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२. भट्टाकलंकदेव की कथा


admin

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मैं जीवों को सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार करके इस अध्याय में भट्टाकलंकदेव की कथा लिखता हूँ, जो कि सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाली है ॥१॥

भारतवर्ष में एक मान्यखेट नाम का नगर था। उसके राजा थे शुभतुंग और उनके मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था। पुरुषोत्तम की गृहिणी पद्मावती थी। उसके दो पुत्र हुए। उनके नाम थे अकलंक और निकलंक। वे दोनों भाई बड़े बुद्धिमान् गुणी थे ॥२-३॥

एक दिन की बात है कि अष्टाह्निका पर्व की अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम और उसकी गृहिणी बड़ी विभूति के साथ चित्रगुप्त मुनिराज की वन्दना करने को गए साथ में दोनों भाई भी गए। मुनिराज की वन्दना कर इनके माता-पिता ने आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य लिया और साथ ही विनोदवश अपने दोनों पुत्रों को भी उन्होंने ब्रह्मचर्य दिला दिया ॥४-५॥

कुछ दिनों के बाद पुरुषोत्तम ने अपने पुत्रों के ब्याह की आयोजना की । यह देख दोनों भाईयों ने मिलकर पिता से कहा - पिताजी ! इतना भारी आयोजन, इतना परिश्रम आप किसलिए कर रहे हैं? अपने पुत्रों की भोली बात सुनकर पुरुषोत्तम ने कहा- यह सब आयोजन तुम्हारे ब्याह के लिए है। पिता का उत्तर सुनकर दोनों भाइयों ने फिर कहा - पिताजी ! अब हमारा ब्याह कैसा? आपने तो हमें ब्रह्मचर्य दिलवा दिया था न? पिता ने कहा नहीं, वह तो केवल विनोद से दिया गया था। उन बुद्धिमान् भाइयों ने कहा-पिताजी ! धर्म और व्रत में विनोद कैसा? यह हमारी समझ में नहीं आया । अच्छा आपने विनोद ही से दिया सही, तो अब उसके पालन करने में भी हमें लज्जा कैसी ? पुरुषोत्तम ने फिर कहा- अस्तु! जैसा तुम कहते हो वही सही, पर तब तो केवल आठ ही दिन के लिए ब्रह्मचर्य दिया था न ? दोनों भाइयों ने कहा - पिताजी! हमें आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य दिया गया था, इसका न तो आपने हमसे खुलासा कहा था और न आचार्य महाराज ने ही । तब हम कैसे समझें कि वह व्रत आठ ही दिन के लिए था। इसलिए हम तो अब उसका आजन्म पालन करेंगे, ऐसी हमारी दृढ़ प्रतिज्ञा है । हम अब विवाह नहीं करेंगे। यह कहकर दोनों भाइयों ने घर का सब कारोबार छोड़कर और अपना चित्त शास्त्राभ्यास की ओर लगाया। थोड़े ही दिनों में वे अच्छे विद्वान् बन गए। इनके समय में बौद्धधर्म का बहुत जोर था इसलिए उन्हें उसके तत्त्व जानने की इच्छा हुई। उस समय मान्यखेट में ऐसा कोई बौद्ध विद्वान् नहीं था, जिससे वे बौद्धधर्म का अभ्यास करते। इसलिए वे एक अज्ञ विद्यार्थी का वेश बनाकर महाबोधि नामक स्थान में बौद्धधर्माचार्य के पास गए। आचार्य ने इनकी अच्छी तरह परीक्षा करके कि कहीं ये छली तो नहीं हैं और जब उन्हें इनकी ओर से विश्वास हो गया तब वे और शिष्यों के साथ-साथ उन दोनों को भी पढ़ाने लगे। वे भी अन्तरंग में तो पक्के जिनधर्मी और बाहर से एक महामूर्ख बनकर स्वर व्यंजन सीखने लगे । निरन्तर बौद्धधर्म सुनते रहने से अकलंकदेव की बुद्धि बड़ी विलक्षण हो गई, उन्हें एक ही बार के सुनने से कठिन से कठिन बात भी याद हो जाने लगी और निकलंक को दो बार सुनने से याद होने लगा अर्थात् अकलंक एक संस्थ और निकलंक दो संस्थ हो गए। इस प्रकार वहाँ रहते दोनों भाइयों का बहुत समय बीत गया ॥६- १९॥

