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१३. वज्रकुमार की कथा


admin

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संसार के परम गुरु जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं प्रभावना अंग के पालन करने वाले श्री वज्रकुमार मुनि की कथा लिखता हूँ ॥१॥

जिस समय की यह कथा है, उस समय हस्तिनापुर के राजा थे बल। वह राजनीति के अच्छे विद्वान् थे, बड़े तेजस्वी थे और दयालु थे । उनके मंत्री का नाम था गरुड़ । उसका एक पुत्र था। उनका नाम सोमदत्त था। वह सब शास्त्रों का विद्वान् था और सुन्दर भी बहुत था । उसे देखकर सब को बड़ा आनन्द होता था। एक दिन सोमदत्त अपने मामा सुभूति के यहाँ गया, जो कि अहिच्छत्रपुर में रहता था। उसने मामा से विनयपूर्वक कहा - मामाजी, यहाँ के राजा से मिलने की मेरी बहुत उत्कंठा है। कृपाकर आप उनसे मेरी मुलाकात करवा दीजिये न? सुभूति ने अभिमान में आकर अपने महाराज से सोमदत्त की मुलाकात नहीं कराई सोमदत्त को मामा की यह बात बहुत खटकी। आखिर वह स्वयं ही दुर्मुख महाराज के पास गया और मामा का अभिमान नष्ट करने के लिए राजा को अपने पाण्डित्य और प्रतिभाशालिनी बुद्धि का परिचय कराकर स्वयं भी उनका राजमंत्री बन गया । ठीक भी है सबको अपनी ही शक्ति सुख देने वाली होती है ॥२- ७॥

सुभूति को अपने भानजे का पाण्डित्य देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई उसने उसके साथ अपनी यज्ञदत्ता नाम की पुत्री को ब्याह दिया। दोनों दम्पत्ति सुख से रहने लगे। कुछ दिनों बाद यज्ञदत्ता के गर्भ रहा॥८-९॥

समय चातुर्मास का था । यज्ञदत्ता को दोहद उत्पन्न हुआ। उसे आम खाने की प्रबल उत्कण्ठा हुई स्त्रियों को स्वभाव से गर्भावस्था में दोहद उत्पन्न हुआ ही करते हैं । सो आम का समय न होने पर भी सोमदत्त वन में आम ढूँढ़ने को चला। बुद्धिमान् पुरुष असमय में भी अप्राप्त वस्तु के लिए साहस करते ही हैं। सोमदत्त वन में पहुँचा, तो भाग्य से उसे सारे बगीचे में केवल एक आम का वृक्ष फला हुआ मिला। उसके नीचे एक परम महात्मा योगिराज बैठे हुए थे। उनसे वह वृक्ष ऐसा जान पड़ता था, मानो मूर्तिमान् धर्म है। सारे वन में एक ही वृक्ष को फला हुआ देखकर उसने समझ लिया कि यह मुनिराज का प्रभाव है। नहीं तो असमय में आम कहाँ? वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उस पर से बहुत से फल तोड़कर अपनी प्रिया के पास पहुँचा दिये और आप मुनिराज को नमस्कार कर भक्ति से उनके पाँवों के पास बैठ गया। उसने हाथ जोड़कर मुनि से पूछा-प्रभो, संसार में सार क्या है? इस बात को आप के श्रीमुख से सुनने की मेरी बहुत उत्कण्ठा है। कृपाकर कहिए ॥१०- १५॥

मुनिराज बोले- वत्स, संसार में सार - आत्मा को कुगतियों से बचाकर सुख देने वाला, एक धर्म है। उसके दो भेद हैं-१. मुनिधर्म, २. श्रावक धर्म । मुनियों का धर्म-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग ऐसे पाँच महाव्रत तथा उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप आदि दस लक्षण धर्म और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ऐसे तीन रत्नत्रय, पाँच समिति, तीन गुप्ति, खड़े होकर आहार करना, स्नान न करना, , सहनशक्ति बढ़ाने के लिए सिर के बालों का हाथों से ही लुंचन करना, वस्त्र का न रखना आदि हैं और श्रावक धर्म-बारह व्रतों का पालन करना, भगवान् की पूजा करना, पात्रों को दान देना और जितना अपने से बन सके दूसरों पर उपकार करना, किसी की निन्दा बुराई न करना, शान्ति के साथ अपना जीवन बिताना आदि है । मुनिधर्म का पालन सर्वदेश करेंगे अर्थात् स्थावर जीवों की भी हिंसा वे नहीं करेंगे और श्रावक इसी व्रत का पालन एकदेश अर्थात् स्थूल रूप से करेगा। वह त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करेगा और स्थावर जीव-वनस्पति आदि को अपने काम लायक उपयोग में लाकर शेष की रक्षा करेगा ॥१६-१९॥

