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४. समन्तभद्राचार्य की कथा


admin

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संसार के द्वारा पूज्य और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाले श्री जिन भगवान् को नमस्कार कर श्री समन्तभद्राचार्य की पवित्र कथा लिखता हूँ, जो कि सम्यक्चारित्र की प्रकाशक है ॥१॥

भगवान् समन्तभद्र का पवित्र जन्म दक्षिणप्रान्त के अन्तर्गत कांची नाम की नगरी में हुआ था। वे बड़े तत्त्वज्ञानी और न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयों के भी बड़े भारी विद्वान् थे। संसार में उनकी बहुत ख्याति थी। वे कठिन से कठिन चारित्र का पालन करते, दुस्सह तप तपते और बड़े आनन्द से अपना समय आत्मानुभव, पठन-पाठन, ग्रन्थरचना आदि में व्यतीत करते ॥२-४॥

कर्मों का प्रभाव दुर्निवार है। उसके लिए राजा हो या रंक हो, धनी हो या निर्धन हो, विद्वान् हो या मूर्ख हो, साधु हो या गृहस्थ हो सब समान हैं, सबको अपने-अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। भगवान् समन्तभद्र के लिए भी एक ऐसा ही कष्ट का समय आया । वे बड़े भारी तपस्वी थे, विद्वान् थे, पर कर्मों ने इन बातों की कुछ परवाह न कर उन्हें अपने चक्र में फँसाया । असातावेदनीय के तीव्र उदय से भस्मक व्याधि नाम का एक भयंकर रोग उन्हें हो गया। उससे वे जो कुछ खाते वह उसी समय भस्म हो जाता और भूख वैसी की वैसी बनी रहती। उन्हें इस बात का बड़ा कष्ट हुआ कि हम विद्वान् हुए और पवित्र जिनशासन का संसार भर में प्रचार करने के लिए समर्थ भी हुए तब भी उसका कुछ उपकार नहीं कर पाते। इस रोग ने असमय में बड़ा कष्ट पहुँचाया। अस्तु । अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे इसकी शान्ति हो । अच्छे-अच्छे स्निग्ध, सच्चिकण और पौष्टिक पकवान का आहार करने से इसकी शान्ति हो सकेगी, इसलिए ऐसे भोजन का योग मिलाना चाहिए, पर यहाँ तो इसका कोई साधन नहीं दीख पड़ता। इसलिए जिस जगह, जिस तरह ऐसे भोजन की प्राप्ति हो सकेगी मैं वहीं जाऊँगा और वैसा ही उपाय करूँगा ॥५- १०॥

यह विचार कर वे कांची से निकले और उत्तर की ओर रवाना हुए। कुछ दिनों तक चलकर वे पुण्द्र नगर में आए। वहाँ बौद्धों की एक बड़ी भारी दानशाला थी । उसे देखकर आचार्य ने सोचा, यह स्थान अच्छा है। यहाँ अपना रोग नष्ट हो सकेगा ॥११- १२॥

इस विचार के साथ ही उन्होंने बौद्ध साधु का वेष बनाकर वहाँ रहे, परन्तु योग्य भोजन नहीं मिला। इसलिए वे फिर उत्तर की ओर आगे बढ़े और अनेक शहरों में घूमते हुए कुछ दिनों के बाद दशपुर-मन्दोसोर में आए। वहाँ उन्होंने भागवत - वैष्णवों का एक बड़ा भारी मठ देखा । उसमें बहुत से भागवत सम्प्रदाय के साधु रहते थे । उनके भक्त लोग उन्हें खूब अच्छा-अच्छा भोजन देते थे । यह देखकर उन्होंने बौद्धवेष को छोड़कर भागवत साधु का वेष ग्रहण कर लिया । वहाँ वे कुछ दिनों तक रहे, फिर उनकी व्याधि के योग्य उन्हें वहाँ भी भोजन नहीं मिला । तब वे वहाँ से भी निकलकर और अनेक देशों और पर्वतों में घूमते हुए बनारस आए। उन्होंने यद्यपि बाह्य में जैनमुनियों के वेष को छोड़कर कुलिंग धारण कर रखा था, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनके हृदय में सम्यग्दर्शन की पवित्र ज्योति जगमगा रही थी। इस वेष में वे ठीक ऐसे जान पड़ते थे, मानों कीचड़ से भरा हुआ कान्तिमान् रत्न हो। इसके बाद आचार्य योगलिंग धारण कर शहर में घूमने लगे ॥१३-१९॥

