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८०. वृषभसेन की कथा


स्वर्ग और मोक्ष का सुख देने वाले तथा सारे संसार के द्वारा पूज्य-माने जाने वाले श्री भगवान् को नमस्कार कर वृषभसेन की कथा लिखी जाती है ॥१॥

पाटलिपुत्र (पटना) में वृषभदत्त नाम का एक सेठ रहता था। पूर्व पुण्य के प्रभाव से इसके पास धन सम्पत्ति खूब थी। उसकी स्त्री का नाम वृषभदत्ता था। उसके वृषभसेन नाम का सर्वगुण-सम्पन्न एक पुत्र था। वृषभसेन बड़ा धर्मात्मा और सदा दान-पूजादिक पुण्यकर्मों का करने वाला था ॥२-३॥

वृषभसेन के मामा सेठ धनपति की स्त्री श्रीकान्ता के एक लड़की थी। उसका नाम धनश्री था। धनश्री सुन्दरी थी, चतुर थी और लिखी - पढ़ी थी । धनश्री का ब्याह वृषभसेन के साथ हुआ था। दोनों दम्पत्ति सुख से रहते थे । नाना प्रकार के विषय-भोगों की वस्तुएँ उनके लिए सदा हाजिर रहती थी ॥४-५॥

एक दिन वृषभसेन दमधर मुनिराज के दर्शनों के लिए गया । भक्ति सहित उनकी पूजा- वन्दना कर उसने उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना । उपदेश उसे बहुत रुचा और उसका प्रभाव भी उस पर बहुत पड़ा। वह उसी समय संसार और भ्रम से सुख जान पड़ने वाले विषय-भोगों से उदासीन हो मुनिराज के पास आत्महित की साधक जिनदीक्षा ले गया । उसे युवावस्था में ही दीक्षा ले जाने से धनश्री को बड़ा दुःख हुआ । उसे दिन-रात रोने के सिवा कुछ न सूझता था। धनश्री का यह दुःख उसके पिता धनपति से न सहा गया। वह तपोवन में जाकर वृषभसेन को उठा लाया और जबरदस्ती उसकी दीक्षा वगैरह खण्डित कर दी, उसे गृहस्थ बना दिया । सच है, मोही पुरुष करने और न करने योग्य कर्मों का विचार न कर उन्मत्त की तरह हर एक काम करने लग जाता है, जिससे कि पापकर्मों का उसके तीव्र बन्ध होता है ॥ ६-८ ॥

जैसे मनुष्य को कैद में जबरदस्ती रहना पड़ता है उसी समय वृषभसेन को भी कुछ समय तक और घर में रहना पड़ा। उसके बाद वह फिर मुनि हो गया । उसका फिर मुनि हो जाना जब धनपति को मालूम हुआ तो किसी बहाने से घर पर लाकर अब की बार उसे उसने लोहे की साँकल से बाँध दिया। मुनि ने यह सोचकर, कि यह मुझे अब की बार फिर व्रतरूपी पर्वत से गिरा देगा, मेरा व्रत भंग कर देगा, संन्यास ले लिया और इसी अवस्था में शरीर छोड़कर वह पुण्य के उदय से स्वर्ग में देव हुआ। दुर्जनों द्वारा सत्पुरुषों को कितने ही कष्ट क्यों न पहुँचाये जायें पर वे कभी पापबन्ध के कारण कामों में नहीं फँसते ॥९-१२॥

दुर्जन पुरुष चाहे कितनी ही तकलीफ क्यों न दें, पर पवित्र बुद्धि के धारी सज्जन महात्मा पुरुष तो जिन भगवान् के चरणों की सेवा-पूजा से होने वाले पुण्य से सुख ही प्राप्त करेंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं ॥१३॥

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