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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार-समुद्र से पार करने वाले सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर संक्षेप से संसारी जीव की दशा दिखलाई जाती है, जो बहुत ही भयावनी है ॥१॥
    कभी कोई मनुष्य एक भयंकर वन में जा पहुँचा । वहाँ वह एक विकराल सिंह को देखकर डर के मारे भागा। भागते-भागते अचानक वह एक गहरे कुँए में गिरा । गिरते हुए उसके हाथों में एक वृक्ष की जड़ें पड़ गई उन्हें पकड़ कर वह लटक गया । वृक्ष पर शहद का एक छत्ता जमा था । सो इस मनुष्य के पीछे भागे आते हुए सिंह के धक्के से वृक्ष हिल गया । वृक्ष के हिल जाने से मधुमक्खियाँ उड़ गई और छत्ते से शहद की बूँदें टप टप टपककर उस मनुष्य के मुँह में गिरने लगी। इधर कुँए में चार भयानक सर्प थे, सो वे उसे डसने के लिए मुँह बाय हुए फुफकार करने लगे और जिन जड़ों को यह अभागा मनुष्य पकड़े हुए था, उन्हें एक काला और एक सफेद ऐसे दो चूहे काट रहे थे। इस प्रकार के भयानक कष्ट में वह फँसा था, फिर भी उससे छुटकारा पाने का कुछ यत्न न कर वह मूर्ख स्वाद की लोलुपता से उन शहद की बूँदों के लोभ को नहीं रोक सका और उल्टा अधिक-अधिक उनकी इच्छा करने लगा। इसी समय जाता हुआ कोई विद्याधर उस ओर आ निकला । उस मनुष्य की ऐसी कष्टमय दशा देखकर उसे बड़ी दया आई। विद्याधर ने उससे कहा- भाई, आओ और इस वायुयान में बैठो। मैं तुम्हें निकाले लेता हूँ । इसके उत्तर में उस अभागे ने कहा- हाँ, जरा आप ठहरें, यह शहद की बूँद गिर रही है, मैं इसे लेकर ही निकलता हूँ। वह बूँद गिर गई विद्याधर ने फिर उससे आने को कहा। तब भी इसने वही उत्तर दिया कि हाँ यह बूँद आई जाती है, मैं अभी आया। गर्ज यह कि विद्याधर ने उसे बहुत समझाया, पर वह " हाँ इस गिरती हुई बूँद को लेकर आता हूँ” इसी आशा मैं फँसा रहा। लाचार होकर बेचारे विद्याधर को लौट जाना पड़ा । सच है, विषयों द्वारा ठगे गए जीवों की अपने हित की ओर कभी प्रीति नहीं होती ॥२-८॥
    जैसे उस मनुष्य को उपकारी विद्याधर ने कुँए से निकालना चाहा, पर वह शहद की लोलुपता से अपने हित को नहीं जान सका, ठीक इसी तरह विषयों में फँसा हुआ जीव संसाररूपी कुँए में कालरूपी सिंह द्वारा अनेक प्रकार के कष्ट पा रहा है, उसकी वायुरूपी डाली को दिन-रात रूपी दो सफेद और काले चूहे काट रहे हैं, कुँए के चार सर्परूपी चार गतियाँ इसे डसने के लिए मुँह बाये खड़ी हैं और गुरु इसे हित का उपदेश दे रहे हैं; तब भी यह अपना हित न कर शहद की बूँदरूपी विषयों में लुब्ध हो रहा है और उनकी ही अधिक-अधिक इच्छा करता जाता है। सच तो यह है कि अभी इसे दुर्गतियों का दुःख बहुत भोगना है । इसीलिए सच्चे मार्ग की ओर इसकी दृष्टि नहीं जाती ॥९-११॥
    इस प्रकार यह संसाररूपी भयंकर समुद्र अत्यन्त दुःखों का देने वाला है और विषयभोग विष मिले भोजन या दुर्जनों के समान कष्ट देने वाले हैं। इस प्रकार संसार की स्थिति देखकर बुद्धिमानों को जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए हुए पवित्र धर्म को, जो कि अविनाशी, अनन्तसुख का देने वाला है, स्थिर भावों के साथ हृदय में धारण करना उचित है ॥१२॥
  2. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    अनन्त सुख के देने वाले और तीनों जगत् के स्वामी श्रीजनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर माया का नाश करने के लिए मायाविनी पुष्पदत्ता की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    प्राचीन समय से प्रसिद्ध अजितावर्त नगर के राजा पुष्पचूल की रानी का नाम पुष्पदत्ता था। राजसुख भोगते हुए पुष्पचूल ने एक दिन अमरगुरु मुनि के पास जिनधर्म का स्वरूप सुना, जो धर्म स्वर्ग और मोक्ष के सुख की प्राप्ति का कारण है। धर्मोपदेश सुनकर पुष्पचूल को संसार, शरीर, भोगादिकों से बड़ा वैराग्य हुआ । वे दीक्षा लेकर मुनि हो गए। उनकी रानी पुष्पदत्ता ने भी उनकी देखा-देखी ब्रह्मिला नाम की आर्यिका के पास आर्यिका की दीक्षा ले ली। दीक्षा ले-लेने पर भी उसे अपने बड़प्पन, राजकुल का अभिमान जैसा का तैसा बना रहा । धार्मिक आचार-व्यवहार से वह विपरीत चलने लगी और ओर आर्यिका को नमस्कार, विनय करना उसे अपने अपमान का कारण जान पड़ने लगा। इसलिए वह किसी को नमस्कारादि नहीं करती थी । इसके सिवा उस योग अवस्था में भी अनेक प्रकार की सुगन्धित वस्तुओं द्वारा अपने शरीर को सिंगारा करती थी । उसका इस प्रकार बुरा, धर्मविरुद्ध आचार-विचार देखकर एक दिन धर्मात्मा ब्रह्मला ने उसे समझाया कि इस योगदशा में तुझे ऐसा शरीर का श्रृंगार आदि करना उचित नहीं है । ये बातें धर्मविरुद्ध और पाप की कारण हैं। इसलिए कि इनसे विषयों की इच्छा बढ़ती है । पुष्पदत्ता ने कहा-नहीं जी, मैं कहाँ शृंगार-विंगार करती हूँ। मेरा तो शरीर ही जन्म से ऐसी सुगन्ध लिए हैं। सच है - जिनके मन में स्वभाव से धर्म-वासना न हो उन्हें कितना भी समझाया जाये, उन पर उस समझाने का कुछ असर नहीं होता। उनकी प्रवृत्ति और अधिक बुरे कामों की ओर जाती है । पुष्पदत्ता ने यह मायाचार कर ठीक न किया। इसका फल इसके लिए बुरा हुआ। वह मरकर इस मायाचार के पाप से चम्पापुरी में सागरदत्त सेठ के यहाँ दासी हुई। उसका नाम जैसा पूतिमुखी था, इसके मुँह से भी सदा वैसी दुर्गन्ध निकलती रहती थी। इसलिए बुद्धिमानों को चाहिए कि वे माया को पाप की कारण जानकर उसे दूर से ही छोड़ दें। यही माया पशुपति के दुःखों का कारण है और कुल, सुन्दरता, यश, माहात्म्य, सुगति, धन-दौलत तथा सुख आदि का नाश करने वाली है और संसार के बढ़ाने वाली लता है। यह जानकर माया को छोड़े हुए जैनधर्म के अनुभवी विद्वानों को उचित है कि वे धर्म की ओर अपनी बुद्धि का लगावें ॥२-१३॥
  3. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिन जगद्बन्धु का ज्ञान लोक और अलोक का प्रकाशित करने वाला है जिनके ज्ञान द्वारा सब पदार्थ जाने जा सकते हैं, अपने हित के लिए उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर मान करने के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है । मगधदेश के लक्ष्मी नाम के सुन्दर गाँव में सोमशर्मा ब्राह्मण रहता था। इसकी स्त्री का नाम लक्ष्मीमती था । लक्ष्मीमती बहुत सुन्दरी थी । अवस्था उसकी जवान थी। उसमें सब गुण थे, पर एक दोष भी था । वह यह कि इसे अपनी जाति का बड़ा अभिमान था और यह सदा अपने को शृंगारने - सजाने में मस्त रहती थी ॥१-३॥
    एक दिन पन्द्रह दिन के उपवास किए हुए श्रीसमाधिगुप्त मुनिराज आहार के लिए उसके यहाँ आए। सोमशर्मा ने उन्हें आहार कराने के लिए भक्ति से ऊँचा आसन पर विराजमान कर और अपनी स्त्री को उन्हें आहार करा देने के लिए कहकर आप कहीं बाहर चला गया। उसे किसी काम की जल्दी थी ॥४-६॥
    इधर ब्राह्मणी बैठी-बैठी काँच में अपना मुख देख रही थी। उसने अभिमान में आकर मुनि को बहुत सी गालियाँ दीं, उनकी निन्दा की और किवाड़ बन्द कर लिए। हाय! इससे अधिक और क्या पाप होगा? मुनिराज शान्त-स्वभावी थे, तप के समुद्र थे, सबका हित करने वाले थे, अनेक गुणों से युक्त थे और उच्च चारित्र के धारक थे, इसलिए ब्राह्मणी की उस दुष्टता पर कुछ ध्यान न देकर वे लौट गए। सच है, पापियों के यहाँ आई हुई निधि भी चली जाती है। मुनि निन्दा के पाप से लक्ष्मीमती के सातवें दिन कोढ़ निकल आया । उसकी दशा बिगड़ गई। सच है - साधु-सन्तों की निन्दा-बुराई से कभी शान्ति नहीं मिलती । लक्ष्मीमती की बुरी हालत देखकर घर के लोगों ने उसे घर से बाहर कर दिया। यह कष्ट पर कष्ट उससे न सहा गया, सो वह आग में बैठकर जल मरी । उसकी मौत बड़े बुरे भावों से हुई । उसी पाप से वह इसी गाँव में एक धोबी के यहाँ गधी हुई इस दशा में इसे दूध पीने को नहीं मिला । यह मरकर सूअरी हुई। फिर दो बार कुत्ती की पर्याय उसने ग्रहण की। इसी दशा में वह वन में दावाग्नि से जल मरी । अब वह नर्मदा नदी के किनारे पर बसे हुए भृगुकच्छ गाँव में एक मल्लाह के यहाँ काणा नाम की लड़की हुई । शरीर उसका जन्म से ही बड़ा दुर्गन्धित था। किसी की इच्छा उसके पास तक बैठने की नहीं होती थी । देखिये अभिमान का फल कि लक्ष्मीमती ब्राह्मणी थी, पर उसने अपनी जाति का अभिमान कर अब मल्लाह के यहाँ जन्म लिया। इसलिए बुद्धिमानों को कभी जाति का गर्व न करना चाहिए ॥७–१६॥
    एक दिन काणा लोगों को नाव द्वारा नदी पार करा रही थी । उसने नदी किनारे पर तपस्या करते हुए उन्हीं मुनि को देखा, जिनकी कि लक्ष्मीमती की पर्याय में इसने निन्दा की थी। उन ज्ञानी मुनि को नमस्कार कर उनसे पूछा- प्रभो, मुझे याद आता है कि मैंने कहीं आपको देखा है? मुनि ने कहा बच्ची, तू पूर्वजन्म में ब्राह्मणी थी, तेरा नाम लक्ष्मीमती था और सोमशर्मा तेरा भर्त्ता था। तूने अपने जाति के अभिमान में आकर मुनिनिन्दा की । उसके पाप से तेरे कोढ़ निकल आया। तू उस दुःख को न सहकर आग में जल मरी। इस आत्महत्या के पाप से तुझे गधी, सुअरी और दो बार कुत्ती होना पड़ा। कुत्ती के भव से मरकर तू इस मल्लाह के यहाँ पैदा हुई है । अपना पूर्व भव का हाल सुनकर काणा को जातिस्मरण हो गया, पूर्वजन्म की सब बातें उसे याद हो उठीं। वह मुनि को नमस्कार कर बड़े दुःख के साथ बोली- प्रभो ! मैं बड़ी पापिनी हूँ। मैंने साधु महात्माओं की बुराई कर बड़ा ही नीच काम किया है। मुनिराज, मेरी पाप से अब रक्षा करो, मुझे कुगतियों में जाने से बचाओ तब मुनि ने उसे धर्म का उपदेश दिया। काणा सुनकर बड़ी सन्तुष्ट हुई उसे बहुत वैराग्य हुआ। वह वहीं मुनि के पास दीक्षा लेकर क्षुल्लिका हो गई। उसने फिर अपनी शक्ति के अनुसार खूब तपस्या की, अन्त में शुभ भावों से मरकर वह स्वर्ग गई । यही काणा फिर स्वर्ग से आकर कुण्ड नगर के राजा भीष्म की महारानी यशस्वती के रूपिणी नाम की बहुत सुन्दर कन्या हुई। रूपिणी का ब्याह वासुदेव के साथ हुआ। सच है, पुण्य के उदय के जीवों को सब धन-दौलत मिलती है ॥१७-२७॥
    जैन धर्म सबका हित करने वाला सर्वोच्च धर्म है। जो इसे पालते हैं, वे अच्छे कुल में जन्म लेते हैं, उन्हें यश-सम्पत्ति प्राप्त होती है, वे कुगति में न जाकर उच्च गति में जाते हैं और अन्त में मोक्ष का सर्वोच्च सुख लाभ करते हैं ॥२८॥
  4. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    भूख, प्यास, रोग, शोक, जन्म, मरण, भय, माया, चिन्ता, मोह, राग, द्वेष आदि अठारह दोषों से जो रहित हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर वशिष्ठ तापसी की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    उग्रसेन मथुरा के राजा थे। उनकी रानी का नाम रेवती था । रेवती अपने स्वामी की बड़ी प्यारी थी। यहीं एक जिनदत्त सेठ रहता था। जिनदत्त के यहाँ प्रियंगुलता नाम की एक नौकरानी थी । मथुरा में यमुना किनारे पर वशिष्ठ नाम का एक तापसी रहता था। वह रोज नहा-धोकर पंचाग्नि तप किया करता था। लोग उसे बड़ा भारी तपस्वी समझ कर उसकी खूब सेवा-भक्ति करते थे। सो ठीक ही है, असमझ लोग प्रायः देखा-देखी हर एक काम करने लग जाते हैं । यहाँ तक कि शहर की दासियाँ पानी भरने को कुँए पर जब आती तो वे भी तापस महाराज की बड़ी भक्ति से प्रदक्षिणा करती, उनके पाँवों पड़ती और उनकी सेवा - सुश्रुषा कर फिर वे घर जातीं । प्रायः सभी का यही हाल था । पर हाँ प्रियंगुलता इससे बरी थी । उसे ये बातें बिल्कुल नहीं रुचती थीं । इसलिए कि वह बचपने से ही जैनी के यहाँ काम करती रही । उसके साथ की और स्त्रियों को प्रियंगुलता का यह हठ अच्छा नहीं जान पड़ा और इसलिए मौका पाकर वे एक दिन प्रियंगुलता को उस तापसी के पास जबरदस्ती लिवा ले गई और इच्छा न रहते भी उन्होंने उसका सिर तापसी के पाँवों पर रख दिया। अब तो प्रियंगुलता से न रहा गया। उसने गुस्सा होकर साफ-साफ कह दिया कि यदि इस ढोंगी के मैं हाथ जोडूं, तब फिर मुझे एक धीवर (भोई) के ही क्यों न हाथ जोड़ना चाहिए? इससे तो वह बहुत अच्छा है। एक दासी के द्वारा अपनी निन्दा सुनकर तापसी जी को बड़ा गुस्सा आया । वे उन दासियों पर भी बहुत बिगड़े, जिन्होंने जर्बदस्ती प्रियंगुलता को उनके पाँवों पर पटका था । दासियाँ तो तापसी जी की लाल-पीली आँखें देखकर उसी समय वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गई पर तापस महाराज की क्रोधाग्नि तब भी न बुझी॥२-१०॥
    उसने उग्रसेन महाराज के पास पहुँचकर शिकायत की कि प्रभो, जिनदत्त सेठ ने मुझे धीवर बतलाकर मेरा बड़ा अपमान किया। उसे एक साधु की इस तरह बुराई करने का क्या अधिकार था? उग्रसेन को भी एक दूसरे धर्म के साधु की बुराई करना अच्छा नहीं जान पड़ा। उन्होंने जिनदत्त को बुलाकर पूछा, जिनदत्त ने कहा- महाराज यदि यह तपस्या करता है तो यह तापसी है ही, इसमें विवाद किसको है। पर मैंने तो इसे धीवर नहीं बतलाया और सचमुच जिनदत्त ने उससे कुछ कहा भी नहीं था । जिनदत्त को इंकार करते देख तापसी घबराया। तब उसने अपनी सच्चाई बतलाने के लिए कहा- ना प्रभो, जिनदत्त की दासी ने ऐसा कहा था तापसी की बात पर महाराज को कुछ हँसी-सी आ गई उन्होंने तब प्रियंगुलता को बुलवाया। वह आई उसे देखते ही तापसी के क्रोध का कुछ ठिकाना ना रहा । वह कुछ न सोचकर एक साथ ही प्रियंगुलता पर बिगड़ खड़ा हुआ और गाली देते हुए उसने कहा- राँड़ तूने मुझे धीवर बतलाया है, तेरे इस अपराध की सजा तो तुझे महाराज देंगे ही। पर देख, मैं धीवर नहीं हूँ किन्तु केवल हवा के आधार पर जीवन रखने वाला एक परम तपस्वी हूँ । बतला तो, तूने मुझे क्या समझ कर धीवर कहा ? प्रियंगुलता ने तब निर्भय होकर कहा- हाँ बतलाऊँ कि मैंने तुझे क्यों मल्लाह बतलाया था? ले सुन, जबकि तू रोज-रोज मच्छलियाँ मारा करता है तब तू मल्लाह तो है ही! मुझे ऐसी दशा से कौन समझदार तापसी कहेगा ? तू यह कहे कि इसके लिए सबूत क्या? तू जैनी के यहाँ रहती है, इसलिए दूसरे धर्मों की या उनके साधु-सन्तों की बुराई करना तो तेरा स्वभाव होना ही चाहिए। पर सुन, मैं तुझे आज यह बतला देना चाहती हूँ कि जैनधर्म सत्य का पक्षपाती है ॥११-१७॥
    उसमें सच्चे साधु संत ही पुजते हैं। तेरे से ढोंगी, बेचारे भोले लोगों को धोखा देने वालों की उसके सामने दाल नहीं गल पाती। ऐसा ही ढोंगी देखकर तुझे मैंने मल्लाह बतलाया और न मैं तुझमें मछली मारने वाले मल्लाहों से कोई अधिक बात ही पाती हूँ। तब बतला मैंने इसमें कौन तेरी बुराई की? अच्छा, यदि तू मल्लाह नहीं है तो जरा अपनी इन जटाओं को तो झाड़ दे अब तो तापस महाराज बड़े घबराये और उन्होंने बातें बनाकर इस बात को ही उड़ा देना चाहा। पर प्रियंगुलता ऐसे  कैसे रास्ते पर आ जाने वाली थी । उसने तापसी से जटा झड़वा कर ही छोड़ा । जटा झाड़ने पर सचमुच छोटी-छोटी मछलियाँ उसमें से गिरी । सब देखकर दंग रह गए। उग्रसेन ने तब जैनधर्म की खूब तारीफ कर तापसी से कहा - महाराज, जाइए - जाइए आपके इस भेष से पूरा पड़े। मेरी प्रजा को आपसे हृदय के मैले साधुओं की जरूरत नहीं । तापसी को भरी सभा में अपमानित होने से बहुत ही नीचा देखना पड़ा। वह अपना सा मुँह लिए वहाँ से अपने आश्रम में आया पर लज्जा, अपमान, आत्मग्लानि से वह मरा जाता था। जो उसे देख पाता वही उसकी ओर अँगुली उठाकर बतलाने लगता। तब उसने वहाँ रहना छोड़ देना ही अच्छा समझ कुच कर दिया । वहाँ से वह गंगा और गंधवती के मिलाप होने की जगह आया और वहीं आश्रम बनाकर रहने लगा । एक दिन जैनतत्त्व के परम जानकार श्री वीरभद्राचार्य अपने संघ को लिए इस ओर आ गए । वशिष्ठ - तापस को पंचाग्नि तप करते देख एक मुनि ने अपने गुरु से कहा- महाराज, यह तापसी तो बड़ा ही कठिन और असह्य तप करता है ॥ १८-२२॥
    आचार्य बोले-हाँ यह ठीक है कि ऐसे तप में भी शरीर को बेहद कष्ट दिये बिना काम नहीं चलता, पर अज्ञानियों का तप कोई प्रशंसा के लायक नहीं । भला, जिनके मन में दया नहीं, जो संसार की सब माया, ममता और आरम्भ - सारम्भ छोड़-छोड़कर योगी हुए और फिर वे ऐसा दयाहीन, (जिसमें हजारों लाखों जीव रोज-रोज जलते हैं) तप करें तो इससे और अधिक दुःख की बात कौन होगी। वशिष्ठ के कानों में भी यह आवाज गई वह गुस्सा होकर आचार्य के पास आया और बोला- आपने मुझे अज्ञानी कहा, यह क्यों? मुझमें आपने क्या अज्ञानता देखी, बतलाइए? आचार्य ने कहा— भाई, गुस्सा मत हो। तुम्हें लक्ष कर तो मैंने कोई बात नहीं कही हैं। फिर क्यों इतना गुस्सा करते हों? मेरी धारणा तो ऐसे तप करने वाले सभी तापसों के सम्बन्ध में है कि वे बेचारे अज्ञान से ठगे जाकर ही ऐसे हिंसामय तप को तप समझते हैं। यह तप नहीं है किन्तु जीवों का होम करना है और जो तुम यह कहते हो, कि मुझे आपने अज्ञानी क्यों बतलाया, तो अच्छा एक बात तुम ही बतलाओ कि तुम्हारे गुरु, जो सदा ऐसा तप किया करते थे, मरकर तप के फल से कहाँ पैदा हुए हैं? तापस बोला- हाँ, क्यों नहीं कहूँगा? मेरे गुरुजी स्वर्ग में गए हैं। वीरभद्राचार्य ने कहा- नहीं तुम्हें इसका मालूम ही नहीं हो सकता। सुनो, मैं बतलाता हूँ कि तुम्हारे गुरु की मरे बाद क्या दशा हुई, आचार्य ने अवधिज्ञान जोड़कर कहा- - तुम्हारे गुरु स्वर्ग में नहीं गए किन्तु साँप हुए हैं और इस लकड़े के साथ-साथ जल रहे हैं। तापस को विश्वास नहीं हुआ बल्कि उसे गुस्सा भी आया कि इन्होंने क्यों मेरे गुरु को साँप हुआ बतलाकर उनकी बुराई की। पर आचार्य की बात सच है या झूठ इसकी परीक्षा कर देखने के लिए यही उपाय था कि उस लकड़े को चीरकर देखे। तापसी ने वैसा ही किया । लकड़े को चीरा । वीरभद्राचार्य का कहा सत्य हुआ। सर्प उसमें से निकला। देखते ही तापस को बड़ा अचम्भा हुआ । उसका सब अभिमान चूर-चूर हो गया। उसकी आचार्य पर बहुत ही श्रद्धा हो गई उसने जैनधर्म का उपदेश सुना। सुनकर उसके हिये की आँखें, जो इतने दिनों से बन्द थीं, एकदम खुल गई हृदय में पवित्रता का स्रोत फट निकला। बहुत दिनों का कूट-कपट, मायाचार रूपी मैलापन देखते-देखते न जाने कहाँ बहकर चला गया। वह उसी समय वीरभद्राचार्य से मुनि दीक्षा लेकर अब से सच्चा तापसी बन गया। यहाँ घूमते- फिरते और धर्मोपदेश करते वशिष्ठ मुनि एक बार मथुरा की ओर फिर आए । तपस्या के लिए इन्होंने गोवर्द्धन पर्वत बहुत पसन्द किया। वहीं ये तपस्या किया करते थे । एक बार इन्होंने महीना भर के उपवास किए। तप के प्रभाव से इन्हें कई विद्याएँ सिद्ध हो गई विद्याओं ने आकर इनसे कहा - प्रभो, हम आपकी दासियाँ हैं । आप हमें कोई काम बतलाइए । वशिष्ठ ने कहा- अच्छा, इस समय तो मुझे कोई काम नहीं, पर जब होगा तब मैं तुम्हें याद करूँगा। उस समय तुम उपस्थित होना। इसलिए इस समय तुम जाओ। जिन्होंने संसार की सब माया, ममता छोड़ रखी है, सच पूछो तो उनके लिए ऐसी ऋद्धि-सिद्धि की कोई जरूरत नहीं । पर वशिष्ठ मुनि ने लोभ में पड़कर विद्याओं को अपनी आज्ञा में रहने को कह दिया । पर यह उनके पदस्थ योग्य न था ॥२३ - ३१॥
    महीना भर के उपवास से वशिष्ठ मुनि पारणा को शहर में आए। उग्रसेन को उनके उपवास करने की पहले से मालूम थी । इसलिए तभी से उन्होंने भक्ति के वश हो सारे शहर में डौंडी पिटवा दी थी कि तपस्वी वशिष्ठ मुनि को मैं पारणा कराऊँगा उन्हें आहार दूँगा और कोई न दे। सच है, कभी-कभी मूर्खता की हुई भक्ति भी दुःख की कारण बन जाया करती है । वशिष्ठ मुनि के प्रति उग्रसेन राजा की थी तो भक्ति, पर उसमें स्वार्थ का भाग होने से उसका उल्टा परिणाम हो गया। बात यह हुई कि जब वशिष्ठ मुनि पारणा के लिए आए, तब अचानक राजा का खास हाथी उन्मत्त हो गया। वह साँकल तुड़ाकर भाग खड़ा हुआ और लोगों को कष्ट देने लगा। राजा उसके पकड़वाने का प्रबन्ध करने में लग गए। उन्हें मुनि के पारणे की बात याद न रही । सो मुनि शहर में इधर-उधर घूम-घामकर वापस वन में लौट गए। शहर के और किसी गृहस्थ ने उन्हें इसलिए आहार न दिया कि राजा ने उन्हें सख्त मना कर दिया था। दूसरे दिन कर्मसंयोग से शहर के किसी मुहल्ले में भयंकर आग लग आई, सो राजा इसके मारे व्याकुल हो उठे। मुनि आज भी सब शहर में तथा राजमहल में भिक्षा के लिए चक्कर लगाकर लौट गए। उन्हें कहीं आहार न मिला। तीसरे दिन जरासन्ध राजा का किसी विषय को लिए आज्ञापत्र आ गया, सो आज इसकी चिन्ता के मारे उन्हें स्मरण न आया। सच है, अज्ञान से किया काम कभी सिद्ध नहीं हो पाता। मुनि आज भी अन्तराय कर लौट गए। शहर बाहर पहुँचते न पहुँचते वे गश खाकर जमीन पर गिर पड़े। मुनि की यह दशा देखकर एक बुढ़िया ने गुस्सा होकर कहा- यहाँ का राजा बड़ा ही दुष्ट है। न तो मुनि को आप ही आहार देता है और न दूसरों को देने देता है। हाय! एक निरपराध तपस्वी की उसने व्यर्थ ही जान ले ली। बुढ़िया की बातें मुनि ने सुन लीं ॥३२-४२॥
    राजा की इस नीचता पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आया। वे उठकर सीधे पर्वत पर गए। उन्होंने विद्याओं को बुलाकर कहा - मथुरा का राजा बड़ा ही पापी है, तुम जाकर फौरन ही मार डालो ! मुनि को इस प्रकार क्रोध की आग उगलते देख विद्याओं ने कहा- प्र - प्रभो, आपको कहने का हमें कोई और धर्म पर कोई कलंक न लगे कि एक अधिकार नहीं, पर तब भी आपके अच्छे के लिहाज से जैनमुनि ने ऐसा अन्याय किया, हम निःसंकोच होकर कहेंगे कि इस वेष के लिए आपकी यह आज्ञा सर्वथा अनुचित है और इसीलिए हम आपके साथ देने के लिए भी हिचकते हैं। आप क्षमा के सागर हैं, आपके लिए शत्रु और मित्र एक जैसे हैं। मुनि पर देवियों की इस शिक्षा का कुछ असर नहीं हुआ। उन्होंने यह कहते हुए प्राण छोड़ दिये कि अच्छा, तुम मेरी आज्ञा का दूसरे जन्म में पालन करना। मैं दान में विघ्न करने वाले इस उग्रसेन राजा को मारकर अपना बदला अवश्य चुकाऊँगा।मुनि ने तपस्या नाश करने वाले निदान को तप का फल पर जन्म में मुझे इस प्रकार मिले, ऐसे संकल्प को करके रेवती के गर्भ में जन्म लिया । सच है, क्रोध सब कामों को नष्ट करने वाला और पाप का मूल कारण है। एक दिन रेवती को दुर्बल देखकर उग्रसेन ने उससे पूछा-प्रिये, दिनों-दिन तुम ऐसी दुबली क्यों होती जाती हो? तुझे चिन्तातुर देख बड़ा खेद होता है । रेवती ने कहा- नाथ, क्या कहूँ, कहते हृदय काँपता है । नहीं जान पड़ता कि होनहार कैसी हो ? स्वामी, मुझे बड़ा ही भयंकर दोहला हुआ है। मैं नहीं कह सकती कि अपने यहाँ अब की बार किस अभागे ने जन्म लिया है। नाथ! कहते हुए आत्मग्लानि से मेरा हृदय फटा पड़ता है। मैं उसे कहकर आपको और अधिक चिन्ता में डालना नहीं चाहती । उग्रसेन को अधिकाधिक आश्चर्य और उत्कण्ठा बढ़ी। उन्होंने बड़े हठ के साथ पूछा-आखिर रानी को कहना ही पड़ा। वह बोली- अच्छा नाथ, यदि आपका आग्रह ही है तो सुनिए, जी कड़ा करके कहती हूँ। मेरी अत्यन्त इच्छा होती है कि- “मैं आपका पेट चीरकर खून पान करूँ।” मुझे नहीं जान पड़ता कि ऐसा दुष्ट दोहला क्यों होता है? भगवान् जाने। यह प्रसिद्ध है कि जैसा गर्भ में बालक आता है, दोहला भी वैसा ही होता है । सुनकर उग्रसेन को भी चिन्ता हुई, पर उसके लिए इलाज क्या था, उन्होंने सोचा, दोहला बुरा या भला, इसका निश्चय होना तो अभी असंभव है। पर उसके अनुसार रानी की इच्छा तो पूरी होनी ही चाहिए । तब इसके लिए उन्होंने यह युक्ति की कि अपने आकार का एक पुतला बनवाकर उसमें कृत्रिम खून भरवाया और रानी को उसकी इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने कहा । रानी ने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए उस पापकर्म को किया। वह सन्तुष्ट हुई ॥४३ - ५२॥
    थोड़े दिनों बाद रेवती ने एक पुत्र जना। वह देखने में बड़ा भयंकर था । उसकी आँखों से क्रूरता टपक पड़ती थी। उग्रसेन ने उसके मुँह की ओर देखा तो वह मुट्ठी बाँधे बड़ी क्रूर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा । उन्हें विश्वास हो गया कि जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न हुआ आग सारे वन को जलाकर खाक कर देती है ठीक इसी तरह से कुल में उत्पन्न हुआ दुष्ट पुत्र भी सारे कुल को जड़मूल से उखाड़ फेंक देता है । मुझे इस लड़के की क्रूरता को देखकर भी यही निश्चय होता है कि अब इस कुल के भी दिन अच्छे नहीं है । यद्यपि अच्छा-बुरा होना दैवाधीन है, तथापि मुझे अपने कुल की रक्षा के निमित्त कुछ यत्न करना ही चाहिए। हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। यह सोचकर उग्रसेन ने एक छोटा-सा सुन्दर सन्दूक मँगवाया और उस बालक को अपने नाम की एक अँगूठी पहनाकर हिफाजत के साथ उस सन्दूक में रख दिया। इसके बाद सन्दूक को उन्होंने यमुना नदी में छुड़वा दिया। सच दुष्ट किसी को भी प्रिय नहीं लगता ॥५३-५६॥
    कौशाम्बी में गंगाभद्र नाम का एक माली रहता था । उसकी स्त्री का नाम राजोदरी था। एक दिन वह जल भरने को नदी पर आई हुई थी । तब नदी में बहती हुई एक सन्दूक पर उसकी नजर पड़ी। वह उसे बाहर निकाल अपने घर ले आई सन्दूक को राजोदरी ने खोला। उसमें से एक बालक निकला। राजोदरी उस बालक को पाकर बड़ी खुश हुई कारण कि उसके कोई लड़का नहीं था। उसने बड़े प्रेम से इसे पाला-पोसा । वह बालक काँसे की सन्दूक में निकला था, इसलिए राजोदरी ने इसका नाम भी ‘कंस' रख दिया ॥५७-५८॥
    कंस का स्वभाव अच्छा न होकर क्रूरता लिए हुए था । यह अपने साथ के बालकों को मारा- पीटा करता और बात-बात पर उन्हें तंग किया करता था । इसके अड़ोस - पड़ोस के लोग बड़े दुःखी रहा करते थे। राजोदरी के पास दिनभर में कंस की कोई पचासों शिकायतें आया करती थी । उस बेचारी ने बहुत दिन तक तो उसका उत्पात - उपद्रव सहा, पर फिर उससे भी यह दिन-रात का झगड़ा-टंटा न सहा गया । सो उसने कंस को घर से निकाल दिया । सच है - पापी पुरुषों से किसी को भी कभी सुख नहीं मिलता। कंस अब शौरीपुर पहुँचा । यहाँ वह वसुदेव का शिष्य बनकर शास्त्राभ्यास करने लगा। थोड़े दिनों में वह साधारण अच्छा लिख-पढ़ गया। वसुदेव की इस पर अच्छी कृपा हो गई इस कथा के साथ एक और कथा का सम्बन्ध है, इसलिए वह कथा यहाँ लिखी जाती है- ॥५९-६१॥
    सिंहरथ नाम का एक राजा जरासन्ध का शत्रु था । जरासन्ध ने इसे पकड़ लाने का बड़ा यत्न किया, पर किसी तरह यह इसके काबू में नहीं आता था । तब जरासन्ध ने सारे शहर में डौंडी पिटवाई कि वीर-शिरोमणि सिंहरथ को पकड़कर मेरे सामने लाकर उपस्थित करेगा, उसे मैं अपनी जीवंजसा लड़की को ब्याह दूँगा और अपने देश का कुछ हिस्सा भी मैं उसे दूँगा । इसके लिए वसुदेव तैयार हुआ । वह अपने बड़े भाई की आज्ञा से सब सेना को साथ लिए सिंहरथ के ऊपर जा चढ़ा । उसने जाते ही सिंहरथ की राजधानी पोदनपुर के चारों ओर घेरा डाल दिया और आप एक व्यापारी के वेष में राजधानी के भीतर घुसा। कुछ खास-खास लोगों को धन का खूब लोभ देकर उसने उन्हें फोड़ लिया। हाथी के महावत, रथ के सारथी आदि को उसने पैसे का गुलाम बनाकर अपनी मुट्ठी में कर लिया। सिंहरथ को इसका समाचार लगते ही उसने भी उसी समय रणभेरी बजवाई और बड़ी वीरता के साथ वह लड़ने के लिए अपने शहर से बाहर हुआ। दोनों ओर से युद्ध के झुझारु बाजे बजने लगे। उनकी गम्भीर आवाज अनन्त आकाश को भेदती हुई स्वर्गों के द्वारों से जाकर टकराई, सुखी देवों का आसन हिल गया। अमरांगनाओं ने समझा कि हमारे यहाँ मेहमान आते हैं, सो वे उनके सत्कार के लिए हाथों में कल्पवृक्षों के फलों की मनोहर मालाएँ ले-लेकर स्वर्गों के द्वार पर उनकी अगवानी के लिए आ डटीं । स्वर्गों के दरवाजे उनसे ऐसे खिल उठे मानों चन्द्रमाओं की प्रदर्शनी की गई है। थोड़ी ही देर में दोनों ओर से युद्ध छिड़ गया । खूब मारकाट हुई खून की नदी बहने लगी। मृतकों के सिर और धड़ उसमें तैरने लगे। दोनों ओर की वीर सेना ने अपने-अपने स्वामी के नमक का जी खोलकर परिचय कराया । जिसे न्याय की जीत कहते हैं, वह किसी को प्राप्त न हुई । पर वसुदेव ने जो पोदनपुर के कुछ लोगों को अपने मुट्ठी में कर लिया था, उन स्वार्थियों, विश्वासघातियों ने अन्त में अपने मालिक को दगा दे दिया । सिंहरथ को उन्होंने वसुदेव के हाथ पकड़वा दिया ॥६२-६६॥
    सिंहरथ का रथ मौके के समय बेकार हो गया। उसी समय वसुदेव ने उसे घेरकर कंस से कहा-जो कि उसके रथ का सारथी था, कंस देखते क्या हो? उतर कर शत्रु को बाँध लो । कंस ने गुस्से के साथ रथ से उतर कर सिंहरथ को बाँध लिया और रथ में रखकर उसी समय वे वहाँ से चल दिये। सच है, अग्नि एक तो वैसे ही तपी हुई होती है और ऊपर से यदि वायु बहने लगे तब तो उसके तपने का पूछना ही क्या ? सिंहरथ को बाँध लाकर वसुदेव ने जरासन्ध के सामने उसे रख दिया। देखकर जरासन्ध बहुत ही प्रसन्न हुआ । अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए उसने वसुदेव से कहा- मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ । अब आप कृपाकर मेरी कुमारी का पाणिग्रहण कर मेरी इच्छा पूरी कीजिए और मेरे देश के जिस प्रदेश को आप पसन्द करें मैं उसे भी देने को तैयार हूँ। वसुदेव ने कहा - प्रभो, आपकी इस कृपा का मैं पात्र नहीं । कारण मैंने सिंहरथ को नहीं बाँधा है। इसे बाँधा है मेरे प्रिय शिष्य कंस ने। सो आप जो कुछ देना चाहें इसे देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिए। जरासन्ध ने कंस की ओर देखकर उससे पूछा- भाई, तुम्हारी जाति-कुल क्या है? कंस को अपने विषय में जो बात ज्ञात थी, उसने वही स्पष्ट बतला दी कि प्रभो, मैं तो एक मालिन का लड़का हूँ। जरासन्ध को कंस की सुन्दरता और तेजस्विता देखकर यह विश्वास नहीं हुआ कि वह सचमुच ही एक मालिन का लड़का होगा। इसके निश्चय करने के लिए जरासन्ध ने उसकी माँ को बुलवाया। यह ठीक है कि राजा लोग प्रायः बुद्धिमान् और चतुर हुआ करते हैं । कंस की माँ को जब यह खबर मिली कि उसे राजदरबार में बुलाया है, तब तो उसकी छाती धड़कने लग गई वह कंस की शैतानी का हाल तो जानती ही थी, सो उसने सोचा कि जरूर कंस ने कोई बड़ा भारी गुनाह किया है और इसी से वह पकड़ा गया है। अब उसके साथ मेरी भी आफत आई वह घबराई और पछताने लगी कि हाय? मैंने क्यों इस दुष्ट को अपने घर लाकर रखा ? अब न जाने राजा मेरा क्या हाल करेगा? जो हो, बेचारी रोती-झींकती राजा के पास गई और अपने साथ उस सन्दूक को भी ले गई, जिसमें कि कंस निकला था। इसने राजा के सामने होते ही काँपते - काँपते कहा- दुहाई है महाराजा की! महाराज, यह पापी मेरा लड़का नहीं हैं, मैं सच कहती हूँ । इस सन्दूक में से यह निकला है । सन्दूक को आप लीजिए और मुझे छोड़ दीजिये। मेरा इसमें कोई अपराध नहीं । मालिन को इतनी घबराई देखकर राजा को कुछ हँसी-सी आ गई उसने कहा- नहीं, इतने डरने - घबराने की कोई बात नहीं। मैंने तुम्हें कोई कष्ट देने को नहीं बुलाया है। बुलाया है सिर्फ कंस की खरी-खरी हकीकत जानने के लिए। इसके बाद ने सन्दूक उठाकर खोला तो उसमें एक कम्बल और एक अँगूठी निकली। अँगूठी पर खुदा हुआ नाम पढ़कर राजा को कंस के सम्बन्ध में अब कोई शंका न रह गई उसने उसे एक अच्छे राजकुल में जन्मा समझ उसके साथ अपनी जीवंजसा कुमारी का ब्याह बड़े ठाटबाट से कर दिया। जरासन्ध ने उसे अपना राज का हिस्सा भी दिया। कंस अब राजा हो गया ॥ ६७-७९॥
