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७५. शालिसिक्थ मच्छ के भावों की कथा


केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक और स्वयंभू श्री आदिनाथ भगवान् को नमस्कार कर सत्पुरुषों को इस बात का ज्ञान हो कि केवल मन की भावना से ही मन में विचार करने मात्र से ही कितना दोष या कर्मबन्ध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है ॥१॥

सबसे अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ी भारी दीर्घकाय मच्छ है । वह लम्बाई में एक हजार योजन, चौड़ाई में पाँच सौ योजन और ऊँचाई में ढाई सौ योजन का है। (एक योजन चार या दो हजार कोस का होता है) यहीं एक और शालिसिक्थ नाम का मच्छ इस बड़े मच्छ के कानों के पास रहता है। पर यह बहुत ही छोटा है और इस बड़े मच्छ के कानों का मैल खाया करता है। जब यह बड़ा मच्छ सैकड़ों छोटे-मोटे जल - जीवों को खाकर और मुँह फाड़े छह मास की गहरी नींद के खुर्राटे में मग्न हो जाता उस समय कोई एक-एक दो-दो योजन के लंबे-चौड़े कछुए, मछलियाँ, घड़ियाल, मगर आदि जल जन्तु, बड़े निर्भीक होकर इसके विकराल डाढों वाले मुँह में घुसते और बाहर निकलते रहते हैं तब यह छोटा सिक्थ-मच्छ रोज-रोज सोचा करता है कि यह बड़ा मच्छ कितना मूर्ख है जो अपने मुख में आसानी से आए हुए जीवों को व्यर्थ ही जाने देता है! यदि कहीं मुझे वह सामर्थ्य प्राप्त हुई होती तो मैं कभी एक भी जीव को न जाने देता। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग अपने आप ही ऐसे बुरे भावों द्वारा महान् पाप का बन्धकर दुर्गतियों में जाते हैं और वहाँ अनेक कष्ट सहते हैं । सिक्थ-मच्छ की भी यह दशा हुई वह इस प्रकार बुरे भावों से तीव्र कर्मों का बन्ध कर सातवें नरक गया क्योंकि मन के भाव ही तो पुण्य या पाप के कारण होते हैं। इसलिए सत्पुरुषों को जैन शास्त्रों के अभ्यास या पढ़ने-पढ़ाने से मन को सदा पवित्र बनाये रखना चाहिए, जिससे उसमें बुरे विचारों का प्रवेश ही न हो पाये और शास्त्रों के अभ्यास के बिना अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिए शास्त्राभ्यास पवित्रता का प्रधान कारण है ॥२-११॥

यही जिनवाणी मिथ्यात्वरूपी अंधेरे को नष्ट करने के लिए दीपक है, संसार के दुःखों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाली है, स्वर्ग- मोक्ष के सुख की कारण है और देव, विद्याधर आदि सभी महापुरुषों के आदर की पात्र है। सभी जिनवाणी की उपासना बड़ी भक्ति से करते हैं । आप लोग भी इस पवित्र जिनवाणी का शांति और सुख के लिए सदा अभ्यास मनन- चिन्तन करें ॥१२॥ 

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