की भीख माँगें । बिना ऐसा किए आपकी कुशल नहीं । सुनकर ही राजा धनदत्त के पास जिनमन्दिर गए और उन्होंने सेठ से प्रार्थना की कि - धनदत्त, मेरी रक्षा करो ! मुझे बचाओ ! मैं तुम्हारे शरण में हूँ। सेठ ने देव को पीछे ही आया हुआ देखकर कहा- तुम कौन हो ? और क्यों हमारे महाराज को कष्ट दे रहे हो? देव ने अपनी माया समेटी और सेठ को प्रणाम करके कहा हे जिनभक्त सेठ! मैं वही पापी चोर का जीव हूँ, जिसे तुमने नमस्कार मंत्र उपदेश दिया था। उसी के प्रभाव से मैं सौधर्मस्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ हूँ। मैंने अवधिज्ञान द्वारा जब अपना पूर्वभव का हाल जाना तब मुझे ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे उपकारी पर बड़ी आपत्ति आ रही है, इसलिए मैं आया हूँ। यह सब कर्तव्य पूरा करने के लिए और आपकी रक्षा के लिए मैं आया हूँ। यह सब माया मुझ सेवक की ही की हुई है। इस प्रकार सब हाल सेठ से कहकर और रत्नमय भूषणादि से उसका यथोचित सत्कार कर देव स्वर्ग में चला गया। जिनभक्त धनदत्त की परोपकार बुद्धि और दूसरों के दुःख दूर करने की कर्तव्यपरता देखकर राजा वगैरह ने उसका खूब आदर सम्मान किया । सच है -
    'धार्मिकः कैर्न पूज्यते" अर्थात् धर्मात्मा का कौन सत्कार नहीं करता ? ॥२१-३५॥ 
    राजा और प्रजा के लोग इस प्रकार नमस्कार मंत्र का प्रभाव देखकर बहुत खुश हुए और पवित्र जिनशासन के श्रद्धानी हुए । इसी तरह धर्मात्माओं को भी उचित है कि वे अपने आत्महित के लिए भक्तिपूर्वक जिनभगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर करें ॥३६॥
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    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनकी कृपा से केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त हो सकती है, उन पंच परमेष्ठी - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार कर गुरुदत्त मुनि का पवित्र चरित लिखा जाता है ॥१॥
    गुरुदत्त हस्तिनापुर के धर्मात्मा राजा विजयदत्त की रानी विजया के पुत्र थे। बचपन से ही इनकी प्रकृति में गम्भीरता, धीरता, सरलता तथा सौजन्यता थी । सौन्दर्य में भी वे अद्वितीय थे। अस्तु, पुण्य की महिमा अपरम्पार है ॥२- ३॥
    विजयदत्त अपना राज्य गुरुदत्त को सौंपकर स्वयं मुनि हो गए और आत्महित करने लगे। राज्य की बागडोर गुरुदत्त ने अपने हाथ में लेकर बड़ी सावधानी और नीति के साथ शासन आरम्भ किया। प्रजा उनसे बहुत खुश हुई वह अपने नये राजा को हजार-हजार साधुवाद देने लगी। दुःख किसे कहते हैं, यह बात गुरुदत्त की प्रजा जानती ही न थी । कारण - किसी को कुछ, थोड़ा भी कष्ट होता था तो गुरुदत्त फौरन ही उसकी सहायता करता । तन से, मन से और धन से वह सभी के काम आता था ॥४॥
    लाट देश में द्रोणीमान पर्वत के पास चन्द्रपुरी नाम की एक सुन्दर नगरी बसी हुई थी। उसके राजा थे चन्द्रकीर्ति। उनकी रानी का नाम चन्द्रलेखा था । उनके अभयमती नाम की एक पुत्री थी । गुरुदत्त ने चन्द्रकीर्ति से अभयमती के लिए प्रार्थना की कि वे अपनी कुमारी का ब्याह उसके साथ कर दें परन्तु चन्द्रकीर्ति ने उनकी इस बात से साफ इनकार कर दिया, वे गुरुदत्त के साथ अभयमती का ब्याह करने को राजी न हुए। गुरुदत्त ने इससे कुछ अपना अपमान हुआ समझा । चन्द्रकीर्ति पर उसे गुस्सा आया। उसने उसी समय चन्द्रपुरी पर चढ़ाई कर दी और उसे चारों ओर से घेर लिया। कुमारी अभयमती गुरुदत्त पर पहले ही से मुग्ध थी और जब उसने उसके द्वारा चन्द्रपुरी का घेरा जाना सुना तो वह अपने पिता के पास आकर बोली- पिताजी ! अपने सम्बन्ध में मैं आपसे कुछ कहना उचित नहीं समझती, पर मेरे संसार को सुखमय होने में कोई बाधा या विघ्न न आए। इसलिए कहना या प्रार्थना करना उचित जान पड़ता है क्योंकि मुझे दुःख में देखना तो आप सपने में भी पसन्द नहीं करेंगे। वह प्रार्थना यह है कि आप गुरुदत्त जी के साथ ही मेरा ब्याह कर दें, इसी में मुझे सुख होगा । उदार-हृदय चन्द्रकीर्ति ने अपनी पुत्री की बात मान ली। इसके बाद अच्छा दिन देख खूब आनन्दोत्सव के साथ उन्होंने अभयमती का ब्याह गुरुदत्त के साथ कर दिया। इस सम्बन्ध से कुमार और कुमारी दोनों ही सुखी हुए। दोनों की मनचाही बात पूरी हुई ॥५ - ९॥
    ऊपर जिस द्रोणीमान पर्वत का उल्लेख हुआ है, उसमें एक बड़ा भयंकर सिंह रहता था। उसने सारे शहर को बहुत ही आतंकित कर रखा था। सबके प्राण सदा मुट्ठी में रहा करते थे। कौन जाने कब आकर सिंह खा ले, इस चिन्ता से सब हर समय घबराए हुए से रहते थे। इस समय कुछ लोगों ने गुरुदत्त से जाकर प्रार्थना की कि राजाधिराज, इस पर्वत पर एक बड़ा भारी हिंसक सिंह रहता है। उससे हमें बड़ा कष्ट है इसलिए आप कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे हम लोगों का कष्ट दूर हो ॥१०-११॥
    गुरुदत्त उन लोगों को धीरज बँधाकर आप अपने कुछ वीरों को साथ लिए पर्वत पर पहुँचा। सिंह को उसने सब ओर से घेर लिया। पर मौका पाकर वह भाग निकला और जाकर एक अँधेरी गुफा में घुसकर छिप गया। गुरुदत्त ने तब इस मौके को अपने लिए और भी अच्छा समझा। उसने उसी समय बहुत से लकड़े गुफा में भरवाकर सिंह के निकलने का रास्ता बन्द कर दिया और बाहर गुफा के मुँह पर भी एक लकड़ों का ढेर लगवा कर उसमें आग लगवा दी। लकड़ों की खाक के साथ-साथ उस सिंह की भी देखते-देखते खाक हो गयी। सिंह बड़े कष्ट के साथ मरकर इसी चन्द्रपुरी में भरत नाम के ब्राह्मण की विश्वदेवी स्त्री के कपिल नाम का लड़का हुआ। वह जन्म से ही बड़ा क्रूर हुआ और यह ठीक भी है कि पहले जैसा संस्कार होता है, वह दूसरे जन्म में भी आता है ॥१२- १५॥
    इसके बाद गुरुद्रत अपनी प्रिया को लिए राजधानी में लौट आया। दोनों नव दम्पत्ति बड़े सुख से रहने लगे। कुछ दिनों बाद अभयमती के एक पुत्र ने जन्म लिया। इसका नाम रखा गया सुवर्णभद्र। यह सुन्दर था, सरलता और पवित्रता की प्रतिमा था और बुद्धिमान् था। इसीलिए सब उसे बहुत प्यार करते थे। जब उसकी उमर योग्य हो गई और सब कामों में वह होशियार हो गया तब जिनेन्द्र भगवान् के सच्चे भक्त उसके पिता गुरुदत्त ने अपना राज्यभार इसे देकर आप वैरागी बन मुनि हो गए। इसके कुछ वर्षों बाद अनेक देशों, नगरों और गाँवों में धर्मोपदेश करते, भव्य-जनों को सुलटाते एक बार चन्द्रपुरी की ओर आए ॥१६-१९॥
    एक दिन गुरुदत्त मुनि कपिल ब्राह्मण के खेत पर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे। उसी समय कपिल घर पर अपनी स्त्री से यह कह कर, कि प्रिये, मैं खेत पर जाता हूँ, तुम वहाँ भोजन लेकर जल्दी आना, , खेत पर आ गया। जिस खेत पर गुरुदत्त मुनि ध्यान कर रहे थे, उसे तब जोतने योग्य न समझ वह दूसरे खेत पर जाने लगा। जाते समय मुनि से वह यह कहता गया कि मेरी स्त्री यहाँ भोजन लिए हुए आवेगी सो उसे आप कह दीजियेगा कि कपिल दूसरे खेत पर गया है। तू भोजन वहीं ले जा, सच है, मूर्ख लोग महामुनि के मार्ग को न समझ कर कभी-कभी बड़ा ही अनर्थ कर बैठते हैं। इसके बाद जब कपिल की स्त्री भोजन लेकर खेत पर आई और उसने अपने स्वामी को खेत पर न पाया तब मुनि से पूछा- - क्यों साधु महाराज, मेरे स्वामी यहाँ से कहाँ गए हैं? मुनि चुप रहे, कुछ बोले नहीं। उनसे कुछ उत्तर न पाकर वह घर पर लौट आयी । इधर समय पर समय बीतने लगा ब्राह्मण देवता भूख के मारे छटपटाने लगे पर ब्राह्मणी का अभी तक पता नहीं; यह देख उन्हें बड़ा गुस्सा आया। वे क्रोध से गुर्राते हुए घर आये और लगे बेचारी ब्राह्मणी पर गालियों की बौछार करने । राँड, मैं तो भूख के मारे मरा जाता हूँ और तेरा अभी तक आने का ठिकाना ही नहीं । उस नंगे को पूछकर खेत पर चली आती । बेचारी ब्राह्मणी घबराती हुई बोली- अजी तो इसमें मेरा क्या अपराध था । मैंने उस साधु से तुम्हारा ठिकाना पूछा। उसने कुछ न बताया तब मैं वापस घर पर आ गई। ब्राह्मण ने दाँत पीसकर कहा- हाँ, उस नंगे ने तुझे मेरा ठिकाना नहीं बताया और मैं तो उससे कह गया था । अच्छा, मैं अभी जाकर उसे उसका मजा चखता हूँ । पाठकों को याद होगा कि कपिल पहले जन्म में सिंह था और उसे इन्हीं गुरुदत्त मुनि ने राज अवस्था में जलाकर मार डाला था तब इस हिसाब से कपिल के वे शत्रु हुए। यदि कपिल को किसी तरह यह जान पड़ता कि ये मेरे शत्रु हैं, तो उस शत्रुता का बदला उसने कभी का ले लिया होता पर उसे इसके जानने का न तो कोई जरिया मिला और न था ही। तब उस शत्रुता को जाग्रत करने के लिए कपिल की स्त्री को कपिल के दूसरे खेत पर जाने का हाल जो मुनि ने न बताया, यह घटना सहायक हो गई । कपिल गुस्से से लाल होता हुआ मुनि के पास पहुँचा। वहाँ बहुत सी सेमल की रुई पड़ी हुई थी। कपिल ने उस रुई से मुनि को लपेट कर उसमें आग लगा दी। मुनि पर बड़ा उपसर्ग हुआ। पर उसे उन्होंने बड़ी धीरता से सहा । उस समय शुक्लध्यान के बल से घातिया कर्मों का नाश होकर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने आकर उन पर फूलों की वर्षा की, आनन्द मनाया। कपिल ब्राह्मण यह सब देखकर चकित हो गया । उसे तब जान पड़ा कि जिन साधु को मैंने अत्यन्त निर्दयता से जला डाला उनका कितना माहात्म्य था । उसे अपनी इस नीचता पर बड़ा ही पछतावा हुआ । उसने बड़ी भक्ति से भगवान् को हाथ जोड़कर अपने अपराध की उनसे क्षमा माँगी। भगवान् के उपदेश को उसने बड़े चाव से सुना । उसे वह बहुत रुचा भी । वैराग्यपूर्ण भगवान् के उपदेश ने उसके हृदय पर गहरा असर किया । वह उसी समय सब छोड़ कर अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिये मुनि हो गया। सच है, सत्पुरुषों-महात्माओं की संगति सुख देने वाली होती है। यही तो कारण था कि एक महाक्रोधी ब्राह्मण पल भर में सब छोड़कर योगी बन गया। इसलिये भव्य-जनों को सत्पुरुषों की संगति से अपने को, अपनी सन्तान को और अपने कुल को सदा पवित्र करने का यत्न करते रहना चाहिए । यह सत्संग परम सुख का कारण है ॥२० - ३४॥
    वे कर्मों के जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा संसार में रहें, उनका शासन चिरकाल तक जय लाभ करे जो सारे संसार को सुख देने वाले हैं, सब सन्देहों के नाश करने वाले हैं और देवों द्वारा जो पूजा स्तुति किये जाते हैं तथा दुःसह उपसर्ग आने पर भी जो मेरु की तरह स्थिर रहे और जिन्होंने अपना आत्मस्वभाव प्राप्त किया ऐसे गुरुदत्त मुनि तथा मेरे परम गुरु श्रीप्रभाचन्द्राचार्य, ये मुझे आत्मीक सुख प्रदान करें ॥३५॥
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    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर चिलातपुत्र की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    राजगृह के राजा उपश्रेणिक एक बार हवाखोरी के लिए शहर से बाहर गए । वे जिस घोड़े पर सवार थे, वह बड़ा दुष्ट था। सो उसने उन्हें एक भयानक वन में जा छोड़ा। उस वन का मालिक एक यमदण्ड नाम का भील था । उसके एक लड़की थी। उसका नाम तिलकवती था । वह बड़ी सुन्दरी थी । उपश्रेणिक उसे देखकर काम के बाणों से अत्यन्त बींधे गये । उनकी यह दशा देखकर यमदण्ड ने उनसे कहा-राजाधिराज, यदि आप इससे उत्पन्न होने वाले पुत्र को राज्य का मालिक बनाना मंजूर करें तो मैं इसे आपके साथ ब्याह सकता हूँ । उपश्रेणिक ने यमदण्ड की शर्त मंजूर कर ली। यमदण्ड ने तब तिलकवती का ब्याह उनके साथ कर दिया। वे प्रसन्न होकर उसे साथ लिये राजगृह लौट आये ॥२-७॥
    बहुत दिनों तक उन्होंने तिलकवती के साथ सुख भोगा, आनन्द मनाया। तिलकवती के एक पुत्र हुआ। इसका नाम चिलातपुत्र रखा गया । उपश्रेणिक के पहली रानियों से उत्पन्न हुए और भी कई पुत्र थे। यद्यपि राज्य वे तिलकवती के पुत्र को देने का संकल्प कर चुके थे, तो भी उनके मन में यह खटका सदा बना रहता था कि कहीं इसके हाथ में राज्य जाकर धूलधानी न हो जाये । जो हो, I वे अपनी प्रतिज्ञा के न तोड़ने को लाचार थे । एक दिन उन्होंने एक अच्छे विद्वान् ज्योतिषी को बुलाकर उससे पूछा-पंडित जी, अपने निमित्तज्ञान को लगाकर मुझे आप यह समझाइए कि मेरे इन पुत्रों में राज्य का मालिक कौन होगा? ज्योतिषी जी बहुत कुछ सोच-विचार के बाद राजा से बोले- सुनिये महाराज, मैं आपको इसका खुलासा कहता हूँ । आपके सब पुत्र खीर का भोजन करने को एक जगह बिठाएँ जायें और उस समय उन पर कुत्तों का एक झुंड छोड़ा जाये। तब उन सबमें जो निडर होकर वहीं रखे हुए सिंहासन पर बैठे नगारा बजाता जाये और भोजन भी करता जाये और दूसरे कुत्तों को भी डालकर खिलाता जाये, उसमें राजा होने की योग्यता है। मतलब यह कि अपनी बुद्धिमानी से कुत्तों के स्पर्श से अछूता रहकर आप भोजन कर ले ॥८- १०॥
    दूसरा निमित्त यह होगा कि आग लगने पर जो सिंहासन, छत्र, चाँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल सके, वह राजा हो सकेगा इत्यादि और कई बातें है, पर उनके विशेष कहने की जरूरत नहीं ॥११-१२॥
    कुछ दिन बीतने पर उपश्रेणिक ने ज्योतिषी जी के बताये निमित्त की जाँच करने का उद्योग किया। उन्होंने सिंहासन के पास ही एक नगारा रखवाकर वहीं अपने सब पुत्रों को खीर खाने को बैठाया। वे जीमने लगे कि दूसरी ओर से कोई पाँच सौ कुत्तों का झुण्ड दौड़कर उन पर लपका। उन कुत्तों को देखकर राजकुमारों के तो होश गायब हो गए। वे सब चीख मारकर भाग खड़े हुए। पर हाँ एक श्रेणिक जो इन सबसे वीर और बुद्धिमान् था, उन कुत्तों से डरा नहीं और बड़ी फुरती से उठकर उसने खीर परोसी हुई बहुत-सी पत्तलों को एक ऊँची जगह रख कर आप पास ही रखे हुए सिंहासन पर बैठ गया और आनन्द से खीर खाने लगा। साथ में वह उन कुत्तों को भी थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक एक पत्तल उठा-उठा डालता गया और नगारा बजाता गया, जिससे कि कुत्ते उपद्रव न करें ॥१३-१६॥
    इसके कुछ दिनों बाद उपश्रेणिक ने दूसरे निमित्त की भी जाँच की । अब की बार उन्होंने कहीं कुछ थोड़ी-सी आग लगवा लोगों द्वारा शोरगुल करवा दिया कि राजमहल में आग लग गई। श्रेणिक ने जैसे ही आग लगने की बात सुनी वह दौड़ा गया और झटपट राजमहल से सिंहासन, चँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल बाहर हो गया । यही श्रेणिक आगे तीर्थंकर होगा ॥१७॥