    राजा होने के साथ ही अब उसे अपनी राज्य सीमा और प्रभुत्व बढ़ाने की महत्त्वाकांक्षा हुई। मथुरा के राजा उग्रसेन के साथ उसकी पूर्व जन्म की शत्रुता है । कंस जानता था कि उग्रसेन मेरे पिता हैं, पर तब भी उन पर वह जला करता है और उसके मन में सदा यह भावना उठती हैं कि मैं उग्रसेन से लडूं और उनका राज्य छीनकर अपनी आशा पूरी करूँ । यही कारण था कि उसने पहली चढ़ाई अपने पिता पर ही की। युद्ध में कंस की विजय हुई उसने अपने पिता को एक लोहे के पिंजरे में बन्द कर और शहर के दरवाजे के पास उस पिंजरे को रखवा दिया और आप मथुरा का राजा बनकर राज्य करने लगा। कंस को इतने पर भी सन्तोष न हुआ सो अपना बैर चुकाने का अच्छा मौका समझ वह उग्रसेन को बहुत कष्ट देने लगा। उन्हें खाने के लिए वह केवल कोदू की रोटियाँ और छाछ देता। पीने के लिए गन्दा पानी और पहनने के लिए बड़े ही मैले-कुचैले और फटे-पुराने चिथड़े देता । मतलब यह कि उसने एक बड़े से बड़े अपराधी की तरह उनकी दशा कर रक्खी थी। उग्रसेन की इस हालात को देखकर उनके कट्टर दुश्मन की भी छाती फटकर उसकी आँखों से सहानुभूति के आँसू गिर सकते थे, पर पापी कंस को उनके लिए रत्तीभर भी दया या सहानुभूति नहीं थी । सच है - कुपुत्र कुल का काल होता है । अपने भाई की यह नीचता देखकर कंस के छोटे भाई अतिमुक्तक को संसार से बड़ी घृणा हुई उन्होंने सब मोह-माया छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली। वसुदेव कंस के गुरु थे। इसके सिवा उन्होंने उसका बहुत कुछ उपकार किया था, इसलिए कंस की उन पर बड़ी श्रद्धा थी। उसने उन्हें अपने ही पास बुलाकर रख लिया ॥८०-८४॥
    मृतकावती पुरी के राजा देवकी के एक कन्या थी । वह बड़ी सुन्दर थी । राजा का उस पर बहुत प्यार था । इसलिए उसका नाम उन्होंने अपने ही नाम पर देवकी रख दिया था । कंस ने उसे अपनी बहिन मानी थी, सो वसुदेव के साथ उसने उसका ब्याह कर दिया। एक दिन की बात है कि कंस की स्त्री जीवंजसा ने देवकी के और अपने देवर अतिमुक्तक की स्त्री पुष्पवती के वस्त्रों को आप पहनकर नाच रही थी - हँसी मजाक कर रही थी । इसी समय कंस के भाई अतिमुक्तक मुनि आहार के लिए आए। जीवंजसा ने हँसते-हँसते मुनि से कहा- अजी ओ देवरजी, आइए! आइए ! मेरे साथ-साथ आप भी नाचिये । देखिए, फिर बड़ा ही आनन्द आयेगा। मुनि ने गंभीरता से उत्तर दिया। बहिन, मेरा यह मार्ग नहीं है। इसलिए अलग हो जा और मुझे जाने दे। पापिनी जीवंजसा ने मुनि को जाने न देकर उल्टा हाथ पकड़ लिया और बोली- नहीं, मैं तब तक आपको कहीं न जाने दूँगी जब तक कि आप मेरे साथ न नाचेंगे। मुनि को इससे कुछ कष्ट हुआ और इसी से उन्होंने आवेग में आ उससे कह दिया कि मूर्ख, नाचती क्यों है! जाकर अपने स्वामी से कह कि आपकी मौत देवकी के लड़के द्वारा होगी और वह समय बहुत नजदीक आ रहा है। सुनकर जीवंजसा को बड़ा गुस्सा आया। उसने गुस्से में आकर देवकी के वस्त्र को, जिसे कि वह पहने हुए थी, फाड़कर दो टुकड़े कर दिये। मुनि ने कहा- - मूर्ख स्त्री, कपड़े को फाड़ देने से क्या होगा? देख और सुन, जिस तरह तूने इस कपड़े के दो टुकड़े कर दिये हैं उसी तरह देवकी के होने वाला वीर पुत्र तेरे बाप के दो टुकड़े करेगा । जीवंजसा को बड़ा ही दुःख हुआ। वह नाचना गाना सब भूल गई अपने पति के पास दौड़ी जाकर वह रोने लगी। सच है यह जीव अज्ञानदशा में हँसता-हँसता जो पाप कमाता है उसका फल भी इसे बड़ा ही बुरा भोगना पड़ता है । कंस जीवंजसा को रोती देखकर बड़ा घबराया। उसने पूछा-प्रिये, क्यों रोती हो? बतलाओ, क्या हुआ? संसार में ऐसा कौन धृष्ट होगा जो कंस की प्राणप्यारी को रुला सके ! प्रिये, जल्दी बतलाओ, तुम्हें रोती देखकर मैं बड़ा दुःखी हो रहा हूँ। जीवंजसा ने मुनि द्वारा जो-जो बातें सुनी थीं, उन्हें कंस से कह दिया । सुनकर कंस को भी बड़ी चिन्ता हुई। वह जीवंजसा से बोला- प्रिये, घबराने की कोई बात नहीं, मेरे पास इस रोग की भी दवा है। इसके बाद ही वह वसुदेव के पास पहुँचा और उन्हें नमस्कार कर बोला-गुरु महाराज, आपने मुझे पहले एक‘वर’ दिया था। उसकी मुझे अब जरूरत पड़ी है। कृपा कर मेरी आशा पूरी कीजिए इतना कहकर कंस ने कहा- मेरी इच्छा देवकी के होने वाले पुत्र के मार डालने की है। इसलिए कि मुनि ने उसे मेरा शत्रु बतलाया है। सो कृपाकर देवकी की  प्रसूति मेरे महल में हो  इसके लिए अपनी  अनुमति दीजिए ॥८५-९८॥
     
    अपने एक शिष्य की इस प्रकार नीचता, गुरुद्रोह देखकर वसुदेव की छाती धड़क उठी। उनकी आँखों में आँसू भर आए । पर करते क्या? वे क्षत्रिय थे और क्षत्रिय लोग इस व्रत के व्रती होते हैं कि “प्राण जाँहि पर वचन न जाँहि ।” तब उन्हें लाचार होकर कंस का कहना बिना कुछ कहे- सुने मान लेना पड़ा क्योंकि सत्पुरुष अपने वचनों का पालन करने में कभी कपट नहीं करते। देवकी ये सब बातें खड़ी-खड़ी सुन रही थी । उसे अत्यन्त दुःख हुआ । वह वसुदेव से बोली-प्राणनाथ, मुझसे यह दुःसह पुत्र-दुःख नहीं सहा जायेगा। मैं तो जाकर जिनदीक्षा ले लेती हूँ। वसुदेव ने कहा- प्रिये, घबराने की कोई बात नहीं है, चलो, हम चलकर मुनिराज से पूछे कि बात क्या है? फिर जैसा कुछ होगा विचार करेंगे। वसुदेव अपनी प्रिया के साथ वन में गए वहाँ अतिमुक्तक मुनि एक फले हुए आम के झाड़ के नीचे स्वाध्याय कर रहे थे। उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर वसुदेव ने पूछा-हे जिनेन्द्र भगवान् के सच्चे भक्त योगिराज, कृपा कर मुझे बतलाइए कि मेरे किस पुत्र द्वारा कंस और जरासंध की मौत होगी ? इस समय देवकी आम की एक डाली पकड़े हुए थी । उस पर आठ आम लगे थे। उनमें छह आम तो दो-दो की जोड़ी में लगे थे और उनमें ऊपर दो आम जुदा-जुदा लगे थे। इन दो आमों में से एक आम इसी समय पृथ्वी पर गिर पड़ा और दूसरा आम थोड़ी ही देर बाद पक गया। इस निमित्त ज्ञान पर विचार कर अवधिज्ञानी मुनि बोले- भव्य वसुदेव, सुनो मैं तुम्हें खुलासा समझाये देता हूँ । देखो, देवकी के आठ पुत्र होंगे। उनमें छह तो नियम से मोक्ष जायेंगे। रहे दो, सो इनमें सातवाँ जरासंध और कंस का मारने वाला होगा और आठवाँ कर्मों का नाश कर मुक्ति- महिला का पति होगा। मुनिराज से इस सुख - समाचार को सुनकर वसुदेव और देवकी को बहुत आनन्द हुआ। वसुदेव को विश्वास था कि मुनि का कहा कभी झूठ नहीं हो सकता। मेरे पुत्र द्वारा कंस और जरासंध की होने वाली मौत को कोई नहीं टाल सकता। इसके बाद वे दोनों भक्ति से मुनि को नमस्कार कर अपने घर आए। सच है - जिनभगवान् के धर्म पर विश्वास करना ही सुख का कारण है ॥९९-११०॥
    देवकी के जब से सन्तान होने की सम्भावना हुई तब से उसके रहने का प्रबन्ध कंस के महल पर हुआ। कुछ दिनों बाद पवित्रमना देवकी ने दो पुत्रों को एक साथ जना । इसी समय कोई ऐसा पुण्य- योग मिला कि भद्रिलापुर में श्रुतदृष्टि सेठ की स्त्री अलका के भी पुत्र युगल हुआ। पर वह युगल- मरा हुआ था। सो देवकी के पुत्रों के पुण्य से प्रेरित होकर एक देवता इस मृत-युगल को उठा कर तो देवकी के पास रख आया और उसके जीते पुत्रों को अलका के पास ला रखा। सच है, पुण्यवानों की देव भी रक्षा करते हैं । इसलिए कहना पड़ेगा कि जिन भगवान् ने जो पुण्यमार्ग में चलने का उपदेश दिया है वह वास्तव में सुख का कारण है और पुण्य भगवान् की पूजा करने से होता है, दान देने से होता है और व्रत, उपवासदि करने से होता है । इसलिए इन पवित्र कर्मों द्वारा निरन्तर पुण्य कमाते रहना चाहिए। कंस को देवकी की प्रसूति का हाल मालूम होते ही उसने उस मरे हुए पुत्र- युगल को उठा लाकर बड़े जोर से शिला पर दे मारा। ऐसे पापियों के जीवन को धिक्कार हैं । इसी तरह देवकी के जो दो और पुत्र - युगल हुए, उन्हें देवता वहीं अलका सेठानी के यहाँ रख आए और उसके मरे पुत्र युगलों को उसने देवकी के पास ला रखा। कंस ने इन दोनों युगलों की भी पहले युगल  की सी दशा की। देवकी के ये छहों पुत्र इसी भव से मोक्ष जायेंगे, इसलिए इनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। ये सुखपूर्वक यहीं रहकर बढ़ने लगे ॥१११ - ११८॥
    अब सातवें पुत्र की प्रसूति का समय नजदीक आने लगा । अब की बार देवकी के सातवें महीने में पुत्र हो गया। यही शत्रुओं का नाश करने वाला था; इसलिए वसुदेव को इसकी रक्षा की चिन्ता थी। समय कोई दो तीन बजे रात का था। पानी बरस रहा था। वसुदेव उसे गोद में लेकर चुपके से कंस के महल से निकल गए। बलभद्र ने इस होनहार बच्चे के ऊपर छत्री लगायी। चारों ओर गाढ़ान्धकार के मारे हाथ से हाथ तक भी न देख पड़ता था । पर इस तेजस्वी बालक के पुण्य से वही देवता, जिसने कि इसके छह भाइयों की रक्षा की है, बैल के रूप में सींगों पर दीया रखे आगे-आगे हो चला। आगे चलकर इन्हें शहर बाहर होने के दरवाजे बन्द मिले, पर भाग्य की लीला अपरम्पार है। उससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। वही हुआ। बच्चे के पाँवों का स्पर्श होते ही दरवाजा भी खुल गया। आगे चले तो नदी अथाह बह रही थी । उसे पार करने का कोई उपाय न था बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई उन्होंने होना-करना सब भाग्य के भरोसे पर छोड़कर नदी में पाँव रख दिया। पुण्य की कैसी महिमा जो यमुना का अथाह जल घुटनों प्रमाण हो गया। पार होकर वे एक देवी के मन्दिर में गए । इतने में इन्हें किसी के आने की आहट सुनाई दी। वे वेदी के पीछे छुप गए ॥११९-१२४॥
    इसी से संबंध रखने वाली एक और घटना का हाल सुनिये ! एक नन्द नाम का ग्वाल यहीं पास के गाँव में रहता है। उसकी स्त्री का नाम यशोदा है । यशोदा के प्रसूति होने वाली थी, सो वह पुत्र की इच्छा से देवी की पूजा वगैरह कर गई थी। आज ही रात को उसके प्रसूति हुई पुत्र न होकर पुत्री हुई उसे बड़ा दुःख हुआ कि मैंने पुत्र की इच्छा से देवी की इतनी आराधना पूजा की और फिर भी लड़की हुई मुझे देवी के इस प्रसाद की जरूरत नहीं । यह विचार कर वह उठी और गुस्सा में आकर उसी लड़की को लिए देवी के मन्दिर पहुँची । लड़की को देवी के सामने रखकर वह बोली- देवी, लीजिए अपनी पुत्री को? मुझे इसकी जरूरत नहीं है । यह कहकर यशोदा मन्दिर से चली गई। वसुदेव ने इस मौके को बहुत ही अच्छा समझ पुत्र को देवी के सामने रख दिया। लड़की को आप उठाकर चल दिये। जाते हुए वे यशोदा से कहते गए कि अरी, जिसे तू देवता के पास रख आई है वह लड़की नहीं है किन्तु एक बहुत ही सुन्दर लड़का है। उसे जल्दी से ले आ; नहीं तो और कोई उठा ले जायेगा । यशोदा को पहले तो आश्चर्य सा हुआ। पर फिर वह अपने पर देवी की कृपा समझ झटपट दौड़ी गई और जाकर देखा तो सचमुच ही वह एक सुन्दर बालक है। यशोदा के आनन्द का अब कुछ ठिकाना न रहा । वह पुत्र को गोद में लिए उसे चूमती हुई घर पर आ गई। सच है - पुण्य का कितना वैभव है, इसका कुछ पार नहीं। जिसकी स्वप्न में भी आशा न हो वही पुण्य से सहज मिल जाता है ॥१२५-१३३॥
    इधर वसुदेव और बलभद्र ने घर पहुँचकर उस लड़की को देवकी को सौंप दिया। सबेरा होते ही जब लड़की के होने का हाल कंस को मालूम हुआ तो उस पापी ने आकर बेचारी उस लड़की की नाक काट ली ॥१३४॥
    यशोदा के यहाँ वह पुत्र सुख से रहकर दिनों-दिन बढ़ने लगा। जैसे-जैसे वह उधर बढ़ता है कंस के यहाँ वैसे ही अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। कभी आकाश से तारा टूटकर पड़ता, कभी बिजली गिरती, कभी उल्का गिरती और कभी और कोई भयानक उपद्रव होता। यह देख कंस को बड़ी चिन्ता हुई वह बहुत घबराया। उसकी समझ में कुछ न आया कि वह सब क्या होता है? एक दिन विचार कर उसने एक ज्योतिषी को बुलाया और उसे सब हाल कहकर पूछा कि पंडित जी, यह सब उपद्रव क्यों होते हैं? इसका कारण क्या आप मुझे कहेंगे? ज्योतिषी ने निमित्त विचार कर कहा- महाराज, इन उपद्रव का होना आपके लिए बहुत ही बुरा है । आपका शत्रु दिनों-दिन बढ़ रहा है। उसके लिए कुछ प्रयत्न कीजिए और वह कोई बड़ी दूर न होकर यही गोकुल में हैं। कंस बड़ी चिन्ता में पड़ा। वह अपने शत्रु के मारने का क्या यत्न करे, यह उसकी समझ में न आया। उसे चिन्ता करते हुए अपनी पूर्व सिद्ध हुई विद्याओं की याद हो उठी। एकदम चिन्ता मिटकर उसके मुँह पर प्रसन्नता की झलक दीख पड़ी। उसने उन विद्याओं को बुलाकर कहा - उस समय तुमने बड़ा सहारा दिया। आओ, अब पलभर की भी देरी न कर जहाँ मेरा शत्रु हो उसे मारकर मुझे बहुत जल्दी उसकी मौत के शुभ समाचार दो। विद्याएँ श्रीकृष्ण को मारने को तैयार हो गई उनमें पहली पूतना विद्या ने धाय के वेष में जाकर श्रीकृष्ण को दूध की जगह विष पिलाना चाहा। उसने जैसे ही उसके मुँह में स्तन दिया, श्रीकृष्ण ने उसे इतने जोर से काटा कि पूतना के होश गुम हो गए। वह चिल्लाकर भाग खड़ी हुई उसकी यहाँ तक दुर्दशा हुई कि उसे अपने जीने में भी सन्देह होने लगा । दूसरी विद्या कौए के वेश में श्रीकृष्ण की आँखें निकाल लेने के यत्न में लगी, सो उसने चोंच, पंख वगैरह को नोंच- नाचकर उसे भी ठीक कर दिया । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवीं देवी जुदा- जुदा वेष में श्रीकृष्ण को मारने का यत्न करने लगीं, पर सफलता किसी को भी न हुई। इसके विपरीत देवियों को ही बहुत कष्ट सहना पड़ा। यह देख आठवीं देवी को बड़ा गुस्सा आया। वह तब कालिका का वेष लेकर श्री कृष्ण को मारने के लिए तैयार हुई श्रीकृष्ण ने उसे भी गौवर्द्धन पर्वत उठाकर उसके नीचे दबा दिया। मतलब यह है विद्याओं ने जितनी भी कुछ श्री कृष्ण को मारने की चेष्टा की वह व्यर्थ गईं। वे सब अपना सा मुँह लेकर कंस के पास पहुँची और उससे बोली-देव, आपका शत्रु कोई ऐसा वैसा साधारण मनुष्य नहीं। वह बड़ा बलवान् है । हम उसे किसी तरह नहीं मार सकतीं। देवियाँ इतना कहकर चल दीं।॥१३५-१४७॥
    कंस ने अपने मन को खूब समझा कर श्रीकृष्ण के मारने की एक नई योजना की । उसके यहाँ दो बड़े प्रसिद्ध पहलवान थे । इन दोनों को भी कृष्ण ने शीघ्र नष्ट कर पश्चात् दुष्ट कंस को मारकर उग्रसेन को राज्य में स्थापित किया । इस कृष्ण नारायण ने बाद में प्रतिनारायण जरासंध को भी मार डाला और अर्धचक्री हो त्रिखण्डाधिपति कहलाए। वासुदेव ने उसी समय कंस के पिता उग्रसेन को लाकर राज्यसिंहासन पर अधिष्ठित किया। इसके बाद श्री कृष्ण ने जरासन्ध पर चढ़ाई करके उसे भी कंस का रास्ता बतलाया और आप फिर अर्धचक्रवर्ती होकर प्रजा का नीति के साथ शासन करने लगा। यह कथा प्रसंगवश यहाँ संक्षेप में लिख दी गई हैं, जिन्हें विस्तार के साथ पढ़ना हो उन्हें हरिवंशपुराण का स्वाध्याय करना चाहिए ॥ १४८-१५०॥
    जो क्रोधी, मायाचारी, ईर्ष्या करने वाले, द्वेष करने वाले और मानी थे, धर्म के नाम से जिन्हें चिढ़ थी, जो धर्म से उल्टा चलते थे, अत्याचारी थे, जड़बुद्धि थे और खोटे कर्मों की जाल में सदा फँसे रहकर कोई पाप करने से नहीं डरते थे ऐसे कितने मनुष्य अपने ही कर्मों से काल के मुँह में नहीं पड़े? अर्थात् कोई बुरा काम करे या अच्छा, काल के हाथ तो सभी को पड़ना ही पड़ता है । पर दोनों में विशेषता यह होती है कि एक मरे बाद भी जन साधारण की श्रद्धा का पात्र होता है और सुगति लाभ करता है और दूसरा जीते जी भी अनेक तरह की निन्दा, बुराई, तिरस्कार आदि दुर्गुणों का पात्र बनकर अन्त में कुगति में जाता है। इसलिए जो विचारशील है, सुख प्राप्त करना जिनका ध्येय है, उन्हें तो यही उचित है कि वे संसार के दुःखों का नाशकर स्वर्ग या मोक्ष का सुख देने वाले जिनभगवान् का उपदेश किया, पवित्र जिनधर्म का सेवन करें ॥१५१॥
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    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञान की शोभा को प्राप्त हुए और तीनों जगत् के गुरु ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर लुब्धक सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    राजा अभयवाहन चम्पापुरी के राजा हैं इनकी रानी पुण्डरीका है। नेत्र इसके ठीक पुण्डरीक कमल जैसे हैं। चम्पापुरी में लुब्धक नाम का एक सेठ रहता है। इसकी स्त्री का नाम नागवसु हैं । लुब्धक के दो पुत्र हैं। इनके नाम गरुड़दत्त और नागदत्त हैं। दोनों भाई सदा हँस-मुख रहते हैं ॥२-४॥
    लुब्धक के पास बहुत धन था । उसने बहुत कुछ खर्च करके यक्ष, पक्षी, हाथी, ऊँट, घोड़ा, सिंह, हरिण आदि पशुओं की एक - एक जोड़ी सोने की बनवाई । इसके सींग, पूँछ, खूर आदि में अच्छे- अच्छे बहुमूल्य हीरा, मोती, माणिक आदि रत्नों को जड़ाकर लुब्धक ने देखने वालों के लिए एक नया ही आविष्कार कर दिया था। जो इन जोड़ियों को देखता वह बहुत खुश होता और लुब्धक की तारीफ किये बिना नहीं रहता। स्वयं लुब्धक भी अपनी इस जगमगाती प्रदर्शनी को देखकर अपने को बड़ा धन्य मानता था। इसके सिवा लुब्धक को थोड़ा-सा दुःख इस बात का था कि उसने एक बैल की जोड़ी बनवाना शुरू की थी और एक बैल बन भी चुका था, पर फिर सोना न रहने के कारण वह दूसरा बैल नहीं बनवा सका। बस, इसी की उसे एक चिन्ता थीं । पर यह प्रसन्नता की बात है कि वह सदा चिन्ता से घिरा न रहकर इसी कमी को पूरा करने के यत्न में लगा रहता था ॥५-६॥
    एक बार सात दिन बराबर पानी की झड़ी लगी रही। नदी-नाले सब पूर आ गये । पर कर्मवीर लुब्धक ऐसे समय भी अपने दूसरे बैल के लिए लकड़ी लेने को स्वयं नदी पर गया और बहती नदी में से बहुत-सी लकड़ी निकालकर उसने उसकी गठरी बाँधी और उसे आप ही अपने सिर पर लादे लाने लगा। सच है, ऐसे लोभियों की तृष्णा कहीं कभी किसी से मिटी है? नहीं ॥७-८॥
    इस समय रानी पुण्डरीका अपने महल पर बैठी हुई प्रकृति की शोभा को देख रही थी । महाराज अभयवाहन भी इस समय यहीं पर थे। लुब्धक को सिर पर एक बड़ा भारी काठ का भार लादकर लाते देख रानी ने अभयवाहन से कहा - प्राणनाथ, जान पड़ता है आपके राज में यह कोई बड़ा ही दरिद्री है। देखिए, बेचारा सिर पर लकड़ियों का कितना भारी गट्ठा लादे हुए आ रहा है। दया करके इसे कुछ आप सहायता दीजिए, जिससे इसका कष्ट दूर हो जाये। यह उचित ही है कि दयावानों की बुद्धि दूसरों पर दया करने की होती है । राजा ने उसी समय नौकरों को भेजकर लुब्धक को अपने पास बुलवाया । लुब्धक के आने पर राजा ने उससे कहा- जान पड़ता है तुम्हारे घर की हालत अच्छी नहीं है। इसका मुझे खेद है कि इतने दिनों से मेरा तुम्हारी ओर ध्यान न गया। अस्तु, तुम्हें जितने रुपये पैसे की जरूरत हो, तुम खजाने से ले जाओ। मैं तुम्हें एक पत्र लिख देता हूँ। यह कहकर राजा पत्र लिखने को तैयार हुए कि लुब्धक ने उनसे कहा- महाराज, मुझे और कुछ न चाहिए किन्तु एक बैल की जरूरत है। कारण मेरे पास एक बैल तो है, पर उसकी जोड़ी मुझे मिलानी है। राजा ने कहा-अच्छी बात है तो जाओ हमारे बहुत से बैल है उनमें तुम्हें जो बैल पसंद आवे उसे अपने घर ले जाओ। राजा के जितने बैल थे उन सबको देख आकर लुब्धक ने राजा से कहा- महाराज, उन बैलों में मेरे बैल सरीखा तो एक भी बैल मुझे नहीं दिखाई पड़ा । सुनकर राजा को बड़ा अचम्भा हुआ। उन्होंने लुब्धक से कहा- भाई, तुम्हारा बैल कैसा है, यह मैं नहीं समझा। क्या तुम मुझे अपना बैल दिखाओगे? लुब्धक बड़ी खुशी के साथ अपना बैल दिखाना स्वीकार कर महाराज को अपने घर पर लिवा ले गया। राजा को उस सोने के बने बैल को देखकर बड़ा अचम्भा हुआ। जिसे उन्होंने एक महा दरिद्री समझा था, वही इतना बड़ा धनी है, यह देखकर किसे अचम्भा न होगा ॥९-१८॥
    लुब्धक की स्त्री नागवसु अपने घर पर महाराज को आये देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई उसने महाराज की भेंट के लिए सोने का थाल बहुमूल्य सुन्दर - सुन्दर रत्नों से सजाया और उसे अपने स्वामी के हाथ में देकर कहा - इस थाल को महाराज को भेंट कीजिए । रत्नों के थाल को देखकर लुब्धक की तो छाती बैठ गई, पर पास ही महाराज के होने से उसे वह थाल हाथों में लेना पड़ा। जैसे ही थाल को उसने हाथों में लिया उसके दोनों हाथ थर-थर काँपने लगे और ज्यों ही उसने थाल देने को महाराज के पास हाथ बढ़ाया तो लोभ के मारे इसकी अंगुलियाँ महाराज को साँप के फण की तरह देख पड़ी। सच है, जिस पापी ने कभी किसी को एक कौड़ी तक नहीं दी, उसका मन क्या दूसरे की प्रेरणा से भी कभी दान की ओर झुक सकता है? नहीं । राजा को उसके ऐसे बुरे बरताव पर बड़ी नफरत हुई फिर एक पल भर भी उन्हें वहाँ ठहरना अच्छा न लगा। वे उसका नाम ‘फणहस्त’ रखकर अपने महल पर आ गये ॥१९-२०॥
    लुब्धक की दूसरा बैल बनाने की आकांक्षा अभी पूरी नहीं हुई वह उसके लिए धन कमाने को सिंहलद्वीप गया। लगभग चार करोड़ का धन उसने वहाँ रहकर कमाया भी। जब वह अपना धन, माल-असबाब जहाज पर लाद कर लौटा तो रास्ते में आते-आते कर्मयोग से हवा उलटी वह चली। समुद्र में तूफान पर तूफान आने लगे । एक जोर की आँधी आई उसने जहाज को एक ऐसा जोर का धक्का मारा कि जहाज उलट कर देखते-देखते समुद्र के विशाल गर्भ में समा गया। लुब्धक, उसका धन-असबाब, इसके सिवा और भी बहुत से लोग जहाज के संगी हुए । लुब्धक आर्त्तध्यान से मरकर अपने धन का रक्षक साँप हुआ। तब भी उसमें से एक कोड़ी भी किसी को नहीं उठाने देता था ॥२१-२६॥
    एक सर्प को अपने धन पर बैठा देखकर लुब्धक के बड़े लड़के गरुड़दत्त को बहुत क्रोध आया और इसीलिए उसने उसे उठाकर मार डाला । यहाँ से वह बड़े बुरे भावों से मरकर चौथे नरक गया, जहाँ के पापकर्मों का बड़ा ही दुस्सह फल भोगना पड़ता था। इस प्रकार धर्मरहित जीव क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वश होकर पाप के उदय से इस दुःखों के समुद्र संसार में अनन्त काल तक दुःख- कष्ट उठाया करता है । इसलिए जो सुख चाहते हैं, जिन्हें सुख प्यारा है, उन्हें चाहिए कि वे इन क्रोध, लोभ, मान, मायादि को संसार में दुःख देने वाले मूल कारण समझ कर इनका मन, वचन और शरीर से त्याग करें और साथ ही जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किये धर्म को भक्ति और शक्ति के अनुसार ग्रहण करें, जो परम शान्ति - मोक्ष का प्राप्त कराने वाला है ॥२७-२९॥
  6. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    सुख देने वाले और सारे संसार के प्रभु श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन लोभी पिण्याकगन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    रत्नप्रभ कांपिल्य नगर के राजा थे। उनकी रानी विद्युत्प्रभा थी। वह सुन्दर और गुणवती थी। यहीं एक जिनदत्त सेठ रहता था | जिनधर्म पर इनकी गाढ़ श्रद्धा थी । अपने योग्य आचार-विचार इसके बहुत अच्छे थे। राजदरबार में भी इसकी अच्छी पूछ थी, मान-मर्यादा थी । यहीं एक और सेठ था। जिसका नाम पिण्याकगन्ध था। इसके पास कई करोड़ का धन था, पर तब भी वह मूर्ख और बड़ा लोभी था, कृपण था। वह न किसी को कभी एक कौड़ी देता और न स्वयं आप ही अपने धन को खाने-पीने, पहनने में खर्च करता और न ही खाया करता था। इसके पास सब सुख की सामग्री थी, पर अपने पाप के उदय से या यों कहो कि अपनी कंजूसी से वह सदा ही दुःख भोगा करता था। उसकी स्त्री का नाम सुन्दरी था । उसके एक विष्णुदत्त नाम का लड़का था ॥२-६॥
    एक दिन राजा के तालाब को खोदते वक्त उडु नाम के मजूर को सोने के सलाइयों की भरी हुई लोहे की सन्दूक मिल गई । वह सन्दूक वहाँ हजारों वर्षों से गड़ी हुई होगी। यही कारण था कि उसे खूब कीटों ने खा लिया था । उसके भीतर की सलाइयों पर भी बहुत मैल जमा हो गया । मैल से यह नहीं जान पड़ता था कि वे सोने की हैं । उडु ने उसमें से एक सलाई लाकर जिनदत्त सेठ को लोहे के भाव बेचा। सेठ ने उस समय तो उसे ले लिया, पर जब वह ध्यान से धो-धाकर देखी गई तो जान पड़ा कि वह एक सोने की सलाई है। सेठ ने उसे चोरी का माल समझ अपने घर में उसका रखना उचित नहीं समझा। उसने उसकी एक जिनप्रतिमा बनवा ली और प्रतिष्ठा कराकर उसे मंदिर में विराजमान कर दिया । सच है, धर्मात्मा पुरुष पाप से बड़े डरते हैं । कुछ दिनों बाद उडु फिर एक सलाई लिए जिनदत्त के पास आया। पर अब की बार सेठ ने उसे नहीं खरीदा। इसलिए कि वह धन दूसरे का है। तब उडु ने उसे पिण्याकगन्ध को बेच दिया । पिण्याकगन्ध को भी मालूम हो गया कि वह सलाई सोने की है, पर तब भी लोभ में आकर उसने उडु से कहा कि यदि तेरे पास ऐसी सलाइयाँ और हों तो उन्हें यहाँ दे जाया करना ॥ ७-१२॥
    मुझे इन दिनों लोहे की कुछ अधिक जरूरत है। मतलब यह कि पिण्याकगन्ध ने उडु से कोई अट्ठानवे सलाइयाँ खरीद कर ली । बेचारे उडु को उसकी सच्ची कीमत ही मालूम न थी, इसलिए उसने सब की सब सलाइयाँ लोहे के भाव बेच दीं ॥१३॥
    एक दिन पिण्याकगन्ध अपनी बहिन के विशेष कहने-सुनने से अपने भानजे के ब्याह में दूसरे गाँव जाने लगा। जाते समय धन के लोभ से पुत्र को वह सलाई बतलाकर कह गया कि इसी आकार- प्रकार का लोहा कोई बेचने अपने यहाँ आवे तो तू उसे मोल ले लिया करना । पिण्याकगन्ध के पाप का घड़ा अब बहुत भर चुका था । अब उसके फूटने की तैयारी थी इसलिए तो वह पापकर्म की जबरदस्ती से दूसरे गाँव भेजा गया ॥१४-१५॥
    तू लेन उडु के पास अब केवल एक ही सलाई बची थी। वह उसे भी बेचने को पिण्याकगन्ध के पास आया । पर पिण्याकगन्ध तो वहाँ था नहीं, तब वह उसके लड़के विष्णुदत्त के हाथ सलाई देकर बोला- आपके पिताजी ने ऐसी बहुतेरी सलाइयाँ मुझसे मोल ली है। अब यह केवल एक ही बची है। इसे आप लेकर मुझको इसकी कीमत दे दीजिये । विष्णुदत्त ने उसे यह कहकर टाल दिया, कि मैं इसे लेकर क्या करूँगा? मुझे जरूरत नहीं । तुम इसे ले जाओ। इस समय एक सिपाही ने उड्डु को देख लिया । उसने खोदने के लिए वह सलाई उससे छुड़ा ली। एक दिन वह सिपाही जमीन खोद रहा था । उससे सलाई पर जमा हुआ कीट साफ हो जाने से कुछ लिखा हुआ उसे दिख पड़ा। लिखा यह था कि सोने की सौ सलाइयाँ सन्दूक में हैं । यह लिखा देखकर सिपाही ने उड्डु को पकड़ लाकर उससे सन्दूक की बाबत पूछा। उडु ने सब बातें ठीक-ठाक बतला दीं। सिपाही उडु को राजा के पास ले गया। राजा के पूछने पर उसने कहा कि मैंने ऐसी अट्ठानबे सलाइयाँ तो पिण्याकगन्ध सेठ को बेची हैं ओर एक जिनदत्त सेठ को। राजा ने पहले जिनदत्त को बुलाकर सलाई मोल लेने के बाबत पूछा। जिनदत्त ने कहा-महाराज, मैंने एक सलाई खरीदी तो जरूर है, पर जब मुझे यह मालूम पड़ा कि वह सोने की है तो मैंने उसकी जिनप्रतिमा बनवा ली। प्रतिमा मन्दिर में मौजूद है । राजा प्रतिमा को देखकर बहुत खुश हुआ। उसने जिनदत्त की इस सच्चाई पर उसका बहुत मान किया, उसे बहुमूल्य वस्त्राभूषण दिए। सच है, गुणों की पूजा सब जगह हुआ करती है॥१६-२१॥
    इसके बाद राजा ने पिण्याकगन्ध को बुलवाया। पर वह घर पर न होकर गाँव गया हुआ था। राजा को उसके न मिलने से और निश्चय हो गया कि उसने अवश्य राजधन धोखा देकर ठग लिया है। राजा ने उसी समय उसका घर जब्त करवा कर उसके कुटुम्ब को कैदखाने में डाल दिया। इसलिए कि उसने पूछ-ताछ करने पर भी सलाइयों का हाल नहीं बताया था। सच है, जो आशा के चक्कर में पड़कर दूसरों का धन मारते हैं, वे अपने हाथों अपना सर्वनाश करते हैं ॥२२-२३॥
    उधर ब्याह हो जाने के बाद पिण्याकगंध घर की ओर वापस आ रहा था। रास्ते में ही उसे अपने कुटुम्ब की दुर्दशा का समाचार सुन पड़ा। उसे उसका बड़ा दुःख हुआ। उसने अपने इस धन-जन की दुर्दशा का मूल कारण अपने पाँवों को ठहराया । इसलिए कि वह उन्हीं के द्वारा दूसरे गाँव गया था। पाँवों पर उसे बड़ा गुस्सा आया और इसीलिए उसने बड़ा भारी पत्थर लेकर उससे अपने दोनों पाँवों को तोड़ लिया। मृत्यु उसके सिर पर खड़ी ही थी । वह लोभी आर्त्तध्यान; बुरे भावों से मरकर नरक गया । यह कथा शिक्षा देती है जो समझदार है उन्हें चाहिए कि वे अनीति के कारण और पाप के बढ़ाने वाले इस लोभ का दूर ही से छोड़ने का यत्न करें ॥२४-२७॥
    वे कर्मों को जीतने वाले जिन भगवान् संसार में सदा काल रहें जो संसार के पदार्थों को दिखलाने के लिये दीपक के समान है; सब दोषों से रहित हैं, भव्य-जनों को स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले हैं, जिनके वचन अत्यन्त ही निर्मल या निर्दोष हैं, जो गुणों के समुद्र हैं, देवों द्वारा पूज्य हैं और सत्पुरुषों के लिए ज्ञान के समुद्र हैं ॥२८॥
  7. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिनेन्द्र भगवान् को, जो कि सारे संसार द्वारा पूज्य हैं और सबसे उत्तम गिनी जाने वाली जिनवाणी तथा गुरुओं को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर परिग्रह के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    मणिवत देश में मणिवत नाम का एक शहर था। उसके राजा का नाम भी मणिवत था। मणिवत की रानी पृथ्विीमति थी। इसके मणिचन्द्र नाम एक पुत्र था। मणिवत विद्वान्, बुद्धिमान् और अच्छा शूरवीर था । राजकाज में उसकी बहुत अच्छी गति थी ॥२-३॥
    राजा पुण्योदय से राजकाज योग्यता के साथ चलाते हुए सुख से अपना समय बिताते थे । धर्म पर उनकी पूरी श्रद्धा थी वे सुपात्रों को प्रतिदिन दान देते, भगवान् की पूजा करते और दूसरों की भलाई करने में भरसक यत्न करते। एक दिन रानी पृथ्वीमति महाराज के बालों को सँवार रही थीं कि उनकी  नजर एक सफेद बाल पर पड़ी। रानी ने उसे निकालकर राजा के हाथ में रख दिया। राजा उस सफेद बाल को काल का भेजा दूत समझ कर संसार और विषयभोगों से बड़े विरक्त हो गए। उन्होंने अपने मणिचन्द्र पुत्र को राज्य का सब कारोबार सौंप दिया और आप भगवान् की पूजा, अभिषेक कर तथा याचकों को दान दे जंगल की ओर रवाना हो गए और दीक्षा लेकर तपस्या करने लगे। वे अब दिनों-दिन आत्मा को पवित्र बनाते हुए परमात्म-स्मरण में लीन रहने लगे ॥४-९॥
    मणिवत मुनि नाना देशों में धर्मोपदेश करते हुए एक दिन उज्जैन के बाहर श्मसान में आए। रात के समय वे मृतक शय्या द्वारा ध्यान करते हुए शान्ति के लिए परमात्मा का स्मरण-चिन्तन कर रहे थे। इतने में वहाँ एक कापालिक बैताली विद्या साधने के लिए आया । उसे चूल्हा बनाने के लिए तीन मुर्दों की जरूरत पड़ी। सो एक तो उसने मुनि को समझ लिया और दो मुर्दों को वह और घसीट लाया। उन तीनों के सिर पर चूल्हा बनाकर उस पर उसने एक कपाल रखा और आग सुलगाकर कुछ नैवेद्य पकाने लगा। थोड़ी देर बाद जब आग जोर से चेती और मुनि की नसें जलने लगीं तब एकदम मुनि का हाथ ऊपर की ओर उठ जाने से सिर पर का कपाल गिर पड़ा । कापालिक उससे डर कर भागकर खड़ा हुआ। मुनिराज मेरु समान वैसे के वैसे ही अचल बने रहे । सबेरा होने पर किसी आते-जाते मनुष्य ने मुनि की यह दशा देख जिनदत्त को यह हाल सुनाया । जिनदत्त उसी समय दौड़ा-दौड़ा श्मसान में गया। मुनि की दशा देखकर उसे बेहद दुःख हुआ। मुनि को अपने घर पर लाकर उसने एक प्रसिद्ध वैद्य से उनके इलाज के लिए पूछा । वैद्य महाशय ने कहा- सोमशर्मा भट्ट के यहाँ लक्षपाक नाम का बहुत ही अच्छा तैल है, उसे लाकर लगाओ। उससे बहुत जल्दी आराम होगा, आग का जला उससे फौरन आराम होता है। सेठ सोमशर्मा के घर दौड़ा हुआ गया। घर पर भट्ट महाशय नहीं थे, इसलिए उसने उनकी तुंकारी नाम की स्त्री से तैल के लिए प्रार्थना की । तैल के कई घड़े उसके यहाँ भरे रखे थे । तुंकारी ने उनमें से एक घड़ा ले जाने को जिनदत्त से कहा। जिनदत्त ऊपर जाकर एक घड़ा उठाकर लाने लगा । भाग्य से सीढ़ियाँ उतरते समय पाँव फिसल जाने से घड़ा उसके हाथों से छूट पड़ा। घड़ा फूट गया और तैल सब रेलम-ठेल हो गया। जिनदत्त को इससे बहुत भय हुआ। उसने डरते-डरते घड़े के फूट जाने का हाल तुकारी से कहा । तब तुंकारी ने दूसरा घड़ा ले आने को कहा। उसे पहले घड़े के फूट जाने का कुछ भी ख्याल नहीं हुआ। सच है- सज्जनों का हृदय समुद्र से भी कहीं अधिक गम्भीर हुआ करता है । जिनदत्त दूसरा घड़ा लेकर आ रहा था। अब की बार तैल से चिकनी जगह पर पाँव पड़ जाने से फिर भी वह फिसल गया और घड़ा फूटकर उसका सब तैल बह गया। इसी तरह तीसरा घड़ा भी फूट गया । अब तो जिनदत्त के देवता कूँच कर गए। भय के मारे वह थर-थर काँपने लगा । उसकी यह दशा देखकर तुंकारी ने उससे कहा कि घबराने और डरने की कोई बात नहीं । तुमने कोई जानकर थोड़े ही फोड़े हैं। तुम किसी तरह की चिन्ता-फिकर मत करो। जब तक तुम्हें जरूरत पड़े तुम प्रसन्नता के साथ तैल ले जाया करो देने से मुझे कोई उजर न होगा। कोई कैसा ही सहनशील क्यों न हो, पर ऐसे मौके पर उसे भी गुस्सा आये बिना नहीं रहता। फिर इस स्त्री में इतनी क्षमा कहाँ से आई? इसका जिनदत्त को बड़ा आश्चर्य हुआ। जिनदत्त ने तुकारी से पूछा भी, कि माँ मैंने तुम्हारा इतना भारी अपराध किया, उस पर भी तुमको रत्तीभर क्रोध नहीं आया, इसका क्या कारण है? तुकारी ने कहा- भाई, क्रोध करने का फल जैसा चाहिए वैसा मैं भुगत चुकी हूँ ॥१०-२७॥