एक दिन की बात है बौद्धगुरु अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे । उस समय प्रकरण था, , जैनधर्म के सप्तभंगी सिद्धान्त का। वहाँ कोई अशुद्ध पाठ आ गया, जो बौद्धगुरु की समझ न आया, तब वे अपने व्याख्यान को वहीं समाप्त कर कुछ समय के लिए बाहर चले आए। अकलंक बुद्धिमान् थे, वे बौद्धगुरु के भाव समझ गए; इसलिए उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उस पाठ को शुद्ध कर दिया और उसकी खबर किसी को न होने दी। इतने में पीछे बौद्धगुरु आए। उन्होंने अपना व्याख्यान आरम्भ किया। जो पाठ अशुद्ध था, वह अब देखते ही उनकी समझ में गया । यह देख उन्हें सन्देह हुआ कि अवश्य इस जगह कोई जिनधर्मरूप समुद्र का बढ़ाने वाला चन्द्रमा है और वह हमारे धर्म के नष्ट करने की इच्छा से बौद्धवेष धारण कर बौद्धशास्त्र का अभ्यास कर रहा है । उसका जल्दी ही पता लगाकर उसे मरवा डालना चाहिए। इस विचार के साथ ही बौद्धगुरु ने सब विद्यार्थियों को शपथ, प्रतिज्ञा आदि देकर पूछा, पर जैनधर्मी का पता उन्हें नहीं लगा। इसके बाद उन्होंने जिनप्रतिमा मँगवाकर उसे लाँघ जाने के लिए सबको कहा । सब विद्यार्थी तो लाँघ गए, अब अकलंक की बारी आई, उन्होंने अपने कपड़े में से एक सूत का सूक्ष्म धागा निकालकर उसे प्रतिमा पर डाल दिया और उसे परिग्रही समझकर वे झट से लाँघ गए। यह कार्य इतनी जल्दी किया गया कि किसी की समझ में न आया। बौद्धगुरु इस युक्ति में भी जब कृतकार्य नहीं हुए, तब उन्होंने एक और नई युक्ति की । उन्होंने बहुत से काँसे के बर्तन इकट्ठे करवाए और उन्हें एक बड़ी भारी गौन में भरकर वह बहुत गुप्त रीति से विद्यार्थियों के सोने की जगह के पास रखवा दी और विद्यार्थियों की देखरेख के लिए अपना एक-एक गुप्तचर रख दिया ॥२०-२८॥

आधी रात का समय था । सब विद्यार्थी निडर होकर निद्रादेवी की गोद में सुख का अनुभव कर रहे थे। किसी को कुछ मालूम न था कि हमारे लिए क्या-क्या षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं। एकाएक बड़ा विकराल शब्द हुआ। मानों आसमान से बिजली टूटकर पड़ी। सब विद्यार्थी उस भयंकर आवाज से काँप उठे। वे अपना जीवन बहुत थोड़े समय के लिए समझकर अपने उपास्य परमात्मा का स्मरण कर उठे। अकलंक और निकलंक भी पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करने लग गए । पास ही बौद्धगुरु का जासूस खड़ा हुआ था। वह उन्हें बुद्ध भगवान् का स्मरण करने की जगह जिन भगवान् का स्मरण करते देखकर बौद्धगुरु के पास ले गया और गुरु से उसने प्रार्थना की । प्रभो! आज्ञा कीजिए कि इन दोनों धूर्तों का क्या किया जाये ? ये ही जैनी हैं। सुनकर वह दुष्ट बौद्धगुरु बोला-इस समय रात थोड़ी बीती है, इसलिए इन्हें ले जाकर कैदखाने में बन्द कर दो, जब आधी रात हो जाये तब इन्हें मार डालना। गुप्तचर ने दोनों भाइयों को ले जाकर कैदखाने में बन्द कर दिया ॥२९-३२॥

अपने पर एक महाविपत्ति आई देखकर निकलंक ने बड़े भाई से कहा- भैया ! हम लोगों ने इतना कष्ट उठाकर तो विद्या प्राप्त की, पर कष्ट है कि उसके द्वारा हम कुछ भी जिनधर्म की सेवा न कर सके और एकाएक हमें मृत्यु का सामना करना पड़ा। भाई की दुःखभरी बात सुनकर महाधीर-वीर अकलंक ने कहा-प्रिय! तुम बुद्धिमान् हो, तुम्हें भय करना उचित नहीं । घबराओ मत। अब भी हम अपने जीवन की रक्षा कर सकेंगे। देखो मेरे पास यह छत्री है, इसके द्वारा अपने को छुपाकर हम लोग यहाँ से निकल चलते हैं। अभी हम शीघ्र ही अपने स्थान पर जा पहुँचते हैं। यह विचार करके दोनों भाई दबे पाँव निकल गए और जल्दी-जल्दी रास्ता तय करने लगे ॥३३-३७॥