उस समय बनारस के राजा थे शिवकोटि । वे शिव के बड़े भक्त थे। उन्होंने शिव का एक विशाल मन्दिर बनवाया था। वह बहुत सुन्दर था । उसमें प्रतिदिन अनेक प्रकार के व्यंजन शिव को भेंट चढ़ा करते थे। आचार्य ने देखकर सोचा कि यदि किसी तरह अपनी इस मन्दिर में कुछ दिनों के लिए स्थिति हो जाये, तो निस्सन्देह अपना रोग शान्त हो सकता है। यह विचार वे कर ही रहे कि इतने में पुजारी लोग महादेव की पूजा करके बाहर आए और उन्होंने एक बड़ी भारी व्यंजनों की राशि, जो कि शिव को भेंट चढ़ाई गई थी, लाकर बाहर रख दी। उसे देखकर आचार्य ने कहा, क्या आप लोगों में ऐसी किसी की शक्ति नहीं जो महाराज के भेजे हुए इस दिव्य भोजन को शिव की पूजा के बाद शिव को ही खिला सकें? तब उन ब्राह्मणों ने कहा, तो क्या आप अपने में इस भोजन को शिव को खिलाने की शक्ति रखते हैं? आचार्य ने कहा- हाँ मुझमें ऐसी शक्ति है । सुनकर उन बेचारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उसी समय जाकर यह हाल राजा से कहा-प्रभो! आज एक योगी आया है। उसकी बातें बड़ी विलक्षण हैं। हमने महादेव की पूजा करके उनके लिए चढ़ाया हुआ नैवेद्य बाहर लाकर रखा, उसे देखकर वह योगी बोला कि - " आश्चर्य है, आप लोग इस महादिव्य भोजन को पूजन के बाद महादेव को न खिलाकर पीछे उठा ले आते हो ! भला ऐसी पूजा से कैसा लाभ? उसने साथ ही यह भी कहा कि मुझमें ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा यह सब भोजन मैं महादेव को खिला सकता हूँ। यह कितने खेद की बात है कि जिसके लिए इतना आयोजन किया जाता है, इतना खर्च उठाया जाता है, वह यों ही रह जाये और दूसरे ही उससे लाभ उठावें? यह ठीक नहीं। इसके लिए कुछ प्रबन्ध होना चाहिए, जो जिसके लिए इतना परिश्रम और खर्च उठाया जाता है वही उसका उपयोग भी कर सके।” महाराज को भी इस अभूतपूर्व बात के सुनने से बड़ा अचंभा हुआ। वे इस विनोद को देखने के लिए उसी समय अनेक प्रकार के सुन्दर और सुस्वादु पकवान अपने साथ लेकर शिव मन्दिर गए और आचार्य से बोले- योगिराज! सुना है कि आपमें कोई ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा शिवमूर्ति को भी आप खिला सकते हैं, तो क्या यह बात सत्य है? और सत्य है तो लीजिये यह भोजन उपस्थित है, इसे महादेव को खिलाइए ॥२०-३१॥

उत्तर में आचार्य ने ‘अच्छी बात है' यह कहकर राजा के लाये हुए, सब पकवानों को मन्दिर के भीतर रखवा दिया और सब पुजारी पंडों को मन्दिर से बाहर निकालकर भीतर से आपने मन्दिर के किवाड़ बन्द कर लिए। इसके बाद लगे उसे आप उदरस्थ करने। आप भूखे तो खूब थे ही इसलिए थोड़ी ही देर में सब आहार को हजमकर आपने झट से मन्दिर का दरवाजा खोल दिया और निकलते ही नौकरों को आज्ञा की कि सब बरतन बाहर निकाल लो। महाराज इस आश्चर्य को देखकर भौचक्के से रह गए । वे राजमहल लौट गए। उन्होंने बहुत तर्क-वितर्क उठाये पर उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया कि वास्तव में बात क्या है? ॥३२-३४॥

अब प्रतिदिन एक से एक बढ़कर पकवान आने लगे और आचार्य महाराज भी उनके द्वारा अपनी व्याधि नाश करने लगे । इस तरह पूरे छह महीना बीत गए । आचार्य का रोग भी नष्ट हो गया ॥ ३५॥

एक दिन आहार राशि को ज्यों की त्यों बची हुई देखकर पुजारी-पण्डों ने उनसे पूछा, योगिराज ! यह क्या बात है? क्यों आज यह सब आहार यों ही पड़ा रहा? आचार्य ने उत्तर दिया- राजा की परम भक्ति से भगवान् बहुत खुश हुए, वे अब तृप्त हो गए हैं। पर इस उत्तर से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने जाकर आहार के बाकी बचे रहने का हाल राजा से कहा । सुनकर राजा ने कहा-अच्छा इस बात का पता लगाना चाहिए कि वह योगी मन्दिर के किवाड़ बंदकर भीतर क्या करता है? जब इस बात का  ठीक-ठीक पता लग जाये तब उससे भोजन के बचे रहने का कारण पूछा जा सकता है और फिर उस पर विचार भी किया जा सकता है। बिना ठीक हाल जाने उससे कुछ पूछना ठीक नहीं जान पड़ता ॥३६-३८॥

