१२. विष्णुकुमार मुनि की कथा
अनन्त सुख प्रदान करने वाले जिनभगवान् जिनवाणी और जैन साधुओं को नमस्कार कर मैं वात्सल्य अंग के पालन करने वाले श्री विष्णुकुमार मुनिराज की कथा लिखता हूँ ॥१॥
अवन्तिदेश के अन्तर्गत उज्जयिनी बहुत सुन्दर और प्रसिद्ध नगरी है । जिस समय का यह उपाख्यान है, उस समय उसके राजा श्रीवर्मा थे । वे बड़े धर्मात्मा थे, सब शास्त्रों के अच्छे विद्वान् थे, विचारशील थे, और अच्छे शूरवीर थे। वे दुराचारियों को उचित दण्ड देते और प्रजा का नीति के साथ पालन करते। सुतरां प्रजा उनकी बड़ी भक्त थी ॥२-३॥
उनकी महारानी का नाम था श्रीमती । वह भी विदुषी थी । उस समय की स्त्रियों में वह प्रधान सुन्दरी समझी जाती थी। उसका हृदय बड़ा दयालु था । वह जिसे दुःखी देखती, फिर उसका दुःख दूर करने के लिए जी जान से प्रयत्न करती । महारानी को सारी प्रजा देवी समझती थी।
श्रीवर्मा के राजमंत्री चार थे। उनके नाम थे बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि। ये चारों ही धर्म के कट्टर शत्रु थे। इन पापी मंत्रियों से युक्त राजा ऐसे जान पड़ते थे मानों जहरीले सर्प से युक्त जैसे चन्दन का वृक्ष हो ॥४-५॥
एक दिन ज्ञानी अकम्पनाचार्य देश - विदेशों में पर्यटन कर भव्य पुरुषों को धर्मरूपी अमृत से सुखी करते हुए उज्जयिनी में आए। उनके साथ सात सौ मुनियों का बड़ा भारी संघ था। वे शहर के बाहर एक पवित्र स्थान में ठहरे। अकम्पनाचार्य को निमित्तज्ञान से उज्जयिनी की स्थिति अनिष्ट कर जान पड़ी। इसलिए उन्होंने सारे संघ से कह दिया कि देखो, राजा वगैरह कोई आवे पर आप लोग उनसे वादविवाद न कीजियेगा। नहीं तो सारा संघ बड़े कष्ट में पड़ जायेगा, उस पर घोर उपसर्ग आएगा। गुरु की हितकर आज्ञा को स्वीकार कर सब मुनि मौन के साथ ध्यान करने लगे। सच है- ॥६-१०॥
वे शिष्य प्रशंसा के पात्र हैं, जो विनय और प्रेम के साथ अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं। इसके विपरीत चलने वाले कुपुत्र के समान निन्दा के पात्र हैं ॥११॥
अकम्पनाचार्य के आने के समाचार शहर के लोगों को मालूम हुए। वे पूजा द्रव्य लेकर बड़ी भक्ति के साथ आचार्य की वन्दना को जाने लगे । आज एकाएक अपने शहर में आनन्द की धूमधाम देखकर महल पर बैठे हुए श्रीवर्मा ने मंत्रियों से पूछा- ये सब लोग आज ऐसे सजधज कर कहाँ जा रहे हैं? उत्तर में मंत्रियों ने कहा- महाराज, सुना जाता है कि अपने शहर में नंगे जैन साधु आए हुए हैं। ये सब उनकी पूजा के लिए जा रहे हैं। राजा ने प्रसन्नता के साथ कहा- तब तो हमें भी चलकर उनके दर्शन करना चाहिए। वे महापुरुष होंगे। यह विचार कर राजा भी मंत्रियों के साथ आचार्य के दर्शन करने को गए। उन्हें आत्मध्यान में लीन देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने क्रम से एक-एक मुनि को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । सब मुनि अपने आचार्य की आज्ञानुसार मौन रहे। किसी ने भी उन्हें धर्मवृद्धि नहीं दी। राजा उनकी वन्दना कर वापस महल लौट चले। लौटते समय मंत्रियों ने उनसे कहा-महाराज, देखा साधुओं को ? बेचारे बोलना तक भी नहीं जानते, सब नितान्त मूर्ख हैं। यही