    श्रेणिक की वीरता और बुद्धिमानी देखकर उपश्रेणिक को निश्चय हो गया कि राजा यही होगा। इसी के यह योग्य भी है। श्रेणिक के राजा होने की बात तब तक कोई न जान पाए जब तक वह अपना अधिकार स्वयं अपनी भुजाओं द्वारा प्राप्त न कर ले | इसके लिए उन्हें उसके रक्षा की चिन्ता हुई। कारण उपश्रेणिक राज्य का अधिकारी तिलकवती के पुत्र चिलात को बना चुके थे और इस हाल में किसी दुश्मन को या चिलात के पक्षपातियों को यह पता लग जाता कि इस राज्य का राजा तो श्रेणिक ही होगा, तब यह असम्भव नहीं था कि वे उसे राजा होने देने के पहले ही मार डालते। इसलिए उपश्रेणिक को यह चिन्ता करना वाजिब था, समयोचित और दूरदर्शिता का था। इसके लिए उन्हें एक अच्छी युक्ति सूझ गई और बहुत जल्दी उन्होंने उसे कार्य में भी परिणत कर दिया। उन्होंने श्रेणिक के सिर पर यह अपराध मढ़ा कि उसने कुत्तों का झूठा खाया, इसलिए वह भ्रष्ट है। अब वह न तो राजघराने में ही रहने योग्य रहा और न देश में ही । इसलिए मैं उसे आज्ञा देता हूँ कि वह बहुत जल्दी राजगृह से बाहर हो जाये । सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं ॥१८-१९॥
    श्रेणिक अपने पिता की आज्ञा पाते ही राजगृह से उसी समय निकल गया। वह फिर पलभर के लिए भी वहाँ न ठहरा। वहाँ से चलकर वह द्राविड़ देश की प्रधान नगरी काँची में पहुँचा। उसने अपनी बुद्धिमानी से वहाँ कोई ऐसा वसीला लगा लिया जिससे उसके दिन बड़े सुख से कटने लगे ॥२०॥
    इधर उपश्रेणिक कुछ दिनों तक तो और राजकाज चलाते रहे। इसके बाद कोई ऐसा कारण उन्हें देख पड़ा जिससे संसार और विषयभोगों से वे बहुत उदासीन हो गए। अब उन्हें संसार का वास एक बहुत ही पेचीला जाल जान पड़ने लगा। उन्होंने तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार चिलातपुत्र को राजा बनाकर सब जीवों का कल्याण करने वाला मुनिपद ग्रहण कर लिया ॥२१-२२॥
    चिलात - पुत्र राजा हो गया, पर उसका जाति - स्वभाव न गया और ठीक भी है कौए को मोर के पांख भले ही लगा दिये जायें, पर वह मोर न बनकर रहेगा कौआ का कौआ ही। यही दशा चिलातपुत्र की हुई। वह राजा बना भी दिया गया तो क्या हुआ, उसमें अगत के तो कुछ गुण नहीं थे, तब वह राजा होकर भी क्या बड़ा कहला सका? नहीं। अपने जाति स्वभाव के अनुसार प्रजा को कष्ट देना, उस पर जबरन जोर-जुल्म करना उसने शुरू किया । यह एक साधारण बात है कि अन्यायी का कोई साथ नहीं देता और यही कारण हुआ कि मगध की प्रजा की श्रद्धा उस पर से बिल्कुल ही उठ गई । सारी प्रजा उससे हृदय से नफरत करने लगी । प्रजा का पालक होकर जो राजा उसी पर अन्याय करे तब उससे बढ़कर और दुःख की बात क्या हो सकती है? ॥२३॥
    परन्तु इसके साथ यह भी बात है कि प्रकृति अन्याय को नहीं सहती । अन्यायी को अपने अन्याय का फल तुरन्त मिलता है । चिलातपुत्र के अन्याय की डुगडुगी चारों ओर पिट गई । श्रेणिक को जब यह बात सुन पड़ी तब उससे चिलातपुत्र का प्रजा पर जुल्म करना न सहा गया। वह उसी समय मगध की ओर रवाना हुआ। जैसे ही प्रजा को श्रेणिक के राजगृह आने की खबर लगी उसने उसका एकमत होकर साथ दिया । प्रजा की इस सहायता से श्रेणिक ने चिलात को राज्य से बाहर निकाल आप मगध का सम्राट् बना। सच है, राजा होने के योग्य वही पुरुष है जो प्रजा का पालन करने वाला हो। जिसमें यह योग्यता नहीं वह राजा नहीं किन्तु इस लोक में तथा परलोक में अपनी कीर्ति का नाश करने वाला है | २४ - २५॥
    चिलात पुत्र मगध से भागकर एक वन में जाकर बसा । वहाँ उसने एक छोटा-मोटा किला बनवा लिया और आसपास के छोटे-छोटे गाँवों से जबरदस्ती कर वसूल कर आप उनका मालिक बन बैठा। इसका भर्तृमित्र नाम का एक मित्र था । भर्तृमित्र के मामा रुद्रदत्त के एक लड़की थी । सो भर्तृमित्र ने अपने मामा से प्रार्थना की-वह अपनी लड़की का ब्याह चिलातपुत्र के साथ कर दे। उसकी बात पर कुछ ध्यान न देकर रुद्रदत्त चिलातपुत्र को लड़की देने से साफ मुकर गया। चिलातपुत्र से अपना वह अपमान न सहा गया। वह छुपा हुआ राजगृह में पहुँचा और विवाहित स्नान करती हुई सुभद्रा को उठा चलता बना। जैसे ही यह बात श्रेणिक के कानों में पहुँची वह सेना लेकर उसके पीछे दौड़ा। चिलातपुत्र ने जब देखा कि अब श्रेणिक के हाथ से बचना कठिन है, तब उस दुष्ट निर्दयी ने बेचारी सुभद्रा को जान से मार डाला और आप जान बचाकर भागा । वह वैभारपर्वत पर से जा रहा था कि उसे वहाँ एक मुनियों का संघ देख पड़ा । चिलातपुत्र दौड़ा हुआ संघाचार्य श्री मुनिदत्त मुनिराज के पास पहुँचा और उन्हें हाथ जोड़ सिर नवा उसने प्रार्थना की कि प्रभो, मुझे तप दीजिए, जिससे मैं अपना हित कर सकूँ । आचार्य ने तब उससे कहा-प्रिय, तूने बड़ा अच्छा सोचा 'तू तप लेना चाहता है। तेरी आयु अब सिर्फ आठ दिन की रह गई है। ऐसे समय जिनदीक्षा लेकर तुझे अपना हित करना उचित ही है। मुनिराज से अपनी जिन्दगी इतनी थोड़ी सुन उनसे उसी समय तप ले लिया जो संसार-समुद्र से पार करने वाला है। चिलातपुत्र तप लेने के साथ ही प्रायोपगमन संन्यास ले धीरता से आत्मभावना भाने लगा। इधर उसके पकड़ने को पीछे आने वाले श्रेणिक ने वैभारपर्वत पर आकर उसे इस अवस्था में जब देखा तब उसे चिलातपुत्र की इस धीरता पर बड़ा चकित होना पड़ा। श्रेणिक ने तब उसके इस साहस की बड़ी तारीफ की। इसे बाद वह उसे नमस्कार कर राजगृह लौट आया । चिलातपुत्र ने जिस सुभद्रा को मार डाला था, वह मरकर व्यन्तर देवी हुई । उसे जान पड़ा कि मैं चिलातपुत्र द्वारा बड़ी निर्दयता से मारी गई हूँ । मुझे भी तब अपने बैर का बदला लेना ही चाहिए । यह सोचकर वह चील का रूप ले चिलात मुनि के सिर पर आकर बैठ गई उसने मुनि को कष्ट देना शुरू किया। पहले उसने चोंच से उनकी दोनों आँखें निकाल लीं और बाद मधुमक्खी बनकर वह उन्हें काटने लगी। आठ दिन तक उन्हें उसने बेहद कष्ट पहुँचाया। चिलातमुनि ने विचलित न हो इस कष्ट को बड़े शान्ति से सहा। अन्त में समाधि से मरकर उसने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की ॥२६-४०॥
    जिस वीरों के वीर और गुणों की खान चिलात मुनि ने ऐसा दुःसह उपसर्ग सहकर भी अपना धैर्य नहीं छोड़ा और जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का, जो कि देवों द्वारा भी पूज्य हैं, खूब मन लगाकर ध्यान करते रहे और अन्त में जिन्होंने अपने पुण्यबल से सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की वे मुझे भी मंगल दें ॥ २६-४१॥
  8. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिन्हें स्वर्ग के देवता बड़ी भक्ति के साथ पूजते हैं, उन सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं श्रीभूत-पुरोहित का उपाख्यान कहता हूँ, जो चोरी करके दुर्गति में गया है। सिंहपुर नाम का सुन्दर नगर था। उसका राजा सिंहसेन था । सिंहसेन की रानी का नाम रामदत्ता था। राजा बुद्धिमान् और धर्मपरायण था । रानी भी बड़ी चतुर थी । सब कामों को वह उत्तमता के साथ करती थी। राजपुरोहित श्रीभूति था । उसने मायाचारी से अपने सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध कर रक्खी थी कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ । बेचारे भोले लोग उस कपटी के विश्वास में आकर अनेक बार ठगे जाते थे। पर उसके कपट का पता किसी को नहीं पड़ पाता था। ऐसे ही एक दिन एक विदेशी उसके चंगुल में फँसा। इसका नाम समुद्रदत्त था। यह पद्मखण्डपुर का रहने वाला था। इसके पिता सुमित्र और माता सुमित्रा थी । समुद्रदत्त की इच्छा एक दिन व्यापारार्थ विदेश जाने की हुई । इसके पास पाँच बहुत कीमती रत्न थे। पद्मखण्डपुर में कोई ऐसा विश्वस्त पुरुष इसके ध्यान में नहीं आया, जिसके पास यह अपने रत्नों को रखकर निश्चित हो सकता था । इसने श्रीभूति की प्रसिद्धि सुन रखी थी। इसलिए उसके पास रत्न रखने का विचार कर यह सिंहपुर आया । यहाँ श्रीभूति से मिलकर इसने अपना विचार उसे कह सुनाया । श्रीभूति ने इसके रत्नों का रखना स्वीकार कर लिया। समुद्रदत्त को इससे बड़ी खुशी हुई और साथ ही वह उन रत्नों को श्रीभूति को सौंपकर आप रत्नद्वीप के लिए रवाना हो गया। वहाँ कई दिनों तक ठहरकर इसने बहुत घन कमाया। जब वह वापस लौटकर जहाज द्वारा अपने देश की ओर आ रहा था तब पापकर्म के उदय से इसका जहाज टकराकर फट गया। बहुत से आदमी डूब मरे । बहुत ठीक लिखा है कि बिना पुण्य के कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। समुद्रदत्त इस समय भाग्य से मरते-मरते बच गया। इसके हाथ जहाज का एक छोटा- सा टुकड़ा लग गया। यह उस पर बैठकर बड़ी कठिनता के साथ किसी तरह किनारे आ गया । यहाँ से यह सीधा श्रीभूति पुरोहित के पास पहुँचा । श्रीभूति इसे दूर से देखकर ही पहचान गया। वह धूर्त तो था ही, सो उसने अपने आसपास बैठे हुए लोगों से कहा- देखिये, वह कोई दरिद्र भिखमंगा आ रहा है अब यहाँ आकर व्यर्थ सिर खाने लगेगा। जिसके पास थोड़ा बहुत पैसा होता है या जिनकी मान मर्यादा लोगों में अधिक होती है तो उन्हें इन भिखारियों के मारे चैन नहीं। एक न एक हर समय सिर पर खड़ा ही रहता है। हम लोगों ने जो सुना था कि कल एक जहाज फटकर डूब गया है, मालूम होता है। यह उसी पर का कोई यात्री है और इसका सब धन नष्ट हो जाने से यह पागल हो गया जान पड़ता है। इसकी दुर्दशा से ज्ञान होता है कि यह इस समय बड़ा दुःखी है और इसी से संभव है कि यह मुझसे कोई बड़ी भारी याचना करे । श्रीभूति तो इस तरह लोगों को कह ही रहा था कि समुद्रदत्त उसके सामने जा खड़ा हुआ । श्रीभूति को नमस्कार कर अपनी हालत सुनाना आरम्भ करता है कि इतने में श्रीभूति बोल उठा कि मुझे इतना समय नहीं कि मैं तुम्हारी सारी दुःख कथा सुनूँ। हाँ तुम्हारी इस हालत से जान पड़ता है कि तुम पर कोई बड़ी भारी आफत आई है । अस्तु, मुझे तुम्हारे दुःख में संवेदना है। अच्छा जाइए, मैं नौकरों से कहे देता हूँ कि वे तुम्हें कुछ दिनों के लिए खाने का सामान दिलवा दें। यह कहकर ही उसने नौकरों की ओर मुँह फेरा और आठ दिन तक का खाने का सामान समुद्रदत्त को दिलवा देने के लिए उनसे कह दिया। बेचारा समुद्रदत्त तो श्रीभूति की बातें सुनकर हत - बुद्धि हो गया । उसे काटो तो खून नहीं। उसने घबराते-घबराते कहा- महाराज, आप यह क्या करते है? मेरे जो आपके पास पाँच रत्न रक्खे हैं, मुझे तो वे ही दीजिए। मैं आपका समान -वामान नहीं लेता ॥१-१२॥
    श्रीभूति ने रत्न का नाम सुनते ही अपने चेहरे पर का भाव बदला और त्यौरी चढ़ाकर जोर के साथ कहा-रत्न! अरे दरिद्र ! तेरे रत्न और मेरे पास ? यह तू क्या बक रहा है? कह तो सही वास्तव में तेरी मंशा क्या है? क्या मुझे तू बदनाम करना चाहता है ? तू कौन, और कहाँ का रहने वाला है? मैं तुझे जानता तक नहीं, फिर तेरे रत्न मेरे पास आए कहाँ से ? जा - जा, पागल तो नहीं हो गया है? ठीक ध्यान से विचार कर । किसी और के यहाँ रखकर उसके भ्रम से मेरे पास आ गया जान पड़ता है। इसके बाद ही उसने लोगों की ओर नजर फेरकर कहा- देखिये साहब, मैंने कहा था न? कि यह मेरे से कोई बड़ी भारी याचना करेगा। ठीक वही हुआ । बतलाइए, इस दरिद्र के पास रत्न कहाँ से आ सकते हैं? धन नष्ट हो जाने से जान पड़ता है यह बहक गया है। यह कहकर श्रीभूति ने नौकरों द्वारा समुद्रदत्त को घर से बाहर निकलवा दिया। नीतिकार ने ठीक लिखा है- जो लोग पापी होते है और जिन्हें दूसरों के धन की चाह होती है, वे दुष्ट पुरुष ऐसा कौन बुरा काम है जिसे लोभ के वश हो न करते हों? श्रीभूति ऐसे ही पापियों में से एक था, तब वह कैसे ऐसे निंद्य कर्म से बचा रह सकता था? पापी श्रीभूति से ठगा जाकर बेचारा समुद्रदत्त सचमुच पागल हो गया? वह श्रीभूति के मकान से निकलते ही यह चिल्लाता हुआ कि पापी श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता है, सारे शहर में घूमने लगा। पर उसे एक भिखारी के वेश में देखकर किसी ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया । उल्टा उसे ही सब पागल बताने लगे। समुद्रदत्त दिन भर तो इस तरह चिल्लाता हुआ सारे शहर में घूमता-फिरता और जब रात होती तब राजमहल के पीछे एक वृक्ष पर चढ़ जाता और सारी रात उसी तरह चिल्लाया करता । ऐसा करते-करते उसे ठीक छह महीना बीत गये । समुद्रदत्त का इस तरह रोज-रोज चिल्लाना सुनकर एक दिन महारानी रामदत्ता ने सोचा कि बात वास्तव में क्या है, इसका जरूर पता लगाना चाहिए। तब एक दिन उसने अपने स्वामी से कहा- प्राणनाथ, मैं रोज एक गरीब की पुकार सुनती हूँ। मैं तो यह समझती रही कि वह पागल हो गया है और इसी से दिन-रात चिल्लाया करता है, कि श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता । पर प्रतिदिन उसके मुँह से एक ही वाक्य सुनकर मेरे मन में कुछ खटका पैदा होता है। इसलिए आप उसे बुलाकर पूछिये तो कि वास्तव में रहस्य क्या है? रानी के कहे अनुसार राजा ने समुद्रदत्त को बुलाकर सब बातें पूछी। समुद्रदत्त ने जो यथार्थ घटना थी, वह राजा से कह सुनाई सुनकर राजा ने रानी से कहा कि इसके चेहरे पर से तो इसकी बात ठीक जँचती है। पर इसका भेद खुलने के लिए क्या उपाय है? रानी ने थोड़ी देर तक विचार कर कहा- हाँ, इसकी आप चिन्ता न करें। मैं सब बातें जान लूँगी ॥१३-१८॥
    दूसरे दिन रानी ने पुरोहित जी को अपने अन्तःपुर में बुलाया। आदर-सत्कार होने के बाद रानी ने उनसे कहा-मेरी इच्छा बहुत दिनों से आपसे मिलने की थी, पर कोई ठीक समय ही नहीं मिल पाता था। आज बड़ी खुशी हुई कि आपने यहाँ आने की कृपा की। इसके बाद रानी ने पुरोहित से कुछ इधर- उधर की बातें करके उनसे भोजन का हाल पूछा। उनके भोजन का सब हाल जानकर उसने अपनी एक विश्वस्त दासी को बुलाया और उसे कुछ बातें समझा-बुझाकर जाने को कह दिया । दासी के जाने के बाद रानी ने पुरोहित जी से एक नई ही बात का जिकर उठाया। वह बोली- पुरोहित जी, सुनती हूँ कि आप पासे खेलने में बड़े चतुर और बुद्धिमान् है । मेरी बहुत दिनों से इच्छा होती थी कि आपके साथ खेलकर मैं भी एक बार देखूँ कि आप किस चतुराई से खेलते हैं । यह कहकर रानी ने एक दासी को बुलाकर चौपड़ ले आने की आज्ञा की ॥१९॥
    पुरोहितजी रानी की बात सुनकर दंग रह गए। वे घबराकर बोले- हैं ! हैं ! महारानीजी, यह आप क्या करती हैं? मैं एक भिक्षुक ब्राह्मण और आपके साथ मेरी यह धृष्टता । यदि महाराज सुन पावें तो वे मेरी क्या गति बनायेंगे?