श्रावकधर्म परम्परा से मोक्ष का कारण है और मुनिधर्म द्वारा उसी पर्याय से भी मोक्ष जाया जा सकता है। श्रावक को मुनिधर्म धारण करना ही पड़ता है क्योंकि उसके बिना मोक्ष होता ही नहीं । जन्म- जरा-मरण का दुःख बिना मुनिधर्म के कभी नहीं छूटता। इसमें भी एक विशेषता है। वह यह कि जितने मुनि होते हैं, वे सब मोक्ष में ही जाते होंगे ऐसा नहीं समझना चाहिए। उसमें परिणामों पर सब बात निर्भर है। जिसके जितने - जितने परिणाम उन्नत होते जायेंगे और राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, , लोभ आदि आत्मशत्रु नष्ट होकर अपने स्वभाव की प्राप्ति होती जायेगी वह उतना ही अन्तिम साध्य मोक्ष के पास पहुँचता जायेगा। पर यह पूर्ण रीति से ध्यान में रखना चाहिए कि मोक्ष होगा तो मुनिधर्म ही से|

  इस प्रकार श्रावक और मुनिधर्म तथा उनकी विशेषताएँ सुनकर सोमदत्त को मुनिधर्म ही बहुत पसन्द आया। उसने अत्यन्त वैराग्य के वश होकर मुनिधर्म की ही दीक्षा ग्रहण की, जो कि सब पापों की नाश करने वाली है। साधु बनकर गुरु के पास उसने खूब शास्त्राभ्यास किया। सब शास्त्रों में उसने बहुत योग्यता प्राप्त कर ली। इसके बाद सोमदत्त मुनिराज नाभिगिरी नामक पर्वत पर जाकर तपश्चर्या करने लगे और परीषह सहन द्वारा अपनी आत्मशक्ति को बढ़ाने लगे ॥२०-२२॥

इधर यज्ञदत्ता के पुत्र हुआ । उसकी दिव्य सुन्दरता और तेज को देखकर यज्ञदत्ता बड़ी प्रसन्न हुई । एक दिन उसे किसी के द्वारा अपने स्वामी के समाचार मिले। उसने वह हाल अपने घर के लोगों से कहा और उनके पास चलने के लिए उनसे आग्रह किया। उन्हें साथ लेकर यज्ञदत्त नाभिगिरी पर पहुँची। मुनि इस समय तापसयोग से अर्थात् सूर्य के सामने मुँह किए ध्यान कर रहे थे। उन्हें मुनिवेष में देखकर यज्ञदत्ता के क्रोध का कुछ ठिकाना नहीं रहा । उसने गर्जकर कहा- दुष्ट! पापी !! यदि तुझे ऐसा करना था मेरी जिन्दगी बिगाड़नी थी, तो पहले ही से मुझे न ब्याहता? बतला तो अब मैं किस के पास जाकर रहूँ? निर्दय! तुझे दया भी न आई जो मुझे निराश्रय छोड़कर तप करने को यहाँ चला आया? अब इस बच्चे का पालन कौन करेगा? जरा कह तो सही ! मुझ से इसका पालन नहीं होता । तू ही इसे लेकर पाल । यह कहकर निर्दयी यज्ञदत्ता बेचारे निर्दोष बालक को मुनि के पाँवों में पटक कर घर चली गई उस पापिनी को अपने हृदय के टुकड़े पर इतनी भी दया नहीं आई कि मैं सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जीवों से भरे हुए ऐसे भयंकर पर्वत पर उसे कैसे छोड़ जाती हूँ? उसकी कौन रक्षा करेगा? सच तो यह क्रोध के वश हो स्त्रियाँ क्या नहीं करतीं? ॥२३ - २९॥