तो कारण है कि सब मौनी बैठे हुए हैं। उन्हें देखकर सर्व साधारण तो यह समझेंगे कि ये सब आत्मध्यान कर रहे हैं, बड़े तपस्वी हैं पर यह इनका ढोंग है । अपनी सब पोल न खुल जाये, इसलिए उन्होंने लोगों को धोखा देने को यह कपटजाल रचा है। महाराज, ये दाम्भिक हैं। इस प्रकार त्रैलोक्यपूज्य और परम शान्त मुनिराजों की निन्दा करते हुए ये मलिनहृदयी मंत्री राजा के साथ लौट के आ रहे थे कि रास्ते में इन्हें एक मुनि मिल गए, जो कि शहर से आहार करके लौट रहे थे, इन पापियों ने उनकी हँसी की, महाराज, देखिए वह एक बैल और पेट भरकर चला आ रहा है। मुनि ने मंत्रियों के निन्दा वचनों को सुन लिया। सुनकर भी उनका कर्तव्य था कि वे शान्त रह जाते, पर वे निन्दा न सह सकें । कारण वे आहार के लिए शहर में चले गए थे, इसलिए उन्हें अपने आचार्य की आज्ञा मालूम न थी। मुनि ने यह समझ कर, कि इन्हें अपनी विद्या का बड़ा अभिमान है, उसे मैं चूर्ण करूँगा, कहा-तुम व्यर्थ क्यों किसी की बुराई करते हो? यदि तुममें कुछ विद्या हो, आत्मबल हो, तो मुझ से शास्त्रार्थ करो। फिर तुम्हें जान पड़ेगा कि बैल कौन है? भला वे भी तो राजमंत्री थे, उस पर भी दुष्टता उनके हृदय में कूट- कूटकर भरी हुई थी; फिर वे कैसे एक अकिंचन साधु के वचनों को सह सकते थे? उन्होंने कह तो दिया कि हम ने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। अभिमान में आकर उन्होंने कह तो दिया कि हम शास्त्रार्थ करेंगे पर जब शास्त्रार्थ हुआ तब उन्हें जान पड़ा कि शास्त्रार्थ करना बच्चों का सा खेल नहीं है। एक ही मुनि ने अपने स्याद्वाद के बल सेकी बात में चारों मंत्रियों को पराजित कर दिया। सच है-एक ही सूर्य सारे संसार के अन्धकार को नष्ट करने के लिए समर्थ है ॥१२-२५॥
विजय लाभ कर श्रुतसागर मुनि अपने आचार्य के पास आए। उन्होंने रास्ते की सब घटना आचार्य से ज्यों की त्यों कह सुनाई सुनकर आचार्य खेद के साथ बोले- हाय! तुमने बहुत ही बुरा किया, जो उनसे शास्त्रार्थ किया। तुमने अपने हाथों से सारे संघ का घात किया, संघ की अब कुशल नहीं है। अस्तु, जो हुआ, अब यदि तुम सारे संघ की जीवन रक्षा चाहते हो, तो पीछे जाओ और जहाँ मंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ है, वहीं जाकर कायोत्सर्ग ध्यान करो । आचार्य की आज्ञा को सुनकर श्रुतसागर मुनिराज जरा भी विचलित नहीं हुए। वे संघ की रक्षा के लिए उसी समय वहाँ से चल दिये और शास्त्रार्थ की जगह पर आकर मेरु की तरह निश्चल हो बड़े धैर्य के साथ कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे ॥२६-२९॥
शास्त्रार्थ कर मुनि से पराजित होकर मंत्री बड़े लज्जित हुए। अपने मानभंग का बदला चुकाने का विचार कर मुनिवध के लिए रात्रि समय वे चारों शहर से बाहर हुए। रास्ते में श्रुतसागर मुनि ध्यान करते हुए मिले। पहले उन्होंने अपने मानभंग करने वाले ही को परलोक पहुँचा देना चाहा। उन्होंने मुनि की गर्दन काटने को अपनी तलवार को म्यान से खींचा और एक ही साथ उनका काम तमाम करने के विचार से उन पर वार करना चाहा कि, इतने में मुनि के पुण्य प्रभाव से पुरदेवी ने आकर उन्हें तलवार उठाये हुए ही कील दिये ॥३०-३४॥