इधर जब आधी रात बीत चुकी और बौद्धगुरु की आज्ञानुसार उन दोनों भाइयों के मारने का समय आया; तब उन्हें पकड़ लाने के लिए नौकर लोग दौड़ाए गए, पर वे कैदखाने में जाकर देखते हैं तो वहाँ कोई भी नहीं । सभी को उनके एकाएक गायब हो जाने से बड़ा आश्चर्य हुआ । पर कर क्या सकते थे। उन्हें उनके कहीं आस-पास ही छुपे रहने का सन्देह हुआ। उन्होंने आस-पास के वन, जंगल, खंडहर, बावड़ी, कुँए, पहाड़, गुफाएँ आदि सब एक-एक करके ढूँढ़ डाले, पर उनका कहीं पता न चला। उन पापियों को तब भी सन्तोष न हुआ सो उनको मारने की इच्छा से अश्व द्वारा उन्होंने यात्रा की। उनकी दयारूपी बेल क्रोधरूपी दावाग्नि से खूब ही झुलस गई थी, इसीलिए उन्हें ऐसा करने को बाध्य होना पड़ा। दोनों भाई भागते जाते थे और पीछे फिर-फिर कर देखते जाते थे कि कहीं किसी ने हमारा पीछा तो नहीं किया है। पर उनका सन्देह ठीक निकला, दूर तक देखा तो उन्हें आकाश में धूल उठती हुई दिखाई पड़ी। निकलंक ने बड़े भाई से कहा- भैया ! हम लोग जितना कुछ करते हैं, वह सब निष्फल जाता है । जान पड़ता है दैव ने अपने से पूर्ण शत्रुता बाँधी है। खेद है परम पवित्र जिनशासन की हम लोग कुछ भी सेवा न कर सके और मृत्यु ने बीच ही में आकर धर दबाया। भैया! देखो, तो पापी लोग हमें मारने के लिए पीछा किए चले आ रहे हैं। अब रक्षा होना असंभव है। हाँ, मुझे एक उपाय सूझ पड़ा है उसे आप करेंगे तो जैनधर्म का बड़ा उपकार होगा । आप बुद्धिमान् हैं, एक संस्थ है। आपके द्वारा जैनधर्म का खूब प्रकाश होगा। देखते हैं - वह सरोवर है । उसमें बहुत से कमल हैं। आप जल्दी जाइए और तालाब में उतरकर कमलों में अपने को छुपा लीजिए । जाइए, जल्दी कीजिए; देरी का काम नहीं है । शत्रु पास पहुँचे आ रहे हैं। आप मेरी चिन्ता न कीजिए। मैं भी जहाँ तक बन पड़ेगा, जीवन की रक्षा करूँगा और यदि मुझे अपना जीवन देना भी पड़े तो मुझे उसकी कुछ परवाह नहीं, जबकि मेरा प्यारा भाई जीवित रहकर पवित्र जिनशासन की भरपूर सेवा करेगा। आप जाइए भैया! मैं अब यहाँ से भागता हूँ ॥३८-४२॥ विद्यापीठ

अकलंक की आँखों से आँसुओं की धार बह चली। उनका गला भ्रातृप्रेम से भर आया। वे भाई से एक अक्षर भी न कह पाए कि निकलंक वहाँ से भाग खड़ा हुआ। लाचार होकर अकलंक को अपने जीवन की नहीं, पवित्र जिनशासन की रक्षा के लिए कमलों में छुपना पड़ा। उनके लिए कमलों का आश्रय केवल दिखाऊ था। वास्तव में तो उन्होंने जिसके बराबर संसार में कोई आश्रय नहीं हो सकता, उस जिनशासन का आश्रय लिया था ॥४३-४४॥

निकलंक भाई से विदा हो, जी छोड़कर भागा जा रहा था, रास्ते में उसे एक धोबी कपड़े धो हुए मिला। धोबी ने आकाश में धूल की घटा छाई हुई देखकर निकलंक से पूछा, यह क्या हो रहा है? और तुम ऐसे जी छोड़कर क्यों भागे जा रहे हो? निकलंक ने कहा- पीछे शत्रुओं की सेना आ रही है । उन्हें जो मिलता है उसे ही वह मार डालती है इसीलिए मैं भागा जा रहा हूँ। ऐसा सुनते ही धोबी भी कपड़े वगैरह सब वैसे ही छोड़कर निकलंक के साथ भाग खड़ा हुआ। वे दोनों बहुत भागे, पर आखिर कहाँ तक भाग सकते थे? सवारों ने उन्हें धर पकड़ा और उसी समय अपनी चमचमाती हुई तलवार से दोनों का शिर काटकर वे अपने मालिक के पास ले गए। सच है पवित्र जिनधर्म अहिंसा धर्म से रहित मिथ्यात्व को अपनाए हुए पापी लोगों के लिए ऐसा कौन महापाप बाकी रह जाता है, जिसे वे नहीं करते। जिनके हृदय में जीवमात्र को सुख पहुँचाने वाले जिनधर्म का लेश भी नहीं है, उन्हें दूसरों पर दया आ भी कैसे सकती है ? ॥४५-५० ॥