    इसलिए क्रोध के नाम से ही मेरा जी काँप उठता है । यह सुनकर जिनदत्त का कौतुक और बढ़ा, तब उसने पूछा यह कैसे ? तुकारी कहने लगी- चन्दनपुर में शिवशर्मा ब्राह्मण रहता है। वह धनवान् और राजा का आदरपात्र है। उसकी स्त्री का नाम कमल श्री है। उसके कोई आठ तो पुत्र और एक लड़की है। लड़की का नाम भट्टा है और वह मैं ही हूँ। मैं थी बड़ी सुन्दरी, पर मुझमें एक बड़ा दुर्गुण था। वह यह कि मैं अत्यन्त मानिनी थी । मैं बोलने में बड़ी ही तेज थी और इसलिए मेरे भय का सिक्का लोगों के मन पर ऐसा जमा हुआ था कि किसी की हिम्मत मुझे 'तू' कहकर पुकारने की नहीं होती थी। मुझे ऐसी अभिमानी देखकर मेरे पिता ने एक बार शहर में डौंडी पिटवा दी कि मेरी बेटी को कोई ‘तू’ कहकर न पुकारे क्योंकि जहाँ मुझसे किसी ने 'तू' कहा कि मैं उससे लड़ने- झगड़ने को तैयार ही रहा करती थी और फिर जहाँ तक मुझमें शक्ति जोर होता मैं उसकी हजारों पीढ़ियों को एक पलभर में अपने सामने ला खड़ा करती और पिताजी इस लड़ाई-झगड़े से सौ हाथ दूर भागने की कोशिश करते । जो हो, पिताजी ने अच्छा ही काम किया था, पर मेरे खोटे भाग्य से उनका डौंडी पिटवाना मेरे लिए बहुत ही बुरा हुआ। उस दिन से मेरा नाम ही ‘तुंकारी' पड़ गया और सब ही मुझे इस नाम से पुकार - पुकार कर चिढ़ाने लगे। सच है - अधिक मान भी कभी अच्छा नहीं होता और इसी चिड़ के मारे मुझसे कोई ब्याह करने तक के लिए तैयार न होता था। मेरे भाग्य से इन सोमशर्मा जी ने इस बात की प्रतिज्ञा की कि मैं कभी इसे 'तू' कहकर न पुकारूँगा। तब इनके साथ मेरा ब्याह हो गया। मैं बड़े उत्साह के साथ उज्जैन में लाई गई। सच कहूँगी कि इस घर में आकर मैं बड़े सुख से रही। भगवान् की कृपा से घर सब तरह हरा भरा है। धन सम्पत्ति भी मनमानी है ॥२८-३४॥
    पर “पड़ा स्वभाव जाए जीव से " इस कहावत के अनुसार मेरा स्वभाव भी सहज में थोड़े ही मिट जाने वाला था। सो एक दिन की बात है कि मरे स्वामी नाटक देखने गए। नाटक देखकर आते हुए उन्हें बहुत देर लग गई उनकी इस देरी से मुझे अत्यन्त गुस्सा आया। मैंने निश्चय कर लिया कि आज जो कुछ भी हो, मैं दरवाजा नहीं खोलूँगी और मैं सो गई थोड़ी देर बाद वे आए और दरवाजे पर खड़े रहकर बार-बार मुझे पुकारने लगे। मैं चुप्पी साधे पड़ी रही, पर मैंने किवाड़ न खोले । बाहर से चिल्लाते-चिल्लाते वे थक गए, पर उसका मुझ पर कुछ असर न हुआ । आखिर उन्हें भी बड़ा क्रोध हो आया। क्रोध में आकर वे अपनी प्रतिज्ञा तक भूल बैठे । सो उन्होंने मुझे 'तू' कहकर पुकार लिया। बस, उनका ‘तू’ कहना था कि मैं सिर से पाँव तक जल उठी और क्रोध से अन्धी बनकर किवाड़ खोलती हुई घर से निकल भागी । मुझे उस समय कुछ न सूझा कि मैं कहाँ जा रही हूँ। मैं शहर के बाहर होकर जंगल की ओर चल धरी । रास्ते में चोरों ने मुझे देख लिया।
    उन्होंने मेरे सब गहने- दागी ने और वस्त्र छीन-छानकर विजयसेन नाम के एक भील को सौंप दिया। मुझे खूबसूरत देखकर इस पापी ने मेरा धर्म बिगाड़ना चाहा, पर उस समय मेरे भाग्य से किसी दिव्य स्त्री ने आकर मुझे बचाया, मेरे धर्म की उसने रक्षा की। भील ने उस दिव्य स्त्री से डरकर मुझे एक सेठ के हाथ में सौंप दिया । उसकी नियत भी मुझ पर बिगड़ी। मैंने उसे खूब ही आड़े हाथों लिया। इससे वह मेरा कर तो कुछ न सका, पर गुस्से में आकर उस नीच ने मुझे एक ऐसे मनुष्य के हाथ सौंप दिया जो जीवों के खून से रँगकर कम्बल बनाया करता था। वह मेरे शरीर पर जौंके लगा-लगाकर मेरा रोज-रोज बहुत सा खून निकाल लेता था और उसमें फिर कम्बल को रँगा करता था। सच है, एक तो वैसे ही पाप कर्म का उदय और उस पर ऐसा क्रोध, तब उससे मुझ सरीखी हत-भागिनियों को यदि पद-पद पर कष्ट उठाना पड़े तो उसमें आश्चर्य ही क्या? ॥३५-४४॥
    इसी समय उज्जैन के राजा ने मेरे भाई को यहाँ के राजा पारस के पास किसी कार्य के लिए भेजा। मेरा भाई अपना काम पूराकर उज्जैन की ओर जा रहा था कि अचानक मेरी उसकी भेंट हो गई मैंने अपने कर्मों पर बड़ा पश्चाताप किया। जब मैंने अपना सब हाल उससे कहा तो उसे भी बहुत दुःख हुआ। उसने मुझे धीरज दिया। इसके बाद वह उसी समय राजा के पास गया और सब हाल उनसे कहकर उस कम्बल बनाने वाले पापी से उसने मेरा पंजा छुड़ाया । वहाँ से लाकर बड़ी आरजू- मिन्नत के साथ उसने फिर मुझे अपने स्वामी के घर ला रखा। सच है, सच्चे बन्धु वे ही हैं जो कष्ट के समय काम आवें। यह तो तुम्हें मालूम ही है कि मेरे शरीर का प्रायः खून निकल चुका था। इसी कारण घर पर आते ही मुझे लकवा मार गया । तब वैद्य ने यह लक्षपाक तैल बनाकर मुझे जिलाया। इसके बाद मैंने एक वीतरागी साधु द्वारा धर्मोपदेश सुनकर सर्वश्रेष्ठ और सुख देने वाला सम्यक्त्व व्रत ग्रहण किया और साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि आज से मैं किसी पर क्रोध नहीं करूँगी । यही कारण है कि मैं अब किसी पर क्रोध नहीं करती। अब आप जाइए और इस तैल द्वारा मुनिराज की सेवा कीजिए। अधिक देरी करना उचित नहीं है ॥४५-५१ ॥
    जिनदत्त भट्टारक को नमस्कार कर घर गया और तेल की मालिश वगैरह से बड़ी सावधानी के साथ मुनि की सेवा करने लगा। कुछ दिन तक बराबर मालिश करते रहने से आराम हो गया। सेठ ने भी अपनी इस सेवा भक्ति द्वारा बहुत पुण्यबंध किया। चौमासा आ गया था इसलिए मुनिराज ने कहीं अन्यत्र जाना ठीक न समझ यहीं जिनदत्त सेठ के जिनमंदिर में वर्षायोग ले लिया और यहीं वे रहने लगे ॥५२-५५॥
    जिनदत्त का एक लड़का था, नाम इसका कुबेरदत्त था । इसका चाल-चलन अच्छा न देखकर जिनदत्त इस के डर से कीमती रत्नों का भरा अपना एक घड़ा जहाँ मुनि सोया करते थे वहाँ खोद कर गाड़ दिया। जिनदत्त ने यह कार्य किया तो था बड़ी दुपका - चोरी से, पर कुबेरदत्त को इसका पता पड़ गया। उसने अपने पिता का सब कर्म देख लिया और मौका पाकर वहाँ से घड़े को निकाल मंदिर के आँगन में दूसरी जगह गाड़ दिया । कुबेरदत्त को ऐसा करते मुनि ने देख लिया था परन्तु तब भी वह चुपचाप रहे और उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा और कहते भी कहाँ से जब कि उनका यह मार्ग ही नहीं है ॥५६-५७॥
    जब योग पूरा हुआ तब मुनिराज जिनदत्त को सुख - साता पूछकर वहाँ से बिहार कर गए। शहर बाहर जाकर वे ध्यान करने बैठे। इधर मुनिराज के चले जाने के बाद सेठ ने वह रत्नों का घड़ा घर ले जाने के लिए जमीन खोद कर देखा तो वहाँ घड़ा नहीं । घड़े को एकाएक गायब हो जाने का उसे बड़ा अचंभा हुआ और साथ ही उसका मन व्याकुल भी हुआ । उसने सोचा कि घड़े का हाल केवल मुनि ही जानते थे, फिर बड़े अचंभे की बात है कि उनके रहते यहाँ से घड़ा गायब हो जाए? उसे घड़ा गायब करने का मुनि पर कुछ सन्देह हुआ। तब वह मुनि के पास गया और उनसे उसने प्रार्थना की कि प्रभो, आप पर मेरा बड़ा ही प्रेम है, आप जब से चले आए है तब से मुझे सुहाता ही नहीं, इसलिए चलकर आप कुछ दिनों तक और वहीं ठहरें तो बड़ी कृपा हो । इस प्रकार मायाचारी से जिनदत्त मुनिराज को अपने मन्दिर पर लौटा लाया। इसके बाद उसने कहा, स्वामी, कोई ऐसी धर्म-कथा सुनाए, जिससे मनोरंजन हो । तब मुनि बोले- हम तो रोज ही सुनाया करते है, आज तुम ही कोई ऐसी कथा कहो। तुम्हें इतने दिन शास्त्र पढ़ते हो गए, देखें तुम्हें उसका सार कैसा याद रहता है? तब जिनदत्त अपने भीतरी कपट- भावों को प्रकट करने के लिए एक ऐसी ही कथा सुनाने लगा । वह बोला- ॥५८-६४॥
    एक दिन पद्मरथपुर के राजा वसुपाल ने अयोध्या के महाराज जितशत्रु के पास किसी काम के लिए अपना एक दूत भेजा। एक तो गर्मी का समय और ऊपर से चलने की थकावट सो इसे बड़े जोर की प्यास लग आई पानी इसे कहीं नहीं मिला । आते-आते यह एक घने वन में आकर वृक्ष के नीचे गिर पड़ा। इसके प्राण कण्ठगत हो गए। इसको यह दशा देखकर एक बन्दर दौड़ा-दौड़ा तालाब पर गया और उसमें डूबकर यह उस वृक्ष के नीचे पड़े पथिक के पास आया। आते ही इसने अपने शरीर को उस पर झिड़का दिया। जब जल उस पर गिरा और उसकी आँखें खुली तब बन्दर आगे होकर उसे इशारे से तालाब के पास ले गया । जल पीकर इसे बहुत शान्ति मिली। अब इसे आगे के लिए जल की चिन्ता हुई पर इसके पास कोई बरतन वगैरह न होने से यह जल ले जा नहीं सकता था। तब इसे एक युक्ति सूझी। इसने उस बेचारे जीवदान देने वाले बन्दर को बन्दूक से मारकर उसके चमड़े की थैली बनाई और उसमें पानी भर चल दिया । अच्छा प्रभो, अब आप बतलाइए कि उस नीच, निर्दयी, अधर्मी को अपने उपकारी बन्दर को मार डालना क्या उचित था? मुनि बोले तुम ठीक कहते हो। उस दूत का यह अत्यन्त कृतघ्नता भरा नीच काम था। इसके बाद अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए मुनिराज ने भी एक कथा कहना आरम्भ किया। वे कहने लगे- ॥६५-७२॥
    कौशाम्बी में किसी समय एक शिवशर्मा ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम कपिला था। इसके कोई लड़का नहीं था। एक दिन शिवशर्मा किसी दूसरे गाँव से अपने शहर की ओर लौट रहा था। रास्ते में एक जंगल में उसने एक नेवला के बच्चे को देखा। शिवशर्मा ने उसे घर उठा लाकर अपनी प्रिया से कहा-ब्राह्मणी जी आज मैं तुम्हारे लिए एक लड़का लाया हूँ। यह कहकर उसने नेवले को कपिला की गोद में रख दिया। सच है -मोह से अन्धे हुए मनुष्य क्या नहीं करते? ब्राह्मणी ने उसे ले लिया और पाल-पोस कर उसे कुछ सिखा-विखा भी दिया । नेवले में जितना ज्ञान और जितनी शक्ति थी वह उसके अनुसार ब्राह्मणी का बताये कुछ काम भी कर दिया करता था ॥७३-७६॥
    भाग्य से अब ब्राह्मणी के भी एक पुत्र हो गया। सो एक दिन ब्राह्मणी बच्चे को पालने में सुलाकर आप धान खाँडने को चली गई और जाते समय पुत्ररक्षा का भार वह नेवले को सौंपती गई इतने में एक सर्प ने आकर इस बच्चे को काट लिया बच्चा मर गया। क्रोध में आकर नेवले ने सर्प के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। इसके बाद वह खून भरे मुँह से ही कपिला के पास गया। कपिला उसे खून से लथ-पथ भरा देखकर काँप गई उसने समझा कि इसने मेरे बच्चे को खा लिया। उसे अत्यन्त क्रोध आया। क्रोध के वेग में उसने न कुछ सोचा- विचारा और न जाकर देखा ही कि असल में बात क्या है किन्तु एक साथ ही पास में पड़े हुए मूसले को उठा कर नेवले पर दे मारा। नेवला तड़फड़ा कर मर गया। अब वह दौड़ी हुई बच्चे के पास गई देखती है तो वहाँ एक काला भुजंग सर्प मरा हुआ पड़ा है। फिर उसे बहुत पछतावा हुआ। ऐसे मूर्ख को धिक्कार है जो बिना विचारे जल्दी में आकर हर एक काम कर बैठते हैं। अच्छा सेठ महाशय, कहिए तो सर्प के अपराध पर बेचारे नेवले को इस प्रकार  निर्दयता से मार देना ब्राह्मणी को योग्य था क्या? जिनदत्त ने कहा- नहीं। यह उसकी बड़ी गलती हुई। यह कहकर उसने फिर एक कथा कहना आरम्भ की - ॥७७-८२॥
    बनारस के राजा जितशत्रु के यहाँ धनदत्त राज्यवैद्य था । इसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था। वैद्य महाशय के धनमित्र और धनचन्द्र नाम के दो लड़के थे । लाड़-प्यार में रहकर इन्होंने अपनी कुलविद्या भी न पढ़ पाई कुछ दिनों बाद वैद्यराज काल कर गए। राजा ने दोनों भाइयों को मूर्ख देख इनके पिता की जीविका पर किसी दूसरे को नियुक्त कर दिया। तब इनकी बुद्धि ठिकाने आई ये दोनों भाई अब वैद्यशास्त्र पढ़ने की इच्छा से चम्पापुरी में शिवभूति वैद्य के पास गए। इन्होंने वैद्य से अपनी सब हालत कहकर उनसे वैद्यक पढ़ने की इच्छा जाहिर की । शिवभूति बड़ा दयावान् और परोपकारी था, इसलिए उसने इन दोनों भाइयों को अपने ही पास रखकर पढ़ाया और कुछ ही वर्षों में इन्हें अच्छा होशियार कर दिया। दोनों भाई गुरु महाशय के अत्यन्त कृतज्ञ होकर बनारस की ओर रवाना हुए। रास्ते में आते हुए इन्होंने जंगल में आँख की पीड़ा से दुःखी एक सिंह को देखा । धनचन्द्र को उस पर दया आई अपने बड़े भाई के बहुत कुछ मना करने पर भी धनचन्द्र ने सिंह की आँखों का इलाज किया। उससे सिंह को आराम हो गया। आँख खोलते ही उसने धनचन्द्र को अपने पास खड़ा पाया। वह अपने जन्म स्वभाव को न छोड़कर क्रूरता के साथ उसे खा गया। मुनिराज उस दुष्ट सिंह को बेचारे वैद्य को खा जाना क्या अच्छा काम हुआ? मुनि ने 'नहीं' कहकर एक और कथा कहना शुरू की ॥८३-८९॥
    चम्पापुरी में सोमशर्मा ब्राह्मण की दो स्त्रियाँ थी । एक का नाम सोमिल्या और दूसरी का सोमशर्मा था। सोमिल्या बाँझ थी और सोमशर्मा के एक लड़का था । यहीं एक बैल रहता था। लोग उसे ‘भद्र' नाम से बुलाया करते थे । बेचारा बड़ा सीधा था । कभी किसी को मारता नहीं था । वह सबके घर पर घूमा-फिरा करता था। उसे इस तरह जहाँ थोड़ी बहुत घास खाने को मिलती वह उसे खाकर रह जाता था। एक दिन उस बाँझ पापिनी ने डाह के मारे अपनी सौत के बच्चे को निर्दयता से मार कर उसका अपराध बेचारे बैल पर लगा दिया। उसे ब्राह्मण बालक का मारने वाला समझ कर सब लोगों ने घास खिलाना छोड़ दिया और शहर से निकाल बाहर कर दिया। बेचारा भूख- प्यास के मारे बड़ा दुःख पाने लगा। बहुत ही दुबला पतला हो गया। पर तब भी किसी ने उसे शहर के भीतर नहीं घुसने दिया । एक दिन जिनदत्त सेठ की स्त्री पर व्यभिचार का अपराध लगा। वह अपनी निर्दोषता बतलाने के लिए चौराहे पर जाकर खड़ी हुई, जहाँ बहुत से मनुष्य इकट्ठे हो रहे थे उसने कोई भयंकर दिव्य लेने के इरादे से एक लोहे के टुकड़े को अग्नि में खूब तपाकर लाल सुर्ख किया। इस मौके को अपने लिए बहुत अच्छा समझ उस बैल ने झट वहाँ पहुँच कर जलते हुए उस लोहे के टुकड़े को मुँह से उठा लिया। उसका यह भयंकर दृश्य देखकर सब लोगों ने उसे निर्दोष समझ लिया। अच्छा सेठ महाशय, बतलाइए तो क्या उन मूर्ख लोगों को बिना समझे-बूझे एक निरपराध पशु पर दोष लगाना ठीक था क्या? जिनदत्त ने 'नहीं' कहकर फिर एक कथा छेड़ी ॥९०-९८॥
    वह बोला-‘“गंगा के किनारे कीचड़ में एक बार एक हाथी का बच्चा फँस गया। विश्वभूति तापस ने उसे तड़फते हुए देखा। वह कीचड़ से उस हाथी के बच्चे को निकालकर अपने आश्रम में लिवा ले आया। उसने उसे बड़ी सावधानी के साथ पाला-पोसा भी। धीरे-धीरे वह बड़ा होकर एक महान् हाथी के रूप में आ गया । श्रेणिक ने इसकी प्रशंसा सुनकर इसे अपने यहाँ रख लिया। हाथी जब तक तापस के यहाँ रहा तब तक बड़ी स्वतंत्रता से रहा । वहाँ इसे कभी अंकुश वगैरह का कष्ट नहीं सहना पड़ा। पर जब यह श्रेणिक के यहाँ पहुँचा तबसे इसे बन्धन, अंकुश आदि का बहुत कष्ट सहना पड़ता था। इस दुःख के मारे एक दिन यह सांकल तोड़ - ताड़ कर तापस के आश्रम में भाग आया। इसके पीछे-पीछे राजा के नौकर भी इसे पकड़ने को आए । तापसी मीठे-मीठे शब्दों से हाथी को समझा कर उसे नौकरों के सुपुर्द करने लगा। हाथी को इससे अत्यन्त गुस्सा आया। सो इसने उस बेचारे तापस की ही जान ले ली। तो क्या मुनिराज, हाथी को यह उचित था कि वह अपने को बचाने वाले को ही मार डाले? इसके उत्तर में मुनि 'ना' कहकर और एक कथा कहने लगे। उन्होंने कहा-
    हस्तिनागपुर की पूरब दिशा में विश्वसेन राजा का बनाया आमों का एक बगीचा था। उसमें आम खूब लग रहे थे। एक दिन एक चील मरे साँप को चोंच में लिए आम के झाड़ पर बैठ गई उस समय साँप के जहर से एक आम पक गया, पीला - सा पड़ गया । माली ने उस पके फल को ले जाकर राजा को भेंट किया। राजा ने उसे 'प्रेमोपहार' के रूप में अपनी प्रिय रानी धर्मसेना को दिया। रानी उसे खाते ही मर गई राजा को बड़ा गुस्सा आया और उसने एक फल के बदले सारे बगीचे को ही कटवा डाला। मुनिराज ने कहा, तो क्या सेठ महाशय, राजा का यह काम ठीक हुआ ? सेठ ने भी 'ना' कहकर और एक कथा कहना शुरू की ॥९९ - ११० ॥
    के वह बोला-एक मनुष्य जंगल से चला जा रहा था। रास्ते में वह सिंह को देखकर डर के मारे एक वृक्ष पर चढ़ गया। जब सिंह चला गया, तब यह नीचे उतरा और जाने लगा। रास्ते में इसे राजा बहुत से आदमी मिले, जो कि भेरी के लिए अच्छे और बड़े झाड़ की तलाश में आये थे । सो इस दुष्ट मनुष्य ने वह वृक्ष इन लोगों को बता दिया, जिस पर चढ़कर कि इसने अपनी जान बचाई थी। राजा के आदमी उस घनी छाया वाले सुन्दर वृक्ष को काटकर ले गये । मुनिराज, जिसने बन्धु की तरह अपनी रक्षा की, मरने से बचाया, उस वृक्ष के लिए इस दुष्ट को ऐसा करना योग्य था क्या? मुनिराज 'नहीं' कहकर और एक कथा कही ॥१११-११४॥
    वे बोले-गन्धर्वसेन राजा की कौशाम्बी नगरी में एक अंगारदेव सुनार रहता था । जाति का यह ऊँच था। यह रत्नों की जड़ाई का काम बहुत ही बढ़िया करता था। एक दिन अंगारदेव राजमुकुट के एक बहुमूल्य मणि को उजाल रहा था । इसी समय उसके घर पर मेदज नाम के एक मुनि आहार  के लिए आये । वह मुनि को एक ऊँची जगह बैठाकर और उनके सामने उस मणि को रखकर आप भीतर स्त्री के पास चला गया। इधर मणि को मांस के भ्रम से फूँज पक्षी निगल गया । जब सुनार सब विधि ठीक-ठाक कर आया तो देखता है वहाँ मणि नहीं। मणि न देखकर उसके तो होश उड़ गये। उसने मुनिराज से पूछा - मुनिराज, मणि को मैं आपके पास अभी रखकर गया हूँ, इतने में वह कहाँ चला गया? कृपा करके बतलाइए। मुनि चुप रहे। उन्हें चुप्पी साधे देखकर अंगारदेव का उन्हीं पर कुछ शक गया। उसने फिर पूछा- स्वामी, मणि का क्या हुआ ? जल्दी कहिये । राजा को मालूम हो जाने से वह मेरा और मेरे बाल-बच्चों तक का बुरा हाल कर डालेगा। मुनि तब भी चुप ही रहे । अब तो अंगारदेव से न रहा गया। क्रोध से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया। उसने जान लिया कि मणि को इसी ने चुराया है। सो मुनि को बाँधकर उसने उन पर लकड़े की मार मारना शुरू की। उन्हें खूब मारा-पीटा सही, पर तब भी मुनि उसी तरह स्थिर बने रहे। ऐसे धन को, ऐसी मूर्खता को धिक्कार है जिससे मनुष्य कुछ भी सोच-समझ नहीं पाता और हर एक काम को जोश में आकर कर डालता है। अंगारदेव मुनि को लकड़े से पीट रहा था तब एक चोट फूँज पक्षी के गले पर भी जाकर लगी। उससे वह मणि बाहर आ गिरा । मणि को देखते ही अंगारदेव आत्मग्लानि, लज्जा और पश्चाताप के मारे अधमरा-सा हो गया। उसे काटो तो खून नहीं। वह मुनि के पाँवों में गिर पड़ा और रो-रोकर उनसे क्षमा माँगने लगा । इतना कह कर मुनिराज बोले- क्यों सेठ महाशय, अब समझे? मेदज मुनि को उस मणि का हाल मालूम था, पर तब भी दया के वश हो उन्होंने पक्षी का मणि निगल जाना न बतलाया । इसलिए कि पक्षी की जान न जाय और न मुनियों का ऐसा मार्ग ही है। इसी तरह मैं भी यद्यपि तुम्हारे घड़े का हाल जानता हूँ, तथापि कह नहीं सकता। इसलिए कि संयमी का यह मार्ग नहीं है कि वे किसी को कष्ट पहुँचावे । अब जैसा तुम जानते हो और जो तुम्हारे मन में हो उसे करो। मुझे उसकी परवा नहीं । घड़े का छुपाने वाला कुबेरदत्त अपने पिता और मुनि का यह परस्पर का कथोपकथन छुपा सुन रहा था। मुनि का अन्तिम निश्चय सुन उसकी उन पर बड़ी भक्ति हो गई वह दौड़ा जाकर झट से घड़े को निकाल लाया और अपने पिता के सामने उसे रखकर जरा गुस्से से बोला-हाँ देखता हूँ आप मुनिराज पर अब कितना उपसर्ग करते हैं? यह देखकर जिनदत्त बड़ा शर्मिन्दा हुआ। उसने अपने भ्रम भरे विचारों पर बड़ा ही पछतावा किया। अन्त में दोनों पिता-पुत्रों ने उन मेरु के समान स्थिर और तप के खजाने मुनिराज के पाँवों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा कराई और संसार से उदासीन होकर उन्हीं के पास उन्होंने दीक्षा भी ले ली, जो कि मोक्ष- सुख की देने वाली है। दोनों पिता-पुत्र मुनि होकर अपना कल्याण करने लगे और दूसरों को भी आत्मकल्याण का मार्ग बतलाने लगे। वे साधुरत्न मुझे सुख-शान्ति दें, जो भगवान् के उपदेश किये सम्यग्ज्ञान के उमड़े हुए समुद्र हैं, सम्यक्त्वरूपी रत्नों को धारण किये हैं और पवित्र शील जिसकी लहरें हैं। ऐसे मुनिराजों को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। मूलसंघ के मुख्य चलाने वाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में भट्टारक मल्लि भूषण हुए हैं। वे मेरे गुरु हैं, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण किये हैं और गुणों की खान हैं। वे आप लोगों का कल्याण करें ॥११५-१३५॥
  8. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल नेत्र और तीनों लोक को देखने और जानने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन के लोभ से डरकर मुनि हो जाने वाले सागरदत्त की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    किसी समय धनमित्र, धनदत्त आदि बहुत से सेठों के पुत्र व्यापार के लिए कौशाम्बी से चलकर राजगृह की ओर रवाना हुए। रास्ते में एक गहन वन में चोरों ने इन्हें लूट लिया। इनका सब माल- असबाब छीन-छानकर वे चलते हुए । सच है, जिनके पल्ले में कुछ पुण्य नहीं होता। वे कोई भी काम करें, उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ता है ॥२-३॥
    उधर धन पाकर चोरों की नियत बिगड़ी । सब परस्पर में यह चाहने लगे कि धन मेरे ही हाथ पड़े और किसी को कुछ न मिले और इसी लालसा से एक-एक के विरुद्ध जान लेने की कोशिश करने  लगे। रात को जब वे सब खाने को बैठे तो किसी ने भोजन में विष मिला दिया और उसे खाकर सब के सब परलोक सिधार गए। यहाँ तक कि जिसने विष मिलाया था, वह भी भ्रम से उसे खाकर मर गया। उसमें एक सागरदत्त नामक वैश्यपुत्र बच गया । वह इसलिए कि उसे रात्रि में खाने-पीने की प्रतिज्ञा थी । धन के लोभ में फँसने से एक साथ सबको मरा देखकर सागरदत्त को बड़ा वैराग्य हुआ। वह उस धन को वहीं छोड़-छाड़कर चल दिया और एक साधु के पास जाकर आप मुनि बन गया ॥४-७॥
    रात्रिभुक्तत्यागव्रती सागरदत्त ने संसार की सब लीलाओं को दुःख का कारण और जीवन को बिजली की तरह जानकर पलभर में नाश होने वाला सब धन वहीं पर पड़ा छोड़कर आप एक ऊँचा आचरण का धारक साधु हो गया। वह सागरदत्त मुनि आप सज्जनों का कल्याण करें ॥८॥
  9. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    धन, धान्य, दास, दासी, सोना, चाँदी आदि जो संसार के जीवों को तृष्णा के जाल में फँसाकर कष्ट पर कष्ट देने वाले हैं ऐसे परिग्रह से माया, ममता छोड़ने वाले जो साधु-सन्त हैं, उनसे भी जो ऊँचा हैं, जिनके त्याग से आगे त्याग की कोई सीमा नहीं, ऐसे सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर परिग्रह से डरे हुए दो भाइयों की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    दशार्ण देश में बहुत सुन्दर एकरथ नाम का एक शहर था । उसमें धनदत्त नाम का सेठ रहता था। इसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था । इसके धनदेव और धनमित्र ऐसे दो पुत्र और धनमित्रा नाम की सुन्दर लड़की थी ॥२-३॥
    धनदत्त की मृत्यु के बाद इन दोनों भाइयों के कोई ऐसा पापकर्म का उदय आया,जिससे इनका सब धन नष्ट हो गया, ये महा दरिद्र बन गए। कुछ सहायता मिलेगी इस आशा से ये दोनों भाई अपने मामा के यहाँ कौशाम्बी गए और इन्होंने बड़े दुःख के साथ पिता की मृत्यु का हाल मामा को सुनाया। मामा भी इनकी हालत देखकर बड़ा दुःखी हुआ । उसने अनेक प्रकार समझा-बुझाकर इन्हें धीरज दिया और साथ ही आठ कीमती रत्न दिये, जिससे कि ये अपना संसार चला सकें । सच है, यही बन्धुपना है, यही दयालुपना है और यही गम्भीरता है जो अपने धन द्वारा याचकों की आशा पूरी की जाए ॥४-७॥
    दोनों भाई रत्नों को लेकर अपने घर की ओर रवाना हुए। रास्ते में आते-आते इन दोनों की नियत उन रत्नों के लोभ से बिगड़ी। दोनों ही के मन में परस्पर के मार डालने की इच्छा हुई इतने में गाँव पास आ जाने से इन्हें सुबुद्धि सूझ गई। दोनों ने अपने-अपने नीच विचारों पर बड़ा ही पश्चाताप किया और परस्पर में अपना विचार प्रकट कर मन का मैल निकाल डाला। ऐसे पाप विचारों के मूल कारण इन्हें वे रत्न ही जान पड़े। इसलिए उन रत्नों को वेत्रवती नदी में फेंककर ये अपने घर पर चले आए। उन रत्नों को मांस समझकर एक मछली निगल गई यही मछली एक धीवर के जाल में आ फँसी । धीवर ने मछली को मारा। उसमें से वे रत्न निकले। धीवर ने उन्हें बाजार में बेच दिया। धीरे-धीरे कर्मयोग से वही रत्न इन दोनों भाईयों की माँ के हाथ पड़े। माता ने उनके लोभ से अपने लड़के-लड़की को ही मार डालना चाहा परन्तु तत्काल सुबुद्धि उपज जाने से उसने बहुत पश्चाताप किया और रत्नों को अपनी लड़की को दे दिये । धनमित्रा की भी यही दशा हुई उसकी भी लोभ के मारे नियत बिगड़ गई उसने माता, भाई आदि की जान लेनी चाही । सच है - संसार में सबसे बड़ा भारी पाप का मूल लोभ है। अन्त में धनमित्रा को भी अपने विचार पर बड़ी घृणा हुई और उसने फिर उन रत्नों को अपने भाइयों के हाथ दे दिया। वे उन्हें पहचान गए। उन्हें रत्नों के प्राप्त होने का हाल जानकर बड़ा ही वैराग्य हुआ। उसी समय वे संसार की सब माया-ममता छोड़कर, जो कि ॥ महा दुःख का कारण है, दमधर मुनि के पास दीक्षा के लिए गए। इन्हें साधु हुए देखकर इनकी माता और बहिन भी आर्यिका हो गई आगे चलकर ये दोनों भाई बड़े तपस्वी महात्मा हुए। अपना और दूसरों का संसार के दुःखों से उद्धार करना ही एक मात्र इनका कर्तव्य हो गया। स्वर्ग के देवता और प्रायः सब ही बड़े-बड़े राजा-महाराजा इनकी सेवा-पूजा करने को आने लगे ॥८-१८॥
    यह लोभ संसार के दुःखों का मूल कारण और अनेक कष्टों का देने वाला है, जो माता, पिता, भाई, बहिन, बन्धु, बान्धव आदि के परस्पर में ठगने और बुरे विचारों के उत्पन्न करने की इच्छा करते हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस पाप के बाप लोभ को मनसा, वाचा, कर्मणा छोड़कर संसार का हित करने वाले और स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए परम पवित्र धर्म में अपने मन को दृढ़ करने का यत्न करें ॥१९॥
  10. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के द्वारा पूजे गए भगवान् आदि ब्रह्मा (आदिनाथ स्वामी) को नमस्कार कर, देवपुत्र ब्रह्मा की कथा लिखी जाती है ॥ १ ॥
    कुछ असमझ लोग ऐसा कहते हैं कि एक दिन ब्रह्माजी के मन में आया कि मैं इन्द्रादिक का पद छीनकर सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ और इसके लिए उन्होंने एक भयंकर वन में हाथ ऊँचा किए बड़ी घोर तपस्या की। वे कोई साढ़े चार हजार वर्ष पर्यन्त (यह वर्ष संख्या देवों के वर्ष के हिसाब से हैं, जो कि मनुष्यों के वर्षों से कई गुणी होती है।) एक ही पाँव से खड़े होकर तप करते रहे और केवल वायु का आहार करते रहे । ब्रह्माजी की यह कठिन तपस्या निष्फल न गई इन्द्रादि का आसन हिल गया। उन्हें अपने राज्य नष्ट होने का बड़ा भय हुआ । तब उन्होंने ब्रह्माजी का तप भ्रष्ट करने के लिए स्वर्ग की एक तिलोत्तमा नाम की वेश्या को, जो कि गन्धर्व देवों के समान गाने और बड़ी सुन्दर नाचने वाली थी, भेजा । तिलोत्तमा उनके पास आई और अनेक प्रकार के हाव-भाव विलास बतला - बतलाकर नाचने लगी। तिलोत्तमा का नृत्य, तिलोत्तमा की भुवन मनोहारिणी रूपराशि और उसका हाव-भाव-विलास देखकर ब्रह्माजी तपसे डगमगे। उन्होंने हजारों वर्षों की तपस्या को एक क्षण भर में नष्ट कर अपने को काम के हाथ सौंप दिया। वे आँखें फाड़-फाड़कर तिलोत्तमा की रूप राशि को बड़े चाव से देखने लगे। तिलोत्तमा ने जब देखा कि हाँ योगिराज अब अपने आपमें नहीं है और आँखें फाड़-फाड़कर मेरी ही ओर देख रहे हैं, तब उनकी इच्छा को और जागृत करने के लिए वह उनकी बायीं ओर आकर नाचने लगी । ब्रह्मा जी ने तब अपनी हजारों वर्षों की तपस्या के प्रभाव से अपना दूसरा मुँह बाँयी ओर बना लिया । तिलोत्तमा जब उनकी पीठ पीछे आकर नाचने लगी। ब्रह्माजी ने तब तीसरा मुँह पीछे की ओर बना लिया ॥२-१०॥
    तिलोत्तमा फिर उनकी दाहिनी ओर जाकर नाचने लगी, ब्रह्माजी ने उस ओर भी मुँह बना लिया। अन्त में तिलोत्तम आकाश में जाकर नाचने लगी। तब ब्रह्माजी ने अपना पाँचवाँ मुँह गधे के मुख के आकार का बनाया । कारण अब उनकी तपस्या का फल बहुत थोड़ा बच रहा था । मतलब यह कि तिलोत्तमा ने जिस प्रकार ब्रह्माजी को नचाया वे उसी प्रकार नाचे। इस प्रकार उन्हें तप से भ्रष्ट कर और उनके हृदय में काम की आग धधका कर चालाक तिलोत्तमा अछूती की अछूती स्वर्ग को चली गई और बेचारे ब्रह्माजी काम के तीव्र वेग से मूर्च्छा खाकर पृथ्वी पर आ गिरे । तिलोत्तमा ने सब हाल इन्द्र से कहकर कहा-प्रभो, अब आप अनन्त काल तक सुख से रहे। मैं ब्रह्माजी की खूब गति बना आई हूँ। तब इन्द्र ने बहुत खुश होकर उससे पूछा- हाँ तिलोत्तमा, तू ब्रह्माजी के पास ठहरी नहीं? तिलोत्तमा बोली- वाह ! प्रभो, भली उस बूढ़े की और मेरी आपने जोड़ी मिलाई ! मैं तो कभी उसके पास खड़ी तक नहीं रह सकती। यह सुन इन्द्र को ब्रह्माजी की हालत पर बड़ी दया आई उसने फिर सुन्दर वेश्या को उनके पास भेजा । इन्द्र की आज्ञा सिर पर चढ़ा उर्वशी ब्रह्माजी के पास आई उनके पाँवों को छूकर उन्हें उसने सचेत किया। ब्रह्माजी पाँव तले एक स्वर्गीय सुन्दरी को बैठी देखकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्हें मानों आज उनकी कड़ी तपस्या का फल मिल गया। ब्रह्माजी अब घर बनाकर उर्वशी के साथ रहने लगे और मनमाने भोग भोगने लगे; तब से लौकिक ब्रह्मा कहलाने लगे ॥११-१७॥
    बड़े दुःख की बात है कि असमझ लोग देव या देव के सच्चे स्वरूप को जानते नहीं और जैसी अपनी इच्छा में आता है उन्मत्त की तरह झूठा ही कह दिया करते हैं क्या कोई हठ करके इन्द्रादि का का पद छीन सकता है ? और क्या स्वर्ग की देवांगनाएँ व्यभिचार कर सकती है ? और जो ब्रह्मा तीन लोक का स्वामी देव कहा जाता है वह क्या ऐसा नीच कर्म करेगा? समझदारों को ये बातें झूठी समझना चाहिए और जिसमें ऐसी बातें हैं वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता । जैन शास्त्रों में ब्रह्मा उसे कहा है, जो मोक्षमार्ग का बताने वाला, सच्चे ज्ञान और सच्चे चारित्र की प्राप्ति कराने वाला और आत्मा को निजस्वरूप में स्थिर करने वाला है। वह अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन अवस्थाओं से पाँच प्रकार का है । इनके सिवा संसार में कोई ब्रह्मा नहीं है क्योंकि राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया लोभ आदि दोषों से युक्त कभी ब्रह्मा - देव हो ही नहीं सकता किन्तु जो इन रागादि दोषों से रहित हैं, लोक और अलोक जानने वाले हैं और केवलज्ञानरूपी नेत्र से युक्त हैं वे ही ऋषभ द्यापीठ भगवान् मेरे सच्चे ब्रह्मा हैं ॥१८-२३॥
    वे परम पवित्र आदिनाथ जिनेन्द्र मुझे संसार के दुःखों से छुड़ाकर शांति प्रदान करें, जो भव्यजनरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूरज के समान हैं, संसार - समुद्र पार करने वाले हैं, गुणों के समुद्र हैं, स्वर्ग और मोक्ष का पवित्र सुख देने वाले हैं, इंद्रादि देवों द्वारा पूज्य हैं और केवलज्ञान द्वारा सारे संसार के जानने और देखने वाले हैं ॥२४॥