इधर तो यज्ञदत्ता पुत्र को मुनि के पास छोड़कर घर पर गई और इतने ही में दिवाकर देव नाम का एक विद्याधर इधर आ निकला। वह अमरावती का राजा था। पर भाई-भाई में लड़ाई हो जाने से उसके छोटे भाई पुरन्दर ने उसे युद्ध में पराजित कर देश से निकाल दिया था । सो वह अपनी स्त्री को साथ लेकर तीर्थयात्रा के लिए चल दिया। यात्रा करता हुआ वह नाभिपर्वत की ओर आ निकला। पर्वत पर मुनिराज को देखकर उनकी वन्दना के लिए नीचे उतरा। उसकी दृष्टि उस खेलते हुए तेजस्वी बालक के प्रसन्न मुखकमल पर पड़ी। बालक को भाग्यशाली समझकर उसने अपनी गोद में उठा लिया और प्रसन्नता के साथ उसे अपनी प्रिया को सौंपकर कहा-प्रिये, यह कोई बड़ा पुण्य पुरुष है । आज अपना जीवन कृतार्थ हुआ जो हमें अनायास ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । उसकी स्त्री भी बच्चे को पाकर बहुत खुश हुई उसने बड़े प्रेम के साथ उसे अपनी छाती से लगाया और अपने को कृतार्थ माना। बालक होनहार था। उसके हाथों में वज्र का चिह्न देखकर विद्याधर महिला ने उसका नाम भी वज्रकुमार रख दिया। इसके बाद दम्पत्ति मुनि को प्रणाम कर अपने घर पर लौट आए । यज्ञदत्ता तो अपने पुत्र को छोड़कर चली आई, पर जो भाग्यवान् होता है उसका कोई न कोई रक्षक बनकर आ ही जाता है। बहुत ठीक लिखा है-पुण्यवानों को कहीं कष्ट प्राप्त नहीं होता । विद्याधर के घर पर पहुँच कर वज्रकुमार द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा और अपनी बाल लीलाओं से सबको आनन्द देने लगा जो उसे देखता वही उसकी स्वर्गीय सुन्दरता पर मुग्ध हो उठता था ॥३०-३८॥

दिवाकर देव के सम्बन्ध से वज्रकुमार का मामा कनकपुरी का राजा विमलवाहन हुआ। अपने मामा के यहाँ रहकर वज्रकुमार ने खूब शास्त्राभ्यास किया। छोटी ही उमर में वह एक प्रसिद्ध विद्वान् बन गया। उसकी बुद्धि देखकर विद्याधर बड़ा आश्चर्य करने लगे ॥३९-४०॥

एक दिन वज्रकुमार ह्रीमंतपर्वत पर प्रकृति की शोभा देखने को गया हुआ था। वहीं पर एक गरुड़वेग विद्याधर की पवनवेगा नाम की पुत्री विद्या साध रही थी । सो विद्या साधते-साधते भाग्य से एक काँटा हवा से उड़कर उसकी आँख में गिर गया। उसके दुःख से उसका चित्त चंचल हो उठा। । उससे विद्या सिद्ध होने में उसके लिए बड़ी कठिनता आ उपस्थित हुई । इसी समय वज्रकुमार इधर आ निकला। उसे ध्यान से विचलित देखकर उसने उसकी आँख में से काँटा निकाल दिया। पवनवेगा स्वस्थ होकर फिर मंत्र साधन से तत्पर हुई मंत्रयोग पूरा होने पर उसे विद्या सिद्ध हो गई वह सब उपकार वज्रकुमार का समझकर उसके पास आई और उससे बोली- आपने मेरा बहुत उपकार किया है। ऐसे समय यदि आप उधर नहीं आते तो कभी संभव नहीं था, कि मुझे विद्या सिद्ध होती । इसका बदला मैं एक क्षुद्र बालिका क्या चुका सकती हूँ, पर यह जीवन आपको समर्पण कर आपकी चरण दासी बनना चाहती हूँ। मैंने संकल्प कर लिया है कि इस जीवन में आपके सिवा किसी को मैं अपने पवित्र हृदय में स्थान न दूँगी। मुझे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए। यह कहकर वह सतृष्ण नयनों से वज्रकुमार की ओर देखने लगी । वज्रकुमार ने मुस्कुराकर उसके प्रेमोपहार को बड़े आदर के साथ ग्रहण किया। दोनों वहाँ से विदा होकर अपने-अपने घर गए। शुभ दिन में गरुड़वेग ने पवनवेगा का परिणय संस्कार वज्रकुमार के साथ कर दिया। दोनों दंपति सुख से रहने लगे ॥४१-४९॥