उधर शत्रु अपना काम कर वापस लौटे और इधर अकलंक अपने को निर्विघ्न समझ सरोवर से निकले और निडर होकर आगे बढ़े। वहाँ से चलते-चलते वे कुछ दिनों बाद कलिंग देशान्तर्गत रत्नसंचयपुर नामक शहर में पहुँचे। इसके बाद का हाल हम नीचे लिखते हैं ॥५१-५२॥

उस समय रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल थे। उनकी रानी का नाम मदनसुन्दरी था। वह जिन भगवान् की बड़ी भक्त थी। उसने स्वर्ग और मोक्ष सुख के देने वाले पवित्र जिनधर्म की प्रभावना के लिए अपने बनवाये हुए जिनमन्दिर में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन से रथयात्रोत्सव का आरम्भ करवाया था। उसमें उसने बहुत द्रव्य व्यय किया था ॥५३-५५॥

वहाँ संघश्री नामक बौद्धों का प्रधान आचार्य रहता था । उसे महारानी का कार्य सहन नहीं हुआ। उसने महाराज से कहकर रथयात्रोत्सव अटका दिया और साथ ही वहाँ जिनधर्म का प्रचार न देखकर शास्त्रार्थ के लिए घोषणा भी करवा दी । महाराज शुभतुंग ने अपनी महारानी से कहा-प्रिये, जब तक कोई जैन विद्वान् बौद्धगुरु के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव न फैलाएगा, तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है। महाराज की बातें सुनकर रानी को बड़ा खेद हुआ । पर वह कर ही क्या सकती थी। उस समय कौन उसकी आशा पूरी कर सकता था। वह उसी समय जिनमन्दिर गई और वहाँ मुनियों को नमस्कार कर उनसे बोली- प्रभो, बौद्धगुरु ने मेरा रथयात्रोत्सव रुकवा दिया है। वह कहता है कि पहले मुझसे शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर लो, फिर रथोत्सव करना । बिना ऐसा किए उत्सव न हो सकेगा। इसलिए मैं आपके पास आई हूँ। बतलाइए जैनदर्शन का अच्छा विद्वान् कौन है, जो बौद्धगुरु को जीतकर मेरी इच्छा पूरी करे? सुनकर मुनि बोले- इधर आसपास तो ऐसा विद्वान् नहीं दिखता जो बौद्धगुरु का सामना कर सके । हाँ मान्यखेट नगर में ऐसे विद्वान् अवश्य हैं। उनके बुलाने का आप प्रयत्न करें तो सफलता प्राप्त हो सकती है। रानी ने कहा- वाह, आपने बहुत ठीक कहा, सर्प तो सिर के पास फुंकार कर रहा है और कहते हैं कि गारुड़ी दूर है | भला, इससे क्या सिद्धि हो सकती है ? अस्तु ! जान पड़ा कि आप लोग इस विपत्ति का सद्य; प्रतिकार नहीं कर सकते । दैव को जिनधर्म का पतन कराना ही इष्ट मालूम देता है । जब मेरे पवित्र धर्म की दुर्दशा होगी, तब मैं ही जीकर क्या करूँगी ? यह कहकर महारानी राजमहल से अपना सम्बन्ध छोड़कर जिनमन्दिर गई और उसने यह दृढ़ प्रतिज्ञा की-‘“जब संघश्री का मिथ्याभिमान चूर्ण होकर मेरा रथोत्सव बड़े ठाठ-बाट के साथ निकलेगा और जिनधर्म की खूब प्रभावना होगी, तब ही मैं भोजन करूँगी, नहीं तो वैसे ही निराहार रहकर मर मिटँगी; पर अपनी आँखों से पवित्र जैनशासन की दुर्दशा कभी नहीं देखूँगी।" ऐसा हृदय में निश्चय कर मदनसुन्दरी जिन भगवान् के सन्मुख कायोत्सर्ग धारण कर पंच नमस्कार मंत्र की आराधना करने लगी । उस समय उसकी ध्यान निश्चय अवस्था बड़ी ही मनोहर दीख पड़ती थी । मानों सुमेरु गिरि की श्रेष्ठ निश्चल चूलिका हो।‘“भव्यजीवों को जिनभक्ति का फल अवश्य मिलता है।” इस नीति के अनुसार महारानी भी उससे वंचित नहीं रही । महारानी के निश्चय ध्यान के प्रभाव से पद्मावती का आसन कंपित हुआ ॥५६-६७॥