    रानी ने कहा-पुरोहित जी, आप इतने घबराइए मत। मेरे साथ खेलने में आपको किसी प्रकार के गहरे विचार में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं । महाराज इस विषय में आपसे कुछ नहीं कहेंगे। आप डरिए मत।
    बेचारे पुरोहितजी बड़े पशोपेश में पड़े। रानी की आज्ञा भी वे नहीं टाल सकते और इधर महाराज का उन्हें भय। वे तो इस उधेड़-बुन में लगे हुए थे कि दासी ने चौपड़ लाकर रानी के सामने रख दी। आखिर उन्हें खेलना ही पड़ा। रानी ने पहली ही बाजी में पुरोहित जी की अँगूठी, जिस पर कि उसका नाम खुदा हुआ था, जीत ली। दोनों फिर खेलने लगे। इतने में पहली दासी ने आकर रानी से कुछ कहा । रानी ने अब की बार पुरोहित जी से जीती हुई अँगूठी चुपके से उसे देकर चले जाने को कह दिया। दासी घण्टे भर बाद फिर आई उसे कुछ निराश सी देखकर रानी ने इशारे से अपने कमरे के बाहर ही रहने को कह दिया और आप अपने खेल में लग गई। अब की बार उसने पुरोहित जी का जनेऊ जीत लिया और किसी बहाने से उस दासी को बुलाकर चुपके से जनेऊ देकर भेज दिया। दासी के वापस आने तक रानी और पुरोहित जी को खेल में लगाये रही। इतने में दासी भी आ गई उसे प्रसन्न देखकर, रानी ने अपना मनोरथ पूर्ण हुआ समझा। उसने उसी समय खेल बन्द किया और पुरोहित जी की अँगूठी और जनेऊ उन्हें वापस देकर वह बोली- आप सचमुच खेलने में बड़े चतुर हैं। आपकी चतुरता देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई आज मैंने सिर्फ इस चतुरता को देखने के लिए ही आपको यह कष्ट दिया था। आप इसके लिए मुझे क्षमा करें। अब आप खुशी के साथ जा सकते है।
    बेचारे पुरोहित जी रानी के महल से बिदा हुए। उन्हें इसका कुछ भी पता नहीं पड़ा कि रानी मेरी आँखों में दिन दहाड़े धूल झोंककर मुझे कैसा उल्लू बनाया है।
    बात असल में यह थी कि रानी ने पहले पुरोहित जी की जीती हुई अँगूठी देकर दासी को उनकी स्त्री के पास समुद्रदत्त के रत्न लेने को भेजा, पर जब पुरोहित जी की स्त्री ने अँगूठी देखकर भी उसे रत्न नहीं दिये तब यज्ञोपवीत जीता और उसे दासी के हाथ देकर फिर भेजा । अब की बार रानी का मनोरथ सिद्ध हुआ। पुरोहित की स्त्री ने दासी की बातों से डरकर झटपट रत्नों को निकाल दासी के हवाले कर दिया। दासी ने रत्न लाकर रानी को दे दिये । रानी प्रसन्न हुई । पुरोहित जी तो खेलते रहे और उधर उनका भाग्य फट गया, इसकी उन्हें रत्तीभर भी खबर नहीं पड़ी।
    रानी ने रत्नों को ले जाकर महाराज के सामने रख दिया और साथ ही पुरोहित जी के महल से रवाना होने की खबर दी । महाराज ने उसी समय उनके गिरफ्तार करने की सिपाहियों को आज्ञा दी। बेचारे पुरोहित जी अभी महल के बाहर भी नहीं हुए थे कि सिपाहियों ने जाकर उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी और उन्हें दरबार में लाकर उपस्थित कर दिया।
    पुरोहित जी देखकर भौचक से रह गए। उनकी समझ में नहीं आया कि यह एकाएक क्या हो गया और कौन सा मैंने ऐसा भारी अपराध किया जिससे मुझे एक शब्द तक न बोलने देकर मेरी यह दशा की गई वे हतबुद्धि हो गए। उन्हें इस बात का और अधिक दुःख हुआ कि मैं एक राजपुरोहित, ऐसा वैसा गैर आदमी नहीं और मेरी यह दशा ? और वह बिना किसी अपराध के ? क्रोध, लज्जा और आत्मग्लानि से उनकी एक विलक्षण ही दशा हो गई ॥२०-२४॥
    'रानी ने जैसे ही रत्नों को महाराज के सामने रखा, महाराज ने उसी समय उन्हें अपने और बहुत से रत्नों में मिलाकर समुद्रदत्त को बुलाया और उससे कहा-अच्छा, देखो तो इन रत्नों में तुम्हारे रत्न है क्या? और हो तो उन्हें निकाल लो। महाराज की आज्ञा पाकर समुद्रदत्त ने उन सब रत्नों में से अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिया। सच है, सज्जन पुरुष अपनी ही वस्तु को लेते हैं। दूसरों की वस्तु उन्हें विष समान जान पड़ती हैं। समुद्रदत्त ने अपने रत्न पहचान लिए, यह देख महाराज उस पर इतने प्रसन्न हुए कि उसे उन्होंने अपने राज सेठ बना लिया ॥२५-२७॥
    महाराज तुरन्त ही दरबार में आए। जैसे ही उनकी दृष्टि पुरोहित जी पर पड़ी, उन्होंने बड़ी ग्लानि की दृष्टि से उनकी ओर देखकर गुस्से के साथ कहा- पापी, ठग! ॥२८॥
    मैं नहीं जानता था कि तू हृदय का इतना काला हो गया और ऊपर से ऐसा ढोंगी का वेष लेकर मेरी गरीब और भोली प्रजा को इस तरह धोखे में फँसायेगा ? न मालूम तेरी इस कपटवृत्ति ने मेरे कितने बन्धुओं को घर-घर का भिखारी बनाया होगा? ऐ पाप के पुतले, लोभ के जहरीले सर्प, तुझे देखकर हृदय चाहता तो यह है कि तुझे इसकी कोई ऐसी भयंकर सजा दी जाए, जिससे तुझे भी इसका ठीक प्रायश्चित मिल जाए और सर्व साधारण को दुराचारियों के साथ मेरे कठिन शासन का ज्ञान हो जाए; उससे फिर कोई ऐसा अपराध करने का साहस न करे। परन्तु तू ब्राह्मण है, इसलिए तेरे कुल के लिहाज से तेरी सजा के विचार का भार मैं अपने मंत्री - मण्डल पर छोड़ता हूँ । यह कहकर ही राजा ने अपने धर्माधिकारियों की ओर देखकर कहा - " इस पापी ने एक विदेशी यात्री के, जिसका कि नाम समुद्रदत्त है और वह यहीं बैठा हुआ भी है, कीमती पाँच रत्नों को हड़प कर लिया है, जिनको कि यात्री ने समुद्र यात्रा करने के पहले श्रीभूति को एक विश्वस्त और राजप्रतिष्ठित समझकर धरोहर के रूप में रक्खे । दैव की विचित्र गति से यात्रा से लौटते समय यात्री का जहाज एकाएक फट गया और साथ ही उसका सब माल असबाब भी डूब गया । यात्री किसी तरह बच गया। उसने जाकर पुरोहित श्रीभूति से अपनी धरोहर वापस लौटा देने के लिए प्रार्थना की।
    पुरोहित के मन में पाप का भूत सवार हुआ । बेचारे गरीब यात्री को उसने धक्के देकर घर से बाहर निकलवा दिया। यात्री अपनी इस हालत से पागल सा होकर सारे शहर में यह पुकार मचाता हुआ महिनों फिरा कि श्रीभूति ने मेरे रत्न चुरा लिए, पर उस पर किसी का ध्यान न जाकर उल्टा सबने उसे ही पागल कह दिया । उसकी यह दशा देखकर महारानी को बड़ी दया आई। यात्री को बुलाया कर उससे सब बातें दर्याफ्त की गई बाद में महारानी ने उपाय द्वारा वे रत्न अपने हस्तगत कर लिए। वे रत्न समुद्रदत्त के हैं या नहीं इसकी परीक्षा करने के आशय से उन पाँचों रत्नों को मैंने बहुत से और रत्नों में मिला दिया। पर आश्चर्य है कि यात्री ने अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिए। श्रीभूि के जिस्में धरोहर हड़पकर जाने को गुरुत्तर अपराध है। इसके सिवा धोखेबाजी, ठगाई आदि और भी बहुत से अपराध हैं। इसकी इसे क्या सजा दी जाए, इसका आप विचार करें।
    धर्माधिकारियों ने आपस में सलाहकर कहा - महाराज, श्रीभूति पुरोहित का अपराध बड़ा भारी है। इसके लिए हम तीन प्रकार की सजायें नियत करते हैं। उनमें से फिर जिसे यह पसन्द करे, स्वीकार करे । या तो इसका सर्वस्व हरण कर लिया जाए और इसे देश बाहर कर दिया जाए, या पहलवानों की बत्तीस मुक्कियाँ इस पर पड़े या तीन थाली में भरे हुए गोबर को यह खा जाए। श्री भूति से सजा पसन्द करने को कहा गया। पहले उसने गोबर खाना चाहा, पर खाया नहीं गया, तब मुक्कियाँ खाने को कहा। मुक्कियाँ पड़ना शुरू हुई कोई दस पन्द्रह मुक्कियाँ पड़ी होंगी कि पुरोहित जी अकल ठिकाने आ गई आप एकदम चक्कर खाकर जमीन पर ऐसे गिरे कि उठे ही नहीं । महा आर्त्तध्यान से उनकी मृत्यु हुई वे दुर्गति में गए। धन में अत्यन्त लम्पटता का उन्हें उपयुक्त प्रायश्चित्त मिला। इसलिए जो भव्य पुरुष हैं, उसे उचित है कि वे चोरी को अत्यन्त दुःख का कारण समझकर उसका परित्याग करें और अपनी बुद्धि को पवित्र जैनधर्म की ओर लगावें, जो ऐसे महापापों से बचाने वाला है ॥२९-३२॥
    वे जिनभगवान्, जो सब सन्देहों के नाश करने वाले और स्वर्ग के देवों और विद्याधरों द्वारा पूज्य हैं, वह जिनवाणी जो सब सुखों की खान है और मेरे गुरु श्रीप्रभाचन्द्र ये सब मुझे मंगल प्रदान करें, मुझे कल्याण का मार्ग बतलावें ॥३३॥
  9. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब प्रकार के दोषों रहित जिन भगवान् को नमस्कार कर सम्यग्दर्शन को खूब दृढ़ता के साथ पालन करने वाले जिनदास सेठ की पवित्र कथा लिखी जाती है ॥१॥
    प्राचीन काल से प्रसिद्ध पाटलिपुत्र (पटना) में जिनदास नाम का एक प्रसिद्ध और जिनभक्त सेठ हो चुका है। जिनदास सेठ की स्त्री का नाम जिनदासी था । जिनदास, जिसकी कि यह कथा है, इसी का पुत्र था। अपनी माता के अनुसार जिनदास भी ईश्वर प्रेमी, पवित्र हृदयी और अनेक गुणों का धारक था ॥ २-३॥
    एक बार जिनदास सुवर्ण द्वीप से धन कमाकर अपने नगर की ओर आ रहा था। किसी काल नाम के देव की जिनदास के साथ कोई पूर्व जन्म की शत्रुता होगी इसलिए वह देव इसे मारना चाहता होगा। यही कारण था कि उसने कोई सौ योजन चौड़े जहाज पर बैठे-बैठे ही जिनदास से कहा- जिनदास, यदि तू यह कह दे कि जिनेन्द्र भगवान् कोई चीज नहीं, जैनधर्म कोई चीज नहीं, तो तुझे मैं जीता छोड़ सकता हूँ, नहीं तो मार डालूँगा । उस देव का वह डराना सुन जिनदास वगैरह ने हाथ जोड़कर श्रीमहावीर भगवान् को बड़ी भक्ति से नमस्कार किया और निडर होकर वे उससे बोले-पापी, यह हम कभी नहीं कह सकते कि जिनभगवान् और उनका धर्म कोई चीज नहीं; बल्कि हम यह दृढ़ता के साथ कहते हैं कि केवलज्ञान द्वारा सूर्य से अधिक तेजस्वी जिनेन्द्र भगवान् और संसार द्वारा पूजा जाने वाला उनका मत सबसे श्रेष्ठ है। उनकी समानता करने वाला कोई देव और कोई धर्म संसार में है ही नहीं । इतना कह कर ही जिनदास ने सबके सामने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की कथा, जो कि पहले कहानी संख्या १८ पर लिखी जा चुकी है, कह सुनाई उस कथा को सुनकर सबका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। इन धर्मात्माओं पर इस विपत्ति के आने से उत्तरकुरु में रहने वाले अनाव्रत नाम के यक्ष का आसन कंपा। उसने उसी समय आकर क्रोध से कालदेव के सिर पर चक्र की बड़ी जोर की मार जमाई और उसे उठाकर बड़वानल में डाल दिया ॥४-१२॥
    जहाज के लोगों की इस अचल भक्ति से लक्ष्मी देवी बड़ी प्रसन्न हुई उसने आकर इन धर्मात्माओं का बड़ा आदर-सत्कार किया और इनके लिए भक्ति से अर्घ चढ़ाया। सच है, जो भव्यजन सम्यग्दर्शन का पालन करते हैं, संसार में उनका आदर, मान कौन नहीं करता । इसके बाद जिनदास वगैरह सब लोग कुशलता से अपने घर आ गए। भक्ति से उत्पन्न हुए पुण्य ने इनकी सहायता की। एक दिन मौका पाकर जिनदास ने अवधिज्ञानी मुनि से कालदेव ने ऐसा क्यों किया इस बाबत का खुलासा पूछा। मुनिराज ने इस बैर का सब कारण जिनदास से कहा। जिनदास को सुनकर सन्तोष हुआ ॥१३-१६॥
    जो बुद्धिमान् हैं, उन्हें उचित है या उनका कर्तव्य है कि वे परम सुख के लिए संसार का हित करने वाले और मोक्ष के कारण पवित्र सम्यग्दर्शन को ग्रहण करें। इसे छोड़कर उन्हें और बातों के लिए कष्ट उठाना उचित नहीं, कारण वे मोक्ष के कारण नहीं है ॥१७॥
  10. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    लोक और अलोक के प्रकाश करने वाले- उन्हें देख जानकर उनके स्वरूप को समझाने वाले श्रीसर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर बत्तीस सेठ पुत्रों की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    कौशाम्बी में बत्तीस सेठ थे । उनके नाम थे इन्द्रदत्त, जिनदत्त, सागरदत्त आदि । इनके पुत्र भी बत्तीस ही थे। उनके नाम समुद्रदत्त, वसुमित्र, नागदत्त, जिनदास आदि थे। ये सब ही धर्मात्मा थे, जिनभगवान् के सच्चे भक्त थे, विद्वान् थे, गुणवान् थे और सम्यक्त्वरूपी रत्न से भूषित थे। इन सबकी परस्पर में बड़ी मित्रता थी । वह एक उनके पुण्य का उदय कहना चाहिए जो सब ही धनवान्, सब ही गुणवान्, सब ही धर्मात्मा और सबकी परस्पर में गाड़ी मित्रता । बिना पुण्य के ऐसा योग कभी मिल ही नहीं सकता ॥२-५॥
    एक दिन ये सब ही मित्र मिलकर एक केवलज्ञानी योगिराज की पूजा करने को गए । भक्ति से इन्होंने भगवान् की पूजा की और फिर उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना। भगवान् से पूछने पर इन्हें जान पड़ा कि इनकी उमर अब बहुत थोड़ी रह गई है। तब अन्त समय में आत्म हित साधने के योग को उचित समझ उन सभी ने संसार का भटकना मिटाने वाली जिनदीक्षा ले ली। दीक्षा लेकर तपस्या करते हुए ये यमुना नदी के किनारे पर आए। यहीं इन्होंने प्रायोपगमन संन्यास ले लिया ।भाग्य से इन्हीं दिनों में खूब जोर की वर्षा हुई । नदी, नाले सब पूर आ गए। यमुना भी खूब चढ़ी। एक जोर का ऐसा प्रवाह आया कि ये सभी मुनि उसमें बह गए। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर स्वर्ग गए। सच है - महापुरुषों का चरित्र सुमेरु से कहीं स्थिरशाली होता है । स्वर्ग में दिव्य सुखों को भोगते हुए वे सब जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति में सदा लीन रहते हैं ॥६-१२॥
    कर्मों को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा जय लाभ करें। उनका पवित्र शासन संसार में सदा रहकर जीवों का हित साधन करे। उनका सर्वोच्च चारित्र अनेक प्रकार के दुःसह कष्टों को सहकर भी मेरु सदृश स्थिर रहता है, उसकी तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती, वह संसार में सर्वोत्तम आदर्श है, भव - भ्रमण मिटाने वाला है, परम सुख का स्थान है और मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि आत्म शत्रुओं का नाश करने वाला है, उन्हें जड़ मूल से उखाड़ फेंक देने वाला है। हे भव्यजन! आप भी इस उच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न करिये, ताकि आप भी परमसुख -मोक्ष के पात्र बन सकें । जिनेन्द्र भगवान् इसके लिए आप सबको शक्ति प्रदान करें, यही भावना है॥१३॥
    प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञान भास्कराः ।