एक दिन वज्रकुमार को मालूम हो गया कि मेरे पिता थे तो राजा, पर उन्हें उनके छोटे भाई ने लड़ झगड़कर अपने राज्य से निकाल दिया है। यह देख उसे काका पर बड़ा क्रोध आया। वह पिता बहुत कुछ मना करने पर भी कुछ सेना और अपनी पत्नी की विद्या को लेकर उसी समय अमरावती पर जा चढ़ा । पुरन्दरदेव को इस चढ़ाई का हाल कुछ मालूम नहीं हुआ था, इसलिए वह बात की बातों में पराजित कर बाँध लिया गया। राज्य सिंहासन दिवाकर देव के अधिकार में आया । सच है " सुपुत्रः कुलदीपकः” अर्थात् सुपुत्र से कुल की उन्नति ही होती है। इस वीर वृतान्त से वज्रकुमार बहुत प्रसिद्ध हो गया। अच्छे-अच्छे शूरवीर उसका नाम सुनकर काँपने लगे ॥५०-५२॥

इसी समय दिवाकरदेव की प्रिया जयश्री के भी एक और पुत्र उत्पन्न हो गया। अब उसे वज्रकुमार से डाह होने लगी । उसे एक भ्रम - सा हो गया कि इसके सामने मेरे पुत्र को राज्य कैसे मिलेगा? खैर, यह भी मान लूँ कि मेरे आग्रह से प्राणनाथ अपने पुत्र को राज्य दे तो यह क्यों उसे देने देगा? ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो-

आश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् । -वादीभसिंह

आती हुई लक्ष्मी को पाँव की ठोकर से ठुकरावेगा ? तब अपने पुत्र को राज्य मिलने में यह एक कंटक है। इसे किसी तरह उखाड़ फेंकना चाहिए । यह विचार कर मौका देखने लगी । एक दिन वज्रकुमार ने अपनी माता के मुँह से यह सुन लिया कि "वज्रकुमार बड़ा दुष्ट है। देखो, तो कहाँ तो उत्पन्न हुआ और किसे कष्ट देता है?" उसकी माता किसी के सामने उसकी बुराई कर रही थी। सुनते ही वज्रकुमार के हृदय में मानों आग बरस गई उसका हृदय जलने लगा । उसे फिर एक क्षणभर भी उस घर में रहना नरक बराबर भयंकर हो उठा। यह उसी समय अपने पिता के पास गया और बोला- पिताजी, जल्दी बतलाइए मैं किसका पुत्र हूँ? और क्यों यहाँ आया? मैं जानता हूँ कि आपने मेरा अपने बच्चे से कहीं बढ़कर पालन किया है, तब भी मुझे कृपाकर बतला दीजिए कि मेरे सच्चे पिता कौन हैं? यदि आप मुझे ठीक-ठीक हाल नहीं कहेंगे तो मैं आज से भोजन नहीं करूँगा ॥५३-५७॥

दिवाकर देव ने एकाएक वज्रकुमार के मुँह से अचम्भे में डालने वाली बातें सुनकर वज्रकुमार से कहा-पुत्र, क्या आज तुम्हें कुछ हो तो नहीं गया, जो बहकी-बहकी बातें करते हो? तुम समझदार हो, तुम्हें ऐसी बातें करना उचित नहीं, जिससे मुझे कष्ट हो ॥५८॥