एक दिन की बात है कि आचार्य कहीं गए हुए थे और पीछे से उन सब ने मिलकर एक चालाक लड़के को महादेव के अभिषेक जल के निकलने की नाली में छुपा दिया और उसे खूब फूल पत्तों से ढक दिया। वह वहाँ छिपकर आचार्य की गुप्त क्रिया देखने लगा ॥३९॥

सदा के माफिक आज भी खूब अच्छे-अच्छे पकवान आए । योगिराज ने उन्हें भीतर रखवाकर भीतर से मन्दिर का दरवाजा बन्द कर दिया और आप लगे भोजन करने। जब आपका पेट भर गया, तब किवाड़ खोलकर आप नौकरों से उस बचे सामान को उठा लेने के लिए कहना ही चाहते थे कि उनकी दृष्टि सामने ही खड़े हुए राजा और ब्राह्मणों पर पड़ी। आज एकाएक उन्हें वहाँ उपस्थित देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। ये झट से समझ गए कि आज अवश्य कुछ न कुछ दाल में काला है। इतने में ही वे ब्राह्मण उनसे पूछ बैठे कि योगिराज ! क्या बात है, जो कई दिनों से बराबर आहार बचा रहता है? क्या शिवजी अब कुछ नहीं खाते? जान पड़ता है, वे अब खूब तृप्त हो गए हैं। इस पर आचार्य कुछ कहना ही चाहते थे कि वह धूर्त लड़का उन फूल पत्तों के नीचे से निकलकर महाराज के सामने आ खड़ा हुआ और बोला- राजा राजेश्वर ! वे योगी तो यह कहते थे कि मैं शिवजी को भोजन कराता हूँ, पर इनका यह कहना बिल्कुल झूठा है। असल में ये शिवजी को भोजन न कराकर स्वयं ही खाते हैं। इन्हें खाते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है। योगिराज ! सब की आँखों में आपने तो बड़ी बुद्धिमानी से धूल झोंकी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप योगी नहीं, किन्तु एक बड़े भारी धूर्त हैं और महाराज ! इनकी धूर्तता तो देखिये, जो शिवजी को हाथ जोड़ना तो दूर रहा उल्टा ये उनका अविनय करते हैं । इतने में वे ब्राह्मण भी बोल उठे, महाराज! जान पड़ता है यह शिवभक्त भी नहीं है । इसलिए इससे शिवजी को हाथ जोड़ने के लिए कहा जाये, तब सब पोल स्वयं खुल जायेगी। सब कुछ सुनकर महाराज ने आचार्य से कहा-अच्छा जो कुछ हुआ उस पर ध्यान न देकर हम यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारा असल धर्म क्या है? इसलिए तुम शिवजी को नमस्कार करो। सुनकर भगवान् समन्तभद्र बोले- राजन्! मैं नमस्कार कर सकता हूँ, पर मेरा नमस्कार स्वीकार कर लेने को शिवजी समर्थ नहीं हैं।

कारण-वे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया आदि विकारों से दूषित हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के पालन का भार एक सामान्य मनुष्य नहीं उठा सकता, उसी प्रकार मेरी पवित्र और निर्दोष नमस्कृति को एक रागद्वेषादि विकारों से अपवित्र देव नहीं सह सकता, किन्तु जो क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अठारह दोषों से रहित हैं, केवलज्ञानरूपी प्रचण्ड तेज का धारक है और लोकालोक का प्रकाशक है, वही जिनसूर्य मेरे नमस्कार के योग्य है और वही उसे सह भी सकता है। इसलिए मैं शिवजी को नमस्कार नहीं करूँगा इसके सिवा भी यदि आप आग्रह करेंगे तो आपको समझ लेना चाहिए कि इस शिवमूर्ति की कुशल नहीं है, यह तुरंत ही फट पड़ेगी। आचार्य की इस बात से राजा का विनोद और भी बढ़ गया । उन्होंने कहा- योगिराज ! आप इसकी चिन्ता न करें, यह मूर्ति यदि फट पड़ेगी तो इसे फट जाने दीजिये, पर आपको तो नमस्कार करना ही पड़ेगा । राजा का बहुत ही आग्रह देख आचार्य ने ‘तथास्तु' कहकर कहा, अच्छा तो कल प्रातःकाल ही मैं अपनी शक्ति का आपको परिचय कराऊँगा।‘अच्छी बात है, यह कहकर राजा ने आचार्य को मन्दिर में बन्द करवा दिया और मन्दिर के चारों ओर नंगी तलवार लिए सिपाहियों का पहरा लगवा दिया। इसके बाद “ आचार्य की सावधानी के साथ देख-रेख की जाये, वे कहीं निकल न भागें" इस प्रकार पहरेदारों को खूब सावधान कर आप राजमहल लौट गए ॥४०-५२॥