    कुर्वन्तु जगतः शान्तिं वृषभाद्या जिनेश्वराः॥
    ॥ इति आराधना कथाकोश द्वितीय भाग ॥
  11. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    उन जिन भगवान् को नमस्कार कर, जिनका कि केवलज्ञान एक सर्वोच्च नेत्र की उपमा धारण करने वाला है, न्यूनाधिक अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाली धरसेनाचार्य की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
    गिरनार पर्वत की एक गुफा में श्रीधरसेनाचार्य, जो कि जैनधर्मरूप समुद्र के लिए चन्द्रमा की उपमा धारण करने वाले हैं, निवास करते थे । उन्हें निमित्तज्ञान से जान पड़ा कि उनकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्रज्ञान की रक्षा के लिए कुछ अंगादि का ज्ञान करा दें । आचार्य ने तब तीर्थयात्रा के लिए आन्ध्रदेश के वेनातट नगर में आए हुए संघाधिपति महासेनाचार्य को एक पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा- ॥३-४॥
    'भगवान् महावीर का शासन अचल रहे, उसका सब देशों में प्रचार हो । लिखने का कारण यह है कि कलियुग में अंगादि का ज्ञान यद्यपि न रहेगा तथापि शास्त्रज्ञान की रक्षा हो, इसलिए कृपाकर आप दो ऐसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों को मेरे पास भेजिये, जो बुद्धि के बड़े तीक्ष्ण हों, स्थिर हों, सहनशील हों और जैनसिद्धान्त का उद्धार कर सकें ॥५-६॥
    आचार्य ने पत्र देकर एक ब्रह्मचारी को महासेनाचार्य के पास भेजा। महासेनाचार्य उस पत्र को पढ़कर बहुत खुश हुए। उन्होंने तब अपने संघ में से पुष्पदन्त और भूतबलि ऐसे दो धर्मप्रेमी और सिद्धान्त के उद्धार करने में समर्थ मुनियों को बड़े प्रेम के साथ धरसेनाचार्य के पास भेजा। ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्य के पास पहुँचने वाले थे। उसकी पिछली रात को धरसेनाचार्य को एक स्वप्न देख पड़ा। स्वप्न में उन्होंने दो हृष्टपुष्ट, सुडौल और सफेद बैलों को बड़ी भक्ति से अपने पाँवों में पड़ते देखा। इस उत्तम स्वप्न को देखकर आचार्य को जो प्रसन्नता हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वे ऐसा कहते हुए, कि सब सन्देहों के नाश करने वाली श्रुतदेवी - जिनवाणी सदा काल इस संसार में जल लाभ करे, उठ बैठे। स्वप्न का फल उनके विचार अनुसार ठीक निकला। सबेरा होते ही दो मुनियों ने जिनकी कि उन्हें चाह थी, आकर आचार्य के पाँवों में बड़ी भक्ति के साथ अपना सिर झुकाया और आचार्य की स्तुति की। आचार्य ने तब उन्हें आशीर्वाद दिया- तुम चिरकाल जीकर महावीर भगवान् के पवित्र शासन की सेवा करो । अज्ञान और विषयों के दास बने संसारी जीवों को ज्ञान देकर उन्हें कर्तव्य की ओर लगाओ। उन्हें सुझाओ कि अपने धर्म और अपने भाइयों के प्रति जो उनका कर्तव्य है उसे पूरा करें ॥७-१२ ॥
    इसके बाद आचार्य ने उन दोनों मुनियों को दो-तीन दिन तक अपने पास रखा और उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्तव्य बुद्धि का परिचय प्राप्त कर दोनों को दो विद्याएँ सिद्ध करने को दीं । आचार्य ने उनकी परीक्षा के लिए विद्या साधने के मन्त्रों के अक्षरों को कुछ न्यूनाधिक कर दिया था। आचार्य की आज्ञानुसार ये दोनों गिरनार पर्वत के एक पवित्र और एकान्त भाग में भगवान् नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र मन से विद्या सिद्ध करने को बैठे। मंत्र साधन की अवधि जब पूरी होने को आई तब दो देवियाँ उनके पास आयी । उन देवियों में एक देवी तो आँखों से अन्धी थी और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले हुए थे । देवियों के ऐसे रूप को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने सोचा देवों का तो ऐसा रूप होता नहीं, फिर यह क्यों? तब उन्होंने मंत्रों की जाँच की, मंत्रों को व्याकरण से उन्होंने मिलाया कि कहीं उनमें तो गलती न रह गई हो ? इनका अनुमान सच हुआ। मंत्रों की गलती उन्हें भास गई फिर उन्होंने उन्हें शुद्ध कर जपा | अब की बार दो देवियाँ सुन्दर वेष में उन्हें दीख पड़ी। गुरु के पास आकर तब उन्होंने अपना सब हाल कहा। धरसेनाचार्य उनका वृत्तान्त सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । आचार्य ने उन्हें सब तरह योग्य पा फिर खूब शास्त्राभ्यास कराया। आगे चलकर यही दो मुनिराज गुरुसेवा के प्रसाद से जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् बनकर सिद्धान्त के उद्धारकर्ता हुए। जिस प्रकार उन मुनियों ने शास्त्रों का उद्धार किया उसी प्रकार अन्य धर्मप्रेमियों को भी शास्त्रोद्धार या शास्त्रप्रचार करना उचित है ॥१३-२२॥
    श्रीमान् धरसेनाचार्य और जैनसिद्धान्त के समुद्र श्री पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य मेरी बुद्धि को स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले पवित्र जैनधर्म में लगावें; जो जीव मात्र का हित करने वाले और देवों द्वारा पूजा किए जाते हैं ॥२३॥ 
  12. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    इन्द्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, राजा, महाराजाओं द्वारा पूज्य जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर मैं पद्मरथ राजा की कथा लिखता हूँ, जो प्रसिद्ध जिनभक्त हुआ है ॥१॥
    मगध देश के अन्तर्गत एक मिथिला नाम की सुन्दरी नगरी थी । उसके राजा थे पद्मरथ। वे बड़े बुद्धिमान् और राजनीति के अच्छे जानने वाले थे, उदार और परोपकारी थे । सुतरा वे खूब प्रसिद्ध थे ॥२॥
    एक दिन पद्मरथ शिकार के लिए वन में गए हुए थे। उन्हें एक खरगोश दीख पड़ा। उन्होंने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया । खरगोश उनकी नजर से ओझल होकर न जाने कहाँ अदृश्य हो गया। पद्मरथ भाग्य से कालगुफा नाम की एक गुहा में जा पहुँचे। वहाँ एक मुनिराज रहते थे। वे बड़े तपस्वी थे। उनका दिव्य देह तप के प्रभाव से अपूर्व तेज धारण कर रहा था । उनका नाम था सुधर्म। पद्मरथ रत्नत्रय विभूषित और परम शान्त मुनिराज के पवित्र दर्शन से बहुत शान्त हुए। जैसे तपा हुआ लौहपिंड जल से शान्त हो जाता है। वे उसी समय घोड़े पर से उतर पड़े और मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर उनके द्वारा धर्म का पवित्र उपदेश सुना । उपदेश उन्हें बहुत रुचा। उन्होंने सम्यक्त्व पूर्वक अणुव्रत ग्रहण किए। इसके बाद उन्होंने मुनिराज से पूछा- हे प्रभो ! हे संसार के आधार ! इस समय जिनधर्मरूप समुद्र को बढ़ाने वाले आप सरीखे गुणज्ञ चन्द्रमा और भी कोई है या नहीं ? और है तो कहाँ हैं? हे करुणासागर! मेरे इस सन्देह को मिटाइए ॥३-९॥
    उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन् ! चम्पानगरी में इस समय बारहवें तीर्थंकर भगवान् वासुपूज्य विराजमान हैं। उनके भौतिक शरीर के तेज की समानता तो अनेक सूर्य मिलाकर भी नहीं कर सकते और उनके अनन्त ज्ञानादि गुणों के देखते हुए मुझमें और उनमें राई और सुमेरु का अन्तर है। भगवान् वासुपूज्य का समाचार सुनकर पद्मरथ को उनके दर्शनों की अत्यन्त उत्कण्ठा हुई वे उसी समय फिर वहाँ से बड़े वैभव के साथ भगवान् के दर्शनों के लिए चले। यह हाल धन्वन्तरी और विश्वानुलोम नाम के दो देवों को जान पड़ा। सो वे पद्मरथ की परीक्षा के लिए मध्यलोक में आए। उन्होंने पद्मरथ की भक्ति की दृढ़ता देखने के लिए रास्ते में उन पर उपद्रव करना शुरू किया। पहले उन्होंने उन्हें एक भयंकर कालसर्प दिखलाया, इसके बाद राज्यछत्र का भंग, अग्नि का लगना, प्रचण्ड वायु द्वारा पर्वत और पत्थरों का गिरना, असमय में भयंकर जलवर्षा और खूब कीचड़मय मार्ग और उसमें फँसा हाथी आदि दिखलाया । यह उपद्रव देखकर साथ के सब लोग भय के मारे अधमरे हो गए । मंत्रियों ने यात्रा अमंगलमय बतलाकर पद्मरथ से पीछे लौट चलने के लिए आग्रह किया परन्तु पद्मरथ ने किसी की बात नहीं सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ “नमः श्रीवासुपूज्याय” कहकर अपना हाथी आगे बढ़ाया। पद्मरथ की इस प्रकार अचल भक्ति देखकर दोनों देवों ने उनकी बहुत-बहुत प्रशंसा की। इसके बाद वे पद्मरथ को सब रोगों को नष्ट करने वाला एक दिव्य हार और एक बहुत सुन्दर वीणा, जिसकी आवाज एक योजन पर्यन्त सुनाई पड़ती है, देकर अपने स्थान चले गए । ठीक कहा है-जिनके हृदय में जिनभगवान् की भक्ति सदा विद्यमान रहती है, उनके सब काम सिद्ध हों, इसमें कोई सन्देह नहीं ॥१०-२२॥
    पद्मरथ ने चम्पानगरी में पहुँच कर समवसरण में विराजे हुए, आठ प्रातिहार्यों से विभूषित, देव, विद्याधर, राजा, महाराजाओं द्वारा पूज्य, केवलज्ञान द्वारा संसार के सब पदार्थों को जानकर धर्म का उपदेश करते हुए और अनन्त जन्मों में बाँधे हुए मिथ्यात्व को नष्ट करने वाले भगवान् वासुपूज्य के पवित्र दर्शन किए, उनकी पूजा की, स्तुति की और उपदेश सुना । भगवान् के उपदेश का उनके हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे उसी समय जिनदीक्षा लेकर तपस्वी हो गए । प्रव्रजित होते ही उनके परिणाम इतने विशुद्ध हुए कि उन्हें अवधि और मन:पर्ययज्ञान हो गया । भगवान् वासुपूज्य के वे गणधर हुए। इसलिए भव्य पुरुषों को उचित है कि वे मिथ्यात्व छोड़कर स्वर्ग-मोक्ष को देने वाली जिनभगवान् की भक्ति निरन्तर पवित्र भावों के साथ करें और जिस प्रकार पद्मरथ सच्चा जिनभक्त हुआ, उसी प्रकार वे भी हों ॥२३-२९॥
    जिनभक्ति सब प्रकार का सांसारिक सुख देती है और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति का कारण है, जो केवलज्ञान द्वारा संसार के प्रकाशक हैं और सत्पुरुषों द्वारा पूज्य हैं, वे भगवान् वासुपूज्य सारे संसार को मोक्ष सुख प्रदान करें, कर्मों के उदय से घोर दुःख सहते हुए जीवों का उद्धार करें ॥३०॥
  13. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    इस प्रकार के देवों द्वारा जो पूजा-स्तुति किए जाते हैं और ज्ञान के समुद्र हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धर्मसिंह मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    दक्षिण देश के कौशलगिर नगर के राजा वीरसेन की रानी वीरमती के दो सन्तान थीं। एक पुत्र और एक कन्या थी। पुत्र का नाम चन्द्रभूति और कन्या का चन्द्रश्री था । चन्द्र श्री बड़ी सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता देखते ही बनती थी । कौशल देश और कौशल ही शहर के राजा धर्मसिंह के साथ चन्द्रश्री का विवाह हुआ था। दोनों दम्पति सुख से रहते थे । नाना प्रकार की भोगोपभोग वस्तुएँ सदा उनके लिए मौजूद रहती थी। इतना होने पर भी राजा का धर्म पर पूर्ण विश्वास था, अगाध श्रद्धा थी। वे सदा दान, पूजा, व्रतादि धर्म कार्य करते ॥२-५॥
    एक दिन धर्मसिंह तपस्वी दमधर मुनि के दर्शनार्थ गए। उनकी भक्ति से पूजा-स्तुति कर उन्होंने उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना, जो धर्म देवों द्वारा भी बड़ी भक्ति के साथ पूजा जाता है । धर्मोपदेश का धर्मसिंह के चित्त पर बड़ा गहरा असर पड़ा। उससे वे संसार और विषय-भोगों से विरक्त हो गए और मुनि दीक्षा ले ली। उनकी रानी चन्द्र श्री को उन्हें जवानी में दीक्षा ले जाने से बड़ा कष्ट हुआ। पर बेचारी लाचार थी । उसके दुःख की बात जब उसके भाई चन्द्रभूति को मालूम हुई तो उसे भी अत्यन्त दुःख हुआ । उससे अपनी बहिन की यह हालत न देखी गई। उसने तब जबरदस्ती अपने बहनोई धर्मसिंह को उठा लाकर चन्द्र श्री के पास ला रखा । धर्मसिंह फिर भी न ठहरे और जाकर उन्होंने पुनः दीक्षा ले ली और महा तप तपने लगे ॥६-९॥
    एक दिन इसी तरह वे तपस्या कर रहे थे। तब उन्होंने चन्द्रभूति को अपनी ओर आता हुआ देखा। उन्होंने समझ लिया कि यह फिर मेरी तपस्या बिगाड़ेगा । सो तप की रक्षा के लिए पास ही पड़े हुए मृत हाथी के शरीर में घुसकर उन्होंने समाधि ले ली और अन्त में शरीर छोड़कर वे स्वर्ग में गए। इसलिए भव्यजनों को कष्ट के समय भी अपने व्रत की रक्षा करनी चाहिए। जिससे स्वर्ग या मोक्ष का सर्वोच्च सुख प्राप्त होता है ॥ १०-१३॥
    निर्मल जैनधर्म के प्रेमी श्रीधर्मसिंह मुनि ने जिन भगवान् के उपदेश किए और स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले तप मार्ग का आश्रय ले उसके पुण्य से स्वर्ग-सुख लाभ किया। वे संसार प्रसिद्ध महात्मा और अपने गुणों से सबकी बुद्धि पर प्रकाश डालने वाले मुझे भी मंगल - सुख दान करें ॥१४॥
  14. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    निर्मल केवलज्ञान द्वारा सारे संसार के पदार्थों को प्रकाशित करने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर श्रद्धागुण के धारी विनयंधर राजा की कथा लिखी जाती है जो कथा सत्पुरुषों को प्रिय है ॥१॥
    कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर का राजा विनयंधर था । उसकी रानी का नाम विनयवती था। यहाँ वृषभसेन नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम वृषभसेना था। उसके जिनदास नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था ॥२-३॥
    विनयंधर बड़ा कामी था । सो एक बार इसके कोई महारोग हो गया। सच है, ज्यादा मर्यादा से बाहर विषय सेवन भी उल्टा दुःख का ही कारण होता है । राजा ने बड़े- बड़े वैद्यों से इलाज करवाया पर उसका रोग किसी तरह न मिटा । राजा इस रोग से बड़ा दुःखी हुआ । उसे दिन-रात चैन न पड़ने लगा ॥४-५॥
