४३. लुब्धक सेठ की कथा
केवलज्ञान की शोभा को प्राप्त हुए और तीनों जगत् के गुरु ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर लुब्धक सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥
राजा अभयवाहन चम्पापुरी के राजा हैं इनकी रानी पुण्डरीका है। नेत्र इसके ठीक पुण्डरीक कमल जैसे हैं। चम्पापुरी में लुब्धक नाम का एक सेठ रहता है। इसकी स्त्री का नाम नागवसु हैं । लुब्धक के दो पुत्र हैं। इनके नाम गरुड़दत्त और नागदत्त हैं। दोनों भाई सदा हँस-मुख रहते हैं ॥२-४॥
लुब्धक के पास बहुत धन था । उसने बहुत कुछ खर्च करके यक्ष, पक्षी, हाथी, ऊँट, घोड़ा, सिंह, हरिण आदि पशुओं की एक - एक जोड़ी सोने की बनवाई । इसके सींग, पूँछ, खूर आदि में अच्छे- अच्छे बहुमूल्य हीरा, मोती, माणिक आदि रत्नों को जड़ाकर लुब्धक ने देखने वालों के लिए एक नया ही आविष्कार कर दिया था। जो इन जोड़ियों को देखता वह बहुत खुश होता और लुब्धक की तारीफ किये बिना नहीं रहता। स्वयं लुब्धक भी अपनी इस जगमगाती प्रदर्शनी को देखकर अपने को बड़ा धन्य मानता था। इसके सिवा लुब्धक को थोड़ा-सा दुःख इस बात का था कि उसने एक बैल की जोड़ी बनवाना शुरू की थी और एक बैल बन भी चुका था, पर फिर सोना न रहने के कारण वह दूसरा बैल नहीं बनवा सका। बस, इसी की उसे एक चिन्ता थीं । पर यह प्रसन्नता की बात है कि वह सदा चिन्ता से घिरा न रहकर इसी कमी को पूरा करने के यत्न में लगा रहता था ॥५-६॥
एक बार सात दिन बराबर पानी की झड़ी लगी रही। नदी-नाले सब पूर आ गये । पर कर्मवीर लुब्धक ऐसे समय भी अपने दूसरे बैल के लिए लकड़ी लेने को स्वयं नदी पर गया और बहती नदी में से बहुत-सी लकड़ी निकालकर उसने उसकी गठरी बाँधी और उसे आप ही अपने सिर पर लादे लाने लगा। सच है, ऐसे लोभियों की तृष्णा कहीं कभी किसी से मिटी है? नहीं ॥७-८॥
इस समय रानी पुण्डरीका अपने महल पर बैठी हुई प्रकृति की शोभा को देख रही थी । महाराज अभयवाहन भी इस समय यहीं पर थे। लुब्धक को सिर पर एक बड़ा भारी काठ का भार लादकर लाते देख रानी ने अभयवाहन से कहा - प्राणनाथ, जान पड़ता है आपके राज में यह कोई बड़ा ही दरिद्री है। देखिए, बेचारा सिर पर लकड़ियों का कितना भारी गट्ठा लादे हुए आ रहा है। दया करके इसे कुछ आप सहायता दीजिए, जिससे इसका कष्ट दूर हो जाये। यह उचित ही है कि दयावानों की बुद्धि दूसरों पर दया करने की होती है । राजा ने उसी समय नौकरों को भेजकर लुब्धक को अपने पास बुलवाया । लुब्धक के आने पर राजा ने उससे कहा- जान पड़ता है तुम्हारे घर की हालत अच्छी नहीं है। इसका मुझे खेद है कि इतने दिनों से मेरा तुम्हारी ओर ध्यान न गया। अस्तु, तुम्हें जितने रुपये पैसे की जरूरत हो, तुम खजाने से ले जाओ। मैं तुम्हें एक पत्र लिख देता हूँ। यह कहकर राजा पत्र लिखने को तैयार हुए कि लुब्धक ने उनसे कहा- महाराज, मुझे और कुछ न चाहिए किन्तु एक बैल की जरूरत है। कारण मेरे पास एक बैल तो है, पर उसकी जोड़ी मुझे मिलानी है। राजा ने कहा-अच्छी बात है तो जाओ हमारे बहुत से बैल है उनमें तुम्हें जो बैल पसंद आवे उसे अपने घर ले जाओ। राजा के जितने बैल थे उन सबको देख आकर लुब्धक ने राजा