आचार्य ने कहते समय तो कह डाला, पर अब उन्हें ख्याल आया कि मैंने यह ठीक नहीं किया । क्यों मैंने बिना कुछ सोचे - विचारे जल्दी से ऐसा कह डाला । यदि मेरे कहने के अनुसार शिवजी की मूर्ति न फटी तब मुझे कितना नीचा देखना पड़ेगा और उस समय राजा क्रोध में आकर न जाने क्या कर बैठे। खैर, उसकी भी कुछ परवाह नहीं, पर इससे धर्म की कितनी हँसी होगी। जिस परमात्मा की राजा के सामने मैं इतनी प्रशंसा कर चुका हूँ, उसे और मेरी झूठ को देखकर सर्व साधारण क्या विश्वास करेंगे आदि एक पर एक चिन्ता उनके हृदय में उठने लगी। पर अब हो भी क्या सकता था । आखिर उन्होंने यह सोचकर कि जो होना था वह तो हो चुका और जो कुछ बाकी है वह कल सबेरे हो जायेगा, अब व्यर्थ चिन्ता से ही लाभ क्या? जिनभगवान् की आराधना में अपने ध्यान को लगाया और बड़े पवित्र भावों से उनकी स्तुति करने लगे ॥५३॥

आचार्य की पवित्र भक्ति और श्रद्धा के प्रभाव से शासनदेवी का आसन कम्पित हुआ। वह उसी समय आचार्य के पास आई और उनसे बोली- हे जिन चरण कमलों के भ्रमर! हे प्रभो! आप किसी बात की चिन्ता न कीजिए । विश्वास रखिये कि जैसा आपने कहा है वह अवश्य ही होगा । आप स्वयंभुवाभूतहितेन भूतले इस पद्यांश को लेकर चतुर्विंशति तीर्थंकरों का एक स्तवन रचियेगा। उसके प्रभाव से आपका कहा हुआ सत्य होगा और शिवमूर्ति भी फट पड़ेगी । इतना कहकर अम्बिका देवी अपने स्थान पर चली गई ॥५४-५८ ॥

आचार्य को देवी के दर्शन से बड़ी प्रसन्नता हुई उनके हृदय की चिन्ता मिटी, आनन्द ने अब उस पर अपना अधिकार किया। उन्होंने उसी समय देवी के कहे अनुसार एक बहुत सुन्दर जिनस्तवन बनाया। वह उसी समय से स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है ॥५९॥

रात सुखपूर्वक बीती। प्रातःकाल हुआ। राजा भी इसी समय वहाँ आ उपस्थित हुआ। उस साथ और भी बहुत से अच्छे-अच्छे विद्वान् आए । अन्य साधारण जनसमूह भी बहुत इकट्ठा हो गया। राजा ने आचार्य को बाहर ले आने की आज्ञा दी । वे बाहर लाये गए। अपने सामने आते हुए आचार्य को खूब प्रसन्न और उनके मुँह को सूर्य के समान तेजस्वी देखकर राजा ने सोचा इनके मुँह पर तो चिन्ता के बदले स्वर्गीय तेज की छटायें छूट रही हैं, इससे जान पड़ता हैं ये अपनी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अस्तु । तब भी देखना चाहिए कि ये क्या करते हैं । इसके साथ ही उसने आचार्य से कहा - योगिराज ! कीजिए नमस्कार, जिससे हम भी आपकी अद्भुत शक्ति का परिचय पा सकें ॥६०-६४॥