    राजा का एक सिद्धार्थ नाम का मंत्री था । यह जैनी था । शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक था। सो एक दिन उसने पादौषधिऋद्धि के धारक मुनिराज के पाँव प्रक्षालन का जल लाकर, जो कि सब रोगों का नाश करने वाला होता है, राजा को दिया । जिन भगवान् के सच्चे भक्त उस राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ उस जल को पी लिया उसे पीने से उसका सब रोग जाता रहा। जैसे सूरज के उगने से अन्धकार जाता रहता है । सच है, महात्माओं के तप के प्रभाव को कौन कह सकता है, जिनके कि पाँव धोने के पानी से ही सब रोगों की शान्ति हो जाती है । जिस प्रकार सिद्धार्थ मन्त्री ने मुनि के पाँव प्रक्षालन का पवित्र जल राजा को दिया, उसी प्रकार अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे धर्मरूपी जल सर्व-साधारण को देकर उनका संसार ताप शान्त करें । जैनतत्त्व के परम विद्वान् वे पादौषधिऋद्धि के धारक मुनिराज मुझे शान्ति - सुख दें ॥६-१२॥
    जैनधर्म में या जैनधर्म के अनुसार किए जाने वाले दान, पूजा, व्रत, उपवास आदि पवित्र कार्यों में की हुई श्रद्धा, किया हुआ विश्वास दुःखों का नाश करने वाला है । इस श्रद्धा का आनुषङ्गिक फल है-इन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि की सम्पदा का लाभ और वास्तविक फल है मोक्ष का कारण केवलज्ञान, जिसमें कि अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये चार अनन्तचतुष्टय- आत्मा की खास शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। वह श्रद्धा आप भव्यजनों का कल्याण करे ॥१३॥
  15. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    चारों प्रकार के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर आठवें चक्रवर्ती सुभौम की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सुभौम ईर्ष्यावान् शहर के राजा कार्त्तवीर्य की रानी रेवती के पुत्र थे । चक्रवर्ती का एक विजयसेन नाम का रसोइया था । एक दिन चक्रवर्ती जब भोजन करने को बैठे तब रसोइये ने उन्हें गरम-गरम खीर परोस दी । उसके खाने से चक्रवर्ती का मुँह जल गया। इससे उन्हें रसोइये पर बड़ा गुस्सा आया। गुस्से से उन्होंने खीर रखे गरम बरतन को ही उसके सिर पर दे मारा। उससे उसका सारा सिर जल गया। इसकी घोर वेदना से मरकर वह लवणसमुद्र में व्यन्तर देव हुआ। कु- अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव की बात जानकर सुभौम चक्रवर्ती पर उसके गुस्से का पार न रहा। प्रतिहिंसा से उसका जी बे-चैन हो उठा। तब वह एक तापसी बनकर अच्छे-अच्छे सुन्दर फलों को अपने हाथ में लिए चक्रवर्ती के पास पहुँचा । फलों को उसने चक्रवर्ती को भेंट किया । चक्रवर्ती उन फलों को खाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उस तापस से कहा - महाराज, ये फल तो बड़े ही मीठे हैं । आप ये फल कहाँ से लाये ? और ये कहाँ मिलेंगे ? तब उस व्यन्तर ने धोखा देकर चक्रवर्ती से कहा- समुद्र के बीच में एक छोटा सा टापू है । वहीं मेरा घर है। आप मुझ गरीब पर कृपा कर मेरे घर को पवित्र करें तो मैं आपको बहुत से ऐसे - ऐसे उत्तम और मीठे फल भेंट करूँगा। कारण वहाँ ऐसे फलों के बहुत बगीचे हैं। चक्रवर्ती लोभ में फँसकर व्यन्तर के फॉंसे में आ गए और उसके साथ चल दिये। जब व्यन्तर उन्हें साथ लिए बीच समुद्र में पहुँचा तब अपने सच्चे स्वरूप में आ उसने बड़े गुस्से से चक्रवर्ती को कहा- पापी, जानता है कि मैं तुझे यहाँ क्यों लाया हूँ? यदि न जानता हो तो सुन-मैं तेरा जयसेन नाम का रसोइया था, तब तूने मुझे निर्दयता के साथ जलाकर मार डाला था। अब उसी का बदला लेने को मैं तुझे यहाँ लाया हूँ । बतला अब कहाँ जाएगा? जैसा किया उसका फल भोगने को तैयार हो जा । तुझसे पापियों की ऐसी गति होनी ही चाहिए। पर सुन, अब भी एक उपाय है, जिससे तू बच सकता है और वह यह कि यदि तू पानी में पंच नमस्कार मन्त्र लिखकर उसे अपने पाँवों से मिटा दे तो तुझे मैं जीता छोड़ सकता हूँ । अपनी जान बचाने के लिए कौन किस काम को नहीं कर डालता? ॥२-११॥
    वह भला है या बुरा इसके विचार करने की तो उसे जरूरत ही नहीं रहती। उसे तब पड़ी रहती है अपनी जान की। यही दशा चक्रवर्ती महाशय की हुई उन्होंने तब नहीं सोच पाया कि इस अनर्थ से मेरी क्या दुर्दशा होगी? उन्होंने उस व्यन्तर के कहे अनुसार झटपट जल में मंत्र लिख कर पाँव से उसे मिटा डाला। उनका मन्त्र मिटाना था कि व्यन्तर ने उन्हें मारकर समुद्र में फेंक दिया। इसका कारण यह हो सकता है कि मंत्र को पाँव से मिटाने के पहले व्यन्तर की हिम्मत चक्रवर्ती को मारने की इसलिए न पड़ी होगी कि जगत्पूज्य जिनेन्द्र भगवान् के भक्त को वह कैसे मारे या यह भी संभव था कि उस समय कोई जिनशासन का भक्त अन्य देव उसे इस अन्याय से रोककर चक्रवर्ती की रक्षा कर लेता और अब मंत्र को पाँवों से मिटा देने से चक्रवर्ती जिनधर्म का द्वेषी समझा गया और इसलिए व्यन्तर ने उसे मार डाला। मरकर इस पाप के फल से चक्रवर्ती सातवें नरक गया । उस मूर्खता को, उस लम्पटता को धिक्कार है जिससे चक्रवर्ती सारी पृथ्वी का सम्राट् दुर्गति में गया। जिसका जिन भगवान् के धर्म पर विश्वास नहीं होता उसे चक्रवर्ती की तरह कुगति में जाना पड़े तो इसमें आश्चर्य क्या? वे पुरुष धन्य है और वे ही सबके आदर पात्र हैं, जिनके हृदय में सुख देने वाले जिन वचन रूप अमृत का सदा स्रोत बहता रहता है। इन्हीं वचनों पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन जीवमात्र का हित करने वाला है, संसार भय मिटाने वाला है, नाना प्रकार के सुखों का देने वाला है, और मोक्ष प्राप्ति का मुख्य कारण है । देव, विद्याधर आदि सभी बड़े-बड़े पुरुष सम्यग्दर्शन की या उसके धारण करने वाले की पूजा करते हैं । यह गुणों का खजाना है । सम्यग्दृष्टि को किसी प्रकार की भय-बाधा नहीं होती। वह बड़ी सुख - शान्ति से रहता है । इसलिए जो सच्चे सुख की आशा रखते हैं उन्हें आठ अंग सहित इस पवित्र सम्यग्दर्शन का विश्वास के साथ पालन करना चाहिए ॥ १२-१६॥ 
  16. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    चारों प्रकार के देवों द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर उस स्त्री की कथा लिखी जाती है कि जिसने अपने किए पापकर्मों की आलोचना कर अच्छा फल प्राप्त किया है ॥१॥
    बनारस के राजा विशाखदत्त थे । उनकी रानी का नाम कनकप्रभा था। इनके यहाँ एक चितेरा रहता था। इसका नाम विचित्र था । वह चित्रकला का बड़ा अच्छा जानकार था । चितेरे की स्त्री का नाम विचित्रपताका था। उसके बुद्धिमती नाम की एक लड़की थी । बुद्धिमती बड़ी सुन्दरी और चतुर थी ॥२-४॥
    एक दिन विचित्र चितेरा राजा के खास महल में, जो कि बड़ा सुन्दर था, चित्रकारी कर रहा था। उसकी लड़की बुद्धिमती उसके लिए भोजन लेकर आयी । उसने विनोद वश हो भीत पर मोर की पीछी का एक चित्र बनाया वह चित्र इतना सुन्दर बना कि सहसा कोई न जान पाता कि वह चित्र है। जो उसे देखता वह यही कहता कि यह मोर की पीछी है । इसी समय महाराज विशाखदत्त इस ओर आ गए। वे उस चित्र को मोर की पीछी समझ उठाने को उसकी ओर बढ़े। यह देख बुद्धिमती ने समझा कि महाराज बे - समझ है । नहीं तो इन्हें इतना भ्रम नहीं होता ॥५-६ ॥
    दूसरे दिन बुद्धिमती ने एक और अद्भुत चित्र राजा को बतलाते हुए अपने पिता को पुकारा- पिताजी, जल्दी आइए, भोजन की जवानी का समय बीत रहा है। बुद्धिमती के इन शब्दों को सुनकर राजा बड़े अचम्भे में पड़ गया । वह उसके कहने का कुछ भाव न समझ कर एक टक की लगाये उसके मुँह की ओर देखता रह गया । राजा को अपना भाव न समझा देख बुद्धिमती को उसके मूर्ख होने का और दृढ़ विश्वास हो गया ॥७-९॥
    अब की बार बुद्धिमती ने एक और चाल चली। एक भींत पर दो परदे लगा दिये और राजा को चित्र बतलाने के बहाने उसने एक परदा उठाया। उसमें चित्र न था। तब राजा उस दूसरे परदे की ओर चित्र की आशा से आँखें फाड़कर देखने लगा । बुद्धिमती ने दूसरा परदा भी उठा दिया। भीत पर चित्र को न देखकर राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ । उसकी इन चेष्टाओं से उसे पूरा मूर्ख समझ बुद्धिमती ने जरा हँस दिया । राजा और भी अचम्भे में पड़ गया । वह बुद्धिमती का कुछ भी अभिप्राय न समझ सका। उसने तब व्यग्र हो बुद्धिमती से ऐसा करने का कारण पूछा। बुद्धिमती के उत्तर से उसे जान पड़ा कि वह उसे चाहती है और इसलिए पिता को भोजन के लिए पुकारते समय व्यंग से राजा पर उसने अपना भाव प्रकट किया था । राजा उसकी सुन्दरता पर पहले ही से मुग्ध था, सो वह बुद्ध की बातों से बड़ा खुश हुआ । उसने फिर बुद्धिमती के साथ ब्याह भी कर लिया । धीरे- धीरे राजा का उस पर इतना अधिक प्रेम बढ़ गया कि अपनी सब रानियों में पट्टरानी उसने उसे ही बना दिया। सच बात यह है कि प्राणियों की उन्नति के लिए उनके गुण ही उनका दूतपना करते हैं, उन्हें उन्नति पर पहुँचा देते हैं ॥१०-१२॥ 
    राजा ने बुद्धिमती को सारे रनवास की स्वामिनी बना तो दिया, पर उसमें सब रानियाँ उस बेचारी की शत्रु बन गईं, उससे डाह, ईर्ष्या करने लगीं । आते-जाते वे बुद्धिमती के सिर पर मारती और उसे बुरी-भली सुनाकर बेहद कष्ट पहुँचातीं । बेचारी बुद्धिमती सीधी-साधी थी, सो न तो वह उनसे कुछ कहती और न महाराज से ही कभी उनकी शिकायत करती । इस कष्ट और चिन्ता से मन ही मन घुलकर वह सूख सी गई । वह जब जिन मन्दिर दर्शन करने जाती तब सब सिद्धियों के देने वाले भगवान् के सामने खड़े हो अपने पूर्व कर्मों की निन्दा करती और प्रार्थना करती कि हे संसार पूज्य, हे स्वर्ग-मोक्ष के सुख देने वाले, हे दुःखरूपी दावानल के बुझाने वाले मेघ, और हे दयासागर, मैं एक छोटे कुल में पैदा हुई हूँ, इसीलिए मुझे ये सब कष्ट हो रहे हैं। पर नाथ, इसमें दोष किसी का नहीं। मेरे पूर्व जन्म के पापों का उदय है। प्रभो, जो हो, पर मुझे विश्वास है कि जीवों को चाहे कितने ही कष्ट क्यों न सता रहे हों, पर जो आपको हृदय से चाहता है, आपका सच्चा सेवक है, उसके सब कष्ट बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और इसीलिए हे नाथ, कामी, क्रोधी, मानी, मायावी देवों को छोड़कर मैंने आपकी शरण ली है। आप मेरा कष्ट दूर करेंगे ही। बुद्धिमती न मन्दिर में ही किन्तु महल पर भी अपने कर्मों की आलोचना किया करती । वह सदा एकान्त में रहती और न किसी से विशेष बोलती - चालती । राजा ने उसके दुर्बल होने का कारण पूछा - बार - बार आग्रह किया, पर बुद्धिमती ने उससे कुछ भी न कहा ॥१३-१८॥
    बुद्धिमती क्यों दिनों-दिन दुर्बल होती जाती है, इसका शोध लगाने के लिए एक दिन राजा उसके पहले जिनमन्दिर आ गया । बुद्धिमती ने प्रतिदिन की तरह आज भी भगवान् के सामने खड़ी होकर आलोचना की। राजा ने वह सब सुन लिया । सुनकर वह सीधा महल पर आया। अपनी सब रानियों को उसने खूब ही फटकारा, धिक्कारा और बुद्धिमती को ही उनकी मालकिन-पट्टरानी बनाकर उन सबको उसकी सेवा करने के लिए बाध्य किया ॥१९-२०॥
    जिस प्रकार बुद्धिमती ने अपनी आत्म-निन्दा की, उसी तरह अन्य बुद्धिमानों और क्षुल्लक आदि को भी जिन भगवान् के सामने भक्तिपूर्वक आत्मनिन्दा - पूर्वक कर्मों की आलोचना करना उचित है। उत्तम कुल और उत्तम सुखों की देन वाली तथा दुर्गति के दुःखों की नाश करने वाली जिन भगवान् की भक्ति मुझे भी मोक्ष का सुख दें ॥२१-२२॥
  17. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर पाँच सौ मुनियों पर एक साथ बीतने वाली घटना का हाल लिखा जाता है, जो कि कल्याण का कारण है ॥१॥
    भरत के दक्षिण की ओर बसे हुए कुम्भकारकट नाम के पुराने शहर के राजा का नाम दण्डक और उनकी रानी का नाम सुव्रता था । सुव्रता रूपवती ओर विदुषी थी । राजमंत्री का नाम बालक था। यह पापी जैनधर्म से बड़ा द्वेष रखा करता था। एक दिन इस शहर में पाँच सौ मुनियों का संघ आया। बालक मंत्री को अपनी पंडिताई पर बड़ा अभिमान था । सो वह शास्त्रार्थ करने को मुनिसंघ के आचार्य के पास जा रहा था । रास्ते में इसे एक खण्डक नाम के मुनि मिल गए। सो उन्हीं से आप झगड़ा करने को बैठ गया और लगा अन्ट-सन्ट बकने । तब मुनि ने उसकी युक्तियों का अच्छी तरह खण्डन कर स्याद्वाद-सिद्धान्त का इस शैली से प्रतिपादन किया कि बालक मंत्री का मुँह बन्द हो गया, उनके सामने फिर उससे कुछ बोलते न बना। तब उसे लज्जित हो घर लौट आना पड़ा। इस अपमान की आग उसके हृदय में खूब धधकी । उसने तब इसका बदला चुकाने की ठानी। इसके लिए उसने यह युक्ति की कि एक भाँड को छल से मुनि बनाकर सुव्रता रानी के महल में भेजा । यह भाँड रानी के पास जाकर उससे भला-बुरा हँसी-मजाक करने लगा । इधर उसने यह सब लीला राजा को भी बतला दी और कहा - महाराज, आप इन लोगों की इतनी भक्ति करते हैं, सदा इनकी सेवा में लगे रहते हैं, तो क्या यह सब इसी दिन के लिए है? जरा आँखें खोलकर देखिए कि सामने क्या हो रहा है? उस भाँड की लीला देखकर मूर्खराज दण्डक के क्रोध का कुछ पार न रहा। क्रोध से अन्धे होकर उसने उसी समय हुक्म दिया कि जितने मुनि इस समय मेरे शहर में मौजूद हों, उन सबको घानी में पेल दो। पापी मंत्री तो इसी पर मुँह धोये बैठा था । सो राजाज्ञा होते ही उसने पलभर का भी विलम्ब करना उचित न समझ मुनियों के पेले जाने की सब व्यवस्था फौरन जुटा दी। देखते-देखते वे सब मुनि घानी में पेल दिये गए। बदला लेकर बालक मंत्री की आत्मा सन्तुष्ट हुई । सच है-जो पापी होते हैं, जिन्हें दुर्गतियों में दुःख भोगना है, वे मिथ्यात्वी लोग भयंकर पाप करने में जरा भी नहीं हिचकते । चाहे फिर उस पाप के फल से उन्हें जन्म-जन्म में क्यों न कष्ट सहना पड़े। जो हो, मुनिसंघ पर इस समय बड़ा ही घोर और दुःसह उपद्रव हुआ। पर वे साहसी धन्य हैं, जिन्होंने जबान से चूँ तक न निकाल कर सब कुछ बड़े साहस के साथ सह लिया । जीवन की इस अन्तिम कसौटी पर वे खूब तेजस्वी उतरे । उन मुनियों ने शुक्लध्यानरूपी अपनी महान् आत्मशक्ति से कर्मों का, जो कि आत्मा के पक्के दुश्मन हैं, नाश कर मोक्ष लाभ किया ॥२-११॥ 