  11. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञान ही जिनका नेत्र है, ऐसे जिनभगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार सात्यकि और रुद्र की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    गन्धार देश में महेश्वरपुर एक सुन्दर शहर था । उसके राजा सत्यन्धर थे। सत्यन्धर की प्रिया का नाम सत्यवती था। इनके एक पुत्र हुआ उसका नाम सात्यकि था । सात्यकि ने राजविद्या में अच्छी कुशलता प्राप्त की थी और ठीक भी है, राजा बिना राजविद्या के शोभा भी नहीं पाता ॥२-३॥
    इस समय सिन्धुदेश की विशाला नगरी का राजा चेटक था। चेटक जैनधर्म का पालक और जिनेन्द्र भगवान् का सच्चा भक्त था, इसकी रानी का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा बड़ी पतिव्रता और धर्मात्मा थी। इसके सात कन्याएँ थी। उनके नाम थे - पवित्रता, मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलना, ज्येष्ठा और चन्दना ॥४-७॥
    सम्राट् श्रेणिक ने चेटक से चेलना के लिए याचना की थी, पर चेटक ने उनकी आयु अधिक देखकर लड़की देने से इनकार कर दिया । इससे श्रेणिक को बहुत बुरा लगा। अपने पिता के दुःख का कारण जानकर अभयकुमार उनका एक बहुत ही बढ़िया चित्र बनवा कर विशाला में पहुँचा । उसने वह चित्र चेलना को बतलाकर उसे श्रेणिक पर मुग्ध कर लिया। पर चेलना के पिता को उसका ब्याह श्रेणिक से करना सम्मत नहीं किया था । इसलिए अभयकुमार ने गुप्त मार्ग से चेलना को ले जाने का विचार किया। जब चेलना उसके साथ जाने को तैयार हुई जब ज्येष्ठा ने उससे अपने को भी ले चलने के लिए कहा । चेलना सहमत तो हो गई, पर उसे उसका चलना इष्ट नहीं था, इसलिए जब ये दोनों बहिनें थोड़ी दूर गई होंगी कि धूर्ता चेलना ने ज्येष्ठा से कहा- बहिन, मैं अपने आभूषण तो सब महल ही में भूल आई हूँ। तू जाकर उन्हें ले आ न? मैं तब तक यहीं खड़ी हूँ । बेचारी भोली ज्येष्ठा उसके झाँसे में आकर चली गई वह थोड़ी दूर ही पहुँची होगी कि इसने इधर आगे का रास्ता पकड़ा और जब तक ज्येष्ठा संकेत स्थान पर आती है तब तक यह बहुत दूर आगे बढ़ आई। अपनी बहिन की इस कुटिलता या धोखेबाजी से ज्येष्ठा को बेहद दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वह यशस्वती आर्यिका के पास दीक्षा ले गई । ज्येष्ठा की सगाई सत्यन्धर के पुत्र सात्यकि से हो चुकी थी। पर जब सात्यकि ने उसका दीक्षा ले लेना सुना तो वह भी विरक्त होकर समाधिगुप्त मुनि द्वारा दीक्षा लेकर मुनि बन गया ॥८-११॥
    एक दिन यशस्वती, ज्येष्ठा आदि आर्यिकाएँ श्रीवर्द्धमान भगवान् की वन्दना करने को चलीं । वे सब एक वन में पहुँची होगी कि पानी बरसने लगा, और खूब बरसा। इससे इस आर्यिका संघ को बड़ा कष्ट हुआ। कोई किधर और कोई किधर, इस तरह उनका सब संघ तितिर-बितर हो गया। ज्येष्ठा एक कालगुहा नाम की गुफा में पहुँची। वह उसे एकान्त समझकर शरीर से भीगे वस्त्रों को उतार कर उन्हें निचोड़ने लगी। भाग्य से सात्यकि मुनि भी इसी गुफा में ध्यान कर रहे थे। सो उन्होंने ज्येष्ठा आर्यिका का खुला शरीर देख लिया। देखते ही विकार भावों से उनका मन भ्रष्ट हुआ और उन्होंने शीलरूपी मौलिक रत्न को आर्यिका के शरीररूपी अग्नि में झोंक दिया। सच है, काम से अन्धा बना मनुष्य क्या नहीं कर डालता ॥१२-१६॥
    गुराणी यशस्वती ज्येष्ठा की चेष्टा वगैरह से उसकी दशा जान गई और इस भय से कि धर्म का अपवाद न हो, वह ज्येष्ठा को चेलना के पास रख आई चेलना ने उसे अपने यहाँ गुप्त रीति से रख लिया। सो ठीक ही है, सम्यग्दृष्टि निन्दा आदि से शासन की सदा रक्षा करते हैं ॥१७॥
    नौ महीने होने पर ज्येष्ठा के पुत्र हुआ । पर श्रेणिक ने इस रूप में प्रकट किया कि चेलना के पुत्र हुआ। ज्येष्ठा उसे वही रखकर आप आर्यिका के संघ में चली आई और प्रायश्चित्त लेकर तपस्विनी हो गई इसका लड़का श्रेणिक के यही पलने लगा। बड़ा होने पर वह और लड़कों के साथ खेलने को जाने लगा। पर संगति इसकी अच्छे लड़कों के साथ नहीं थी इससे इसके स्वभाव में कठोरता अधिक आ गई। यह अपने साथ के खेलने वाले लड़को को रुद्रता के साथ मारने-पीटने लगा। इसकी शिकायत महारानी के पास आने लगी । महारानी को इस पर बड़ा गुस्सा आया। उसने इसका ऐसा रौद्र स्वभाव देखकर नाम भी इसका रुद्र रख दिया। सो ठीक ही है जो वृक्ष जड़ से खराब होता है तब उसके फलों में मीठापन आ भी कहाँ से सकता है । इसी तरह रुद्र से एक दिन और कोई अपराध बन पड़ा। सो चेलना ने अधिक गुस्से में आकर यह कह डाला कि किसने तो इस दुष्ट को जना और किसे यह कष्ट देता है । चेलना के मुँह से, जिसे कि यह अपनी माता समझता था, ऐसी अचम्भा पैदा करने वाली बात सुनकर बड़े गहरे विचार में पड़ गया। इसने सोचा कि इसमें कोई कारण जरूर होना चाहिए। यह सोचकर यह श्रेणिक के पास पहुँचा और उनसे इसने आग्रह के साथ पूछा- पिताजी, सच बतलाइए, मेरे वास्तव में पिता कौन हैं और कहाँ हैं? श्रेणिक ने इस बात के बताने को बहुत आनाकानी की। पर जब रुद्र ने बहुत ही उनका पीछा किया और किसी तरह वह नहीं मानने लगा। तब लाचार हो उन्हें सब सच्ची बात बता देनी पड़ी । रुद्र को इससे बड़ा वैराग्य हुआ और वह अपने पिता के पास जाकर मुनि हो गया ॥१८-२४॥
    एक दिन रुद्र ग्यारह अंग और दस पूर्व का बड़े ऊँचे से पाठ कर रहा था। उस समय श्रुतज्ञान के माहात्म्य से पाँच सौ तो बड़ी-बड़ी विद्याएँ और सात सौ छोटी-छोटी विद्याएँ सिद्ध होकर आयी। उन्होंने अपने को स्वीकार करने की रुद्र से प्रार्थना की। रुद्र ने लोभ के वश हो उन्हें स्वीकार तो कर लिया, पर लोभ आगे होने वाले सुख और कल्याण के नाश का कारण होता है, इसका उसने कुछ विचार न किया ॥२५-२७॥
    इस समय सात्यकि मुनि गोकर्ण पर्वत की ऊँची चोटी पर प्रायः ध्यान किया करते थे। समय गर्मी का था। उनकी वन्दना को अनेक धर्मात्मा भव्य - पुरुष आया जाया करते थे । पर जब से रुद्र को विद्याएँ सिद्धि हुई, तब से वह मुनि - वन्दना के लिए आने वाले धर्मात्मा भव्य - पुरुषों को अपने विद्याबल से सिंह, व्याघ्र, गेंडा, चीता आदि हिंसक और भयंकर पशुओं द्वारा डरा कर पर्वत पर न जाने देता था। सात्यकि मुनि को जब यह हाल ज्ञात हुआ तब उन्होंने इसे समझाया और ऐसे दुष्ट कार्य करने से रोका। पर इसने उनका कहा नहीं माना और अधिक यह लोगों को कष्ट देने लगा । सात्यकि ने तब कहा-तेरे इस पाप का फल बहुत बुरा होगा ॥२८-३०॥
    तेरी तपस्या नष्ट होगी। तू स्त्रियों द्वारा तपभ्रष्टा होकर आखिर मृत्यु का ग्रास बनेगा । इसलिए अभी तुझे सम्हल जाना चाहिए। जिससे कुगतियों के दुःख न भोगना पड़े। रुद्र पर उनके इस कहने का कुछ असर न हुआ । वह और अपनी दुष्टता करता ही चला गया। सच है, पापियों के हृदय में गुरुओं का अच्छा उपदेश कभी नहीं ठहरता ॥ ३१-३२॥
    एक दिन रुद्र मुनि प्रकृति के दृश्यों से अपूर्व मनोहरता धारण किए हुए कैलाश पर्वत पर गया और वहाँ तापन योग द्वारा तप करने लगा। इसके बीच में एक और कथा है, जिसका इसी से सम्बन्ध है। विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघनिबद्ध, मेघनिचय और मेघनिदान ऐसे तीन सुन्दर शहर है।उनका राजा था कनकरथ । कनकरथ की रानी का नाम मनोहरा था । इसके दो पुत्र हुए। एक देवदारु और दूसरा विद्युज्जिह्व। ये दोनों भाई खूबसूरत भी थे और विद्वान् भी थे। इन्हें योग्य देखकर इनका पिता कनकरथ राज्यशासन का भार बड़े पुत्र देवदारु को सौंप आप गणधर मुनिराज के पास दीक्षा लेकर योगी बन गया । सबको कल्याण के मार्ग पर लगाना ही एक मात्र अब इसका कर्तव्य हो गया ॥३३-३८॥
    दोनों भाईयों की कुछ दिनों तक तो पटी, पर बाद में किसी कारण को लेकर बिगड़ पड़ी। उसका फल यह निकला कि छोटे भाई ने राज्य के लोभ में फँसकर और अपने बड़े भाई के विरुद्ध षड्यंत्र रच उसे राज्य से निकाल दिया । देवदारु को अपने मानभंग का बड़ा दुःख हुआ। वह वहाँ से चलकर कैलाश पर आया यहीं पर रहने भी लगा । सच है, घरेलू झगड़ों से कौन नष्ट नहीं हो जाता। देवदारु के आठ कन्याएँ थीं और सब ही सुन्दर थीं । सो एक दिन ये सब बहिनें मिलकर तालाब पर स्नान करने को आई अपने सब कपड़े उतारकर ये नहाने को जल में घुसीं । रुद्र मुनि ने इन्हें खुले शरीर देखा। देखते ही वह काम से पीड़ा जाकर इन पर मोहित हो गया । उसने अपनी विद्या द्वारा उनके सब कपड़े चुरा मँगाये । कन्याएँ जब नहाकर जल बाहर हुई तब उन्होंने देखा कपड़े वहाँ नहीं; उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे खड़ी खड़ी बेचारी लज्जा के मारे सिकुड़ने लगीं और व्याकुल भी वे अत्यन्त हुई, इतने में उनकी नजर रुद्र मुनि पर पड़ी। उन्होंने मुनि के पास जाकर बड़े संकोच के साथ पूछा-प्रभो, हमारे वस्त्रों को यहाँ से कौन ले गया ? कृपाकर हमें बतलाइए। सच है, पाप के उदय से आपत्ति आ पड़ने पर लज्जा संकोच सब जाता रहता है। पापी रुद्र मुनि ने निर्लज्ज होकर उन कन्याओं से कहा-हाँ मैं तुम्हारे वस्त्र वगैरह सब बता सकता हूँ, पर इस शर्त पर कि यदि तुम मुझे चाहने लगो। तब कन्याओं ने कहा- हम अभी अबोध ठहरी, इसलिए हमें इस बात पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं । हमारे पिताजी यदि इस बात को स्वीकार कर लें तो फिर हमें कोई परेशानी नहीं रहेगी। कुल बालिकाओं का यह उत्तर देना उचित ही था । उनका उत्तर सुनकर मुनि ने उन्हें उनके वस्त्र वगैरह दे दिये। उन बालिकाओं ने घर आकर यह सब घटना अपने पिता से कह सुनाई देवदारु ने तब अपने एक विश्वस्त कर्मचारी को मुनि के पास कुछ बातें समझाकर भेजा। उसने जाकर देवदारु की ओर से कहा- आपकी इच्छा देवदारु महाराज को जान पड़ी । उसके उत्तर में उन्होंने यह कहा है कि हाँ मैं अपनी लड़कियों को आपको अर्पण कर सकता हूँ, पर इस शर्त पर कि “ आप विद्युज्जिह को मारकर मेरा राज्य मुझे दिलवा दें। " रुद्र ने यह स्वीकार किया। सच है, कामी पुरुष कौन पाप नहीं करता । रुद्र को अपनी इच्छा के अनुकूल देख देवदारु उसे अपने घर पर लिवा लाया और बहुत ठीक है, राज्य-भ्रष्ट राजा राज्य प्राप्ति के लिए क्या काम नहीं करता ॥३९-५२॥
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    इसके बाद रुद्र विजयार्द्ध पर्वत पर गया और विद्याओं की सहायता से उसने विद्युज्जिह्व को मारकर उसी समय देवदारु को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया। राज्य प्राप्ति के बाद ही देवदारु ने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। अपनी सब लड़कियों का ब्याह आनन्द-उत्सव के साथ उसने रुद्र से कर दिया। इसके सिवा उसने और भी बहुत सी कन्याओं को उसके साथ ब्याह दिया । रुद्र तब बहुत ही कामी हो गया। उसके इस प्रकार तीव्र कामसेवन का नतीजा यह हुआ कि सैकड़ों बेचारी राजबालिकाएँ अकाल में मर गई पर यह पापी तब भी सन्तुष्ट नहीं हुआ । इसने अब की बार पार्वती के साथ ब्याह किया। उसके द्वारा इसकी कुछ तृप्ति जरूर हुई ॥५३-५७॥
    कामी होने के सिवा इसे अपनी विद्याओं का भी बड़ा घमंड हो गया था । इसने सब राजाओं को विद्याबल से बड़ा कष्ट दे रखा था, बिना ही कारण यह सबको तंग किया करता था । और सच भी है दुष्ट से किसे शान्ति मिल सकती है । इसके द्वारा बहुत तंग आकर पार्वती के पिता तथा और भी बहुत से राजाओं ने मिलकर इसे मार डालने का विचार किया। पर इसके पास था विद्याओं का बल, सो उसके सामने होने की किसी की हिम्मत न पड़ती और पड़ती भी तो वे कुछ कर नहीं सकते थे। तब उन्होंने इस बात का शोध लगाया कि विद्याएँ इससे किस समय अलग रहती हैं। इस उपाय से उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उन्हें यह ज्ञात हो गया कि कामसेवन के समय बल विद्याएँ रुद्र से पृथक् हो जाती है। सो मौका देखकर पर्वती के पिता वगैरह ने खड्ग द्वारा रुद्र को सस्त्रीक मार डाला। सच है-पापियों के मित्र भी शत्रु हो जाया करते हैं ॥ ५८-६०॥
    विद्याएँ अपने स्वामी की मृत्यु देखकर बड़ी दुःखी हुई और साथ ही उन्हें क्रोध भी अत्यन्त आया। उन्होंने तब प्रजा को दुःख देना शुरू किया और अनेक प्रकार की बीमारियाँ प्रजा में फैला दीं। उससे बेचारी गरीब प्रजा त्राह-वाह कर उठी । इसी समय एक ज्ञानी मुनि इस ओर आ निकले। प्रजा के कुछ लोगों ने जाकर मुनि से इस उपद्रव का कारण और उपाय पूछा। मुनि ने सब कथा कहकर कहा- जिस अवस्था में रुद्र मारा गया है, उसकी एक बार स्थापना करके उससे क्षमा कराओ। वैसा ही किया गया। प्रजा का उपद्रव शान्त हुआ, पर तब भी लोगों की मूर्खता देखो जो एक बार कोई काम किसी कारण को लेकर किया गया सो उसे अब तक भी गडरिया प्रवाह की तरह करते चले आते हैं और देवता के रूप में उसकी सेवा-पूजा करते हैं। पर यह ठीक नहीं । सच्चा देव वही हो सकता है जिसमें राग-द्वेष नहीं जो सबका जानने और देखने वाला हो सकता है और जिसे स्वर्ग के देव, चक्रवर्ती, विधाधर, राजा, महाराजा आदि सभी बड़े-बड़े लोग मस्तक झुकाते हैं और ऐसे देव एक अर्हन्त भगवान् ही हैं ॥६१-६४॥
    वे जिन भगवान् मुझे शान्ति दें, जो अनन्त उत्तम - उत्तम गुणों के धारक हैं, सब सुखों के देने वाले हैं, दुःख, शोक, सन्ताप के नाश करने वाले हैं, केवलज्ञान के रूप में जो संसार का आताप हर कर उसे शीतलता देने वाले चन्द्रमा हैं और तीनों लोकों के स्वामियों द्वारा जो भक्तिपूर्वक पूजे जाते हैं ॥६५॥
  12. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर अन्यमतों की असत्य कल्पनाओं का सत्पुरुषों को ज्ञान हो, इसलिए उन्हीं के शास्त्रों में लिखी हुई पाराशर नामक एक तपस्वी की कथा यहाँ लिखी जाती है ॥१॥
    हस्तिनापुर में गंगभट नाम का एक धीवर रहा करता था । एक दिन वह पाप-बुद्धि एक बड़ी भारी मछली को नदी से पकड़कर लाया। घर लाकर उस मछली को जब उसने चीरा तो उसमें से एक सुन्दर कन्या निकली। उसके शरीर से बड़ी दुर्गन्ध निकल रही थी। उस धीवर ने उसका नाम सत्यवती रखा। वही उसका पालन-पोषण भी करने लगा। पर सच पूछो तो यह बात सर्वथा-असंभव है। कही मछली से भी कन्या पैदा हुई? खेद है कि लोग आँख बन्द किए ऐसी-ऐसी बातों पर भी अन्धश्रद्धा किए चले आते हैं ॥२-४॥
    जब सत्यवती बड़ी हो गई तो एक दिन की बात है कि गंगभट सत्यवती को नदी किनारे नाव पर बैठाकर आप किसी काम के लिए घर पर आ गया । इतने में रास्ते का थका हुआ एक पाराशर नाम का मुनि, जहाँ सत्यवती नाव लिए बैठी हुई थी, वहाँ आया। वह सत्यवती से बोला-लड़की मुझे नदी के उस पार जाना है, तू अपनी नाव पर बैठाकर नदी के पार उतार दे तो बहुत अच्छा हो। भोली सत्यवती ने उसका कहा मान लिया और नाव में उसे अच्छी तरह बैठाकर वह नाव खेने लगी। सत्यवती खूबसूरत तो थी ही और इस पर वह अब तेरह चौदह वर्ष की हो चुकी थी; इसलिए उसकी खिलती हुई नई जवानी थी। उसकी मनोहारी मधुर सुन्दरता ने तपस्वी के तप को डगमगा दिया। वह काम वासना का गुलाम हुआ। उसने अपनी पापमयी मनोवृत्ति को सत्यवती पर प्रकट किया। सत्यवती सुनकर लजा गई, और डरी भी । वह बोली- महाराज, आप साधु-सन्त, सदा गंगास्नान करने वाले और शाप देने तथा दया करने में समर्थ और मैं नीच जाति की लड़की, इस पर भी मेरा शरीर दुर्गन्धमय, फिर मैं आप सरीखों के योग्य कैसे हो सकती हूँ? पाराशर को इस भोली लड़की के निष्कपट हृदय की बात पर भी कुछ शर्म नहीं आई और कामियों को शर्म होती भी कहाँ ? उसने सत्यवती से कहा-तू इसकी कुछ चिन्ता न कर । मैं तेरा शरीर अभी सुगन्धमय बनाये देता हूँ। यह कहकर पाराशर ने अपने विद्याबल से उसके शरीर को देखते-देखते सुगन्धमय कर दिया। उसके प्रभाव को देखकर सत्यवती को राजी हो जाना पड़ा। कामी पाराशर ने अपनी वासना नाव में ही मिटाना चाही, तब सत्यवती बोली-आपको इसका ख्याल नहीं कि सब लोग देखकर क्या कहेंगे? तब पाराशर ने आकाश को धुँधला कर, जिससे कोई देख न सके और अपनी इच्छा इसके बाद उसने नदी के बीच में एक छोटा-सा गाँव बसाया और सत्यवती के साथ ब्याह कर आप वहीं रहने लगा ॥५-१२॥
    एक दिन पाराशर अपनी वासनाओं की तृप्ति कर रहा था कि उस समय सत्यवती के एक व्यास नाम का पुत्र हुआ। उसके सिर पर जटाएँ थीं, वह यज्ञोपवीत पहने हुआ था और उससे उत्पन्न होते ही अपने पिता को नमस्कार किया । पर लोगों का यह कहना उन्मत्त पुरुष के सरीखा है और न किसी ज्ञान-नेत्र वाले की समझ में ये बातें आवेंगी ही क्योंकि वे समझते हैं कि समझदार कभी ऐसी असंभव बातें नहीं कहते किन्तु भक्ति के आवेश में आकर अतत्त्व पर विश्वास लाने वालों ने ऐसा लिख दिया है। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे उन विद्वानों की संगति करें जो जैनधर्म का रहस्य समझने वाले हैं और जैनधर्म से ही प्रेम करें और उसी के शास्त्रों का भक्ति और श्रद्धा साथ अध्ययन करें, उनमें पवित्र बुद्धि को लगावें, इसी से उन्हें सच्चा सुख प्राप्त व्यास नाम का पुत्र हुआ। उसके सिर पर जटाएँ थीं, वह यज्ञोपवीत पहने हुआ था और उससे उत्पन्न होते ही अपने पिता को नमस्कार किया । पर लोगों का यह कहना उन्मत्त पुरुष के सरीखा है और न किसी ज्ञान-नेत्र वाले की समझ में ये बातें आवेंगी ही क्योंकि वे समझते हैं कि समझदार कभी ऐसी असंभव बातें नहीं कहते किन्तु भक्ति के आवेश में आकर अतत्त्व पर विश्वास लाने वालों ने ऐसा लिख दिया है। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे उन विद्वानों की संगति करें जो जैनधर्म का रहस्य समझने वाले हैं और जैनधर्म से ही प्रेम करें और उसी के शास्त्रों का भक्ति और श्रद्धा साथ अध्ययन करें, उनमें पवित्र बुद्धि को लगावें, इसी से उन्हें सच्चा सुख प्राप्त होगा ॥१३-१६॥
  13. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    देवों द्वारा पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर चारुदत्त सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    जिस समय की यह कथा है, तब चम्पापुरी का राजा शूरसेन था । राजा बड़ा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। उसके नीतिमय शासन की सारी प्रजा एक स्वर से प्रशंसा करती थी। यही एक इज्जतदार भानुदत्त सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के कोई सन्तान नहीं हुई, इसलिए वह सन्तान प्राप्ति की इच्छा से नाना प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा किया करती थी, अनेक प्रकार की मान्यताएँ लिया करती थी परन्तु तब भी उसका मनोरथ नहीं फला। सच तो है, कहीं कुदेवों की पूजा-स्तुति से कभी कार्य सिद्ध हुआ है क्या ? एक दिन जब वह भगवान् के दर्शन करने को मन्दिर गई तब वहाँ उसने एक चारण मुनि देखे। उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा- प्रभो, क्या मेरा मनोरथ भी कभी पूर्ण होगा? मुनिराज उसके हृदय के भावों को जानकर बोले- पुत्री, इस समय तू जिस इच्छा से दिन- -रात कुदेवों की पूजा-मानता किया करती है, वह ठीक नहीं है। उससे लाभ की जगह उल्टी हानि हो रही है। तू इस प्रकार की पूजा मानता द्वारा अपने सम्यक्त्व को नष्ट मत कर। तू विश्वास कर कि संसार में अपने पुण्य-पाप के सिवा और कोई देवी-देवता किसी को कुछ देने-लेने में समर्थ नहीं। अब तक तेरे पाप का उदय था, इसलिए तेरी इच्छा पूरी न हो सकी। पर अब तेरे महान् पुण्यकर्म का उदय आयेगा, जिससे तुझे एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । तू इसके लिए पुण्य के कारण पवित्र धर्म पर विश्वास कर ॥२-७॥
    मुनिराज द्वारा अपना भविष्य सुनकर सुभद्रा को बहुत खुशी हुई वह उन्हें नमस्कार कर घर चली गई। अब से उसने सब कुदेवों की पूजा - मानता करना छोड़ दिया । वह अब जिन भगवान् के पवित्र धर्म पर विश्वास कर दान, पूजा, व्रत वगैरह करने लगी। इस दशा में दिन बड़े सुख के साथ कटने लगे। इसी तरह कुछ दिन बीतने पर मुनिराज के कहे अनुसार उसके पुत्र हुआ । उसका नाम चारुदत्त रखा गया। वह जैसा-जैसा बड़ा होता गया, साथ में उत्तम - उत्तम गुण भी उसमें अपना स्थान बनाते गए। सच है, पुण्यवानों को अच्छी-अच्छी सब बातें अपने आप प्राप्त होती चली आती हैं ॥८-९ ॥
    चारुदत्त बचपन ही से पढ़ने-लिखने में अधिक योग्य दिखा करता था । यही कारण था कि उसे चौबीस-पच्चीस वर्ष का होने पर भी किसी प्रकार की विषय-वासना छू तक न गई थी। उसे तो दिन- -रात अपनी पुस्तकों से प्रेम था। उन्हीं के अभ्यास, विचार, मनन, चिन्तन में वह सदा मग्न रहा करता था और इसी से बालपन से ही वह बहुधा करके विरक्त रहता था। उसकी इच्छा नहीं थी। कि वह ब्याह कर संसार के माया - जाल में अपने को फँसावे, पर उसके माता-पिता ने उससे ब्याह करने का बहुत आग्रह किया । उनकी आज्ञा के अनुरोध से उसे अपने मामा की गुणवती पुत्री मित्रवती के साथ ब्याह करना पड़ा ॥१०॥
    ब्याह हो गया सही, पर तब भी चारुदत्त उसका रहस्य नहीं समझ पाया और इसीलिए उसने कभी अपनी प्रिया का मुँह तक नहीं देखा । पुत्र की युवावस्था में यह दशा देखकर उसकी माँ को बड़ी चिन्ता हुई चारुदत्त की विषयों की ओर प्रवृत्ति हो, इसके लिए उसने चारुदत्त को ऐसे लोगों की संगति में डाल दिया, जो व्यभिचारी थे । इससे उसकी माँ का अभिप्राय सफल अवश्य हुआ । चारुदत्त विषयों में फँस गया और खूब फँस गया । पर अब वह वेश्या का ही प्रेमी बन गया। उसने तब से घर का मुँह तक नहीं देखा। उसे कोई लगभग बारह वर्ष वेश्या के यहाँ रहते हुए बीत गए। इस अरसे में उसने अपने घर का सब धन भी गवा दिया । चम्पा में चारुदत्त का घर अच्छे धनिकों की गिनती में था, पर अब वह एक साधारण स्थिति का आदमी रह गया। अभी तक चारुदत्त के खर्च के लिए उसके घर से नगद रुपया आया करता था। पर अब रुपया लुट जाने से उसकी स्त्री का गहना आने लगा। जिस वेश्या के साथ चारुदत्त का प्रेम था उसकी कुट्टनी माँ ने चारुदत्त को अब दरिद्र हुआ समझकर एक दिन अपनी लड़की से कहा- बेटी, अब इसके पास धन नहीं रहा, यह भिखारी हो चुका, इसलिए अब तुझे इसका साथ जल्दी छोड़ देना चाहिए। अपने लिए दरिद्र मनुष्य किस काम का। वही हुआ भी । वसन्त सेना ने उसे अपने घर से निकाल बाहर किया । सच है, वेश्याओं की प्रीति धन के साथ ही रहती है। जिसके पास जब तक पैसा रहता है उससे तभी तक प्रेम करती है। जहाँ धन नहीं वहाँ वेश्या का प्रेम भी नहीं । यह देख चारुदत्त को बहुत दुःख हुआ । अब उसे जान पड़ा कि विषय-भोगों में अत्यन्त आसक्ति का कैसा भयंकर परिणाम होता है। वह अब एक पलभर के लिए भी वहाँ पर नहीं ठहरा और अपनी प्रिया के भूषण ले-लिवाकर विदेश चलता बना। उसे इस हालत में माता को अपना कलंकित मुँह दिखलाना उचित नहीं जान पड़ा ॥११-१८॥
    यहाँ से चलकर चारुदत्त धीरे-धीरे उलूख देश के उशिरावर्त नाम के शहर में पहुँचा। चम्पा से जब वह रवाना हुआ तब साथ में इसका मामा भी हो गया था । उशिरावर्त में इन्होंने कपास की खरीद की। यहाँ से कपास लेकर ये दोनों ताम्रलिप्ता नामक पुरी की ओर रवाना हुए। रास्ते में ये एक भयंकर वनों में जा पहुँचे। कुछ विश्राम के लिए इन्होंने यहीं डेरा डाल दिया। इतने में एक महा आँधी आई उससे परस्पर की रगड़ से बाँसों में आग लग उठी। हवा चल ही रही थी, सो आग की चिनगारियाँ उड़कर इनके कपास पर जा पड़ीं। देखते-देखते वह सब कपास भस्मीभूत हो गया। सच है, बिना पुण्य के कोई काम सिद्ध नहीं हो पाता है। इसलिए पुण्य कमाने के लिए भगवान् के उपदेश किए मार्ग पर चलना सबका कर्तव्य है । इस हानि से चारुदत्त बहुत ही दुःखी हो गया। वह यहाँ से किसी दूसरे देश की ओर जाने के लिए अपने मामा से सलाहकर समुद्रदत्त सेठ के जहाज द्वारा पवनद्वीप में पहुँचा। यहाँ इसके भाग्य का सितारा चमका। कुछ वर्ष यहाँ रहकर इसने बहुत धन कमाया। इसकी इच्छा अब देश लौट आने की हुई । अपनी माता के दर्शनों के लिए इसका मन बड़ा अधीर हो उठा। इसने चलने की तैयारी कर जहाज में अपना जब धन - असबाब लाद दिया ॥१९-२३॥
    जहाज अनुकूल समय देख रवाना हुआ। जैसे-जैसे वह अपनी " स्वर्गादपि गरीयसी" जन्मभूमि की ओर शीघ्र गति से बढ़ा हुआ जा रहा था, चारुदत्त को उतनी ही अधिक प्रसन्नता होती जाती थी। पर यह कोई नहीं जानता कि मनुष्य का चाहा कुछ नहीं होता । होता वही है जो दैव को मंजूर होता है। यही कारण हुआ कि चारुदत्त की इच्छा पूरी न हो पाई और अचानक जहाज किसी से टकराकर फट पड़ा। चारुदत्त का सब माल - असबाब समुद्र के विशाल उदर की भेंट चढ़ा। वह पहले सा ही दरिद्र हो गया । पर चारुदत्त को दुःख उठाते - उठाते बड़ी सहन-शक्ति प्राप्त हो गई थी। एक पर एक आने वाले दुःखों ने उसे निराशा के गहरे गढ़े से निकाल कर पूर्ण आशावादी और कर्तव्यशील बना दिया था । इसलिए अब की बार उसे अपनी हानि का कुछ विशेष दुःख नहीं हुआ। वह फिर कमाने के लिए विदेश चल पड़ा। उसने अब की बार भी बहुत धन कमाया। घर लाते समय फिर भी उसकी पहले सी दशा हुई। इतने में ही उसके बुरे कर्मों का अन्त न हो गया किन्तु ऐसी-ऐसी भयंकर घटनाओं का कोई सात बार उसे सामना करना पड़ा। इसने कष्ट पर कष्ट सहा, पर अपने कर्तव्य से यह कभी विमुख नहीं हुआ। अब की बार जहाज के फट जाने से यह समुद्र में गिर पड़ा। इसे अपने जीवन का भी सन्देह हो गया था । इतने में भाग्य से बहकर आता हुआ एक लकड़े का तख्ता इसके हाथ पड़ गया। उसे पाकर इसके जी में जी आया । किसी तरह यह उसकी सहायता से समुद्र किनारे आ लगा। यहाँ से चलकर यह राजगृह में पहुँचा। यहाँ इसे एक विष्णुमित्र नाम का संन्यासी मिला । संन्यासी ने इसके द्वारा कोई अपना काम निकलता देखकर पहले बड़ी सज्जनता का इसके साथ बरताव किया । चारुदत्त ने यह समझकर कि यह कोई भला आदमी है, अपनी सब हालत उससे कह दी । चारुदत्त को धनार्थी समझकर विष्णुमित्र उससे बोला- मैं समझा, तुम धन कमाने को घर बाहर हुए हो। अच्छा हुआ तुमने अपना हाल सुना दिया। पर सिर्फ धन के लिए अब तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। आओ, मेरे साथ आओ, यहाँ से कुछ दूर पर जंगल में एक पर्वत है। उसकी तलहटी में एक कुँआ है। वह रसायन से भरा हुआ है। उससे सोना बनाया जाता है। सो तुम उसमें से कुछ थोड़ा सा रस ले आओ। उससे तुम्हारी सब दरिद्रता नष्ट हो जायेंगी । चारुदत्त संन्यासी के पीछे-पीछे हो लिया। सच है, दुर्जनों द्वारा धन के लोभी कौन-कौन नहीं ठगे गए ॥२४-२९॥
    संन्यासी और उसके पीछे-पीछे चारुदत्त ये दोनों एक पर्वत के पास पहुँचे। संन्यासी ने रस लाने की सब बातें समझाकर चारुदत्त के हाथ में एक तूंबी दी और एक सीके पर उसे बैठाकर कुँए में उतार दिया। चारुदत्त तूंबी में रस भरने लगा । इतने में वहाँ बैठे हुए एक मनुष्य ने उसे रस भरने से रोका। चारुदत्त पहले तो डरा, पर जब उस मनुष्य ने कहा तुम डरो मत, तब कुछ सम्हल कर वह बोला-तुम कौन हो और इस कुँए में कैसे आये? कुँए में बैठा हुआ मनुष्य बोला, सुनिए, मैं उज्जयिनी में रहता हूँ। मेरा नाम धनदत्त है। मैं किसी कारण से सिंहलद्वीप गया था । वहाँ से लौटते समय तूफान पड़कर मेरा जहाज फट गया । धन-जन की बहुत हानि हुई मेरे हाथ एक लक्कड़ का पटिया लग जाने से अथवा यों कहिए कि दैव की दया से मैं बच गया। समुद्र से निकलकर मैं अपने शहर की ओर जा रहा था कि रास्ते में मुझे यही संन्यासी मिला। यह दुष्ट मुझे धोखा देकर यहाँ लाया। मैंने कुँए में से इसे रस भरकर ला दिया। इस पापी ने पहले तूंबी मेरे हाथ से ली और फिर आप रस्सी काटकर भाग गया। मैं आकर कुँए में गिरा। भाग्य से चोट तो अधिक न आई, पर दो- तीन दिन इसमें पड़े रहने से मेरी तबियत बहुत बिगड़ गई और अब मेरे प्राण घुट रहे हैं। उसकी हालत सुनकर चारुदत्त को बड़ी दया आई पर वह ऐसी जगह में फँस चुका था, जिससे उसके जिलाने का कुछ यत्न नहीं कर सकता था । चारुदत्त ने उससे पूछा- तो मैं इस संन्यासी को रस भरकर न दूँ? धनदत्त ने कहा- नहीं, ऐसा मत करो; रस तो भरकर दे ही दो, अन्यथा यह ऊपर से पत्थर वगैरह मारकर बड़ा कष्ट पहुँचायेगा । तब चारुदत्त ने एक बार तो तूंबी को रस से भरकर सीके में रख दिया। संन्यासी ने उसे निकाल लिया। जब चारुदत्त को निकालने के लिए उसने फिर सीका कुँए में डाला। अब की बार चारुदत्त ने स्वयं सीके पर न बैठकर बड़े-बड़े वजनदार पत्थरों को उसमें रख दिया। संन्यासी उस पत्थर भरे सीके पर चारुदत्त को बैठा समझकर, जब सीका आधी दूर आया तब उसे काटकर आप चलता बना। चारुदत्त की जान बच गई। उसने धनदत्त से कहा तुमने मुझे जीवनदान दिया और इसके लिए मैं तुम्हारा जन्म-जन्म में ऋणी रहूँगा । हाँ और यह तो कहिए कि इससे निकलने का भी कोई उपाय हैं क्या? धनदत्त बोला- यहाँ रस पीने को प्रतिदिन एक गो आया करती है। तब आज तो वह चली गई कल सबेरे वह फिर आवेगी तुम उसकी पूँछ पकड़कर निकल जाना। इतना कहकर वह बोला- अब मुझसे बोला नहीं जाता। मेरे प्राण बड़े संकट में हैं । चारुदत्त को यह देख बड़ा दुःख हुआ कि वह अपने उपकारी की कुछ सेवा नहीं कर पाया। उससे और तो कुछ नहीं बना, पर इतना तो उसने तब भी किया कि धनदत्त को पवित्र जिनधर्म का उपदेश देकर, जो कि उत्तम गति का साधन है, पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास भी लिवा दिया ॥३०-४२॥
    सबेरा हुआ। सदा की भाँति आज भी गो रस पीने के लिए आई रस पीकर जैसे ही वह जाने लगी, चारुदत्त ने उसकी पूँछ पकड़ ली। उसके सहारे वह बाहर निकल आया । यहाँ से इस जंगल को लांघकर यह एक ओर जाने लगा। रास्ते में इसकी अपने मामा रुद्रदत्त से भेंट हो गई। रुद्रदत्त ने चारुदत्त का सब हाल जानकर कहा- तो चलिए अब हम रत्नद्वीप में चलें । वहाँ अपना मनोरथ अवश्य पूरा होगा। धन की आशा से ये दोनों अब रत्नद्वीप जाने को तैयार हुए। रत्नद्वीप जाने के लिए पहले एक पर्वत पर जाना पड़ता था और पर्वत पर जाने का जो रास्ता था, वह बहुत सँकरा था । इसलिए पर्वत पर जाने के लिए इन्होंने दो बकरे खरीद लिए और उन पर सवार होकर ये रवाना हो गए। जब ये पर्वत पर कुशलपूर्वक पहुँच गये तब पापी रुद्रदत्त ने चारुदत्त से कहा- देखो, अब अपने को यहाँ पर इन दोनों बकरों को मारकर दो चमड़े की थैलियाँ बनानी चाहिए और उन्हें उलटकर उनके भीतर घुस दोनों का मुँह सी लेना चाहिए। मांस के लोभ से यहाँ सदा ही भेरुण्ड - पक्षी आया करते हैं । सो वे अपने को उठा ले जाकर उस पार रत्नद्वीप ले जाएँगे। वहाँ जब वे हमें खाने लगें तब इन थैलियों को चीरकर हम बाहर हो जायेंगे। मनुष्य को देखकर पक्षी उड़ जाएँगे और ऐसा करने से बहुत सीधी तरह अपना काम बन जायेगा ॥४३-५१॥
    चारुदत्त ने रुद्रदत्त की पापमयी बात सुनकर उसे बहुत फटकारा और वह साफ इनकार कर गया कि मुझे ऐसे पाप द्वारा प्राप्त किए धन की जरूरत नहीं। सच है-दयावान् कभी ऐसा अनर्थ नहीं करते। रात को ये दोनों सो गए । चारुदत्त को स्वप्न में भी ख्याल न था कि रुद्रदत्त सचमुच इतना नीच होगा और इसीलिए वह निःशंक होकर सो गया था। जब चारुदत्त को खूब गाढ़ी नींद आ गई तब पापी रुद्रदत्त चुपके से उठा और जहाँ बकरें बँधे थे वहाँ गया। उसने पहले अपने बकरे को मार डाला और चारुदत्त के बकरे का भी उसने आधा गला काट दिया होगा कि अचानक चारुदत्त की नींद खुल गई। रुद्रदत्त को अपने पास सोया न पाकर उसका सिर ठनका। वह उठकर दौड़ा और बकरों के पास पहुँचा। जाकर देखता है तो पापी रुद्रदत्त बकरे का गला काट रहा है। चारुदत्त को काटो तो खून नहीं। वह क्रोध के मारे भर्रा गया। उसने रुद्रदत्त के हाथ से छुरी तो छुड़ाकर फेंकी और उसे खूब ही सुनाई सच है, कौन ऐसा पाप है, जिसे निर्दयी पुरुष नहीं करते?