राजा की आज्ञा होते ही आचार्य ने संस्कृत भाषा में एक बहुत ही सुन्दर और अर्थपूर्ण जिनस्तवन आरम्भ किया। स्तवन रचते-रचते जहाँ उन्होंने चन्द्रप्रभ भगवान् की स्तुति का चन्द्रप्रभ चन्द्रमरीचिगौरम्  यह पद्यांश रचना शुरू किया कि उसी समय शिवमूर्ति फटी और उसमें से श्रीचन्द्रप्रभ भगवान् की चतुर्मुख प्रतिमा प्रकट हुई इस आश्चर्य के साथ ही जयध्वनि के मारे आकाश गूँज उठा। आचार्य के इस अप्रतिम प्रभाव को देखकर उपस्थित जनसमूह को दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ी। सबके सब आचार्य की ओर देखते के देखते ही रह गए। इसके बाद राजा ने आचार्य महाराज से कहा - योगिराज ! आपकी शक्ति, आपका प्रभाव, आपका तेज देखकर हमारे आश्चर्य का कुछ ठिकाना नहीं रहता। बतलाइए तो आप हैं कौन? और आपने वेष तो शिवभक्त का धारण कर रखा है, पर आप शिवभक्त हैं नहीं। सुनकर आचार्य ने नीचे लिखे दो श्लोक पढ़े- ॥६५-७०॥

‘“मैं कांची में नग्न दिगम्बर साधु होकर रहा । इसके बाद शरीर में रोग हो जाने से पुंद्र नगर में बुद्धभिक्षुक, दशपुर (मंदसौर) में मिष्टान्नभोजी परिव्राजक और बनारस में शैवसाधु बनकर रहा। राजन्, मैं जैन निर्ग्रन्थवादी स्याद्वादी हूँ । जिसकी शक्ति वाद करने की हो, वह मेरे सामने आकर वाद करे।” पहले मैंने पाटलीपुत्र (पटना) में वादभेरी बजाई। इसके बाद मालवा, सिन्धुदेश, ढक्क (ढाका- बंगाल) कांचीपुर और विदिश नामक देश में भेरी बजाई। अब वहाँ से चलकर मैं बड़े-बड़े विद्वानों से भरे हुए इस करहाटक (कराड़जिला सतारा) में आया हूँ । राजन् शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं सिंह के समान निर्भय होकर इधर-उधर घूमता ही रहता हूँ । यह कहकर ही समन्तभद्रस्वामी ने शैव वेष छोड़कर जिनमुनि का वेष धारण कर लिया, जिसमें साधु लोग जीवों की रक्षा के लिए हाथ में मोर की पिच्छिका रखते हैं ॥७१॥

इसके बाद उन्होंने शास्त्रार्थ कर बड़े-बड़े विद्वानों को, जिन्हें अपने पाण्डित्य का अभिमान था, अनेकान्त-स्याद्वाद के बल से पराजित किया और जैन शासन की खूब प्रभावना की, जो स्वर्ग और 

मोक्ष की देने वाली है। भगवान् समन्तभद्र भावी तीर्थंकर हैं । उन्होंने कुदेव को नमस्कार न कर सम्यग्दर्शन का खूब प्रकाश किया, सबके हृदय पर उसकी श्रेष्ठता अंकित कर दी। उन्होंने अनेक एकान्तवादियों को जीतकर सम्यग्ज्ञान का भी उद्योत किया ॥७२-७५॥

आश्चर्य में डालने वाली इस घटना को देखकर राजा की जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा हुई। विवेकबुद्धि ने उसके मन को खूब ऊँचा बना दिया और चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो जाने से उसके हृदय में वैराग्य का प्रवाह बह निकला। उसने उसे सब राज्यभार छोड़ देने के लिए बाध्य किया। शिवकोटि ने क्षणभर में सब मायामोह के जाल को तोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। साधु बनकर उन्होंने गुरु के पास खूब शास्त्रों का अभ्यास किया। इसके बाद उन्होंने श्रीलोहाचार्य के बनाये हुए चौरासी हजार श्लोक प्रमाण आराधना ग्रन्थ को संक्षेप में लिखा । वह इसलिए कि अब दिन पर दिन मनुष्यों की आयु और बुद्धि घटती जाती है और वह ग्रन्थ बड़ा और गंभीर था, सर्व साधारण उससे लाभ नहीं उठा सकते थे । शिवकोटि मुनि के बनाये हुए ग्रन्थ के चवालीस अध्याय हैं और उसकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार है। उससे संसार का बहुत उपकार हुआ ॥७६-८१॥

वह आराधना ग्रन्थ और समन्तभद्राचार्य तथा शिवकोटि मुनिराज मुझे सुख के देने वाले हों तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप परम रत्नों के समुद्र और कामरूपी प्रचंड बलवान् हाथी के नष्ट करने को सिंह समान विद्यानन्दि गुरु और छहों शास्त्रों के अपूर्व विद्वान् तथा श्रुतज्ञान के समुद्र श्रीमल्लिभूषण मुनि मुझे मोक्षश्री प्रदान करें ॥८२-८३॥

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