वज्रकुमार बोला-पिताजी मैं यह नहीं कहता कि मैं आपका पुत्र नहीं क्योंकि मेरे सच्चे पिता तो आप ही हैं, आप ही ने मुझे पालापोषा है । पर जो सच्चा वृतान्त है, उसके जानने की मेरी बड़ी उत्कण्ठा है; इसलिए उसे आप न छिपाइए। उसे कहकर मेरे अशान्त हृदय को शान्त कीजिए । बहुत सच है बड़े पुरुषों के हृदय में जो बात एक बार समा जाती है फिर वे उसे तब तक नहीं छोड़ते जब तक उसका उन्हें आदि अन्त मालूम न हो जाये । वज्रकुमार के आग्रह से दिवाकर देव को उसका पूर्व हाल सब ज्यों का त्यों कह देना ही पड़ा क्योंकि आग्रह से कोई बात छुपाई नहीं जा सकती । वज्रकुमार अपना हाल सुनकर बड़ा विरक्त हुआ । उसे संसार का मायाजाल बहुत भयंकर जान पड़ा। वह उसी समय विमान में चढ़कर अपने पिता की वन्दना करने को गया । उसके साथ ही उसका पिता तथा और बन्धुलोग भी गए। सोमदत्त मुनिराज मथुरा के पास एक गुफा में ध्यान कर रहे थे। उन्हें देखकर सब ही बहुत आनन्दित हुए। सब बड़ी भक्ति के साथ मुनि को प्रणाम कर जब बैठे, तब वज्रकुमार ने मुनिराज से कहा-पूज्यपाद, आज्ञा दीजिए, जिससे मैं साधु बनकर तपश्चर्या द्वारा अपना आत्मकल्याण करूँ । वज्रकुमार को एक साथ संसार से विरक्त देखकर दिवाकर देव को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने इस अभिप्राय से कि सोमदत्त मुनिराज वज्रकुमार को कहीं मुनि हो जाने की आज्ञा न दे दें, उनसे वज्रकुमार उन्हीं का पुत्र है और उसी पर मेरा राज्यभार भी निर्भर है आदि सब हाल कह दिया। इसके बाद वह वज्रकुमार से बोला- पुत्र, तुम यह क्या करते हो? तप करने का मेरा समय है या तुम्हारा? तुम अब सब तरह योग्य हो गए, राजधानी में जाओ और अपना कारोबार सम्हालो । अब मैं सब तरह निश्चिन्त हुआ। मैं आज ही दीक्षा ग्रहण करूँगा । दिवाकर देव ने उसे बहुत कुछ समझाया और दीक्षा लेने से रोका, पर उसने किसी की एक न सुनी और सब वस्त्राभूषण फेंककर मुनिराज के पास दीक्षा ले ली। कन्दर्पकेसरी वज्रकुमार मुनि साधु बनकर खूब तपश्चर्या करने लगे । कठिन से कठिन परीषह सहने लगे। वे जिनशासनरूप समुद्र के बढ़ाने वाले चन्द्रमा के समान शोभने लगे ॥५९-६८॥

वज्रकुमार के साधु बन जाने के बाद की कथा अब लिखी जाती है। इस समय मथुरा के राजा थे पूतीगन्ध। उनकी रानी का नाम था उर्विला । वह बड़ी धर्मात्मा थी, सती थी, विदुषी थी और सम्यग्दर्शन से भूषित थी । उसे जिनभगवान् की पूजा से बहुत प्रेम था। वह प्रत्येक नन्दीश्वरपर्व में आठ दिन तक खूब पूजा महोत्सव करवाती, खूब दान करती । उससे जिनधर्म की बहुत प्रभावना होती । सर्व साधारण पर जैन धर्म का अच्छा प्रभाव पड़ता । मथुरा ही में एक सागरदत्त नाम का सेठ था । उसकी गृहिणी का नाम था समुद्रदत्ता । पूर्व पाप के उदय से उसके दरिद्रा नाम की पुत्री हुई उसके जन्म से माता पिता को सुख न होकर दुःख हुआ। धन सम्पत्ति सब जाती रही। माता-पिता मर गए। बेचारी दरिद्रा के लिए अब अपना पेट भरना भी मुश्किल पड़ गया। अब वह दूसरों का झूठा खा-खाकर दिन काटने लगी। सच है पाप के उदय से जीवों को दुःख भोगना ही पड़ता है ॥ ६९-७५॥

एक दिन दो मुनि भिक्षा के लिए मथुरा में आए। उनके नाम थे नन्दन और अभिनन्दन। उनमें नन्दन बड़े थे और अभिनन्दन छोटे । दरिद्रा को एक-एक अन्न का झूठा कण खाती हुई देखकर अभिनंदन ने नन्दन से कहा- - मुनिराज, देखिये हाय ! यह बेचारी बालिका कितनी दुःखी है? कैसे कष्ट से अपना जीवन बिता रही है। तब नन्दनमुनि ने अवधिज्ञान से विचार कर कहा- हाँ यद्यपि इस समय इसकी दशा अच्छी नहीं है तथापि इसका पुण्यकर्म बहुत प्रबल है उससे यह पूतीगन्ध राजा की पट्टरानी बनेगी। मुनि ने दरिद्रा का जो भविष्य सुनाया, उसे भिक्षा के लिए आए हुए एक बौद्ध भिक्षुक ने भी सुन लिया। उसे जैन ऋषियों के विषय में बहुत विश्वास था, इसलिए वह दरिद्रा को अपने स्थान पर लिवा लाया और उसका पालन करने लगा ॥७६-८१॥