    उस अधमरे बकरे को टगर-टगर करते देखकर दया से चारुदत्त का हृदय भर आया। उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं। पर वह उसके बचाने का प्रयत्न करने के लिए लाचार था। इसलिए कि वह प्रायः काटा जा चुका था । उसकी शांति के साथ मृत्यु होकर वह सुगति लाभ करे, इसके लिए चारुदत्त ने इतना अवश्य किया कि उसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाकर संन्यास दे दिया। जो धर्मात्मा जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश का रहस्य समझने वाले हैं, उनका जीवन सच पूछो तो केवल परोपकार के लिए ही होता है ॥५२-५५॥
    चारुदत्त ने बहुतेरा चाहा कि मैं पीछे लौट जाऊँ, पर वापस लौटने का उसके पास कोई उपाय न था। इसलिए अत्यन्त लाचारी की दशा में उसे भी रुद्रदत्त की तरह उस थैली की शरण लेनी पड़ी। उड़ते हुए भेरुण्ड पक्षी पर्वत पर दो मांस- पिण्ड पड़े देखकर आए और उन दोनों को चोंचों से उठा चलते बने। रास्ते में उनमें परस्पर लड़ाई होने लगी। परिणाम यह निकला कि जिस थैली में रुद्रदत्त था, वह पक्षी की चोंच से छूट पड़ी । रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया । मरकर वह पाप के फल से कुगति में गया । ठीक भी है, पापियों की कभी अच्छी गति नहीं होती । चारुदत्त की थैली को जो पक्षी लिए था, उसने उसे रत्नद्वीप के एक सुन्दर पर्वत पर ले जाकर रख दिया। इसके बाद पक्षी ने उसे चोंच से चीरना शुरू किया। उसका कुछ भाग चीरते ही उसे चारुदत्त देख पड़ा। पक्षी उसी समय डरकर उड़ भागा। सच है, पुण्यवानों का कभी-कभी तो दुष्ट भी हित करने वाले हो जाते हैं। जैसे ही चारुदत्त थैली के बाहर निकला कि धूप में मेरु की तरह निश्चल खड़े मुनिराज को देखकर चारुदत्त की उन पर बहुत श्रद्धा हो गई । चारुदत्त उनके पास गया और बड़ी भक्ति से उसने उनके चरणों में अपना सिर नवाया । मुनिराज का ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारुदत्त से कहा-चारुदत्त, क्यों तुम अच्छी तरह तो हो । न? मुनि द्वारा अपना नाम सुनकर चारुदत्त को कुछ सन्तोष तो इसलिए अवश्य हुआ कि एक अत्यन्त अपरिचित देश में उसे कोई पहचानता भी है, पर इसके साथ ही उसके आश्चर्य का भी कुछ ठिकाना न रहा । वह बड़े विचार में पड़ गया कि मैंने तो कभी इन्हें कहीं देखा नहीं, फिर इन्होंने ही मुझे कहाँ देखा था ! अस्तु, जो हो, इन्हीं से पूछता हूँ कि ये मुझे कहाँ से जानते हैं। वह मुनिराज से बोला- प्रभो, मालूम होता है आपने मुझे कहीं देखा है, बतलाइए तो आपको मैं कहाँ मिला था? मुनि बोले- सुनो, मैं एक विद्याधर हूँ ! मेरा नाम अमितगति है । एक दिन मैं चम्पापुरी के बगीचे से अपनी प्रिया के साथ सैर करने को गया हुआ था । उसी समय एक धूमसिंह नाम का विद्याधर वहाँ आ गया । मेरी सुन्दरी स्त्री को देखकर उस पापी की नियत डगमगी। काम से अन्धे हुए उस पापी ने अपनी विद्या के बल से मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी प्यारी को विमान में बैठाकर मेरे देखते-देखते आकाश मार्ग से चल दिया। उस समय मेरे कोई ऐसा पुण्यकर्म का उदय आया तो तुम उधर आ निकले। तुम्हें दयावान् समझकर मैंने तुमसे इशारा करके कहा-वे औषधियाँ रखी हैं, उन्हें पीसकर मेरे शरीर पर लेप दीजिए। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर वैसा ही किया। उससे दुष्ट विद्याओं का प्रभाव नष्ट हुआ और मैं उन विद्याओं के पंजे से छूट गया। जैसे गुरु के उपदेश से जीव, माया, मिथ्या की कील से छूट जाता है। मैं उसी समय दौड़ा हुआ कैलाश पर्वत पर पहुँचा और धूमसिंह को उसके कर्म का उचित प्रायश्चित्त देकर उससे अपनी प्रिया को छुड़ा लाया। फिर मैंने आप से कुछ प्रार्थना की कि आप जो इच्छा हो वह मुझसे माँगे, पर आप मुझ से कुछ भी लेने के लिए तैयार नहीं हुए । सच तो यह है कि महात्मा लोग दूसरों का भला किसी प्रकार की आशा से करते ही नहीं इसके बाद मैं आपसे विदा होकर अपने नगर में आ गया। मैंने इसके पश्चात् कुछ वर्षों तक और राज्य किया, राज्य श्री का खूब आनन्द लूटा। बाद आत्मकल्याण की इच्छा से पुत्रों को राज्य सौंपकर स्वयं दीक्षा ले गया, जो कि संसार का भ्रमण मिटाने वाली है। चारणऋद्धि के प्रभाव से मैं यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूँ । मेरा तुम्हारे साथ पुराना परिचय है, इसलिए मैं तुम्हें पहचानता हूँ । सुनकर चारुदत्त बहुत खुश हुआ। वह जब तक वहाँ बैठा रहा, इसी बीच में इन मुनिराज के दो पुत्र इनकी पूजा करने को वहाँ आए । मुनिराज ने चारुदत्त का कुछ हाल उन्हें सुनाकर उसका उनसे परिचय कराया। परस्पर में मिलकर इन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े ही समय के परिचय से इनमें अत्यन्त प्रेम बढ़ गया ॥५६-७९॥
    इसी समय एक बहुत खूबसूरत युवा यहाँ आया। सबकी दृष्टि उसके दिव्य तेज की ओर जा लगी। उस युवा ने सबसे पहले चारुदत्त को प्रणाम किया । यह देख चारुदत्त ने उसे ऐसा करने से रोककर कहा-तुम्हें पहले गुरु महाराज को नमस्कार करना उचित है । आगत युवा ने अपना परिचय देते हुए कहा-मैं बकरा था । पापी रुद्रदत्त जब मेरा आधा गला काट चुका होगा कि उसी समय मेरे भाग्य से आपकी नींद खुल गई आपने आकर मुझे नमस्कार मंत्र सुनाया और साथ ही संन्यास दे दिया। मैं शान्त भावों से मरकर मंत्र के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । इसलिए मेरे गुरु तो आप ही हैं - आप ही ने मुझे सन्मार्ग बतलाया है। इसके बाद सौधर्म - देव धर्म - प्रेम से बहुत सुन्दर-सुन्दर और मूल्यवान् दिव्य वस्त्राभरण चारुदत्त को भेंटकर और उसे नमस्कार कर स्वर्ग चला गया। सच है, जो परोपकारी हैं उनका सब ही बड़ी भक्ति के साथ आदर सत्कार करते हैं ॥८०-८६॥
    इधर ये विद्याधर सिंहयश और वारहग्रीव मुनिराज को नमस्कार कर चारुदत्त से बोले चलिए हम आपको आपकी जन्मभूमि चम्पापुरी में पहुँचा आवें। इससे चारुदत्त को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह जाने को सहमत हो गया । चारुदत्त ने इसके लिए उनसे बड़ी कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने चारुदत्त को उसके सब माल-असबाब सहित बहुत जल्दी विमान द्वारा चम्पापुरी में ला रखा। इसके बाद वे उसे नमस्कार कर और आज्ञा लेकर अपने स्थान लौट गए। सच हैं, पुण्य से संसार में क्या नहीं होता! और पुण्य प्राप्ति के लिए जिनभगवान् के द्वारा उपदेश किए दान, पूजा, व्रत शीलरूप चार प्रकार पवित्र धर्म का सदा पालन करते रहना चाहिए ॥८७-९०॥
    अचानक अपने प्रिय पुत्र के आ जाने से चारुदत्त के माता-पिता को बड़ी खुशी हुई उन्होंने बारबार उसे छाती से लगाकर वर्षो से वियोगाग्नि से जलते हुए अपने हृदय को ठंडा किया। चारुदत्त की प्रिया मित्रवती के नेत्रों से दिन-रात बहती हुई वियोग-दुःखाश्रुओं की धारा और आज प्रिय को देखकर बहने वाली आनन्दाश्रुओं की धारा अपूर्व समागम हुआ। उसे जो सुख आज मिला, उसकी समानता में स्वर्ग का दिव्य सुख तुच्छ है । बात ही बात में चारुदत्त के आने के समाचार सारी पुरी में पहुँच गया और उससे सभी को आनन्द हुआ ॥९१॥
    चारुदत्त एक समय बड़ा धनी था । अपने कुकर्मों से वह पथ-पथ का भिखारी बना। पर जब से उसे अपनी दशा का ज्ञान हुआ तब से उसने केवल कर्तव्य को ही अपना लक्ष्य बनाया और फिर कर्मशील बनकर उसने कठिन से कठिन काम किया। उसमें कई बार उसे असफलता भी प्राप्त हुई,पर वह निराश नहीं हुआ और काम करता ही चला गया। अपने उद्योग से उसके भाग्य का सितारा फिर चमक उठा और वह आज पूर्ण तेज प्रकाश कर रहा है। इसके बाद चारुदत्त ने बहुत वर्षों तक खूब सुख भोगा और जिनधर्म की भी भक्ति के साथ उपासना की । अन्त में उदासीन होकर वह अपनी जगह पर अपने सुन्दर नाम के पुत्र को नियुक्त कर आप दीक्षा ले ली। मुनि होकर उसने खूब तप किया और आयु के अन्त में संन्यास सहित मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग लाभ किया। स्वर्ग में वह सुख के साथ रहता है, अनेक प्रकार के उत्तम से उत्तम भोगों को भोगता है, सुमेरु और कैलाश पर्वत आदि स्थानों के जिनमन्दिरों की यात्रा करता है, विदेहक्षेत्र में जाकर साक्षात् तीर्थंकर केवली भगवान् की स्तुति-पूजा करता है और उनका सुख देने वाला पवित्र धर्मोपदेश सुनता है। मतलब यह कि उसका प्रायः समय धर्म साधन में बीतता है और इसी जिनभगवान् के उपदेश किए निर्मल धर्म की इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी सदा भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं, यही धर्म स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला है। इसलिए यदि तुम्हें श्रेष्ठ सुख की चाह है तो तुम भी इसी धर्म का आश्रय लो॥९२-९८॥
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    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मैं देव, गुरु और जिनवाणी को नमस्कार कर यम मुनि की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने बहुत ही थोड़ा ज्ञान होने पर भी अपने को मुक्ति का पात्र बना लिया और अन्त में वे मोक्ष गए। यह कथा सब सुख की देने वाली है ॥१॥
    उड्रदेश के अन्तर्गत धर्म नाम का प्रसिद्ध और सुन्दर शहर है। उसके राजा थे यम। वे बुद्धिमान् और शास्त्रज्ञ थे। उनकी रानी का नाम धनवती था । धनवती के एक पुत्र और एक पुत्री थी । उनके नाम थे गर्दभ और कोणिका । कोणिका बहुत सुन्दरी थी । धनवती के अतिरिक्त राजा की और भी कई रानियाँ थीं। उनके पुत्रों की संख्या पाँच सौ थी । ये पाँच सौ ही भाई धर्मात्मा थे और संसार से उदासीन रहा करते थे। राजमंत्री का नाम दीर्घ था वह बहुत बुद्धिमान् और राजनीति का अच्छा जानकार था। राजा इन सब साधनों से बहुत सुखी थे और राज्य भी बड़ी शान्ति से करते थे ॥२-५॥
    एक दिन एक राज ज्योतिषी ने कोणिका के लक्षण वगैरह देखकर राजा से कहा- महाराज, राजकुमारी बड़ी भाग्यवती है। जो इसका पति होगा वह सारी पृथ्वी का स्वामी होगा । यह सुनकर राजा बहुत खुश हुए और उस दिन से वे उसकी बड़ी सावधानी से रक्षा करने लगे, उन्होंने उसके लिए एक बहुत सुन्दर और भव्य तलग्रह बनवा दिया। वह इसलिए कि उसे और छोटा-मोटा बलवान् राजा न देख पाए ॥६-७॥
    एक दिन उसकी राजधानी में पाँच सौ मुनियों का संघ आया। संघ के आचार्य थे महामुनि सुधर्माचार्य। संसार का हित करना उनका एक मात्र व्रत था। बड़े आनन्द उत्साह के साथ शहर के सब लोग अनेक प्रकार के पूजन द्रव्य हाथों में लिए हुए आचार्य की पूजा के लिए गए। उन्हें जाते हुए देख राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में आकर मुनियों की निन्दा करते हुए उनके पास गए। मुनि निन्दा और ज्ञान का अभिमान करने से उसी समय उसके कोई ऐसा कर्म का तीव्र उदय आया कि उसकी सब बुद्धि नष्ट हो गई वे महामूर्ख बन गए। इसलिए जो उत्तम पुरुष हैं और ज्ञानी बनना चाहते हैं, उन्हें उचित है कि वे कभी ज्ञान का गर्व न करें और ज्ञानहीन का क्यों ? किन्तु कुल, जाति, बल, ऋद्धि, ऐश्वर्य, शरीर, तप, पूजा, प्रतिष्ठा आदि किसी का भी गर्व - अभिमान न करें। इनका अभिमान करना बड़ा ही दुःखदायी है ॥८-१२॥
    अपनी यह हालत देखकर राजा का होश ठिकाने आया। वे एक साथ ही दाँत रहित हाथी की तरह गर्व रहित हो गए। उन्होंने अपने कृत कर्मों का बहुत पश्चाताप किया और मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, जो कि जीव मात्र को सुख का देने वाला है। धर्मोपदेश से उन्हें बहुत शान्ति मिली । उसका असर भी उन पर बहुत पड़ा । वे संसार से विरक्त हो गए। वे उसी समय अपने गर्दभ नाम के पुत्र को राज्य सौंपकर अपने अन्य पाँच सौ पुत्रों के साथ, जो कि बालपन ही से वैरागी रहा करते थे, मुनि हो गए। मुनि होने के बाद उन सबने खूब शास्त्रों का अभ्यास किया। आश्चर्य है कि वे पाँच सौ ही भाई खूब विद्वान् हो गए, पर राजा को (यम मुनि को) पंचनमस्कार मंत्र का उच्चारण करना तब भी नहीं आया। अपनी यह दशा देखकर यम मुनि बड़े शर्मिन्दा और दुःखी हुए उन्होंने वहाँ रहना उचित न समझ अपने गुरु से तीर्थयात्रा करने की आज्ञा ली और अकेले ही वहाँ से निकल पड़े। यम मुनि अकेले ही यात्रा करते हुए एक दिन स्वच्छन्द होकर रास्ते में जा रहे थे। जाते हुए उन्होंने एक रथ देखा। रथ में गधे जुते हुए थे और उस पर आदमी बैठा हुआ था। गधे उसे एक हरे धान के खेत की ओर लिए जा रहे थे। रास्ते में मुनि को जाते हुए देखकर रथ पर बैठे हुए मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया और लगा वह उन्हें कष्ट पहुँचाने। मुनि ने कुछ ज्ञान का क्षयोपशम हो जाने से एक खण्ड गाथा बनाकर पढ़ी | वह गाथा यह थी - ॥१३-२०॥
    “रे गधों, कष्ट उठाओगे, तो तुम जब भी खा सकोगे।”
    इसी तरह एक दिन कुछ बालक खेल रहे थे। वहीं कोणिका भी न जाने किसी तरह पहुँच गई उसे देखकर सब बालक डरे । उस समय कोणिका को देखकर यम मुनि ने एक और खण्ड गाथा बनाकर आत्मा के प्रति कहा। वह गाथा यह थी - ॥२१-२२॥
    "दूसरी ओर क्या देखते हो? तुम्हारी पत्थर सरीखी कठोर बुद्धि को छेदने वाली कोणिका तो है।' एक दिन यम मुनि ने एक मेंढक को एक कमल पत्र की आड़ में छुपे हुए सर्प की ओर आते हुए देखा। देखकर वे मेंढक से बोले - ॥२३॥
    "मुझे - मेरे आत्मा को तो किसी से भय नहीं है । भय है तो तुम्हें । "
    बस,यम मुनि ने जो ज्ञान सम्पादन कर पाया, वह इतना था । वे इन्हीं तीन खण्ड गाथाओं का स्वाध्याय करते, पाठ करते और कुछ उन्हें आता नहीं था । इसी तरह पवित्रात्मा और धर्मानुयायी यम मुनि ने अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए धर्मपुर की ओर आ निकले। वे शहर के बाहर एक बगीचे में कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे । उनके पीछे लौट आने का हाल उनके पुत्र गर्दभ और राजमंत्री दीर्घ को ज्ञात हुआ। उन्होंने समझा कि ये हमसे राज्य लेने को आए हैं। सो वे दोनों मुनि के मारने का विचार कर आधी रात के समय वन में गए और तलवार खींचकर उनके पीछे खड़े हो गए। आचार्य कहते हैं कि - ॥२४-२७॥
    ऐसे राज्य को, ऐसी मूर्खता और ऐसे डरपोकपने को धिक्कार है, जिससे एक निस्पृह और संसार त्यागी मुनि के द्वारा राज्य के छिन जाने का उन्हें भय हुआ । गर्दभ और दीर्घ, मुनि की हत्या करने को तो आए पर उनकी हिम्मत उन्हें मारने की नहीं पड़ी । वे बार-बार अपनी तलवारों को म्यान में रखने लगे और बाहर निकालने लगे। उसी समय यम मुनि ने अपनी स्वाध्याय की पहली गाथा पड़ी, जो कि ऊपर लिखी जा चुकी है। उसे सुनकर गर्दभ ने अपने मंत्री से कहा-जान पड़ता है मुनि ने हम दोनों को देख लिया । पर साथ ही जब मुनि ने दूसरी गाथा पड़ी तब उसने कहा-नहीं जी, मुनिराज राज्य लेने को नहीं आए हैं। मैंने जो वैसा समझा वह मेरा भ्रम था । मेरी बहिन कोणिका को प्रेम के वश कुछ कहने को ये आए हुए जान पड़ते हैं। इसके बाद जब मुनिराज ने तीसरी आधी गाथा भी पढ़ी तब उसे सुनकर गर्दभ ने अपने मन में उसका यह अर्थ समझा कि “ मंत्री दीर्घ बड़ा कूट है और मुझे मारना चाहता है” यही बात पिताजी, प्रेम के वश हो तुझे कहकर सावधान करने को आए हैं परन्तु थोड़ी देर बाद ही उसका यह सन्देह भी दूर हो गया। उन्होंने अपने हृदय की सब दुष्टता छोड़कर बड़ी भक्ति के साथ पवित्र चारित्र के धारक मुनिराज को प्रणाम किया और उनसे धर्म का उपदेश सुना, जो कि स्वर्ग-मोक्ष का देने वाला है । उपदेश सुनकर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद वे श्रावकधर्म ग्रहण कर अपने स्थान लौट गए ॥२८-३७॥
    इधर यमधर मुनि भी अपने चारित्र को दिन दूना निर्मल करने लगे, परिणामों को वैराग्य की ओर खूब लगाने लगे। उसके प्रभाव से थोड़े ही दिनों में उन्हें सातों ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई ॥३८॥
    अहा! नाममात्र ज्ञान द्वारा भी यम मुनिराज बड़े ज्ञानी हुए, उन्होंने अपनी उन्नति को अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचा दिया। इसलिए भव्य पुरुषों को संसार का हित करने वाले जिन भगवान् के द्वारा उपदिष्ट सम्यग्ज्ञान की सदा आराधना करना चाहिए। देखो, यम मुनिराज को बहुत थोड़ा ज्ञान था, पर उसकी उन्होंने बड़ी भक्ति और श्रद्धा के साथ आराधना की । उसके प्रभाव से वे संसार में प्रसिद्ध हुए मुनियों में प्रधान और मान्य हुए और सातों ऋद्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई इसलिए सज्जन धर्मात्मा पुरुषों को उचित है कि वे त्रिलोकपूज्य जिनभगवान् द्वारा उपदिष्ट, सब सुखों का देने वाला और मोक्ष- प्राप्ति का कारण अत्यन्त पवित्र सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का यत्न करें ॥३९-४०॥
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    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    देवों द्वारा पूजा किए गए जिनभगवान् के चरणों को भक्ति सहित नमस्कार कर सुरत नाम के राजा का हाल लिखा जाता है ॥१॥
    सुरत अयोध्या के राजा थे। इनके पाँच सौ स्त्रियाँ थीं। उनमें पट्टरानी का पद महादेवी सती को प्राप्त था। राजा का सती पर बहुत प्रेम था। वे रात दिन भोगों में ही आसक्त रहा करते थे, उन्हें राज- काज की कुछ चिन्ता न थी । अन्तःपुर के पहरे पर रहने वाले सिपाही से उन्होंने कह रखा था कि जब कोई खास मेरा कार्य हो या कभी कोई साधु-महात्मा यहाँ आवें तो मुझे उनकी सूचना देना। वैसे कभी कुछ कहने को न आना ॥२॥
    एक दिन पुण्योदय से एक महीने के उपवासे दमदत्त और धर्मरुचि मुनि आहार के लिए राजमहल में आए। उन्हें देखकर द्वारपाल राजा के पास गया और नमस्कार कर उसने मुनियों के आने का हाल उनसे कहा। राजा इस समय अपनी प्राणप्रिया सती के मुख-कमल पर तिलक रचना कर रहे थे। वे सती से बोले - प्रिये, जब तक कि तुम्हारा तिलक न सूखे, मैं अभी मुनिराजों को आहार देकर बहुत जल्दी आया जाता हूँ। यह कहकर राजा चले आए। उन्होंने मुनिराजों को भक्तिपूर्वक ऊँचे आसन पर बैठाकर नवधा भक्ति - सहित पवित्र आहार कराया, जो कि उत्तम सुखों का देने वाला है। सच है, दान, पूजा, व्रत, उपवासादि से ही श्रावकों की शोभा है और जो इनसे रहित हैं वे फलरहित वृक्ष की तरह निरर्थक समझे जाते हैं । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे पात्रदान, जिनपूजा, व्रत, उपवासादिक सदा अपनी शक्ति के अनुसार करते रहें ॥३-१३॥
    इधर तो राजा ने मुनियों को दान देकर पुण्य उत्पन्न किया और उधर उनकी प्राणप्रिया अपने विषय सुख के अन्तराय करने वाले मुनियों का आना सुनकर बड़ी दुःखी हुई उसने अपना भला-बुरा कुछ न सोचकर मुनियों की निन्दा करना शुरू किया और खूब ही मनमानी उन्हें गालियाँ दी। सन्तों का यह कहना व्यर्थ नहीं है कि - " इस हाथ दे, उस हाथ ले" । सती के लिए यह नीति चरितार्थ हुई अपने बाँधे तीव्र पापकर्मों का फल उसे उसी समय मिल गया। रानी के कोढ़ निकल आया। सारा शरीर काला पड़ गया। उससे दुर्गन्ध निकलने लगी । आचार्य कहते हैं- हलाहल विष खा लेना अच्छा है, जो एक ही जन्म में कष्ट देता है, पर जन्म-जन्म में दुःख देने वाली मुनि-निन्दा करना कभी अच्छा नहीं क्योंकि सन्त-महात्मा तो व्रत, उपवास, शील आदि से भूषित होते हैं और सच्चे आत्महित का मार्ग बताने वाले हैं, वे निन्दा करने योग्य कैसे हों ? और ये ही गुरु अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं इसलिए दीपक हैं, सबका हित करते हैं इसलिए बन्धु हैं और संसाररूपी समुद्र से पार कराते हैं इसलिए कर्मशील खेवटिया हैं। अतः हर प्रयत्न द्वारा इनकी आराधना, सेवा-सुश्रुषा करते रहना चाहिए ॥१४-१७॥
    जब राजा मुनिराजों को आहार देकर निवृत्त हुए तब अपनी प्रिया के पास आ गए। आते ही जैसे उन्होंने रानी का काला और दुर्गन्धमय शरीर देखा वे बड़े अचंभे में पड़ गए। पूछने पर उन्हें उसका कारण मालूम हुआ। सुनकर वे बहुत खिन्न हुए । संसार, शरीर, भोग उन्हें अब अप्रिय जान पड़ने लगे। उन्हें अपनी रानी का मुनि-निन्दारूप घृणित कर्म देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय सब राज-पाट छोड़कर योगी बन गए और अपना तथा संसार का हित करने में उद्यमी बने ॥१८-१९॥
    समय पाकर सती की मृत्यु हुई। अपने पाप के फल से वह संसाररूपी वन में घूमने लगी। सो ठीक ही है, अपने किए पुण्य या पाप का फल जीवों को भोगना ही पड़ता है । इस प्रकार संसार की विचित्र स्थिति जानकर आत्महित के चाहने वाले सत्पुरुषों को भगवान् के उपदेश किए पवित्र धर्म पर सदा विश्वास रखना चाहिए, जो कि स्वर्ग और मोक्ष के सुख का प्रधान कारण है ॥२०-२१॥
  16. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के बन्धु, पवित्रता की मूर्ति और मुक्ति का स्वतंत्रता का सुख देने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर वीरवती का उपाख्यान लिखा जाता है, जो सत्पुरुषों के लिए वैराग्य को बढ़ाने वाला है॥१॥
    राजगृह नगर में धनमित्र नामक सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी और पुत्र का दत्त था। भूमिगृह नामक एक और सुन्दर नगर था । उसमें आनन्द नाम का एक साधारण गृहस्थ रहता था। इसकी स्त्री मित्रवती थी । उसके एक वीरवती नाम की कन्या हुई। वीरवती का व्याह दत्त के साथ हुआ। सो ठीक ही है, जो सम्बन्ध दैव को मंजूर होता है उसे कौन रोक सकता है ॥२-४॥
    यहीं एक चोर रहता था। इसका नाम था गारक। किसी समय वीरवती ने इसे देखा। वह इसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गई। एक बार दत्त रत्नद्वीप से धन कमाकर घर की ओर रवाना हुआ। रास्ते में इसकी ससुराल पड़ी। इसे अपने प्रियतमा से मिले बहुत दिन हो गए थे और यह उससे बहुत प्रेम भी करता था, इसलिए इसने ससुराल होकर घर जाना उचित समझा। यह रास्ते में एक जंगल में ठहरा। यहीं एक सहस्रभट नाम के चोर ने इसे देखा । यहाँ से चलते समय दत्त के पीछे यह चोर भी विनोद से हो लिया और साथ-साथ भूमिगृह में आ पहुँचा ॥५-८ ॥
    ससुराल में दत्त का बहुत कुछ आदर-सत्कार हुआ। वीरवती भी बड़े प्रेम के साथ इससे मिली। पर उसका चित्त स्वभाव-प्रसन्न न होकर कुछ बनावट को लिए था। उसका मन किसी गहरी चोट से जर्जरित है, इस बात को चतुर पुरुष उसके चेहरे के रंग-ढंग से बहुत जल्दी ताड़ सकता था। पर सरल-स्वभावी दत्त इसका रत्तीभर भी पता नहीं पा सका । कारण, अपनी स्त्री के सम्बन्ध में उसे स्वप्न में भी किसी तरह का सन्देह न था। बात यह थी कि जिस चोर से वीरवती की आशनाई थी, वह आज किसी बड़े भारी अपराध के कारण सूली पर चढ़ाया जाने वाला था। वीरवती को उसी का बड़ा रंज था और इसी से उसका चित्त चल-विचल हो रहा था। रात के समय जब सब घर के लोग सो गए तब वीरवती अकेली उठी और हाथ में एक तलवार लिए वहीं पहुँची जहाँ अपराधी सूली पर चढ़ाये जाते थे। इसे घर से निकलते समय सहस्रभट चोर ने देख लिया । वह यह देखने के लिए कि इतनी रात में यह अकेली कहाँ जाती है, उसके पीछे-पीछे हो गया। वीरवती को उसके पाँवों की आवाज से जान पड़ा कि उसके पीछे-पीछे कोई आ रहा है, पर रात अन्धेरी होने से वह उसे देख नसकी। तब उस दुष्टा ने अपनी हाथ की तलवार का एक वार पीछे की ओर किया । उससे बेचारे सहस्रभट की अँगुलियाँ कट गई। तलवार को झटका लगने से उसे और दृढ़ विश्वास हो गया कि कोई पीछे अवश्य आ रहा है। वह देखने के लिए खड़ी हो गई, पर उसे कुछ सफलता प्राप्त न हुई। सहस्रभट कुछ और पीछे हट गया। वह फिर आगे बढ़ी। पास ही सूली का स्थान उसे दिख पड़ा। वह पीछे आने वाले की बात भूलकर दौड़ी हुई अपने यार के पास पहुँची। उसे सूली पर चढ़ाये बहुत समय नहीं हुआ था, इसलिए उसकी अभी कुछ साँसें बाकी थी। वीरवती को देखते ही उसने कहा- प्रिये, यही मेरी और तुम्हारी अन्तिम भेंट है । मैं तुम्हारी ही आशा लगाये अब तक जी रहा हूँ, नहीं तो कभी का मरमिटा होता । अब देर न कर मुझ दुःखी को अन्तिम प्रेमालिंगन दे, सुखी करो और आओ, अपने मुख का पान मेरे मुख में देओ; जिससे मेरा जीवन जिसके लिए अब तक टिका है उस तुमसी सुन्दरी का आलिंगन कर शान्ति से परमधाम सिधारे । हाय ! इस काम को धिक्कार है, जो मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ भी इसे चाहता है ॥९-१५॥
    वीरवती ने अपने यार को सूली पर से उतारने का कोई उपाय तत्काल न देखकर पास में पड़े हुए कुछ मुर्दों को इकट्ठा किया और उन्हें ऊपर तले रखकर वह उन पर चढ़ी और अपना मुँह उसके मुँह के पास ले जाकर बोली- प्रियतम, लो अपनी इच्छा पूरी करो । गारक ने वीरवती के मुँह का पान लेने के लिए उसके ओठों को अपने मुँह में लिया था कि कोई ऐसा धक्का लगा जिससे वीरवती के पाँव के नीचे का मुर्दों का ढेर खिसक जाने से वीरवती नीचे आ गिरी और उसका ओठ कट गया अपना ओठ देख कर घबरा गई और उस दुष्टा ने चालाकी से घर आकर शोर मचाने लगी कि दत्त ने मेरा ओठ काट लिया और साथ ही बड़े जोर से वह रोने लगी। उसी समय अड़ोस-पड़ोस और घर के लोगों ने आकर दत्त को बाँध लिया। सच है, पापिनी, कुलटा और अपने वंश का नाश करने वाली स्त्रियाँ क्या नीच कर्म नहीं कर सकतीं? ॥१६-२०॥
    सबेरा हुआ। दत्त राजा के सामने उपस्थित किया गया। उसका क्या अपराध है और वह सच है या झूठ, इसकी कुछ विशेष तलाश न की जाकर एकदम उसके मारने का हुक्म दिया गया । पर यह सबको ध्यान में रखना चाहिए कि जब पुण्य का उदय होता है तब मृत्यु के समय भी रक्षा हो जाती है। पाठकों विनोदी सहस्रभट की याद होगी । यह वीरवती के अन्तिम कुकर्म तक उसके आगे पीछे उपस्थित रहा है। उसने सच्ची घटना अपनी आँखों से देखी है । वह इस समय यहीं उपस्थित था। राजा का दत्त के लिए मारने का हुक्म सुनकर उससे न रहा गया। उसने अपनी कुछ परवाह न कर सब सच्ची घटना राजा से कह सुनाई । राजा सुनकर दंग रह गया। उसने उसी समय अपने पहले हुक्म को रवकर निरपराध दत्त को रिहाई दी और वीरवती को उसके अपराध की उपयुक्त सजा दी। सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं। दुष्ट स्त्रियों का ऐसा घृणित और कलंकित चरित देखकर सबको उचित है कि वे दुःख देने वाले विषयों से अपनी सदा रक्षा करें ॥२१-२३॥
    वे महात्मा धन्य है जो भगवान् के उपदेश किए हुए पवित्र शीलव्रत से विभूषित है, कामरूपी क्रूर हाथी को मारने के लिए सिंह है, विषयों को जिन्होंने जीत लिया है, ज्ञान, ध्यान, आत्मानुभव में जो सदा मग्न हैं, विषयभोगों से निरन्तर उदास हैं, भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने में जो सूर्य हैं और संसार समुद्र से पार करने में जो बड़े कर्मवीर खेवटिया हैं वे सबका कल्याण करें ॥२४॥
  17. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार द्वारा वन्दना-स्तुति किए गए और सब सुखों को देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर गोपवती की कथा लिखी जाती है, जिसे सुनकर हृदय में वैराग्य भावना जगती है ॥१॥
    पलासगाँव में सिंहबल नाम का एक साधारण गृहस्थ रहता था । उसकी स्त्री का नाम गोपवती था। गोपवती बड़े दुष्ट स्वभाव की स्त्री थी । उसकी दिन-रात की खटपट से बेचारा सिंहबल तबाह हो गया। उसे पलभर के लिए भी गोपवती के द्वारा कभी सुख नहीं मिला ॥२॥
    गोपवती से तंग आकर एक दिन सिंहबल पास ही के एक पद्मिनीखेट नाम के गाँव में गया। वहाँ उसने अपनी पहली स्त्री को बिना कुछ पूछे - ताछे गुप्त रीति से सिंहसेन चौधरी की सुभद्रा नाम की लड़की से, जो कि बहुत ही खूबसूरत थी, ब्याह कर लिया । किसी तरह यह बात गोपवती को मालूम हो गई, सुनते ही क्रोध के मारे वह आग-बबूला हो गई उससे सिंहबल का यह अपराध नहीं सहा गया। वह उसे उसके अपराध की योग्य सजा देने की फिराक में लग गई ॥३-५॥
    एक दिन शाम के कोई सात बजे होंगे कि गोपवती अपने घर से निकलकर पद्मिनीखेट गई। उस समय कोई ग्यारह बज गए होंगे। गोपवती सीधी सिंहसेन के घर पहुँची। घर के लोगों ने समझा कि कोई आवश्यक काम के लिए यहाँ आई होगी, सबेरा होने पर विशेष पूछ-ताछ करेंगे। यह विचार कर वे सब सो गए। गोपवती भी तब लोगों को दिखाने के लिए सो गई पर जब सबको नींद आ गई, तब आप चुपके से उठी और जहाँ अपनी माँ के पास बेचारी सुभद्रा सोई थी, वहाँ पहुँचकर उस  पापिनी ने सुभद्रा का मस्तक काट लिया और उसे लेकर रात ही में अपने घर पर आ गई। सबेरा होते ही यह हाल सिंहबल को मालूम हुआ। सुभद्रा के मुर्दे को देखकर उसे बेहद दुःख हुआ। वह खिन्न मन होकर अपने घर आ गया । उसे आया देखकर गोपवती अब उसका बड़ा आदर-सत्कार करने लगी। बड़ा स्नेह प्रकट कर उसे भोजन कराने लगी। पर सिंहबल के हृदय पर तो सुभद्रा के मरण की बड़ी गहरी चोट लगी थी, इसलिए उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और वह सदा उदास रहा करता था और सच भी है, एक महा दुःखी को भोजन वगैरह में क्या प्रीति होती होगी? सिंहबल की सुभद्रा के लिए वह दशा देख गोपवती का क्रोध और भी बढ़ गया। एक दिन बेचारा सिंहबल उदास मन से भोजन कर रहा था। यह देख गोपवती ने क्रोध से सुभद्रा का मस्तक लाकर उसकी थाली में डाल दिया और बोली- हाँ, बिना इसके देखे तुझे भोजन अच्छा नहीं लगता था; अब तो अच्छा लगेगा न? सुभद्रा के सिर को देखकर सिंहबल काँप गया। वह “हाय ! यह तो महाराक्षसी है" इस प्रकार जोर से चिल्लाकर डर के मारे भागने लगा। इतने में राक्षसी गोपवती ने पास ही पड़े हुए भाले को उठाकर सिंहबल की पीठ में जोर से मारा कि वह उसी समय तड़फड़ा कर वहीं पर ढेर हो गया । गोपवती के ऐसे घृणित चरित को देखकर बुद्धिमानों को उचित है कि वे दुष्ट स्त्रियों पर कभी विश्वास न लावें ॥६-१३॥
    वे कर्मों के जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् संसार में सर्वश्रेष्ठ कहलावें जो कामरूपी हाथी के मारने को सिंह हैं, संसार का भय मिटाने वाले हैं, शान्ति, स्वर्ग और मोक्ष के देने वाले हैं और मोक्षरूपी रमणी-रत्न के स्वामी हैं । वे मुझे भी शान्ति प्रदान करें ॥ १४ ॥
  18. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञान जिनका नेत्र है, उन जग पवित्र जिनभगवान् को नमस्कार कर देवरति नामक राजा का उपाख्यान लिखा जाता है, जो अयोध्या के स्वामी थे ॥१॥
    अयोध्या नगरी के राजा देवरति थे । उनकी रानी का नाम रक्ता था । वह बहुत सुन्दरी थी राजा सदा उसी के नाद में लगे रहते थे। वे बड़े विषयी थे। शत्रु बाहर से आकर राज्य पर आक्रमण करते, उसकी भी उन्हें कुछ परवाह नहीं थी । राज्य की क्या दशा है, इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की । जो धर्म और अर्थ पुरुषार्थ को छोड़कर अनीति से केवल काम का सेवन करते हैं, सदा विषयवासना के ही दास बने रहते हैं, वे नियम में कष्टों को उठाते हैं । देवरति की भी यही दशा हुई। राज्य की ओर से उनकी यह उदासीनता मंत्रियों को बहुत बुरी लगी। उन्होंने राजकाम के सम्हालने की राजा से प्रार्थना की, पर उसका फल कुछ नहीं हुआ । यह देख मंत्रियों ने विचार कर देवरति के पुत्र जयसेन को तो अपना राजा नियुक्त किया और देवरति को उनकी रानी के साथ देश बाहर कर दिया। ऐसे काम को धिक्कार है, जिससे मान-मर्यादा धूल में मिल जाए और अपने को कष्ट सहना पड़े ॥२-५॥
    देवरति अयोध्या से निकल कर एक भयानक वन में आए। रानी को भूख ने सताया, पास खाने को एक अन्न का कण तक नहीं । अब वे क्या करें? इधर जैसे-जैसे समय बीतने लगा, रानी भूख से बेचैन होने लगी। रानी की दशा देवरति से नहीं देखी गई और देख भी वे कैसे सकते थे। उसी के लिए तो अपना राजपाट तक उन्होंने छोड़ दिया था । आखिर उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने उसी समय अपनी जाँघ काटकर उसका मांस पकाया और रानी को खिलाकर उसकी भूख शान्त की और प्यास मिटाने के लिए उन्होंने अपनी भुजाओं का खून निकाला और उसे एक औषधि बता कर पिलाया। इसके बाद वे धीरे-धीरे यमुना के किनारे पर आ पहुँचे । देवरति ने रानी को तो एक झाड़ के नीचे बैठाया और आप भोजन सामग्री लेने को पास के एक गाँव में गए ॥६-९॥
    यहाँ एक छोटा-सा पर बहुत ही सुन्दर बगीचा था। उसमें एक कोई अपंग मनुष्य चड़स खींचता हुआ और गा रहा था । उसकी आवाज बड़ी मधुर थीं । इसलिए उसका गाना बहुत मनोहारी और सुनने वालों को प्रिय लगता था । उसके गाने की मधुर आवाज रक्ता रानी के भी कानों से टकराई न जाने उसमें ऐसी कौन-सी मोहक - शक्ति थी, जो रानी को उसने उसी समय मोह लिया और ऐसा मोहा कि उसे अपने निजत्व से भी भुला दिया । रानी सब लाज शरम छोड़कर उस अपंग के पास गई और उससे अपनी पाप - वासना उसने प्रकट की। वह अपंग कोई ऐसा सुन्दर न था, पर रानी तो उस पर जी जान से न्यौछावर हो गई। सच है - “ काम ने देखे जात कुजात ।” राजरानी की पाप- वासना सुनकर वह घबराकर रानी से बोला- मैं एक भिखारी और आप राजरानी तब मेरी आपकी जोड़ी कहाँ? और मुझे आपके साथ देखकर क्या राजा साहब जीता छोड़ देंगे? मुझे आपके शूरवीर और तेजस्वी प्रियतम की सूरत देखकर कँपी छूटती है। आप मुझे क्षमा कीजिए। उत्तर में रानी महाशया ने कहा-इसकी तुम चिन्ता न करो। मैं उन्हें तो अभी ही परलोक पहुँचाये देती हूँ। सच है, दुराचारिणी स्त्रियाँ क्या-क्या अनर्थ नहीं कर डालती । ये तो इधर बातें कर रहे थे कि राजा भी इतने में भोजन लेकर आ गए। उन्हें दूर से देखते ही कुलटा रानी ने मायाचारी से रोना आरम्भ किया। राजा उसकी यह दशा देखकर आश्चर्य में आ गए। हाथ के भोजन को एक ओर पटककर वे रानी के पास दौड़े आकर बोले-प्रिये, प्रिये, कहो ! जल्दी कहो !! क्या हुआ ? क्या किसी ने तुम्हें कुछ कष्ट पहुँचाया? तुम क्यों रो रही हो? तुम्हारा आज अकस्मात् रोना देखकर मेरा सब धैर्य छूटा जाता है। बतलाओ, अपने रोने का कारण, जल्दी बतलाओ ? रानी एक लम्बी आह भरकर बोली- प्राणनाथ, आपके रहते मुझे कौन कष्ट पहुँचा सकता है? परन्तु मुझे किसी के कष्ट पहुँचाने से भी जितना दुःख नहीं होता उससे कहीं बढ़कर आज अपनी इस दशा का दुःख है। नाथ, आप जानते हैं आज आपकी जन्मगाँठ का दिन है। पर अत्यन्त दुःख है कि पापी दैव ने आज मुझे इस भिखारिणी की दशा में पहुँचा दिया। मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं । बतलाइए, मैं आज ऐसे उत्सव के दिन आपकी जन्मगाँठ का क्या उत्सव मनाऊँ? सच है नाथ, बिना पुण्य के जीवों को अथाह शोक - सागर में डूब जाना पड़ता है। रानी की प्रेम-भरी बातें सुनकर राजा का गला भर आया, आँखों से आँसू टपक पड़े। उन्होंने बड़े प्रेम से रानी के मुँह को चूमकर कहा-प्रिये, इसके लिए कोई चिन्ता की बात नहीं। कभी वह दिन भी आयेगा जिस दिन तुम अपनी कामनाओं को पूरी कर सकोगी और न भी आए तो क्या? जबकि तुम जैसी भाग्यशालिनी जिसकी प्रिया है उसे इस बात की कुछ परवाह भी नहीं है। जिसने अपनी प्रिया की सेवा के लिए अपना राजपाट तक तुच्छ समझा उसे ऐसी छोटी बातों का दुःख नहीं होता। उसे यदि दुःख होता है तो अपनी प्यारी को दुःखी देखकर प्रिये, इस शोक को छोड़ो । मेरे लिए तो तुम ही सब कुछ हो । हाय ! ऐसे निष्कपट प्रेम का बदला जान लेकर दिया जायेगा, इस बात की खबर या सम्भावना बेचारे रतिदेव को स्वप्न में भी नहीं थी । देव की विचित्र गति है ॥१०-१७॥
    राजा के इस हार्दिक और सच्चे प्रेम का पापिनी रानी के पत्थर के हृदय पर जरा भी असर न हुआ। वह ऊपर से प्रेम बताकर बोली- अस्तु, नाथ! बात जो भी हो उसके लिए पछताना तो व्यर्थ ही है। पर तब भी मैं अपने चित्त को सन्तोषित करने को इस पवित्र फूल की माला द्वारा नाम मात्र के लिए कुछ करती हूँ। यह कहकर रानी ने अपने हाथ में जो फूल गूंथने की रस्सी थी, उससे राजा को बाँध दिया। बेचारा वह तब भी यही समझा कि रानी कोई जन्मगाँठ की विधि करती होगी और यही समझ उसने खूब मजबूत बाँधे जाने पर भी चूँ तक नहीं किया। जब राजा बाँध दिया गया और उसके प्राण निकलने का कोई भय नहीं रहा तब रानी ने इशारे से उस अपंग को बुलाया और उसकी सहायता से पास ही बहने वाली यमुना नदी के किनारे पर ले जाकर बड़े ऊँचे से राजा को नदी में ढकेल दिया और आप अब अपने दूसरे प्रियतम के पास रहकर अपनी नीच मनोवृत्तियों को सन्तुष्ट करने लगी। नीचता और कुलटापन की हद हो गई ॥ १८-१९॥