से कहा- महाराज, उन बैलों में मेरे बैल सरीखा तो एक भी बैल मुझे नहीं दिखाई पड़ा । सुनकर राजा को बड़ा अचम्भा हुआ। उन्होंने लुब्धक से कहा- भाई, तुम्हारा बैल कैसा है, यह मैं नहीं समझा। क्या तुम मुझे अपना बैल दिखाओगे? लुब्धक बड़ी खुशी के साथ अपना बैल दिखाना स्वीकार कर महाराज को अपने घर पर लिवा ले गया। राजा को उस सोने के बने बैल को देखकर बड़ा अचम्भा हुआ। जिसे उन्होंने एक महा दरिद्री समझा था, वही इतना बड़ा धनी है, यह देखकर किसे अचम्भा न होगा ॥९-१८॥
लुब्धक की स्त्री नागवसु अपने घर पर महाराज को आये देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई उसने महाराज की भेंट के लिए सोने का थाल बहुमूल्य सुन्दर - सुन्दर रत्नों से सजाया और उसे अपने स्वामी के हाथ में देकर कहा - इस थाल को महाराज को भेंट कीजिए । रत्नों के थाल को देखकर लुब्धक की तो छाती बैठ गई, पर पास ही महाराज के होने से उसे वह थाल हाथों में लेना पड़ा। जैसे ही थाल को उसने हाथों में लिया उसके दोनों हाथ थर-थर काँपने लगे और ज्यों ही उसने थाल देने को महाराज के पास हाथ बढ़ाया तो लोभ के मारे इसकी अंगुलियाँ महाराज को साँप के फण की तरह देख पड़ी। सच है, जिस पापी ने कभी किसी को एक कौड़ी तक नहीं दी, उसका मन क्या दूसरे की प्रेरणा से भी कभी दान की ओर झुक सकता है? नहीं । राजा को उसके ऐसे बुरे बरताव पर बड़ी नफरत हुई फिर एक पल भर भी उन्हें वहाँ ठहरना अच्छा न लगा। वे उसका नाम ‘फणहस्त’ रखकर अपने महल पर आ गये ॥१९-२०॥
लुब्धक की दूसरा बैल बनाने की आकांक्षा अभी पूरी नहीं हुई वह उसके लिए धन कमाने को सिंहलद्वीप गया। लगभग चार करोड़ का धन उसने वहाँ रहकर कमाया भी। जब वह अपना धन, माल-असबाब जहाज पर लाद कर लौटा तो रास्ते में आते-आते कर्मयोग से हवा उलटी वह चली। समुद्र में तूफान पर तूफान आने लगे । एक जोर की आँधी आई उसने जहाज को एक ऐसा जोर का धक्का मारा कि जहाज उलट कर देखते-देखते समुद्र के विशाल गर्भ में समा गया। लुब्धक, उसका धन-असबाब, इसके सिवा और भी बहुत से लोग जहाज के संगी हुए । लुब्धक आर्त्तध्यान से मरकर अपने धन का रक्षक साँप हुआ। तब भी उसमें से एक कोड़ी भी किसी को नहीं उठाने देता था ॥२१-२६॥
एक सर्प को अपने धन पर बैठा देखकर लुब्धक के बड़े लड़के गरुड़दत्त को बहुत क्रोध आया और इसीलिए उसने उसे उठाकर मार डाला । यहाँ से वह बड़े बुरे भावों से मरकर चौथे नरक गया, जहाँ के पापकर्मों का बड़ा ही दुस्सह फल भोगना पड़ता था। इस प्रकार धर्मरहित जीव क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वश होकर पाप के उदय से इस दुःखों के समुद्र संसार में अनन्त काल तक दुःख- कष्ट उठाया करता है । इसलिए जो सुख चाहते हैं, जिन्हें सुख प्यारा है, उन्हें चाहिए कि वे इन क्रोध, लोभ, मान, मायादि को संसार में दुःख देने वाले मूल कारण समझ कर इनका मन, वचन और शरीर से त्याग करें और साथ ही जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किये धर्म को भक्ति और शक्ति के अनुसार ग्रहण करें, जो परम शान्ति - मोक्ष का प्राप्त कराने वाला है ॥२७-२९॥
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