प्रातःकाल होते ही बिजली की तरह सारे शहर में मंत्रियों की दुष्टता का हाल फैल गया। सब शहर उन्हें देखने को आया । राजा भी आए । सबने एक स्वर से उन्हें धिक्कारा । है भी तो ठीक, जो पापी लोग निरपराधों को कष्ट पहुँचाते हैं वे इस लोक में भी घोर दुःख उठाते हैं और परलोक में नरकों के असह्य दु:ख सहते हैं। राजा ने उन्हें बहुत धिक्कार कर कहा - पापियों, जब तुमने मेरे सामने इन निर्दोष और संसार मात्र का उपकार करने वाले मुनियों की निन्दा की थी, तब मैं तुम्हारे विश्वास पर निर्भर रहकर यह समझा था कि संभव है मुनि लोग ऐसे ही हों, पर आज मुझे तुम्हारी नीचता का ज्ञान हुआ, तुम्हारे पापी हृदय का पता लगा । तुम इन्हीं निर्दोष साधुओं की हत्या करने को आए थे न? पापियों, तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है । तुम्हें तुम्हारे इस घोर कर्म का उपयुक्त दण्ड तो यही देना चाहिए था कि जैसा तुम करना चाहते थे, वही तुम्हारे लिए किया जाता। पर पापियों, तुम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए हो और तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियाँ मेरे यहाँ मंत्री पद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं इसलिए उसके लिहाज से तुम्हें अभय देकर अपने नौकरों को आज्ञा करता हूँ कि वे तुम्हें गधों पर बैठाकर मेरेी सीमा से बाहर कर दें । राजा की आज्ञा का उसी समय पालन हुआ । चारों मन्त्री देश से निकलवा दिये गए। सच है-पापियों की ऐसी दशा होना उचित ही है ॥३५-३८ ॥
धर्म के ऐसे प्रभाव को देखकर लोगों के आनन्द का ठिकाना न रहा। वे अपने हृदय में बढ़ते हुए हर्ष के वेग को रोकने में समर्थ नहीं हुए । उन्होंने जयध्वनि के मारे आकाश पाताल को एक कर दिया । मुनिसंघ का उपद्रव टला । सबके चित्त स्थिर हुए। अकम्पनाचार्य भी उज्जयिनी से विहार कर गए ॥३९॥
हस्तिनापुर नाम का एक शहर है। उसके राजा हैं महापद्म, उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। उसके पद्म और विष्णु नाम के दो पुत्र हुए ॥४०-४१॥
एक दिन राजा संसार की दशा पर विचार कर रहे थे। उसकी अनित्यता और निस्सारता देखकर उन्हें बहुत वैराग्य हुआ। उन्हें संसार दुःखमय दिखने लगा। वे उसी समय अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर अपने छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ वन में चले गए और श्रुतसागर मुनि के पास पहुँचकर दोनों पिता-पुत्र ने दीक्षा ग्रहण कर ली। विष्णुकुमार बालपने से ही संसार से विरक्त थे इसलिए पिता के रोकने पर भी वे दीक्षित हो गए। विष्णुकुमार मुनि साधु बनकर खूब तपश्चर्या करने लगे। कुछ दिनों बाद तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई ॥४२-४४॥
पिता के दीक्षित हो जाने पर हस्तिनापुर का राज्य पद्मराज करने लगे । उन्हें सब कुछ होने पर भी एक बात का बड़ा दुःख था । वह यह कि, कुंभपुर का राजा सिंहबल उन्हें बड़ा कष्ट पहुँचाया करता था। उनके देश में अनेक उपद्रव किया करता था। उसके अधिकार में एक बड़ा भारी सुदृढ़ किला था। इसलिए वह पद्मराज की प्रजा पर एकाएक धावा मारकर अपने किले में जाकर छुप जाता है। तब पद्मराज उसका कुछ अनिष्ट नहीं कर पाते थे । इस कष्ट की उन्हें सदा चिन्ता रहा करती थी ॥४५-४७॥