    पुण्य का जब उदय होता है तब कोई कितना ही कष्ट क्यों न या कैसी ही भयंकर आपत्ति का क्यों न सामना करना पड़े। पर तब भी वह रक्षा पा जाता है। देवरति के भी कोई ऐसा पुण्ययोग था, जिससे रानी के नदी में डाल देने पर भी वह बच गया। कोई गहरी चोट उसके नहीं आई वह नदी से निकलकर आगे बढ़ा। धीरे-धीरे वह मंगलपुर नामक शहर के निकट आ पहुँचा। देवरति कई दिनों तक बराबर चलते रहने से बहुत थक गया था, उसे बीच में कोई अच्छी जगह विश्राम करने को नहीं मिली थी, इसलिए अपनी थकावट मिटाने के लिए वह एक छायादार वृक्ष के नीचे सो गया। मानों जैसे वह सुख देने वाले जैनधर्म की छत्रछाया में ही सोया हो ॥२०-२१॥
    मंगलपुर का राजा श्रीवर्धन था उसके कोई सन्तान न थी । इसी समय उसकी मृत्यु हो गई। मंत्रियों ने यह विचार कर, कि पट्टहाथी को एक जलभरा घड़ा दिया जाकर वह छोड़ा गया और वह जिसका अभिषेक करे वही अपना राजा होगा, एक हाथी को छोड़ा । दैव की विचित्र लीला है, जो राजा है, उसे वह रंक बना देता है और जो रंक है, उसे संसार का चक्रवर्ती सम्राट् बना देता है। देवरति का दैव जब उसके विपरीत हुआ तब तो उसे उसने पथ-पथ का भिखारी बनाया और अनुकूल होने पर सब राज-योग मिला दिया। देवरति भर नींद में वृक्ष के नीचे सो रहा था। हाथी उधर ही पहुँचा और देवरति का उसने अभिषेक कर दिया । देवरति बड़े आनन्द-उत्साह के साथ शहर में लाया जाकर राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। सच है, पुण्य जब पल्ले में होता है तब आपत्तियाँ भी सुख के रूप में परिणत हो जाती हैं। इसलिए सुख की चाह करने वालों को भगवान् के उपदेश किए हुए मार्ग द्वारा पुण्य-कर्म करना चाहिए। भगवान् की पूजा, पात्रों को दान, व्रत, उपवास ये सब पुण्य-कर्म हैं। इन्हें सदा करते रहना चाहिए ॥२२-२४॥
    देवरति फिर राजा हो गए। पर पहले और अब के राजापन में बहुत फर्क है। अब वे स्वयं सब राज-काज देखा करते हैं। पहले से अब उनकी परिणति में भी बहुत भेद पड़ गया हैं। जो बातें पहले उन्हें बहुत प्यारी थी और जिनके लिए उन्होंने राज्य-भ्रष्ट होना तक स्वीकार कर लिया था, अब वे बातें उन्हें अत्यन्त अप्रिय हो उठीं । अब वे स्त्री नाम से घृणा करते हैं । वे एक कुल कलंकिनी का बदला सारे संसार की स्त्रियों को कुल कलंकिनी कहकर लेते हैं । वे अब गुणवती स्त्रियों का भी मुँह देखना पसन्द नहीं करते । सच है, जो एक बार दुर्जनों द्वारा ठगा जाता है वह फिर अच्छे पुरुषों के साथ भी कैसा ही व्यवहार करने लगता है। गरम दूध का जला हुआ छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीता है। देवरति की भी अब विपरीत गति है । अब वे स्त्रियों को नहीं चाहते। वे सबको दान करते हैं, पर जो अपंग, लूला, लँगड़ा होता है उसे वे एक अन्न का कण तक देना पाप समझते हैं॥२५-२८॥
    इधर रक्ता रानी ने बहुत दिनों तक तो वहीं रहकर मजामौज मारी और बाद में वह उस अपंग को एक टोकरे में रखकर देश-विदेश घूमने लगी। उस टोकरे को सिर पर रखे हुए वह जहाँ पहुँचती अपने को महासती जाहिर करती और कहती कि माता - पिता ने जिसके हाथ मुझे सौंपा वही मेरा प्राणनाथ है, देवता है। उसकी इस ठगाई से बेचारे लोग ठगे जाकर उसे खूब रुपया पैसा देते। इसी तरह भिक्षा-वृत्ति करती- करती रक्ता रानी मंगलपुर में आ निकली । वहाँ भी लोगों को उसके सतीत्व पर बड़ी श्रद्धा हो गई । हाँ सच है, जिन स्त्रियों ने ब्रह्मा, विष्णु, महादेव सरीखे देवताओं को भी ठग लिया, तब साधारण लोग उनके जाल में फँस जायें इसका आश्चर्य क्या? ॥२९-३२॥
    एक दिन ये दोनों गाते राजमहल के सामने आए। इनके सुन्दर गाने को सुनकर ड्यौढ़ीवान् ने राजा से प्रार्थना की-महाराज, सिंहद्वार पर एक सती अपने अपंग पति को टोकरे में रखकर और उसे सिर पर उठाये खड़ी है। वे दोनों बड़ा ही सुन्दर गाना जानते हैं। महाराज का वे दर्शन करना चाहते हैं । आज्ञा हो तो मैं उन्हें भीतर आने दूँ। इसके साथ ही सभा में बैठे हुए और प्रतिष्ठित कर्मचारियों ने भी उनके देखने की इच्छा जाहिर की। राजा ने एक परदा डलवा कर उन्हें बुलवाने की आज्ञा की ॥३३-३५॥
    सती सिर पर टोकरा लिए भीतर आई, उसने कुछ गाया । उसके गानों को सुनकर सब मुग्ध हो गए और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे । राजा ने उसकी आवाज सुनकर उसे पहचान लिया। उसने परदा हटवाकर कहा-अहा, सचमुच में यह महासती है। इसका सतीत्व मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ । इसके बाद ही उन्होंने अपनी सारी कथा सभा में प्रकट कर दी। लोग सुनकर दाँतों तले अँगुली दबा गए। उसी समय महासती रक्ता को शहर बाहर करने का हुक्म हुआ । देवरति को स्त्रियों का चरित देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने अपने पहले पुत्र जयसेन को अयोध्या से बुलवाया और उसे इस राज्य का भी मालिक बनाकर आप श्रीयमधराचार्य के पास जिनदीक्षा के लिए गए, जो कि अनेक सुखों की देने वाली हैं। साधु होकर देवरति ने खूब तपश्चर्या की, बहुतों को कल्याण का मार्ग बतलाया और अन्त में समाधि से शरीर त्याग कर वे स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों के धारक देव हुए ॥३६-४०॥
    रक्तारानी सरीखी कुलटा स्त्रियों का घृणित चरित देखकर और संसार, शरीर, भोगादिकों को इन्द्र-धनुष की तरह क्षणिक समझकर जिन देवरति राजा ने जिनदीक्षा ग्रहण कर मुनिपद स्वीकार किया, वे गुणों के खजाने मुनिराज मुझे मोक्ष लक्ष्मी का स्वामी बनावें ॥४१॥
  19. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    अर्हन्त, जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर, कडारपिंग की, जो कि स्वदारसन्तोषव्रत- ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हुआ है, कथा लिखी जाती है। कांपिल्य नाम का एक प्रसिद्ध शहर था । उसके राजा का नाम नरसिंह था। नरसिंह बुद्धिमान् और धर्मात्मा थे। अपने राज्य का पालन वे नीति के साथ करते थे। इसलिए प्रजा उन्हें बहुत चाहती थी ॥१-२॥
    राजमंत्री का नाम सुमति था । इनके धनश्री स्त्री और कडारपिंग नामक एक पुत्र था। कडारपिंग का चाल-चलन अच्छा नहीं था । वह बड़ा कामी था । इसी नगर में एक कुबेरदत्त सेठ रहता था । यह बड़ा धर्मात्मा और पूजा, प्रभावना करने वाला था । इसकी स्त्री प्रियंगुसुन्दरी सरल स्वभाव की, पुण्यवती और बहुत सुन्दर थी ॥३-५॥
    एक दिन कडारपिंग ने प्रियंगसुन्दरी को कहीं जाते देख लिया। उसकी रूप-मुधरिमा को देखकर इसका मन बेचैन हो उठा। यह जिधर देखता उधर ही इसे प्रियंगुसुन्दरी दिखने लगी। प्रियंगुसुन्दरी के सिवा इसे और कोई वस्तु अच्छी न लगने लगी । काम ने इसे आपे से भुला दिया। बड़ी कठिनता से उस दिन वह घर पर पहुँच पाया। उसे इस तरह बेचैन और भ्रम बुद्धि देखकर इसकी माँ को बड़ी चिन्ता हुई उसने इससे पूछा-कडार, क्यों आज एकाएक तेरी यह दशा हो गई? अभी तो तू घर से अच्छी तरह गया था और थोड़ी ही देर में तेरी यह हालत कैसे हुई? बतला तो, हुआ क्या? क्यों तेरा मन आज इतना खेदित हो रहा है? कडारपिंग ने कुछ न सोचा अथवा यों कह लीजिए कि सोच विचार करने की बुद्धि ही उसमें न थी। यही कारण था कि उसने, कौन पूछने वाली है, इसका भी कुछ ख्याल न कर कह दिया कि कुबेरदत्त सेठ की स्त्री को मैं यदि किसी तरह प्राप्त कर सकूँ, तो मेरा जीना हो सकता है। सिवा इसके मेरी मृत्यु अवश्यंभावी हैं । नीतिकार कहते हैं कि काम से अन्धे हुए लोगों को धिक्कार है जो लज्जा और भय रहित होकर फिर अच्छे और बुरे कार्य को भी नहीं सोचते । बेचारी धनश्री पुत्र की यह निर्लज्जता देखकर दंग रह गई वह इसका कुछ उत्तर न देकर सीधी अपने स्वामी के पास गई और पुत्र की सब हालत उसने उनसे कह सुनाई । सुमति एक राजमंत्री था और बुद्धिमान् था। उसे उचित था कि वह अपने पुत्र को पाप की ओर से हटाने का यत्न करता, पर उसने इस डर से, कि कहीं पुत्र मर न जाए, उल्टा पापकार्य का सहायक बनने में अपना हाथ बँटाया । सच है, विनाशकाल जब आता है तब बुद्धि भी विपरीत हो जाया करती है । ठीक यही हाल सुमति का हुआ। वह पुत्र की आशा पूरी करने के लिए एक कपट - जाल रचकर राजा के पास गया और बोला-महाराज, रत्नद्वीप में एक किंजल्क जाति के पक्षी होते हैं, वे जिस शहर में रहते हैं वहाँ महामारी, दुर्भिक्ष रोग, अपमृत्यु आदि नहीं होते तथा उस शहर पर शत्रुओं का चक्र नहीं चल पाता और न चोर वगैरह उसे किसी प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं और महाराज, उनकी प्राप्ति का भी उपाय सहज है। अपने शहर में जो कुबेरदत्त सेठ हैं; उनका जाना आना प्राय: वहाँ हुआ करता है और वे हैं भी कार्यचतुर इसलिए उन पक्षियों के लाने को आप उन्हें आज्ञा कीजिए। अपने राजमंत्री की एक अभूतपूर्व बात सुनकर राजा तो पक्षियों को मँगाने को अकुला उठे। भला, ऐसी आश्चर्य उपजाने वाली बात सुनकर किसे ऐसी अपूर्व वस्तु की चाह न होगी? और इसीलिए महाराज ने मंत्री की बातों पर कुछ विचार न किया । उन्होंने उसी समय कुबेरदत्त को बुलवाया और सब बात समझाकर उसे रत्नद्वीप जाने को कहा । बेचारा कुबेरदत्त इस कपट - जाल को कुछ न समझ सका । वह राजाज्ञा पाकर घर पर आया और रत्नद्वीप जाने का हाल उसने अपनी विदुषी प्रिया से कहा। सुनते ही प्रियंगुसुन्दरी के मन में कुछ खटका पैदा हुआ। उसने कहा- नाथ, जरूर कुछ दाल में काला है। आप ठगे गए हो। किंजल्क पक्षी की बात बिल्कुल असंभव है। भला, कहीं पक्षियों का भी ऐसा प्रभाव हुआ है? तब क्या रत्नद्वीप में कोई मरता ही न होगा? बिल्कुल झूठ ! अपने राजा सरल स्वभाव के हैं सो जान पड़ता है वे भी किसी के चक्र में आ गए है। मुझे जान पड़ता है, यह कारस्तानी राजमंत्री की हुई है ॥६-१७॥
    उसका पुत्र कडारपिंग महा व्यभिचारी है। उसने मुझे एक दिन मन्दिर जाते समय देख लिया था। मैं उसकी पापभरी दृष्टि को उसी समय पहचान गई थी। मैं जितना ध्यान से इस बात पर विचार करती हूँ तो अधिक-अधिक विश्वास होता जाता है कि इस षड्यंत्र के रचने से मंत्री महाशय की मंशा बहुत बुरी है। उन्होंने अपने पुत्र की आशा पूरी करने का और कोई उपाय न पाकर आपको विदेश भेजना चाहा है । इसलिए अब आप यह करें कि यहाँ से तो आप रवाना हो जायें, जिससे कि किसी को सन्देह न हो और रात होते ही जहाज को आगे जाने देकर आप वापस लौट आइये । फिर देखिये कि क्या गुल खिलता है। यदि मेरा अनुमान ठीक निकले तब तो फिर आपके जाने की कोई आवश्यकता नहीं और नहीं तो दस-पन्द्रह दिन बाद चले जाइयेगा ॥१७- १८॥
    प्रियंगुसुन्दरी की बुद्धिमानी देखकर कुबेरदत्त बहुत खुश हुआ । उसने उसके कहे अनुसार ही किया। जहाज रवाना हो गया । जब रात हुई तब कुबेरदत्त चुपचाप घर आकर छुपा रहा। सच है, कभी- कभी दुर्जनों की संगति से सत्पुरुषों को भी वैसा ही हो जाना पड़ता है ॥ १९-२०॥
    जब यह खबर कडारपिंग के कानों में पहुँची कि कुबेरदत्त रत्नद्वीप के लिए रवाना हो गया तो उसकी प्रसन्नता का कुछ ठिकाना न रहा। वह जिस दिन के लिए तरस रहा था, बेचैन हो रहा था वही दिन उसके लिए अब उपस्थित हो गया तब वह क्यों न प्रसन्न होगा? प्रियंगुसुन्दरी के रूप का भूखा और काम से उन्मत्त वह पापी कडारपिंग बड़ी आशा और उत्सुकता से कुबेरदत्त के घर पर आया। प्रियंगुसुन्दरी ने इसके पहले ही उसके स्वागत की तैयारी के लिए पाखाना जाने के कमरे को साफ- सुथरा करवाकर और उसमें बिना निवार का पलंग बिछवाकर उस पर एक चादर डलवा दी थी। जैसे ही मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए कुँवर कडारपिंग आए, उन्हें प्रियंगुसुन्दरी उस कमरे में लिवा ले गई और पलंग पर बैठने का उसने इशारा किया। कडारपिंग प्रियंगुसुन्दरी को अपना इस प्रकार स्वागत करते देखकर, जिसका कि उसे स्वप्न में भी ख्याल नहीं था, फूलकर कुप्पा हो गया । वह समझने लगा, स्वर्ग अब थोड़ा ही ऊँचा रह गया है। पर उसे यह विचार भी न हुआ कि पाप का फल बहुत बुरा होता है। खुशी में आकर प्रियंगुसुन्दरी के इशारे के साथ ही जैसे ही पलंग पर बैठा कि धड़ाम से नीचे आ गिरा। जब वहाँ की भीषण दुर्गन्ध ने उसकी नाक में प्रवेश किया तब उसे भान हुआ कि मैं कैसे अच्छे स्थान पर आया हूँ। वह अपनी करनी पर बहुत पछताया, उसने बहुत आरजू-मिन्नत अपने छुटकारा पाने के लिए की, पर उसकी इस अर्जी पर ध्यान देना प्रियंगुसुन्दरी को नहीं भाया। उसने पापकर्म का उपयुक्त प्रायश्चित दिये बिना छोड़ना उचित नहीं समझा। नारकी जैसे नरकों में पड़कर दुःख उठाते हैं, ठीक वैसे ही एक राजमंत्री का पुत्र अपनी सब मान-मर्यादा पर पानी फेरकर अपने किए कर्मों का फल आज पाखाने में पड़ा - पड़ा भोग रहा है। इस तरह कष्ट उठाते-उठाते पूरे छह महीने बीत गए । इतने में कुबेरदत्त का जहाज भी रत्नद्वीप से लौट आया। जहाज का आना सुनकर सारे शहर में इस बात का शोर मच गया कि सेठ कुबेरदत्त किंजल्क पक्षी ले आए ॥२१ - २४॥
    इधर कुबेरदत्त ने कडारपिंग को बाहर निकालकर उसे अनेक प्रकार के पक्षियों के पंखों से खूब सजाया और काला मुँह करके उसे एक विचित्र ही जीव बना दिया। इसके बाद उसने कडारपिंग के हाथ-पाँव बाँध कर और उसे एक लोहे के पिंजरे में बन्द कर राजा के सामने ला उपस्थित किया। पश्चात् कुबेरदत्त ने मुस्कुराते हुए यह कहकर, कि देव, यह आपका मँगाया किंजल्क पक्षी उपस्थित है, यथार्थ हाल राजा से कह दिया । सच्चा हाल जानकर राजा को मंत्री पुत्र पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने उसी समय उसे गधे पर बैठाकर और सारे शहर में घुमा-फिराकर उसके मार डालने की आज्ञा दे दी । वही किया भी गया । कडारपिंग को अपनी करनी का फल मिल गया। वह बड़े खोटे परिणामों से मर कर नरक गया । सच है, परस्त्री आसक्त पुरुष की नियम से दुर्गति होती है। इसके विपरीत जो भव्य - पुरुष जिनभगवान् के उपदेश किए और सुखों के देने वाले शीलव्रत के पालने का सदा यत्न करते हैं, वे पद-पद आदर-सत्कार के पात्र होते हैं। इसलिए उत्तम पुरुषों को सदा परस्त्री - त्यागव्रत ग्रहण किए रहना चाहिए ॥२५-३०॥
    भगवान् के उपदेश किए हुए, देवों द्वारा प्रशंसित और स्वर्ग - मोक्ष का सुख देने वाले पवित्र शीलव्रत का जो मन, वचन, काय की पवित्रता के साथ पालन करते हैं, वे स्वर्गों का सुख भोगकर अन्त में मोक्ष के अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं ॥३१-३२॥
  20. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिनभगवान् के चरणों को, जो कि कल्याण के करने वाले हैं, नमस्कार कर श्रीमती नीली सुन्दरी की मैं कथा कहता हूँ। नीली ने चौथे अणुव्रत ब्रह्मचर्य की रक्षा कर प्रसिद्धि प्राप्त की है ॥१॥
    पवित्र भारतवर्ष में लाटदेश एक सुन्दर और प्रसिद्ध देश था । जिनधर्म का वहाँ खूब प्रचार था । वहाँ की प्रजा अपने धर्म कर्म पर बड़ी दृढ़ थी। इससे इस देश की शोभा को उस समय कोई देश नहीं पा सकता था। जिस समय की यह कथा है, तब उसकी प्रधान राजधानी भृगुकच्छ नगर था। वह नगर बहुत सुन्दर और सब प्रकार की योग्य और कीमती वस्तुओं से पूर्ण था । इसका राजा वसुपाल था और वह जिससे अपनी प्रजा सुखी हो, धनी हो, सदाचारी हो, दयालु हो इसके लिए कोई बात का कष्ट न हो इसका सदा प्रयत्नशील रहता था ॥२- ३॥
    यहीं एक सेठ रहता था। उसका नाम जिनदत्त था । जिनदत्त की शहर के सेठ साहूकारों में बड़ी इज्जत थीं वह धर्मशील और जिनभगवान् का भक्त था । दान, पूजा, स्वाध्याय आदि पुण्यकर्मों को वह सदा नियमानुसार किया करता था । उसकी धर्मप्रिया का नाम जिनदत्ता था। जैसा जिनदत्त धर्मात्मा और सदाचारी था, उसकी गुणवती साध्वी स्त्री भी उसी के अनुरूप थी और इसी से इनके दिन बड़े ही सुख के साथ बीतते थे। अपने गार्हस्थ्य सुख को स्वर्ग सुख से भी कहीं बढ़कर इन्होंने बना लिया था। जिनदत्ता बड़ी उदार प्रकृति की स्त्री थी । वह जिसे दुःखी देखती उसकी सब तरह सहायता करती और उनके साथ प्रेम करती। इसके सन्तान में केवल एक पुत्री थी । उसका नाम नीली था । अपने माता- पिता के अनुरूप ही इसमें गुण और सदाचार की सृष्टि हुई थी । जैसे सन्तों का स्वभाव पवित्र होता है, नीली भी उसी प्रकार बड़े पवित्र स्वभाव की थी ॥४-५॥
    इस नगर में एक और वैश्य रहता था उसका नाम समुद्रदत्त था। यह जैनी नहीं था । इसकी बुद्धि बुरे उपदेशों को सुन-सुनकर बड़ी मट्टी हो गई थी। अपने हित की ओर तो कभी इसकी दृष्टि नहीं जाती थी। इसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था। इसके एक पुत्र था। उसका नाम सागरदत्त था। सागरदत्त एक दिन अचानक जिनमन्दिर में पहुँच गया। इस समय नीली भगवान की पूजा कर रही थी। वह एक तो स्वभाव से ही बड़ी सुन्दरी थी । इस पर उसने अच्छे-अच्छे रत्न, जड़े गहने और बहुमूल्य वस्त्र पहन रखे थे। इससे उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गई थी। वह देखने वालों को ऐसी जान पड़ती थी, मानों कोई स्वर्ग की देव-बाला भगवान् की खड़ी खड़ी पूजा कर रही है। सागरदत्त उसकी भुवनमोहिनी सुन्दरता को देखकर मुग्ध हो गया। काम ने उसके मन को बेचैन कर दिया। अपने पास ही खड़े हुए मित्र से कहा- यह है कौन? मुझे तो नहीं जान पड़ता कि यह मध्यलोक की बालिका हो । या तो यह कोई स्वर्ग-बाला है या नागकुमारी अथवा विद्याधर कन्या क्योंकि मनुष्यों में इतना सुन्दर रूप होना असम्भव है ॥६-९॥
    सागरदत्त के मित्र प्रियदत्त ने नीली का परिचय देते हुए कहा कि यह तुम्हारा भ्रम है, , जो ऐसा कहते हो कि ऐसी सुन्दरता मनुष्यों में नहीं हो सकती । तुम जिसे स्वर्ग-बाला समझ रहे हो वह न स्वर्ग-बाला है, न नागकुमारी और न किसी विद्याधर वगैरह की पुत्री है किन्तु मनुष्यनी है और अपने इसी शहर में रहने वाले जिनदत्त सेठ के कुल की एकमात्र प्रकाश करने वाली उसकी नीली नाम की कन्या है। अपने मित्र द्वारा नीली का हाल जानकर सागरदत्त आश्चर्य के मारे दंग रह गया। साथ ही काम ने उसके हृदय पर अपना पूरा अधिकार किया । वह घर पर आया सही, पर अपने मन को वह नीली के पास ही छोड़ आया। अब वह दिन-रात नीली की चिन्ता में घुल-घुलकर दुबला होने लगा । खाना-पीना उसके लिए कोई आवश्यक काम नहीं रहा सच है - जिस काम के वश होकर श्रीकृष्ण लक्ष्मी द्वारा, महादेव गंगा द्वारा और ब्रह्मा उर्वशी द्वारा अपना प्रभुत्व, ईश्वरपना खो चुके तब बेचारे साधारण लोगों की तो कथा ही क्या कही जाये ॥१०-११॥
    सागरदत्त की हालत उसके पिता को जान पड़ी । उसने एक दिन सागरदत्त से कहा- जिनदत्त जैनी है, वह कभी अपनी कन्या को अजैनी के साथ नहीं ब्याहेगा । इसलिए तुम्हें यह उचित नहीं कि तुम अप्राप्य वस्तु के लिए इस प्रकार तड़फ - तड़फ कर अपनी जान को जोखिम में डालों । तुम्हें यह अनुचित विचार छोड़ देना चाहिए। यह कहकर समुद्रदत्त ने पुत्र के उत्तर पाने की आशा से उसकी ओर देखा। पर जब सागरदत्त उसकी बात का कुछ भी जवाब न देकर नीची नजर किए ही बैठा रहा। तब समुद्रदत्त को निराश हो जाना पड़ा। उसने समझ लिया कि इसके दो ही उपाय हैं या तो पुत्र के जीवन की आशा से हाथ धो बैठना या किसी तरह सेठ की लड़की के साथ इसको ब्याह देना । पुत्र के जीने की आशा को छोड़ बैठने की अपेक्षा उसने किसी तरह नीली के साथ उसका ब्याह कर देना ही अच्छा समझा। सच है, सन्तान का मोह मनुष्य से सब कुछ करा सकता है। इस सम्बन्ध के लिए समुद्रदत्त के ध्यान में एक युक्ति आई। वह यह कि इस दशा में उसने अपना और पुत्र का जैनी बन जाना बहुत ही अच्छा समझा और वे बन भी गए। अब से वे मन्दिर जाने लगे, भगवान् की पूजा करने लगे, स्वाध्याय, व्रत, उपवास भी करने लगे। मतलब यह कि थोड़े ही दिनों में पिता-पुत्र ने अपने जैनी हो जाने का लोगों को विश्वास करा दिया और धीरे-धीरे जिनदत्त से भी इन्होंने अधिक परिचय बढ़ा लिया। बेचारा जिनदत्त सरल स्वभाव का था और इसीलिए वह सब को अपना जैसा ही सरल- स्वभावी समझता था। यही कारण हुआ कि समुद्रदत्त का चक्र उस पर चल गया। उसने सागरदत्त को अच्छा पढ़ा लिखा, खूबसूरत और अपनी पुत्री के योग्य वर समझकर नीली को उसके साथ ब्याह दिया। सागरदत्त का मनोरथ सिद्ध हुआ। उसे नया जीवन मिला। इसके बाद थोड़े दिनों तक तो पिता- पुत्र ने और अपने को ढोंगी वेष में रखा, पर फिर कोई प्रसंग लाकर वे पीछे बुद्ध धर्म के मानने वाले हो गए। सच है, मायाचारियों - पापियों की बुद्धि अच्छे धर्म पर स्थिर नहीं रहती। यह बात प्रसिद्ध है कि कुत्ते के पेट में घी नहीं ठहरता ॥१२-१६॥
    जब इन पिता-पुत्र ने जैनधर्म छोड़ा तब इन दुष्टों ने यहाँ तक अन्याय किया कि बेचारी नीली का उसके पिता के घर जाना-आना भी बन्द कर दिया। सच है, पापी लोग क्या नहीं करते ! जब जिनदत्त को इनके मायाचार का यह हाल जान पड़ा तब उसे बहुत पश्चाताप हुआ, बेहद दुःख हुआ वह सोचने लगा-क्यों मैंने अपनी प्यारी पुत्री को अपने हाथों से कुँए में ढकेल दिया? क्यों मैंने उसे काल के हाथ सौंप दिया ? सच है दुर्जनों की संगति से दुःख के सिवा कुछ हाथ नहीं पड़ता। नीचे जलती हुई अग्नि भी ऊपर की छत को काली कर देती है ॥१७- १९॥
    जिनदत्त ने जैसा किया उसका पश्चाताप उसे हुआ। पर इससे क्या नीली दुःखी हो? उसका यह धर्म था क्या? नहीं! उसे अपने भाग्य के अनुसार जो पति मिला, उसे ही वह अपना देवता समझती थी और उसकी सेवा में कभी रत्तीभर भी कमी नहीं होने देती थी। उसका प्रेम पवित्र और आदर्श था। यही कारण था कि वह अपने प्राणनाथ की अत्यन्त प्रेमपात्र थी । विशेष इतना था कि नीली ने बुद्ध धर्म के मानने वालों के यहाँ आकर भी जिनधर्म को न छोड़ा था । वह बराबर भगवान् की पूजा, शास्त्र स्वाध्याय, व्रत, उपवास आदि पुण्यकर्म करती थी, धर्मात्माओं से निष्कपट प्रेम करती थी और पात्रों को दान देती थी। मतलब यह कि अपने धर्म-कर्म में उसे खूब श्रद्धा थी और भक्तिपूर्वक वह उसे पालती थी। पर खेद है कि समुद्रदत्त की आँखों में नीली का यह कार्य भी खटका करता था। उसकी इच्छा थी कि नीली भी हमारा ही धर्म पालने लगे और इसके लिए उसने यह सोचकर, कि बुद्ध साधुओं की संगति से या दर्शन से या उनके उपदेश से यह अवश्य बुद्ध धर्म को मानने लगेगी। एक दिन नीली से कहा-पुत्री, तू पात्रों को तो सदा दान दिया करती है, तब एक दिन अपने धर्म के अनुसार बुद्ध साधुओं को भी तो दान दे ॥२०-२४॥
    नीली ने श्वसुर की बात मान ली। पर उसे जिनधर्म के साथ उनकी यह ईर्ष्या ठीक नहीं लगी और इसीलिए उसने कोई उपाय भी अपने मन में सोच लिया, जिससे फिर कभी उससे ऐसा मिथ्या आग्रह करके उसके धर्म पालन में किसी प्रकार की बाधा न दी जाए। फिर कुछ दिनों बाद उसने मौका देखकर कुछ बुद्ध साधुओं को भोजन के लिए बुलाया। वे आए। उनका आदर-सत्कार भी हुआ। वे एक अच्छे सुन्दर कमरे में बैठाये गए। इधर नीली ने उनके जूतों को एक दासी द्वारा मँगवा लिया और उनका खूब बारीक बूरा बनवाकर उसके द्वारा एक किस्म की बहुत ही बढ़िया मिठाई तैयार करवाई इससे जब वे साधु भोजन करने को बैठे तब और-और व्यंजन-मिठाइयों के साथ वह मिठाई भी उन्हें परोसी गई सब ने उसे बहुत पसन्द किया । भोजन समाप्त हुए बाद जब जाने की तैयारी हुई, तब वे देखते हैं तो जूता नहीं हैं। उन्होंने पूछा-जूते कहाँ गए ? भीतर से नीली ने आकर कहा-महाराज, सुनती हूँ, साधु लोग बड़े ज्ञानी होते हैं? तब क्या आप अपने जूतों का हाल नहीं जानते हैं? और यदि आपको इतना ज्ञान नहीं तो मैं बतला देती हूँ कि जूते आपके पेट में हैं। विश्वास के लिए आप उल्टी कर देखें। नीली की बात सुनकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने उल्टी करके देखा तो उन्हें जूतों के छोटे-छोटे बहुत से टुकड़े दीख पड़े। इससे उन्हें बहुत लज्जित होकर अपने स्थान पर आना पड़ा ॥२५-२८॥
    नीली की इस कार्यवाही से, अपने गुरुओं के अपमान से समुद्रदत्त, नीली की सासू, ननद आदि को बहुत ही गुस्सा आया । पर भूल उनकी जो नीली द्वारा उसके धर्मविरुद्ध कार्य उन्होंने करवाना चाहा। इसलिए वे अपना मन मसोस कर रह गए, नीली से वे कुछ नहीं कह सके । पर नीली की ननद को इससे संतोष नहीं हुआ। उसने कोई ऐसा ही छल-कपट कर नीली के माथे व्यभिचार का दोष मढ़ दिया । सच है, सत्पुरुषों पर किसी प्रकार का ऐब लगा देने में पापियों को तनिक भी भय नहीं रहता । बेचारी नीली अपने पर झूठ-मूठ महान् कलंक लगा सुनकर बड़ी दुःखी हुई। उसे कलंकित होकर जीते रहने से मर जाना ही उत्तम जान पड़ा। वह उसी समय जिनमन्दिर में गई और भगवान् के सामने खड़ी होकर उसने प्रतिज्ञा की, कि मैं इस कलंक से मुक्त होकर ही भोजन करूँगी, इसके अतिरिक्त मुझे इस जीवन में अन्न - पानी का त्याग है । इस प्रकार वह संन्यास लेकर भगवान् के सामने खड़ी हुई उनका ध्यान करने लगी। इस समय उसकी ध्यान मुद्रा देखने के योग्य थी। वह ऐसी जान पड़ती थी मानों सुमेरु पर्वत की स्थिर और सुन्दर जैसी चूलिका हो। सच है, उत्तम पुरुषों को सुख या दुःख में जिनेन्द्र भगवान् ही शरण होते हैं, जो अनेक प्रकार की आपत्तियों के नष्ट करने वाले और इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य हैं ॥२९-३३॥
    नीली की इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञा और उसके निर्दोष शील के प्रभाव से पुरदेवी का आसन हिल गया। वह रात के समय नीली के पास आई और बोली- सतियों की शिरोमणि, तुझे इस प्रकार निराहार रहकर प्राणों को कष्ट में डालना उचित नहीं । सुन, मैं आज शहर के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुरुषों को तथा राजा को एक स्वप्न देकर शहर के सब दरवाजे बन्द कर दूँगी । वे तब खुलेंगे जब कि उन्हें कोई शहर की महासती अपने पाँवों से छुएगी । सो जब तुझे राजकर्मचारी यहाँ से उठाकर ले जाय तब तू उनका स्पर्श करना। तेरे पाँव के लगते ही दरवाजे खुल जायेंगे और तू कलंक मुक्त होगी । यह कहकर पुरदेवी चली गई और सब दरवाजों को बन्द कर उसने राजा वगैरह को स्वप्न दिया ॥३४-३८॥
    सबेरा हुआ। कोई घूमने के लिए, कोई स्नान के लिए और कोई किसी काम के लिए शहर के बाहर जाने लगे। जाकर देखते हैं तो शहर से बाहर होने के सब दरवाजे बन्द हैं। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। बहुत कुछ कोशिशें की गई; पर एक भी दरवाजा नहीं खुला। सारे शहर में शोर मच गया। बात ही बात में राजा के पास खबर पहुँची। इस खबर के पहुँचते ही राजा को रात में आए हुए स्वप्न की याद हो उठी। उसी समय एक बड़ी भारी सभा बुलाई गई राजा ने सबको अपने स्वप्न का हाल कह सुनाया। शहर के कुछ प्रतिष्ठित पुरुषों ने भी अपने को ऐसा ही स्वप्न आया बतलाया। आखिर सब की सम्मति से स्वप्न के अनुसार दरवाजों का खोलना निश्चित किया गया। शहर की स्त्रियाँ दरवाजों का स्पर्श करने को भेजी गई सबने उन्हें पाँवों से छुआ, पर दरवाजों को कोई नहीं खोल सकी। तब किसी ने, जो कि नीली के संन्यास का हाल जानता था, नीली को उठा ले जाकर उसके पावों को स्पर्श करवाया। दरवाजे खुल गए। जैसे वैद्य सलाई के द्वारा आँखों को खोल देता है उसी तरह नीली ने अपने चरणस्पर्श से दरवाजों को खोल दिया। नीली के शील की बहुत प्रशंसा हुई। नीली कलंक मुक्त हुई। उसके अखण्ड शीलप्रभाव को देखकर लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। राजा तथा शहर के और प्रतिष्ठित पुरुषों ने बहुमूल्य वस्त्राभूषणों द्वारा नीली का खूब सत्कार किया और इस शब्दों में उसकी प्रशंसा की ‘“हे जिनभगवान् के चरणकमलों की भौंरी, तुम खूब फलो, फूलो माता, तुम्हारे शील का माहात्म्य कौन कह सकता है।" सती नीली अपने धर्म पर दृढ़ रही, उससे उसकी बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुरुषों ने प्रशंसा की। इसलिए सर्वसाधारण को भी सती नीली का पथ ग्रहण करना चाहिए ॥३९-४५॥
    जिनके वचन सारे संसार का उपकार करने वाले हैं, जो स्वर्ग के देवों और बड़े-बड़े राजा महाराजाओं से पूज्य हैं और जिनका किया हुआ उपदेश पवित्र शील-ब्रह्मचर्य स्वर्ग तथा परम्परा मोक्ष का देने वाला है, वे जिनभगवान् संसार में सदा काल रहें और उनके द्वारा कर्म - परवश जीवों को कर्म पर विचार प्राप्त करने का पवित्र उपदेश सदा मिलता रहे ॥४६॥
  21. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिन्हें स्वर्ग के देवता बड़ी भक्ति के साथ पूजते हैं, उन सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं श्रीभूत-पुरोहित का उपाख्यान कहता हूँ, जो चोरी करके दुर्गति में गया है। सिंहपुर नाम का सुन्दर नगर था। उसका राजा सिंहसेन था । सिंहसेन की रानी का नाम रामदत्ता था। राजा बुद्धिमान् और धर्मपरायण था । रानी भी बड़ी चतुर थी । सब कामों को वह उत्तमता के साथ करती थी। राजपुरोहित श्रीभूति था । उसने मायाचारी से अपने सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध कर रक्खी थी कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ । बेचारे भोले लोग उस कपटी के विश्वास में आकर अनेक बार ठगे जाते थे। पर उसके कपट का पता किसी को नहीं पड़ पाता था। ऐसे ही एक दिन एक विदेशी उसके चंगुल में फँसा। इसका नाम समुद्रदत्त था। यह पद्मखण्डपुर का रहने वाला था। इसके पिता सुमित्र और माता सुमित्रा थी । समुद्रदत्त की इच्छा एक दिन व्यापारार्थ विदेश जाने की हुई । इसके पास पाँच बहुत कीमती रत्न थे। पद्मखण्डपुर में कोई ऐसा विश्वस्त पुरुष इसके ध्यान में नहीं आया, जिसके पास यह अपने रत्नों को रखकर निश्चित हो सकता था । इसने श्रीभूति की प्रसिद्धि सुन रखी थी। इसलिए उसके पास रत्न रखने का विचार कर यह सिंहपुर आया । यहाँ श्रीभूति से मिलकर इसने अपना विचार उसे कह सुनाया । श्रीभूति ने इसके रत्नों का रखना स्वीकार कर लिया। समुद्रदत्त को इससे बड़ी खुशी हुई और साथ ही वह उन रत्नों को श्रीभूति को सौंपकर आप रत्नद्वीप के लिए रवाना हो गया। वहाँ कई दिनों तक ठहरकर इसने बहुत घन कमाया। जब वह वापस लौटकर जहाज द्वारा अपने देश की ओर आ रहा था तब पापकर्म के उदय से इसका जहाज टकराकर फट गया। बहुत से आदमी डूब मरे । बहुत ठीक लिखा है कि बिना पुण्य के कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। समुद्रदत्त इस समय भाग्य से मरते-मरते बच गया। इसके हाथ जहाज का एक छोटा- सा टुकड़ा लग गया। यह उस पर बैठकर बड़ी कठिनता के साथ किसी तरह किनारे आ गया । यहाँ से यह सीधा श्रीभूति पुरोहित के पास पहुँचा । श्रीभूति इसे दूर से देखकर ही पहचान गया। वह धूर्त तो था ही, सो उसने अपने आसपास बैठे हुए लोगों से कहा- देखिये, वह कोई दरिद्र भिखमंगा आ रहा है अब यहाँ आकर व्यर्थ सिर खाने लगेगा। जिसके पास थोड़ा बहुत पैसा होता है या जिनकी मान मर्यादा लोगों में अधिक होती है तो उन्हें इन भिखारियों के मारे चैन नहीं। एक न एक हर समय सिर पर खड़ा ही रहता है। हम लोगों ने जो सुना था कि कल एक जहाज फटकर डूब गया है, मालूम होता है। यह उसी पर का कोई यात्री है और इसका सब धन नष्ट हो जाने से यह पागल हो गया जान पड़ता है। इसकी दुर्दशा से ज्ञान होता है कि यह इस समय बड़ा दुःखी है और इसी से संभव है कि यह मुझसे कोई बड़ी भारी याचना करे । श्रीभूति तो इस तरह लोगों को कह ही रहा था कि समुद्रदत्त उसके सामने जा खड़ा हुआ । श्रीभूति को नमस्कार कर अपनी हालत सुनाना आरम्भ करता है कि इतने में श्रीभूति बोल उठा कि मुझे इतना समय नहीं कि मैं तुम्हारी सारी दुःख कथा सुनूँ। हाँ तुम्हारी इस हालत से जान पड़ता है कि तुम पर कोई बड़ी भारी आफत आई है । अस्तु, मुझे तुम्हारे दुःख में संवेदना है। अच्छा जाइए, मैं नौकरों से कहे देता हूँ कि वे तुम्हें कुछ दिनों के लिए खाने का सामान दिलवा दें। यह कहकर ही उसने नौकरों की ओर मुँह फेरा और आठ दिन तक का खाने का सामान समुद्रदत्त को दिलवा देने के लिए उनसे कह दिया। बेचारा समुद्रदत्त तो श्रीभूति की बातें सुनकर हत - बुद्धि हो गया । उसे काटो तो खून नहीं। उसने घबराते-घबराते कहा- महाराज, आप यह क्या करते है? मेरे जो आपके पास पाँच रत्न रक्खे हैं, मुझे तो वे ही दीजिए। मैं आपका समान -वामान नहीं लेता ॥१-१२॥
    श्रीभूति ने रत्न का नाम सुनते ही अपने चेहरे पर का भाव बदला और त्यौरी चढ़ाकर जोर के साथ कहा-रत्न! अरे दरिद्र ! तेरे रत्न और मेरे पास ? यह तू क्या बक रहा है? कह तो सही वास्तव में तेरी मंशा क्या है? क्या मुझे तू बदनाम करना चाहता है ? तू कौन, और कहाँ का रहने वाला है? मैं तुझे जानता तक नहीं, फिर तेरे रत्न मेरे पास आए कहाँ से ? जा - जा, पागल तो नहीं हो गया है? ठीक ध्यान से विचार कर । किसी और के यहाँ रखकर उसके भ्रम से मेरे पास आ गया जान पड़ता है। इसके बाद ही उसने लोगों की ओर नजर फेरकर कहा- देखिये साहब, मैंने कहा था न? कि यह मेरे से कोई बड़ी भारी याचना करेगा। ठीक वही हुआ । बतलाइए, इस दरिद्र के पास रत्न कहाँ से आ सकते हैं? धन नष्ट हो जाने से जान पड़ता है यह बहक गया है। यह कहकर श्रीभूति ने नौकरों द्वारा समुद्रदत्त को घर से बाहर निकलवा दिया। नीतिकार ने ठीक लिखा है- जो लोग पापी होते है और जिन्हें दूसरों के धन की चाह होती है, वे दुष्ट पुरुष ऐसा कौन बुरा काम है जिसे लोभ के वश हो न करते हों? श्रीभूति ऐसे ही पापियों में से एक था, तब वह कैसे ऐसे निंद्य कर्म से बचा रह सकता था? पापी श्रीभूति से ठगा जाकर बेचारा समुद्रदत्त सचमुच पागल हो गया? वह श्रीभूति के मकान से निकलते ही यह चिल्लाता हुआ कि पापी श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता है, सारे शहर में घूमने लगा। पर उसे एक भिखारी के वेश में देखकर किसी ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया । उल्टा उसे ही सब पागल बताने लगे। समुद्रदत्त दिन भर तो इस तरह चिल्लाता हुआ सारे शहर में घूमता-फिरता और जब रात होती तब राजमहल के पीछे एक वृक्ष पर चढ़ जाता और सारी रात उसी तरह चिल्लाया करता । ऐसा करते-करते उसे ठीक छह महीना बीत गये । समुद्रदत्त का इस तरह रोज-रोज चिल्लाना सुनकर एक दिन महारानी रामदत्ता ने सोचा कि बात वास्तव में क्या है, इसका जरूर पता लगाना चाहिए। तब एक दिन उसने अपने स्वामी से कहा- प्राणनाथ, मैं रोज एक गरीब की पुकार सुनती हूँ। मैं तो यह समझती रही कि वह पागल हो गया है और इसी से दिन-रात चिल्लाया करता है, कि श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता । पर प्रतिदिन उसके मुँह से एक ही वाक्य सुनकर मेरे मन में कुछ खटका पैदा होता है। इसलिए आप उसे बुलाकर पूछिये तो कि वास्तव में रहस्य क्या है? रानी के कहे अनुसार राजा ने समुद्रदत्त को बुलाकर सब बातें पूछी। समुद्रदत्त ने जो यथार्थ घटना थी, वह राजा से कह सुनाई सुनकर राजा ने रानी से कहा कि इसके चेहरे पर से तो इसकी बात ठीक जँचती है। पर इसका भेद खुलने के लिए क्या उपाय है? रानी ने थोड़ी देर तक विचार कर कहा- हाँ, इसकी आप चिन्ता न करें। मैं सब बातें जान लूँगी ॥१३-१८॥
    दूसरे दिन रानी ने पुरोहित जी को अपने अन्तःपुर में बुलाया। आदर-सत्कार होने के बाद रानी ने उनसे कहा-मेरी इच्छा बहुत दिनों से आपसे मिलने की थी, पर कोई ठीक समय ही नहीं मिल पाता था। आज बड़ी खुशी हुई कि आपने यहाँ आने की कृपा की। इसके बाद रानी ने पुरोहित से कुछ इधर- उधर की बातें करके उनसे भोजन का हाल पूछा। उनके भोजन का सब हाल जानकर उसने अपनी एक विश्वस्त दासी को बुलाया और उसे कुछ बातें समझा-बुझाकर जाने को कह दिया । दासी के जाने के बाद रानी ने पुरोहित जी से एक नई ही बात का जिकर उठाया। वह बोली- पुरोहित जी, सुनती हूँ कि आप पासे खेलने में बड़े चतुर और बुद्धिमान् है । मेरी बहुत दिनों से इच्छा होती थी कि आपके साथ खेलकर मैं भी एक बार देखूँ कि आप किस चतुराई से खेलते हैं । यह कहकर रानी ने एक दासी को बुलाकर चौपड़ ले आने की आज्ञा की ॥१९॥
    पुरोहितजी रानी की बात सुनकर दंग रह गए। वे घबराकर बोले- हैं ! हैं ! महारानीजी, यह आप क्या करती हैं? मैं एक भिक्षुक ब्राह्मण और आपके साथ मेरी यह धृष्टता । यदि महाराज सुन पावें तो वे मेरी क्या गति बनायेंगे?