वह आधी रात के समय आई और महारानी से बोली- देवी, जब तुम्हारे हृदय में जिन भगवान् के चरण कमल शोभित हैं, तब तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उनके प्रसाद से तुम्हारा मनोरथ नियम से पूर्ण होगा। सुनो, कल प्रातःकाल ही अकलंकदेव इधर आएँगे, वे जैनधर्म के बड़े भारी विद्वान् हैं। वे ही संघश्री का दर्प चूर्णकर जिनधर्म की खूब प्रभावना करेंगे और तुम्हारा रथोत्सव का कार्य निर्विघ्न समाप्त करेंगे। उन्हें अपने मनोरथों के पूर्ण करने वाले मूर्तिमान शरीर समझो। यह कहकर पद्मावती अपने स्थान चली गईं ॥६८-७२॥

देवी की बात सुनकर महारानी अत्यन्त प्रसन्न हुई उसने बड़ी भक्ति के साथ जिनभगवान् की स्तुति की और प्रातःकाल होते ही महाभिषेकपूर्वक पूजा की। इसके बाद उसने अपने राजकीय प्रतिष्ठित पुरुषों को अकलंकदेव को ढूँढ़ने को चारों और दौड़ाया। उनमें जो पूर्व दिशा की ओर गए थे, उन्होंने एक बगीचे में अशोक वृक्ष के नीचे बहुत से शिष्यों के साथ एक महात्मा को बैठे देखा । उनके किसी एक शिष्य से महात्मा का परिचय और नाम धाम पूछकर वे अपनी मालकिन के पास आए और सब हाल उन्होंने उससे कह सुनाया सुनकर ही वह धर्मवत्सला खानपान आदि सब सामग्री लेकर अपने साधर्मियों के साथ बड़े वैभव से महात्मा अकलंक के सामने गई, वहाँ पहुँच कर उसने बड़े प्रेम और भक्ति से उन्हें प्रणाम किया। उनके दर्शन से रानी को अत्यन्त आनन्द हुआ। जैसे सूर्य को देखकर कमलिनी को और मुनियों का तत्त्वज्ञान देखकर बुद्धि को आनन्द होता हैं। इसके बाद रानी ने धर्मप्रेम के वश होकर अकलंकदेव की चन्दन, अगुरु, फल, फूल, वस्त्रादि से बड़े विनय के साथ पूजा की और पुनः प्रणाम कर वह उनके सामने बैठ गई, उसे आशीर्वाद देकर पवित्रात्मा अकलंक बोले-देवी, तुम अच्छी तरह तो हो और सब संघ भी अच्छी तरह है न? महात्मा के वचनों को सुनकर रानी की आँखों से आँसू बह निकले, उसका गला भर आया । वह बड़ी कठिनता से बोली- प्रभो, संघ है तो कुशल, पर इस समय उसका घोर अपमान हो रहा है; उसका मुझे बड़ा कष्ट है। यह कहकर उसने संघश्री का सब हाल अकलंक से कह सुनाया । पवित्र धर्म का अपमान अकलंक न सह सके। उन्हें क्रोध हो आया। वे बोले - वह वराक संघ श्री मेरे पवित्र धर्म का अपमान करता है, पर वह मेरे सामने है कितना, इसकी उसे खबर नहीं है। अच्छा देखूँगा उसके अभिमान को कि वह कितना पाण्डित्य रखता है। मेरे साथ खास बुद्ध तक तो शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं रखता, तब वह बेचारा किस गिनती में है? इस तरह रानी को सन्तुष्ट करके अकलंक ने संघ श्री के शास्त्रार्थ के विज्ञापन की स्वीकारता उसके पास भेज दी और आप बड़े उत्सव के साथ जिनमन्दिर आ पहुँचे ॥७३-८६॥

पत्र संघश्री के पास पहुँचा । उसे देखकर और उसकी लेखन शैली को पढ़कर उसका चित्त क्षुभित हो उठा। आखिर उसे शास्त्रार्थ के लिए तैयार होना ही पड़ा ॥८७॥