    दिपते हुए सुमेरु के समान स्थिर, कर्मरूपी मैल को, जो कि आत्मा को मलिन करने वाला हैं, नाश करने वाले और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किए गए जिन मुनिराजों ने संसार का नाश कर मोक्ष लाभ किया वे मेरा भी संसार - भ्रमण मिटावें ॥१२॥
  18. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनके सर्व-श्रेष्ठ ज्ञान में यह सारा संसार परमाणु के समान देख पड़ता है, उन सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर निह्नव - जिस प्रकार जो बात हो उसे उसी प्रकार न कहना, उसे छुपाना, इस सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
    उज्जैन के राजा धृतिषेण की रानी मलयावती के चण्डप्रद्योत नाम का एक पुत्र था। वह जैसा सुन्दर था वैसा ही गुणवान् भी था। पुण्य के उदय से उसे सभी सुख सामग्री प्राप्त थी ॥३॥
    एक बार दक्षिण देश के वेनातट नगर में रहने वाले सोमशर्मा ब्राह्मण का कालसंदीव नाम का विद्वान् पुत्र उज्जैन में आया । वह कई भाषाओं का जानने वाला था । इसलिए धृतिषेण ने चण्डप्रद्योत को पढ़ाने के लिए उसे रख लिया। कालसंदीव ने चण्डप्रद्योत को कई भाषाओं का ज्ञान कराने के बाद एक म्लेच्छ-अनार्यभाषा को पढ़ाना शुरू किया । इस भाषा का उच्चारण बड़ा ही कठिन था। राजकुमार को उसके पढ़ने में बहुत दिक्कत पड़ा करती थी । एक दिन कोई ऐसा ही पाठ आया, जिसका उच्चारण बहुत क्लिष्ट था । राजकुमार से उसका ठीक-ठीक उच्चारण न बन सका । कालसन्दीव ने उसे शुद्ध उच्चारण कराने की बहुत कोशिश की, पर उसे सफलता प्राप्त न हुई इससे कालसन्दीव को कुछ गुस्सा आ गया। गुस्से में आकर उसने राजकुमार के एक लात मार दी । चण्डप्रद्योत था तो राजकुमार ही सो उसका भी कुछ मिजाज बिगड़ गया। उसने अपने गुरु महाराज से तब कहा-अच्छा महाराज, आपने जो मुझे मारा हैं, मैं भी इसका बदला लिए बिना न छोडूंगा। मुझे आप राजा होने दीजिये, फिर देखिएगा कि मैं भी आपके इसी पाँव को काटकर ही रहूँगा। सच है, बालक कम-बुद्धि हुआ ही करते हैं । कालसन्दीव कुछ दिनों तक और यहाँ रहा, फिर वह यहाँ से दक्षिण की ओर चला गया। उधर कालसन्दीव को एक दिन किसी मुनि का उपदेश सुनने का मौका मिला। उपदेश सुनकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । वह मुनि हो गया ॥४-९॥
    इधर धृतिषेण राजा भी चण्डप्रद्योत को सब राज-काज सौंपकर साधु बन गया। राज्य की बागडोर चण्डप्रद्योत के हाथ में आयी । इसमें कोई सन्देह नहीं कि चण्डप्रद्योत ने भी राज्य शासन बड़ी नीति के साथ चलाया। प्रजा के हित के लिए उसने कोई बात उठा न रखी ॥१०॥
    एक दिन चण्डप्रद्योत पर एक यवनराज का पत्र आया । भाषा उसकी अनार्य थी । उस पत्र को कोई राजकर्मचारी न बाँच सका। तब राजा ने उसे देखा तो वह उससे बच गया। पत्र पढ़कर राजा की अपने गुरु कालसन्दीव पर बड़ी भक्ति हो गई। उसने बचपन की अपनी प्रतिज्ञा को उसी समय भुला दिया। इसके बाद राजा ने कालसन्दीव का पता लगाकर उन्हें अपने शहर बुलाया और बड़ी भक्ति से उनके चरणों की पूजा की। सच है, गुरुओं के वचन भव्यजनों को उसी तरह सुख देने वाले होते हैं जैसे रोगी को औषधि ॥११- १४॥
    कालसन्दीव मुनि यहाँ श्वेतसन्दीव नाम के किसी एक भव्य को दीक्षा देकर फिर बिहार कर गए। मार्ग में पड़ने वाले शहरों और गाँवों में उपदेश करते हुए वे विपुलाचल पर महावीर भगवान् के समवसरण में गए, जो कि बड़ी शान्ति देने वाला था। भगवान् के दर्शन कर उन्हें बहुत शान्ति मिली। वन्दना कर भगवान् का उपदेश सुनने के लिए वे वहीं बैठ गए ॥१५-१७॥
    श्वेतसन्दीव मुनि भी इन्हीं के साथ थे। वे आकर समवसरण के बाहर आतापन योग द्वारा तप करने लगे। भगवान् के दर्शन कर जब महामण्डलेश्वर श्रेणिक जाने लगे तब उन्होंने श्वेतसन्दीव मुनि को देखकर पूछा- आपके गुरु कौन है; किनसे आपने यह दीक्षा ग्रहण की? उत्तर में श्वेतसंदीव मुनि ने कहा- राजन्, मेरे गुरु श्रीवर्धमान भगवान् है । इतना कहना था कि उनका सारा शरीर काला पड़ गया। यह देख श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने जाकर गणधर भगवान् से इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा-श्वेतसन्दीव के असल गुरु हैं कालसंदीव, जो कि यहीं बैठे हुए हैं। उनका इन्होंने निह्नव किया-सच्ची बात न बतलाई इसलिए उनका शरीर काला पड़ गया है। तब श्रेणिक ने श्वेतसंदीव को समझा कर उनकी गलती उन्हें सुझाई और कहा - महाराज, आपकी अवस्था के योग्य ऐसी बातें नहीं हैं ऐसी बातों से पाप बन्ध होता है इसलिए आगे से आप कभी ऐसा न करेंगे, यह मेरी आपसे प्रार्थना है। श्रेणिक की इस शिक्षा का श्वेतसंदीव मुनि के चित्त पर बड़ा गहरा असर पड़ा। वे अपनी भूल पर बहुत पछताये। इस आलोचना से उनके परिणाम बहुत उन्नत हुए। यहाँ तक कि उसी समय शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया। वे सारे संसार द्वारा अब पूजे जाने लगे । अन्त में अघातिया कर्मों को नष्ट कर उन्होंने मोक्ष का अनन्त सुख लाभ किया । श्वेतसंदीव मुनि के इस वृत्तान्त से भव्यजनों को शिक्षा लेनी चाहिए कि वे अपने गुरु आदि का निह्नव न करें क्योंकि गुरु स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले हैं, इसलिए सेवा करने योग्य हैं ॥१८-२६॥
    वे श्रीश्वेतसंदीव मुनि मेरे बढ़ते हुए संसार की - भव - भ्रमण की शान्ति कर-मेरा संसार का भटकना मिटाकर मुझे कभी नाश न होने वाला और अन्त मोक्ष - सुख दें, जो केवलज्ञानरूपी अपूर्व नेत्र के धारक हैं, भव्यजनों को हित की ओर लगाने वाले हैं, देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूज्य है और अनन्तचतुष्टय - अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त हैं तथा और भी अनन्त गुणों के समुद्र हैं ॥२७॥
  19. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन्हें स्वर्ग के देव नमस्कार करते हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर सम्यक्त्व को न छोड़ने वाली जिनमती की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    लाटदेश के सुप्रसिद्ध गलगोद्रह नाम के शहर में जिनदत्त नाम का एक सेठ हो चुका है। उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था । उसके जिनमती नाम की एक लड़की थी। जिनमती बहुत सुन्दरी थी। उसकी भुवनमोहिनी सुन्दरता देखकर स्वर्ग की अप्सराएँ भी लजा जाती थी। पुण्य से सुन्दरता प्राप्त होती है ॥२-३॥
    यहीं पर एक दूसरा सेठ रहता था। उसका नाम नागदत्त था । नागदत्त की स्त्री नागदत्ता के रुद्रदत्त नाम का एक लड़का था । नागदत्त ने बहुतेरा चाहा कि जिनदत्त जिनमती का ब्याह उसके पुत्र रुद्रदत्त से कर दे। पर उसको विधर्मी होने से जिनदत्त ने उसे अपनी पुत्री न ब्याही | जिनदत्त का यह हठ नागदत्त को पसन्द न आया। उसने तब एक दूसरी युक्ति की । वह यह कि नागदत्त और रुद्रदत्त समाधिगुप्त मुनि से कुछ व्रत, नियम लेकर श्रावक बन गए और श्रावक सरीखी सब क्रियाएँ करने लगे। जिनदत्त को इससे बड़ी खुशी हुई और उसे इस बात पर पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही जैनी हो गए हैं तब उसने बड़ी खुशी के साथ जिनमती का ब्याह रुद्रदत्त से कर दिया। जहाँ ब्याह हुआ कि इन दोनों पिता-पुत्रों ने जैनधर्म छोड़कर पीछा अपना धर्म ग्रहण कर लिया ॥४-७॥
    रुद्रदत्त अब जिनमती से रोज-रोज आग्रह करने लगा कि प्रिये, तुम भी अब क्यों न मेरा ही धर्म ग्रहण कर लेती हो । वह बड़ा उत्तम धर्म है । जिनमती की जिनधर्म पर गाढ़ श्रद्धा थी । वह जिनेन्द्र भगवान् की सच्ची सेविका थी । ऐसी हालत में उसे जिनधर्म के सिवा अन्य धर्म कैसे रुच सकता था। उसने तब अपने विचार, बड़ी स्वतन्त्रता के साथ अपने स्वामी पर प्रकट किए। वह बोली-प्राणनाथ, आपका जैसा विश्वास हो, उस पर मुझे कुछ कहना - सुनना नहीं। पर मैं अपने विश्वास के अनुसार यह कहूँगी कि संसार में जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है जो सर्वोच्च होने का दावा कर सकता है। इसलिए कि जीवमात्र का उपकार करने की उसमें योग्यता है और बड़े-बड़े राजा- महाराजाओं, स्वर्ग के देव, विद्याधर और चक्रवर्ती आदि उसे पूजते- मानते है फिर मैं ऐसी कोई बेजा बात उसमें नहीं पाती कि जिससे मुझे उसके छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़े। बल्कि मैं आपको भी सलाह दूँगी कि आप इसी सच्चे और जीव मात्र का हित करने वाले जैनधर्म को ग्रहण कर लें तो बड़ा अच्छा हो। इसी प्रकार इन दोनों पति-पत्नी की परस्पर बात-चीत हुआ करती थी। अपने- अपने धर्म की दोनों ही तारीफ किया करते थे । रुद्रदत्त जरा अधिक हठी था । इसलिए कभी - कभी जिनमती पर वह जरा गुस्सा भी हो जाता था । पर जिनमती बुद्धिमती और चतुर थी, इसलिए वह उसकी नाराजगी पर कभी अप्रसन्नता जाहिर न करती । बल्कि उसकी नाराजगी को हँसी का रूप दे झट से रुद्रदत्त को शान्त कर देती थी । जो हो, पर ये रोज-रोज की विवाद भरी बातें सुख का कारण नहीं होती ॥८-१२॥
    इस तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन ऐसा मौका आया कि दुष्ट भीलों ने शहर के किसी हिस्से में आग लगा दी। चारों ओर आग बुझाने के लिए दौड़ा-दौड़ पड़ गई। उस भयंकर आग को देखकर लोगों को अपनी जान का भी सन्देह होने लगा । इस समय को योग्य अवसर देख जिनमती ने अपने स्वामी रुद्रदत्त से कहा - प्राणनाथ, मेरी बात सुनिए । रोज-रोज का जो अपने में वाद- विवाद होता है, मैं उसे अच्छा नहीं समझती । मेरी इच्छा है कि यह झगड़ा रफा हो जाए ॥१३॥
    इसके लिए मेरा यह कहना है कि आज अपने शहर में आग लगी है उस आग को जिसका देव बुझा दे, समझना चाहिए कि वही देव सच्चा है और फिर उसी को हमें परस्पर में स्वीकार कर लेना चाहिए। रुद्रदत्त ने जिनमती की यह बात मान ली। उसने तब कुछ लोगों को इस बात का गवाह कर अपने इष्ट आदि देवों के लिए अर्घ दिया, बड़ी भक्ति से उनकी पूजा - स्तुति कर उसने अग्नि शान्ति के लिए प्रार्थना की। पर उसकी इस प्रार्थना का कुछ उपयोग न हुआ । अग्नि जिस भयंकरता के साथ जल रही थी। वह उसी तरह जलती रही। सच है, ऐसे देवों से कभी उपद्रवों की शान्ति नहीं होती, जिनका हृदय दुष्ट है, जो मिथ्यात्वी है ॥१४- १७॥
    अब धर्मवत्सला जिनमती की बारी आई उसने बड़ी भक्ति से पंच परमेष्ठियों के चरण- कमलों को अपने हृदय में विराजमान कर उनके लिए अर्घ चढ़ाया। इसके बाद वह अपने पति, पुत्र आदि कुटुम्ब वर्ग को अपने पास बैठाकर आप कायोत्सर्ग ध्यान द्वारा पंच-नमस्कार मन्त्र का चिन्तन करने लगी। इसकी इस अचल श्रद्धा और भक्ति को देखकर शासन देवी बड़ी प्रसन्न हुई उसने तब उसी समय आकर उस भयंकर आग को देखते-देखते बुझा दिया । इस अतिशय को देखकर रुद्रदत्त वगैरह बड़े चकित हुए । उन्हें विश्वास हुआ कि जैनधर्म ही सच्चा धर्म है। उन्होंने फिर सच्चे मन से जैनधर्म की दीक्षा ले श्रावकों के व्रत ग्रहण किए। जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई। सच है - संसार में श्रेष्ठ जैनधर्म की महिमा को कौन कह सकता है जो कि स्वर्ग - मोक्ष का देने वाला है। जिस प्रकार जिनमती ने अपने सम्यक्त्व की रक्षा की, उसी तरह अन्य भव्यजनों को सुख प्राप्ति के लिए पवित्र सम्यग्दर्शन की सदा सुरक्षा करते रहना चाहिए ॥१८ - २३॥
    जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में जिनमती की अचल भक्ति, उसके हृदय की पवित्रता और उसका दृढ़ विश्वास देखकर स्वर्ग के देवों ने दिव्य वस्त्राभूषणों से उसका खूब आदर-मान किया और सच भी है-सच्चे जिनभक्त सम्यग्दृष्टि की कौन पूजा नहीं करते ॥२४॥
  20. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    अनन्त गुण-विराजमान और संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर गन्धमित्र राजा की कथा लिखी जाती है, जो घ्राणेन्द्रिय के विषय में फँसकर अपनी जान गँवा बैठा है ॥१॥
    अयोध्या के राजा विजय सेन और रानी विजयवती के दो पुत्र थे । इनके नाम थे जयसेन और गन्धमित्र। इनमें गन्धमित्र बड़ा लम्पटी था । भौरे की तरह नाना प्रकार के फूलों के सूँघने में वह सदा मस्त रहता था ॥२-३॥
    उनके पिता विजयसेन एक दिन कोई कारण देखकर संसार में विरक्त हो गए। इन्होंने अपने बड़े लड़के जयसेन को राज्य देकर और गन्धमित्र को युवराज बनाकर सागरसेन मुनिराज से योग ले लिया। सच है, जो अच्छे पुरुष होते हैं उनकी धर्म की ओर स्वभाव ही से रुचि होती है ॥४-५॥
    महत्त्वाकांक्षा राजा होने की थी तब उसने राज्य के लोभ में पड़कर अपने बड़े भाई के विरुद्ध षड्यंत्र रचा। कितने ही बड़े-बड़े कर्मचारियों को उसने धन का लोभ देकर उभारा, प्रजा में से बहुतों को उल्टी-सीधी सुझाकर बहकाया । गन्धमित्र को इसमें सफलता प्राप्त हुई । उसने मौका पाकर बड़े भाई जयसेन को सिंहासन से उतार राज्य से बाहर कर दिया और आप राजा बन बैठा । राजवैभव सचमुच ही महापाप का कारण है। देखिए न, इस राजवैभव के लोभ में पड़कर मूर्खजन अपने सगे भाई की जान तक लेने की कोशिश में रहते हैं ॥ ६-८ ॥
    राज्य-भ्रष्ट जयसेन को अपने भाई के इस अन्याय से बड़ा दुःख हुआ । उसका उसे ठीक बदला मिले, उस उपाय में अब लग गया। प्रतिहिंसा से अपने कर्तव्य को वह भूल बैठा। उस दिन का रास्ता वह बड़ी उत्सुकता से देखने लगा जिस दिन गन्धमित्र को वह लात मारकर अपने हृदय को सन्तुष्ट करे। गन्धमित्र लम्पटी तो था ही, सो रोज-रोज अपनी स्त्रियों को साथ ले जाकर सरयू नदी में उनके साथ जलक्रीड़ा, हँसी, दिल्लगी किया करता था । जयसेन ने इस मौके को अपना बदला चुकाने के लिए बहुत अच्छा समझा । एक दिन उसने जहर के पुट लिये अनेक प्रकार के अच्छे-अच्छे मनोहर फूलों को ऊपर की ओर से नदी में बहा दिया। फूल गन्धमित्र के पास होकर बहे जा रहे थे । गन्धमित्र उन्हें देखते ही उनके लेने के लिए झपटा। कुछ फूलों को हाथ में ले वह सूँघने लगा। फूलों के विष का उस पर बहुत जल्दी असर हुआ और देखते-देखते वह चल बसा। मरकर गन्धमित्र घ्राणेन्द्रिय के विषय की अत्यन्त लालसा से नरक गया । सो ठीक है, इंद्रियों के अधीन हुए लोगों का नाश होता ही है ॥९ - १३॥