दरिद्रा जैसी-जैसी बड़ी होती गई वैसे ही वैसे यौवन ने उसकी श्री को खूब सम्मान देना आरम्भ किया। वह अब युवती हो चली। उसके सारे शरीर से सुन्दरता की सुधाधारा बहने लगी। आँखों ने चंचल मीन को लजाना शुरू किया। मुँह ने चन्द्रमा को अपना दास बनाया । नितम्बों को अपने से जल्दी बढ़ते देखकर शर्म के मारे स्तनों का मुँह काला पड़ गया। एक दिन युवती दरिद्रा शहर के बगीचे में जाकर झूले पर झूल रही थी कि कर्मयोग से उसी दिन राजा भी वहीं आ गए। उनकी नजर एकाएक दरिद्रा पर पड़ी। उसे देखकर वे अचम्भे में आ गए कि यह स्वर्ग सुन्दरी कौन है? उन्होंने दरिद्रा से उसका परिचय पूछा। उसने निस्संकोच होकर अपना परिचय वगैरह सब उन्हें बता दिया । वह बेचारी भोली थी। उसे क्या मालूम कि मुझ से खास मथुरा के राजा पूछताछ कर रहे हैं। राजा तो उसे देखकर कामान्ध हो गए। वे बड़ी मुश्किल से अपने महल पर आए। आते ही उन्होंने अपने मंत्री को श्रीवन्दन के पास भेजा। मंत्री ने पहुँचकर श्रीवन्दक से कहा- आज तुम्हारा और तुम्हारी कन्या का बड़ा ही भाग्य है, जो मथुराधीश्वर उसे अपनी महारानी बनाना चाहते हैं । कहो, तुम्हें भी यह बात सम्मत है न? श्रीवन्दक बोला-हाँ मुझे महाराज की बात स्वीकार है, पर एक शर्त के साथ। वह शर्त यह है कि महाराज बौद्धधर्म स्वीकार करें तो मैं इसका ब्याह महाराज के साथ कर सकता हूँ । मन्त्री ने महाराज से श्रीवन्दक की शर्त कह सुनाई महाराज ने उसे स्वीकार किया। सच है लोग काम के वश होकर धर्मपरिवर्तन तो क्या बड़े-बड़े अनर्थ भी कर बैठते हैं ॥८२-८६॥

आखिर महाराज दरिद्रा के साथ ब्याह हो गया। दरिद्रा मुनिराज के भविष्य कथनानुसार पट्टरानी हुई। दरिद्रा इस समय बुद्धदासी के नाम से प्रसिद्ध है। इसलिए आगे हम भी इसी नाम से उसका उल्लेख करेंगे। बुद्धदासी पट्टरानी बनकर बुद्धधर्म का प्रचार बढ़ाने में सदा तत्पर रहने लगी। सच है, जिनधर्म संसार में सुख का देने वाला और पुण्य प्राप्ति का खजाना हैं, पर उसे प्राप्त कर पाते है भाग्यशाली ही। बेचारी अभागिनी बुद्धदासी के भाग्य में उसकी प्राप्ति कहाँ? ॥८७-८८॥

अष्टाह्निका का पर्व आया । उर्विला महारानी ने सदा के नियमानुसार अब की बार भी उत्सव करना आरम्भ किया। जब रथ निकालने का दिन आया और रथ, छत्र, चंवर, वस्त्र, भूषण, पुष्पमाला  आदि से खूब सजाया गया, उसमें भगवान् की प्रतिमा विराजमान की जाकर वह निकाला जाने लगा, तब बुद्धदासी ने राजा से यह कह कर, कि पहले मेरा रथ निकलेगा, उर्विला रानी का रथ रुकवा दिया। राजा ने भी उस पर कुछ बाधा न देकर उसके कहने को मान लिया । सच है- ॥८९-९४॥

