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८२. शकटाल मुनि की कथा


सुख के देने वाले संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर शकाल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥

पाटलिपुत्र (पटना) के राजा नन्द के दो मंत्री थे । एक शकटाल और दूसरा वररुचि । शकटाल जैनी था, इसलिए सुतरां उसकी जैनधर्म पर अचल श्रद्धा या प्रीति थी और वररुचि जैनी नहीं था, इसलिए सुतरां उसे जैनधर्म से, जैनधर्म के पालने वालों से द्वेष करती थी और इसलिए शकटाल और वररुचि की कभी न बनती थी, एक से एक अत्यन्त विरुद्ध थे ॥ २-३॥

एक दिन जैनधर्म के परम विद्वान् महापद्य मुनिराज अपने संघ को साथ लिए पटना में आए। शकटाल उनके दर्शन करने को गया । बड़ी भक्ति के साथ उसने उनकी पूजा - वन्दना की और उनके पास बैठकर मुनि और गृहस्थ धर्म का उनसे पवित्र उपदेश सुना । उपदेश का शकटाल के धार्मिक अतएव कोमल हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह उसी समय संसार का सब मायाजाल तोड़कर दीक्षा ले मुनि हो गया। इसके बाद उसने अपने गुरु द्वारा सिद्धान्तशास्त्र का अच्छा अभ्यास किया। थोड़े ही दिनों में शकटाल मुनि ने कई विषयों में बहुत अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। गुरु इनकी बुद्धि, विद्वत्ता, तर्कणाशक्ति और सर्वोपरि स्वाभाविक प्रतिभा देखकर बहुत ही खुश हुए। उन्होंने अपना आचार्य पद अब इन्हें ही दे दिया। यहाँ से ये धर्मोपदेश और धर्मप्रचार के लिए अनेक देशों, शहरों और गाँवों में घूमे-फिरे । इन्होंने बहुतों को आत्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और दुर्गति के दुःखों का नाश करने वाले पवित्र जैनधर्म का सब ओर प्रकाश फैलाया । इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए ये एक बार फिर पटना में आए ॥४-७॥

एक दिन की बात है कि शकटाल मुनि राजा के अन्तःपुर में आहार कर तपोवन की ओर जा रहे थे। मंत्री वररुचि ने इन्हें देख लिया। सो उस पापी ने पुराने बैर का बदला लेने का अच्छा मौका देखकर नन्द से कहा-महाराज, आपको कुछ खबर है कि इस समय अपना पुराना मंत्री पापी शकटाल भीख के बहाने आपके अन्तःपुर में, रनवास में घुसकर न जाने क्या अनर्थ कर गया है। मुझे तो उसके चले जाने के बाद ये समाचार मिले, नहीं तो मैंने उसे कभी का पकड़वा कर पाप की सजा दिलवा दी होती। अस्तु, आपको ऐसे धूर्तों के लिए चुप बैठना उचित नहीं । सच है, दुर्गति में जाने वाले ऐसे पापी लोग बुरा से बुरा कोई काम करते नहीं चूकते । नन्द ने अपने मंत्री के बहकावे में आकर गुस्से से उसी समय एक नौकर को आज्ञा दी कि वह जाकर शकटाल को जान से मार आवें । सच है, मूर्ख पुरुष दुर्जनों द्वारा उकसाने पर, करने और न करने योग्य भले-बुरे कार्य का कुछ विचार न कर, अन्याय कर डालते हैं। शकटाल मुनि ने जब उस घातक मनुष्य को अपनी ओर आते देखा तब उन्हें विश्वास हो गया कि वह मेरे को ही मारने को आ रहा है और यह सब कर्म मन्त्री वररुचि का है। अस्तु, जब तक वह घातक शकटाल मुनि के पास पहुँचता है उसके पहले ही उन्होंने सावधान होकर संन्यास ले लिया। घातक अपना काम पूरा कर वापस लौट गया। इधर शकटाल मुनि ने समाधि से शरीर त्याग कर स्वर्ग लाभ किया। सच है, दुष्ट पुरुष अपनी ओर से कितनी ही दुष्टता क्यों न करे, पर उससे सत्पुरुषों को कुछ नुकसान न पहुँच कर लाभ ही होता है ॥८- १५॥

परन्तु जब नन्द को यह सब सच्चा हाल ज्ञात हुआ और उसने सब बातों की गहरी छान-बीन की तब उसे मालूम हो गया कि शकटाल मुनि का कोई दोष न था, वे सर्वथा निरपराध थे । इसके पहले जैन मुनियों के सम्बन्ध में जो उसकी मिथ्या धारण हो गई थी और उन पर जो उसका बे-हद क्रोध हो रहा था उस सबको हृदय से दूर कर वह अब बड़ा ही पछताया । अपने पाप कर्मों की उसने बहुत निन्दा की। इसके बाद वह श्रीमहापद्म मुनि के पास गया। बड़ी भक्ति से उसने उनकी पूजा- वन्दना की और सुख के कारण पवित्र जैनधर्म का उनके द्वारा उपदेश सुना। धर्मोपदेश का उसके चित्त पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने श्रावकों के व्रत धारण किए। जैनधर्म पर अब इसकी अचल श्रद्धा हो गई॥१६-१८॥

इस जीव को जब कोई बुरी संगति मिल जाती है तब तो वह बुरे से बुरे पापकर्म करने लग जाता है और जब अच्छे महात्मा पुरुषों की संगति मिलती है तब यही पुण्य-पवित्र कर्म करने लगता है। इसलिए भव्यजनों को सदा ऐसे महापुरुषों की संगति करना चाहिए जो संसार के आदर्श हैं और जिनकी सत्संगति से स्वर्ग - मोक्ष प्राप्त हो सकता है ॥१९ - २० ॥ 

इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तपरूप रत्नों की सुन्दर माला को प्रभाचन्द्र आदि पूर्वाचार्यों ने शास्त्रों का सार लेकर बनाया है, जो ज्ञान के समुद्र और सारे संसार के जीव मात्र का हित करने वाले थे । उन्हीं की कृपा से मैंने इस आराधनारूपी माला को अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार बनाया है। यह माला भव्यजनों को और मुझे सुख दे ॥२१॥

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