अकलंक के आने के समाचार महाराज हिमशीतल के पास पहुँचे। उन्होंने उसी समय बड़े आदर सम्मान के साथ उन्हें राजसभा में बुलवाकर संघ श्री के साथ उनका शास्त्रार्थ कराया। संघ श्री उनके साथ शास्त्रार्थ करने को तो तैयार हो गया, पर जब उसने अकलंक के प्रश्नोत्तर करने का पाण्डित्य देखा और उससे अपनी शक्ति की तुलना की, तब उसे ज्ञान हुआ कि मैं अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने में असक्त हूँ, पर राजसभा में ऐसा कहना भी उसने उचित न समझा क्योंकि उससे उसका अपमान होता । तब उसने एक नई युक्ति सोचकर राजा से कहा- महाराज, यह धार्मिक विषय है, इसका निर्णय होना कठिन है। इसलिए मेरी इच्छा है कि यह शास्त्रार्थ सिलसिलेबार तब तक चलना चाहिए जब तक कि एक पक्ष पूर्ण निरुत्तर न हो जाये। राजा ने अकलंक की अनुमति लेकर संघश्री के कथन को मान लिया। उस दिन का शास्त्रार्थ बन्द हुआ। राजसभा भंग हुई ॥८८-८९॥

अपने स्थान पर आकर संघ श्री ने जहाँ-जहाँ बौद्धधर्म के विद्वान् रहते थे, उनको बुलवाने को अपने शिष्यों को दौड़ाया और स्वयं ने रात्रि के समय अपने धर्म की अधिष्ठात्री देवी की आराधना की। देवी उपस्थित हुई संघश्री ने उससे कहा- देखती हो, धर्म पर बड़ा संकट उपस्थित हुआ है। उसे दूरकर धर्म की रक्षा करनी होगी। अकलंक बड़ा पंडित है। उसके साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त करना असम्भव था इसीलिए मैंने तुम्हें कष्ट दिया है। यह शास्त्रार्थ मेरे द्वारा तुम्हें करना होगा और अकलंक को पराजित कर बुद्धधर्म की महिमा प्रकट करनी होगी । बोलो, क्या कहती हो? उत्तर में देवी ने कहा- हाँ, मैं शास्त्रार्थ करूँगी सही, पर खुली सभा में नहीं; किन्तु परदे के भीतर घड़े में रहकर । 'तथास्तु' कहकर संघश्री ने देवी को विसर्जित किया और आप प्रसन्नता के साथ दूसरी निद्रा देवी की गोद में जा लेटा ॥९०-९३॥

प्रातःकाल हुआ। शौच, स्नान, देवपूजन आदि नित्य कर्म से छुट्टी पाकर संघश्री राजसभा में पहुँचा और राजा से बोला- महाराज, हम आज से शास्त्रार्थ परदे के भीतर रहकर करेंगे। हम शास्त्रार्थ के समय किसी का मुँह नहीं देखेंगे। आप पूछेंगे क्यों? इसका उत्तर अभी न देकर शास्त्रार्थ के अन्त में दिया जायेगा। राजा संघश्री के कपट जाल को कुछ नहीं समझ सके । उसने जैसा कहा वैसा उन्होंने स्वीकार कर उसी समय वहाँ एक परदा लगवा दिया। संघ श्री ने उसके भीतर जाकर बुद्ध भगवान् की पूजा की और देवी की पूजा कर एक घड़े में आह्वान किया। धूर्त लोग बहुत कुछ छल कपट करते हैं, पर अन्त में उसका फल अच्छा न होकर बुरा ही होता हैं ॥९४-९६॥

इसके बाद घड़े की देवी अपने में जितनी शक्ति थी, उसे प्रकट कर अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने लगी। इधर अकलंकदेव भी देवी के प्रतिपादन किए हुए विषय का अपनी दिव्य भारती द्वारा खण्डन और अपने पक्ष का समर्थन तथा परपक्ष का खण्डन करने वाले परम पवित्र अनेकान्त - स्याद्वाद मत का समर्थन बड़े ही पाण्डित्य के साथ निडर होकर करने लगे । इस प्रकार शास्त्रार्थ होते-होते छह महीने बीत गए, पर किसी की विजय न हो पाई, यह देख अकलंकदेव को बड़ी चिन्ता हुई उन्होंने सोचा-संघश्री साधारण पढ़ा-लिखा और जो पहले ही दिन मेरे सम्मुख थोड़ी देर भी न ठहर सका था, वह आज बराबर छह महीने से शास्त्रार्थ करता चला आता है; इसका क्या कारण है, सो नहीं जान पड़ता। उन्हें इसकी बड़ी चिन्ता हुई पर वे कर ही क्या सकते थे । एक दिन इसी चिन्ता में डूबे हुए थे कि इतने में जिनशासन की अधिष्ठात्री चक्रेश्वरी देवी आई और अकलंकदेव से बोली- प्रभो ! आपके साथ शास्त्रार्थ करने की मनुष्य मात्र में शक्ति नहीं है और बेचारा संघ श्री भी तो मनुष्य है, तब उसकी क्या मजाल जो वह आपसे शास्त्रार्थ करे? पर यहाँ तो बात कुछ और ही है। आपके साथ जो शास्त्रार्थ करता है वह संघश्री नहीं है किन्तु बुद्धधर्म की अधिष्ठात्री तारा नाम की देवी है। इतने दिनों से वही शास्त्रार्थ कर रही है। संघ श्री ने उसकी आराधना कर यहाँ बुलाया है। इसलिए कल जब शास्त्रार्थ होने लगे और देवी उस समय जो कुछ प्रतिपादन करे तब आप उससे उसी विषय का फिर से प्रतिपादन करने के लिए कहिए। वह उसे फिर न कह सकेगी और तब उसे अवश्य नीचा देखना पड़ेगा । यह कहकर देवी अपने स्थान पर चली गई, अकलंकदेव की चिन्ता दूर हुई वे बड़े प्रसन्न हुए ॥९७-१०७॥