अर्थात् मोह से अन्धे हुए मनुष्य गाय के दूध में और आकड़े के दूध में कुछ भी भेद नहीं समझते। बुद्धदासी के प्रेम ने यही हालत पूतिगंधराजा की कर दी । उर्विला को इससे बहुत कष्ट पहुँचा। उसने दुःखी होकर प्रतिज्ञा कर ली कि जब पहले मेरा रथ निकलेगा तब ही मैं भोजन करूँगी । यह प्रतिज्ञा कर वह क्षत्रिया नाम की गुफा में पहुँची । वहाँ योगिराज सोमदत्त और वज्रकुमार महामुनि रहा करते हैं। वह उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर बोली- हे जिनशासन रूप समुद्र के बढ़ाने वाले चन्द्रमाओं और हे मिथ्यात्वरूप अन्धकार के नष्ट करने वाले सूर्य ! इस समय आप ही मेरे लिए शरण हैं । आप ही मेरा दुःख दूर कर सकते हैं। जैनधर्म पर इस समय बड़ा संकट उपस्थित है, उसे नष्ट कर उसकी रक्षा कीजिए । मेरा रथ निकलने वाला था, पर उसे बुद्धदासी ने महाराज से कहकर रुकवा दिया है। आजकल वह महाराज की बड़ी कृपापात्र है, इसलिए जैसा वह कहती है महाराज भी बिना विचारे वही कहते हैं। मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि सदा की भाँति मेरा रथ पहले निकलेगा तब ही मैं भोजन करूँगी । अब जैसा आप उचित समझें वह कीजिए। उर्विला अपनी बात कर रही थी कि इतने में वज्रकुमार तथा सोमदत्त मुनि की वन्दना करने को दिवाकर देव आदि बहुत से विद्याधर आए। वज्रकुमार मुनि ने उनसे कहा-आप लोग समर्थ है और इस समय जैनधर्म पर कष्ट उपस्थित है । बुद्धदासी ने महारानी उर्विला का रथ रुकवा दिया है। सो आप जाकर जिस तरह बन सके इसका रथ निकलवाइये। वज्रकुमार मुनि की आज्ञानुसार सब विद्याधर लोग अपने विमान पर चढ़कर मथुरा आए । सच है जो धर्मात्मा होते हैं वे धर्म प्रभावना के लिए स्वयं प्रयत्न करते हैं, तब उन्हें तो मुनिराज ने स्वयं प्रेरणा की है, इसलिए रानी उर्विला को सहायता देना तो उन्हें आवश्यक ही था । विद्याधरों ने पहुँचकर बुद्धदासी को बहुत समझाया और कहा, जो पुरानी रीति है उसे ही पहले होने देना अच्छा है। पर बुद्धदासी को तो अभिमान आ रहा था, इसलिए वह क्यों मानने चली? विद्याधरों ने सीधेपन से अपना कार्य होता हुआ न देखकर बुद्धदासी के नियुक्त किए हुए सिपाहियों से लड़ना शुरू किया और बात की बात में उन्हें भगाकर बड़े उत्सव और आनन्द के साथ उर्विला रानी का रथ निकलवा दिया। रथ के निर्विघ्न निकलने से सबको बहुत आनन्द हुआ। जैनधर्म की भी खूब प्रभावना हुई बहुतों ने मिथ्यात्व छोड़कर सम्यग्दर्शन ग्रहण किया। बुद्धदासी और राजा पर भी इस प्रभावना का खूब प्रभाव पड़ा। उन्होंने भी शुद्धान्तःकरण से जैनधर्म स्वीकार किया ॥९५-११३॥

जिस प्रकार श्रीवज्रकुमार मुनिराज ने धर्म प्रेम के वश होकर जैनधर्म की प्रभावना करवाई उसी तरह और धर्मात्मा पुरुषों को भी संसार का उपकार करने वाली और स्वर्ग सुख की देने वाली धर्म प्रभावना करना चाहिए। जो भव्य पुरुष, प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार, रथयात्रा, विद्यादान, आहारदान, अभयदान आदि द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि होकर त्रिलोक पूज्य होते हैं और अन्त में मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं ॥११४-११७॥

धर्म प्रेमी श्रीवज्रकुमार मुनि मेरी बुद्धि को सदा जैनधर्म में दृढ़ रखें, जिसके द्वारा मैं भी कल्याण पथ पर चलकर अपना अन्तिम साध्य मोक्ष प्राप्त कर सकूँ ॥११८॥ 
 

श्रीमल्लिभूषण गुरु मुझे मंगल प्रदान करें, वे मूल संघ के प्रधान शारदा गच्छ में हुए हैं। वे ज्ञान के समुद्र हैं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्नों से अलंकृत हैं। मैं उनकी भक्तिपूर्वक आराधना करता हूँ ॥११९॥

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