    देखिये, गंधमित्र केवल एक विषय का सेवन कर नरक में गया, जो कि अनन्त दुःखों का स्थान है। तब जो लोग पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने वाले हैं, वे क्या नरकों में न जाएँगे? अवश्य जाएँगे। इसलिए जिन बुद्धिमानों को दुःख सहना अच्छा नहीं लगता या वे दुःखों को चाहते नहीं है उन्हें विषयों की ओर से अपने मन को खींचकर जिनधर्म की ओर लगाना चाहिए ॥१४॥
  21. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    देवादि के द्वारा पूज्य और अनन्तज्ञान, दर्शनादि आत्मीय श्री से विभूषित जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं धनदत्त राजा की पवित्र कथा लिखता हूँ ॥१॥
    अन्धदेशान्तर्गत कनकपुर नामक एक प्रसिद्ध और मनोहर शहर था। उसके राजा थे धनदत्त। वे सम्यग्दृष्टि थे, गुणवान् थे और धर्मप्रेमी थे। राजमंत्री का नाम श्रीवन्दक था । वह बौद्ध धर्मानुयायी था परन्तु तब भी राजा अपने मंत्री की सहायता से राजकार्य अच्छा चलाते थे। उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती थी ॥२-३॥
    एक दिन राजा और मंत्री राजमहल के ऊपर बैठे हुए कुछ राज्य सम्बन्धी विचार कर रहे थे कि राजा को आकाशमार्ग से जाते हुए दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों के दर्शन हुए। राजा ने हर्ष के साथ उठकर मुनिराज को बड़े विनय से नमस्कार किया और अपने महल में उनका आह्वान किया। ठीक भी है "साधुसंगः सतां प्रियः’' अर्थात् - साधुओं की संगति सज्जनों को बहुत प्रीतिकर जान पड़ती है ॥४-६॥
    इसके बाद राजा के प्रार्थना करने पर मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश दिया और चलते समय वे श्रीवन्दक मंत्री को अपने साथ लिवा ले गए। ले जाकर उन्होंने उसे समझाया और आत्महित की इच्छा से उसके प्रार्थना करने पर उसे श्रावक के व्रत दे दिये। श्रीवन्दक अपने स्थान लौट आया। इसके पहले श्रीवन्दक अपने बौद्धगुरु की वन्दनाभक्ति करने को प्रतिदिन उनके पास जाया करता था। सो जब उसने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिए तब से उसने जाना छोड़ दिया। यह देख बौद्धगुरु ने उसे बुलाया, पर जब श्रीवन्दक ने आकर भी उसे नमस्कार नहीं किया? त तब संघश्री ने उससे पूछा- क्यों आज तुमने मुझे नमस्कार नहीं किया। उत्तर में मंत्री ने मुनि के आने, उपदेश करने और अपने व्रत ग्रहण करने का सब हाल संघश्री से कह सुनाया । सुनकर संघ श्री बड़े दुःख के साथ बोला- हाय ! तू ठगा गया, पापियों ने तुझे बड़ा धोखा दिया। क्या कभी यह संभव है कि निराश्रय आकाश में भी कोई चल सकता है? जान पड़ता है तुम्हारा राजा बड़ा कपटी और ऐन्द्रजालिक है। इसलिए उसने तुम्हें ऐसा आश्चर्य दिखला कर अपने धर्म में शामिल कर लिया । तुम तो भगवान् बुद्ध के इतने विश्वासी थे, फिर भी तुम उस पापी राजा की बहकावे में आ गए? इस तरह उसे बहुत कुछ ऊँचा नीचा समझाकर संघश्री ने कहा अब तुम कभी राजसभा में नहीं जाना और जाना भी पड़े तो यह आज का हाल राजा से नहीं कहना । कारण वह जैनी है। सो बुद्धधर्म पर स्वभाव ही से उसे प्रेम नहीं होगा। इसलिए क्या मालूम कब वह बुद्धधर्म का अनिष्ट करने को तैयार हो जाये? बेचारा श्रीवन्दक फिर संघ श्री की चिकनी चुपड़ी बातों में आ गया। उसने श्रावक-धर्म को भी उसी समय जलांजलि दे दी । बहुत ठीक कहा गया है- ॥७-१६॥
    जो स्वयं पापी होते हैं वे औरों को भी पापी बना डालते हैं । यह उनका स्वभाव ही होता है । जैसे अग्नि स्वयं भी गरम होती है और दूसरों को भी जला देती है ॥१७॥
    दूसरे दिन धनदत्त ने राजसभा में बड़े आनन्द और धर्मप्रेम के साथ चारणमुनि का हाल सुनाया। उनमें प्रायः लोगों को, जो कि जैन नहीं थे, बहुत आश्चर्य हुआ । उनका विश्वास राजा के कथन पर नहीं जमा। सब आश्चर्य भरी दृष्टि से राजा के मुँह की ओर देखने लगे । राजा को जान पड़ा कि मेरे कहने पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ । तब उन्होंने अपनी गंभीरता को हँसी के रूप में परिवर्तित कर झट से कहा, हाँ मैं यह कहना तो भूल ही गया कि उस समय हमारे मंत्री महाशय भी मेरे पास ही थे। यह कहकर उन्होंने मंत्री पर नजर दौड़ाई पर वे उन्हें नहीं दीख पड़े। तब राजा ने उसी समय नौकरों को भेजकर श्रीवन्दक को बुलवाया। उसके आते ही राजा ने अपने कथन की सत्यता प्रमाणित करने के लिए उससे कहा- मंत्री जी, कल दोपहर का हाल तो इन सबको सुनाएँ कि वे चारणमुनि कैसे थे? तब बौद्धगुरु का बहकाया हुआ पापी श्रीवन्दक बोल उठा कि महाराज, मैंने तो उन्हें नहीं देखा और न यह संभव ही है कि आकाश में कोई चल सके? पापी श्रीवन्दक के मुँह से उक्त वाक्यों का निकलना था कि उसी समय उसकी दोनों आँखें मुनिनिन्दा के तीव्र पाप के उदय से फूट गईं ॥१८-२२॥
    जैसे संसार में फैले हुए सूर्य के प्रभाव को उल्लू नहीं रोक सकता, ठीक उसी तरह पापी लोग पवित्र जिनधर्म के प्रभाव को कभी नहीं रोक सकते । उक्त घटना को देखकर राजा वगैरह ने जिनधर्म की खूब प्रशंसा की और श्रावक धर्म स्वीकार कर वे उपासक बन गए ॥२३-२४॥
    इस प्रकार निर्मल और देवादि के द्वारा पूज्य जिनशासन का प्रभाव देखकर भव्य पुरुषों को उचित है कि वे निर्भ्रान्त होकर सुख के खजाने और स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले पवित्र जिनधर्म की ओर अपनी निर्मल और मनोवांछित की देने वाली बुद्धि को लगावें ॥२५॥
  22. admin
    मैं संसार के हित करने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर दुर्जनों की संगति से जो दोष उत्पन्न होते हैं, उससे सम्बन्ध रखने वाली एक कथा लिखता हूँ, जिससे कि लोग दुर्जनों की संगति छोड़ने का यत्न करें ॥१॥
    यह कथा उस समय की है, जब कि कौशाम्बी का राजा धनपाल था। धनपाल अच्छा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। शत्रु तो उसका नाम सुनकर काँपते थे । राजा के यहाँ एक पुरोहित था। उसका नाम था शिवभूति। वह पौराणिक अच्छा था ॥२-३॥
    वहीं दो शूद्र रहते थे। उनके नाम कल्पपाल और पूर्णचन्द्र थे। उनके पास कुछ धन भी था। उनमें पूर्णचन्द्र की स्त्री का नाम था मणिप्रभा । उसके एक सुमित्रा नाम की लड़की थी । पूर्णचन्द्र ने उसके विवाह में अपने जातीय भाइयों को जिमाया और उसका राज पुरोहित से कुछ परिचय होने से उसने उसे भी निमंत्रित किया। पर पुरोहित महाराज ने उसमें यह बाधा दी कि भाई, तुम्हारा भोजन तो मैं नहीं कर सकता। तब कल्पपाल ने बीच में ही कहा-अस्तु । आप हमारे यहाँ का भोजन न करें। हम ब्राह्मणों के द्वारा आपके लिए भोजन तैयार करवा देंगे तब तो आपको कुछ उजर न होगा । पुरोहितजी आखिर थे तो ब्राह्मण ही न? जिनके विषय में यह नीति प्रसिद्ध है कि “असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः” अर्थात् लोभ में फँसकर ब्राह्मण नष्ट हुए । सो वे एक बार के भोजन का लोभ नहीं रोक सके। उन्होंने यह विचार कर, कि जब ब्राह्मण भोजन बनाने वाले हैं, तब तो कुछ नुकसान नहीं, उसका भोजन करना स्वीकार कर लिया। पर इस बात पर उन्होंने तनिक भी विचार नहीं किया कि ब्राह्मणों ने भोजन बना दिया तो हुआ क्या? आखिर पैसा तो उसका है और न जाने उसने कैसे-कैसे पापों द्वारा उसे कमाया है।
    जो हो, नियमित समय पर भोजन तैयार हुआ । एक ओर पुरोहित देवता भोजन के लिए बैठे और दूसरी और पूर्णचन्द्र का परिवार वर्ग । इस जगह इतना और ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों का चौका अलग-अलग था। भोजन होने लगा। पुरोहित जी ने मन भर माल उड़ाया। मानों उन्हें कभी ऐसे भोजन का मौका ही नसीब नहीं हुआ था । पुरोहित जी को वहाँ भोजन करते हुए कुछ लोगों ने देख लिया। उन्होंने पुरोहित की शिकायत महाराज से कर दी । महाराज ने उसकी परीक्षा करने हेतु उसे वमन करवाया तब उसके अतिदुर्गंधित वमन से राजा कुपित हुआ । महाराज ने एक शूद्र के साथ भोजन करने वाले, वर्ण व्यवस्था को धूल में मिलाने वाले ब्राह्मण को अपने राज्य में रखना उचित न समझ देश से निकलवा दिया। सच है - " कुसंगो कष्टदो ध्रुवम् ” अर्थात् बुरी संगति दुःख देने वाली ही होती है। इसलिए अच्छे पुरुषों को उचित है कि वे बुरों की संगति न कर सज्जनों की संगति करें, जिससे वे अपने धर्म, कुल, मान-मर्यादा की रक्षा कर सकें ॥४-१७॥
  23. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले श्रीजिनभगवान् को नमस्कार कर मैं जिनेन्द्रभक्त की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने कि सम्यग्दर्शन के उपगूहन अंग का पालन किया था ॥१॥
    नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र और दयालु पुरुषों से परिपूर्ण सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत एक पाटलिपुत्र नाम का शहर था । जिस समय की कथा है, उस समय वहाँ के राजा यशोध्वज थे। उनकी रानी का नाम सुसीमा था । वह बड़ी सुन्दर थी । उसके एक पुत्र था। उसका नाम था सुवीर । बेचारी सुसीमा के पाप के उदय से वह महाव्यसनी और चोर हुआ। सच तो यह है जिन्हें आगे कुयोनियों के दुःख भोगना होता है, उनका न तो अच्छे कुल में जन्म लेना काम आता है और न ऐसे पुत्रों से बेचारे माता-पिता को सुख होता है ॥२-५॥
    गोड़देश के अन्तर्गत ताम्रलिप्ता नाम की एक पुरी है । उसमें एक सेठ रहते थे। उनका नाम था जिनेन्द्रभक्त । जैसा उनका नाम था वैसे ही वे जिनभगवान् के भक्त थे भी । जिनेन्द्रभक्त सच्चे सम्यग्दृष्टि थे और अपने श्रावक धर्म का बराबर सदा पालन करते थे । उन्होंने बड़े - बड़े विशाल जिनमन्दिर बनवाएँ, बहुत से जीर्ण मन्दिरों का उद्धार किया, जिनप्रतिमायें बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करवाई और चारों संघों को खूब दान दिया, उनका खूब सत्कार किया ॥६-९॥
    सम्यग्दृष्टि शिरोमणि जिनेन्द्रभक्त का महल सात मंजिला था। उसकी अन्तिम मंजिल पर एक बहुत ही सुन्दर जिन चैत्यालय था । चैत्यालय में श्री पार्श्वनाथ भगवान् की बहुत मनोहर और रत्नमयी प्रतिमा थी। उस पर तीन छत्र, जो कि रत्नों के बने हुए थे, बड़ी शोभा दे रहे थे । उन छत्रों पर एक वैडूर्यमणि नाम का अत्यन्त कान्तिमान् बहुमूल्य रत्न लगा हुआ था। इस रत्न का हाल सुवीर ने सुना। उसने अपने साथियों को बुलाकर कहा - सुनते हो, जिनेन्द्रभक्त सेठ के चैत्यालय में प्रतिमा पर लगे हुए छत्रों में एक रत्न लगा हुआ है, वह अमोल है। क्या तुम लोगों में से कोई उसे ला सकता है? सुनकर उनमें से एक सूर्य नाम का चोर बोला, यह तो एक अत्यन्त साधारण बात है। यदि वह रत्न इन्द्र के सिर पर भी होता, तो मैं उसे क्षणभर में ला सकता था । यह सच भी है कि जो जितने ही दुराचारी होते हैं वे उतना ही पाप कर्म भी कर सकते हैं ॥१०-१५ ॥
    सूर्य के लिए रत्न लाने की आज्ञा हुई वहाँ से आकर उसने मायावी क्षुल्लक का वेष धारण किया। क्षुल्लक बनकर वह व्रत उपवासादि करने लगा । उससे उसका शरीर बहुत दुबला-पतला हो गया। इसके बाद वह अनेक शहरों और ग्रामों में घूमता हुआ और लोगों को अपने कपटी वेष से ठगता हुआ कुछ दिनों में ताम्रलिप्ता पुरी में आ पहुँचा। जिनेन्द्रभक्त सच्चे धर्मात्मा थे, इसलिए उन्हें धर्मात्माओं को देखकर बड़ा प्रेम होता था । उन्होंने जब इस धूर्त क्षुल्लक का आगमन सुना तो उन्हें
    बड़ी प्रसन्नता हुई वे उसी समय घर का सब कामकाज छोड़कर क्षुल्लक महाराज की वन्दना करने के लिए गए। उसे तपश्चर्या से क्षीण शरीर देखकर उनकी उस पर और अधिक श्रद्धा हुई उन्होंने भक्ति के साथ क्षुल्लक को प्रणाम किया और बाद वे उसे अपने महल लिवा लाये । सब बात यह है कि - ॥१६-१९॥
     जिनकी धूर्तता से अच्छे-अच्छे विद्वान् भी जब ठगे जाते हैं, तब बेचारे साधारण पुरुषों की क्या मजाल जो वे उनकी धूर्तता का पता पा सकें क ॥२०॥ 
    क्षुल्लक जी ने चैत्यालय में पहुँच कर जब उस मणि को देखा तो उनका हृदय आनन्द के मारे बाँसों उछलने लगा। वे बहुत सन्तुष्ट हुए। जैसे सुनार अपने पास कोई रकम बनवाने के लिए लाये हुए पुरुष के पास का सोना देखकर प्रसन्न होता है क्योंकि उसकी नियत सदा चोरी की ओर ही लगी रहती है ॥२१॥
    जिनेन्द्रभक्त को उसके मायाचार का कुछ पता नहीं लगा। इसलिए उन्होंने उसे बड़ा धर्मात्मा समझ कर और मायाचारी से क्षुल्लक के मना करने पर भी जबरन अपने जिनालय की रक्षा के लिए उसे नियुक्त कर दिया और आप उससे पूछकर समुद्रयात्रा करने के लिए चल पड़े ॥२२-२३॥
    जिनेन्द्रभक्त के घर बाहर होते ही क्षुल्लक जी की बन पड़ी । आधी रात के समय आप उस तेजस्वी रत्न को कपड़ों में छुपाकर घर से बाहर हो गए। पर पापियों का पाप कभी नहीं छुपता । यही कारण था कि रत्न लेकर भागते हुए उसे सिपाहियों ने देख लिया। वे उसे पकड़ने को दौड़े। क्षुल्लक जी दुबले पतले तो पहले ही से हो रहे थे, इसलिए वे अपने को भागने में असक्त समझ लाचार होकर जिनेन्द्रभक्त की ही शरण में गए और प्रभो, बचाइये ! बचाइये !! यह कहते हुए उनके पाँवों में गिर पड़े। जिनेन्द्रभक्त ने, ‘चोर भागा जाता है ! इसे पकड़ना' ऐसा हल्ला सुन करके जान लिया कि यह चोर है और क्षुल्लक वेष में लोगों को ठगता फिरता है । यह जानकर भी सम्यग्दर्शन की निन्दा के भय से जिनेन्द्रभक्त ने क्षुल्लक के पकड़ने को आए हुए सिपाहियों से कहा- आप लोग बड़े कम समझ के हैं !