प्रातःकाल हुआ । अकलंकदेव अपने नित्यकर्म से मुक्त होकर जिनमन्दिर गए। बड़े भक्तिभाव से उन्होंने भगवान् की स्तुति की। इसके बाद वे वहाँ से सीधे राजसभा में आए। उन्होंने महाराज शुभतुंग को सम्बोधन करके कहा- राजन् ! इतने दिनों तक मैंने जो शास्त्रार्थ किया, उसका यह मतलब नहीं था कि मैं संघश्री को पराजित नहीं कर सका परन्तु ऐसा करने से मेरा अभिप्राय जिनधर्म का प्रभाव बतलाने का था। वह मैंने बतलाया। पर अब मैं इस वाद का अन्त करना चाहता हूँ। मैंने आज निश्चय कर लिया है कि मैं आज इस वाद की समाप्ति करके ही भोजन करूँगा । ऐसा कहकर उन्होंने परदे की ओर देखकर कहा-क्या जैनधर्म के सम्बन्ध में कुछ और कहना बाकी है या मैं शास्त्रार्थ समाप्त करूँ? वे कहकर जैसे ही चुप रहे कि परदे की ओर से फिर वक्तव्य आरम्भ हुआ । देवी अपना पक्ष समर्थन करके चुप हुई कि अकलंकदेव ने उसी समय कहा- जो विषय अभी कहा गया है, उसे फिर से कहो? वह मुझे ठीक नहीं सुन पड़ा। आज अकलंक का यह नया ही प्रश्न सुनकर देवी का साहस एक साथ ही न जाने कहाँ चला गया। देवता जो कुछ बोलते वे एक ही बार बोलते हैं- उसी बात को वे पुनः नहीं बोल पाते। तारा देवी का भी यही हाल हुआ। वह अकलंकदेव के प्रश्न का उत्तर न दे सकी। आखिर उसे अपमानित होकर भाग जाना पड़ा। जैसे सूर्योदय से रात्रि भाग जाती है ॥१०८-११२॥

इसके बाद ही अकलंकदेव उठे और परदे को फाड़कर उसके भीतर घुस गए। वहाँ जिस घड़े में देवी का आह्वान किया गया था, उसे उन्होंने पाँव की ठोकर से फोड़ डाला। संघश्री सरीखे जिनशासन के शत्रुओं का, मिथ्यात्वियों का अभिमान चूर्ण किया। अकलंक की इस विजय और जिनधर्म की प्रभावना से मदनसुन्दरी और सर्वसाधारण को बड़ा आनन्द हुआ। अकलंक ने सब लोगों के सामने जोर देकर कहा - सज्जनों! मैंने इस धर्मशून्य संघ श्री को पहले ही दिन पराजित कर दिया था किन्तु इतने दिन जो देवी के साथ शास्त्रार्थ किया, वह जिनधर्म का माहात्म्य प्रकट करने के लिए और सम्यग्ज्ञान का लोगों के हृदय पर प्रकाश डालने के लिए था। यह कहकर अकलंकदेव ने इस श्लोक को पढ़ा ॥११३-११८॥

अर्थात्-महाराज, हिमशीतल की सभा में मैंने सब बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को ठुकराया, यह न तो अभिमान के वश होकर किया और न किसी प्रकार द्वेषभाव से किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आई इसलिए उनकी दया से बाध्य होकर मुझे ऐसा करना पड़ा।

उस दिन से बौद्धों का राजा और प्रजा के द्वारा चारों और अपमान होने लगा। किसी की बुद्धधर्म पर श्रद्धा नहीं रही। सब उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे । यही कारण है बौद्ध लोग यहाँ से भागकर विदेशों में जा बसे ॥११९॥