    रानी ने कहा-पुरोहित जी, आप इतने घबराइए मत। मेरे साथ खेलने में आपको किसी प्रकार के गहरे विचार में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं । महाराज इस विषय में आपसे कुछ नहीं कहेंगे। आप डरिए मत।
    बेचारे पुरोहितजी बड़े पशोपेश में पड़े। रानी की आज्ञा भी वे नहीं टाल सकते और इधर महाराज का उन्हें भय। वे तो इस उधेड़-बुन में लगे हुए थे कि दासी ने चौपड़ लाकर रानी के सामने रख दी। आखिर उन्हें खेलना ही पड़ा। रानी ने पहली ही बाजी में पुरोहित जी की अँगूठी, जिस पर कि उसका नाम खुदा हुआ था, जीत ली। दोनों फिर खेलने लगे। इतने में पहली दासी ने आकर रानी से कुछ कहा । रानी ने अब की बार पुरोहित जी से जीती हुई अँगूठी चुपके से उसे देकर चले जाने को कह दिया। दासी घण्टे भर बाद फिर आई उसे कुछ निराश सी देखकर रानी ने इशारे से अपने कमरे के बाहर ही रहने को कह दिया और आप अपने खेल में लग गई। अब की बार उसने पुरोहित जी का जनेऊ जीत लिया और किसी बहाने से उस दासी को बुलाकर चुपके से जनेऊ देकर भेज दिया। दासी के वापस आने तक रानी और पुरोहित जी को खेल में लगाये रही। इतने में दासी भी आ गई उसे प्रसन्न देखकर, रानी ने अपना मनोरथ पूर्ण हुआ समझा। उसने उसी समय खेल बन्द किया और पुरोहित जी की अँगूठी और जनेऊ उन्हें वापस देकर वह बोली- आप सचमुच खेलने में बड़े चतुर हैं। आपकी चतुरता देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई आज मैंने सिर्फ इस चतुरता को देखने के लिए ही आपको यह कष्ट दिया था। आप इसके लिए मुझे क्षमा करें। अब आप खुशी के साथ जा सकते है।
    बेचारे पुरोहित जी रानी के महल से बिदा हुए। उन्हें इसका कुछ भी पता नहीं पड़ा कि रानी मेरी आँखों में दिन दहाड़े धूल झोंककर मुझे कैसा उल्लू बनाया है।
    बात असल में यह थी कि रानी ने पहले पुरोहित जी की जीती हुई अँगूठी देकर दासी को उनकी स्त्री के पास समुद्रदत्त के रत्न लेने को भेजा, पर जब पुरोहित जी की स्त्री ने अँगूठी देखकर भी उसे रत्न नहीं दिये तब यज्ञोपवीत जीता और उसे दासी के हाथ देकर फिर भेजा । अब की बार रानी का मनोरथ सिद्ध हुआ। पुरोहित की स्त्री ने दासी की बातों से डरकर झटपट रत्नों को निकाल दासी के हवाले कर दिया। दासी ने रत्न लाकर रानी को दे दिये । रानी प्रसन्न हुई । पुरोहित जी तो खेलते रहे और उधर उनका भाग्य फट गया, इसकी उन्हें रत्तीभर भी खबर नहीं पड़ी।
    रानी ने रत्नों को ले जाकर महाराज के सामने रख दिया और साथ ही पुरोहित जी के महल से रवाना होने की खबर दी । महाराज ने उसी समय उनके गिरफ्तार करने की सिपाहियों को आज्ञा दी। बेचारे पुरोहित जी अभी महल के बाहर भी नहीं हुए थे कि सिपाहियों ने जाकर उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी और उन्हें दरबार में लाकर उपस्थित कर दिया।
    पुरोहित जी देखकर भौचक से रह गए। उनकी समझ में नहीं आया कि यह एकाएक क्या हो गया और कौन सा मैंने ऐसा भारी अपराध किया जिससे मुझे एक शब्द तक न बोलने देकर मेरी यह दशा की गई वे हतबुद्धि हो गए। उन्हें इस बात का और अधिक दुःख हुआ कि मैं एक राजपुरोहित, ऐसा वैसा गैर आदमी नहीं और मेरी यह दशा ? और वह बिना किसी अपराध के ? क्रोध, लज्जा और आत्मग्लानि से उनकी एक विलक्षण ही दशा हो गई ॥२०-२४॥
    'रानी ने जैसे ही रत्नों को महाराज के सामने रखा, महाराज ने उसी समय उन्हें अपने और बहुत से रत्नों में मिलाकर समुद्रदत्त को बुलाया और उससे कहा-अच्छा, देखो तो इन रत्नों में तुम्हारे रत्न है क्या? और हो तो उन्हें निकाल लो। महाराज की आज्ञा पाकर समुद्रदत्त ने उन सब रत्नों में से अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिया। सच है, सज्जन पुरुष अपनी ही वस्तु को लेते हैं। दूसरों की वस्तु उन्हें विष समान जान पड़ती हैं। समुद्रदत्त ने अपने रत्न पहचान लिए, यह देख महाराज उस पर इतने प्रसन्न हुए कि उसे उन्होंने अपने राज सेठ बना लिया ॥२५-२७॥
    महाराज तुरन्त ही दरबार में आए। जैसे ही उनकी दृष्टि पुरोहित जी पर पड़ी, उन्होंने बड़ी ग्लानि की दृष्टि से उनकी ओर देखकर गुस्से के साथ कहा- पापी, ठग! ॥२८॥
    मैं नहीं जानता था कि तू हृदय का इतना काला हो गया और ऊपर से ऐसा ढोंगी का वेष लेकर मेरी गरीब और भोली प्रजा को इस तरह धोखे में फँसायेगा ? न मालूम तेरी इस कपटवृत्ति ने मेरे कितने बन्धुओं को घर-घर का भिखारी बनाया होगा? ऐ पाप के पुतले, लोभ के जहरीले सर्प, तुझे देखकर हृदय चाहता तो यह है कि तुझे इसकी कोई ऐसी भयंकर सजा दी जाए, जिससे तुझे भी इसका ठीक प्रायश्चित मिल जाए और सर्व साधारण को दुराचारियों के साथ मेरे कठिन शासन का ज्ञान हो जाए; उससे फिर कोई ऐसा अपराध करने का साहस न करे। परन्तु तू ब्राह्मण है, इसलिए तेरे कुल के लिहाज से तेरी सजा के विचार का भार मैं अपने मंत्री - मण्डल पर छोड़ता हूँ । यह कहकर ही राजा ने अपने धर्माधिकारियों की ओर देखकर कहा - " इस पापी ने एक विदेशी यात्री के, जिसका कि नाम समुद्रदत्त है और वह यहीं बैठा हुआ भी है, कीमती पाँच रत्नों को हड़प कर लिया है, जिनको कि यात्री ने समुद्र यात्रा करने के पहले श्रीभूति को एक विश्वस्त और राजप्रतिष्ठित समझकर धरोहर के रूप में रक्खे । दैव की विचित्र गति से यात्रा से लौटते समय यात्री का जहाज एकाएक फट गया और साथ ही उसका सब माल असबाब भी डूब गया । यात्री किसी तरह बच गया। उसने जाकर पुरोहित श्रीभूति से अपनी धरोहर वापस लौटा देने के लिए प्रार्थना की।
    पुरोहित के मन में पाप का भूत सवार हुआ । बेचारे गरीब यात्री को उसने धक्के देकर घर से बाहर निकलवा दिया। यात्री अपनी इस हालत से पागल सा होकर सारे शहर में यह पुकार मचाता हुआ महिनों फिरा कि श्रीभूति ने मेरे रत्न चुरा लिए, पर उस पर किसी का ध्यान न जाकर उल्टा सबने उसे ही पागल कह दिया । उसकी यह दशा देखकर महारानी को बड़ी दया आई। यात्री को बुलाया कर उससे सब बातें दर्याफ्त की गई बाद में महारानी ने उपाय द्वारा वे रत्न अपने हस्तगत कर लिए। वे रत्न समुद्रदत्त के हैं या नहीं इसकी परीक्षा करने के आशय से उन पाँचों रत्नों को मैंने बहुत से और रत्नों में मिला दिया। पर आश्चर्य है कि यात्री ने अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिए। श्रीभूि के जिस्में धरोहर हड़पकर जाने को गुरुत्तर अपराध है। इसके सिवा धोखेबाजी, ठगाई आदि और भी बहुत से अपराध हैं। इसकी इसे क्या सजा दी जाए, इसका आप विचार करें।
    धर्माधिकारियों ने आपस में सलाहकर कहा - महाराज, श्रीभूति पुरोहित का अपराध बड़ा भारी है। इसके लिए हम तीन प्रकार की सजायें नियत करते हैं। उनमें से फिर जिसे यह पसन्द करे, स्वीकार करे । या तो इसका सर्वस्व हरण कर लिया जाए और इसे देश बाहर कर दिया जाए, या पहलवानों की बत्तीस मुक्कियाँ इस पर पड़े या तीन थाली में भरे हुए गोबर को यह खा जाए। श्री भूति से सजा पसन्द करने को कहा गया। पहले उसने गोबर खाना चाहा, पर खाया नहीं गया, तब मुक्कियाँ खाने को कहा। मुक्कियाँ पड़ना शुरू हुई कोई दस पन्द्रह मुक्कियाँ पड़ी होंगी कि पुरोहित जी अकल ठिकाने आ गई आप एकदम चक्कर खाकर जमीन पर ऐसे गिरे कि उठे ही नहीं । महा आर्त्तध्यान से उनकी मृत्यु हुई वे दुर्गति में गए। धन में अत्यन्त लम्पटता का उन्हें उपयुक्त प्रायश्चित्त मिला। इसलिए जो भव्य पुरुष हैं, उसे उचित है कि वे चोरी को अत्यन्त दुःख का कारण समझकर उसका परित्याग करें और अपनी बुद्धि को पवित्र जैनधर्म की ओर लगावें, जो ऐसे महापापों से बचाने वाला है ॥२९-३२॥
    वे जिनभगवान्, जो सब सन्देहों के नाश करने वाले और स्वर्ग के देवों और विद्याधरों द्वारा पूज्य हैं, वह जिनवाणी जो सब सुखों की खान है और मेरे गुरु श्रीप्रभाचन्द्र ये सब मुझे मंगल प्रदान करें, मुझे कल्याण का मार्ग बतलावें ॥३३॥
  22. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के बन्धु और देवों द्वारा पूज्य श्रीजिनेन्द्रदेव को नमस्कार कर झूठ बोलने से नष्ट होने वाले वसुराजा का चरित्र मैं लिखता हूँ ॥१॥
    स्वस्तिकावती नाम की एक सुन्दर नगरी थी । उसके राजा का नाम विश्वावसु था । विश्वावसु की रानी श्रीमती थी । उसके एक वसु नाम का पुत्र था ॥२॥
    वहीं एक क्षीरकदम्ब नामक उपाध्याय रहता था । वह बड़ा सुचरित्र और सरल स्वभावी था। जिनभगवान् का वह भक्त था और होम, शान्तिविधान आदि जैन क्रियाओं द्वारा गृहस्थों के लिए शान्ति-सुखार्थ अनुष्ठान करना उसका काम था । उसकी स्त्री का नाम स्वस्तिमती था। उसे पर्वत नाम का एक पुत्र था। भाग्य से वह पापी और दुर्व्यसनी हुआ । कर्मों की कैसी विचित्र स्थिति है पिता तो कितना धर्मात्मा और सरल और उसका पुत्र दुराचारी। इसी समय एक विदेशी ब्राह्मण नारद, जो कि निरभिमानी और सच्चा जिनभक्त था, क्षीरकदम्ब के पास पढ़ने के लिए आया । राजकुमार वसु, पर्वत और नारद ये तीनों एक साथ पढ़ने लगे । वसु और नारद की बुद्धि अच्छी थी, सो वे थोड़े ही समय में अच्छे विद्वान् हो गए । रहा पर्वत सो एक तो उसकी बुद्धि ही खराब और पाप के उदय से उसे कुछ नहीं आता जाता था। अपने पुत्र की यह हालत देखकर उसकी माता ने एक दिन अपने पति से गुस्सा होकर कहा-जान पड़ता है, आप बाहर के लड़कों को तो अच्छी तरह पढ़ाते हैं और खास अपने पुत्र पर आपका ध्यान नहीं है, उसे आप अच्छी तरह नहीं पढ़ाते । इसीलिए उसे इतने दिन तक पढ़ते रहने पर भी कुछ नहीं आया । क्षीरकदम्ब ने कहा- इसमें मेरा कुछ दोष नहीं है । मैं तो सबके साथ एक सा श्रम करता हूँ। तुम्हारा पुत्र ही मूर्ख है, पापी है, वह कुछ समझता ही नहीं । बोलो, अब इसके लिए मैं क्या करूँ? स्वस्तिमती को इस बात पर विश्वास हो, इसलिए उसने तीनों शिष्यों को बुलाकर कहा- पुत्रों, देखो तुम्हें यह एक-एक पाई दी जाती है, इसे लेकर तुम बाजार जाओ; और अपने बुद्धिबल से इसके द्वारा चने लेकर खा आओ और पाई पीछे वापस भी लौटा लाओ। तीनों गए ॥३-१२॥
    उनमें पर्वत एक जगह से चने मोल लेकर और वहीं खा पीकर सूने हाथ घर लौट आया। अब रहे वसु और नारद, सो इन्होंने पहले तो चने मोल लिए और फिर उन्हें इधर-उधर घूमकर बेचा, जब उनकी पाई वसूल हो गई तब बाकी बचे चनों को खाकर वे लौट आए । आकर उन्होंने गुरुजी को अमानत वापस सौंप दी। इसके बाद क्षीरकदम्ब ने एक दिन तीनों को आटे के बने हुए तीन बकरे देकर उनसे कहा-देखो, इन्हें ले जाकर और जहाँ कोई न देख पाए ऐसे एकान्त स्थान में इनके कानों को छेद लाओ। गुरु की आज्ञानुसार तीनों फिर इस नये काम के लिए गए। पर्वत ने तो एक जंगल में जाकर बकरे का कान छेद डाला । वसु और नारद बहुत जगह गए, सर्वत्र उन्होंने एकान्त स्थान ढूँढ डाला, पर उन्हें कहीं उनके मन योग्य स्थान नहीं मिला अथवा यों कहिए कि उनके विचारानुसार एकान्त स्थान कोई था ही नहीं। वे जहाँ पहुँचते और मन में विचार करते वहीं उन्हें चन्द्र, सूर्य, तारा, देव, व्यन्तर, पशु, पक्षी और अवधिज्ञानी मुनि आदि जान पड़ते । वे उस समय यह विचार कर, कि ऐसा कोई स्थान ही नहीं जहाँ कोई न देखता हो, वापस घर लौट आए। उन्होंने उन बकरों के कानों को नहीं छेदा । आकर उन्होंने गुरुजी को नमस्कार किया और अपना सब हाल उनसे कह सुनाया। सच है-बुद्धि कर्म के अनुसार ही हुआ करती है । उनकी बुद्धि की इस प्रकार चतुरता देखकर उपाध्याय जी ने अपनी प्रिया से कहा-क्यों देखी सबकी बुद्धि और चतुरता ? अब कहा, दोष मेरा या पर्वत के भाग्य का? ॥१३-२२॥
    एक दिन की बात है कि वसु से कोई ऐसा अपराध बन गया, जिससे उपाध्याय ने उसे बहुत मारा। उस समय स्वस्तिमती ने बीच में पड़कर वसु को बचा लिया। वसु ने अपनी बचाने वाली गुरु माता से कहा-माता, तुमने मुझे बचाया इससे मैं बड़ा उपकृत हुआ । कहिए तुम्हें क्या चाहिए? वहीं लाकर मैं तुम्हें प्रदान करूँ । स्वस्तिमती ने उत्तर में राजकुमार से कहा- पुत्र, इस समय तो मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जब होगी तब मागूँगी । तू मेरे इस वर को अभी अपने ही पास रख ॥२३-२४॥
    एक दिन क्षीरकदम्ब के मन में प्रकृति की शोभा देखने के लिए उत्कंठा हुई वह अपने साथ तीनों शिष्यों को भी इसलिए लिवा ले गया कि उन्हें वहीं पाठ भी पढ़ा दूँगा । वह एक सुन्दर बगीचे में पहुँचा। वहाँ कोई अच्छा पवित्र स्थान देखकर वह अपने शिष्यों को बृहदारण्य का पाठ पढ़ाने लगा। वहीं पर दो ऋद्धिधारी महामुनि स्वाध्याय कर रहे थे । उनमें से छोटे मुनि ने क्षीरकदम्ब को पाठ पढ़ाते देखकर बड़े मुनिराज से कहा-प्रभो, देखिए कैसे पवित्र स्थान में उपाध्याय अपने शिष्यों को पढ़ा रहे है। गुरु ने कहा-अच्छा है, पर देखो, इनमें से दो तो पुण्यात्मा है और वे स्वर्ग में जाएँगे और दो पाप के उदय से नरकों के दुःख सहेंगे। सच है - ॥२५-३०॥
    कर्मों के उदय से जीवों को सुख या दुःख भोगना ही पड़ता है। मुनि के वचन क्षीरकदम्ब ने सुन लिए। वह अपने विद्यार्थियों को घर भेजकर मुनिराज के पास गया। उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा- हे भगवन्! हे जैन सिद्धान्त के उत्तम विद्वान्! कृपाकर मुझे कहिए कि हममें से कौन दो स्वर्ग जाकर सुखी होंगे और कौन दो नरक जाएँगे? काम के शत्रु मुनिराज ने क्षीरकदम्ब से कहा- भव्य, स्वर्ग जाने वालों में एक तो तू जिनभक्त और दूसरा धर्मात्मा नारद है और वसु तथा पर्वत पाप के उदय से नरक जाएँगे। क्षीरकदम्ब मुनिराज को नमस्कार कर अपने घर आया। उसे इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि उसका पुत्र नरक में जायेगा क्योंकि मुनियों का कहा अनन्तकाल में भी झूठा नहीं होता ॥३१-३६॥
    एक दिन कोई ऐसा कारण देख पड़ा, जिससे वसु के पिता विश्वावसु अपना राज-काज वसु को सौंपकर आप साधु हो गए। राज्य अब वसु करने लगा। एक दिन वसु वन-विहार के लिए उपवन में गया हुआ था। वहाँ उसने आकाश से लुढ़क कर गिरते हुए एक पक्षी को देखा। देखकर उसे आश्चर्य हुआ। उसने सोचा पक्षी के लुढ़कते हुए गिरने का कोई कारण यहाँ अवश्य होना चाहिए। उसकी शोध लगाने को जिधर से पक्षी गिरा था उधर ही लक्ष्य बाँधकर उसने बाण छोड़ा । उसका लक्ष्य व्यर्थ न गया । यद्यपि उसे यह नहीं जान पड़ा कि क्या गिरा, पर इतना उसे विश्वास हो गया कि उसके बाण के साथ ही कोई भारी वस्तु गिरी जरूर है । जिधर से किसी वस्तु के गिरने की आवाज उसे सुनाई पड़ी थी वह उधर ही गया पर तब भी उसे कुछ नहीं देख पड़ा। यह देख उसने उस भाग को हाथों से टटोलना शुरू किया। हस्तस्पर्श से उसे बहुत निर्मल खम्भा, जो कि स्फटिकमणि का बना था, जान पड़ा । वसुराजा उसे गुप्तरीति से अपने महल पर ले आया। वसु ने उस खम्भे के चार पाए बनवाएँ और उन्हें अपने न्याय-सिंहासन में लगवा दिये। उन पायों के लगने से सिंहासन ऐसा जान पड़ने लगा मानों वह आकाश में ठहरा हुआ हो । वसु अब उसी पर बैठकर राज्यशासन करने लगा। उसने सब जगह यह प्रकट कर दिया कि “राजा वसु बड़ा ही सत्यवादी है, उसकी सत्यता के प्रभाव से उसका न्याय- सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है।" इस प्रकार कपट की आड़ में वह सर्वसाधारण के बहुत ही आदर का पात्र हो गया। सच है- ॥३७-४४॥
    मायावी पुरुष संसार में क्या ठगाई नहीं करते ! इधर सम्यग्दृष्टि, जिनभक्त क्षीरकदम्ब संसार से विरक्त होकर तपस्वी हो गया और अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर अन्त में समाधिमरण द्वारा उसने स्वर्ग लाभ लिया। पिता का उपाध्याय पद अब पर्वत को मिला । पर्वत की जितनी बुद्धि थी, जितना ज्ञान था, उसके अनुकूल वह पिता के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगा। उसी वृत्ति के द्वारा उसका निर्वाह होता था। क्षीरकदम्ब के साधु हुए बाद ही नारद भी वहाँ से कहीं अन्यत्र चल दिया। वर्षों तक नारद विदेशों में घूमा, घूमते फिरते वह फिर भी एक बार स्वस्तिपुरी की ओर आ निकला। वह अपने सहाध्यायी और गुरुपुत्र पर्वत से मिलने को गया । पर्वत उस समय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था। साधारण कुशल प्रश्न के बाद नारद वहीं बैठ गया और पर्वत का अध्यापन कार्य देखने लगा। प्रकरण कर्मकाण्ड का था। वहाँ एक श्रुति थी- " अजैर्यष्टव्यमिति ।” दुराग्रही पापी पर्वत ने उसका अर्थ किया कि‘“ अजैश्छागैः प्रयष्टव्यमिति” अर्थात् बकरों की बलि देकर होम करना चाहिए। उसमें बाधा देकर नारद ने कहा-नहीं, इस श्रुति का यह अर्थ नहीं है । गुरुजी ने तो हमें इसका अर्थ बतलाया था कि‘अजैस्त्रिवार्षिकैर्धान्यैः प्रयष्टव्यम्' अर्थात्-तीन वर्ष के पुराने धान से, जिसमें उत्पन्न होने की शक्ति न हो, होम करना चाहिए। तू यह क्या अनर्थ करता है जो उलटा ही अर्थ कर दिया? उस पर पापी पर्वत ने दुराग्रह के वश हो यही कहा कि नहीं तुम्हारा कहना सर्वथा मिथ्या है। असल में ‘अज' शब्द का अर्थ बकरा होता है और उसी से होम करना चाहिए। ठीक कहा है-जिसे दुर्गति में जाना होता है, वही पुरुष जानकर भी ऐसा झूठ बोलता है ॥४५-५३॥
    तब दोनों में सच्चा कौन है, इसके निर्णय के लिए उन्होंने राजा वसु को मध्यस्थ चुना। उन्होंने परस्पर में प्रतिज्ञा की कि जिसका कहना झूठ हो उसकी जबान काट दी जाए । पर्वत की माँ को जब इस विवाद का और परस्पर की प्रतिज्ञा का हाल मालूम हुआ तब उसने पर्वत को बुलाकर बहुत डाँटा और गुस्से में आकर कहा- पापी, तूने यह क्या अनर्थ किया? क्यों उस श्रुति का उलटा अर्थ किया? तुझे नहीं मालूम कि तेरा पिता जैनधर्म का पूर्ण श्रद्धानी था और वह ' अजैर्यष्टव्यम्' इसका अर्थ तीन वर्ष के पुराने धान से होम करने को कहता था और स्वयं भी वह पुराने धान ही से सदा होमादिक किया करता था। स्वस्तिमती ने उसे और भी बहुत फटकारा, पर उसका फल कुछ नहीं निकला। पर्वत अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ बना रहा । पुत्र का इस प्रकार दुराग्रह देखकर वह अधीर हो उठी। एक ओर पुत्र के अन्याय पक्ष का समर्थन होकर सत्य की हत्या होती है और दूसरी ओर पुत्र - प्रेम उसे अपने कर्तव्य से विचलित करता है। अब वह क्या करे ? पुत्र - प्रेम में फँसकर सत्य की हत्या करे या उसकी रक्षा कर अपना कर्तव्य पालन करे? वे बड़े संकट में पड़ी । आखिर दोनों शक्तियों का युद्ध होकर पुत्र-प्रेम ने विजय प्राप्त कर उसे अपने कर्तव्य पथ से गिरा दिया, सत्य की हत्या करने को उसे सन्नद्ध किया। वह उसी समय वसु के पास पहुँची और उससे बोली- पुत्र, तुम्हें याद होगा कि मेरा एक वर तुमसे पाना बाकी है। आज उसकी मुझे जरूरत पड़ी है। इसलिए अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह कर मुझे कृतार्थ करो । बात यह है पर्वत और नारद का किसी विषय पर झगड़ा हो गया है। उसके निर्णय के लिए उन्होंने तुम्हें मध्यस्थ चुना है। इसलिए मैं तुम्हें कहने को आई हूँ कि तुम पर्वत के पक्ष का समर्थन करना। सच है- ॥५४-५८॥
    जो स्वयं पापी होते हैं वे दूसरों को भी पापी बना डालते हैं। जैसे सर्प जहरीला होता है और जिसे काटता है उसे भी विषयुक्त कर देता है । पापियों का यह स्वभाव ही होता है ॥५९॥
    राजसभा लगी हुई थी। बड़े-बड़े कर्मचारी यथास्थान बैठे हुए थे । राजा वसु भी एक बहुत सुन्दर रत्न-जड़े सिंहासन पर बैठा हुआ था। इतने में पर्वत और नारद अपना न्याय कराने के लिए राजसभा में आए। दोनों ने अपना-अपना कथन सुनाकर अन्त में किसका कहना सत्य है और गुरुजी ने अपने को ‘“ अजैर्यष्टव्यम्” इसका क्या अर्थ समझाया था, इसका खुलासा करने का भार वसु पर छोड़ दिया। वसु उक्त वाक्य का ठीक अर्थ जानता था और यदि वह चाहता तो सत्य की रक्षा कर सकता था, पर उसे अपनी गुराणी जी के माँगे हुए वर ने सत्यमार्ग से ढकेल कर आग्रही और पक्षपाती बना दिया। मिथ्या आग्रह के वश हो उसने अपनी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा की कुछ परवाह न कर नारद के विरुद्ध फैसला दिया । उसने कहा कि जो पर्वत कहता है वही सत्य है और गुरुजी ने हमें ऐसा ही समझाया था कि‘‘अजैर्यष्टव्यम्” इसका अर्थ बकरों को मारकर उनसे होम करना चाहिए। प्रकृति को उसका यह महा अन्याय सहन नहीं हुआ । उसका परिणाम यह हुआ कि राजा वसु जिस स्फटिक के सिंहासन पर बैठकर प्रतिदिन राजकार्य करता था और लोगों को यह कहा करता था कि मेरे सत्य के प्रभाव से मेरा सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है, वही सिंहासन वसु की असत्यता से टूट पड़ा और पृथ्वी में घुस गया। उसके साथ ही वसु भी पृथ्वी में जा धँसा। यह देख नारद ने उसे समझाया- महाराज, अब भी सत्य- सत्य कह दीजिए, गुरुजी ने जैसा अर्थ कहा था वह प्रकट कर दीजिए। अभी कुछ नहीं गया । सत्यव्रत आपकी इस संकट से अवश्य रक्षा करेगा। कुगति में व्यर्थ अपने आत्मा को न ले जाइए। अपनी इस दुर्दशा पर भी वसु को दया नहीं आयी । वह और जोश में आकर बोला-नहीं, जो पर्वत कहता है वही सत्य है। उसका इतना कहना था कि उसके पाप के उदय ने उसे पृथ्वीतल में पहुँचा दिया। वसु काल के सुपुर्द हुआ। मरकर वह सातवें नरक में गया । सच है जिसका हृदय दुष्ट और पापी होता है उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और अन्त में उन्हें कुगति में जाना पड़ता है। इसलिए जो अच्छे पुरुष हैं और पाप से बचना चाहते हैं उन्हें प्राणों पर कष्ट आने पर भी कभी झूठ न बोलनाचाहिए। पर्वत की यह दुष्टता देखकर प्रजा के लोगों ने उसे गधे पर बैठा कर शहर से निकाल बाहर किया और नारद का बहुत आदर-सत्कार किया। नारद अब वहीं रहने लगा। वह बड़ा बुद्धिमान् और धर्मात्मा था। सब शास्त्रों में उसकी गति थी । वह वहाँ रहकर लोगों को धर्म का उपदेश दिया करता, भगवान् की पूजा करता, पात्रों को दान देता। उसकी यह धर्मपरायणता देखकर वसु के बाद राज्य- सिंहासन पर बैठने वाला राजा उस पर बहुत खुश हुआ। उस खुशी में उसने नारद को गिरितट नामक नगरी का राज्य भेंट में दे दिया। नारद ने बहुत समय तक उस राज्य का सुख भोगा । अन्त में संसार से उदासीन होकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। मुनि होकर उसने अनेक जीवों को कल्याण के मार्ग में लगाया और तपस्या द्वारा पवित्र रत्नत्रय की आराधना कर आयु के अन्त में वह सर्वार्थसिद्धि गया, जो कि सर्वोत्तम सुख का स्थान है। सच है, जैनधर्म की कृपा से भव्य पुरुषों को क्या प्राप्त नहीं होता ॥६०-७१॥
    निरभिमानी नारद अपने धर्म पर बड़ा दृढ़ था । उसने समय-समय पर और धर्म वालों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की । यह जिनशासन रूप महान् समुद्र के बढ़ाने वाला चन्द्रमा था। ब्राह्मणवंश का एक चमकता हुआ रत्न था। अपनी सत्यता के प्रभाव से उसने बहुत सिद्धि प्राप्त कर ली थी । अन्त में वह तपस्या कर सर्वार्थसिद्धि गया । वह महात्मा नारद सबका कल्याण करे ॥७२॥
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    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक श्री जिनेन्द्र भगवान् को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर मैं अहिंसाव्रत का फल पाने वाले एक धीवर की कथा लिखता हूँ ॥१॥
    सब सन्देहों को मिटाने वाली, प्रीतिपूर्वक आराधना करने वाले प्राणियों के लिए सब प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाली, जिनेन्द्र भगवान् की वाणी संसार में सदैव बनी रहे ॥२॥
    संसाररूपी अथाह समुद्र से भव्य पुरुषों को पार कराने के लिए पुल के समान ज्ञान के सिन्धु मुनिराज निरन्तर मेरे हृदय में विराजमान रहें ॥३॥
    इस प्रकार पंचपरमेष्ठी का स्मरण और मंगल करके कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने के लिए मैं अहिंसाव्रत की पवित्र कथा लिखता हूँ । जिस अहिंसा का नाम ही जीवों को अभय प्रदान करने वाला है, उसका पालन करना तो निस्सन्देह सुख का कारण है । अतः दयालु पुरुषों को मन, वचन और काय से संकल्पी हिंसा का परित्याग करना उचित है। बहुत से लोग अपने पितरों आदि की शान्ति के लिए श्राद्ध वगैरह में हिंसा करते हैं, बहुत से देवताओं को सन्तुष्ट करने के लिए उन्हें जीवों की बलि देते हैं और कितने ही महामारी, रोग आदि के मिट जाने के उद्देश्य से जीवों की हिंसा करते है परन्तु यह हिंसा सुख के लिए न होकर दुःख के लिए ही होती है। हिंसा द्वारा जो सुख की कल्पना करते हैं, यह उनका अज्ञान ही है। पाप कर्म कभी सुख का कारण हो ही नहीं सकता । सुख है अहिंसाव्रत के पालन करने में। भव्य जन! मैं आपको भव भ्रमण का नाश करने वाला तथा अहिंसाव्रत का माहात्म्य प्रकट करने वाली एक कथा सुनाता हूँ; आप ध्यान से सुनें ॥४-७॥
    अपनी उत्तम सम्पत्ति से स्वर्ग को नीचा दिखाने वाले सुरम्य अवन्ति देश के अन्तर्गत शिरीष नाम के एक छोटे से सुन्दर गाँव में मृगसेन नाम का एक धीवर रहा करता था । अपने कन्धों पर एक बड़ा भारी जाल लटकाए हुए एक दिन वह मछलियाँ पकड़ने के लिए क्षिप्रा नदी की ओर जा रहा था। रास्ते में उसे यशोधर नामक मुनिराज के दर्शन हुए। उस समय अनेक राजा महाराजा आदि उनके पवित्र चरणों की पर्युपासना कर रहे थे, मुनिराज जैन सिद्धान्त के मूल रहस्य स्याद्वाद के बहुत अच्छे विद्वान् थे, जीवमात्र का उद्धार करने हेतु वे सदा कमर कसे तैयार रहते थे, जीवमात्र का उपकार करना ही एक मात्र उनका व्रत था, धर्मोपदेश रूपी अमृत से सारे संसार को उन्होंने सन्तुष्ट कर दिया था, अपने वचनरूपी प्रखर किरणों के तेज से उन्होंने मिथ्यात्वरूपी गाढ़ान्धकार को नष्ट कर दिया था, उनके पास वस्त्र वगैरह कुछ नहीं थे किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी इन तीन मौलिक रत्नों से वे अवश्य अलंकृत थे । मुनिराज को देखते ही उसके ऐसा पुण्य का उदय आया, जिससे हृदय में कोमलता ने अधिकार कर लिया। अपने कन्धों पर से जाल हटाकर वह मुनिराज के समीप पहुँचा, बहुत भक्तिपूर्वक उनके चरणों में प्रणाम कर उसने उनसे प्रार्थना की कि हे स्वामी! कामरूपी हाथी को नष्ट करने वाले हे केसरी ! मुझे भी ऐसा व्रत दीजिए, जिससे मेरा जीवन सफल हो। ऐसी प्रार्थना कर विनय-विनीत मस्तक से वह मुनिराज के चरणों में बैठ गया । मुनिराज ने उसकी ओर देखकर विचार किया कि देखो! कैसे आज इस महाहिंसक के परिणाम कोमल हो गए हैं और इसकी मनोवृत्ति व्रत लेने की हुई है। सत्य है-आगे जैसा अच्छा या बुरा होना होता है, जीवों का मन भी उसी अनुसार पवित्र या अपवित्र बन जाता है अर्थात् जिसका भविष्य अच्छा होता है उसका मन पवित्र हो जाता है और जिसका बुरा होनहार होता है उसका मन भी बुरा हो जाता है ॥८-१७॥
    इसके बाद मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा मृगसेन के भावी जीवन पर जब विचार किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि इसकी आयु अब बहुत कम रह गई है। यह देख उन्होंने करुणा बुद्धि से उसे समझाया कि हे भव्य! मैं तुझे एक बात कहता हूँ, तू जब तक जीए तब तक उसका पालन करना वह यह कि तेरे जाल में पहली बार जो मछली आए उसे तू छोड़ देना और इस तरह जब तक तेरे हाथ से मरे हुए जीव का मांस तुझे प्राप्त न हो, तब तक तू पाप से मुक्त ही रहेगा। इसके अतिरिक्त मैं तुझे पंचनमस्कार मंत्र सिखाता हूँ जो प्राणी मात्र का हित करने वाला है, उसका तू सुख में, दुःख में, सरोग या नीरोग अवस्था में सदैव ध्यान करते रहना। मुनिराज के स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले इस प्रकार के वचनों को सुनकर मृगसेन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने यह व्रत स्वीकार कर लिया। जो भक्तिपूर्वक अपने गुरुओं के वचनों को मानते हैं, उन पर विश्वास लाते हैं, उन्हें सब सुख मिलता है और वे परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त करते हैं ॥१८-२३॥
    व्रत लेकर मृगसेन नदी पर गया। उसने नदी में जाल डाला । भाग्य से एक बड़ा भरी मत्स्य उसके जाल में फँस गया। उसे देखकर धीवर ने विचारा हाय! मैं निरन्तर ही तो महापाप करता हूँ और आज गुरु महाराज ने मुझे व्रत दिया है, भाग्य से आज ही इतना बड़ा मच्छ जाल में आ फँसा। पर जो कुछ हो, मैं तो इसे कभी नहीं मारूँगा। यह सोचकर व्रती मृगसेन ने अपने कपड़े की एक चिन्दी फाड़कर उस मत्स्य के कान में इसलिए बाँध दी कि यदि वही मच्छ दूसरी बार जाल में आ जाय तो मालूम हो जाये। इसके बाद वह उसे बहुत दूर जाकर नदी में छोड़ आया । सच है, मृत्यु पर्यन्त निर्विघ्न पालन किया हुआ व्रत सब प्रकार की उत्तम सम्पत्ति को देने वाला होता है ॥२४-२७॥
    वह फिर दूसरी ओर जाकर मछलियाँ पकड़ने लगा। पर भाग्य से इस बार भी वही मच्छ उसके जाल में आया। उसने उसे फिर छोड़ दिया। इस तरह उसने जितनी बार जाल डाला, उसमें वही वही मत्स्य आया पर उससे वह क्षुब्ध नहीं हुआ अपितु अपने व्रत की रक्षा के लिए खूब दृढ़ हो गया। उसे वहाँ इतना समय हो गया कि सूर्य भी अस्त हो चला, पर उसके जाल में उस मत्स्य को छोड़कर और कोई मत्स्य नहीं आया। अन्त में मृगसेन निरुपाय होकर घर की ओर लौट पड़ा। उसे अपने व्रत पर खूब श्रद्धा हो गई। वह रास्ते भर गुरु महाराज द्वारा सिखाए पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करता हुआ चला आया। जब वह अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा तो उसकी स्त्री उसे खाली हाथ देखकर आग बबूला हो उठी उसने गुस्से से पूछा- रे मूर्ख ! घर पर खाली हाथ तो चला आया, पर बतला तो सही कि खायेगा क्या पत्थर? इतना कहकर वह घर के भीतर चली गई और गुस्से में उसने भीतर से किवाड़ बन्द कर लिए। सच हैं-छोटे कुल की स्त्रियों का अपने पति पर प्रेम, लाभ होते रहने पर ही अधिक होता है । अपनी स्त्री का इस प्रकार दुर्व्यवहार देखकर बेचारा मृगसेन किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया । उसकी कुछ नहीं चली। उसे घर के बाहर ही रह जाना पड़ा। बाहर एक पुराना बड़ा भारी लकड़ा पड़ा हुआ था। मृगसेन निरुपाय होकर पंचनमस्कार मंत्र का ध्यान करता हुआ उसी पर सो गया। दिनभर के श्रम के कारण रात में वह नींद में सोया हुआ था कि उस लकड़े में से एक भयंकर और जहरीले सर्प ने निकल कर उसे काट खाया । वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ ॥२८-३६॥
    प्रातःकाल होने पर जब उसकी पत्नी ने मृगसेन की यह दुर्दशा देखी तो उसके दुःख का कोई ठिकाना नहीं रहा । वह रोने लगी, छाती कूटने लगी और अपने नीच कर्म का बार-बार पश्चाताप करने लगी। उसका दुःख बढ़ता ही गया । उसने भी यह प्रतिज्ञा ली कि जो व्रत मेरे स्वामी ने ग्रहण किया था वही मैं भी ग्रहण करती हूँ और निदान किया कि “ ये ही मेरे अन्य जन्म में भी स्वामी हों।” अनन्तर साहस करके वह भी अपने स्वामी के साथ अग्नि प्रवेश कर गई इस प्रकार अपघात से उसने अपनी जान गँवा दी ॥३७-३९॥
    विशाला नाम की नगरी में विश्वम्भर राजा राज्य करते थे। उनकी प्रिया का नाम विश्वगुणा था। वही एक सेठ रहते थे। गुणपाल उनका नाम था। उनकी स्त्री का नाम धनश्री था । धनश्री के सुबन्धु नाम की एक अतिशय सुन्दरी और गुणवती कन्या थी। पुण्योदय से मृगसेन धीवर का जीव धनश्री के गर्भ में आया ॥४०-४२॥
    अपने नर्मधर्म नामक मंत्री के अत्यन्त आग्रह और प्रार्थना से राजा ने सेठ गुणपाल से आग्रह किया कि वह मंत्री नर्मधर्म के साथ अपनी पुत्री सुबन्धु का ब्याह कर दे । यह जानकर गुणपाल को बहुत दुःख हुआ। उसके सामने एक अत्यन्त कठिन समस्या उत्पन्न हुई उसने विचारा कि पापी राजा मेरी प्यारी सुन्दरी सुबन्धु का, जो कि मेरे कुलरूपी बगीचे पर प्रकाश डालने वाली है, नीच कर्म करने वाले नर्मधर्म के साथ ब्याह कर देने को कहता है। उसने इस समय मुझे बड़ा संकट में डाल दिया। यदि सुबन्धु का नर्मधर्म के साथ ब्याह कर देता हूँ, तो मेरे कुल का क्षय होता है और साथ ही अपयश होता है और यदि नहीं करता हूँ, तो सर्वनाश होता है। राजा न जाने क्या करेगा? प्राण भी बचे या नहीं बचे? आखिर उसने निश्चय किया जो कुछ हो, पर मैं ऐसे नीचों के हाथ तो कभी अपनी प्यारी पुत्री का जीवन नहीं सौपूँगा-उसकी जिन्दगी बरबाद नहीं करूँगा। इसके बाद वह अपने श्रीदत्त मित्र के पास गया और उससे सब हाल कह कर तथा उसकी सम्मति से अपनी गर्भिणी स्त्री को उसी के घर पर छोड़कर रात के समय अपना कुछ धन और पुत्री को साथ लिए वहाँ गुपचुप से निकल खड़ा हुआ। वह धीरे-धीरे कौशाम्बी आ पहुँचा । सच है, दुर्जनों के सम्बन्ध से देश भी छोड़ देना पड़ता है॥४३-४८॥
    श्रीदत्त के घर के पास ही एक श्रावक रहता था । एक दिन उसके यहाँ पवित्र चारित्र के धारक शिवगुप्त और मुनिगुप्त नाम के दो मुनिराज आहार के लिए आए ॥४९-५०॥
    उन्हें श्रावक महाशय ने अपने कल्याण की इच्छा से विधिपूर्वक आहार दिया जो कि सर्वोत्तम सम्पत्ति की प्राप्ति का कारण है । मुनिराज को आहार देकर उसने बहुत पुण्य उत्पन्न किया, जो कि दुःख दरिद्रता आदि का नाश करने वाला है । मुनिराज आहार के बाद जब वन में जाने लगे तब उनमें से मुनिगुप्त की नजर धनश्री पर पड़ी, जो कि श्रीदत्त के आँगन में खड़ी हुई थी। उस समय उसकी दशा अच्छी नहीं थी। बेचारी पति और पुत्री वियोग से दुःखी थी, पराये घर पर रह कर अनेक दुःखों को सहती थी, आभूषण वगैरह सब उसने उतार डालकर शरीर को शोभाहीन बना डाला था, कुकवि की रचना के समान उसका सारा शरीर रुक्ष और श्रीहीन हो रहा था और इन सब दुःखों के होने पर भी वह गर्भिणी थी, इससे और अधिक दुर्व्यवस्था में वह फँसी थी। उसे इस हालत में देखकर मुनिगुप्त ने शिवगुप्त मुनिराज से कहा-प्रभो, देखिये तो इस बेचारी की कैसी दुर्दशा हो रही है, कैसे भयंकर कष्ट का इसे सामना करना पड़ा है? जान पड़ता है। इसके गर्भ में किसी अभागे जीव ने जन्म लिया है, इसी से इसकी यह दीन-हीन दशा हो रही है। सुनकर जैनसिद्धान्त के विद्वान् और अवधिज्ञानी श्री शिवगुप्त मुनि बोले- मुनिगुप्त, तुम यह न समझो कि इसके गर्भ में कोई अभागा आया है किन्तु इतना अवश्य है कि इस समय उसकी अवस्था ठीक नहीं है और यह दुःखी है परन्तु थोड़े ही दिनों के बाद- इसके दिन फिरेंगे और पुण्य का उदय आएगा। इसके यहाँ जिसका जन्म होगा, वह बड़ा महात्मा, जिनधर्म का पूर्ण भक्त और राजसम्मान का पात्र होगा । होगा तो वह वैश्यवंश में पर उसका ब्याह इन्हीं विश्वंभर राजा की पुत्री के साथ होगा, राजवंश भी उसकी सेवा करेगा ॥५१-५९ ॥
    मुनिराज की भविष्य वाणी पापी श्रीदत्त ने भी सुनी। वह था तो धनश्री के पति गुणपाल का मित्र, पर अपने एक जातीय बंधु का उत्कर्ष होना उसे सह्य नहीं हुआ । उसका पापी हृदय मत्सरता के द्वेष से अधीर हो उठा। उसने बालक को जन्मते ही मार डालने का निश्चय किया । अब से वह बाहर कहीं न जाकर बगुले की तरह सीधा साधा बनकर घर ही में रहने लगा। सच है - दुर्जन - शत्रु बिना कारण के भी सुजन - मित्र बन जाया करते हैं ॥ ६०-६१॥