इसी समय श्रीवर्मा के चारों मंत्री उज्जयिनी से निकलकर कुछ दिनों बाद हस्तिनापुर की ओर आ निकले। उन्हें किसी तरह राजा के इस दुःख सूत्र का पता लग गया। वे राजा से मिले और उन्हें चिन्ता से निर्मुक्त करने का वचन देकर कुछ सेना के साथ सिंहबल पर जा चढ़े और अपनी बुद्धिमानी से किले को तोड़कर सिंहबल को उन्होंने बाँध लिया और लाकर पद्मराज के सामने उपस्थित कर दिया । पद्मराज उनकी वीरता और बुद्धिमानी से बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उन्हें अपना मंत्री बनाकर कहा-कि तुमने मेरा उपकार किया है। तुम्हारा मैं बहुत कृतज्ञ हूँ । यद्यपि उसका प्रतिफल नहीं दिया जा सकता, तब भी तुम जो कहो वह मैं तुम्हें देने को तैयार हूँ । उत्तर में बलि नाम के मंत्री ने कहा -! - प्रभो, आपकी हम पर कृपा है, तो हमें सब कुछ मिल चुका । इस पर भी आपका आग्रह है, तो उसे हम अस्वीकार भी नहीं कर सकते। अभी हमें कुछ आवश्यकता नहीं है । जब समय होगा तब आपसे प्रार्थना करेंगे ही ॥४८-५०
इसी समय श्री अकम्पनाचार्य अनेक देशों में विहार करते हुए और धर्मोपदेश द्वारा संसार के जीवों का हित करते हुए हस्तिनापुर के बगीचे में आकर ठहरे। सब लोग उत्सव के साथ उनकी वन्दना करने को गए। अकम्पनाचार्य के आने का समाचार राजमंत्रियों को मालूम हुआ। मालूम होते ही उन्हें अपने अपमान की बात याद हो आई उनका हृदय प्रतिहिंसा से उद्विग्न हो उठा। उन्होंने परस्पर में विचार किया कि समय बहुत उपयुक्त है, इसलिए बदला लेना ही चाहिए। देखो न, इन्हीं दुष्टों के द्वारा अपने को कितना दुःख उठाना पड़ा था? सबके हम धिक्कार पात्र बने और अपमान के साथ देश से निकाले गए। पर हाँ अपने मार्ग में एक काँटा है। राजा इनका बड़ा भक्त है। वह अपने रहते हुए इनका अनिष्ट कैसे होने देगा? इसके लिए कुछ उपाय सोच निकालना आवश्यक है। नहीं तो ऐसा न हो कि ऐसा अच्छा समय हाथ से निकल जाये? इतने में बलि मंत्री बोल उठा कि, इसकी आप चिन्ता न करें ॥५१-५३॥
अब सिंहबल के पकड़ लाने का पुरस्कार राजा से पाना बाकी है, उसकी ऐवज में उससे सात दिन का राज्य ले लेना चाहिए । फिर जैसा हम करेंगे वही होगा । राजा को उसमें दखल देने का कुछ अधिकार न रहेगा। यह प्रयत्न सबको सर्वोत्तम जान पड़ा। बलि उसी समय राजा के पास पहुँचा और बड़ी विनय से बोला-महाराज, आप पर हमारा एक पुरस्कार बाकी है। आप कृपाकर अब उसे दीजिये। इस समय उससे हमारा बड़ा उपकार होगा। राजा उसका कूट कपट न समझ और यह विचार कर, कि इन लोगों ने मेरा बड़ा उपकार किया था, अब उसका बदला चुकाना मेरा कर्तव्य है, बोला- बहुत अच्छा, जो तुम्हें चाहिए वह माँग लो, मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके तुम्हारे ऋण से उऋण होने का यत्न करूँगा। बलि बोला-महाराजा, यदि आप वास्तव में ही हमारा हित चाहते हैं, तो कृपा करके सात दिन के लिए अपना राज्य हमें प्रदान कीजिए ॥५४॥