महाराज हिमशीतल और प्रजा के लोग जिनशासन की प्रभावना देखकर बड़े खुश हुए। सबने मिथ्यात्व मत छोड़कर जिनधर्म स्वीकार किया और अकलंकदेव का सोने, रत्न आदि के अलंकारों से खूब आदर सम्मान किया, खूब उनकी प्रशंसा की । सच बात है जिन भगवान् के पवित्र सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से कौन सत्कार का पात्र नहीं होता ॥१२०-१२२॥

अकलंकदेव के प्रभाव से जिनशासन का उपद्रव टला देखकर महारानी मदनसुन्दरी ने पहले से भी कई गुणे उत्साह से रथ निकलवाया। रथ बड़ी सुन्दरता के साथ सजाया गया था। उसकी शोभा देखते ही बन पड़ती थी। वह वेशकीमती वस्त्र था, छोटी-छोटी घंटियाँ उसके चारों ओर लगी हुई थी, उनकी मधुर आवाज एक बड़े घंटे की आवाज से मिलकर, जो कि उन घंटियों के ठीक बीच में था, बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी, उस पर रत्नों और मोतियों की माला से अपूर्व शोभा दे रही थी, उसके ठीक बीच में रत्नमयी सिंहासन पर जिनभगवान् की बहुत सुन्दर प्रतिमा शोभित थी । वह मौलिक छत्र, चामर, भामण्डल आदि से अलंकृत थी । रथ चलता जाता था और उसके आगे-आगे भव्य पुरुष बड़ी भक्ति के साथ जिनभगवान् की जय बोलते हुए और भगवान् पर अनेक प्रकार के सुगन्धित फूलों की, जिनकी महक से सब दिशाएँ सुगन्धित होतीं थीं, वर्षा करते चले जाते थे। चारणलोग भगवान् की स्तुति पढ़ते जाते थे। कुल कामिनियाँ सुन्दर-सुन्दर गीत गाती जाती थीं । नर्तकियाँ नृत्य करती जातीं थीं। अनेक प्रकार के बाजों का सुन्दर शब्द दर्शकों के मन को अपनी ओर आकर्षित करता था। इन सब शोभाओं से रथ ऐसा जान पड़ता था, मानों पुण्यरूपी रत्नों के उत्पन्न करने को चलने वाला वह एक दूसरा रोहण पर्वत उत्पन्न हुआ है। उस समय जो याचकों को दान दिया जाता था, वस्त्राभूषण वितीर्ण किए जाते थे, उससे रथ की शोभा एक चलते हुए कल्पवृक्ष की सी जान पड़ती थी । हम रथ की शोभा का कहाँ तक वर्णन करें? आप इसी से अनुमान कर लीजिए कि जिसकी शोभा को देखकर ही बहुत से अन्यधर्मी लोगों ने जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया, तब उसकी सुन्दरता का क्या ठिकाना है? इत्यादि दर्शनीय वस्तुओं से सजाकर रथ निकाला गया, उसे देखकर यही जान पड़ता था, मानों महादेवी मदनसुन्दरी की यशोराशि ही चल रही है। वह रथ भव्य-पुरुषों के लिए सुख को देने वाला था। उस सुन्दर रथ की हम प्रतिदिन भावना करते है, उसका ध्यान करते हैं । वह हमें सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी प्रदान करें ॥१२३-१३२॥

जिस प्रकार अकलंकदेव ने सम्यग्ज्ञान की प्रभावना की, उसका महत्त्व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर दिया उसी प्रकार और - और भव्य पुरुषों को भी उचित है कि वे भी अपने से जिस तरह बन पड़े जिनधर्म की प्रभावना करें, जैनधर्म के प्रति उनका जो कर्तव्य है उसे वे पूरा करे। संसार में जिनभगवान् की सदा जय हो, जिन्हें इन्द्र, धरणेन्द्र नमस्कार करते हैं और जिनका ज्ञानरूपी प्रदीप सारे संसार को सुख देने वाला है। श्रीप्रभाचन्द्र मुनि मेरा कल्याण करें, जो गुण रत्नों के उत्पन्न होने के स्थान पर्वत हैं और ज्ञान के समुद्र हैं ॥१३३-१३४॥

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जिस प्रकार अकलंक देव ने जैन धर्म की रक्षा की और जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया। जिस प्रकार अकलंकदेव ने सम्‍यग्‍ज्ञान की प्रभावना की, उसका महत्‍व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर दिया उसी प्रकार भव्‍य पुरूषों को भी जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए और जैनधर्म के प्रति उनका जो कर्तव्‍य है उसे पूरा करना चाहिए। 

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