    पहले तो श्रीदत्त बेचारी धनश्री को कष्ट दिया करता था और अब उसके साथ बड़ी सज्जनताका बर्ताव करने लगा। धनश्री सेठानी ने समय पाकर पुत्र को प्रसव किया । वास्तव में बालक बड़ा भाग्यशाली हुआ। वह उत्पन्न होते ही ऐसा तेजस्वी जान पड़ता था, मानो पुण्यसमूह हो। धनश्री पुत्र की प्रसव वेदना से मूर्छित हो गई उसे अचेत देखकर पापी श्रीदत्त ने अपने मन में सोचा- बालक प्रज्ज्वलित अग्नि की तरह तेजस्वी है, अपने को आश्रय देने वाले का ही क्षय करने वाला होगा, इसलिए इसका जीता रहना ठीक नहीं। यह विचार कर उसने अपने घर की बड़ी बूढ़ी स्त्रियों द्वारा यह प्रकट करवा कर, कि बालक मरा हुआ पैदा हुआ था, बालक को एक दुर्जन के हाथ सौंप दिया और उससे कह दिया कि इसे ले जाकर मार डालना । उचित तो यह था कि-
    शत्रु का भी यदि बच्चा हो, तो उसे नहीं मारना चाहिए, तब दूसरों के बच्चों के सम्बन्ध में तो क्या कहें? परन्तु खेद है कि सर्प के समान दुष्ट पुरुष कोई भी बुरा काम करते नहीं हिचकते । चाण्डाल बच्चे को एकान्त में मारने को ले गया, पर जब उसने उजेले में उसे देखा तो उसकी सुन्दरता को देखकर उसे भी दया आ गई करुणा से उसका हृदय भर आया । सो वह उसे न मारकर वहीं एक अच्छे स्थान पर रखकर अपने घर चला गया ॥६२-६८॥
    श्रीदत्त की एक बहिन थी । उसका ब्याह इन्द्रदत्त सेठ के साथ हुआ था । भाग्य से उसके सन्तान नहीं हुई थी। बालक के पूर्व पुण्य के उदय से इन्द्रदत्त माल बेचता हुआ इसी ओर आ निकला । जब वह ग्वाल लोगों के मुहल्ले में आया तो उसने ग्वालों को परस्पर बातें करते हुए सुना कि “एक बहुत सुन्दर बालक को न जाने कोई अमुक स्थान की सिला पर लेटा गया है, वह बहुत तेजस्वी है, उसके चारों ओर अपनी गायों के बच्चे खेल रहे हैं और वह उनके बीच में बड़े सुख से खेल रहा है।” उनकी बातें सुनकर ही इन्द्रदत्त बालक के पास आया। वह एक दूसरे बाल सूर्य को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसके कोई सन्तान तो थी ही नहीं, इसलिए बच्चे को उठाकर वह अपने घर ले आया और अपनी प्रिया से बोला-प्यारी राधा ? तुम्हें इसकी खबर भी नहीं कि तुम्हारे गूढगर्भ से अपने कुल का प्रकाशक पुत्र हुआ है? और देखो वह यह है इसे ले लो और पालो । आज अपना जीवन कृतार्थ हुआ । यह कहकर उसने बालक को अपनी प्रिया की गोद में रख दिया है। बालक की खुशी के उपलक्ष में इन्द्रदत्त ने खूब उत्सव किया। खूब दान किया। सच है - पुण्यवानों के लिए विपत्ति भी सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है॥६९-७३॥
    पापी श्रीदत्त को यह सारा हाल मालूम हो गया। इससे वह इन्द्रदत्त के घर आया और मायाचार से अपने बहनोई से कहा- देखो जी, हमारा भानजा बड़ा तेजस्वी है, बड़ा भाग्यवान् है, इसलिए उसे हम अपने घर पर ही रखेंगे। आप हमारी बहिन को भेज दीजिये । बेचारा इन्द्रदत्त उसके पापी हृदय की बात नहीं जान पाया। इसलिए उसने अपने सीधे स्वभाव से अपनी प्रिया को पुत्र सहित उसके साथ कर दिया। बहुत ठीक लिखा है-
    जिन लोगों का हृदय दुष्ट होता है, उनके चित्त में कुछ और रहता है, वचनों से वे कुछ और ही कहते और शरीर से कुछ और ही करते हैं। दूसरों को ठगना, उन्हें धोखा देना ही एक मात्र ऐसे पुरुषों का उद्देश्य रहता है। पापी श्रीदत्त भी एक ऐसा ही दुष्ट मनुष्य था । इसीलिए तो वह निरपराध बालक के खून का प्यासा हो उठा । उसने पहले की तरह फिर भी उसे मार डालने की इच्छा से एक चाण्डाल को बहुत कुछ लोभ देकर उसके हाथ सौंप दिया । चाण्डाल ने भी बालक को ले तो लिया पर जब उसने उसकी स्वर्गीय सुन्दरता देखी तो उसके हृदय में भी दया आ गई। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि कुछ भी हो, मैं कभी इस बच्चे को न मारूँगा और इसे बचाऊँगा । वह अपना विचार श्रीदत्त से नहीं कहकर बच्चे को लिवा ले गया। कारण श्रीदत्त की पाप वासना उसे कभी जिन्दा रहने न देगी, यह उसे उसकी बातचीत से मालूम हो गया था । चाण्डाल बच्चे को एक नदी के किनारे पर लिवा ले गया। वहीं एक सुन्दर गुहा थी, जिसके चारों ओर वृक्ष थे । वह बालक को उस गुहा में रखकर अपने घर पर लौट आया ॥७४-७९॥
    संध्या का समय था। ग्वाल लोग अपनी-अपनी गायों को घर पर लौटा कर ला रहे थे । उनमें से कुछ गायें इस गुहा की ओर आ गई थीं, जहाँ गुणपाल का पुत्र अपने पूर्वपुण्य के उदय से रक्षा पा रहा था। धाय के समान उन गायों ने आकर उस बच्चे को घेर लिया। मानों बच्चा प्रेम से अपनी माँ की ही गोद में बैठा हो। बच्चे को देखकर गायों के थनों में से दूध झरने लग गया। ग्वाल लोग प्रसन्नमुख बच्चे को गायों से घिरा हुआ और निर्भय खेलता हुआ देखकर बहुत आश्चर्य करने लगे। उन्होंने जाकर अपनी जाति के मुखिया गोविन्द से यह सब हाल कह सुनाया। गोविन्द के कोई सन्तान नहीं थी, इसलिए वह दौड़ा गया और बालक को उठा लाकर उसने अपनी सुनन्दा नाम की प्रिया को सौंप दिया। उसका नाम उसने धनकीर्ति रखा। वहाँ बड़े यत्न और प्रेम से उसका पालन व संरक्षण होने लगा। धनकीर्ति भी दिनों दिन बढ़ने लगा। वह ग्वाल महिलाओं के नेत्ररूपी कुमुद पुष्पों को प्रफुल्लित करने वाला चन्द्रमा था। उसे देखकर उनके नेत्रों को बड़ी शान्ति मिलती थी । वह सब सामुद्रिक लक्षणों से युक्त था। उसे देखकर सबको बड़ा प्रेम होता था। वह अपनी रूप मधुरिमा से कामदेव जान पड़ता था, कान्ति चन्द्रमा और तेज से एक दूसरा सूर्य से जैसे-जैसे उसकी सुन्दरता बढ़ती जाती थी, वैसे- वैसे ही उसमें अनेक उत्तम - उत्तम गुण भी स्थान पाते चले जाते थे |८०-८७॥
    एक दिन पापी श्रीदत्त घी की खरीद करता हुआ इधर आ गया । उसने धनकीर्ति को देखकर पहचान लिया। अपना सन्देह मिटाने को और भी दूसरे लोगों से उसने उसका हाल जान लिया। उसे निश्चय हो गया कि यह गुणपाल ही का पुत्र है। तब उसने फिर उसके मारने का षड्यंत्र रचा। उसने गोविन्द से कहा-भाई, मेरा एक बहुत जरूरी काम हैं, यदि तुम अपने पुत्र द्वारा उसे करा दो तो बड़ी कृपा हो। मैं अपने घर पर भेजने के लिए एक पत्र लिख देता हूँ, उसे यह पहुँचा आवे। बेचारे गोविन्द ने कह दिया कि मुझे आपके काम से कोई इनकार नहीं है। आप लिख दीजिये, यह उसे दे आयेगा। सच बात है-दुष्टों की दुष्टता का पता जल्दी से कोई नहीं पा सकता । पापी श्रीदत्त ने पत्र में लिखा ॥८८- ९० ॥
    पुत्र महाबल, जो तुम्हारे पास पत्र लेकर आ रहा है, वह अपने कुल का नाश करने के लिए भयंकरता से जलता हुआ मानों प्रलय काल की अग्नि है, समर्थ होते ही यह अपना सर्वनाश कर देगा। इसलिए तुम्हें उचित है कि इसे गुप्तरीति से तलवार द्वारा वा मूसले से मार डालकर अपना कांटा साफ कर दो। काम बड़ी सावधानी से हो, जिसे कोई जान न पावे ॥९१-९२॥
    पत्र को अच्छी तरह बन्द करके उसने कुमार धनकीर्ति को सौंप दिया । धनकीर्ति ने उसे अपने गले में पड़े हुए हार से बाँध लिया और सेठ की आज्ञा लेकर उसी समय वह वहाँ से निडर होकर चल दिया। वह धीरे-धीरे उज्जयिनी के उपवन में आ पहुँचा। रास्ते में चलते-चलते वह थक गया था इसलिए थकावट मिटाने के लिए वह वहीं एक वृक्ष की ठंडी छाया में सो गया। उसे वहाँ नींद आ गई ॥९३-९५॥
    इतने ही वहाँ एक अनंगसेना नाम की वेश्या फूल तोड़ने के लिए आई, वह बहुत सुन्दरी थी अनेक तरह के मौलिक भूषण और वस्त्र वह पहने थी । उससे उसकी सुन्दरता भी बेहद बढ़ गई थी। वह अनेक विद्या कलाओं की जानने वाली और बड़ी विनोदिनी थी । उसने धनकीर्ति को एक वृक्ष के नीचे सोता देखा। पूर्वजन्म में अपना उपकार करने के कारण से उस पर उसका बहुत प्रेम हुआ। उसके वश होकर ही उसे न जाने क्या बुद्धि उत्पन्न हुई जो उसने उसके गले में बँधे हुए श्रीदत्त के कागज को खोल लिया। पर जब उसने उसे बाँचा तो उसके आश्चर्य का कुछ ठिकाना न रहा। एक निर्दोष कुमार के लिए श्रीदत्त का ऐसा घोर पैशाचिक अत्याचार का हाल पढ़कर उसका हृदय काँप उठा। वह उसकी रक्षा के लिए घबरा उठी । वह भी थी बड़ी बुद्धिमती सो झट एक युक्ति सूझ गई। उसने उस लिखावट को बड़ी सावधानी से मिटाकर उसकी जगह अपनी आँखों में अंजे हुए काजल को पत्तों के रस से गीली की हुई सलाई से निकाल-निकाल कर उसके द्वारा लिख दिया कि-“प्रिये ! यदि तुम मुझे सच्चा अपना स्वामी समझती हो और पुत्र महाबल ! तुम यदि वास्तव में मुझे अपना पिता समझते हो तो इस पत्र लाने वाले के साथ श्रीमती का ब्याह शीघ्र कर देना । अपने को बड़े भाग्य से ऐसे वर की प्राप्ति हुई है। मैंने इसकी साखें वगैरह सब अच्छी तरह देख ली है। कहीं कोई बाधा आती है । इस काम के लिए तुम मेरी भी अपेक्षा नहीं करना । कारण, सम्भव है मुझे आने में कुछ विलम्ब हो जाए। फिर ऐसा योग मिलना कठिन है। वर के मान-सम्मान में तुम लोग किसी प्रकार की कमी मत रखना।”
    इस प्रकार पत्र लिखकर अनंगसेना ने पहले की तरह उसे धनकीर्ति के गले में बाँध दिया अथवा यों कह लीजिए कि उसने धनकीर्ति को मानों जीवन प्रदान किया। इसके बाद वह अपने घर पर लौट आई॥९६-१०२॥ 
    अनंगसेना के चले जाने के बाद धनकीर्ति की भी नींद खुली। वह उठा और श्रीदत्त के घर पहुँचा। उसने पत्र निकाल कर श्रीदत्त की स्त्री के हाथ में सौंपा। पत्र को उसके पुत्र महाबल ने भी पढ़ा । पत्र पढ़कर उन्हें बहुत खुशी हुई। धनकीर्ति का उन्होंने बहुत आदर-सम्मान किया तथा शुभ मुहूर्त में श्रीमती का ब्याह उसके साथ कर दिया । सच कहा है-
    पुण्यवान् जीवों को महासंकट के समय भी जीवन के नष्ट होने के कारणों के मिलने पर भी सुख प्राप्त होता है। यह हाल जब श्रीदत्त को ज्ञात हुआ, तो वह घबराकर उसी समय दौड़ा हुआ आया। उसने रास्ते में ही धनकीर्ति को मार डालने की युक्ति सोचकर अपनी नगरी के बाहर पार्वती के मन्दिर में एक मनुष्य को इसलिए नियुक्त कर दिया कि मैं किसी बहाने से धनकीर्ति को रात के समय यहाँ भेजूँगा, सो उसे तुम मार डालना। इसके बाद वह अपने घर आया और एकान्त में अपने जमाई को बुलाकर उसने कहा- देखो जी, मेरी कुल परम्परा में एक रीति चली आ रही है, उसका पालन तुम्हें भी करना होगा । वह यह है कि नवविवाहित वर रात्रि के आरम्भ में उड़द के आटे के बनाए हुए तोता, काक, मुर्गा आदि जानवरों को लाल वस्त्र से ढककर और कंकण पहने हुए हाथ में रखकर बड़े आदर के साथ शहर के बाहर पार्वती के मन्दिर में ले जाए और शान्ति के लिए उनकी बलि दे ॥१०३ - १०९॥
    यह सुनकर धनकीर्ति बोला - जैसी आपकी आज्ञा । मुझे शिरोधार्य है। इसके बाद वह बलि लेकर घर से निकला। शहर के बाहर पहुँचते ही उसे उसका साला महाबल मिला। महाबल ने उससे पूछा- क्यों जी! ऐसे अन्धकार में अकेले कहाँ जा रहे हो? उत्तर में धनकीर्ति ने कहा- आपके पिताजी की आज्ञा से मैं पार्वती के मन्दिर बलि देने के लिए जा रहा हूँ। यह सुनकर महाबल बोला-आप बलि मुझे दे दीजिए, मैं चला जाता हूँ । आपके वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप घर पधारिए। धनकीर्ति ने कहा- - देखिए, इससे आपके पिताजी बुरा मानेंगे। इसलिए आप मुझे ही जाने दीजिए । महाबल ने कहा-नहीं, मुझे बलि देने की सब विधि वगैरह मालूम है, इसलिए मैं ही जाता हूँ - यह कहकर उसने धनकीर्ति को तो घर लौटा दिया और आप दुर्गा के मन्दिर जाकर काल के घर का पाहुना बना । सच है - ॥११०-११४॥
    पुण्यवानों के लिए कालरूपी अग्नि जल हो जाती है, समुद्र स्थल हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है, विष अमृत के रूप में परिणत हो जाता है, विपत्ति सम्पत्ति हो जाती है और विघ्न डर के मारे नष्ट हो जाते हैं। इसलिए बुद्धिमानों को सदा पुण्यकर्म करते रहना चाहिए। पुण्य उत्पन्न करने के कारण ये हैं-भक्ति से भगवान् की पूजा करना, पात्रों को दान देना, व्रत पालना, उपवासादि के द्वारा इंद्रियों को जीतना, ब्रह्मचर्य रखना, दुखियों की सहायता करना, विद्या पढ़ाना, पाठशाला खोलना अर्थात् अपने से जहाँ तक बन पड़े तन से, मन से और धन से दूसरों की भलाई करना ॥११५-११८॥
    अपने पुत्र के मारे जाने की जब श्रीदत्त को खबर हुई, तब वह बहुत दुःखी हुआ । पर फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। उसका हृदय अब प्रतिहिंसा से और अधिक जल उठा। उसने अपनी स्त्री को एकान्त में बुलाकर कहा-प्रिये, बतलाओ तो हमारे कुलरूपी वृक्ष को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाले इस दुष्ट की हत्या कैसे हो? कैसे यह मारा जा सके? मैंने इसके मारने को जितने उपाय किए, भाग्य से वे सब व्यर्थ गए और उलटा उनसे मुझे ही अत्यन्त हानि उठानी पड़ी। सो मेरी बुद्धि तो बड़े असमंजस में फँस गई है। देखो, कैसे अचंभे की बात है जो इसके मारने के लिए जितने उपाय किए,उन सबसे रक्षा पाकर और अपना ही बैरी बना हुआ यह अपने घर में बैठा है ॥११९-१२०॥
    श्री दत्त की स्त्री ने कहा- बात यह है कि अब आप बूढ़े हो गए है । आपकी बुद्धि अब काम नहीं देती । अब जरा आप चुप होकर बैठे रहें। मैं आपकी इच्छा बहुत जल्दी पूरी करूँगी । यह कहकर उस पापिनी ने दूसरे दिन विष मिले हुए लड्डू बनाये और अपने पुत्री से कहा-बेटी श्रीमती, देख मैं तो अब स्नान करने जाती हूँ और तू इतना ध्यान रखना कि ये जो उजले लड्डू हैं, उन्हें तो अपने स्वामी को परोसना और जो मैले हैं, उन्हें अपने पिता को परोसना । यह कहकर श्रीमती की माँ नहाने को चली गई। श्रीमती अपने पिता और पति को भोजन कराने को बैठी । बेचारी श्रीमती भोली-भाली लड़की थी और न उसे अपनी माता का कूट-कपट ही मालूम था; इसलिए उसने अच्छे लड्डू अपने पिता के लिए ही परोसना उचित समझा, जिससे कि उसके पिता को अपने सामने श्रीमती का बरताव बुरा न जान पड़े और यही एक कुलीन कन्या के लिए उचित भी था, क्योंकि अपने माता-पिता या बड़ों के सामने ऐसा बेहयापन काम अच्छी स्त्रियाँ नहीं करती। इसलिए जो लड्डू उसके पति के लिए उसकी माँ ने बनाये थे, उन्हें उसने पिता की थाली में परोस दिया । सच है -
    "विचित्रा कर्मणां गतिः" अर्थात् कर्मों की गति विचित्र ही हुआ करती है ॥१२१-१२६॥
    विष मिले हुए लड्डुओं के खाते ही श्रीदत्त ने अपने किए कर्म का उपयुक्त प्रायश्चित पा लिया, वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ । ठीक ही कहा है कि पाप कर्म करने वालों का कभी कल्याण नहीं होता ॥१२७॥
    श्रीमती की माँ जब नहाकर लौटी और उसने अपने स्वामी को इस प्रकार मरा पाया तो उसके दुःख का कोई पार नहीं रहा । वह बहुत विलाप करने लगी परन्तु अब क्या हो सकता था! जो दूसरों के लिए कुआँ खोदते हैं, उसमें पहले वे स्वयं ही गिरते हैं, यह संसार का नियम है । श्रीमती की माँ और पिता उसके उदाहरण है। इसलिए जो अपना बुरा नहीं चाहते उन्हें दूसरों का बुरा करने का कभी स्वप्न में भी विचार नहीं करना चाहिए । अन्त में श्रीमती की माता ने अपनी पुत्री से कहा- हे पुत्री ! तेरे पिता ने और मैंने निर्दय होकर अपने हाथों ही अपने कुल का सर्वनाश किया । हमने दूसरे का अनिष्ट करने के जितने प्रयत्न किए वे सब व्यर्थ गए और अपने नीच कर्मों का फल भी हमें हाथों हाथ मिल गया। अब जो तेरे पिताजी की गति हुई वही मेरे लिए भी इष्ट है । अन्त में मैं तुझे आशीर्वाद देती हूँ कि तू और तेरे पति इस घर में सुख शान्ति से रहें जैसे इन्द्र अपनी प्रिया के साथ रहता है। इतना कहकर उसने भी जहर के लड्डुओं को खा लिया। देखते-देखते उसकी आत्मा भी शरीर को छोड़कर चली गई। ठीक है-दुर्बुद्धियों की ऐसी ही गति हुआ करती है । जो लोग दुष्ट हृदय बनकर दूसरों का बुरा कर सोचते हैं, उनका बुरा करते हैं, वे स्वयं अपना बुरा अन्त में कुगतियों में जाकर अनन्त दुःख उठाते हैं। इस प्रकार धनकीर्ति पुण्य के प्रभाव से अनेक बड़ी-बड़ी आपत्तियों से भी सुरक्षित रहकर सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगा ॥१२८-१३३॥
    जब महाराज विश्वम्भर को धनकीर्ति के पुण्य, उसकी प्रतिष्ठा तथा गुणशालीनता का परिचय मिला तो वे उससे बहुत खुश हुए और उन्होंने अपनी राजकुमारी का विवाह भी शुभ दिन देखकर बड़े ठाटबाट सहित उसके साथ कर दिया । धनकीर्ति को उन्होंने दहेज में बहुत धन सम्पत्ति दी, उसका खूब सम्मान किया तथा ‘राज्य सेठ' के पद पर भी उसे प्रतिष्ठित किया। इस पर किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि संसार में ऐसी कोई शुभ वस्तु नहीं जो जिनधर्म के प्रभाव से प्राप्त न होती हो ॥१३४-१३६॥
    गुणपाल को जब अपने पुत्र का हाल ज्ञात हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई वह उसी समय कौशाम्बी से उज्जयिनी के लिए चला और बहुत शीघ्र अपने पुत्र से आ मिला। सबका फिर पुण्य मिलाप हुआ। धनकीर्ति पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों को भोगता हुआ अपना समय सुख से बिताने लगा। इससे कोई यह न समझ ले कि वह अब दिन-रात विषयभोगों में ही फँसा रहता था, नहीं; उसका अपने आत्मकल्याण की ओर भी पूरा ध्यान था वह बड़ी सावधानी के साथ सुख देने वाले जिनधर्म की सेवा करता था, भगवान् की प्रतिदिन पूजा करता था, पात्रों को दान देता था, दुःखी अनाथों की सहायता करता था और सदा स्वाध्याय-अध्ययन करता था, मतलब यह कि धर्म - सेवा और परोपकार करना ही उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो गया था। पुण्य के उदय से जो प्राप्त होना चाहिए वह सब धनकीर्ति को इस समय प्राप्त था । इस प्रकार धनकीर्ति ने बहुत दिनों तक खूब सुख भोगा और सबको प्रसन्न रखने की वह सदा चेष्टा करता रहा ॥१३७-१४२॥
    एक दिन धनकीर्ति का पिता गुणपाल सेठ अपनी स्त्री, पुत्र, मित्र, बन्धु - बान्धव को साथ लिए यशोध्वज मुनिराज की वन्दना करने को गया । भाग्य से अनंगसेना भी इस समय पहुँच गई संसार का उपकार करने वाले उन मुनिराज की सभी ने बड़ी भक्ति के साथ वन्दना की। इसके बाद गुणपाल ने मुनिराज से पूछा-प्रभो, कृपाकर बतलाइए कि मेरे इस धनकीर्ति पुत्र ने ऐसा कौन महापुण्य पूर्व जन्म में किया है, जिससे इसने इस बालपन में ही भयंकर से भयंकर कष्टों पर विजय प्राप्त कर बहुत कीर्ति कमाई, खूब धन कमाया और अच्छे-अच्छे पवित्र काम किए, सुख भोगा और यह बड़ा ज्ञानी हुआ, दानी हुआ तथा दयालु हुआ। भगवन्, इन सब बातों को मैं सुनना चाहता हूँ ॥१४३-१४८॥
    करुणा समुद्र और चार ज्ञान के धारी यशोध्वज मुनिराज ने, मृगसेन धीवर के अहिंसाव्रत ग्रहण करने, जाल में एक ही एक मच्छ के बार-बार आने, घर पर सूने हाथ लौट आने, स्त्री के नाराज होकर घर में न आने देने आदि की सब कथा गुणपाल से कहकर कहा- वह मृगसेन तो अहिंसाव्रत के प्रभाव से यह धनकीर्ति हुआ, जो कि सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति का मालिक और महाभव्य है और मृगसेन की जो घण्टा नाम की स्त्री थी, वह निदान करके इस जन्म में भी धनकीर्ति की श्रीमती नाम की गुणवती स्त्री हुई है और जो मच्छ पाँच बार पकड़कर छोड़ दिया गया था, वह यह अनंगसेना हुई है, जिसने कि धनकीर्ति को जीवनदान देकर अत्यन्त उपकार किया है, सेठ महाशय, यह सब एक अहिंसाव्रत के धारण करने का फल है और परम अहिंसामयी जिनधर्म के प्रसाद से सज्जनों को क्या प्राप्त नहीं होता । मुनिराज के द्वारा इस सुखदाई कथा को सुनकर सब ही बहुत प्रसन्न हुए, जिनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई। अपने पूर्व भव का हाल सुनकर धनकीर्ति, श्रीमती और अनंगसेना को जातिस्मरण हो गया। उससे उन्हें संसार की क्षणस्थायी दशा पर बड़ा वैराग्य हुआ । धर्माधर्म का फल भी उन्हें जान पड़ा। उनमें धनकीर्ति तो, जिसका कि सुयश सारे संसार में विस्तृत है, यशोध्वज मुनिराज के पास ही एक दूसरे मोहपाश की तरह जान पड़ने वाले अपने केशकलाप को हाथों से उखाड़ कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार के जीवों का उद्धार करने वाली है। साधु हो जाने के बाद धनकीर्ति ने खूब निर्दोष तपस्या की, अनेक जीवों को कल्याण के मार्ग पर लगाया, जिनधर्म की प्रभावना की, पवित्र रत्नत्रय प्राप्त किया और अन्त में समाधि सहित मरकर सर्वार्थसिद्धि का श्रेष्ठ सुख लाभ किया ॥१४९-१६१॥
    धनकीर्ति आगे केवली होकर मुक्ति प्राप्त करेगा और ऋषियों ने भी अहिंसाव्रत का फल लिखते समय धनकीर्ति की प्रशंसा में लिखा है- “ धनकीर्ति ने पूर्व भव में एक मच्छ को पाँच बार छोड़ा था, उसके फल से वह स्वर्गीय श्री का स्वामी हुआ ।" इसलिए आत्महित की इच्छा करने वालों को यह व्रत मन, वचन, काय की पवित्रतापूर्वक निरन्तर पालते रहना चाहिए।
    धनकीर्ति दीक्षित हुआ देखकर श्रीमती और अनंगसेना ने भी हृदय से विषय-वासनाओं को दूरकर अपने योग्य जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि सब दुःखों की नाश करने वाली है। इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर उन दोनों ने भी मृत्यु के अन्त में स्वर्ग प्राप्त किया। सच है- जिनशासन की आराधना कर किस किसने सुख प्राप्त न किया अर्थात् जिसने जिनधर्म ग्रहण किया उसे नियम से सुख मिला है ॥१६२-१६३॥
    इस प्रकार मुझ अल्पबुद्धि ने धर्म-प्रेम के वश हो यह अहिंसाव्रत की पवित्र कथा जैनशास्त्र के अनुसार लिखी है। यह सब सुखों की देने वाली माता है और विघ्नों को नाश करने वाली है। इसे आप लोग हृदय में धारण करें । वह इसलिए कि इसके द्वारा आपको शान्ति प्राप्त होगी ॥१६४॥
    मूलसंघ के प्रधान प्रवर्तक श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में मल्लिभूषण गुरु हुए। वे ज्ञान के समुद्र थे। उनके शिष्य श्रीसिंहनन्दी मुनि हुए। वे बड़े आध्यात्मिक विद्वान् थे। उन्हें अच्छे-अच्छे परमार्थवित्-अध्यात्मशास्त्र के जानकार विद्वान् नमस्कार करते थे । वे सिंहनन्दी मुनि आपके लिए संसार-समुद्र से पार करने वाले होकर संसार में चिरकाल तक बढ़े। उनका यशः शरीर बहुत समय तक प्रकाशित रहे ॥१६५॥
  24. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मोक्ष सुख के देने वाले श्री जिनभगवान् धर्म प्राप्ति के लिए नमस्कार कर मैं एक ऐसे चाण्डाल की कथा लिखता हूँ, जिसकी कि देवों तक ने पूजा की है ॥१॥
    काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “ नन्दीश्वरपर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदंड का भागी होगा ।" वही एक सेठ पुत्र रहता था । उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। वह सात व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे मांस खाने की बुरी आदत पड़ी हुई थी। एक दिन भी बिना मांस खाये उससे नहीं रहा जाता था। एक दिन वह गुप्त रीति से राजा के बगीचे में गया। वहाँ एक राजा का खास मेढ़ा बँधा करता था। उसने उसे मार डाला और उसके कच्चे ही मांस को खाकर वह उसकी हड्डियों को एक गड्ढे में गाड़ गया। सच है - व्यसनी मनुष्य नियम में पाप में सदा तत्पर रहा करते है॥२-६॥
    दूसरे दिन जब राजा ने बगीचे में मेढ़ा नहीं देखा और उसके लिए बहुत खोज करने पर भी जब उसका पता नहीं चला, तब उन्होंने उसका शोध लगाने को अपने बहुत से गुप्तचर नियुक्त किए। एक गुप्तचर राजा के बाग में भी चला गया। वहाँ का बागमाली रात को सोते समय सेठ पुत्र के द्वारा मेंढे के मारे जाने का हाल अपनी स्त्री से कह रहा था, उसे गुप्तचर ने सुन लिया । सुनकर उसने महाराज से जाकर सब हाल कह दिया । राजा को इससे सेठ पुत्र पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने कोतवाल को बुलाकर आज्ञा की कि, पापी धर्म ने एक तो जीव हिंसा की और दूसरे राजाज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिए उसे ले जाकर शूली चढ़ा दो। कोतवाल राजाज्ञा के अनुसार धर्म को शूली के स्थान पर लिवा ले गया और नौकरों को भेजकर उसने यमपाल चाण्डाल को इसलिए बुलाया कि वह धर्म को शूली पर चढ़ा दें क्योंकि यह काम उसी के सुपुर्द था । पर यमपाल ने एक दिन सर्वोषधिऋद्धिधारी मुनिराज के द्वारा जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुनकर, जो कि दोनों भवों में सुख का देने वाला है, प्रतिज्ञा कि थी कि - ॥७-१२॥
    मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीवहिंसा नहीं करूँगा । इसलिए उसने राज नौकरों को आते हुए देखकर अपने व्रत की रक्षा के लिए अपनी स्त्री से कहा- प्रिये, किसी को मारने के लिए मुझे बुलाने को राज- नौकर आ रहे हैं, सो तुम उनसे कह देना कि घर में वे नहीं हैं, दूसरे ग्राम गए हुए हैं। इस प्रकार वह चांडाल अपनी प्रिया को समझाकर घर के एक कोने में छुप रहा। जब राज-नौकर उसके घर पर आए और उनसे चाण्डालप्रिया ने अपने स्वामी के बाहर चले जाने का समाचार कहा, तब नौकर ने बड़े खेद के साथ कहा-हाय ! वह बड़ा अभागा है । दैव ने उसे धोखा दिया । आज ही तो एक सेठ पुत्र के मारने को मौका आया था और आज ही वह चल दिया। यदि वह आज सेठ पुत्र को मारता तो उसे उसके सब वस्त्राभूषण प्राप्त होते । वस्त्राभूषण का नाम सुनते ही चाण्डालिनी के मुँह में पानी भर आया। वह अपने लोभ के सामने अपने स्वामी का हानि-लाभ कुछ नहीं सोच सकी। उसने रोने को ढोंग बनाकर और यह कहते हुए, कि हाय वे आज ही गाँव को चले गए, आती हुई लक्ष्मी को उन्होंने पाँव ठुकरा दी, हाथ के इशारे से घर के भीतर छुपे हुए अपने स्वामी को बता दिया | सच है- ॥१३-१८॥
    स्त्रियाँ एक तो वैसे ही मायाविनी होती है, और फिर लोभादि का कारण मिल जाये तब तो उनकी माया का कहना ही क्या? जलती हुई अग्नि वैसे ही भयानक होती है और यदि ऊपर से खूब हवा चल रही हो तब फिर उसकी भयानकता का क्या पूछना? ॥१९॥
    यह देख राज-नौकरों ने उसे घर से बाहर निकाला। निकलते ही निर्भय होकर उसने कहा- आज चतुर्दशी है और मुझे आज अहिंसाव्रत है, इसलिए मैं किसी तरह, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न जायें कभी हिंसा नहीं करूँगा । यह सुन नौकर लोग उसे राजा के पास लिवा ले गए। वहाँ भी उसने वैसा ही कहा । ठीक है-जिसका धर्म पर दृढ़ विश्वास है, उसे कहीं भी भय नहीं होता ॥२०-२२॥
    राजा सेठ पुत्र के अपराध के कारण उस पर अत्यन्त गुस्सा हो ही रहे थे कि एक चाण्डाल की निर्भयपने की बातों ने उन्हें और भी अधिक क्रोधी बना दिया । एक चाण्डाल को राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला और इतना अभिमानी देखकर उनके क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । उन्होंने उसी समय कोतवाल की आज्ञा की कि जाओ, इन दोनों को ले जाकर अपने मगरमच्छादि क्रूर जीवों से भरे हुए तालाब में डाल आओ । वही हुआ। दोनों को कोतवाल ने तालाब में डलवा दिया। तालाब में डालते ही पापी धर्म को तो जल जीवों ने खा लिया। रहा यमपाल, सो वह अपने जीवन की कुछ परवाह न कर अपने व्रतपालन में निश्चल बना रहा। उसके उच्च भावों और व्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उसकी रक्षा की। उन्होंने धर्मानुराग से तालाब में ही एक सिंहासन पर यमपाल चाण्डाल को बैठाया, उसका अभिषेक किया और उसे खूब स्वर्गीय वस्त्राभूषण प्रदान किए, खूब उसका आदर सम्मान किया। जब राजा प्रजा को यह हाल सुन पड़ा, तो उन्होंने भी उस चाण्डाल का बड़े आनन्द और हर्ष के साथ सम्मान किया । उसे खूब धन दौलत दी | जिनधर्म का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर और भव्य पुरुषों को उचित है कि वे स्वर्ग - मोक्ष का सुख देने वाले जिनधर्म में अपनी बुद्धि को लगावें स्वर्ग के देवों ने भी एक अत्यन्त नीच चाण्डाल का आदर किया, यह देखकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वेश्यों को अपनी-अपनी जाति का कभी अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि पूजा जाति की नहीं होती किन्तु गुणों की होती है ॥२३-३०॥
    यमपाल जाति का चाण्डाल था, पर उसके हृदय में जिनधर्म की पवित्र वासना थी, इसलिए देवों ने उसका सम्मान किया, उसे रत्नादिकों के अलंकार प्रदान किए; अच्छे-अच्छे वस्त्र दिये, उस पर फूलों की वर्षा की । यह जिनभगवान् के उपदिष्ट धर्म का प्रभाव है, वे ही जिनेन्द्रदेव, जिन्हें कि स्वर्ग के देव भी पूजते हैं, मुझे मोक्ष श्री प्रदान करें । यह मेरी उनसे प्रार्थना है ॥३१॥
  25. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    लोकालोक के प्रकाश करने वाले, केवलज्ञान द्वारा संसार के सब पदार्थों को जानकर उनका स्वरूप कहने वाले और देवेन्द्रादि द्वारा पूज्य श्री जिन भगवान् को नमस्कार कर मैं दृढ़सूर्य की कथा लिखता हूँ, जो कि जीवों को विश्वास दिलाने वाली है ॥१॥
    उज्जयिनी के राजा जिस समय धनपाल थे, उस समय की यह कथा है। धनपाल उस समय के राजाओं में एक प्रसिद्ध राजा थे। उनकी महारानी का नाम धनवती था । एक दिन धनवती अपनी सखियों के साथ वसन्त श्री देखने को उपवन में गई । उसके गले में एक बहुत कीमती रत्नों का हार पड़ा हुआ था। उसे वहीं आई हुए एक वसन्तसेना नाम की वेश्या ने देखा । उसे देखकर उसका मन उसकी प्राप्ति के लिए आकुलित हो उठा। उसके बिना उसे अपना जीवन निष्फल जान पड़ने लगा। वह दुःखी होकर अपने घर लौटी। सारे दिन वह उदास रही। जब रात के समय उसका प्रेमी दृढ़सूर्य आया तब उसने उसे उदास देखकर पूछा-प्रिये, कहो ! कहो !! तुम आज अप्रसन्न कैसी? बसन्तसेना ने उसे अपने लिए इस प्रकार खेदित देखकर कहा- आज मैं उपवन में गई हुई थी। वहाँ मैंने राजरानी के गले में एक हार देखा हैं। वह बहुत ही सुन्दर है । उसे आप लाकर दें तब ही मेरा जीवन रह सकता है और तब ही आप मेरे सच्चे प्रेमी हो सकते हैं ॥२-४॥
    दृढ़सूर्य हार के लिए चला। वह सीधा राजमहल पहुँचा। भाग्य से हार उसके हाथ पड़ गया। वह उसे लिए हुए राजमहल से निकला । सच है लोभी, लंपटी कौन काम नहीं करते? उसे निकलते ही पहरेदारों ने पकड़ लिया। सबेरा होने पर राजसभा में पहुँचाया गया। राजा ने उसे शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। वह शूली पर चढ़ाया गया । इसी समय धनदत्त नाम के एक सेठ दर्शन करने को जिनमन्दिर जा रहे थे। दृढ़सूर्य ने उनके चेहरे और चाल-ढाल से उन्हें दयालु समझ कर उनसे कहा- सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान् हैं, इसलिए आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहीं से थोड़ा सा जल लाकर मुझे पिला दें, तो आपका बड़ा उपकारी रहूँगा। धनदत्त ने उसकी भलाई की इच्छा से कहा - " भाई, मैं जल तो लाता हूँ, पर इस बीच में तुम्हें एक बात करनी होगी। वह यह कि-मैंने कोई बारह वर्ष के कठिन परिश्रम द्वारा अपने गुरु महाराज की कृपा से एक विद्या सीखी है, सो मैं तुम्हारे लिए जल लेने को जाते समय कदाचित् उसे भूल जाऊँ तो उससे मेरा सब श्रम व्यर्थ जायेगा और मुझे बहुत हानि भी उठानी पड़ेगी, इसलिए उसे मैं तुम्हें सौंप जाता हूँ। मैं जब जल लेकर आऊँ तब तुम मुझे वह लौटा देना। यह कहकर परोपकारी धनदत्त स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाला पंच नमस्कार मंत्र उसे सिखाकर जल लेने को चला गया। वह जल लेकर वापस लौटा, इतने में दृढ़सूर्य की जान निकल गई, वह मर गया। पर वह मरा नमस्कार मंत्र का ध्यान करता हुआ, उसे सेठ के इस कहने पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि वह विद्या महाफल के देने वाली है। नमस्कार मंत्र के प्रभाव से वह सौधर्मस्वर्ग जाकर देव हुआ । सच है -पंच नमस्कारमंत्र के प्रभाव से मनुष्य को क्या प्राप्त नहीं होता? इसी समय किसी एक दुष्ट ने राजा से धनदत्त की शिकायत कर दी कि, महाराज, धनदत्त ने चोर के साथ कुछ गुप्त मंत्रणा की है, इसलिए उसके घर में चोरी का धन होना चाहिए। नहीं तो एक चोर से बातचीत करने का उसे क्या मतलब? ऐसे दुष्टों को और उनके दुराचारों को धिक्कार है, जो व्यर्थ ही दूसरों के प्राण लेने के यत्न में रहते हैं और परोपकार करने वाले सज्जनों को भी जो दुर्वचन कहते रहते हैं ॥५-२०॥
    राजा सुनते ही क्रोध के मारे आग बबूला हो गए। उन्होंने बिना कुछ सोचे विचारे धनदत्त को बाँध ले आने के लिए अपने सैनिक को भेजा । इसी समय अवधिज्ञान द्वारा यह हाल देव को, जो कि दृढ़सूर्य का जीव था, मालूम हो गया। अपने उपकारी को, कष्ट में फँसा देखकर वह उसी समय उज्जयिनी में आया और स्वयं ही द्वारपाल बनकर उसके घर के दरवाजे पर पहरा देने लगा। जब सैनिक धनदत्त को पकड़ने के लिए घर में घुसने लगे तब देव ने उन्हें रोका। पर जब वे हठ करने लगे और जबरन घर में घुसने लगे तब देव ने भी अपनी माया से उन सब को एक क्षण भर में धराशायी कर दिया। राजा ने यह हाल सुनकर और भी बहुत से अपने अच्छे-अच्छे शूरवीरों को भेजा, देव ने उन्हें भी धराशायी कर दिया । इससे राजा का क्रोध अत्यन्त बढ़ गया। तब वे स्वयं अपनी सेना को लेकर धनदत्त पर आ चढ़े। पर उस एक ही देव ने उनकी सारी सेना को तीन तेरह कर दिया। यह देखकर राजा भय के मारे भगाने लगे। उन्हें भागते हुए देखकर देव ने उनका पीछा किया और वह उनसे बोला- आप कहीं नहीं भाग सकते। आपके जीने का एक उपाय है, आप धनदत्त के आश्रय में जायें और उससे अपने प्राणों की भीख माँगें । बिना ऐसा किए आपकी कुशल नहीं । सुनकर ही राजा धनदत्त के पास जिनमन्दिर गए और उन्होंने सेठ से प्रार्थना की कि - धनदत्त, मेरी रक्षा करो ! मुझे बचाओ ! मैं तुम्हारे शरण में हूँ। सेठ ने देव को पीछे ही आया हुआ देखकर कहा- तुम कौन हो ? और क्यों हमारे महाराज को कष्ट दे रहे हो? देव ने अपनी माया समेटी और सेठ को प्रणाम करके कहा हे जिनभक्त सेठ! मैं वही पापी चोर का जीव हूँ, जिसे तुमने नमस्कार मंत्र उपदेश दिया था। उसी के प्रभाव से मैं सौधर्मस्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ हूँ। मैंने अवधिज्ञान द्वारा जब अपना पूर्वभव का हाल जाना तब मुझे ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे उपकारी पर बड़ी आपत्ति आ रही है, इसलिए मैं आया हूँ। यह सब कर्तव्य पूरा करने के लिए और आपकी रक्षा के लिए मैं आया हूँ। यह सब माया मुझ सेवक की ही की हुई है। इस प्रकार सब हाल सेठ से कहकर और रत्नमय भूषणादि से उसका यथोचित सत्कार कर देव स्वर्ग में चला गया। जिनभक्त धनदत्त की परोपकार बुद्धि और दूसरों के दुःख दूर करने की कर्तव्यपरता देखकर राजा वगैरह ने उसका खूब आदर सम्मान किया । सच है -
    'धार्मिकः कैर्न पूज्यते" अर्थात् धर्मात्मा का कौन सत्कार नहीं करता ? ॥२१-३५॥ 
    राजा और प्रजा के लोग इस प्रकार नमस्कार मंत्र का प्रभाव देखकर बहुत खुश हुए और पवित्र जिनशासन के श्रद्धानी हुए । इसी तरह धर्मात्माओं को भी उचित है कि वे अपने आत्महित के लिए भक्तिपूर्वक जिनभगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर करें ॥३६॥
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