    आपने बहुत बुरा किया जो एक तपस्वी को चोर बतला दिया। रत्न तो ये मेरे कहने से लाये हैं। आप नहीं जानते कि ये बड़े सच्चरित्र साधु हैं? अस्तु । आगे से ध्यान रखिये। जिनेन्द्रभक्त के वचनों को सुनते ही सब सिपाही लोग ठण्डे पड़ गए और उन्हें नमस्कार कर चलते बने ॥२४-३०॥
    जब सब सिपाही चले गए तब जिनेन्द्रभक्त ने क्षुल्लक जी से रत्न लेकर एकान्त में उनसे कहा- बड़े दुःख की बात है कि तुम ऐसे पवित्र वेष को धारण कर उसे ऐसे नीच कर्मों से लजा रहे हो? तुम्हें यही उचित है क्या? याद रक्खो, ऐसे अनर्थों से तुम्हें कुगतियों में अनन्त काल दुःख भोगना पड़ेंगे। शास्त्रकारों ने पापी पुरुषों के लिए लिखा है कि- ॥३१-३२॥
    अर्थात्-जो पापी लोग न्यायमार्ग को छोड़कर और पाप के द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार समुद्र में अनन्त काल दुःख भोगते हैं। ध्यान रक्खो कि अनीति से चलने वाले और अत्यन्त तृष्णावान् तुम सरीखे पापी लोग बहुत ही जल्दी नाश को प्राप्त होते हैं । तुम्हें उचित है, तुम बड़ी कठिनता से प्राप्त हुए इस मनुष्य जन्म को इस तरह बर्बाद न कर कुछ आत्म हित करो। इस प्रकार शिक्षा देकर जिनेन्द्रभक्त ने अपने स्थान से उसे अलग कर दिया ॥३३-३५॥
    इसी प्रकार और भी भव्य पुरुषों को, दुर्जनों के मलिन कर्मों से निन्दा को प्राप्त होने वाले सम्यग्दर्शन की रक्षा करनी उचित है। जिनभगवान् का शासन पवित्र है, निर्दोष है, उसे जो सदोष बनाने की कोशिश करते हैं, वे मूर्ख हैं, उन्मत्त हैं। ठीक भी है उन्हें वह निर्दोष धर्म अच्छा जान भी नहीं पड़ता। जैसे पित्तज्वर वाले को अमृत के समान मीठा दूध भी कड़वा ही लगता है ॥३६-३७॥

     
  24. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के बन्धु, पवित्रता की मूर्ति और मुक्ति का स्वतंत्रता का सुख देने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर वीरवती का उपाख्यान लिखा जाता है, जो सत्पुरुषों के लिए वैराग्य को बढ़ाने वाला है॥१॥
    राजगृह नगर में धनमित्र नामक सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी और पुत्र का दत्त था। भूमिगृह नामक एक और सुन्दर नगर था । उसमें आनन्द नाम का एक साधारण गृहस्थ रहता था। इसकी स्त्री मित्रवती थी । उसके एक वीरवती नाम की कन्या हुई। वीरवती का व्याह दत्त के साथ हुआ। सो ठीक ही है, जो सम्बन्ध दैव को मंजूर होता है उसे कौन रोक सकता है ॥२-४॥
    यहीं एक चोर रहता था। इसका नाम था गारक। किसी समय वीरवती ने इसे देखा। वह इसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गई। एक बार दत्त रत्नद्वीप से धन कमाकर घर की ओर रवाना हुआ। रास्ते में इसकी ससुराल पड़ी। इसे अपने प्रियतमा से मिले बहुत दिन हो गए थे और यह उससे बहुत प्रेम भी करता था, इसलिए इसने ससुराल होकर घर जाना उचित समझा। यह रास्ते में एक जंगल में ठहरा। यहीं एक सहस्रभट नाम के चोर ने इसे देखा । यहाँ से चलते समय दत्त के पीछे यह चोर भी विनोद से हो लिया और साथ-साथ भूमिगृह में आ पहुँचा ॥५-८ ॥
    ससुराल में दत्त का बहुत कुछ आदर-सत्कार हुआ। वीरवती भी बड़े प्रेम के साथ इससे मिली। पर उसका चित्त स्वभाव-प्रसन्न न होकर कुछ बनावट को लिए था। उसका मन किसी गहरी चोट से जर्जरित है, इस बात को चतुर पुरुष उसके चेहरे के रंग-ढंग से बहुत जल्दी ताड़ सकता था। पर सरल-स्वभावी दत्त इसका रत्तीभर भी पता नहीं पा सका । कारण, अपनी स्त्री के सम्बन्ध में उसे स्वप्न में भी किसी तरह का सन्देह न था। बात यह थी कि जिस चोर से वीरवती की आशनाई थी, वह आज किसी बड़े भारी अपराध के कारण सूली पर चढ़ाया जाने वाला था। वीरवती को उसी का बड़ा रंज था और इसी से उसका चित्त चल-विचल हो रहा था। रात के समय जब सब घर के लोग सो गए तब वीरवती अकेली उठी और हाथ में एक तलवार लिए वहीं पहुँची जहाँ अपराधी सूली पर चढ़ाये जाते थे। इसे घर से निकलते समय सहस्रभट चोर ने देख लिया । वह यह देखने के लिए कि इतनी रात में यह अकेली कहाँ जाती है, उसके पीछे-पीछे हो गया। वीरवती को उसके पाँवों की आवाज से जान पड़ा कि उसके पीछे-पीछे कोई आ रहा है, पर रात अन्धेरी होने से वह उसे देख नसकी। तब उस दुष्टा ने अपनी हाथ की तलवार का एक वार पीछे की ओर किया । उससे बेचारे सहस्रभट की अँगुलियाँ कट गई। तलवार को झटका लगने से उसे और दृढ़ विश्वास हो गया कि कोई पीछे अवश्य आ रहा है। वह देखने के लिए खड़ी हो गई, पर उसे कुछ सफलता प्राप्त न हुई। सहस्रभट कुछ और पीछे हट गया। वह फिर आगे बढ़ी। पास ही सूली का स्थान उसे दिख पड़ा। वह पीछे आने वाले की बात भूलकर दौड़ी हुई अपने यार के पास पहुँची। उसे सूली पर चढ़ाये बहुत समय नहीं हुआ था, इसलिए उसकी अभी कुछ साँसें बाकी थी। वीरवती को देखते ही उसने कहा- प्रिये, यही मेरी और तुम्हारी अन्तिम भेंट है । मैं तुम्हारी ही आशा लगाये अब तक जी रहा हूँ, नहीं तो कभी का मरमिटा होता । अब देर न कर मुझ दुःखी को अन्तिम प्रेमालिंगन दे, सुखी करो और आओ, अपने मुख का पान मेरे मुख में देओ; जिससे मेरा जीवन जिसके लिए अब तक टिका है उस तुमसी सुन्दरी का आलिंगन कर शान्ति से परमधाम सिधारे । हाय ! इस काम को धिक्कार है, जो मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ भी इसे चाहता है ॥९-१५॥
    वीरवती ने अपने यार को सूली पर से उतारने का कोई उपाय तत्काल न देखकर पास में पड़े हुए कुछ मुर्दों को इकट्ठा किया और उन्हें ऊपर तले रखकर वह उन पर चढ़ी और अपना मुँह उसके मुँह के पास ले जाकर बोली- प्रियतम, लो अपनी इच्छा पूरी करो । गारक ने वीरवती के मुँह का पान लेने के लिए उसके ओठों को अपने मुँह में लिया था कि कोई ऐसा धक्का लगा जिससे वीरवती के पाँव के नीचे का मुर्दों का ढेर खिसक जाने से वीरवती नीचे आ गिरी और उसका ओठ कट गया अपना ओठ देख कर घबरा गई और उस दुष्टा ने चालाकी से घर आकर शोर मचाने लगी कि दत्त ने मेरा ओठ काट लिया और साथ ही बड़े जोर से वह रोने लगी। उसी समय अड़ोस-पड़ोस और घर के लोगों ने आकर दत्त को बाँध लिया। सच है, पापिनी, कुलटा और अपने वंश का नाश करने वाली स्त्रियाँ क्या नीच कर्म नहीं कर सकतीं? ॥१६-२०॥
    सबेरा हुआ। दत्त राजा के सामने उपस्थित किया गया। उसका क्या अपराध है और वह सच है या झूठ, इसकी कुछ विशेष तलाश न की जाकर एकदम उसके मारने का हुक्म दिया गया । पर यह सबको ध्यान में रखना चाहिए कि जब पुण्य का उदय होता है तब मृत्यु के समय भी रक्षा हो जाती है। पाठकों विनोदी सहस्रभट की याद होगी । यह वीरवती के अन्तिम कुकर्म तक उसके आगे पीछे उपस्थित रहा है। उसने सच्ची घटना अपनी आँखों से देखी है । वह इस समय यहीं उपस्थित था। राजा का दत्त के लिए मारने का हुक्म सुनकर उससे न रहा गया। उसने अपनी कुछ परवाह न कर सब सच्ची घटना राजा से कह सुनाई । राजा सुनकर दंग रह गया। उसने उसी समय अपने पहले हुक्म को रवकर निरपराध दत्त को रिहाई दी और वीरवती को उसके अपराध की उपयुक्त सजा दी। सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं। दुष्ट स्त्रियों का ऐसा घृणित और कलंकित चरित देखकर सबको उचित है कि वे दुःख देने वाले विषयों से अपनी सदा रक्षा करें ॥२१-२३॥
    वे महात्मा धन्य है जो भगवान् के उपदेश किए हुए पवित्र शीलव्रत से विभूषित है, कामरूपी क्रूर हाथी को मारने के लिए सिंह है, विषयों को जिन्होंने जीत लिया है, ज्ञान, ध्यान, आत्मानुभव में जो सदा मग्न हैं, विषयभोगों से निरन्तर उदास हैं, भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने में जो सूर्य हैं और संसार समुद्र से पार करने में जो बड़े कर्मवीर खेवटिया हैं वे सबका कल्याण करें ॥२४॥
  25. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    इन्द्रादिकों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर जिनाभिषेक से अनुराग करने वाले जिनदत्त और वसुमित्र की कथा लिखी जाती है। उज्जैन के राजा सागरदत्त के समय उनकी राजधानी में जिनदत्त और वसुमित्र नाम के दो प्रसिद्ध और बड़े गुणवान् सेठ हो गए हैं। जिनधर्म और जिनाभिषेक पर उनका बड़ा ही अनुराग था । ऐसा कोई दिन उनका खाली न जाता था जिस दिन वे भगवान् का अभिषेक न करते हों, पूजा प्रभावना न करते हों, दान-व्रत न करते हों । एक दिन ये दोनों सेठ व्यापार के लिए उज्जैन से उत्तर की ओर रवाना हुए। मंजिल दर मंजिल चलते हुए एक ऐसी घनी अटवी में पहुँच गए, जो दोनों बाजू आकाश से बातें करने वाले अवसीर और माला पर्वत नाम के पर्वतों से घिरी थी और जिसमें डाकू लोगों का अड्डा था। डाकू लोग इनका सब माल असबाब छीनकर हवा हो गए। अब ये दोनों उस अटवी मैं इधर-उधर घूमने लगे । इसलिए कि इन्हें उससे बाहर होने का रास्ता मिल जाये । पर इनका सब प्रयत्न निष्फल गया। न तो ये स्वयं रास्ते का पता लगा सके और न कोई रास्ता बताने वाला ही मिला। अपने अटवी के बाहर होने का कोई उपाय न देखकर अन्त में इन जिनपूजा और जिनाभिषेक से अनुराग करने वाले महानुभावों ने संन्यास ले लिया और जिन भगवान् का ये स्मरण - चिन्तन करने लगे । सच है, सत्पुरुष सुख और दुःख में सदा समान भाव रखते हैं, विचारशील रहते हैं ॥१-७॥
    एक और अभागा भूला भटका सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण अटवी में आ फँसा। घूमता-फिरता वह इन्हीं के पास आ गया। अपनी - जैसी इस बेचारे ब्राह्मण की दशा देखकर ये बड़े दिलगीर हुए। सोमशर्मा से उन्होंने सब हाल कहा और यह भी कहा- यहाँ से निकलने का कोई मार्ग प्रयत्न करने पर भी जब हमें न मिला तो हमने अन्त में धर्म का शरण लिया इसलिए कि यहाँ हमारी मरने के सिवा कोई गति ही नहीं है और जब हमें मृत्यु के सामने होना ही है तब कायरता और बुरे भावों से क्यों उसका सामना करना, जिससे कि दुर्गति में जाना पड़े । दुःखों का नाश कर सुखों का देने वाला है, इसलिए उसी धर्म का ऐसे समय में आश्रय लेना परम हितकारी है । हम तुम्हें भी सलाह देते है कि तुम भी सुगति की प्राप्ति के लिए धर्म का आश्रय ग्रहण करो। इसके बाद उन्होंने सोमशर्मा को धर्म का सामान्य स्वरूप समझाया देखो, जो अठारह दोषों से रहित और सबके देखने वाले सर्वज्ञ हैं, वे देव कहाते हैं और ऐसे निर्दोष भगवान् द्वारा बताये दयामय मार्ग को धर्म कहते हैं। धर्म का वैसे सामान्य लक्षण है- जो दुःखों से छुड़ाकर सुख प्राप्त करावे । ऐसे धर्म को आचार्यों ने दस भागों में बाँटा है अर्थात् सुख प्राप्त करने के दस उपाय है। वे यह हैं - उत्तम क्षमा, मार्दव- हृदय का कोमल होना, आर्जव - हृदय का सरल होना, सच बोलना, शौच-निर्लोभी या संतोषी होना, संयम - इन्द्रियों को वश में करना, तप-व्रत उपवासादि करना, त्याग-पुण्य से प्राप्त हुए धन को सुकृत के काम जैसे दान, परोपकार आदि में लगाना, आकिंचन-परिग्रह अर्थात् धन-धान्य, चाँदी-सोना, दास-दासी आदि दस प्रकार के परिग्रह की लालसा कम करके आत्मा को शान्ति के मार्ग पर ले जाना और ब्रह्मचर्य का पालना ॥८॥
    गुरु वे कहलाते हैं जो माया, मोह-ममता से रहित हों, विषयों की वासना जिन्हें छू तक न गई हो, जो पक्के ब्रह्मचारी हों, तपस्वी हों और संसार के दुःखी जीवों को हित का रास्ता बतला कर उन्हें सुख प्राप्त कराने वाले हों। इन तीनों पर अर्थात् देव, धर्म, गुरु पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन सुख - स्थान पर पहुँचने की सबसे पहली सीढ़ी है। इसलिए तुम इसे ग्रहण करो। इस विश्वास को जैन शासन या जैनधर्म भी कहते हैं । जैनधर्म में जीव को, जिसे कि आत्मा भी कहते हैं, अनादि माना है। न केवल माना ही है किन्तु वह अनादि ही है। नास्तिकों की तरह वह पंचभूत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ नहीं है क्योंकि ये सब पदार्थ जड़ है। ये देख-जान नहीं सकते और जीव का देखना- जानना ही खास गुण है। इसी गुण से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। जीव को जैनधर्म दो भागों में बाँट देता है । एक भव्य- अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का, जिन्होंने कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप को अनादि से ढाँक रखा है नाश कर मोक्ष जाने वाले और दूसरा अभव्य - जिसमें कर्मों के नाश करने की शक्ति न हो। इनमें कर्मयुक्त जीव को संसारी कहते हैं और कर्म रहित को मुक्त। जीव के सिवा संसार में एक और द्रव्य है उसे अजीव या पुद्गल कहते हैं। इसमें जानने देखने की शक्ति नहीं होती, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अजीव को जैनधर्म पाँच भागों में बाँटता है, जैसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इन पाँचों की दो श्रेणियाँ की गई हैं। एक मूर्तिक और दूसरी अमूर्तिक । मूर्तिक उसे कहते हैं जो छुई जा सके, जिसमें कुछ न कुछ स्वाद हो, गन्ध और वर्ण रूप-रंग हो अर्थात् जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये बातें पाई जाये वह मूर्तिक है और जिसमें ये न हों वह अमूर्तिक है । उक्त पाँच द्रव्यों में सिर्फ पुद्गल तो मूर्तिक है अर्थात् इसमें उक्त चारों बातें सदा से हैं और रहेंगी-कभी उससे जुदा न होंगी। इसके सिवा धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अमूर्तिक हैं । इन सब विषयों का विशेष खुलासा अन्य जैन ग्रन्थों में किया है। प्रकरणवश तुम्हें यह सामान्य स्वरूप कहा । विश्वास है अपने हित के लिए इसे ग्रहण करने का यत्न करोगे ॥९-११॥
    सोमशर्मा को यह उपदेश बहुत पसन्द पड़ा। उसने मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को स्वीकार कर लिया। इसके बाद जिनदत्त - वसुमित्र की तरह वह भी संन्यास ले भगवान् का ध्यान करने लगा। सोमशर्मा को भूख-प्यास, डाँस - मच्छर आदि की बहुत बाधा सहनी पड़ी। उसे उसने बड़ी धीरता के साथ सहा। अन्त में समाधि से मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से श्रेणिक महाराज का अभयकुमार नाम का पुत्र हुआ । अभयकुमार बड़ा ही धीर - वीर और पराक्रमी था, परोपकारी था । अन्त में वह कर्मों का नाश कर मोक्ष गया ॥ १२-१५॥
    सोमशर्मा की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद जिनदत्त और वसुमित्र की भी समाधि से मृत्यु हुई वे दोनों भी इसी सौधर्म स्वर्ग में, जहाँ कि सोमशर्मा देव हुआ था, देव हुए ॥१६॥
    संसार का उपकार करने वाले और पुण्य के कारण जिनके उपदेश किए धर्म को कष्ट समय में भी धारण कर भव्यजन उस कठिन से कठिन सुख को, जिसके कि प्राप्त करने की उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं होती, प्राप्त कर लेते हैं, वे सर्वज्ञ भगवान् मुझे वह निर्मल सुख दें, जिस सुख की इन्द्र, चक्री और विद्याधर राजा पूजा करते हैं ॥१७॥
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