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४६. पुष्पदत्ता की कथा


अनन्त सुख के देने वाले और तीनों जगत् के स्वामी श्रीजनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर माया का नाश करने के लिए मायाविनी पुष्पदत्ता की कथा लिखी जाती है ॥१॥

प्राचीन समय से प्रसिद्ध अजितावर्त नगर के राजा पुष्पचूल की रानी का नाम पुष्पदत्ता था। राजसुख भोगते हुए पुष्पचूल ने एक दिन अमरगुरु मुनि के पास जिनधर्म का स्वरूप सुना, जो धर्म स्वर्ग और मोक्ष के सुख की प्राप्ति का कारण है। धर्मोपदेश सुनकर पुष्पचूल को संसार, शरीर, भोगादिकों से बड़ा वैराग्य हुआ । वे दीक्षा लेकर मुनि हो गए। उनकी रानी पुष्पदत्ता ने भी उनकी देखा-देखी ब्रह्मिला नाम की आर्यिका के पास आर्यिका की दीक्षा ले ली। दीक्षा ले-लेने पर भी उसे अपने बड़प्पन, राजकुल का अभिमान जैसा का तैसा बना रहा । धार्मिक आचार-व्यवहार से वह विपरीत चलने लगी और ओर आर्यिका को नमस्कार, विनय करना उसे अपने अपमान का कारण जान पड़ने लगा। इसलिए वह किसी को नमस्कारादि नहीं करती थी । इसके सिवा उस योग अवस्था में भी अनेक प्रकार की सुगन्धित वस्तुओं द्वारा अपने शरीर को सिंगारा करती थी । उसका इस प्रकार बुरा, धर्मविरुद्ध आचार-विचार देखकर एक दिन धर्मात्मा ब्रह्मला ने उसे समझाया कि इस योगदशा में तुझे ऐसा शरीर का श्रृंगार आदि करना उचित नहीं है । ये बातें धर्मविरुद्ध और पाप की कारण हैं। इसलिए कि इनसे विषयों की इच्छा बढ़ती है । पुष्पदत्ता ने कहा-नहीं जी, मैं कहाँ शृंगार-विंगार करती हूँ। मेरा तो शरीर ही जन्म से ऐसी सुगन्ध लिए हैं। सच है - जिनके मन में स्वभाव से धर्म-वासना न हो उन्हें कितना भी समझाया जाये, उन पर उस समझाने का कुछ असर नहीं होता। उनकी प्रवृत्ति और अधिक बुरे कामों की ओर जाती है । पुष्पदत्ता ने यह मायाचार कर ठीक न किया। इसका फल इसके लिए बुरा हुआ। वह मरकर इस मायाचार के पाप से चम्पापुरी में सागरदत्त सेठ के यहाँ दासी हुई। उसका नाम जैसा पूतिमुखी था, इसके मुँह से भी सदा वैसी दुर्गन्ध निकलती रहती थी। इसलिए बुद्धिमानों को चाहिए कि वे माया को पाप की कारण जानकर उसे दूर से ही छोड़ दें। यही माया पशुपति के दुःखों का कारण है और कुल, सुन्दरता, यश, माहात्म्य, सुगति, धन-दौलत तथा सुख आदि का नाश करने वाली है और संसार के बढ़ाने वाली लता है। यह जानकर माया को छोड़े हुए जैनधर्म के अनुभवी विद्वानों को उचित है कि वे धर्म की ओर अपनी बुद्धि का लगावें ॥२-१३॥

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