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८७. कालाध्ययन की कथा


admin

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जिनका ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है और संसारसमुद्र से पार करने वाला है, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर उचित काल में शास्त्राध्ययन कर जिसने फल प्राप्त किया उसकी कथा लिखी जाती है ॥१॥

जैनतत्त्व के विद्वान् वीरभद्र मुनि एक दिन सारी रात शास्त्राभ्यास करते रहे। उन्हें इस हालत में देखकर श्रुतदेवी एक अहीरनी का वेष लेकर उनके पास आई इसलिए कि मुनि को इस बात का ज्ञान हो जाए कि यह समय शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने का नहीं है। देवी अपने सिर पर छाछ की मटकी रखकर और यह कहती हुई, कि लो, मेरे पास बहुत ही मीठी छाछ है, मुनि के चारों ओर घूमने लगी। मुनि ने तब उसकी और देखकर कहा - अरी, तू बड़ी बेसमझ जान पड़ती है, कहीं पगली तो नहीं हो गई है बतला तो ऐसे एकान्त स्थान में ओर रात में कौन तेरी छाछ खरीदेगा ? उत्तर में देवी ने कहा-महाराज क्षमा कीजिए । मैं तो पगली नहीं हूँ किन्तु मुझे आप ही पागल देख पड़ते हैं। नहीं तो ऐसे असमय में, जिसमें पठन-पाठन की मना है, आप क्यों शास्त्राभ्यास करते ? देवी का उत्तर सुनकर मुनिजी की आँखें खुलीं । उन्होंने आकाश की ओर नजर उठाकर देखा तो उन्हें तारे चमकते हुए देख पड़े उन्हें मालूम हुआ कि अभी बहुत रात है । तब वे पढ़ना छोड़कर सो गए ॥२-७॥

सबेरा होने पर वे अपने गुरु महाराज के पास गए और अपनी इस क्रिया की आलोचना कर उनसे उन्होंने प्रायश्चित्त लिया। तब से वे शास्त्राभ्यास का जो काल है उसी में पठन-पाठन करने लगे। उन्हें अपनी गलती का सुधार किए देखकर देवी उनसे बहुत खुश हुई। बड़ी भक्ति से उसने उनकी पूजा की। सच है, गुणवानों की सभी पूजा करते हैं ॥७-९॥

इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र का यथार्थ पालन कर वीरभद्र मुनिराज अन्त समय में धर्म-ध्यान से मृत्यु लाभ कर स्वर्गधाम सिधारे ॥१०॥

भव्यजनों को भी उचित है कि वे जिन भगवान् के उपदेश किए, संसार को अपनी महत्ता से मुग्ध करने वाले, स्वर्ग या मोक्ष की सर्वोच्च सम्पदा को देने वाले, दुःख, शोक, कलंक आदि आत्मा पर लगे हुए कीचड़ को धो- देने वाले, संसार के पदार्थों का ज्ञान कराने में दीये की तरह काम देने वाले और सब प्रकार के सांसारिक सुख के आनुषंगिक कारण ऐसे पवित्र ज्ञान को भक्ति से प्राप्त कर मोक्ष का अविनाशी सुख लाभ करें ॥११॥

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