७४. वृषभसेन की कथा
जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी और ज्ञान के समुद्र साधुओं को नमस्कार कर वृषभसेन की उत्तम कथा लिखी जाती है ॥१॥
दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुण्डल नगर के राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे और रिष्टामात्य नाम का इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा - मिथ्यात्वी और जैनधर्म का बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं ॥२-३॥
एक दिन श्रीवृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिए कुण्डल नगर की ओर आए। वैश्रवण उनके आने के समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिए उनकी वन्दना को गया। भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना की और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सच है, इस सर्वोच्च और सब सुखों के देने वाले जैनधर्म का उपदेश सुनकर कौन सद्गति - का पात्र सुखी न होगा? ॥४-८॥
राजमंत्री भी मुनिसंघ के पास आया। पर वह इसलिए नहीं कि वह उनकी पूजा - स्तुति करे किन्तु उनसे वाद-शास्त्रार्थ कर उनका मान भंग करने, लोगों की श्रद्धा उन पर से उठा देने। पर यह उसकी भूल थी। कारण, जो दूसरों के लिए कुँआ खोदते हैं उनमें पहले उन्हें ही गिरना पड़ता है। यही हुआ भी। मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान भी उसी का हुआ। मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा। उस अपमान की उसके हृदय पर गहरी चोट लगी। इसका बदला चुकाना निश्चित कर वह शाम को छुपा हुआ मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थान में वह ठहरा था उसमें उस पापी ने आग लगा दी। बड़े दुःख की बात है कि दुर्जनों का स्वभाव एक विलक्षण ही तरह का होता है। वे स्वयं तो पहले दूसरों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं और जब उन्हें अपने कृत का फल मिलता है तब वे यह समझ कर, कि मेरा इसने बुरा किया, दूसरे निर्दोष सत्पुरुषों पर क्रोध करते हैं और फिर उनसे बदला लेने के लिए उन्हें नाना प्रकार के कष्ट देते हैं ॥९-११॥
जो हो, मंत्री ने अपनी दुष्टता में कोई कसर न की । मुनिसंघ पर उसने बड़ा ही भयंकर उपसर्ग किया। पर उन तत्त्वज्ञानी - वस्तु स्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवाह न कर बड़ी सहन-शीलता के साथ सब कुछ सह लिया और अन्त में अपने - अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही मोक्ष गए और कितने ही स्वर्ग में ॥१२॥
दुष्ट पुरुष सत्पुरुषों को कितना ही कष्ट क्यों न पहुँचावे उससे खराबी उन्हीं की है उन्हें ही दुर्गति में दुःख भोगना पड़ेंगे और सत्पुरुष तो ऐसे कष्ट के समय में भी अपनी प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहकर अपना धर्म अर्थात् कर्तव्य पालन कर सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे। जैसा कि उक्त मुनिराजों ने किया ॥१३॥
वे मुनिराज आप लोगों को भी सुख दें, जिन्होंने ध्यानरूपी पर्वत का आश्रय ले बड़ा दुःसह उपसर्ग जीता, अपने कर्तव्य से सर्वश्रेष्ठ कहलाने का सम्मान लाभ किया और अन्त में अपने उच्च भावों से मोक्ष सुख प्राप्त कर देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि द्वारा पूजा को प्राप्त हुए और संसार में सबसे पवित्र गिने जाने लगे ॥१४॥
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