राजा सुनते ही अवाक् रह गया । उसे किसी बड़े भारी अनर्थ की आशंका हुई पर अब वश ही क्या था? उसे वचनबद्ध होकर राज्य दे देना पड़ा। राज्य के प्राप्त होते ही उनकी प्रसन्नता का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने मुनियों के मारने के लिए यज्ञ का बहाना बनाकर षड्यंत्र रचा जिससे कि सर्वसाधारण न समझ सकें ॥५५॥
मुनियों को बीच में रखकर यज्ञ के लिए एक बड़ा भारी मंडप तैयार किया गया। उनके चारों ओर काष्ठ ही काष्ठ रखवा दिया गया। हजारों पशु इकट्ठे किए गए । यज्ञ आरम्भ हुआ । वेदों के जानकार बड़े-बड़े विद्वान् यज्ञ कराने लगे । वेदध्वनि से यज्ञमण्डप गूंजने लगा। बेचारे निरपराध पशु बड़ी निर्दयता से मारे जाने लगे। उनकी आहुतियाँ दी जाने लगीं। देखते-देखते दुर्गन्धित धुएँ से आकाश परिपूर्ण हुआ। मानों इस महापाप को न देख सकने के कारण सूर्य अस्त हुआ । मनुष्यों के हाथ से राज्य राक्षसों के हाथों में गया ॥५६-५८॥
सारे मुनिसंघ पर भयंकर उपसर्ग हुआ परन्तु उन शान्ति की मूर्तियों ने इसे अपने किए कर्मों का फल समझकर बड़ी धीरता के साथ सहना आरम्भ किया। वे मेरु समान निश्चल रहकर एक चित्त से परमात्मा का ध्यान करने लगे । सच है - जिन्होंने अपने हृदय को खूब उन्नत और दृढ़ बना लिया है जिनके हृदय में निरन्तर यह भावना बनी रहती है- ॥५९॥
अरि मित्र, महल मसान, कंचन काँच, निन्दन थुतिकरन ।
अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन ॥
वे क्या कभी ऐसे उपसर्गों से विचलित होते हैं? पाण्डवों को शत्रुओं ने लोहे के गरम-गरम आभूषण पहना दिये । अग्नि की भयानक ज्वाला उनके शरीर को भस्म करने लगी। पर वे विचलित नहीं हुए। धैर्य के साथ उन्होंने सब उपसर्ग सहा। जैन साधुओं का यही मार्ग है कि वे आए हुए कष्टों को शान्ति से सहे और वे ही यथार्थ साधु हैं, जिनका हृदय दुर्बल है, जो रागद्वेषरूपी शत्रुओं को जीतने के लिए ऐसे कष्ट नहीं सह सकते, दुःखों के प्राप्त होने पर समभाव नहीं रख सकते, वे न तो अपने आत्महित के मार्ग में आगे बढ़ पाते हैं और न वे साधुपद स्वीकार करने के योग्य हो सकते हैं।
मिथिला में श्रुतसागर मुनि को निमित्तज्ञान से इस उपसर्ग का हाल मालूम हुआ। उनके मुँह से बड़े कष्ट के साथ वचन निकले-हाय ! हाय!! इस समय मुनियों पर बड़ा उपसर्ग हो रहा है। वहीं एक पुष्पदन्त नामक क्षुल्लक भी उपस्थित थे । उन्होंने मुनिराज से पूछा-प्रभो, यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है? उत्तर में श्रुतसागर मुनि बोले- हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों का संघ ठहरा हुआ है। उसके संरक्षक अकम्पनाचार्य हैं। उस सारे संघ पर पापी बलि के द्वारा यह उपसर्ग किया जा रहा है ।
क्षुल्लक ने फिर पूछा- प्रभो, कोई ऐसा उपाय भी है, जिससे यह उपसर्ग दूर मुनि ने कहा-हाँ उसका एक उपाय है।
मुनि ने कहा-हाँ उसका एक उपाय है। भूमि भूषण पर्वत पर श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई है, वे अपनी ऋद्धि के बल से उपसर्ग को रोक सकते है ||६०-६५॥
पुष्पदन्त फिर एक क्षणभर भी वहाँ न ठहरे और जहाँ विष्णुकुमार मुनि तपश्चर्या कर रहे थे, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर उन्होंने सब हाल विष्णुकुमार मुनि से कह सुनाया । विष्णुकुमार को ऋद्धि प्राप्त होने की पहले खबर नहीं हुई थी। पर जब पुष्पदन्त के द्वारा उन्हें मालूम हुआ, तब उन्होंने परीक्षा के लिए एक हाथ पसारकर देखा। पसारते ही उनका हाथ बहुत दूर तक चला गया। उन्हें विश्वास हुआ। वे उसी समय हस्तिनापुर आए और अपने भाई से बोले- भाई, आप किस नींद में सोते हुए हो? जानते हो, शहर में कितना बड़ा भारी अनर्थ हो रहा है? अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया? क्या पहले किसी ने भी अपने कुल में ऐसा घोर अनर्थ आज तक किया है? हाय! धर्म के अवतार, परम शान्त और किसी से कुछ लेते देते नहीं, उन मुनियों पर यह अत्याचार? और वह भी तुम सरीखे धर्मात्माओं के राज्य में ? खेद ! भाई, राजाओं का धर्म तो यह कहा गया है कि वे सज्जनों की, धर्मात्माओं की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। पर आप तो बिल्कुल इससे उल्टा कर रहे हैं। समझते हो, साधुओं का सताना ठीक नहीं । ठण्डा जल भी गरम होकर शरीर को जला डालता है इसलिए जब तक आपत्ति तुम पर न आवे, उसके पहले ही उपसर्ग शान्ति करवा दीजिये ॥६६-७१॥
अपने भाई का उपदेश सुनकर पद्मराज बोले- मुनिराज, मैं क्या करूँ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे? अब तो मैं बिल्कुल विवश हूँ। मैं कुछ नहीं कर सकता । सात दिन तक जैसा कुछ ये करेंगे वह सब मुझे सहना होगा क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हूँ । अब तो आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए। आप इसके लिए समर्थ भी हैं और सब जानते हैं। उसमें मेरा दखल देना तो ऐसा है जैसा सूर्य को दीपक दिखलाना । शीघ्रता कीजिए । विलम्ब करना उचित नहीं ॥७२-७४॥
विष्णुकुमार मुनि ने विक्रियाऋद्धि के प्रभाव से बामन ब्राह्मण का वेष बनाया और बड़ी मधुरता से वेदध्वनि का उच्चारण करते हुए वे यज्ञमंडप में पहुँचे। उनका सुन्दर स्वरूप और मनोहर वेदोच्चार सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए। बलि तो उन पर इतना मुग्ध हुआ कि उसके आनन्द का कुछ पार नहीं रहा। उसने बड़ी प्रसन्नता से उनसे कहा- महाराज, आपने पधारकर मेरे यज्ञ की अपूर्व शोभा कर दी। मैं बहुत खुश हुआ। आपको जो इच्छा हो, माँगिए। इस समय मैं सब कुछ देने को समर्थ हूँ ॥७५-७७॥
विष्णुकुमार बोले-मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ। मुझे अपनी जैसी कुछ स्थिति है, उसमें सन्तोष है। मुझे धन-दौलत की कुछ आवश्यकता नहीं। पर आपका जब इतना आग्रह हैं, तो आपको असन्तुष्ट करना भी मैं नहीं चाहता। मुझे केवल तीन पग पृथ्वी की आवश्यकता है। यदि आप कृपा करके उतनी भूमि मुझे प्रदान कर देंगे तो मैं उसमें टूटी-फूटी झोंपड़ी बनाकर रह सकूँगा । स्थान की निराकुलता से मैं अपना समय वेदाध्ययनादि में बड़ी अच्छी तरह बिता सकूँगा। बस, इसके सिवा मुझे और कुछ इच्छा नहीं है ॥७८॥
विष्णुकुमार की यह तुच्छ याचना सुनकर और-और ब्राह्मणों को उनकी बुद्धि पर बड़ा खेद हुआ। उन्होंने कहा भी कृपानाथ, आपको थोड़े में ही सन्तोष था, तब भी आप का यह कर्तव्य तो था कि आप बहुत कुछ माँग कर अपने जाति भाईयों का ही उपकार करते? उसमें आपका क्या बिगड़ जाना था ?
बलि ने भी उन्हें समझाया और कहा कि आपने तो कुछ भी नहीं माँगा । मैं तो यह समझा था कि आप अपनी इच्छा से माँगते हैं, इसलिए जो कुछ माँगेंगे वह अच्छा ही माँगेंगे; परन्तु आपने तो मुझे बहुत ही हताश किया। यदि आप मेरे वैभव और मेरी शक्ति के अनुसार माँगते तो मुझे बहुत सन्तोष होता। महाराज, अब भी आप चाहें तो और भी अपनी इच्छानुसार माँग सकते हैं। मैं देने को प्रस्तुत हूँ ॥७९॥
विष्णुकुमार बोले-नहीं, मैंने जो कुछ माँगा है, मेरे लिए वही बहुत है। अधिक चाह नहीं। आपको देना ही है तो और बहुत से ब्राह्मण मौजूद हैं; उन्हें दीजिए । बलि ने कहा कि जैसी आपकी इच्छा । आप अपने पाँवों से भूमि माप लीजिए। यह कहकर उसने हाथ में जल लिया और संकल्प कर उसे विष्णुकुमार के हाथ में छोड़ दिया। संकल्प छोड़ते ही उन्होंने पृथ्वी मापना शुरू की। पहला पाँव उन्होंने सुमेरु पर्वत पर रखा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, अब तीसरा पाँव रखने को जगह नहीं। उसे वे कहाँ रक्खें? उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठी, सब पर्वत चलायमान हो गए समुद्रों ने मर्यादा तोड़ दी, देवों और ग्रहों के विमान एक से एक टकराने लगे और देवगण आश्चर्य के मारे भौचक्के से रह गए। वे सब विष्णुकुमार के पास आए और बलि को बाँधकर बोले-प्रभो, क्षमा कीजिए! क्षमा कीजिए!! यह सब दुष्कर्म इसी पापी का है। यह आपके सामने उपस्थित है। बलि ने मुनिराज के पाँवों में गिरकर उनसे अपना अपराध क्षमा कराया और अपने दुष्कर्म पर बहुत पश्चाताप किया ॥८०-८४॥
विष्णुकुमार मुनि ने संघ का उपद्रव दूर किया। सबको शान्ति हुई राजा और चारों मंत्री तथा प्रजा के सब लोग बड़ी भक्ति के साथ अकम्पनाचार्य की वन्दना करने को गए। उनके पाँवों में पड़कर राजा और मंत्रियों ने अपना अपराध उनसे क्षमा कराया और उसी दिन से मिथ्या मत छोड़कर सब अहिंसामयी पवित्र जिनशासन के उपासक बने ॥८५-८८॥
देवों ने प्रसन्न होकर विष्णुकुमार की पूजन के लिए तीन बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय वीणायें प्रदान की, जिनके द्वारा उनका गुणानुवाद गा-गाकर लोग बहुत पुण्य उत्पन्न करेंगे। जैसा विष्णुकुमार ने वात्सल्य अंग का पालन कर अपने धर्म बन्धुओं के साथ प्रेम का अपूर्व परिचय दिया, उसी प्रकार और भव्य पुरुषों को भी अपने और दूसरों के हित के लिए समय-समय पर दूसरों के दुःखों में शामिल होकर वात्सल्य, उदार प्रेम का परिचय देना उचित है। इस प्रकार जिनभगवान् के परमभक्त विष्णुकुमार ने धर्म प्रेम के वश हो मुनियों का उपसर्ग दूरकर वात्सल्य अंग का पालन किया और पश्चात् ध्यानाग्नि द्वारा कर्मों का नाश कर मोक्ष गए। वे ही विष्णुकुमार मुनिराज मुझे भवसमुद्र से पार कर मोक्ष प्रदान करें ॥८९-९१॥
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